त्रसनाली के बहुमध्य भाग में चित्रा पृथ्वी के ऊपर पैंतालीस लाख योजन प्रमाण विस्तार वाला अतिगोल मनुष्य लोक है। इस मनुष्य लोक की ऊंचाई एक लाख योजन है। इसकी परिधि एक करोड़ बयालीस लाख, तीस हजार दो सौ उन्चास योजन (१,४२,३०,२४९ योजन) है और इसका क्षेत्रफल एक सौ आठ खरब, नौ अरब, ३ करोड़, एक लाख पच्चीस हजार योजन (१६००९०३०१२५०००) है।
इस ४५ लाख योजन प्रमाण मनुष्यलोक के बीचोंबीच में जम्बूद्वीप है जो कि एक लाख योजन व्यास वाला गोलाकार है। इसको चारों तरफ से वेष्टित कर दो लाख योजन विस्तृत चूड़ी सदृश आकार वाला लवणसमुद्र है। इसे वेष्टित कर चार लाख योजन विस्तृत धातकीखण्ड है। इसे घेर कर आठ लाख योजन विस्तार वाला कालोद समुद्र है। इसको वेष्टित कर सोलह लाख योजन विस्तृत पुष्करवर द्वीप है। इस द्वीप के ठीक बीच में चूड़ी के सदृश आकार वाला एक मानुषोत्तर पर्वत है। इस पर्वत तक ही इस मनुष्य लोक की सीमा है इसलिए एक लाख योजन जम्बूद्वीप, दो-दो लाख दोनों तरफ का लवण समुद्र ऐसे चार लाख आदि सभी को जोड़ देने से ४५ लाख योजन प्रमाण यह मनुष्यलोक हो जाता है।
इस मनुष्य लोक में एक जम्बूद्वीप, द्वितीय धातकीखण्ड तथा तृतीय पुष्करवर द्वीप का आधा पुष्करार्ध द्वीप ये मिलकर ढाई द्वीप हैं। लवण समुद्र और कालोद समुद्र ये दो समुद्र हैं।
एक लाख योजन विस्तृत इस जम्बूद्वीप के ठीक बीच में सुदर्शन मेरु पर्वत है। यह एक लाख चालीस योजन ऊंचा है, इसकी नींव एक हजार योजन है और चूलिका ४० योजन है। इसकी चौड़ाई पृथ्वी पर १० हजार योजन है, घटते हुए अग्रभाग पर ४ योजन मात्र है। इस जम्बूद्वीप में दक्षिण से लेकर भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक् , हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं। हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी इन छह पर्वतों से ये सात क्षेत्र विभाजित हैं। इन पर्वतों पर ठीक बीच-बीच में क्रम से पद्म, महापद्म, तिगिञ्छ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक ये छह सरोवर हैं। इन सरोवरों से १४ महानदियाँ निकलती हैं जो कि दो-दो युगल से सात क्षेत्रों में बहती हैं। उनके नाम-गंगा-सिन्धु, रोहित-रोहितास्या, हरित-हरिकान्ता, सीता-सीतोदा, नारी-नरकान्ता, सुवर्णकूला-रूप्यकूला और रक्ता-रक्तोदा हैं।
भरतक्षेत्र में ठीक बीच में पूर्व-पश्चिम लंबा, ५० योजन चौड़ा और २५ योजन ऊंचा, तीन कटनी वाला विजयार्ध पर्वत है। हिमवान् पर्वत से गंगा-सिन्धु नदी निकलकर नीचे गिरकर इस विजयार्ध की गुफा से बाहर निकलकर क्षेत्र में बहती हुई पूर्व-पश्चिम की तरफ लवण समुद्र में प्रवेश कर जाती है। इससे भरतक्षेत्र के छ: खण्ड हो जाते हैं। इसमें से दक्षिण की तरफ के बीच का आर्यखण्ड है और शेष पांच म्लेच्छ खण्ड हैं। ऐसे ही ऐरावत क्षेत्र के भी छ: खण्ड हैं। इन भरत और ऐरावत के आर्यखण्ड में ही षट्काल परिवर्तन होता है। विदेहक्षेत्र-विदेह के ठीक बीच में सुदर्शन मेरु होने से उसके पूर्वविदेह-पश्चिम विदेह ऐसे दो भाग हो जाते हैं। सुदर्शन मेरु के दक्षिण में देवकुरु और उत्तर में उत्तरकुरु है वहां उत्तम भोगभूमि है। सुदर्शन मेरु की चारों विदिशाओं में एक-एक गजदंत हैं जो कि निषध, नील पर्वत को स्पर्श कर रहे हैं।
पूर्व-पश्चिम विदेह में सोलह वक्षार और बारह विभंगा नदियों के निमित्त से ३२ देश हो जाते हैं। इन बत्तीसों विदेहों में भी मध्य में विजयार्ध और गंगा-सिन्धु नदियों के निमित्त से छ:-छ: खण्ड हो गये हैं। वहां के आर्यखण्ड में सदा ही चतुर्थकाल के प्रारम्भ जैसी कर्मभूमि रहती है इसीलिए ये बत्तीस शाश्वत कर्मभूमि हैं। वहां पर सदा ही तीर्थंकर, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण, बलभद्र होते ही रहते हैं। सदा ही केवलियों का और मुनियों का विहार चालू रहता है।
हैमवत और हैरण्यवत में जघन्य भोगभूमि है। वहां के मनुष्य युगल ही उत्पन्न होते हैं और साथ ही मरते हैं। इनकी एक पल्य की उत्कृष्ट आयु है और शरीर की ऊँचाई एक कोश है। ये मनुष्य दश प्रकार के कल्पवृक्षों से भोगोपभोग की सामग्री प्राप्त करते हैं। हरि और रम्यक क्षेत्र में मध्यम भोगभूमि है। वहां के मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु दो पल्य और शरीर की ऊँचाई दो कोश है। विदेह में स्थित देवकुरू-उत्तरकुरू में उत्तम भोगभूमि है। वहां के मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु तीन पल्य और शरीर की ऊँचाई तीन कोश है। ये छहों भोगभूमियां सदाकाल एक सी रहने से शाश्वत भोगभूमि कहलाती हैं।
उत्तरकुरु में ईशान कोण में पृथ्वीकायिक रत्नमयी जम्बूवृक्ष है और देवकुरु में आग्नेय कोण में शाल्मली वृक्ष है। काल परिवर्तन कहां-कहां-इस प्रकार जम्बूद्वीप में शाश्वत कर्मभूमि ३२, शाश्वत भोगभूमि ६ हैं। वहां षट्काल परिवर्तन नहीं है। भरत, ऐरावत के आर्यखण्डों में षट्काल परिवर्तन होता है। अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी के भेद से काल दो प्रकार का है। सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमादु:षमा, दु:षमा-सुषमा, दु:षमा और अतिदु:षमा, ये अवसर्पिणी के भेद हैं। ऐसे अतिदु:षमा से लेकर सुषमासुषमा तक उत्सर्पिणी के भेद हैं। भरत-ऐरावत के आर्यखण्ड में प्रथमकाल में उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था है, द्वितीय काल में मध्यम एवं तृतीय काल में जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। चतुर्थकाल में विदेह जैसी कर्मभूमि व्यवस्था हो जाती है। इस काल में तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि महापुरुष होते हैं, केवलियों के सद्भाव में मोक्षगमन चालू रहता है। पुन: पंचमकाल में तीर्थंकर तथा केवलियों का अभाव होने से धर्म का ह्रास होने लगता है। छठे काल में धर्म, राजा और अग्नि का सर्वथा अभाव हो जाने से मनुष्य पशुवत् जीवन यापन करते हैं और बहुत ही दु:खी, घर, वस्त्र आदि से रहित होते हैं। यह काल परिवर्तन भरत, ऐरावत के सिवाय अन्यत्र नहीं होता हैताभ्यामपरा भूमियोऽवस्थिता:। तत्त्वार्थसूत्र अ.-३।।
जम्बूद्वीप के विदेह के ५-५ म्लेच्छखंड ऐसे (३२²५·१६०) एक सौ साठ म्लेच्छखंड हैं तथा भरत और ऐरावत के ५-५ म्लेच्छ खण्ड मिलकर १७० म्लेच्छ खण्डों में सदा चतुर्थकाल के आदि जैसी एवं भरत-ऐरावत के म्लेच्छ खण्डों में चतुर्थकाल के आदि से लेकर अंत जैसी व्यवस्था रहती है।
भरत-ऐरावत के विजयार्ध में दक्षिण श्रेणी में ५० और उत्तर श्रेणी में ६० ऐसी ११० नगरियां हैं जहां पर मनुष्यों का निवास है। ये मनुष्य कर्मभूमिज हैं। जाति, कुल और मन्त्रों से विद्याओं को प्राप्त कर विद्याधर कहलाते हैं। यहां पर तथा भरत-ऐरावत के ५-५ म्लेच्छखण्डों में चतुर्थकाल के आदि से अन्त तक परिवर्तन होता रहता है पुन: उत्सर्पिणी में चतुर्थकाल के अन्त से आदि तक व्यवस्था रहती है। ऐसे ही ३२ विदेहों के ३२ विजयार्धों पर दोनों श्रेणियों में ५५-५५ ऐसी ११०-११० नगरियों में विद्याधर मनुष्य रहते हैं। वहां पर सदा चतुर्थकाल के आदि जैसी ही व्यवस्था रहती है।
पांच म्लेच्छ खण्डों के मध्य के म्लेच्छ खण्ड में एक वृषभाचल पर्वत है। चक्रवर्ती षट्खण्ड विजय करके इस पर अपनी प्रशस्ति लिखता है। ऐसे ३४ आर्यखण्ड के सदृश ३४ वृषभाचल हैं।
हैमवत्, हरि, रम्य और हैरण्यवत इन चारों क्षेत्रों में ठीक बीच में एक-एक नाभिगिरि पर्वत होने से ४ नाभिगिरि हैं।
सुदर्शन मेरु के १६±गजदंत के ४±जम्बू शाल्मलि वृक्ष के २±वक्षार के १६±विजयार्ध के ३४±और कुलाचलों के ६ ऐसे·७८ अकृत्रिम जिनमंदिर हैं।
यह द्वितीय द्वीप चार लाख योजन विस्तृत है। इसके दक्षिण-उत्तर में चार लाख योजन चौड़े दो इष्वाकार पर्वत हैं। इनके निमित्त से धातकीखण्ड के पूर्व धातकीखण्ड और पश्चिम धातकीखण्ड ऐसे दो भाग हो गए हैं। दोनों भाग में विजय, अचल नाम के सुमेरु पर्वत, भरत, हैमवत् आदि सात क्षेत्र, हिमवान् आदि कुलाचल और गंगा आदि महानदियां हैं अत: धातकीखंड में प्रत्येक रचना जम्बूद्वीप से दूनी है। अन्तर इतना ही है कि वहां पर क्षेत्र आरे के समान आकार वाले हैं तथा दो इष्वाकार पर्वत के दो जिनमंदिर अधिक हैं। यहां पर जम्बूवृक्ष के स्थान पर धातकी वृक्ष हैं।
पुष्करार्ध द्वीप में भी दक्षिण और उत्तर में आठ लाख योजन लम्बे दो इष्वाकार पर्वत हैं। बाकी शेष रचना धातकीखण्डवत् है। यहां पर मेरु के मंदर मेरु और विद्युन्माली मेरु नाम हैं तथा यहां के क्षेत्र भी आरे के समान हैं। यहां जम्बूवृक्ष के स्थान पर पुष्कर वृक्ष है। जम्बूद्वीप के क्षेत्र पर्वतों की जितनी लम्बाई चौड़ाई है उनकी अपेक्षा धातकीखण्ड के क्षेत्रादि की अधिक है तथा पुष्करार्ध के क्षेत्रादि की उनसे भी अधिक है। जैसे जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र का विष्कम्भ ५२६,६/१९ योजन है। धातकीखण्ड के भरतक्षेत्र का बाह्य विष्कम्भ १८५४७, १५५/२१२ योजन है। पुष्करार्ध के भरतक्षेत्र का बाह्य विष्कम्भ ६५४४६, १३/२१२ योजन है।
