पांचाल प्राचीनकाल से ही प्रसिद्ध रहा है। यह इन्द्रप्रस्थ से तीस योजन दूरी पर कुरुक्षेत्र से पश्चिम और उत्तर में अवस्थित था। पांचाल जनपद तीन भागों में विभक्त था (१) पूर्व पांचाल, (२) उत्तर पांचाल, और (३) दक्षिण पांचाल। महाभारत के अनुसार दक्षिण और उत्तर पांचाल के बीच गंगा नदी की सीमा थी। वर्तमान एटा और फरुखाबाद जिले दक्षिण पांचाल में थे। वर्णनों से ज्ञात होता है कि उत्तर पांचाल के पूर्व और अपर दो भाग थे। दोनों को रामगंगा विभक्त करती थी। अहिक्षत्र उत्तरी पांचाल तथा काम्पिल्य दक्षिणी पांचाल की राजधानी रही है।Studies in the Geography of Ancient $ Medieval India, P-12 काम्पिल्य नगर जैन, शैव, बौद्ध ,वैष्णव धर्मों की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। पांचाल जनपद का भी महत्त्व कम नहीं है। भगवान ऋषभदेव से लेकर अनेकानेक तीर्थंकरों का बिहार यहाँ हुआ। महर्षि वेद व्यास ने महाभारत के आदिपर्व में लिखा हैमहाभारत—आदिपर्व, अध्याय १४, पृ.८१—८२, गीता प्रेस, गोरखपुर कि पांचाल की राजधानी काम्पिल्य थी, जहाँ महाराज द्रुपद की पुत्री द्रोपदी का इतिहास प्रसिद्ध स्वयंभर हुआ था। धारावाहिक ‘‘महाभारत’’ प्रत्येक रविवार को सभी दूरदर्शन पर देख चुके हैं तथा काम्पिल्य का नाम भी सुन चुके हैं। काम्पिल्य के इतिहास, शौर्य और पुरातात्विक सामग्री और साहित्य पर दृष्टिपात करते हुये विवेचन करना यहाँ लेखक का अभिप्रेत है। उत्तरप्रदेश के जनपद फरुखाबाद की तहसील कायमगंज से १० कि.मी.दूर गंगा नदी के तट पर काम्पिल्य नगरी बसी है। कम्पिल या काम्पिल्यापुरी, भारत के अतिप्राचीन सोलह नगरों में से एक थी। वेदों में भी इसका वर्णन है।
माध्यान्दिन संहिता माध्यन्दिन संहिता, २३/१८ में काम्पिल्य शब्द अम्बा, अम्बालिका के साथ आया है
अम्बे आम्बिके अम्बालिके न मानयति कश्वन। स सत्यश्यक: सुभद्रिकां काम्पीलवासिनीम्।।
शतपथ ब्राह्मण के अनुसार पांचाल का प्राचीन नाम क्रिवि था तथा परिचक्रा एवं कम्पील रुप में भी वर्णन मिलाता है। शतपथ ब्राह्मण, १३/५/४—७ पांचाल राजाओं में वैत्य, दुर्मुख, शोभ और प्रवाहण जैवालिका का नाम मिलता है।काम्पिल्य का नाम तैत्तरीय: संहिता (७ /४/१९११), मैत्रायिणी संहिता (३/१०/२०) काठक संहिता आश्व मिधिक (४/८),माध्यान्दिन संहिता (३३/१८), तैत्तरीय ब्राहण (३/९/६) शतपथ ब्राह्मण (१३ / २ / ८३) आदि में देखने को मिलता है। उपनिषद् साहित्य में वृहदारण्यक उपनिषद (६/१/१) छांदीग्य उपनिषद् ५/३११) तधा सारसायन श्रोतसूत्र (१२/१३/६) में भी वर्णन मिलता है। महाकवि वाल्मीक ने (स—२३) ब्रह्मदत्त के प्रसंग में काम्पिल्य का वर्णन किया है। महाभारत (अध्याय ९८, पृष्ठ ८१/८२) के पर्व—१२८ में भी वर्णन है। काम्पिल नगरी अति सुन्दर थी तथा गंगा किराने स्थित थी।
माकंदि नाम गंगाया स्तीरे जनपदं युतं। सोउध्यावसद दीनमना काम्पिल्यच्च पुरोत्तमम्।।
