१८५७ में पहली बार पूरा देश विदेशी शक्ति के विरुद्व एकजुट होकर खड़ा हुआ। महिलाएं भी इसमें पीछे नहीं रही। भारत को परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त कराने में महिलाओं ने भी पुरुषों के साथ कदम-से-कदम मिलाकर संघर्ष किया। ऐसी अमर वीरांगनाओं के बलिदान और समर्पण भावना ने विदेशी सत्ता की जड़े हिलाकर रख दीं। भारतीय नारी ने यह सिद्ध कर दिया कि भारत के इतिहास को बदलने में वह पुरुषों से पीछे नहीं है। भारतमाता की गोद में ऐसी अनेक वीर नारियों ने जन्मलिया है, जिनसे देश का मस्तक सदैव गर्व से ऊँचा उठा रहेगा। अंग्रेज इतिहासकारों ने भी भारत की इन साहसी महिलाओं की चर्चा करते हुए लिखा है ‘‘भारत की स्वतंत्रता के लिए जो क्रान्ति हुई थी, उसमें कई भारतीय नारियों ने अपने बलिदान का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया था’’ इन वीर नारियों के प्रति भारतवासी सदैव नमतस्तक रहेंगे और भारतीय इतिहास के पन्नों में इनका उल्लेख स्वर्णिम अक्षरों में अमर रहेगा कुछ ऐसी भी महिलाएँ हैं जिनका बलिदान गुमनामी के अंधेरे में खो गया है। भारत की स्वतंत्रता की मशाल लेकर कुछ करते-करते अपने प्राणों की बाजी लगा देनेवालों में झांसी की राज रानी लक्ष्मीबाई का नाम सदैव अग्रणी रहेगा। बेगम हजरत महल, बेगम जीनत महल, नर्तकी आजीजन, कुमारी मैना देवी चौधरानी, महारानी तपस्विनी, अवंतिका लोधी आदि का शौर्य, साहस और बलिदान युगों तक भारतीयों को प्रेरणा देता रहेगा।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई
लक्ष्मीबाई का जन्म १९ नबम्बर १८३५ को वाराणसी में हुआ। मनुबाई नाम की यह लड़की बचपन से ही पढ़ने-लिखने के साथ-साथ तीर-तलवार चलाने और घुड़सवारी में निपुण हो गई। १८४८ में उनका विवाह झाँसी के महाराजा गंगाधर राव के साथ हुआ और ससुराल में उनका नाम ‘लक्ष्मीबाई’ रखा गया। लक्ष्मीबाई के एक पुत्र हुआ, लेकिन तीन वर्ष का होते ही वह चल बसा। महाराज गंगाधर ने देश-वंश चलाने के उद्देश्य से अपने एक संबंधी के पुत्र दामोदर राव को गोद ले लिया। १८ वर्ष की अल्पआयु में ही लक्ष्मीबाई विधवा हो गई और उन पर दु:खों का पहाड़ टूट पड़ा। लार्ड डलहौजी का उस समय ‘राज्य हड़प’ अभियान चल रहा था, जिसके तहत फिरंगी शासन दत्तक पुत्र को मान्यता नहीं देता था तथा लावारिस राज्य को हस्तगत कर लेता था। झांसी में भी अंग्रेजों ने दामोदर राव को महाराज गंगाधर राव का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और झांसी के दुर्ग पर अपना झंडा फहरा दिया। रानी लक्ष्मीबाई ने इससे उद्विग्न होकर हार नहीं मानी और वीरतापूर्वक घोषणा की ‘‘झांसी मेरी है, भले ही मुझे अपने प्राण देने पड़े पर मैं झांसी पर अंग्रेजों का राज नहीं होने दूंगी।’’ रानी अंग्रेजों के हाथों से झांसी छीनने के लिए गुप्त तैयारियाँ करने लगी। वे १८५७ की क्रान्ति के दिन थे। भारत के कोने-कोने में विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी थी। १८५७ की ४ जून को झांसी में भी विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी और क्रान्तिकारी सैनिकों ने अंग्रेजों को वहाँ से मार भगाया। ८ जून को रिसालदार काले खाँ ने दामोदर राव को राज्य का वैध उत्तराधिकारी घोषित कर झांसी लक्ष्मीबाई को सौंप दी। रानी राजसिंहासन पर बैठकर प्रजा की भलाई के कार्यों में लग गई। किन्तु, थोड़े ही समय के बाद ओरछा के दीवान नत्थे खाँ ने बीस सहस्त्र सैनिकों को लेकर झांसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने युद्ध के मैदान में उसे ऐसा सबक सिखाया कि वह अंग्रेजों की शरण में पहुंच गया। अंग्रेजों ने रानी को भी विद्रोही घोषित कर दिया। अंग्रेजों ने किले के ऊपर अपना झंडा गाड़ने के बार-बार प्रयत्न किये, लेकिन रानी ने ऐसा नहीं होने दिया। अंग्रेजों ने पुन: दुर्ग पर चौतरफा आक्रमण कर दिया। रानी ने हिम्मत नहीं हारी और अंग्रेजों का मुकाबला करते हुए अदम्य साहस और शौर्य का परिचय दिया। रानी ने अंग्रेजों के साथ घमासान युद्ध किया और दुर्गा की भांति प्रचंड बनकर मारकाट करती हुई अंग्रेजों के घेरे को तोड़कर अपने पुत्र के साथ बाहर निकल आई। रानी भागकर कालपी पहुँच गई और नाना साहब और तात्या टोपे से जा मिली। तीनों ने मिलकर ह्यूरोज को सबक सिखाने का फैसला किया और ग्वालियर की ओर बढ़े। वहाँ वे हयूरोज का मुकाबला करने की तैयारी में लग गये। ह्यूरोज रानी को जिन्दा पकड़ना चाहता था। इसलिए दूसरे दिन लड़ाई में उलझाकर उसने रानी को नाना साहब और तात्या टोपे से दूसरे छोर पर पहुंचा दिया। रानी जबतक इस चाल को समझती, समय हाथ से निकल चुका था। रानी ने फिरंगी फौज को चीरते हुए सरपट निकलने का प्रयास किया और इसमें वह सफल भी हुई, लेकिन मार्ग में एक नाले को उसका नया घोड़ा पार न कर सका। पीछा करते फिरंगियों में से एक ने रानी के सिर पर तलवार से वार किया। मरते-मरते भी रानी ने उस फिरंगी को खत्म कर दिया। उनके अन्तिम शब्द थे कि ‘‘अंग्रेज उनके शरीर को हाथ न लगाएं।’’ रानी के अंगरक्षकों ने उसका शव पास ही एक साधुकी कुटिया में ले जाकर अन्तिम संस्कार कर दिया। रानी की बहादुरी और शहादत युगों तक प्रेरणा देती रहेगी।
बेगम हजरत महल
भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के बाद जो प्रमुख नाम उभर कर सामने आता है, वह है-बेगम हजरत महल। नवाब वाजिद अली शाह से विवाह से पूर्व वह एक नर्तकी थी औश्र बाद में उनकी सर्वाधिक सम्मानित बेगम। कोई सोच भी नहीं सकता था कि यह नर्तकी एक दिन इतनी बुद्धिमान, कुशल और प्रखर योद्धा सिद्ध होगी। १८५७ के स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान पूरे देश में ही विद्रोह की आग फैल गई थी। लेकिन उत्तर भारत में अवध क्षेत्र में लपटें सबसे ऊँची थी। लखनऊ में क्रान्ति का ध्वज बेगम हजरत महल के हाथ में था। अंग्रेजों ने अवध को हड़पने के लिए नवाब वाजिद अली शाह को राजकाज के अयोग्य घोषित कर दिया और अवध का शासन अपने हाथ में लेने के लिए नवाब से एक नई संधि करनी चाही। लेकिन, बेगम हजरत महल की प्रेरणा से उन्होंने इस दुरभिसंधि पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया। इस पर नवाब को कलकत्ता ले जाकर नजरबंद कर दिया गया। इससे बेगम हजरत महल का जो भाग्य सितारा डूबा था, वह ५ जुलाई १८४७ को लखनऊ में अंग्रेजों की हार से फिर चमक उठा। अपने ग्यारह वर्षीय पुत्र विरजिस कादर को अवध का नवाब घोषित कर हजरत महल ने ‘‘जनाबे आलिया’’ का खिताब हासिल कर लिया और और राजकाज स्वयं देखने लगी। सल्तनत हाथ में आते ही बेगम ने बेगम कोठी को फौजी मुख्यालय बना लखनऊ के सभी मोर्चों को मजबूत करना शुरू कर दियां उन्होंने दिल्ली के बादशाह के नाम स्वतंत्रता का संदेश भिजवाया और मुक्ति सेना तैयार की जिसमें महिलाएं भी शामिल थी। उनके फरमानों से लोगों में नया जोश और उत्साह भर गया। हजरत महल ने लखनऊ की इतनी बड़ी सुरक्षा व्यवस्था की थी कि तीन फिरंगी फौजी टुकड़ियाँ मिलकर भी लखनऊ में प्रवेश न कर सकीं। पर घर के भेदिये अवध के मोर्चों का सारा हाल दुश्मनों तक पहुंचाने में लगे थे। इसलिए सफलता संदिग्ध होने लगी। बेगम हजरत महल अपनी सेना के हौसले बुलंद रखने के लिए स्वयं युद्ध क्षेत्र में उतरी। बेगम बड़ी वीरता से लड़ी। पर अंतत: लखनऊ उनके हाथ से निकल ही गया। बेगम हजरत महल और उनके सेनापति अहमदशाह ने लखनऊ में अंग्रेजों के घेरे से सुरक्षित बाहर निकल कर अन्य कई जगहों पर युद्ध जारी रखा। लखनऊ से नेपाल सीमा तक पहुंचने के अपने प्रवास काल में हजरत महल को जगह-जगह पड़ाव डालने पड़े। कुछ लोगों ने उनका स्वागत किया, कुछ ने अंग्रेजों के हमले के भय से उनके साथ बेरूखी दिखाई। बेगम को बेहद तकलीफे और अपमान सहना पड़ा, पर उन्होंने हार नहीं मानी। यद्यपि नेपाल में बसने की स्वीकृति भी उन्हें बड़ी मुश्किल से मिली, पर उन्होंने हिन्दुस्तान में अंग्रजों की गुलामी में रहकर ऐशो-आराम की जिन्दगी बिताने की बजाए, वतन से बाहर मामूली हैसियत से रहना ही अधिक सम्माननीय समझा। बेगम हजरत उन गिनी-चुनी बहादुर नारियों में से एक थी जो अपनी सूझबूझ, वीरता, संगठन, क्षमता और रणकुशलता के कारण अन्तिम दम तक अंग्रेजों के लिए सिरदर्द बनी रहीं।
बेगम जीनत महल
दिल्ली के अन्तिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर इस स्वतंत्रता संग्राम के एक ऐसे क्रांति नायक थे, जिन्हें अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाने के लिए प्रेरित किया उनकी बेगम जीनत महल ने। अंग्रेजी सेना ने लालकिले को घेरकर बहादुरशाह जफर और उनकी बेगम को गिरफ्तार कर लिया। दोनों पर देशद्रोह का मुकद्दमा चलाया गया और उन्हें वापस लाकर लालकिले में नजरबन्द कर दिया गया। दिल्ली में क्रांतिकारी सैनिकों का नेतृत्व उनके दोनों लड़के कर रहे थे। उनके सिर काटकर, रेशमी रूमाल से ढके एक थाल में रखकर लालकिले में बंदी बूढ़े बाप को यह तोहफा पेश किया गया। बेटों के कटे सिर देखकर वृद्ध बहादुरशाह पर क्या बीती होगी-इसका अनुमान लगाया जा सकता है। बेगम जीनत महल ने सुना तो कुछ क्षण के लिए वे सदमे से खामोश हो गई। पर जैसे वह जानती थीं कि आजादी की लड़ाई की कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी, इसलिए वे अधिक विचलित नहीं हुई। आखिर उन्हीं की प्रेरणा से यह लड़ाई लड़ी गई थी। बेगम के मन में राष्ट्रहित और अपने युद्धरत सैनिकों के साथ स्नेह संवेदन का भाव ही सर्वोपरि था। एक ओर वह राष्ट्रचिंतन में डूब योजनाएं बनाती थी, बादशाह को सलाह-मशविरा देती, दूसरी ओर अपने सिपाहियों के लिए हर सुख-सुविधा का प्रबन्ध करती। आजादी के इतिहास में जीनत महल की प्रेरणा ने उन्हें अमर बना दिया।
नर्तकी अजीजन
मेरठ और दिल्ली के बाद लड़ाई का मुख्य केन्द्र कानपुर था। कानपुर के किले पर नाना साहब और अंग्रेजों में जब जमकर लड़ाई हुई, तो उस समय कानपुर की सामान्य स्त्रियां भी घरों से निकलकर सैनिकों की सहायता के लिए आ जुटी थीं। इनमें नर्तकी अजीजन का नाम इतिहास के पृष्ठों पर सदा अमर रहेगा, जिसने अपनी विलासिता की जिन्दगी छोड़कर राष्ट्र-सेवा का व्रत लिया और क्रांति सैनिकों की सहायतार्थ युद्धभूमि में आ डटी। तात्या टोपे के आदेश से एक ओर वह अपनी मंडली के साथ अंग्रेजों की सैनिक छावनी में नृत्य-संगीत से उनका मनोरंजन कर खुफिया तौर पर उनकी खबरें लाती थी, दूसरी ओर मर्दाना भेष में देश भक्त सैनिकों की मदद करती थी। अजीजन बगल में हथियार लटकाए, हाथ में नंगी तलवार लिये घोड़े पर सवार, बिजली की तरह दौड़ती हुई शहर की गलियों और छावनी के बीच चक्कर काटती थी। कभी घायल सिपाहियों को भोजन व दवा बांटती तो कभी किले के नीचे लड़ने वालों को रसद और हथियार पहुँचाती और उनके हौसले बुलन्द करती। अजीजन ने कई स्त्रियों को प्रशिक्षण देकर एक ‘मस्तानी मंडली’ का नेतृत्व किया। इस संगठित महिला टुकड़ी की हर स्त्री ने सैनिक वेश में वीरता का परिचय दिया। लेकिन, अजीजन अधिक दिन तक आजाद न रह सकी और स्वतंत्रता प्रेमियों पर अंग्रेजों का जो दमन चक्र चला, उसमें वीर नृत्यांगना अजीजन भी शत्रुओं के हाथ पड़ गई। अजीजन के सामने विकल्प रखा गया कि वह क्षमा मांग ले और अंग्रेजों के शिविर में सेवा के लिए तैयार हो जाए तो उसे बख्श दिया जायेगा अन्यथा मृत्यु दण्ड दिया जायेगा। देश प्रेमी अजीजन ने मौत को स्वीकार किया और क्रांति के इतिहास में अमर हो गई। कुमारी मैना स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगनाओं में नाना साहब की अल्पवयस्क दत्तक बेटी मैना को नहीं भुलाया जा सकता। चिता में जिन्दा जलाए जाने के बावजूद उसने अपने साथियों के बारे में जानकारी देने से इन्कार कर दिया और बिना चीखे-चिल्लाए स्वतंत्रता की रक्षा की वेदी पर बलि चढ़ गई। इस वीरांगना की दर्दभरी दास्ता रोंगटे खड़े कर देने वाली है। क्रांतिकारियों ने कानपुर की गद्दी पर नाना साहब को आसीन किया। क्रांतिकारी उनके सामने कई गोरी स्त्रियों और बच्चों को पकड़कर लाये कि नाना साहब उन्हें दण्ड दें। पर उन्होंने यह कहते हुए कि निहत्थे स्त्री-बच्चों को मारना कायरता ही नहीं पाप भी है, उन्हें अपनी बेटी मैना को सौंप दिया कि वह उन्हें सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दे और स्वयं