लवण समुद्र के अभ्यन्तर तट की दिशाओं में ५०० योजन जाकर १००-१०० योजन विस्तृत चार द्वीप हैं तथा चारों विदिशा में ५०० योजन जाकर ५५ योजन विस्तृत चार द्वीप हैं। इन दिशा-विदिशा के अंतराल में ५५० योजन जाकर ५०-५० योजन विस्तृत आठ द्वीप हैं तथा हिमवान पर्वत, भरत संबंधी विजयार्ध, शिखरी पर्वत और ऐरावत संबंधी विजयार्ध इन चारों पर्वतों के दोनों-दोनों तटों के निकट समुद्र में ६०० योजन जाकर २५-२५ योजन विस्तृत आठ द्वीप हैं। इस प्रकार २४ कुमानुषद्वीप हैं। लवण समुद्र के बाह्य तट पर भी ऐसे ही २४ द्वीप हैं। इसी तरह कालोद समुद्र के अभ्यंतर और बाह्य दोनों तट सम्बन्धी २४-२४ द्वीप हैं। कुल मिलाकर ९६ कुमानुष द्वीप हैं। ये सभी द्वीप जल से एक योजन ऊपर हैं। दिशागत द्वीप में जन्म लेने वाले मनुष्य क्रम से एक जंघा वाले, पूंछ वाले, सींग वाले और गूंगे होते हैं। विदिशागत द्वीपों में क्रम से शष्कुलि सदृश कर्ण वाले, कर्ण प्रावरण-जिन्हें ओढ़ लें ऐसे कान वाले, लम्बे कान वाले और खरगोश सदृश कान वाले मनुष्य हैं। आठ अन्तर दिशाओं में क्रम से सिंहमुख, अश्वमुख, भैंसामुख, सूकरमुख, व्याघ्रमुख, घुग्घूमुख और बन्दरमुख वाले मनुष्य हैं तथा पर्वतों के तट संबंधी पश्चिम दिशा में क्रम से कालमुख, गोमुख, विद्युतमुख और हाथीमुख वाले मनुष्य रहते हैं। दिशागत द्वीपों के मनुष्य गुफाओं में निवास करते हैं और वहां की अत्यन्त मीठी मिट्टी का भोजन करते हैं। विदिशागत आदि शेष द्वीपों के मनुष्य वृक्षों के नीचे निवास करते हैं और कल्पवृक्षों से प्रदत्त फलों का भोजन करते हैं। यहां पर युगलिया स्त्री-पुरुष जन्म लेते हैं और एक पल्य की आयु को भोगकर युगल ही मरण करते हैं। यहाँ की सारी व्यवस्था जघन्य भोगभूमि के सदृश है। इन मनुष्यों के जो कान और मुख के आकार पशु आदि के सदृश बताये हैं, उनसे अतिरिक्त शेष सभी शरीर का आकार मनुष्य सदृश ही है इसीलिए ये कुमानुष कहलाते हैं। यहां कर्मभूमि में कोई भी जीव कुत्सित पुण्य संचित करके कुमानुष योनि में जन्म ले लेते हैं त्रिलोकसार गाथा ९१३ से ९२१ तक। इस प्रकार ढाई द्वीप और दो समुद्र में भोगभूमि, कुभोगभूमि, आर्यखण्ड, म्लेच्छखण्ड तथा विद्याधर श्रेणी की अपेक्षा मनुष्यों के निवास स्थान पांच प्रकार के हो गए हैं। जम्बूद्वीप में जितनी रचना है संख्या में उसकी अपेक्षा दूनी रचना धातकीखण्ड में तथा वैसी ही पुष्करार्ध में है। जैसे कि जम्बूद्वीप में भोगभूमि ६ है, तो धातकीखण्ड में १२ इत्यादि। सबका स्पष्टीकरण शाश्वत भोगभूमि ६²५·३० (हैमवत, हरि, देवकुरु, उत्तरकुरु, रम्यक, हैरण्यवत) शाश्वत कर्मभूमि ३२²५·१६० (विदेह सम्बन्धी) अशाश्वत भोगभूमि १० (५ भरत ५ ऐरावत के आर्यखण्ड में षट्काल परिवर्तन के ३-३ काल में) अशाश्वत भोगभूमि १० (५ भरत, ५ ऐरावत के आर्यखण्ड में षट्काल परिवर्तन के ३-३ काल में) अशाश्वत कर्मभूमि १० (५ भरत ५ ऐरावत के आर्यखण्ड के छह काल परिवर्तन के ३-३ काल में) आर्यखण्ड १७० (विदेह १६०±भरत ५±ऐरावत ५·१७०) म्लेच्छखण्ड ८५० (यहां के मनुष्य क्षेत्र से म्लेच्छ हैं, जाति और क्रिया से नहीं) विद्याधर श्रेणी २४० (यहां के मनुष्य आकाशगामी आदि विद्या से सहित होते हैं।) कुभोगभूमि ९६ (लवण समुद्र की ४८±कालोद समुद्र की ४८·९६)
१. सुमेरु पर्वत ५ २. जम्बू शाल्मली आदि वृक्ष १० ३. गजदंत २० ४. कुलाचल (हिमवान आदि) ३० ५. वक्षार ८० ६. विजयार्ध १७० ७. वृषभाचल १७० ८. इष्वाकार ४ ९. नाभिगिरि २०
अकृत्रिम चैत्यालय ३९८ हैं (ढाई द्वीप संबंधी)- १. पांच सुमेरु के ८० २. जम्बू आदि दशवृक्ष के १० ३. बीस गजदंत के २० ४. तीस कुलाचल के ३० ५. अस्सी वक्षार के ८० ६. एक सौ सत्तर विजयार्ध के १७० ७. चार इष्वाकार के ४ ८. मानुषोत्तर पर्वत की चार दिशा के ४ कुल ८०±१०±२०±३०±८०±१७०±४±४·३९८, इन्हीं में नंदीश्वर द्वीप के ५२, कुण्डलगिरि के ४ और रुचकगिरि के ४ चैत्यालय मिला देने से मध्यलोक के सर्व जिनचैत्यालय ४५८ हो जाते हैं। इनको मेरा सिर झुकाकर नमस्कार होवे।
लवण समुद्र जम्बूद्वीप को चारों ओर से घेरे हुए खाई के सदृश गोल है, इसका विस्तार दो लाख योजन प्रमाण है। एक नाव के ऊपर अधोमुखी दूसरी नाव के रखने से जैसा आकार होता है उसी प्रकार वह समुद्र चारों ओर आकाश में मण्डलाकार से स्थित है। उस समुद्र का विस्तार ऊपर दस हजार योजन और चित्रापृथ्वी के समभाग में दो लाख योजन है। समुद्र के नीचे दोनों तटों में से प्रत्येक तट से पंचानवे हजार योजन प्रवेश करने पर दोनों ओर से एक हजार योजन की गहराई में तल विस्तार दस हजार योजन मात्र है तिलोयपण्णत्ति, पृ. ४४५। समभूमि से आकाश में इसकी जलशिखा है, यह अमावस्या के दिन समभूमि से ११००० योजन प्रमाण ऊंची रहती है। वह शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन क्रमश: वृद्धि को प्राप्त होकर पूर्णिमा के दिन १६००० योजन प्रमाण ऊंची हो जाती है। इस प्रकार जल के विस्तार में १६००० योजन की ऊंचाई पर दोनों ओर समानरूप से १९०००० योजन की हानि हो गई है। यहां प्रतियोजन की ऊंचाई पर होने वाली वृद्धि का प्रमाण ११,७/८ योजन प्रमाण है। गहराई की अपेक्षा रत्नवेदिका से ९५ प्रदेश आगे जाकर एक अंगुल, ९५ हाथ जाकर एक हाथ, ९५ कोस जाकर एक कोस एवं ९५ योजन जाकर एक योजन की गहराई हो गई है। इसी प्रकार से ९५ हजार योजन जाकर १००० योजन की गहराई हो गई है अर्थात् लवण समद्र के समजल भाग में समुद्र का जल १ योजन नीचे जाने पर एक तरफ से विस्तार में ९५ योजन हानिरूप हुआ है। इसी क्रम से एक प्रदेश नीचे जाकर ९५ प्रदेशों की, १ अंगुल नीचे जाकर ९५ अंगुलों की, एक हाथ नीचे जाकर ९५ हाथों की भी हानि समझ लेना चाहिए। अमावस्या के दिन उक्त जलशिखा की ऊंचाई ११००० योजन होती है। पूर्णिमा के दिन वह उससे ५००० योजन बढ़ जाती है अत: ५००० के १५वें भाग प्रमाण क्रमश: प्रतिदिन ऊंचाई में वृद्धि होती है। १६०००-११०००/१५·५०००/१५,५०००/१५·३३३, १/३ योजन-तीन सौ तेतीस से कुछ अधिक प्रमाण प्रतिदिन वृद्धि होती है।
लवण समुद्र के मध्य भाग में चारों ओर उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य ऐसे १००८ पाताल हैं। ज्येष्ठ पाताल ४, मध्यम ४ और जघन्य १००० हैं। उत्कृष्ट पाताल चार दिशाओं में ४ हैं, मध्यम पाताल ४ विदिशाओं में ४ एवं उत्कृष्ट मध्यम के मध्य में ८ अन्तर दिशाओं में १००० जघन्य पाताल हैं।
उस समुद्र के मध्य भाग में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से पाताल, कदम्बक, बड़वामुख और यूपकेसर नामक चार पाताल हैं। इन पातालों का विस्तार मूल में और मुख में १०००० योजन प्रमाण है। इनकी गहराई, ऊंचाई और मध्य विस्तार मूल विस्तार से दस गुणा-१,००००० योजन प्रमाण है। पातालों की वज्रमय भित्तिका ५०० योजन मोटी है। ये पाताल जिनेन्द्र भगवान द्वारा अरंजन-घट विशेष के समान कहे गए हैं। पाताल के उपरिम त्रिभाग में घनी वायु और मध्य त्रिभाग में क्रम से जल, वायु दोनों रहते हैं। सभी पातालों के पवन सर्वकाल शुक्ल पक्षों में स्वभाव से बढ़ते हैं एवं कृष्णपक्ष में स्वभाव से घटते हैं। शुक्ल पक्ष में पूर्णिमा तक प्रतिदिन २२२२,२/९ योजन पवन की वृद्धि हुआ करती है। पूर्णिमा के दिन पातालों के अपने-अपने तीन भागों में से नीचे के दो भागों में वायु और ऊपर के तृतीय भाग में केवल जल रहता है। अमावस्या के दिन अपने-अपने तीन भागों में से क्रमश: ऊपर के दो भागों में जल और नीचे के तीसरे भाग में केवल वायु स्थित रहता है। पातालों के अन्त मेें अपने-अपने मुख विस्तार को ५ से गुणा करने पर जो प्राप्त हो, उतने प्रमाण आकाश में अपने-अपने पाश्र्व भागों में जलकण जाते हैं। ‘‘तत्त्वार्थराजवार्तिक’’ ग्रन्थ में जलवृद्धि का कारण किन्नरियों का नृत्य बतलाया है।
यथा-‘‘रत्नप्रभाखरपृथ्वी-भागसन्निवेशिभवनालयवातकुमारतद्वनिताक्रीड़ा जनितानिलसंक्षोभकृतपातालोन्मीलननिमीलनहेतुकौ वायुतोयनिष्क्रमप्रवेशौ भवत:। तत्कृता दशयोजन-सहस्रविस्तारमुखजलस्योपरि पंचाशद्योजनावधृता जलवृद्धि:। तत् उभयत आरत्नवेदिकाया: सर्वत्र द्विगव्यूतिप्रमाणा जलवृद्धि:। पातालोन्मीलन-वेगोपशमेन हानि: तिलोयपण्णत्ति
अर्थ- रत्नप्रभा पृथ्वी के खरभाग में रहने वाली वातकुमार देवियों की क्रीड़ा से क्षुब्ध वायु के कारण ५०० योजन जल की वृद्धि होती है अर्थात् वायु और जल का निष्क्रम और प्रवेश होता है और दोनों तरफ रत्नवेदिका पर्यन्त सर्वत्र दो गव्यूति प्रमाण जलवृद्धि होती है। पाताल के उन्मीलन के वेग की शान्ति से जल की हानि होती है। इन पातालों का तीसरा भाग १०००००/३·३३३३३,१/३ योजन प्रमाण है। ज्येष्ठ पाताल सीमंत बिल के उपरिम भाग में संलग्न है अर्थात् ये पाताल भी मृदंग के आकार सदृश गोल हैं, समभूमि से नीचे की गहराई का जो प्रमाण है वह इन पातालों की ऊंचाई है। यदि प्रश्न यह होवे कि १ लाख योजन तक इनकी गइराई समतल से नीचे कैसे होगी तो उसका समाधान यह है कि रत्नप्रभा पृथ्वी एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है वहां खरभाग, पंकभाग पर्यन्त ये पाताल पहुँचे हुए ऊँचे (गहरे) हैं।