अष्टध्यायी पर वामन जयादित्य ने कशिका वृत्ति लिखी। इस वृत्ति से स्पष्ट है कि काम्पिल्य तथ संकाश्य पास—पास बसे थे या एक ही बड़े शहर में थे। चीनी त्रिपिटक साहित्य में लिखा है कि भगवान बुद्ध ने काम्पिल्य और संकाश्य में विहार किया। तेशोत्रिपिटिक (पृष्ठ २२/७ भाग ४२) में इसका उल्लेख है। इस तथ्य की पुष्टि प्रो—हाजिमेनाकामुरा ने अपने शोध ग्रंथ में की है। A commentary on the satastra I/II Taisho Tr-Vol 42, P/244 By Prof. Hozime Nakamura, Tokyo-Japan संकाश्य बौद्धमत का तीर्थस्थल है। आज भी सैकड़ों तीर्थयात्री देश—विदेश से यहाँ आते हैं। आगरा—फरूखाबाद, ब्रांच रेवले लाईन पर मखना रेल्वे स्टेशन से ८ कि.मी. दूर सराय अगहत गाँव के पास संकाश्य के खंडहर, भग्नावशेष आज भी देखने को मिलते हैं। बुद्ध विहार के प्रमाण एवं साक्ष्यों को देखते हुये भारत एवं उ.प्र. शासन ने काम्पिल्य एवं संकाश्य दोनों ही स्थानों को अपने संरक्षण में ले लिया है। महासती द्रोपदी का जन्म एवं स्वयंवर यहीं हुआ था, जिसकी याद यहाँ स्थित द्रोपदी—कुण्ड आज भी हमें दिला रहा है। महान् तपस्वी कपिल मुनि का आश्रम भी यहीं था तथा मुनि श्री ने तपस्या भी यहीं की थी। कपिल मुनि आश्रम और उसके प्राचीन भग्नावशेष इसके साक्ष्य है। यहाँ अतिप्राचीन दो जैन मंदिर हैं तथा कुछ जैन मूर्तियों सहित खंडहर भी है द्रोपदी कुण्ड पर हर वर्ष मेला लगता है। श्रीलंका से लाये शिव लिंग की स्थापना शत्रुध्न ने यहाँ की थी, जो वत्र्तमान में रामेश्वरम् मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। मंदिर दक्षिण शैली का है। प्राय: सभी पुराणों में पांचाल तथा काम्पिल्य दोनों का ही उल्लेख है। श्रीमद् भागवत् में लिखा है कि राजा भृम्यश्य के पुत्र का नाम काम्पिल्य थ। उसी के नाम पर नगर का नाम काम्पिल्य रखा गया था। कथित काम्पिल्य राजकुमार के पांचालादिक पाँच पुत्र थे जिन्होंने इस प्रदेश को विजय किया तथा उसी के नाम से यह प्रदेश पांचाल कहलाया कर्निंधम का मत है कि क्रिवि, तुरुव, सम केसिन, शृंतयस, और इक्ष्वाकु इन पांच क्षत्रियों के कारण यह देश पांचाल कहलाया। बौद्ध साहित्य के अनुसंधान से ज्ञात होता है कि भगवान बुद्ध के जन्म से पहले सोलह महा जनपद विद्यमान थे मगध, कौशल, वत्स अवंति, काशी, अंग चेदि, कुरु, पांचाल, मत्स्य शूरसेन, अश्यमक, गान्धार, काम्बोज, वैन्जैन तथा मल्ल। पांचाल दो भागों में विभक्त हो चुका था। उत्तर पांचाल तथा दक्षिण पांचाल उत्तर पांचाल की राजधानी, अहिच्छत्रपुर (जैन तीर्थ) तथा दक्षिण पांचाल की राजधानी, काम्पिल्य थी। वृहज्जातक की महधीर टीका में कम्पिल्ला का सन्निवेश काययित्थिक बताया है। काययित्थिक आज वैथिया नाम के प्रसिद्ध है जो कम्पिला से २०/२१ मील दूर है। वाराणसी उस समय व्यापार का बड़ा केन्द्र था। कम्बोज, काम्पिल्य, कौशल, कुरुक्षेत्र कुरु कुशीनारा, कौशम्बी, मिथिला पांचाल, सिन्ध, उज्जैन, विदेह, आदि के साथ बनारस का व्यापारिक सम्बन्ध था। जैन साहित्य में काम्पिल्य का वर्णन बड़ा मनोहारी एवं प्राचीन है। जैन धर्म के तेरहवें तीर्थंकर श्री विमलनाथ स्वामी के चार कल्याण गर्भ, जन्म, तप एवं ज्ञान काम्पिल्य में ही हुये।
काम्पिल्य में इक्वाकुवंश के कृत वर्मा नामक शासक थे उनकी पत्नी का नाम जय श्यामा था। तेरहवें तीर्थंकर विमलनाथ का जन्म उन्हीं के गर्भ से हुआ था। ई. पू. चौथी शती की विमलनाथ की प्रतिमा गंगा नदी से निकली थी जो मूल वेदी पर विराजमान है। अंतिम तीर्थंकर भ.महावीर ने संसार से विरक्त होकर कठोर साधना की तथा जीवों के उद्धार के लिये उद्बोधन किया। इस काम्पिल्य नगरी में भगवान महावीर का पदार्पण भी हुआ था उनका समोशरण भी आया था। तेईसवें तीर्थंकर भगवान पाश्र्वनाथ का बिहार भी इस नगरी में हुआ था। यहाँ प्रति वर्ष दिगम्बर जैन मेला एवं रथयात्रा महोत्सव प्रथम चैत्रवदी अमावस्या से चैत्र सुदी चौथ तक तथा दूसरा महोत्सव क्वांर वदी २ से वदी ४ तक सदियोें से हो रहे हैं। वाराह मिहिर (५०५ ई.) जैन मतावलम्बी ज्योतिष शास्त्री थे, इन्होंने अपने ग्रंथ वृहज्जातक में लिख है—