बिठूर की ओर कुंच कर गये। मैना शरणागतों को लेकर एक अंगरक्षक माधव के साथ गंगातट तक पहुंची, जहाँ उसे खबर मिली कि अंग्रेज कानपुर में महिलाओं की इज्जत के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं और दूधमुहे बच्चों तक को नहीं बख्श रहे हैं। मैना का खून खौल उठा। वह फिरंगियों से बदला लेने की सोच ही रही थी कि उसे अपने पिता का आदेश याद आ गया कि शरणागतों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाना। अंग्रेज वहीं पहुंच गये और उन्होंने माधव को मारकर मैना को गिरफ्तार कर लिया। मैना से स्वतंत्रता सेनानियों का पता जानने के लिए उसे पेड़ से बाँध कर भयंकर यातनाएं दी गई। जिन्दा चिता में जलाया गया और आधा जला शरीर निकालकर फिर पूछताछ की। लेकिन उसने अपना मुंह नहीं खोला। मैना चिता में जिन्दा जल गई और अंग्रेजों को बता गई कि भारतीय युवतियाँ भी किसी से पीछे नहीं हैं। भारत को अपनी इस बहादुर बेटी पर सदा गर्व रहेगा।
महारानी तपस्विनी
महारानी तपस्विनी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की भतीजी और उनके एक सरदार पेशवा नारायणराव की पुत्री थी। उन्होंने सांसारिक मोहमाया का त्याग कर पूजा-पाठ में ही लीन रहने वाले साधु-संन्यासियों को धर्म भ्रष्ट करने वाले और भारतीयों को गुलाम बनाने वाले अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने के लिए प्रेरित किया और उनके हाथ में अस्त्र-शस्त्र पकड़ाए। बाल-विधवा होने के बावजूद उन्होंने योगासन के साथ-साथ शस्त्र चालन और घुड़सवारी का भी प्रशिक्षण लिया। देश-प्रेम और पेशवा खानदान का प्रभाव उन्हें विरासत में मिला था। अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने की इच्छा ने उन्हें शस्त्र विद्या में निपुण बनाया। उन्होंने विद्रोह का प्रतीक ‘लाल कमल’ देकर क्रांतिकारी साधुओं का दल बनाया, जो लोगों को अंग्रजों के विरुद्ध क्रांति के लिए तैयार करता था। उनके दल के साधु पूरी तरह अस्त्र-शस्त्र से लैस थे। युद्ध के समय वह स्वयं घोड़े पर सवार हो मुठभेड़ों से जूझते हुए सारी व्यवस्था का निरीक्षण करती थी। लेकिन, अंग्रेजों की शक्ति के आगे इन छापामार साधुओं का विद्रोह असफल हो गया और अंग्रेज जासूस महारानी तपस्विनी के पीछे लग गये। वह नाना साहब के साथ नेपाल चली गई। लेकिन वहाँ भी वह निष्क्रिय नहीं रही और वहाँ अंग्रेजों के खिलाफ देश-प्रेम की भावना पैदा की। किसी तरह वह दरभंगा होती हुई कलकत्ता पहुँच गई। जबतक वह जीवित रही, क्रांति योजना की बार-बार असफलता के बाबजूद उसे जारी रखा। उनका अधूरा सपना बंगाल के क्रांतिकारियों ने पूरा किया। १८५७ का विद्रोह असफल हो जाने के बाद भी देर तक क्रांति ज्वाला को जलाये रखनेवाली महारानी तपस्वनी का नाम भारत के क्रांतिकारियों में अग्रणी रहेगा।
अवन्तिका बाई लोधी