विदिशाओं में भी इनके समान चार पाताल हैं, उनका मुख विस्तार और मूल विस्तार १००० योजन तथा मध्य में और ऊंचाई-गहराई में १०००० योजन है, इनकी वज्रमय भित्ति ५० योजन प्रमाण है। इन पातालों के उपरिम तृतीय भाग में जल, नीचे के तृतीय भाग में वायु, मध्य के तृतीय भाग में जल, वायु दोनों रहते हैं। पातालों की गहराई-ऊंचाई १०००० योजन है। १००००/३·३३३३,१/३ पातालों का तृतीय भाग तीन हजार तीन सौ तेतीस से कुछ अधिक है। इनमें प्रतिदिन होने वाली जलवायु की हानि-वृद्धि का प्रमाण २२२,२/९ योजन है।
उत्तम, मध्यम, पातालों के मध्य में आठ अन्तर दिशाओं में एक हजार जघन्य पाताल हैं। इनके विस्तार आदि का प्रमाण मध्यम पातालों की अपेक्षा दसवें भाग मात्र है अर्थात् मुख औ र मूल में ये पाताल १०० योजन हैं। मध्य में चौड़े और गहरे १००० योजन प्रमाण हैं। इनमें भी उपरिम त्रिभाग में जल, नीचे में वायु और मध्य में जलवायु दोनों है। इनका त्रिभाग ३३३,१/३ योजन है और प्रतिदिन जलवायु की हानि-वृद्धि २२२/९ योजन मात्र है।
लवण समुद्र के बाह्य भाग में ७२०००, शिखर पर २८००० और अभ्यन्तर भाग में ४२००० नगर अवस्थित हैं। समुद्र के अभ्यन्तर भाग की वेला की रक्षा करने वाले वेलंधर नागकुमार देवों के नगर ४२००० हैं। जलशिखा को धारण करने वाले नागकुमार देवों के ७२००० नगर हैं तिलोयपण्णत्ति, पृ. ४५१। ये नगर दोनों तटों से ७०० योजन जाकर तथा शिखर से ७००,१/२ योजन जाकर आकाशतल में स्थित हैं। इनका विस्तार १०००० योजन प्रमाण है। नगरियों के तट उत्तम रत्नों से निर्मित समान गोल हैं। प्रत्येक नगरियों में ध्वजाओं, तोरणों से सहित दिव्य तटवेदियां हैं। उन नगरियों में उत्तम वैभव से सहित वेलंधर और भुजग देवों के प्रासाद स्थित हैं। जिनमंदिरों से रमणीय वापिका, उपवनों से सहित इन नगरियों का वर्णन बहुत ही सुंदर है। ये नगरियां अनादिनिधन हैं।
समुद्र के दोनों किनारों में बयालीस हजार योजन प्रमाण प्रवेश करके पातालों के पाश्र्व भागों में आठ पर्वत हैं। (ऊपर) तट से ४२००० योजन आगे समुद्र में जाकर ‘पाताल’ के पश्चिम दिशा में कौस्तुभ और पूर्व दिशा में कौस्तुभास नाम के दो पर्वत हैं, ये दोनों पर्वत रजतमय, धवल, १००० योजन ऊंचे, अर्थ घट के समान आकार वाले, वज्रमय, मूल भाग से सहित, नाना रत्नमय अग्रभाग से सुशोभित हैं। प्रत्येक पर्वत का तिरछा विस्तार एक लाख सोलह हजार योजन है इस प्रकार से जगती से पर्वतों तक तथा पर्वतों का विस्तार मिलाकर दो लाख योजन होता है। पर्वत का विस्तार १,१६००० है। जगती से पर्वत का अंतराल ४२०००±४२०००·८४०००,११६०००±८४०००·२,०००००तिलोयपण्णत्ति, पृ. ४५२। ये पर्वत मध्य में रजतमय हैं। इनके ऊपर इन्हीं के नाम वाले कौस्तुभ-कौस्तुभास देव रहते हैं। इनकी आयु, अवगाहना आदि विजय देव के समान है। कदंबपाताल की उत्तर दिशा में उदक नामक पर्वत और दक्षिण दिशा में उदकाभास नामक पर्वत है, ये दोनों पर्वत नीलमणि जैसे वर्ण वाले हैं। इन पर्वतों के ऊपर क्रम से शिव और शिवदेव निवास करते हैं। इनकी आयु आदि कौस्तुभ देव के समान है। बड़वामुख पाताल की पूर्व दिशा में शंख और पश्चिम दिशा में महाशंख नामक पर्वत हैं। ये दोनों ही शंख के समान वर्ण वाले हैं। इन पर उदक, उदकावास देव स्थित हैं, इनका वर्णन पूर्वोक्त सदृश है। यूपकेसरी के दक्षिण भाग में दक नामक पर्वत और उत्तर भाग में दकवास नामक पर्वत हैै। ये दोनों पर्वत वैडूर्यमणिमय हैं। इनके ऊपर क्रम से लोहित, लोहितांक देव रहते हैं।
जम्बूद्वीप की जगती से बयालीस हजार योजन जाकर ‘सूर्यद्वीप’ नाम से प्रसिद्ध आठ द्वीप हैं।तिलोयपण्णत्ति, पृ. ४५३। ये द्वीप पूर्व में कहे हुए कौस्तुभ आदि पर्वतों के दोनों पाश्र्व भागों में स्थित होकर निकले हुए मणिमय दीपकों से युक्त शोभायमान हैं। त्रिलोकसार में १६ ‘चन्द्रद्वीप’ भी माने गये हैं। यथा-अभ्यन्तर तट और बाह्य तट दोनों से ४२००० योजन छोड़कर चारों विदिशाओं के दोनों पाश्र्व भागों में दो-दो, ऐसे आठ ‘‘सूर्यद्वीप’’ हैं और दिशा-विदिशा के बीच में जो आठ अन्तर दिशायें हें उनके दोनों पाश्र्व भागों में दो-दो, ऐसे १६ ‘चन्द्रद्वीप’ नामक द्वीप हैं। ये सब द्वीप ४२००० योजन व्यास वाले और गोल आकार वाले हैं। यहां द्वीप से ‘टापू’ को समझना। समुद्र में गौतमद्वीप का वर्णन-लवण समुद्र के अभ्यन्तर तट से १२००० योजन आगे जाकर १२००० योजन ऊंचा एवं इतने ही प्रमाण व्यास वाला गोलाकार गौतम नामक द्वीप है जो कि समुद्र में ‘वायव्य’ विदिशा में है। ये उपर्युक्त सभी द्वीप वन, उपवन वेदिकाओं से रम्य हैं और ‘जिनमंदिर’ से सहित हैं। उन द्वीपों के स्वामी वेलंधर जाति के नागकुमार देव हैं। वे अपने-अपने द्वीप के समान नाम के धारक हैं।
भरतक्षेत्र के पास समुद्र के दक्षिण तट से संख्यात योजन जाकर आगे मागध, वरतनु और प्रभास नाम के तीन द्वीप हैं अर्थात् गंगा नदी के तोरण द्वार से आगे कितने ही योजन प्रमाण समुद्र में जाने पर ‘मागध’ द्वीप है। जम्बूद्वीप के दक्षिण वैजयंत द्वार से कितने ही योजन समुद्र में जाने पर ‘वरतनु’ द्वीप है एवं सिन्धु नदी के तोरण से कितने ही योजन जाकर ‘प्रभास’ द्वीप हैतिलोयपण्णत्ति, पृ. ४५४।। इन द्वीपों में इन्हीं नाम के देव रहते हैं। इन देवों को भरतक्षेत्र के चक्रवर्ती वश में करते हैं। ऐसे ही ऐरावत क्षेत्र के उत्तर भाग में, रक्तोदा नदी के पाश्र्व भाग में, समुद्र के अन्दर ‘मागध’ द्वीप, अपराजित द्वार से आगे ‘वरतनु’ द्वीप एवं रक्ता नदी के आगे कुछ दूर जाकर ‘प्रभास’ द्वीप है जो कि ऐरावत क्षेत्र के चक्रवर्तियों के द्वारा जीते जाते हैं।
लवण समुद्र में कुमानुषों के ४८ द्वीप हैं। इनमें से २४ द्वीप तो अभ्यन्तर भाग में एवं २४ द्वीप बाह्य भाग में स्थित हैं। जम्बूद्वीप की जगती से ५०० योजन आगे जाकर ४ द्वीप चारों दिशाओं में और इतने ही योजन जाकर चार द्वीप चारों विदिशाओं में हैं। जम्बूद्वीप की जगती से ५५० योजन आगे जाकर दिशा, विदिशा की अन्तर दिशाओं में ८ द्वीप हैं। हिमवान्, विजयार्ध पर्वत के दोनों किनारों में जगती से ६०० योजन जाकर ४ द्वीप एवं उत्तर में शिखरी और विजयार्ध के दोनों पाश्र्व भागों में ६०० योजन अन्दर समुद्र में जाकर ४ द्वीप हैं। दिशागत द्वीप १०० योजन प्रमाण विस्तार वाले हैं, ऐसे ही विदिशागत द्वीप ५५ योजन विस्तृत, अन्तर दिशागत द्वीप ५० योजन विस्तृत एवं पर्वत के पाश्र्वगत द्वीप २५ योजन विस्तृत हैं। ये सब उत्तम द्वीप वनखण्ड, तालाबों से रमणीय, फल फूलों के भार से संयुक्त तथा मधुर रस एवं जल से परिपूर्ण हैं। यहां कुभोगभूमि की व्यवस्था है। यहां पर जन्म लेने वाले मनुष्य ‘कुमानुष’ कहलाते हैं और विकृत आकार वाले होते हैं। पूर्वादिक दिशाओं में स्थित चार द्वीपों के कुमानुष क्रम से एक जंघा वाले, पूंछ वाले, सींग वाले और गूंगे होते हैं। आग्नेय आदि विदिशाओं के कुमानुष क्रमश: शष्कुलीकर्ण, कर्ण प्रावरण, लम्बकर्ण और शशकर्ण होते हैं। अन्तर दिशाओं में स्थित आठ द्वीपों के वे कुमानुष क्रम से सिंह, अश्व, श्वान, महिष, वराह, शार्दूल, घूक और बन्दर के समान मुख वाले होते हैं। हिमवान् पर्वत के पूर्व-पश्चिम किनारों में क्रम से मत्स्यमुख, कालमुख तथा दक्षिण विजयार्ध के किनारों में मेषमुख, गोमुख कुमानुष होते हैं। इन सब में से एकोरुक कुमानुष गुफाओं में रहते हैं और मिष्ट मिट्टी को खाते हैं। शेष कुमानुष वृक्षों के नीचे रहकर फल पूâलों से जीवन व्यतीत करते हैं। इस प्रकार से दिशागत द्वीप ४, विदिशागत ४, अन्तर दिशागत ८, पर्वत तटगत ८, २४ अन्तद्र्वीप हुए हैं, ऐसे ही लवण समुद्र के बाह्य भाग के भी २४ द्वीप मिलकर २४±२४·४८ अन्तद्र्वीप लवण समुद्र में हैं।
मिथ्यात्व में रत, मन्दकषायी, मिथ्या देवों की भक्ति में तत्पर, विषम पंचाग्नि तप करने वाले, सम्यक्त्व रत्न से रहित जीव मरकर कुमानुष होते हैं। जो लोग तीव्र अभिमान से गर्वित होकर सम्यक्त्व और तप से युक्त साधुओं का किंचित् अपमान करते हैं, जो दिगम्बर साधु की निन्दा करते हैं, ऋद्धि, रस आदि गौरव से युक्त होकर दोषों की आलोचना गुरु के पास नहीं करते हैं, गुरुओं के साथ स्वाध्याय, वंदना कर्म नहीं करते हैं, जो मुनि एकाकी विचरण करते हैं, क्रोध कलह से सहित हैं, अरहन्त गुरु आदि की भक्ति से रहित, चतुर्विध संघ में वात्सल्य से रहित, मौन बिना भोजन करने वाले हैं, जो पाप में संलग्न हैं, वे मृत्यु को प्राप्त होकर विषम परिपाक वाले, पाप कर्मों के फल से इन द्वीपों में कुत्सितरूप से युक्त कुमानुष उत्पन्न होते हैं तिलोयपण्णत्ति, पृ. ४५७।। त्रिलोकसार में भी यह कहा गया है-
दुब्भावअसूचिसूदकपुफ्फवई-जाइसंकरादीहिं।
कयदाणा वि कुवत्ते जीवा कुणरेसु जायन्ते।।९२४।।
