मदुरै के आसपास कई पहाड़ियों में जैन शिलालेख, मुर्तिया बहुत प्राचीन समय की उत्कीरित हैं—उनमें कई गुफाओं में भी है, प्राचीन समय में यहां जैन धर्म का खूब प्रचार था, राजा भी जैन थे—(पान्डय नरेश) आदि। समय के प्रभाव से इन राजाओं को शैव लोगों ने अपनी चालाकियों से प्रभावित कर लिया और जैन साधुओं के प्रति घृणा व विरोध का वातावरण बना दिया, एक घटना के अनुसार लगीाग ८००० जैन साधु एवं श्रावकों को शूली पर चढ़ा कर मार डाला गया व तेलघाणी में पेर दिया। मदुरै के मीनाक्षी मंदिर में म्यूजियम के भित्ति चित्रों में इस घटना का चित्रण किया हुआ है। जहाँ करीब २०० चित्र १०र्’ ८’ की साइज के लगभग है और उसका वर्णन प्रत्येक चित्र का अंग्रेजी भाषा में किया हुआ है। इसका उद्देश्य जैनों के प्रति नफरत पैदा करना व उनका मखौल उड़ाना है और भी कई दीवारों में बड़े चित्र तेलघाणी में जैन साधुओं को पेरते हुए दिखाया गया है। यही नहीं याद ताजा करते रहने के लिहाज से प्रतिवर्ष मदुरै के पास ही एक स्थान पर इस घटना की स्मृति में उत्सव मनाया जाता हे, जिसके हजारों नर—नारी सोत्साह भाग लेते हैं जैसे हम दशहरे में रावण को मारते हैं। आप इंटरनेट से भी मदुरै के आसपास की पहाड़ियों पर जैन र्मूितयों का सजीव चित्रण देख सकते हैं। इन पहाडियों में बहुत अच्छी क्वालिटी का ग्रेनाइट होता है। इसका ठेका व्यापारियों को दिया गया है जो रातदिन यहाँ विस्फोट करते रहते हैं। डिपार्टमेंट ऑफ आर्कोलाजी का भी कोई डर किसी को नहीं है। विस्फोट से कई जगह दरारें आ रही हैं। यदि समय रहते चेता नहीं गया तो ये हमारी प्राचीन यादगारें सब समाप्त हो जाएगी। शायद विरोधी लोग भी यही चाहते हैं।इसी तरह मैदूरापुर जो चैन्नई में है—वहाँ अभी एक बड़ा शैव मंदिर है।
मंदिर के बाहर एक बहुत बड़ा चौकोर तालाब है जिसमें पानी भरा रहता हैं कहते हैं कि पहले यहाँ जैन बस्तियाँ थी। राजा के प्रभाव से जैन समाज को यातनाएँ देकर उन्हें वहाँ से निकाल दिया या मार दिया गया फिर उनके मकानों नष्ट कर सारा गड़ा हुा माल लूट लिया गया। यहीं नहीं करीब १५—२० फुट गहरा गड्डा खोदकर जमीन में गढ़ा हुआ सोना चाँदी, रकम निकाल ली गई और कालान्तर में उसे बहुत बड़े क्षेत्र को गहरा आयताकार खुदवाकर उसे विशाल तालाब का रूप दे दिया गया। आज उसमें पानी भरा रहता है, उस मंदिर में लगभग १०० विभिन्न साधु सन्यासियाँ की प्राचीन र्मूितयाँ भी है, यहाँ आजकल खूब धार्मिक उत्सव आदि होते रहते हैं। ये तो एक दो उदाहरण है ऐसे कई और भी स्थान है जहाँ प्राचीन जैन स्थापत्य को विनष्ट कर अन्यान्य मान्यताएँ जबरदस्ती थोपी गई है। जैसे वैलोर में अर्काट की पहाड़ियों में ऊपर शिखर बंद मंदिर में एक बड़ी पद्मासन प्रतिमा को उखाड़ दिया और उसके निशान साफ नजर आते हैं। कमरे में शिविंलग स्थापित है गुफाएं भी हैं नीचे गुफाओं में जैन शिलालेख र्मूितयां पुरातत्व विभाग के आधीन हैं शिखर तक जाने के लिए बड़ी विशाल सीिंढयां र्नििमत हैं, गाँव में एक भी जैन नहीं है तो देख—रेख कौन करें ? यह सवाल है।
आवश्यकता इस बात की है कि दक्षिण भारत में ऐतिहासिक घटनाओं पर अनुसंधान किये जाए और उनके वास्तविक कारणों पर प्रकाश डाला जाये ताकि आगे जैन समाज संभलकर चले और इन घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो और शोधार्थी को डाक्टरेट आदि व उचित पारितोषिक भी दिये जाए। समाज वैसे भी विधान, मूर्ति प्रतिष्ठायें कराता रहता है उससे तो यह कार्य ज्यादा अच्छा है। मुझे तो यही लगता है कि किसी तरह से टोने—टोकटे व संभादी विधाओं से राजा को प्रभावित किया गया। जैनों को उनके व्यापार, खेती आदि कार्यों में बाधाएँ की जाए, जमीनें छीन ली जाए, ऐसा होता होगा—इस प्रकार उस गांव या कस्बे से जैनों को विस्थापित कर दिया गया फिर उनके मकानों व खेतों पर कब्जा कर लिया गया और जब मंदिरों की देखभाल करने वाला कोई नहीं हो तो आसानी से उन्हें नष्ट कर धर्म परिवर्तन कर दिया गया होगा। अर्थात् पीछे से कोई निशानी जैनत्व की न छोड़ी जाए मदुरै की पहाड़ियों में जो जैन र्मूितयां है वे बड़ी प्राचीन और ऐतिहासिक महत्व की है। हमारी प्राचीन सभ्यता अब केवल दक्षिण भारत में ही बची हैं और वे ही भी नात—तोल कर धीरे—धीरे नष्ट की जा रही है। सरकार में हमारा नेतृत्व है नहीं—श्वेताम्बर समाज को प्राचीन दिगम्बर धर्म की रक्षा से कोई मतलब भी क्यों हो ? और अब रहे सहे दिगम्बर लोग, उनमें भी भेदभाव बहुत है जैसे २० पंथी, १३ पंथी, कहानपंथी तो बस फिर इन बातों की चिता और परवाह किसे होगी यह एक ज्वलंत प्रश्न है।