प्राचीन भारतीय तत्वज्ञ, मनीषी, ऋषि, मुनियों ने अपने गंभीर अन्वेषणों परीक्षणों— निरीक्षण एवं विश्लेषणों से प्रत्येक तत्व मेें निहित अनेकानेक चमत्कार पूर्ण, सत्य—तथ्य शक्तियों का परिज्ञान, उपलब्धि तथा उपयोग को हस्तगत किया था। अति प्राचीन काल में दृढ़ संकल्प शक्ति, कठोर संयम, परिशुद्ध आहार—विहार, आचार—विचार—उचार तथा अनुकूल द्रव्य—क्षेत्र—काल रूपी परिस्थितियों के कारण कुछ प्रबुद्ध आत्म साधक, मानवों की आध्यामिक शक्ति इतनी विकसित, जाग्रत, सशक्त थीं, कि वे मानव अनेक चुनौती पूर्ण कार्य को सहज—सरल भाव से केवल आत्म—शक्ति से परिपूर्ण करने में सक्षम थे। कालक्रम से जब उपर्युक्त दृढ़ संकल्प शक्ति आदि में ह्रास हुआ, तब आध्यामिक शक्ति में भी तदनुपात से ह्रास हुआ। उस अवस्था में पूर्ववत् मात्र आध्यामिक शक्ति से कार्य सम्पादित नहीं हो पाया। इस स्थिति में उस शक्ति की आपूर्ति के लिए बीजाक्षर में निहित शब्द शक्ति (शब्द ब्रह्म शक्ति) एवं शब्द ब्रह्म शक्ति का मिश्रण रूप समुदाय शक्ति ही मंत्र शक्ति है। कालक्रम से जब पुन: उपर्युक्त शक्ति की गुणवत्ता में हीनता आई तब मंत्र शक्ति से भी इच्छित कार्य का सम्पादन होने में कठिनता आई तब उस शक्ति की आर्पूित के लिए कुछ सूक्ष्म विशिष्ट भौतिक शक्ति की सहायता लेने की आवश्यकता हुई। इस त्रियाम युक्त शक्ति (१. आध्यात्मिक २. शब्द ३. भौतिक) से ही बहुश: तंंत्र शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ।
काल के कराल थप्पड़ से जब क्रमश: पुन: पूर्व उल्लेखित शक्ति में मंदता आई, तब स्थूल विशिष्ट भौतिक साधनों का आलम्बन लेने के लिए बाध्य होना पड़ा तब चार आयाम युक्त शक्ति (१ आध्यात्मिक २. शब्द ३. सूक्ष्म भौतिक ४. स्थूल भौतिक) ही यत्र शक्ति रूप में प्रकट हुई। अतएव उपरोक्त समीकरण से हम सम्पूर्ण काल को चार भागों में बांट सकते हैं। प्रत्येक तत्व/ द्रव्य/वस्तु, अंनतानंत गुण, धर्म पर्याय (अवस्था परिणमन) का एक अखण्ड पिण्ड है, भले वह द्रव्य चेतन हो या अचेतन, सूक्ष्म हो या स्थूल हो अथवा दृश्यमान हो या अदृश्मान हो। इसीलिए सूक्ष्मातिसूक्ष्म अदृश्यमान भौतिक—जड़ परमाणु से लेकर आकाश, काल, धर्मद्रव्य (गति माध्यम द्रव्य) अधर्म द्रव्य (स्थिति माध्यम द्रव्य) किच्चमत्कार पूर्ण—परम ब्रह्म स्वरूप भगवान् आत्म तक प्रत्येक द्रव्य में कल्पनातीत अनंतानंत चमत्कार पूर्ण गुण, धर्म पर्याय विद्यमान होते हैं। अत: प्रत्येक द्रव्य अनेकान्तम विश्वरूप को धारण करने वाले हैंं परन्तु अशुद्ध द्रव्य में सम्पूर्ण गुण पूर्णत: विकसित रूप से नहीं रहते हैं, तथापि पूर्णत: विनष्ट नहीं होते हैं। जितने अंश में अशुद्ध द्रव्य में शुद्धता प्रकट हो जाती हैं, उतने अंश अन्तर्निहित शक्तियां भी प्रकट होती है। ऐसा भी एक क्षण आता है, जब समस्त अशुद्धाा नष्ट हो जाने के कारण समस्या शक्तियां पूर्ण विकसित रूप से प्रकट हो जाती हैं। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य में सुप्त रूप में, अविकसित रूप में अल्पविकसित रूप में या पूर्ण विकसित रूप में अनेकानेक शक्तियां सदा, सर्वथा, सर्वदा तादात्म्य भाव में अवस्थित रहती हैं।
