[[श्रेणी:02.द्वितीय_अधिकार]] ==
आत्मा का जो परिणाम हुआ, कर्मों का आस्रव रोकन में।
हेतू होता वह कहा भाव, संवर जावे जिनवर वच में।।
जो द्रव्यास्रव के रोधन में, कारण होता है श्रुतख्याता।
वह कहा द्रव्य संवर जाता, इन दोनों से भव नश जाता।।३४।।
आत्मा का जो परिणाम कर्मों के आस्रव के रोकने में कारण है वह परिणाम ही भावसंवर है और द्रव्यास्रव के रोकने में जो कारण है वह द्रव्य संवर कहलाता है। निश्चयनय से यह आत्मा स्वयं सिद्ध होने से अन्य कारणों की अपेक्षा से रहित है, अविनाशी होने से नित्य है, परम प्रकाश स्वभाव होने से स्व-पर प्रकाशन में समर्थ है, अनादि-अनंत होने से आदि, मध्य और अन्त रहित है। देखे, सुने और अनुभव किये हुए भोगों की आकांक्षा रूप निदान बंध आदि समस्त रागादिक विभाग मल से रहित होने के कारण अत्यन्त निर्मल है, परम चैतन्यविलास लक्षण का धारक होने से चित्- चमत्कार स्वरूप है, स्वाभाविक परमानंद स्वरूप होने से सब कर्मों के रोकने में कारण है, ऐसा यह शुद्ध आत्मा परमात्मस्वरूप है। उस परमात्मा के स्वभाव से उत्पन्न हुआ जो शुद्ध चेतन परिणाम है सो भावसंवर है और कारण रूप भावसंवर से उत्पन्न हुआ जो कार्यरूप नवीन द्रव्यकर्मों का आना रुक जाना सो द्रव्यसंवर है। संवर के विषय में नयों की अपेक्षा घटाते हैं- मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान तक ऊपर-ऊपर मंदता के तारतम्य से अशुद्ध निश्चयनय वर्तता है और उसके मध्य में गुणस्थानों के भेद से शुभ-अशुभ और शुद्ध अनुष्ठानरूप तीन योगों का व्यापार रहता है। मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्र इन तीनों गुणस्थानों में ऊपर-ऊपर मंदता से अशुभ उपयोग रहता है। उसके आगे असंयत सम्यग्दृष्टि श्रावक और प्रमत्त नामक जो तीन गुणस्थान हैं, इनमें परम्परा से शुद्ध उपयोग या साधक ऐसा शुभ उपयोग रहता है अर्थात् चौथे, पाँचवें और छठें में शुभोपयोग तरतमता से है। तदनंतर अप्रमत्तविरत नामक सातवें गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय तक छह गुणस्थानों में जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद से विवक्षित एकदेश शुद्धनयरूप शुद्धोपयोग वर्तता है। आगे तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में पूर्ण शुद्धनय रूप शुद्धोपयोग है अथवा शुद्धोपयोग का फल है। इनमें से मिथ्यादृष्टि नामक प्रथम गुणस्थान में तो संवर है ही नहीं और सासादन आदि गुणस्थानों में बंध व्युुच्छेद त्रिभंगी में कहे हुए कर्म के अनुसार ऊपर-ऊपर के गुणस्थानों में अधिकता से संवर होता है। उसका स्पष्टीकरण ऐसा है कि- ‘मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थान में क्रम से १६, २५, ०, १०, ४, ६, १, ३६, ५, १६, ० और ० (शून्य) प्रकृतियों की बंधव्युच्छित्ति होती है।१’ पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में जिन सोलह प्रकृतियों की बंधव्युच्छित्ति हो गई है आगे सासादन गुणस्थान में उनका बंध न होने से संवर माना जाता है। आगे-आगे इन प्रकृतियों का बंध रुक जाना ही द्रव्यसंवर है। इन प्रकृतियों के नाम आदि गोम्मटसार कर्मकाण्ड में देखने चाहिए। इस प्रकार से यहाँ पर अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि आदि बारह गुणस्थानों में अशुभ, शुभ और शुद्धरूप तीनों उपयोगों को घटित कर दिखाया है।
प्रश्न – इस अशुद्ध निश्चयनय में शुद्ध उपयोग किस प्रकार हो सकता है ?
उत्तर – शुद्धोपयोग में शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव का धारक जो स्व-आत्मा है वह ध्येय होता है। इस कारण शुद्ध ध्येय होने से, शुद्ध अवलंबन होने से तथा शुद्ध आत्मस्वरूप का साधक होने से शुद्धोपयोग सिद्ध होता है। वह शुद्धोपयोग संसार के कारणभूत मिथ्यात्व, राग आदि अशुद्ध पर्यायों की तरह अशुद्ध न होने से ‘संवर’ इस शब्द से कहा जाता है। इस कारण ही वह अशुद्ध नहीं है तथा फलभूत केवलज्ञानस्वरूप शुद्ध पर्याय की तरह शुद्ध भी नहीं है किन्तु उन अशुद्ध और शुद्ध दोनों पर्यायों में विलक्षण शुद्धात्मा के अनुभव स्वरूप निश्चय रत्नत्रयमय है, मोक्ष का कारण है और वह एकदेश में प्रकट रूप तथा एकदेश में निरावरण ऐसी तीसरी अवस्थान्तर रूप कहा जाता है। यहाँ तात्पर्य यही है कि आत्मा के जिन परिणामों से कर्मों का आना रुक जाता है, वही भावसंवर है। यह भावसंवर मुनियों के ही होता है। गृहस्थों के मात्र जिनपूजा, गुरुभक्ति आदि के समय अशुभ कर्मों का आना ही रुकता है। इस दृष्टि से उनके अशुभ कर्मों का संवर कहा जाता है। अब किन-किन कारणों से संवर होता है, सो ही देखिए-
व्रत पाँच समिति भी पाँच गुप्ति, हैं तीन धर्म दशरूप कहे।
अनुप्रेक्षा बारह परिषहजय, बाईस सु चारित पाँच कहे।।
ये कहे भावसंवर जिनने, सब बासठ भेद समझ लीजे।
इनके पालन से आत्मा में, कर्मास्रव का रोधन कीजे।।३५।।
व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र ये बहुत प्रकार के भावसंवर के विशेष– भेद जानना चाहिए। यहाँ पर व्रत से महाव्रत ५, समिति ५, गुप्ति ३, धर्म १०, अनुप्रेक्षा १२, परीषहजय २२ और चारित्र ५ ये सब मिलकर ६२ भेद भावसंवर के होते हैं। अन्यत्र ग्रंथ में संवर के १०८ भेद भी माने हैं। यथा- ३ गुप्ति, ५ समिति, १० धर्म, १२ अनुप्रेक्षा, २२ परीषह, १२ तप, ९ प्रायश्चित्त, ४ विनय, १० वैयावृत्य, ५ स्वाध्याय, २ व्युत्सर्ग, १० धर्मध्यान और ४ शुक्लध्यान ये (३ + ५ + १० + १२ + २२ + १२ + ९ + ४ + १० + ५ + २ + १० + ४ = १०८) एक सौ आठ भेद संवर के होते हैं२। ये सब संवर के भेद महामुनियों के ही होते हैं। संवर के अनंतर होने वाली निर्जरा के पश्चात् मोक्ष की प्राप्ति होती है।