प्रथमाचार्य शांतिसागर गुरुवर तुम हो महान। सुनकर अपनी जीवनगाथा करते हैं गुणगान।। कुंथलगिरी का सिद्ध क्षेत्र है आपका समाधिस्थान। जैनधर्म के भाग्यविधाता तुम्हें शत शत प्रणाम।।
इस पृथ्वीतल पर भारत देश अध्यात्म क्षेत्र करके माना जाता है। क्योंकि सभी धर्म के साधु सम्मेलन यहाँ होते हैं। भारतीय संस्कृति ही ऐसी है, जहाँ विविधता में एकता का आदर्श मिलता है। यहाँ अनेक जाति, धर्म, वर्ण, सम्प्रदाय, पंथ के लोग एक साथ अपने-पन के साथ रहते हैं। देशवासियों को अपनी संस्कृतियों को लेकर अभिमान है। यहाँ के सभी धर्मों में जैनधर्म बहुत प्राचीन धर्म है। जैनधर्म में बहुत सारे दिग्गज हो गये, लेकिन इस पंचमकाल में विशेष करके जैन साधुगणों में परमपूज्य प्रथमाचार्य शांतिसागर जी महाराज का स्थान अनन्य और अमूल्य है। इसलिए गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी ने २०१० साल ‘‘शांतिसागर वर्ष’’ करके घोषित किया।
आर्यिका ज्ञानमती माताजी भी शांतिसागर महाराज की परम्परा में दीक्षित हैं। खंडित हुई मुनि परम्परा को चलाने वाले और आगमयुक्त आचरण करने वाले परमपूज्य शांतिसागर जी महाराज की समाधि होकर ५७ वर्ष होने के बाद भी लोग उन्हें मन-मन में घर-घर में बसाते हैं। इसका कारण उनका जैनधर्म के लिए किया हुआ नि:स्वार्थ योगदान ही है। १७ सितम्बर २०१२ को भोजग्राम के धर्मभास्कर की पुण्यतिथि मनाई गई। उनके बारे में आपको परिचय देते समय जरूर याद आती-भोजगाँव के पाटील परिवार से पिता भीमगोंडा, माता-सत्यवती के घर १८७२ को जन्म लेकर सातगोंडा नाम से उन्हें गृहस्थी में जाना जाता था। मुनि दीक्षा लेने के बाद आगमयुक्त आचरण में किसी के डर से अथवा किसी के रोकने पर न रुककर अपने आचरण में शुद्धता रखने वाले ये ‘प्रथमाचार्य’ थे।
अगर परमपूज्य शांतिसागर महाराज जी न होते तो आज आगमयुक्त दिगम्बर मुनियों का आचरण भी अस्तिव में न होता। जब मुम्बई हाईकोर्ट ने जैन धर्मियों का हक छीन लेने का प्रयास किया। तब महाराज जी ने लगभग १४-८-१९४८ से १६-८-१९५१ तक अन्न त्याग करके शिंगाडा खाकर जैनधर्म की रक्षा की। ऐसा महान त्याग करने वाले महापुरुष ‘अपूर्व’ होते हैं। अपने प्राणों की परवाह न करते हुए जैनधर्म की रक्षा करने के लिए अन्न त्याग करने वाले शांतिसागर जी महाराज जैनधर्म में क्रांति करने वाले ‘‘क्रांतिसागर’’थे।
अनेक संकटों, उपसर्गों और परीषहों पर जीत हासिल करने वाले ‘‘परिषहजयी’’ और ‘‘आत्मविजयी’’ शांतिसागर थे। ललितपुर में बीमार होते हुए भी उन्होंने अपना सिंहनिष्क्रीडित तपोराधना पूरी की। ये तप उन्होंने अपने जीवन काल में तीन बार किया। अपने पूरे जीवन में उन्होंने ९९३८ उपवास किये। उत्तम चारित्र का पालन करने के कारण, सभी प्रकार के आचरण में अग्रगण्य होने के कारण गजपंथा के पंचकल्याणिक पूजा में उन्हें ‘चारित्रचक्रवर्ती’’ की उपाधि दी गई। धवला, जयधवला, महाधवला ग्रंथ के गाढ़े अभ्यासक होकर ऐसे ग्रंथों के संरक्षण के लिए उन्होंने फलटण में ताम्रपट बनवाये, ऐसे परमपूज्य शांतिसागर जी महाराज को समडोली में ‘‘आचार्य’’ की उपाधि दे दी गई।
चिंटीयों ने शरीर को छलना बना दिया या सर्प उनके शरीर पर खेले लेकिन उसके बाद भी वह तपश्चर्या से विचलित नहीं हुए। नागराज और वनराज को झुकाने वाले थे। उन आचार्य महाराज की कीर्ति आज भी सर्वव्यापी है। कुंथलगिरि के सिद्ध क्षेत्र पर १८ सितम्बर १९५५ में उन्होंने सल्लेखनापूर्ण समाधि की। इसलिए उन्हें ‘‘समाधीसम्राट’’ कहा जाता है। भोजगांव के बारे में कवि विजयकुमार बेलंके कहते हैं-
‘‘पवित्र की पूजा चलती है जिस गाँव में रोज ।
भाग्यवान वह गाँव है, नाम है जिसका भोज ।।’’
ऐसा यह भोज गाँव जैन, अजैनों का श्रद्धा स्थान हो गया है। यहाँ लोग परमपूज्य शांतिसागर महाराज की जन्मभूमि और उनका स्मारक देखने आकर अपने को धन्य मानते हैं। उनके पुण्यतिथि के निमित्त से हम उनका आदर्श संयम और अहिंसा अपने जीवन में अपनाये, तो विश्व में हो रहा ये हिंसाचार, अत्याचार खत्म करने में देर नहीं लगेगी। इसलिए मैं कहती हूँ कि ऐसे महान आचार्यों को हमे कभी भूलना नहीं चाहिए। जिस प्रकार आकाश में ध्रुवतारा का उत्तर दिशा में अटल स्थान है, उसी प्रकार जैनधर्म में परमपूज्य प्रथमाचार्य शांतिसागर जी महाराज का स्थान अटल है। उनका संदेश ही विश्वशांति का संदेश है।