अत: तत्वज्ञ व्यक्ति यंत्र मंत्र की अविश्वसनीय, अगम्य वैचित्र्यपूर्ण शक्तियों की कार्यक्षमता को मिथ्या नहीं मानता, साथ ही साथ उसे विस्मय (आश्चर्य) भी नहीं होता है, परन्तु उन शक्तियों के शोध—बोध, प्रयोग करने में वह अग्रसर हो जाता है। प्राचीन तत्वचिंतकों ने विशेषत: भारतीय ऋषियों ने अनेकानेक ज्ञान—विज्ञान के शोध—बोध के साथ मनोविज्ञान अतीन्द्रिय—मनोविज्ञान, शब्द विज्ञान का भी शोध—बोध किया था। भावना, भावना से उत्पन्न भावात्मक तरंग, शब्द, शब्द से जायमान ध्वनि रूप तरंग तथा समष्टि भूत शक्ति (मंत्र शक्ति) की विचक्षण, विलक्षण—कार्यक्षमता को सूक्ष्म रूप से ज्ञात करके उससे विभिन्न कार्य करते थे। मंत्र शक्ति तथा मंत्र का प्रयोग धीरे—धीरे कम होते होते अभी बहुतायत में क्षीण हो गया है। परन्तु अभी भी पूर्ण रूप से क्षय नहीं हुआ है। मंत्र का प्रयोग अभी भी परम्परागत रुप में अनेक देश, जाति, धर्म पंथ में विद्यमान हैं। स्थूल शरीर रासायनिक पदार्थों से बना हुआ है, उसमें किसी प्रकार की हलचल उत्पन्न करने के लिए प्रहार की आवश्यकता पड़ती है।
प्रत्यक्ष आघात तो हथौडे जैसे उपकरणों से पहुँचाए जाते हैं, किन्तु अदृश्य जगत् में यह कार्य शब्द के द्वारा संभव होता है सभी जानते हैं कि आघात लगने पर शब्द की उत्पत्ति होती है, पर तथ्य यह भी है कि शब्द से आघात लगता है। किसी वस्तु के गिरने, टूटने, टकराने से शब्द उत्पन् न होता है। तोप—बंदूक चलने से धमाका होता है, परंतु यह भी मान्यता है कि शब्द की भंयकरता भी अनर्थ कर सकती है। तोपों के गर्जन, बमों के विस्फोट से गर्भ धारण करने वाली माताओं के गर्भ गिर जाते हैं। धड़कते हृदय को बंद कर देते हैं। कान बहरे हो जाते हैं। कोलाहल की अधिकता से अन्य प्रकार के शारीरिक / मानसिक उपद्रव खड़े होते हैं। अदृश्य वातावरण में भी एक तरह का असंतुलन आ जाता हैं। प्रदूषण बढ जाता हैं। जेटयानो की कम्पन लहरे जिधर होकर गुजरती हैं उधर अस्थिरता, अस्वाभाविकता उत्पन्न करती हैं। रात्रि में भयानक पक्षी ध्वनि करते हैं तो डर लगता है और निद्रा भंग हो जाती है। फौजी सिपाही तालबद्ध कदम मिलाकर चलें उस समय आवाज से लोहे का वह पुल टूट सकता है जिस पर से लोग गुजरते हैं देखा तो यहां तक गया हे कि किसी मजबूत हाल में लोहे का मजबूत गार्डर लटका दिया जाय और उस पर क्रमबद्ध रूप से हल्का प्रहार एक छोटे से पेण्डुलम से करते रहा जाय तो वह गार्डर भी टूट सकता है एवं छत फट सकती है। यह ध्वनि की प्रहार—प्रक्रिया हुई उसका रचनात्मक उपयोग भी हैं। विशेषस्तर का संगीत बजाकर रोगियों की मानसिकता, जीवन—क्षमता, भाव—संवेदना लहराई जाती है।
