मधुसेवन को हिंसक मानते हुये जैनग्रन्थों में इसके त्याग को मूलगुणों के अन्तर्गत माना गया है। जिसको कतिपय वैज्ञानिक तथ्यों के द्वारा लेखक द्वारा प्रस्तुत किया जा चुका हैपरंतु उस आलेख के पश्चात् कई जैन विद्वानों द्वारा प्रमुख जैन पत्रिकाओं/पुस्तकों में मधुसेवन की अहिंसकता, उपादेयता प्रदर्शित की गयी अतएव इस विषय पर नवीनतम वैज्ञानिक अनुसंधानों के आलोक में मधुत्याग पर वैज्ञानिक चिंतन को आगे बढ़ाया गया है।
मधुमक्खियाँ फूलो के रस को जिह्वा द्वारा चूसती हैं जो उनके पेट मे बनी थैली में जमा होता रहता है।हाईपोपेरेंजियल ग्रंथि से निकले एन्जाइम इस रस (मकरन्द) को शहद में परिवर्तित कर देते हैं। अपने छत्तों में लौटने के उपरान्त मक्खियाँ तरल शहद की उल्टी करके मधुकोषों में भर देती हैं। ये अपने पिछले पैरों में बनी परागडालियों में परागकणों को भरकर लाती हैं और अपने छत्ते के कक्षों में भर देती हैं। परागकण मधु (शहद) का अभिन्न अंग हैं तथा इनके आधार पर ही मधु की गुणवत्ता निर्धारित की जाती है।
अपने परिवार का भरण पोषण करके के लिये मधुमक्खियाँ अथक परिश्रम करती हैं।५०० ग्राम शहद बनाने के लिये उसे पचास लाख फूलों का रस चूसना पड़ता है। परागकणों की मात्रा कम उपलब्ध होने पर मधुमक्खियों को पक्षाघात हो जाता है।मधु का सेवन मक्खियाँ अत्यधिक सर्दी, गर्मी व बारिश के मौसम में करती हैं।
वस्तुत: मधु एक संचित भोजन है, जिसके लिये मधुमक्खियों को अत्यधिक श्रम करना पड़ता है तथा इसकी चोरी करके मनुष्य क्या अनगिनत मक्खियों का मुंह का निवाला नहीं छीनता है? मधु के परागकणों की कमी से जाने कितनी मक्खियों को पक्षाघात हो जाता होगा? इस पर शोध होना चाहिए। कुछ लोग किसी अछूत आदमी के छूने से अपवित्र हो जाते हैं। मक्खियां अगर किसी खाद्य पदार्थ में गिर जायें तो लोग उस खाद्य को अखाद्य मान लेते हैं फिर मधुमक्खियों की उल्टी को ग्रहण करते समय लोगों को घृणा न होना आश्चर्य का विषय है।
वर्ष २००२ में, बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान लखनऊ में एक परियोजना के अन्तर्गत जाँच के लिए सात कम्पनियों की छोटी सील बंद २५/५०/७५ ग्राम मात्रा वाली शहद की शीशियों को लखनऊ के बाजार से खरीदा गया जिससे इनकी गुणवत्ता मापी जा सके। प्रत्येक शहद के नमूने में परागकणों की संख्या तथा प्रारूप भिन्न पाये गये।एक अत्यन्त प्रसिद्ध कम्पनी के शहद में परागकणों की संख्या नगण्य पाई गई । अन्य पाँच के शहद निम्न से उत्तम की श्रेणियों में बाँटे गये। शहद में कुल १९ पादप कुलों के पौधों के परागकण पाये गये। अपर्याप्त मात्रा में परागकणों का शहद में होना इस बात को इंगित करता है कि उसमें कुछ मिलावट है अर्थात् कई अच्छी कम्पनियाँ भी घटिया अथवा मिलावटी मधु बेच सकती हैं जो कि ग्राहक/उपभोक्ता को छलती हैं। यह मिलावट हानिकारक भी हो सकती है। यही मिलावट स्थानीय विक्रेता भी कर सकते हैं तथा इस कार्य में मधुमक्खियों की हिंसा, उत्पीड़न तथा उनके अण्डों आदि का मधु में मिलना भी सहजता से संभव है।
शोध मे पाया गया है कि मधु की एक बूंद में हजारों की संख्या में विभिन्न प्रकार के परागकण विद्यमान रहते हैं। जिस प्रकार विभिन्न पौधों के अलग-अलग गुणधर्म होते हैं उसी प्रकार उनके फूलों, मकरन्द एवं परागकणों के गुण अवगुण भी अलग अलग होते हैं। सरसों, तुलसी, नींबू, नीम के परागकण स्वास्थ्यप्रद हो सकते हैं परंतु धतूरे के फूलों से बना मधु तो निश्चित रूप से नुकसानदेह ही होगा। इसी प्रकार इन फूलों के गुण, दुर्गुण भी मधु में मिलकर इसे शंकास्पद आहार की संभावना ही बनाते हैं। चूँकि मधु की गुणवत्ता में परागकण प्रमुख भूमिका निभाते हैं अत: इनका सीधा औषधीय उपयोग अधिक स्वास्थ्यप्रद, निरापद तथा अहिंसक रहेगा। इसी प्रकार विभिन्न पुष्पों का प्रत्यक्ष रूप से प्रयोग अधिक अच्छा रहेगा। वर्तमान में गंध चिकित्सा में पुष्पों का मुख्य योगदान है तो प्राचीन जैनागम में भी पुष्प चिकित्सा का वर्णन प्राप्त होता है।
मधु एक निरापद, अहिंसक, स्वास्थ्यप्रद खाद्य नहीं है तथा मधुमक्खियाँ हमारे लिये पुष्पों के परागकण द्वारा फसलों की उन्नति में एवं परागकणों की उपयोगिता पर कार्य होना चाहिये तथा मधु सेवन के स्थान पर पुष्पो की सुगंध, उनके मनभावन रंगों तथा शक्कर की चासनी से काम लेना चाहिये। शहद की सुपाच्य शर्करा के विकल्प में ग्लूकोज तथ खजूर सहज सुलभ है।