अर्थ– खोटे भाव से सहित, अपवित्र मृतादि के सूतक-पातक से सहित, रजस्वला स्त्री के संसर्ग से सहित, जातिसंकर आदि दोषों से दूषित मनुष्य जो दान करते हैं और जो कुपात्रों में दान देते हैं ये जीव कुमानुष में उत्पन्न होते हैं क्योंकि ये जीव मिथ्यात्व और पाप से सहित किंचित् पुण्य उपार्जन करते हैं अत: कुत्सित भोगभूमि में जन्म लेते हैं। इनकी आयु एक पल्य प्रमाण रहती है। एक कोस ऊंचे शरीर वाले हैं। युगलिया होते हैं। मरकर नियम से भवनत्रिक देवों में जन्म लेते हैं। कदाचित् सम्यक्त्व को प्राप्त करके ये कुमानुष सौधर्म युगल में जन्म लेते हैं। लवण समुद्र के दोनों ओर तट हैं। लवण समुद्र में ही पाताल है, अन्य समुद्रों में नहीं है। लवण समुद्र के जल की गहराई और ऊँचाई में हीनाधिकता है, अन्य समुद्रों के जल मेें नहीं है। सभी समुद्रों के जल की गहराई सर्वत्र हजार योजन है और ऊपर में जल समतल प्रमाण है। लवण समुद्र का जल खारा है। लवण समुद्र में जलचर जीव पाये जाते हैं। लवण समुद्र के मत्स्य नदी के गिरने के स्थान पर ९ योजन अवगाहना वाले एवं मध्य में १८ योजन प्रमाण हैं। इसमें कछुआ, शिंशमार, मगर आदि जलजन्तु भरे हैं। पद्मपुराण में रावण की लंका को लवणसमुद्र में माना है अत: इस समुद्र में और भी अनेकों द्वीप हैं जैसा कि पद्मपुराण में स्पष्ट है।
यथा-अस्त्यत्र लवणांभोधौ व्रूरग्राहसमाकुलैः।
प्रख्यातो राक्षसद्वीप: प्रभूताद्भुतासंकुल:।।१०६।।
अर्थ-दुष्ट मगरमच्छों से भरे हुए इस लवण समुद्र में अनेक आश्चर्यकारी स्थानों से युक्त प्रसिद्ध ‘‘राक्षसद्वीप’’ हैं। जो सब ओर से सात योजन विस्तृत हैं तथा कुछ अधिक इ×ाâीस योजन उसकी परिधि है। उसके बीच में सुमेरु पर्वत के समान त्रिवूट नाम का पर्वत है जो नौ योजन ऊँचा और ५० योजन चौड़ा है, सुवर्ण तथा नाना प्रकार की मणियों से देदीप्यमान एवं शिलाओं के समूह से व्याप्त है। राक्षसों के इन्द्र भीम ने मेघवाहन के लिए वह दिया था। तट पर उत्पन्न हुए नाना प्रकार के चित्र-विचित्र वृक्षों से सुशोभित उस त्रिकूटाचल के शिखर पर लंका नाम की नगरी है जो मणि और रत्नों की किरणों तथा स्वर्ण के विमानों के समान मनोहर महलों से एवं क्रीड़ा आदि के योग्य सुन्दर प्रदेशों से अत्यन्त शोभायमान है। जो सब ओर से तीस योजन चौड़ी है तथा बहुत बड़े-बड़े प्राकार और परिखा से युक्त होने के कारण दूसरी पृथ्वी के समान जान पड़ती है। लंका के समीप में और भी ऐसे स्वाभाविक प्रदेश हैं जो रत्न, मणि तथा स्वर्ण से निर्मित हैं। वे सब प्रदेश उत्तमोत्तम नगरों से युक्त हैं, राक्षसों की क्रीड़ाभूमि हैं तथा महाभोगों से युक्त विद्याधरों से सहित हैं। संध्याकार सुबेल, कांचन, ह्रादन, योधन, हंस, हरिसागर और अधस्वर्ग आदि अन्य द्वीप भी वहाँ विराजमान हैं जो समस्त ऋद्धियों तथा भोगों को देने वाले हैं। वन-उपवन आदि से विभूषित हैं तथा स्वर्ग प्रदेशों के समान जान पड़ते हैं। इस लवण समुद्र में बहुत से द्वीप हैं जहां कल्पवृक्षों के समान आकार वाले वृक्षों से दिशायें व्याप्त हो रही हैं। इन द्वीपों में अनेकों पर्वत हैं जो रत्नों से व्याप्त ऊंचे-ऊंचे शिखरों से सुशोभित हैं। राक्षसों के इन्द्र भीम, अतिभीम तथा उनके सिवाय अन्य देवों के द्वारा आपके वंशजों के लिए ये सब द्वीप और पर्वत दिये गये हैं, ऐसा पूर्व परम्परा से सुनने में आता है।
संध्याकार, मनोल्हाद, सुबेल, कांचन, हरियोधन, जलधिध्वान, हंसद्वीप, भरक्षम, अर्धस्वर्गोत्कट, आवर्त, विघट, रोधन, अमल, कांत, स्पुâटतट, रत्नद्वीप, तोयावली, सर, अलंघन, नभोभानु और क्षेम इत्यादि सुन्दर-सुन्दर हैं। यहां वायव्य दिशा में समुद्र के बीच तीन सौ योजन विस्तार वाला बड़ा भारी वानरद्वीप है। उसमें महा मनोहर हजारों अवांतर द्वीप हैं। उस वानर द्वीप के मध्य में रत्न सुवर्ण की लम्बी, चौड़ी शिलाओं से सुशोभित ‘‘किष्कु’’ नाम का बड़ा भारी पर्वत है। जैसे यह त्रिकूटाचल है वैसे ही वह किष्कु पर्वत है इत्यादि। इस प्रकरण से यह ज्ञात होता है कि इस समुद्र में और भी अनेक द्वीप विद्यमान हैं। लवण समुद्र की जगती ८ योजन ऊंची, मूल में १२ योजन, मध्य में ८ एवं ऊपर में ४ योजन प्रमाण विस्तार वाली है। इसके ऊपर वेदिका, वनखण्ड, देव नगर आदि का पूरा वर्णन जम्बूद्वीप की जगती के समान है। इस जगती के अभ्यन्तर भाग में शिलापट्ट और बाह्य भाग में वन हैं। इस जगती की बाह्य परिधि का प्रमाण १५,८१,१३९ योजन प्रमाण है। यदि जम्बूद्वीप प्रमाण १-१ लाख खण्ड किए जावें तो इस लवण समुद्र के जम्बूद्वीप प्रमाण २४ खण्ड हो जाते हैं।
मध्यलोक में सबसे बीच में थाली के समान गोल आकार वाला जम्बूद्वीप है। यह एक लाख योजन विस्तृत है। इसे चारों तरफ से घेरकर दो लाख विस्तृत लवण समुद्र है। इसको चारों तरफ से घेरकर धातकीखण्ड द्वीप है। यह चार लाख योजन विस्तार वाला है।
इस धातकीखण्ड को चारों तरफ से वेष्ठित करके आठ योजन ऊंची जगती है। यह परकोटे के समान है। इसका विस्तार मूल में १२ योजन, मध्य में ८ योजन और ऊपर में ४ योजन है। यह जगती मध्य में बहुत प्रकार से रत्नों से निर्मित और शिखर पर वैडूर्य मणियों से परिपूर्ण है। इस जगती के मूल प्रदेश में पूर्व-पश्चिम की ओर सात-सात गुफाएं हैं जो उत्कृष्ट तोरणों से रमणीय, अनादिनिधन एवं सुन्दर हैं। इन गुफाओं से गंगा आदि १४ नदियां निकलकर कालोदधि समुद्र में प्रवेश करती हैं। पहले लवण समुद्र को भी वेष्ठित करके एक जगती है जो कि इसी प्रमाण से सहित है। उसमें भी पूर्व-पश्चिम ७-७ गुफायें हैं। पूर्व धातकीखण्ड की नदियां जो पूर्व में बहने वाली हैं, वे कालोदधि में प्रवेश करती हैं और जो पश्चिम में बहने वाली हैं, वे लवण समुद्र में प्रवेश करती हैं। ऐसे ही पश्चिम धातकीखण्ड की नदियां ७ लवण समुद्र में और ७ कालोद समुद्र में प्रवेश करती हैं। इस जगती के चार योजन विस्तार वाले ऊपर के भाग पर ठीक बीच में सुवर्णमय वेदिका है। यह दो कोश ऊंची, पांच सौ धनुष प्रमाण चौड़ी है। इस वेदिका के अभ्यंतर पाश्र्व में महोरग जाति के व्यंतर देवों के भवन बने हुए हैं। इस जगती में पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर की दिशा में क्रम से विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित नाम के चार मुख्य द्वार हैं। ये प्रत्येक द्वार आठ योजन ऊंचे और चार योजन चौड़े हैं, वज्रमयी हैं तथा अपने-अपने नाम के ही व्यंतर देवों से रक्षित हैं।
इस द्वीप में दक्षिण और उत्तर भाग में इष्वाकार नाम के दो पर्वत हैं। ये इषु-बाण के समान लम्बे होने से सार्थक नाम वाले हैं। हजार योजन चौड़े और क्षेत्र के विस्तार बराबर अर्थात् चार लाख योजन लम्बे हैं तथा चार सौ योजन ऊंचे हैं। इनका वर्ण सुवर्णमय है और इन पर चार-चार कूट स्थित हैं। एक-एक कूट पर जिन मन्दिर और शेष तीन-तीन पर देवों के भवन बने हुए हैं। इन इष्वाकार के निमित्त से धातकीखण्ड के पूर्व धातकीखण्ड और पश्चिम धातकीखण्ड ऐसे दो भेद हो गए हैं।
इस पूर्व धातकीखण्ड में हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी ये छह पर्वत हैं और भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं। इन पर्वतों के पद्म आदि सरोवरों में कमलों पर श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये छह देवियां अपने परिवार सहित रहती हैं जो कि तीर्थंकर की माता की सेवा के लिए आती हैं। इन्हीं पद्म आदि सरोवरों से गंगा, सिन्धु, रोहित, रोहितास्या, हरित, हरिकान्ता, सीता, सीतोदा, नारी, नरकान्ता, सुवर्णकूला, रूप्यकूला और रक्ता, रक्तोदा ये चौदह महानदियां निकलती हैं जो अपनी-अपनी परिवार नदियों के साथ क्षेत्रों में बहती हुई समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं। हिमवान एवं शिखरी पर्वत पर ११-११ कूट हैं, महाहिमवान एवं रुक्मी पर ८-८ कूट हैं एवं निषध, नील पर ९-९ वूट हैं। इनमें से १-१ जिनमंदिर शेष में देव देवियों के भवन हैं। भरतक्षेत्र के छह खण्ड-यहां के भरतक्षेत्र में भी ठीक बीच में पूर्व-पश्चिम लम्बा विजयार्ध पर्वत है, यह तीन कटनी वाला है। इसमें प्रथम कटनी पर विद्याधर मनुष्य रहते हैं, द्वितीय कटनी पर आभियोग्य जाति के देवों के नगर बने हुए हैं और तृतीय कटनी पर नवकूट हैं जिसके एक कूट पर जिनमन्दिर और शेष ८ पर देवों के भवन बने हुए हैं। हिमवान पर्वत के पद्म सरोवर से गंगा-सिन्धु नदी निकलकर नीचे गिरकर विजयार्ध पर्वत की गुफाओं से बाहर आकर भरतक्षेत्र में बहती हुई, इस भरतक्षेत्र में छह खण्ड कर देती है। इसमें इष्वाकार की तरफ के तीन खण्डों के बीच का जो खण्ड है वह आर्यखण्ड है। शेष पांच म्लेच्छ खण्ड हैं।
इस आर्यखण्ड में सुषमा-सुषमा आदि छहों कालों का परिवर्तन होता रहता है। आज वहां भी पंचमकाल चल रहा है। चूंकि तीर्थंकर नेमिनाथ के समय यहां से द्रौपदी का अपहरण कर एक देव धातकीखंड के भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में एक कंकापुरी नाम की नगरी है वहां के राजा के यहां पहुंचा आया था बाद में नारद के द्वारा ज्ञात होने पर श्रीकृष्ण अपने विद्या के प्रभाव से देवता को वश में करके उसकी सहायता से पांचों पांडवों को साथ लेकर वहाँ पहुँचे थे और राजा को पराजित कर द्रौपदी को वापस ले आये थे। इस उदाहरण से बिल्कुल स्पष्ट है कि यहां भरतक्षेत्र में जो भी काल परिवर्तन, जिस गति से चल रहा है, ऐसा ही वहाँ है। चूंकि उस समय यहाँ की शरीर की अवगाहना के समान ही वहां के शरीर की अवगाहना १० धनुष (४० हाथ) प्रमाण ही होगी, तभी तो यहां से द्रौपदी का वहां अपहरण कराना संभव था अन्यथा असंभव था। इस जम्बूद्वीप का भरतक्षेत्र ५२६ योजन है और धातकीखण्ड का भरतक्षेत्र ६६१४, १२९/२१२ योजन है। वहां के क्षेत्र चक्र के विवर के समान होने से मध्य का विस्तार १२५८१,३६/२१२ योजन है और बाह्य विस्तार १८५४७,१५५/२१२ योजन है। यहां के भरतक्षेत्र की अपेक्षा वहां का भरतक्षेत्र बहुत गुना अधिक है। इस धातकीखण्ड के ऐरावत क्षेत्र में भी ऐसे ही छह खण्ड हैं और वहां पर भी आर्यखण्ड में षट्काल परिवर्तन होता रहता है।