इस उभार के आधार पर रोग विषाणुओं का समापन एवं आरोग्यता वापिस लाने वाले तत्वों का उन्नयन होता हैं। संगीत चिकित्सा जब अपने आप मेें एक स्वतंत्र चिकित्सा पद्धति बनती जा रही है, किंतु संगीत के रूप में वर्तमान चिकित्सा पद्धति की गति अभी उतनी गहरी नहीं हो पायी है, जितनी प्राचीन काल में किसी समय थी। तब भिन्न—भिन्न आधि—व्याधियों के निवारण के लिए पृथक—पृथक राग—रागनियों का निर्धारण था। उदाहरण के लिए मानसिकता एवं क्रोध शमन के लिए मल्हार, सौरत एवं जौ जैवन्ती रागों की व्यवस्था थी। श्वास संबंधी तकलीफ खांसी, दमा, तपैदिक आदि में भैरव राग, स्तन अशुद्धि की स्थिति में हिंडोल राग का प्रावधान था, परन्तु रोगापचार के क्षेत्र में आज विभिन्न प्रकार की पद्धतियों के प्रचलन से अब इनका प्रयोग लगभग लुप्त हो चला है। सत्य तो यह है कि संगीत की इस विद्या को आज लोग शंकित दृष्टि से देखते हैं। प्राचीन शास़्त्रोें में वर्णित इसकी विलक्षण शक्ति की सच्चाई जानने के लिए यदि विज्ञान का आश्रय लिया जाता तो यह शंका तो मिटती। डा. वि. वि. गारे ने अपने लेख ‘‘संगीत और आयुर्वेद’’ (संगीत पत्रिका—फरवरी, १९६२) में लिखा है कि यदि शरीर और मन पर सुस्ती छा जाये, आलस्य आ जाये एवं आवाज मंद आने लगे, पंचम स्वर की आलापिनी, मंदती, रोहिणी, रम्या, स्वरों का कंठ पर वर्चस्व हो तो ऐसे व्यक्ति को (कफ प्रकृति की मंदता) स्वस्थ बनाने के लिए रौद्री , क्रोधी, वङ्किाका की श्रुतियों ऋषभ स्वर शब्द को या ऋषभ वादी स्वर वाले रोग को बुलाया जाना चाहिए। इसी प्रकार पित्त और बाद प्रकृति बलि व्यक्ति को साम्यावस्था में लाने के लिए कफ प्रकृति स्वर अर्थात् श्रृंगार रस के राग खमाज, तिलंग,देस आदि सुनाने चाहिए। शास्त्रों में संगीत की महत्ता का वर्णन अनेक स्थानों पर किया गया है। पाराशर ऋषि ने इसके माहात्मय ऋषि ने इसके माहात्म्य का उल्लेख करते हुए कहा है—
न नादेन बिना ज्ञानं न वादेन बिना शिव:। नाद रूपं परं ज्योतिर्नाद रूपी स्वयं हरि:।।
अर्थात् नाद के बिना ज्ञान नहीं होता, वादन के बिना शिव नहीं होता, परम ज्योति नाद रूप ही है, स्वयं विष्णु नाद रूप हैं। नारद विरचित ‘‘संगीत मकरंद’’ में भी संगीत का गुणगान करते हुए कहा गया है कि आयु, धर्म यश, बुद्धि, धन—धान्य, संतान की अभिवृद्धि यह सब रागोें के गायन द्वारा संभव हैं। ऐसी बात नहीं है कि संगीत की यह विद्या प्राचीन समय में पुस्तकीय ज्ञान के रूप में ही सीमित होकर रह गई थी, अपितु इसका सफल प्रयोग भी होता था। इसके अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं। कहा जाता है कि प्रसिद्ध संगीतज्ञ बैजू बावरा ने राग पूरिया सुनाकर राजा राजसिंह की अनिद्रा की बीमारी दूर की थी। ऐसी ही शक्ति पलुस्कर और डागर बंधु के गायन—वादन में बतायी जाती थी अब तो क्रमश: यह पीढ़ी ही लुप्त होती जा रही हैं फिर भी कुछ घराने ऐसे हैं जहां इन रागों को