मध्य प्रदेश के मंडला जिले में कस्बा रामगढ़ है। स्वतंत्रता संग्राम के समय रामगढ़ एक छोटी रियासत थी, जिसके अन्तिम शासक राजा लक्ष्मण सिंह की १८५० में मृत्यु हो गई। उनका पुत्र विक्रमजीत गद्दी पर बैठा, पर बाद में मानसिक रोग से ग्रस्त हो जाने के कारण अल्प समय ही शासन कर सका। अंग्रेजों की विस्तारवादी नीति छोटे-छोटे राज्यों को हड़पने के मौकों की तलाश में रहती थी। अंग्रेज अधिकारियों ने राज्य परिवार को पेंशन देकर वहाँ एक तहसीलदार की नियुक्ति कर दी। रामगढ़ की अवन्तिका बाई ने इसका बहुत विरोध किया लेकिन सफल न हुई। १८५७ की क्रांति के दौरान उन्होंने भी अंग्रजों के खिलाफ विद्रोह की आवाज उठाई और तहसीलदार को बर्खास्त कर राज्य की बागडोर अपने हाथ में ले ली। यह पताचलने पर जबलपुर के कमिश्नर ने उन्हें पत्र लिखकर मांडला के डिप्टी कलेक्टर से मिलने का आदेश दिया, जिसकी रानी ने अवहेलना कर दी। बिना डरे या झुके उन्होंने युद्ध की तैयारियाँ शुरू कर दीं और सेना संगठन को मजबूत किया। सहायता के लिए आसपास के राज्यों और जमींदारों को भी आंमत्रित किया। इन गतिविधियों की खबर सुनकर अप्रैल १८५८ को ब्रिटिश सेना ने रामगढ़ की ओर कूच किया व किले को घेर लिया। रानी को लालच व धमकियां दी गई। परन्तु वह सेना का नेतृत्व स्वयं सम्भालती हुई युद्ध मैदान में आ डटी। जान माल की हानि होने के बाबाबजूद रानी अपने सैनिकों के साथ वीरता से लड़ी। अपने बचे हुए सैनिकों को लेकर वह जंगल में जा छिपी और वहाँ से ब्रिटिश फौज के ठिकानों पर हमले शुरू कर दिये। रानी को आशा थी कि रींवा राज्य के क्रांतिकारी सैनिकों की मदद पहुँच जाने पर वह अपना रामगढ़ वापस ले लेगी। पर वे लोग उसे धोखा देकर बीच में ही अंग्रेजों से मिल गये और युद्ध में रानी की स्थिति खराब हो गई। अंग्रेजों के हाथ पड़ने से बचने के लिए उसने एक सरदार से तलवार लेकर अपने जीवन को समाप्त कर लिया। देशभक्ति के लिए बलिदान होने वाली इस रानी की शौर्य गाथा अविस्मरणीय बनी रहेगी।
देवी चौधरानी
देवी चौधरानी बंगाल के उन वीर योद्धाओं की नेता थी, जिनका एकमात्र लक्ष्य अपने देश को अंग्रेजों से स्वतंत्र कराना था। अपनी बहादुरी के कारण वह लोगों में प्रसिद्ध थी। उनके दल ने जमींदारों और अमीरों को लूटकर देशभक्त योद्धाओं की अपनी सेना के लिए धन एकत्रित किया। वह अग्रेजों को लूटते और अंग्रेज सिपाही उनका कुछ न बिगाड़ पाते। लार्ड हेस्ंिटग समझते थे कि कोई पुरूष स्त्री नाम से यह सारे कारनामे कर रहा है। उसने अंग्रेजों के साथ बड़ी वीरता से युद्ध किया और अनेक अंग्रेज सैनिकों को मौत के घाट उतारा। भारतमाता की रक्षक इस नारी को उसके अनुयायी देवी के नाम से पुकारते थे। कोई नहीं जानता कि वह कहाँ से आयी थी और कहाँ लुप्त हो गई पर अपना नाम अमर कर गई। १८५७-५८ के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में देश के विभिन्न भागों से अनेक वीरांगनाओं ने भाग लिया और अपने शौर्य और साहस का अनूठा उदाहरण प्रस्तु किया। कितने ही नाम ऐसे हैं जो इतिहास के पन्नों में कहीं दबकर रह गये, किन्तु उनके बलिदान को भुलाया नहीं जा सकता। अनगिनत वीरांगनाओं ने अपना बलिदान देकर इस देश को पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त कराया है।