यहाँ धातकीखण्ड में भी हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र में जघन्य भोगभूमि है। हरि और रम्यक क्षेत्र में मध्यम भोगभूमि है और विदेह के दक्षिण-उत्तर में देवकुरु क्षेत्र में उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था है। ये छहों भोगभूमियां शाश्वत हैं।
इसी पूर्व धातकीखण्ड में विदेहक्षेत्र के ठीक बीच में विजयमेरु नाम का पर्वत है। यह चौरासी हजार योजन ऊंचा है और पृथ्वीतल पर चौरानवे सौ ‘‘९४००’’ योजन विस्तृत है। इस मेरु का विस्तार शिखर तल पर हजार योजन है और इसकी चूलिका चालीस योजन ऊंची नील मणिमय है। यह सुदर्शन मेरु की चूलिका के समान ही है। इस मेरु में भी भूतल पर भद्रशाल वन है। इससे ५०० योजन ऊपर जाकर नंदनवन है, इससे ५५,५०० योजन ऊपर जाकर सौमनस वन है और इसके ऊपर २८००० योजन जाकर पांडुकवन है। इस पर्वत पर भद्रशाल, नंदन, सौमनस और पांडुकवनों में चार-चार चैत्यालय होने से सोलह जिन चैत्यालय हैं। इसमें भी पांडुकवन की विदिशाओं में पांडुकशिला, पांडुकंबला, रक्ता और रक्तकंबला नाम की चार शिला हैं। इन पर भरत, पूर्व विदेह, पश्चिम विदेह और ऐरावत के तीर्थंकरों का जन्माभिषेक मनाया जाता है।
इस मेरु के भूतल पर चारों विदिशाओं में चार गजदंत पर्वत हैं। ये दक्षिण में मेरु से लेकर निषध तक लम्बे हैं और उत्तर में भी मेरु से लेकर नील पर्वत तक लम्बे हैं। इन प्रत्येक वूटों पर एक-एक जिनमंदिर और शेष कूटों पर देवभवन हैं।
विजयमेरु के दक्षिण में दोनों गजदंत के बीच में देवकुरु क्षेत्र है और उत्तर में उत्तरकुरु नाम का क्षेत्र है। दोनों क्षेत्रों में जम्बूवृक्ष-शाल्मीवृक्ष के सदृश धातकी वृक्ष ‘‘आंवले के वृक्ष’’ स्थित हैं। ये वृक्ष पृथ्वीकायिक हैं। एक धातकीवृक्ष के परिवार वृक्ष जम्बूवृक्ष से दूने होने से जम्बूवृक्ष (१४०१२०²२·२,८०,२४०) दो लाख, अस्सी हजार, दो सौ चालीस हैं। दोनों के परिवार वृक्ष ५,६०,४८० हो जाते हैं।२ इन वृक्षों पर सम्यक्त्व रूपी रत्न से संयुक्त और उत्तम आभूषणों से भूषित आकृति को धारण करने वाले प्रभास और प्रियदर्शन नाम के दो अधिपति देव निवास करते हैं। परिवार वृक्षों के भवनों पर उनके परिवार देव रहते हैं। इनमें दो मूल वृक्षों की शाखा पर एक-एक जिनमंदिर हैं। शेष वृक्षों पर भी देवों के भवनों में जिनमंदिर हैं।
यहां धातकीखंड में भी विजयमेरु के पूर्व भाग में जो विदेह है उसे पूर्वविदेह कहते हैं और पश्चिमभाग में पश्चिमविदेह है। पूर्व विदेह में भद्रशालवन की वेदी के बाद चार वक्षार सीता नदी के उत्तर तट पर और चार वक्षार दक्षिण तट पर हैं। तीन-तीन विभंगा नाqदयां हैं। इनके अंतराल में सोलह विदेहक्षेत्र हो जाते हैं। ऐसे ही सोलह विदेहक्षेत्र पश्चिम विदेहक्षेत्र में भी हैं। इस प्रकार से पूर्व धातकीखंड के बत्तीस विदेह, सोलह वक्षार और बारह विभंगा नदियां हैं। प्रत्येक विदेहक्षेत्र में भी विजयार्ध और गंगा-सिन्धु नदी के निमित्त से छह-छह खण्ड हो जाते हैं। प्रत्येक के आर्यखंड में कर्मभूमि हैं। यहां विदेह में शाश्वत कर्मभूमि होने से सदाकाल चतुर्थकाल के आदि जैसा ही परिवर्तन रहता है।
विजयमेरु के १६, चार गजदंत के ४, दो धातकी वृक्ष के २, १६ वक्षार के १६, ३४ विजयार्ध के ३४, ६ कुलाचल के ६·७८, ऐसे अट्ठत्तर अकृत्रिम जिनचैत्यालय हैं। इनके अतिरिक्त यहां पर ३४ आर्यखंडों में चक्रवर्ती आदि मनुष्यों द्वारा निर्मापित अगणित कृत्रिम जिनमंदिर हैं। इस प्रकार संक्षेप में पूर्वधातकीखंड का वर्णन किया है।
इस पश्चिमधातकीखण्ड में भी दक्षिण से लेकर उत्तर तक भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यव्, हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं। हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी नाम के ही छह कुल पर्वत हैं। इनकी लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई आदि पूर्वधातकीखण्ड के क्षेत्र, पर्वतों के समान ही है। इन पर्वतों पर पद्म आदि छह सरोवर हैं। उनमें कमलों पर श्री आदि छह देवियां निवास करती हैं। इन छह सरोवरों से गंगा, सिन्धु आदि चौदह महानदियां निकलती हैं जो कि भरत आदि सात क्षेत्रों में बहती हैं। यहां पर भी भरत, ऐरावत में छह खंडों में से आर्यखंड में षट्काल परिवर्तन होता रहता है। विदेहक्षेत्र में मध्य में अचल नाम का मेरु है जो कि ८४ हजार योजन ऊंचा है। उसमें भी भद्रसाल, नन्दन, सौमनस और पांडुकवनों में चार-चार मिलाकर १६ चैत्यालय हैं। मेरु की पांडुकशिला आदि चार शिलायें हैं, उन पर वहीं के भरत, ऐरावत और पूर्व-पश्चिम विदेह के तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है। मेरु के भूतल पर चारों विदिशाओं में चार गजदंत पर्वत हैं। प्रत्येक पर एक-एक जिनमंदिर हैं और शेष पर देवभवन हैं। मेरु के दक्षिण-उत्तर में देवकुरु-उत्तरकुरु क्षेत्र हैं तथा पूर्व-पश्चिम में पूर्वविदेह-पश्चिम विदेह हैं। इन विदेहों मे भी १६ वक्षार और १२ विभंगा नदियों से ३२ क्षेत्र हो गये हैं। प्रत्येक क्षेत्र में विजयार्ध पर्वत और गंगा-सिन्धु नदियों से छह-छह खण्ड हो जाते हैं। वहां पर विदेह के प्रत्येक ३२ आर्यखण्ड में सदा ही चतुर्थकाल की आदि जैसी व्यवस्था रहती है इसीलिए इन्हें शाश्वत कर्मभूमि कहते हैं। इस प्रकार यहां पश्चिमधातकीखंड में भरत-ऐरावत और बत्तीस विदेहों को मिलाकर ३४ आर्यखंड हैं। हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र में सदा मध्यम भोगभूमि है और देवकुरु-उत्तरकुरु में सदा उत्तम भोगभूमि है तथा इन्हीं देवकुरु-उत्तरकुरु में धातकीवृक्ष भी हैं जो कि पृथ्वीकायिक, अनादिनिधन हैं। अकृत्रिम चैत्यालय-यहां पर भी अचलमेरु के १६, गजदन्त के ४, धातकी वृक्षों के २, सोलह वक्षार के १६, चौंतीस विजयार्धों के ३४, षट् कुलाचलों के ६·७८, ऐसे अट्ठत्तर अकृत्रिम जिनमंदिर हैं। तथा पूर्वधातकीखंड और पश्चिमधातकीखंड को विभाजित करने वाले दक्षिण-उत्तर में जो दो लम्बे इष्वाकार पर्वत बताये गये हैं उन पर भी एक-एक जिनमंदिर हैं। ऐसे ये अकृत्रिम दो मंदिर यहां धातकीखंड- द्वीप में हो जाते हैं। इस प्रकार धातकीखंड का संक्षिप्त वर्णन किया गया है।
पुष्करवर द्वीप का विस्तार सोलह लाख योजन है। यह द्वीप चारों तरफ से कालोदधि समुद्र को घेरे हुए है। इस द्वीप के ठीक बीच में मानुषोत्तर पर्वत स्थित है जो कि वलयाकार (चूड़ी के समान आकार वाला) है। इससे इस द्वीप के दो भाग हो जाने से इधर के आधे भाग को पुष्करार्ध कहते हैं। इस पुष्करार्ध में भी दक्षिण-उत्तर में एक-एक इष्वाकार पर्वत हैं। ये आठ लाख योजन लंबे, हजार योजन विस्तृत और ४०० योजन ऊंचे हैं। इन दोनों पर्वतों के निमित्त से इस पुष्करार्ध के भी पूर्व पुष्करार्ध और पश्चिम पुष्करार्ध ऐसे दो भेद हो गए हैं। पूर्व पुष्करार्ध में ठीक बीच में ‘मंदर’ नाम का मेरु पर्वत है और पश्चिम पुष्करार्ध में विद्युन्माली नाम का मेरु है। ये मेरु ८४ हजार योजन ऊंचे हैं। इनका सभी वर्णन धातकीखंड के मेरुओं के समान है। इन मेरुओं में भी सोलह-सोलह जिनमंदिर हैं और पांडुकवन में विदिशाओं में पांडुकशिला आदि शिलायें हैं जिन पर वहां के तीर्थंकरों का जन्माभिषेक महोत्सव मनाया जाता है। पूर्व पुष्करार्ध और पश्चिम पुष्करार्ध दोनों में भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत नाम के सात क्षेत्र हैं। हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी नाम के छह पर्वत हैं। ये पर्वत चक्र के आरे के समान हैं और क्षेत्र आरे के अन्तराल के समान हैं। इनमें से विदेहक्षेत्र में सोलह वक्षार और बारह विभंगा नदियों के निमित्त से ३२ विदेह हो गये हैं। भरत और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखंड में षट्काल परिवर्तन होता रहता है। बत्तीसों विदेहों में शाश्वत कर्मभूमि की व्यवस्था है अर्थात् वहां हमेशा चतुर्थकाल के प्रारम्भ जैसा ही काल रहता है। हैमवत, हरि, विदेह के अन्तर्गत देवकुरु, उत्तरकुरु, रम्यक और हैरण्यवत इन छह क्षेत्रों में सदा ही भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। विदेहक्षेत्र में मेरु के दक्षिण में देवकुरु और उत्तर में उत्तरकुरु क्षेत्र हैं। उत्तरकुरु में ईशान कोण में पुष्कर-पद्म१ वृक्ष है तथा देवकुरु में शाल्मली वृक्ष है। ये वृक्ष जम्बूवृक्ष के सदृश ही पृथ्वीकायिक हैं और अपने परिवार वृक्षों से सहित हैं इसीलिए इन पुष्कर वृक्षों के निमित्त से इस द्वीप का पुष्करद्वीप नाम सार्थक है। यहां पर भी हिमवान आदि पर्वतों पर पद्म, महापद्म आदि छ: सरोवर हैं जिनसे गंगा-सिन्धु आदि चौदह नदियां निकलती हैं। इनमें से सात-सात नदियां मानुषोत्तर पर्वत की गुफा से बाहर होकर पुष्कर समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं और सात-सात नदियां कालोद समुद्र की वेदिका के गुफाद्वारों से निकल कर कालोद समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं। इन पद्म आदि सरोवरों में बने कमलों पर श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी नाम की देवियां अपने परिवार देवियों समेत निवास करती हैं। इस प्रकार से कुल व्यवस्था जम्बूद्वीप के समान ही यहां पर समझनी चाहिए। मात्र मेरु और वृक्ष के नाम में ही अन्तर है। इस तरह यहां पूर्व पुष्करार्ध में एक मन्दरमेरु के १६ चैत्यालय, गजदंत के ४ चैत्यालय, सोलह वक्षार के १६, चौंतीस विजयार्धों के ३४ और छ: कुलाचलों के ६, ऐसे ७८ जिनमन्दिर हैं। इसी तरह पश्चिम पुष्करार्ध में भी विद्युन्माली मेरु के १६ आदि सर्व ७८ जिनमन्दिर हैं तथा दो इष्वाकार के २ जिनमन्दिर हैं। ऐसे ७८±७८±२·१५८ जिनमंदिर पुष्करार्ध द्वीप में हैं। यहां जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र का विस्तार ५२६,६/१९ योजन मात्र है, वहां पुष्करार्ध द्वीप में भरतक्षेत्र का अभ्यंतर विस्तार ४१५७९,१७२/२१२ योजन है, मध्यम विस्तार ५३५१२,१९९/२१२ योजन है और बाह्य विस्तार ६५४४६,१२/२१२ योजन है। ऐसे ही अन्य क्षेत्रों का विस्तार भी बहुत बड़ा है। हिमवान् आदि पर्वतों की ऊँचाई जम्बूद्वीप के पर्वतों के समान है किन्तु विस्तार बहुत ही बड़ा है। यहां पुष्करार्ध द्वीप में ६८ कर्मभूमि हैं और ६±६·१२ भोगभूमि हैं, जहां पर मनुष्य रहते हैं। इस प्रकार से यहीं तक मनुष्य पाए जाते हैं, शेष द्वीपों में मनुष्य नहीं हैं।
पुष्कर द्वीप के ठीक बीच में चूड़ी के समान आकार वाला मानुषोत्तर पर्वत है। इसकी ऊंचाई १७२१ (एक हजार सात सौ इ×ाâीस योजन है) मूल में इसकी चौड़ाई १०२२ योजन, मध्य में ७२३ योजन और ऊपर में ४२४ योजन प्रमाण है। इस पर्वत की नींव ४३० योजन, एक कोश है, इस पर्वत के शिखर पर दो कोश ऊंची और ४००० धनुष चौड़ी दिव्य मणिमय वेदी है। इस मानुषोत्तर पर्वत में चौदह महानदियों के निकलने के लिए चौदह गुफा द्वार बने हुए हैं, जिनसे पुष्करार्ध द्वीप की गंगा आदि नदियां निकलकर पुष्कर समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं। इस मानुषोत्तर पर्वत पर नैऋत्य और वायव्य इन दो दिशाओं को छोड़कर पूर्व आदि चार दिशा और शेष दो विदिशा में पंक्ति रूप से तीन-तीन कूट अवस्थित हैं। आग्नेय के तीन और ईशान के तीन, इन छह वूटों पर दिव्य प्रासाद बने हैं जिन पर गरुड़कुमार जाति के देव अपने वैभव के साथ रहते हैं। दिशागत अवशेष बारह कूटों के प्रासादों की चारों दिशाओं में सुवर्ण कुमार के कुल में उत्पन्न हुई दिक्कुमारी देवांगनाएं रहती हैं। इन अठारहों कूटों के अभ्यंतर भाग में अर्थात् मनुष्यलोक और पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर इन चारों दिशाओं में एक-एक कूट हैं। इन वूटों पर अकृत्रिम जिनमन्दिर बने हुए हैं जो कि स्वर्ण एवं रत्नों से निर्मित हैं। इन मन्दिरों में देवों से पूज्य अकृत्रिम जिनप्रतिमायें विराजमान हैं। इन सभी कूटों की ऊंचाई ५०० योजन है। मूल में चौड़ाई ५०० योजन है तथा ऊपर में चौड़ाई २५० योजन है। इस मानुषोत्तर पर्वत के बाहर कोई भी मनुष्य नहीं जा सकते हैं। चाहे वे विद्याधर मनुष्य हों, चाहे आकाशगामी ऋद्धिधारी महामुनीश्वर ही क्यों न हों इसलिए यह पर्वत मनुष्य लोक की सीमा निर्धारण करने वाला होने से ‘‘मानुषोत्तर’’ इस अन्वर्य नाम को धारण कर रहा है। केवली समुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद जन्म वालों की अपेक्षा ही वहां मानुषोत्तर पर्वत के बाहर मनुष्य का अस्तित्व मान लिया गया है१। इसी बात को आचार्य श्री उमास्वामी महाराज ने स्पष्ट किया है। ‘‘प्राङ्मानुषोत्तरान्मनुष्या।।३५।।’’ मानुषोत्तर पर्वत के इधर ही मनुष्य रहते हैं। श्री अकलंक देव ने इसे भाष्य में कहा है कि- ‘‘जम्बूद्वीप से प्रारम्भ करके मानुषोत्तर पर्वत के पहले-पहले (इधर के भाग में) ही मनुष्य हैं, इस पर्वत के बाहर नहीं हैं। यही मानुषोत्तर पर्वत का व्याख्यान है। इसके उत्तर भाग में-बाहर में केवली समुद्घात, मरणांतिक समुद्घात और उपपाद को छोड़कर कदाचित् भी विद्याधर और ऋद्धिप्राप्त मनुष्य (महामुनि) भी नहीं जा सकते हैं। इसलिए इसका ‘‘मानुषोत्तर’’ यह सार्थक नाम है।
कोई जीव मानुषोत्तर पर्वत से बाहर का तिर्यंच है या देव है। वह यदि वहां से मरा और उसके मनुष्यगति नामकर्म का उदय आ गया। वहां से विग्रहगति में एक, दो समय के बाद ही यहां मनुष्य लोक में जन्म लेगा, मात्र वहां उसके मनुष्यगति और मनुष्य आयु कर्म का उदय ही आया है। इसे उपपाद कहते हैं। इस अपेक्षा से कदाचित् वहां मनुष्यों का अस्तित्व है।
केवली भगवान जब दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात करते हैं, उस समय उनके प्रदेश मानुषोत्तर के बाहर चले जाते हैं। ऐसे ही मरण के अंतर्मुहूर्त पहले कदाचित् किसी मनुष्य को वहां बाहर में जन्म लेना है, यदि उसके मारणांतिक समुद्घात होता है तो उसकी आत्मा के कुछ प्रदेश वहां जाकर जन्म लेने योग्य प्रदेश का स्पर्श कर वापस यहां मनुष्य के शरीर में आ जाते हैं। इस अपेक्षा से भी वहां मनुष्य का अस्तित्त्व मान लिया गया है। बाकी कोई भी मनुष्य किसी भी स्थिति में इस पर्वत से बाहर नहीं जा सकते हैं। यही कारण है कि इस पर्वत के बाहर नंदीश्वर द्वीप के दर्शनों का सौभाग्य मनुष्यों को नहीं मिल पाता है वहां मात्र देवगण ही जाते हैं। यह मानुषोत्तर पर्वत एक हजार सात सौ इक्कीस योजन मात्र ही ऊंचा है जबकि सुमेरु पर्वत इस चित्रा पृथ्वी से ९९ हजार योजन ऊंचा है, फिर भी विद्याधर मनुष्य और आकाशगामी चारणऋद्धिधारी मुनिगण निन्यानवे हजार योजन की ऊंचाई पर पांडुकवन के चैत्यालयों की वंदना कर आते हैं किन्तु इस मानुषोत्तर पर्वत का उल्लंघन नहीं कर सकते हैं। इसमें नियोग ही एक मात्र कारण है, ऐसा समझना चाहिए। मानुषोत्तर के बाहर असंख्यात द्वीपों में क्या है ? मानुषोत्तर के बाहर सभी द्वीपों में केवल भद्र परिणामी तिर्यंच ही हैं अन्य कोई नहीं हैं इसीलिए आगम में इसे तिर्यग्लोक कहा है। यह तिर्यग्लोक मनुष्यों से रहित है और असंख्यात तिर्यंचों से भरा हुआ है। जम्बूद्वीपादारभ्य प्राङ् मानुषोत्तरा मनुष्या न बहिरिति। व्याख्यातो मानुषोत्तराद्रि:। नास्मादुत्तरं कदाचिदपि विद्याधरा: ऋद्धिप्राप्ता अपि मनुष्या गच्छन्ति अन्यत्रोपपाद समुद्घाताभ्यां, ततो अस्यान्वर्थ संज्ञा। (तत्वार्थराजवार्तिक, अ. ३, सूत्र ३५ की टीका) ये सभी तिर्यंच भोगभूमिज हैं। यहाँ पर विशेष बात यह समझने की है कि इस मध्यलोक में असंख्यात द्वीप, समुद्र हैं अर्थात् २५ कोड़ाकोड़ी पल्योपम में जितने रोम हैं, उतने प्रमाण ही द्वीप, समुद्र हैं। इन द्वीप, समुद्रों में सबसे बड़ा अंतिम स्वयंभूरमण नाम का द्वीप है। इस द्वीप को वेष्टित करके असंख्यात योजन वाला स्वयंभूरमण नाम का समुद्र है। इस अंतिम द्वीप के ठीक मध्य में चूड़ी के समान आकार वाला नागेन्द्र नाम का एक पर्वत स्थित है। इस पर्वत के बाहर आधे स्वयंभूरमण द्वीप में और स्वयंभूरमण समुद्र में कर्मभूमि मानी गई है। वहाँ रहने वाले असंख्यातों तिर्यंच कर्मभूमियाँ हैं। ये प्राय: क्रूर स्वभाव वाले हैं। इनमें से कुछ तिर्यंचों को सम्यक्त्व एवं कुछ तिर्यंचों को देशव्रत भी हो जाता है। वहाँ पर देवों के संबोधन से अथवा जातिस्मरण से ऐसा संभव है। इस नागेन्द्र पर्वत से इधर के आधे स्वयंभूरमण द्वीप में तथा मानुषोत्तर पर्वत से परे सभी असंख्यातों द्वीपों में जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था है। वहां पर जन्म लेने वाले तिर्यंच युगल ही उत्पन्न होते हैं। ये सभी गर्भ से जन्म लेते हैं। पंचेन्द्रिय, भद्रपरिणामी हैं, क्रूरता से रहित हैं और मृग आदि अच्छी जाति वाले हैं। ये एक पल्य की आयु के धारक एवं वैर भाव से रहित होते हैं। कल्पवृक्षों से उत्पन्न भोग सामग्री प्राप्त करते हैं एवं आयु के अंत में मरकर देवगति को ही प्राप्त करते हैं। जो मूढ़ जीव सम्यग्दर्शन और व्रतों से रहित हैं तथा कुपात्रों को दान देकर कुछ कुत्सित पुण्य संचित कर लेते हैं, वे ही जीव मरकर इस तिर्यंच भोगभूमि में उत्पन्न हो जाते हैं। उन जघन्य भोगभूमियों में कृमि, कुन्थु, मच्छर आदि तुच्छ जन्तु, क्रूर परिणामी जीव एवं विकलत्रय प्राणी कभी भी उत्पन्न नहीं होते हैं। असंख्यात समुद्रों का जल कैसा है ? लवण समुद्र के जल का स्वाद नमक सदृश खारा है। वारुणीवर समुद्र का जल मद्य के सदृश है। क्षीरवर समुद्र का जल दूध सदृश है, घृतवर समुद्र का जल घी के समान है। कालोदधि, पुष्करवर समुद्र और स्वयंभूरमण समुद्र का जल, जल जैसे स्वाद वाला है। इन सात समुद्रों के सिवाय शेष सभी असंख्यात समुद्रों का जल इक्षुरस सदृश मधुर और सुस्वादु है। लवण समुद्र, कालोदधि और स्वयंभूरमण समुद्र में ही जलचर जीव हैं। शेष समुद्रों में मगरमच्छ आदि जलचर जन्तु नहीं हैं और न भोगभूमियों में विकलत्रय जीव ही होते हैं। इस प्रकार से यहां पर मानुषोत्तर पर्वत का वर्णन किया है तथा उसके बाहर असंख्यात द्वीप-समुद्रों में क्या-क्या हैं, सो भी संक्षेप में बताया गया है।