जिन्दा रखा गया है। इटली के शासक मुसोलिनी की निद्रा संबंधी बीमारी भी कहा जाता है कि एक भारतीय संगीतकार ने ही संगीत के माध्यम से दूर की थी। अब जैसे—जैसे विज्ञान इसकी गहराई में उतरता जा रहा है, उसे संगीत की अपरिमित शक्ति और क्षमता का ज्ञान विदित होता जा रहा है। आज ‘‘ओरोटीन’’ जैसे कई ऐसे विशेष बाद्यतंत्र उपकरण विकसित कर लिये गये हैं, जिसमें भिन्न—भिन्न रोगों में व्यक्ति को भिन्न—भिन्न राग सुनाकर स्वस्थ करने की व्यवस्था है। इसे देखते हुए आने वाले समय में संगीत को यदि वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति के रूप में विकसित किया गया,तो इसमें आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिए। हमारे पास संगीत रूपी पूंजी का अभाव नहीं है उसे विभिन्न आधुनिक यंत्रों की कसौटी पर कसे जाने की आवयश्कता है।
प्रकृति के अन्तराल में तीन प्रमुख शक्तियां काम करती हैं।
१.ध्वनि २. ताप ३. प्रकाश
इन्हीं की सूक्ष्म तरंगें समूचे ब्रहाण्ड में बिखरी पड़ी हैं। उन्हीं के द्वारा रेडियो, टेलीविजन आदि उपकरण चलते हैं। एक्स—रे किरणेंं, लेसर किरणें, गामा किरणें आदि के रूप में इन तरंगों का महत्वपूर्ण एवं आश्चर्य जनक उपयोग भी किया जाने लगा है। तंरगे की सघन होकर अणु—परमाणुओं के समूह (स्कंध) रूप में परिवर्तित होती है और नाम रूपों वालें पदार्थों की संरचना करती हैंं। इस प्रकार यह समझा जा सकता है कि समस्त विश्व की अनेकानेक हलचलों को यह ध्वनि प्रवाह ही हिलाता—डुलाता, मोड़ता—मरोड़िता रहता है। इसी आधार पर उत्पादन अभिवर्धन की रीति — नाीति सर्वत्र चलती रहती है। उत्साह, उमंग, उल्लास के रूप में तीनों शरीरों को सूक्ष्म ध्वनियां अपने ढंग से यथा अवसर प्रभावित करती रहती हैं। जीवन और मरण, उत्थान और पतन बहुत कुछ उन्हीं के ऊपर अवलम्बित है। विविध तरंगों में से ध्वनि तरंगे, स्थूल शरीर को प्रभावित करती हैं। सूक्ष्म शरीर को ताप तरंगे और शरीर को प्रकाश तरंगें यों अनायास भी संयोग बनता बिगड़ता रहता तथा अनेकानेक प्रभाव उत्पन्न करता रहता है, किंतु यदि उनका योजनाबद्ध रूप से वैज्ञानिक प्रयोगों की तरह उपयोग किया जा सके तो इसके इच्छित परिणाम भी होते हैं। बारूद जला देने पर धमाका तो होता है, पर उसमें अस्त—व्यस्तता रहती है किंतु बंदूक या तोप की नली में डालकर किसी लक्ष्य को केन्द्रित करके दागा जाय तो निशाने को धराधायी करने की प्रत्यक्ष परिणति दृष्टिगोचर होती हैं। ध्वनि तरंगों का उपयोग स्थूल शरीर को प्रभावित कर उसमें अभीष्ट सुधार कर परिवर्तन करने के निमित्त किया जा सकता है।
