दशाब्दियों तक विदेशी विद्वानों एवं इतिहासकारों ने भारत को ‘मदारियों एवं अशिक्षितों का देश’ कहकर यहाँ की संस्कृति एवं सभ्यता को अनपढ़—गँवारों की संस्कृति के रूप में प्रचारित किया। फिर सौभाग्य से सिन्धु घाटी के क्षेत्र में अनुसन्धान एवं उत्खनन करने पर ‘हड़प्पा’ एवं मो—अन— जो -दड़ो’— इन दो स्थानों पर प्राचीन सांस्कृतिक अवशेष मिले, जो कि यहाँ के निवासियों को सुशिक्षित एवं सुसंस्कृत सिद्ध करते थे। सिन्धु सभ्यता के अवशेषों के आधार पर पर्याप्त ऊहापोह के बाद सम्पूर्ण विश्व को एकमत से स्वीकार करना पड़ा कि भारतवर्ष में प्रागैतिहासिक काल से ही सुरम्य एवं सुशिक्षित लोगों का निवास था उनका रहन—सहन, बोलचाल एवं ज्ञान—विज्ञान हमारी कल्पना से कहीं अधिक उन्नत एवं सुव्यवस्थित था।
सिन्धु सभ्यता के बारे में दशकों तक समर्पित होकर शोध—खोज करने वाले विद्वान बिहार प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी श्री निर्मल कुमार वर्मा ने अपनी सुविख्यात कृति ‘डेसीफर्मेंट ऑफ इण्डस स्क्रिप्ट’ में उत्खनन में प्राप्त सिन्धु सभ्यता के अभिलेखों का सूक्ष्म अध्ययन करने के उपरान्त स्पष्ट रुप से सिद्ध किया है कि ‘सिंधु सभ्यता के लोगों की भाषा प्राकृत भाषा थी। वे प्राकृतभाषा में न केवल बोलते थे अपितु लिखते भी थे।’ इससे निर्ब्याज रुप से सिद्ध है कि प्राकृतभाषा प्रागैतिहासिक काल से ही इस देश में न केवल बोलचाल की भाषा रही अपितु साहित्य का माध्यम भी रही है। प्राकृत भाषा के बारे में कतिपय लोगों ने ऐसा भ्रम फैलाया कि ‘संस्कृत के विद्वान प्राकृतभाषा का विरोध करते रहे हैं’ किन्तु प्राप्त प्रमाणों का अवलोकन करने पर हम पाते हैं कि संस्कृत के साहित्य में विशेषत: भास एवं कालिदास के नाटकों में प्राकृतभाषा का प्रचुर प्रयोग किया गया है, न केवल नाट्य साहित्य में अपितु ‘कुमारसम्भवम्‘ जैसे महाकाव्य में भी उन्होंने प्राकृतभाषा के महत्व को महिमामंडित किया है तथा सरस्वती द्वारा शिवजी की स्तुति ‘संस्कृत भाषा’ द्वारा एवं माँ पार्वती की स्तुति ‘प्राकृतभाषा’ के माध्यम से करायी है।
वैदिक युग में प्राकृतभाषा का पर्याप्त प्रभाव था अतएव ‘ऋग्वेद’ आदि महान् ग्रन्थों में भी अनेकों ऋचाओं में प्रचुर परिमाण में प्राकृतभाषा के शब्दोें का प्रयोग प्राप्त होता है। यह वैदिक ऋषियों की उदार दृष्टि एवं सहिष्णुता का परिचायक है। यह सत्य है कि वैदिक युग के बाद सुशिक्षित वर्ग में साहित्यिक प्रयोग के लिए मात्र संस्कृत भाषा ही आदर्श मानी गयी किन्तु लोक जीवन में एवं लौकिक—दार्शनिक साहित्य में प्राकृत भाषा समानान्तर रुप से निरन्तर प्रवाहमान रही। प्राकृतभाषा के बारे में जो ‘बाल—स्त्री—मूर्खाणां’ वाक्य कहा गया, वह वाक्य ‘नाटकों में प्राकृत किन पात्रों द्वारा विशेषत: व्यवह्रत होती थी’— इस तथ्य का निर्देश करने के लिए था किन्तु विघ्नसंतोषियों ने उसकी व्याख्या इस प्रकार कर दी कि ‘संस्कृत वाले अपनी भाषा को श्रेष्ठ मानते थे एवं प्राकृतभाषा को ‘मूर्खों की भाषा समझते थे।’’