मनुष्य के दो भेद प्रसिद्ध हैं-कर्मभूमिज और भोगभूमिज। कर्मभूमि में उत्पन्न हुए मनुष्य कर्मभूमिज हैं और भोगभूमि में उत्पन्न हुए मनुष्य भोगभूमिज हैं। श्रीकुन्दकुन्द देव ने कहा है-‘माणुस्सा दुवियप्पा कम्ममहीभोगभूमि संजादा।’२ कर्मभूमिज और भोगभूमिज की अपेक्षा मनुष्यों के दो भेद हैं। श्रीगौतमस्वामी ने कर्मभूमि १५ कही हैं-
अड्ढाइज्जदीवदोसमुद्देसु पण्णारसकम्मभूमिसु३’ ‘अढाई द्वीप और दो समुद्रों के अन्तर्गत १५ कर्मभूमियां हैं।’ दससु भरहेरावएसु पंचसु महाविदेहेसु४। ५ भरत, ५ ऐरावत और ५ महाविदेह की १५ कर्मभूमि हैं। जम्बूद्वीप एक लाख योजन व्यास वाला गोलाकार है। इसमें भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यव्â, हैरण्यवत और ऐरावत ये ७ क्षेत्र हैं। ये हिमवान् आदि ६ पर्वतों से विभाजित हैं। इनमें से भरतक्षेत्र ५२६,६/१९ योजन विस्तृत है। आगे के पर्वत और क्षेत्र विदेह तक दूने-दूने विस्तार वाले हैं, आगे आधे-आधे होते गए हैं। भरतक्षेत्र के मनुष्य-इस भरतक्षेत्र में गंगा-सिन्धु नदी और विजयार्ध पर्वत के निमित्त से छह खण्ड हो गये हैं। इनमें से दक्षिण के मध्य का आर्यखंड है, शेष पांच म्लेच्छखंड हैं। इस आर्यखण्ड में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी ये दो काल वर्तते हैं। १० कोड़ाकोड़ी सागर की एक अवसर्पिणी और इतने ही प्रमाण की उत्सर्पिणी होती है। इन दोनों के ६-६ भेद हैं। सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमा-दुषमा, दुषमा-सुषमा, दुषमा और अतिदुषमा। इनमें से प्रथम काल ४ कोड़ाकोड़ी सागर का, द्वितीय काल ३ कोड़ाकोड़ी सागर का, तृतीय काल २ कोड़ाकोड़ी सागर का, चतुर्थ काल ४२ हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर का, पंचम काल २१ हजार वर्ष का और छठा काल भी २१ हजार वर्ष का होता है। ऐसे ही उत्सर्पिणी में छठे अतिदुषमा से आदि लेकर सुषमासुषमा तक काल वर्तता है। इस तरह अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी दोनों मिलकर २० कोड़ाकोड़ी सागर का एक कल्पकाल माना गया है। अवसर्पिणी के प्रथम सुषमासुषमाकाल में यहां पर भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। स्त्री-पुरुष युगल ही उत्पन्न होते हैं और साथ ही मरण प्राप्त करते हैं। ये दस प्रकार के कल्पवृक्षों से भोग सामग्री प्राप्त करते हैं। पानांग, तूर्यांग, भूषणांग, वस्त्रांग, भोजनांग, आलयांग, दीपांग, भाजनांग, मालांग और तेजांग जाति के कल्पवृक्ष अपने नाम के अनुसार ही वस्तुएं प्रदान करते हैं। यहां पर मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई तीन कोश और आयु तीन पल्य की होती है पुन: घटते-घटते द्वितीय काल के प्रारम्भ में मनुष्यों की ऊँचाई दो कोश और आयु दो पल्य की होती है। पुन: घटती हुई तृतीय काल के आदि में शरीर की ऊंचाई एक कोश और आयु एक पल्य की रहती है। इस काल के अंत में कल्पवृक्ष नष्ट हो जाते हैं। चतुर्थकाल में कर्मभूमि प्रारम्भ हो जाती है। यहाँ पर उत्कृष्ट आयु एक कोटि पूर्व वर्ष और शरीर की ऊँचाई ५०० धनुष की होती है। पंचम काल में उत्कृष्ट आयु १२० वर्ष और शरीर की उत्कृष्ट ऊंचाई ७ हाथ प्रमाण रहती है।१ छठे काल के प्रारम्भ में शरीर की ऊंचाई साढ़े तीन हाथ अथवा ३ हाथ और उत्कृष्ट आयु २० वर्ष की होती है।२ इस युग में तृतीय काल के अंत में जब कुछ कम एक पल्य का आठवां भाग काल शेष रह गया३ तब प्रतिश्रुति, सन्मति आदि से लेकर क्रम से १४ कुलकर उत्पन्न हुए हैं। चौदहवें कुलकर नाभिराय थे, इनकी रानी का नाम मरुदेवी था। इन्हीं से जन्मे प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने प्रजा को असि, मषि आदि षट् क्रियाओं का उपदेश देकर क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन तीन वर्णों की व्यवस्था की थी।४ भगवान ऋषभदेव की आयु ८४ लाख पूर्व वर्ष की थी और शरीर की ऊंचाई ५०० धनुष प्रमाण थी। अजितनाथ से लेकर आयु और ऊंचाई घटते-घटते महावीर स्वामी की आयु ७२ वर्ष की और ऊंचाई ७ हाथ की रह गई। इस काल में २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव और ९ प्रतिवासुदेव ये ६३ शलाका पुरुष होते हैं। चतुर्थकाल में कोई भी भव्यजीव तपश्चर्या के बल से कर्मों को नाशकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है। पंचमकाल में हीन संहनन होने से कोई भी मनुष्य मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता है। फिर भी पंचमकाल के अंत तक धर्म रहता है, क्योंकि आचार्यों ने कहा है कि- ‘इतने मात्र समय में चातुर्वण्र्य संघ जन्म लेता रहेगा।’ इस दुषमकाल में धर्म, आयु और ऊंचाई आदि कम होती जाएगी फिर अन्त में इक्कीसवां कल्की उत्पन्न होगा। उसके समय में वीरांगज मुनि, सर्वश्री आर्यिका, अग्निदत्त श्रावक और पंगुश्री श्राविका ये चतुर्विध संघ होगा। वह कल्की मंत्री द्वारा मुनि के हाथ से प्रथम ग्रास को कर के रूप में मांगेगा तब मुनिराज अंतराय करके वापस आकर आर्यिका आदि को बुलाकर सल्लेखना देकर आप स्वयं सल्लेखना ग्रहण कर लेंगे। कार्तिक कृ. अमावस्या के प्रात: ये मुनि आदि शरीर छोड़कर स्वर्ग प्राप्त करेंगे तब धर्म का नाश हो जायेगा। मध्यान्ह में असुरदेव कल्की राजा को मार डालेगा और सायंकाल में अग्नि नष्ट हो जाएगी। इसके बाद तीन वर्ष, साढ़े आठ मास बीत जाने पर छठा काल आयेगा। उस समय के मनुष्य घर, वस्त्र आदि से रहित, अतीव दु:खी, मांसाहारी होंगे। इस काल के अंत में महाप्रलय होगा, भीषण वायु चलेगी। बर्प, क्षार जल, विष जल, धुंआ, धूलि, वज्र और अग्नि की वर्षा सात-सात दिनों तक होगी। उस समय कुछ मनुष्य और तिर्यंच युगलों को देव, विद्याधर रक्षा करके विजयार्ध पर्वत की गुफा आदि में रख देंगे। यहां आर्यखंड की चित्रा पृथ्वी के ऊपर स्थित वृद्धिंगत एक योजन की भूमि जलकर नष्ट हो जायेगी।सिद्धान्तसार दीपक पृ. ३८८। अनंतर पुन: उत्सर्पिणी काल का पहला अतिदुषमा नाम का काल आएगा जिसमें इस छठे काल जैसी व्यवस्था होगी। ये ही सुरक्षित रखे गए मनुष्य, तिर्यंच गुफा आदि से निकलकर पृथ्वी पर पैâल जायेंगे। ऐसे ही क्रम से दुषमा आदि से लेकर सुषमा-सुषमा तक छहों काल वर्तन करेंगे।
इस भरतक्षेत्र के समान ही जंबूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र के आर्यखंड में छहकाल परिवर्तन होता है तथा धातकी खंड के २ भरत, २ ऐरावत और पुष्करार्धद्वीप के भी २ भरत, २ ऐरावत क्षेत्रों में यही काल परिवर्तन होता रहता है। इस प्रकार से ५ भरत और ५ ऐरावत के आर्यखंडों में षट्काल परिवर्तन में तीन-तीन कालों में भोगभूमि की व्यवस्था रहती है और तीन-तीन कालों में कर्मभूमि की व्यवस्था होती है। बीस कोड़ाकोड़ी सागर के कल्पकाल में १८ कोड़ाकोड़ी सागर तक भोगभूमि और २ कोड़ाकोड़ी सागर तक ही कर्मभूमि की व्यवस्था है। महाविदेहक्षेत्र का विस्तार ३३६८४,४/१९ योजन हैनियमसार गाथा १६। इसके ठीक बीच में सुमेरु पर्वत है। सुमेरु के दक्षिण में देवकुरु और उत्तर में उत्तरकुरु क्षेत्र हैं तथा पूर्व-पश्चिम में सीता-सीतोदा नदी बहती है। सुमेरु के पूर्व में पूर्व विदेह और पश्चिम में पश्चिम विदेह है। महाविदेह के ३२ क्षेत्र-सीता नदी के दोनों पाश्र्व भागों में ४-४ वक्षार पर्वत और ३-३ विभंगा नदियों से सीमित ८-८ क्षेत्र हैं। ऐसे ही सीतोदा के दोनों पाश्र्व भागों में ४-४ वक्षार और ३-३ विभंगा से सीमित ८-८ क्षेत्र हैं। इस तरह ये ३२ क्षेत्र हैं। कच्छा, सुकच्छा, महाकच्छा, कच्छकावती, आवर्ता, लांगलावर्ता, पुष्कला, पुष्कलावती, वत्सा, सुवत्सा, महावत्सा, वत्सकावती, रम्या, सुरम्यका, रमणीया, मंगलावती, पद्मा, सुपद्मा, महापद्मा, पद्मकावती, शंखा, नलिना, कुमदा, सरिता, वप्रा, सुवप्रा, महावप्रा, वप्रकावती, गंधा, सुगंधा, गंधिला और गंधमालिनी, क्रम से उन ३२ विदेहक्षेत्रों के ये नाम हैं। प्रत्येक क्षेत्र का पूर्व-पश्चिम विस्तार २२१२,७/८ योजन है तथा लम्बाई १६५९२, २/१९ योजन हैसामायिक दण्डक।। कच्छा आदि प्रत्येक विदेहक्षेत्र में ठीक बीच में एक-एक विजयार्ध पर्वत है जो ५० योजन विस्तृत, २२१२,७/८ योजन लंबे तथा २५ योजन ऊंचे, तीन कटनी वाले हैं। सीता-सीतोदा के दक्षिण
सिंधु नाम की दो-दो नदियाँ निषध पर्वत की तलहटी के कुण्ड से निकलकर विजयार्ध की गुफा में प्रवेश कर जाती हैं। ऐसे सीता-सीतोदा के उत्तर तट के क्षेत्रों में नील पर्वत की तलहटी के कुण्डों से निकलकर रक्ता-रक्तोदा नदियां बहती हैं। इस तरह प्रत्येक कच्छा आदि क्षेत्रों में विजयार्ध पर्वत और दो-दो नदियों के निमित्त से ६-६ खण्ड हो जाते हैं।