आवन्ति को मुनिमलन्य वलोक्य सम्यग्धोरं वाराहमिहिरो रुचिरांचकार।।
काम्पिल्य में सूर्य से वर प्राप्त करके अपने पिता से ज्योतिष शास्त्र की शिक्षा ली। उनके ग्रंथ वृहज्जातक, लघुजातक, विवाह पटल, योग यात्रा, समास संहिता कहे जाते हैं। वाराह मिहिर भारतीय ज्योतिष के निर्माता माने जाते हैं। पाश्चात्य विद्धानों का कथन है कि वाराहमिहिर ने भारत की ज्योतिष को केवल ग्रह नक्षत्र तक ही सीमित नहीं रखा वरन् मानव जीवन के साथ विभिन्न पहलुओं द्वारा व्यापकता बतायी तथा जीवन के आलोच्य विषयों की व्याख्यायें की।भारतीय ज्योतिष, डॉ. नेमीचंद जैन, शास्त्री, पृ. १२६, भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली जैन मंदिर में अनेक अतिप्राचीन पांडुलिपियाँ शोधार्थियों की बाट जोह रहीं हैं। पुरातन खंडहर के रूप में एक संग्रहालय भी है जहाँ अनेक शिलालेख जैन मूर्तियों और प्राचीन ग्रंथ हैं, लेकिन इसकी व्यवस्थित सूची भी नहीं है। काम्पिल का वर्णन उत्तर पुराण, (पर्व—५९) तथा हरिवंश पुराण, (सर्ग—६०) में मनोरम ढँग से मिलता है। हरिवंश पुराण में द्रुपद को मारुंदी नामक नगर का शासक लिखा है। इससे प्रतीत होता है कि संभवत: किसी काल में इसका नाम माकन्दी भी प्रसिद्ध रहा हो।
भीमदेव बदोला ने चालुकवंश प्रदीप में लिख है कि अंबुदगिरि के महायज्ञ से उत्पन्न सोलंकी वंश के मूल पुरुष माण्डत्य हारीत ने सोरों (एटा) में आकर महान तपस्या की। यहाँ पर काम्पिल्य के राजा शशिशेखर से उनका परिचय हुआ। शशिशेखर ने हारीत आतिवंश का श्रेष्ठ क्षत्रिय जानकर अपने साथ काम्पिल्य ले जाकर अपनी कन्या वारमति का उनके साथ विवाह संस्कार कर दिया। शशिशेखर के कोइ अन्य संतान नहीं थी अत: कुछ काल पश् चात् हारित को ही राज्य दे दिया। हारीत के बैन नाम चक्रवर्ती तेजस्वी पुत्र हुआ जिसने अंग, कलिंग, बंग मगध, पाटिल, कन्नोज अवध, प्रयाग, उड़ीसा तथा इन्द्रप्रस्थ को भी विजय किया। बैन ने अतिरंजीपुर नामक नगर भी स्थापित किया। उपर्युक्त गंथ के आधार पर सोलंकी वंश का मूल स्थान सूकर क्षेत्र (सोरों प्रतीत होता है। सौभाग्य विजय जी कृत ‘‘तीर्थ माला’’ (हस्तलिखित स्व. अगरचंद नाहटा संग्रहालय, बीकानेर) में काम्पिल्य का वर्णन है तथा पटियाली के पास इसे बताया है पटियाली एटा में ऐतिहासिक स्थान है।
‘‘जिहां अयोध्या थी पश्चिमदिशिं, जहां काम्पिल्लपुर छैढाय।
जिहाँ विमल जन्म भूमि जाणओ, जिहां पीटमारी वही जाय।।
जिहां व्रेह्यदत्त चक्री इसां, जिहां चुलणी ना चारित होय।
जिहां केसर वन मृग क्रीड़तो, जिहां संजय राजा जोय।।
जिहां गर्दमिल्ल गुरु व संती जिहां गंगा तट व्रतसार।
जिहां उत्तराध्याय ने जाण जो जिहां द्रुपदी पीहर वासा।।
उपर्युक्त प्रमाणों, संदर्भों से स्पष्ट है कि काम्पिल्य (कर्तामान कम्पिल) ऐतिहासिक एवं पुरातत्व की दृष्टि से कन्नोज, अहिच्छपुर, हस्तिनापुर नगरों से किसी भी प्रकार न्यून नहीं है। आज आवश्यकता है काम्पिल्य के पुरातत्व में गहरे जाने की, तथा शोधकणों का मंथन करके अमृततत्व को सामने लाने की। आशा है इस आलेख से शोधकर्ता प्रेरणा लें सकेगे और शोध शृंखला में नई नई कड़ियाँ जोड़कर भारतीय संस्कृति, पुरातत्व के जैन स्रोतों को महत्व देने का प्रयास करेंगे।