स्थूल शरीर को प्रभावित करने के लिये मंत्र— योग सूक्ष्म शरीर के प्राण—योग का कारण शरीर में उपयोगी उभार लाने के लिए ध्यान—योग का उपयोग किया जाता है। यों साधनायें अनेकों प्रकार की हैं। परम्परा भेद से उनका उपयोग—उपचार अनेक विधि—विधानों के रूप में किया जाता है। इस प्रकार साधना विज्ञान के अनेकानेक भेद और उपभेद बन जाते हैं। इनमें से जिन्हें अपनी अभिरूचि के अनुरूप अपनाना होता है, वे उसका प्रयोग करते रहते हैं। देश, भाषा, परम्परा आदि भेदों के कारण तत्व दर्शन अनेक भागों में विभक्त हो गया हैं, पर इसे एक दूसरे के प्रतिकूल मानना भूल होगी। एक ही नगर में पहुंचने के लिए विभिन्न दिशाओं के यात्री अलग—अलग मार्ग अपनाते हैं। इतने पर भी वे सभी उस एक ही लक्ष्य तक पहुंच जाते हैं। संसार भर में प्रचलित अनेकानेक योगाभ्यासों को तीन भागों में ही विभक्त किया जा सकता है। बहुलता को सीमा बद्धता में बांधा जा सकता है। मंत्र—योग, प्राण—योग और ध्यानयोग की सीमा में प्राय: सभी साधना, विधानों को बांधा जा सकता है। मनोविकार और अनैतिक आचरण भी लोभ, मोह, अहंता की पृष्ठभूमि पर उगते हैं। साधनाएं भी साहस, संकल्प और संवेदना का अवलम्बन लेकर आगे बढ़ती और तीनों शरीरों को प्रभावित करती हैं। पदार्थ परिवार को ध्वनि तरंगों से प्रभावित/ परिवर्तित/ परिष्कृत करने के लिये मन्त्रयोग का उपयोग होता है। मंत्र में तीन तत्व जुड़ते हैं— १. शब्दों का गठन २. साधक का व्यक्ति तत्व ३. तथ्य को अन्त:करण की गहराई तक पहुंचा देने वाला अविचल विश्वास। इन तीनो का जब भी, जहां भी, जितना भी समावेश हो वहां उसकी उपयोगी प्रतिक्रिया मिश्रित रूप से परिलक्षित होगी, किंतु यदि इनमें से एक भी कम पड़ा या ऋुटिपूर्ण रहा तो उसका अभीष्ट प्रतिफल उत्पन्न होना संदिग्ध हो जायेगा। मंत्र का गठन दूरदर्शी अनुभाषी योगाभ्यासियों द्वारा किया जाता है। वे शब्दों को समझने में अर्थ को प्रधानता नहीं देते, वरन् यह देखते हैं कि किस क्रम से अक्षरों का गुंथन हुआ और उनके उच्चारण में किस प्रकार का ध्वनि प्रवाह उत्पन्न हुआ। इस मंत्र निर्धारण में प्राय: उनके सृजेताओं को अन्त:स्पुरण—मार्ग दर्शन मिलता है। इसलिए वे उस आकाशवाणी द्वारा ईश्वरीय चेतना द्वारा उद्भूत भी कहते हैं। णमोकार मंत्र, गायत्री मंत्र कलमा शरीर वर्मातस्मा, मार्गपद मेंहूं ऐसे ही सनातन कहे जाने वाले मंत्र हैं। तन्त्र योग के अन्तर्गत एकाक्षर मंत्रों का भी निर्धारण किया गया है। देवनागरीलिपि के कुछ प्रभावशाली अक्षरों के ऊपर अनुस्वार (०) लगाकर उन्हें विशेष प्रयोजनों में काम आने वाला विशेष मंत्र बना दिया गया है। ( कं, खं, गं, घं, चं, छं, जं, झं, पं, फ, बं, भं, ) आदि की रचना इसी दृष्टि से हुई हैं।श्रीं क्लीं,ह्रीं हुं, फट् आदि की भी गणना एकाक्षरी मंत्रों में ही होती है। अर्थ सहित मंत्रों की व्याख्या विवेचना हो सकती है। उनसे शिक्षा ले सकते हैं। पर एकाक्षरी मंत्र बीजरूप है उनमें शक्ति की प्रधानता है। अभिव्यक्ति नहीं खोजी जा सकती है। इन सबके अपने—अपने प्रभाव हैं। उनका उच्चारण यों कण्ठ, होंठ, जीभ, दन्त, तालु आदि के माध्यम से ही होता है, पर जो ध्वनि प्रवाह समन्वित रूप से बनता है वह स्थूल शरीर के अन्तराल में रहने वाली विशाल ग्रंथियों से टकराता है, उस प्रतिक्रिया को समूचे व्यक्तित्व में वितरित करता है।