जबकि प्राय: सभी प्रमुख संस्कृतज्ञों ने प्राकृतभाषा को पर्याप्त महत्व एवं सम्मान दिया है। कतिपय बानगियाँ द्रष्टव्य हैं।—
(१) महान् वैयाकरण आचार्य पाणिनि लिखते हैं कि स्वयं स्वयंभू—ब्रहा संस्कृत एवं प्राकृत—दोनों भाषाओं मेें बोलते थे— ‘‘संस्कृते प्राकृते चापि स्वयं प्रोक्ता स्वयम्भुवा।’’ (पाणिनीय शिक्षा, ३)
(२)‘मल्लपुराण’ (३/१२) के अनुसार नारायण श्रीकृष्ण भी प्राकृतभाषा का प्रयोग करते थे— ‘‘तत्रादौ तावदुच्यन्ते नि:शेषा ज्येष्ठिनां गुणा:। संस्कृत—प्राकृताभ्याञ्च ततो लौकिकभाषया।।’’
(३) ‘वाराही संहिता’ (८६/३) के अनुसार गर्ग आदि सप्तर्षि भी संस्कृत एवं प्राकृत— दोनों भाषाओं का व्यवहार करते थे— ‘‘सप्तर्षीणां मतं यच्च संस्कृतं प्राकृतञ्च यत्। यानि चोक्कानि गर्गाद्यैर्यात्राकारैश्य।।’’
(४) ‘नाट्यशास्त्र’ के प्रणेता भरतमुनि भी प्राकृत सीखने—पढ़ने की प्रेरणा देते हुए लिखते हैं— विमेयं प्रकृतं पाठ्य नानावस्थान्तरात्मकम्।
(५)महर्षि दयानन्द ने भी ‘ऋृग्वेदादि भाष्य भूमिका’में उल्लेख किया है कि मंत्रों में संस्कृत एवं प्राकृत दोनों भाषाओं का प्रयोग है—
महाकवि गोस्वामी तुलसीदास ने भी अपनी अमरकृति ‘रामचरित मानस’ की रचना प्राकृतभाषा निबद्ध रामकथा ग्रन्थों के आधार पर की थी तभी उन्होंने प्राकृत के कवियों की महत्ता को स्वीकार करते हुए ‘रामचरित मानस’ के ‘बालखण्ड’ में निष्पक्ष होकर लिखा है— ‘‘जे प्राकृत—कवि परमसयाने,भाषों जिन हरिचरित बखाने। भये जे अहहिं जे होंहहि आगे, प्रनवहुं सबहिं कपट सब त्यागे।।’’चूँकि प्राकृतभाषा जनभाषा से प्रवाहशील भाषा थी अतएव वैदिककाल से लेकर सोलहवीं शताब्दी ई. तक उसमें अनवरत काव्यसृजन हुआ तथा गोस्वामी तुलसीदास जी ने प्राकृतभाषा के इसी ‘चिरयौवना’ स्वरूप को परिलक्षित करके लिखा है कि प्राकृत के कवि आज भी विद्यमान हैं, एवं आगे भी प्राकृत के कवि साहित्यकार होते रहेंगे।
भाषाविदों ने सम्पूर्ण भारतीय भाषाओं का उद्भव एवं विकास विभिन्न क्षेत्रीय प्राकृत भाषाओं के द्वारा स्वीकार किया है—यह प्राकृत भाषा के मातृभाषारूप की घोषणा है। प्राकृतभाषा का जनजीवन पर इतना व्यापक प्रभाव था कि मूल संस्कृत में ही बोलने—लिखने वाले महाज्ञानी जगदगुरु आदि—शंकराचार्य ने भी ईश्वर का प्राकृत नाम ‘गोविन्द’ (संस्कृत—गोपेन्द्र) पद अपने काव्य में प्रयोग किया है। जब प्रश्न आया कि विविध प्राकृतों का उद्भव कहाँ से हुआ? तो प्राकृत वैयाकरणों ने मुक्त स्वर से घोषणा की कि ‘प्रकृति:शौरसेनी’’— अर्थात् अन्य समस्त प्राकृतों का मूलस्रोत शौरसेनी प्राकृत है, जिसे प्राचीनकाल में सामान्य ‘प्राकृत’ के नाम से अभिहित किया जाता है। धर्म—दर्शन—ज्योतिष—वैद्यक—खगोल—भूगोल—छन्दशास्त्र—मंत्रशास्त्र—वास्तुविद्या—कला—साहित्य—संस्कृति—इतिहास एवं ज्ञान विज्ञान के सभी अंगों पर प्राकृतभाषा के विपुल साहित्य भण्डार में अनेकों ग्रन्थ विद्यमान हैं। कमी मात्र उनके अन्वेषकों एवं पहचान करने वाले विद्वान की है। इसकी पूर्ति हम सबका दायित्व है।