शरीर के अन्तराल में अनेक गुच्छक उपत्थिकाएं,चक्र—भ्रमर, अन्त: स्त्रावित होने वाले हारमोन द्रव्योें की विलक्षणता प्रत्यक्ष हैं। उनका प्रभाव काया तक ही सीमित नहीं रहता वरन् स्वभाव और व्यक्तित्व को भी प्रभावित करता है। इस प्रकार अनेकानेक गंथियों को संतुलन में लाने, विकसित करने के लिए मंत्र प्रयोगों का आश्चर्यजनक परिणाम उत्पन्न होते देखा गया है। भारतीय विभिन्न धर्म, दर्शन विज्ञान के प्राचीन साहित्य तथा विदेश के प्राचीन साहित्यों का अवलोकन करने पर अवगत होता है कि प्राचीन काल में केवल मंत्र सैद्धांतिक रूप में ही नहीं किन्तु प्रायोगिक रूप में भी जनजीवन में व्याप्त था। विभिन्न प्राचीन साहित्य से ज्ञात होता है कि विशिष्ट मंत्र साधक दुष्काल अनावृष्टि आदि अकाल में वर्षा करने में सअम थे ने विभिन्न भयंकर रोग केवल मंत्र (झाड़ फूक) प्रयोग से दूर हो जाते थे, भयंकर जंगम, स्थावर—हलाहल विष, मंत्र से निर्विष हो जाते थे, भयंकर व्रूर हिंसक पशु भी मंत्र से शांत या स्तम्भित हो जाते थे। ऐसी महत्वपूर्ण मंत्र पद्धति का धीरे—धीरे ह्रास होता गया कुछ वर्ष पहले जिस समय विज्ञान का नव उदय हुआ तब मंत्र (झाड़ फूक) आदि को अवैज्ञानिक, अंधविश्वास, मानकर हम मंत्र का निरादर करने लगे, परंतु जब कुछ विशिष्ट वैज्ञानिकों ने मंत्र चमत्कार पूर्ण प्रभाव को वैज्ञानिक पद्धति (प्रणाली) से सिद्ध करके जगत् के समाने प्रस्तुत किया तब आधुनिक लोग पुन: मंत्र को मानने लगे हैं।
मेरी मंत्र विज्ञान पुस्तक में यत्र— तत्र मंत्र का प्रभाव, प्रायोगिक प्रतिफल का वर्णन किया गया है, जिससे सिद्ध होता है कि जो कार्य भौतिक साधनों से सम्पादित नहीं हो सकता वह कार्य मंत्र से सहज सरल रूप से संभव हो सकता है। प्राचीन काल में विशेषत: भारत, चीन, जापान, तिब्बत आदि देश में मंत्र चिकित्सा अधिक उन्नत प्रणाली में विकसित थी। वर्तमान युग में मंत्र का मूल्यांकन होना, मंत्र का महत्त्व बढ़ना विज्ञान का प्रत्यक्ष—परोक्ष रूप से योगदान कह सकते हैं। इस कालक्रम से पद्धति का ह्रास हुआ। पुन: वैज्ञानिक युग में उसका प्रचार—प्रसार हो रहा है। इससे सिद्ध होता है कि जो प्राचीन काल मे विभिन्न ज्ञान—विज्ञान, मंत्र — तंत्र, यंत्र आदि का प्रचलन था, वह बेबुनियादी, अवैज्ञानिक नहीं था। परन्तु अभी भी मंत्र आदि का पूर्ण वैज्ञानिक सत्य, तथ्य, सम्मत, शोध—बोध नहीं हो पाया है। इसके लिए तत्व जिज्ञासुओं को विभिन्न प्रयोग करके मंत्र में निहित रहस्यपूर्ण शक्तियों का उद्घाटन करना चाहिए। प्रत्येक शक्ति का सदुपयोग व दुरुपयोग हो सकता है, परंतु शक्ति का सदुपयोग उत्थान का कारण व दुरुपयोग पतन का कारण है। अतएव मंत्र में निहित शक्ति का दुरुपयोग न करके सदुपयोग, स्व—कल्याण के लिए करना चाहिए।