इस प्रकार से इन छह खण्डों में नदी की तरफ के मध्य का एक आर्यखण्ड है, शेष ५ म्लेच्छखंड हैं। प्रत्येक ३२ क्षेत्रों के ३२ आर्यखंडों के बीच-बीच में जो प्रमुख नगरी हैं उनके क्रम से क्षेमा, क्षेमपुरी, अरिष्टा, अरिष्टपुरी, खड्गा, मंजूषा, औषधि, पुण्डरीकिणी, सुसीमा, कुण्डला, अपराजिता, प्रभंकरा, अंका, पद्मवती, शुभा, रत्नसंचया, अश्वपुरी, सिंहपुरी, महापुरी, विजयपुरी, अरजा, विरजा, अशोका, वीतशोका, विजया, वैजयंता, जयंता, अपराजिता, चक्रपुरी, खड्गपुरी, अयोध्या और अवध्या ये नाम हैं। ये महायोजन से ९ योजन चौड़ी और १२ योजन लम्बी हैं। यहां भरतक्षेत्र के आर्यखंड में जैसे अयोध्या है ऐसे ही ये नगरियां हैं। ये ही वहां की राजधानी हैं। वहां विदेहक्षेत्र में सदा ही तीर्थंकर देव, गणधर देव, अनगार मुनि, केवली, ऋद्धिधारी मुनि आदि रहते हैं। चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव भी हुआ करते हैं। वहां के मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु एक कोटि पूर्व वर्ष और शरीर की ऊंचाई ५०० धनुष की रहती है। असि, मषि आदि षट्कर्मों से आजीविका चलती है। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये तीन ही वर्ण होते हैं। वहां पर सतत मोक्षगमन चालू रहता है। तीर्थंकर ऋषभदेव ने अपने अवधिज्ञान से इस विदेहक्षेत्र की वर्ण व्यवस्था आदि को जानकर ही यहां भरतक्षेत्र में वैसी व्यवस्था बनाई थी।
यह भरतक्षेत्र ५२६,३/१९ योजन है। हिमवान् पर्वत इससे दूने प्रमाण १०५२,१२/१९ योजन विस्तार वाला है। इस भरतक्षेत्र के ठीक बीच में एक विजयार्ध पर्वत है, वह रजतमय है। यह २५ योजन ऊँचा और मूल में ५० योजन विस्तृत है तथा पूर्व-पश्चिम में दोनों तरफ लवण समुद्र को स्पर्श कर रहा है। १० योजन ऊपर जाकर इसके दोनों पाश्र्व भागों-दक्षिण, उत्तर में १० योजन ही विस्तृत विद्याधरों की १-१ श्रेणियां हैं। दक्षिण श्रेणी में ५० एवं उत्तर श्रेणी में ६० नगर हैं।तिलोयपण्णत्ति पृ. ३३८। किन्नामित, किंकरगीत आदि इनके नाम हैं। इन नगरों में विद्याधर मनुष्य रहते हैं। ये लोग असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और विद्या इन छह कर्मों से आजीविका करते हैं। इन विद्याधर स्त्री-पुरुषों को सदा तीन प्रकार की विद्यायें प्राप्त रहती हैं-कुल विद्या, जाति विद्या और साधित विद्या। जो कुल परम्परागत प्राप्त हो जाती हैं वे कुल विद्या हैं, जो मातृ पक्ष से प्राप्त होती हैं वे जाति विद्या हैं और जिन्हें मंत्र जपकर आराधना विधि से सिद्ध करते हैं वे साधित विद्या हैं। इस विजयार्ध पर्वत पर इस विद्याधर श्रेणी से १० योजन ऊपर जाकर दोनों तरफ १०-१० योजन विस्तृत दूसरी श्रेणी है। इसमें अभियोग्य जाति के देवों के भवन बने हुए हैं। इससे ५ योजन ऊपर जाकर १० योजन विस्तार वाला इस पर्वत का शिखर है।तिलोयपण्णत्ति पृ. ३४५। इस पर ९ कूट हैं जिसमें एक कूट पर जिनमंदिर है, शेष पर देवों के भवन बने हुए हैं। इस पर्वत में दो गुफायें हैं। जिनमें से गंगा, सिन्धु नदियां प्रवेश कर बाहर निकलकर क्षेत्र में बहती हैं। ये दोनों नदियां हिमावान पर्वत के पद्म सरोवर से निकलती हैं। ऐरावत क्षेत्र में भी इसी प्रकार से विजयार्ध पर्वत हैं। उस पर भी दोनों तरफ विद्याधर श्रेणियां हैं। उन पर यहीं के समान विद्याधर रहते हैं। अंतर इतना ही है कि उस पर्वत की गुफा में रक्ता-रक्तोदा नाम की नदियां प्रवेश कर बाहर निकल कर ऐरावत क्षेत्र में बहती हैं। ये नदियां शिखरी पर्वत के पुण्डरीक सरोवर से निकलती हैं। धातकीखण्ड में दो भरत, दो ऐरावत हैं। ऐसे ही पुष्करार्ध द्वीप में भी दो भरत, दो ऐरावत हैं। इसमें भी विद्याधरों के नगर बने हुए हैं। इन पांचों ही भरत और पांचों ही ऐरावत क्षेत्रों के आर्यखण्ड में षट्काल परिवर्तन होता रहता है।तिलोयपण्णत्ति पृ. १९५। इन विजयार्ध पर्वत की विद्याधर श्रेणियों में रहने वाले विद्याधर मनुष्यों में क्रम से अवसर्पिणी में चतुर्थकाल की आदि से लेकर अन्त तक हानि होती है और उत्सर्पिणी में तृतीय काल के प्रारंभ से लेकर अन्त तक वृद्धि होती है।उत्पादितास्त्रयो वर्णास्तदा तेनादिवेधसा। क्षत्रिया वणिज: शूद्रा: क्षतत्राणादिभगुणे:।। १८३ आदि पु. पर्व १६, पृ. ३६२। ५. तिलोयपण्णत्ति पृ. ३४०। ६. तिलोयपण्णत्ति पृ. ३४३ से ३४५। अवसर्पिणी के चतुर्थकाल की आदि में एक कोटि पूर्व वर्षों की उत्कृष्ट आयु है और शरीर की ऊंचाई ५०० धनुष प्रमाण है तथा अंत में १२० वर्ष की उत्कृष्ट आयु है और शरीर की ऊंचाई ७ हाथ प्रमाण रह जाती है। फिर यहां के पंचमकाल, छठे काल, वापस उत्सर्पिणी के प्रथम, द्वितीय काल, इन चारों कालों के २१-२१ हजार मिलकर ८४ हजार वर्षों तक यही जघन्य आयु और जघन्य अवगाहना बनी रहती है पुन: वृद्धि होते हुए उत्सर्पिणी के तृतीय काल के अंत में कोटिपूर्व वर्ष की आयु और ५०० धनुष की अवगाहना हो जाती है पुन: चतुर्थ, पंचम और छठे काल तक वही स्थिति बनी रह जाती है। फिर जब यहां आर्यखंड में अवसर्पिणी का चौथा काल आता है और ह्रास होना शुरू होता है तब इन विद्याधरों में भी आयु, अवगाहना आदि का ह्रास होने लगता है। तभी तो चतुर्थकाल में यहां के मनुष्यों के उन विद्याधर मनुष्यों के साथ सम्बन्ध होते रहते हैं। विदेहक्षेत्र में कच्छा आदि ३२ विदेह देशों में ३२ विजयार्ध हैं। ये भी ५० योजन चौड़े हैं और २५ योजन ऊंचे हैं। इन पर दोनों बाजू में ५५-५५ नगरियां हैं, उनमें भी विद्याधर मनुष्य रहते हैं। इन विदेहों के विद्याधरों में सदा ही चतुर्थकाल के प्रारम्भ जैसी ही स्थिति रहती है, काल परिवर्तन नहीं होता है। जंबूद्वीप में एक भरत, एक ऐरावत के ऐसे दो तथा विदेह के ३२, ऐसे ३४ विजयार्ध हैं। ऐसे धातकीखंड में दो भरत, दो ऐरावत और ६४ विदेह के ६४, ऐसे ६८ विजयार्ध हैं तथा पुष्करार्ध में भी ६८ हैं। कुल मिलाकर ६४±६८±६८·१७० विजयार्ध पर्वत हैं। प्रत्येक विद्याधरों की २-२ श्रेणी होने से १७०²२·३४० विद्याधर श्रेणियां हैं। ये सभी विद्याधर स्त्री-पुरुष आकाशगामी, रूपपरिवर्तिनी आदि विद्याओं के बल से अपने विमानों में बैठकर आकाशमार्ग से सर्वत्र विचरण किया करते हैं। सुमेरु पर्वत आदि अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना करते रहते हैं और जिनेन्द्रदेव की तथा निग्र्रंथ गुरुओं की भक्ति में तत्पर रहते हैं। वहां जैनधर्म के सिवाय अन्य कोई धर्म नहीं है और निग्र्रंथ गुरुओं के सिवाय अन्य कोई गुरु नहीं हैं। वहां पर हमेशा ही केवली, श्रुतकेवली, महामुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविकागण विद्यमान रहते हैं। लवण समुद्र में अनेक द्वीप हैं जिनमें इस भरतक्षेत्र के विजयार्ध के विद्याधर लोग रहते हैं। रावण के पूर्वज भी यहीं से गये थे। इस बात का खुलासा पद्मपुराण में है। सन्त्यत्र लवणाम्भौधावत्युग्रग्राह संकटे। अत्यन्त दुर्गमा रम्या महाद्वीपा: सहस्रर्श:।।१५२।। पद्मपुराण, पर्व ५। यथा- भरतक्षेत्र के विजयार्ध की दक्षिण श्रेणी में एक चक्रवाल नाम का नगर है। उसमें पूर्णधन विद्याधर राजा था। शत्रुओं ने उसे मार दिया। अनंतर उसके पुत्र मेघवाहन को उस चक्रवाल नगर से निर्वासित कर दिया। वह मेघवाहन दु:खी हो भगवान अजितनाथ के समवशरण में आ गया, उसके शत्रु भी उसका पीछा करते हुए वहीं पर आ गये किन्तु समवशरण में सब शांतभाव को प्राप्त हो गए। वहीं पर व्यंतर देवों में से राक्षस जाति के देवों के इन्द्र, भीम और सुभीम ने प्रसन्न होकर मेघवाहन से कहा कि-इस लवण समुद्र में अतिशय सुन्दर हजारों महाद्वीप हैं, उनमें एक राक्षस द्वीप है, वह ७०० योजन लम्बा-चौड़ा है। इसके बीच में त्रिकूटाचल पर्वत है। इसके नीचे ३० योजन विस्तृत लंका नगरी है। उसमें बड़े-बड़े जिनमंदिर, सरोवर, उद्यान आदि शोभित हैं, उसमें जाकर तुम रहो, इत्यादि प्रकार से कहकर भीम इन्द्र ने मेघवाहन को एक देवाधिष्ठित हार भी दिया। उसे प्राप्तकर यह मेघवाहन अपने भाई-बन्धुओं सहित वहां जाकर लंका नगरी में रहने लगा।पद्मपुराण पर्व ५, पृ. ७२ से ७९ तक, पद्मपुराण पर्व ४८ में भी यही बात है। इन्हीं के वंश में रावण विद्याधर हुआ है।ऐसे ही वानरवंशियों का कथन है। यथा-विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में मेघपुर नगर है। वहां श्रीकंठ राजा रहता था। लंका के राजा कीर्तिधवल इसके बहनोई थे। एक बार शत्रुओं से त्रसित श्रीकंठ को कीर्तिधवल ने कहा-विजयार्ध पर्वत पर तुम्हारे बहुत से शत्रु हैं अत: इस लवण समुद्र के बीच वायव्य दिशा में ३०० योजन विस्तृत एक वानर द्वीप है,पद्मपुराण, पर्व ६, पृ. ९७ से १०५ तक।
वहां जाकर रहो। तब इस श्रीकंठ ने वहां जाकर किष्कुपर्वत पर एक किष्कुपुर नामका नगर बसाया और वहीं रहने लगा। वहां बन्दर बहुत थे, उनके साथ क्रीड़ा करने से बन्दर के चिन्ह को मुकुट आदि में धारण करने से इन्हीं के वंशज वानरवंशी कहलाए हैं। म्लेच्छ खण्ड के मनुष्य-गंगा-सिन्धु नदी और विजयार्ध पर्वत से भरतक्षेत्र के छह खंड हो गये हैं, जिनमें दक्षिण और उत्तर के ३-३ खंड हैं। दक्षिण भरत के मध्य का आर्यखंड है, शेष पांचों म्लेच्छ खण्ड हैं। उत्तर भरत के ३ म्लेच्छखंडों में से मध्य के खंड के ठीक बीच में एक वृषभाचल पर्वत है। यह १०० योजन ऊंचा है, भूतल पर १०० योजन विस्तृत है और घटते हुए ऊपर में ५० योजन विस्तृत है। इस पर वृषभ नाम का व्यंतर देव रहता है। उसके भवन में जिनमंदिर है।तिलोयपण्णत्ति, पृ. १७४। भरतक्षेत्र के भरत आदि चक्रवर्तियों ने छह खंड जीतकर इसी पर्वत पर जाकर अपनी विजय प्रशस्ति लिखी है। ऐसे ही ऐरावत क्षेत्र में भी पांच म्लेच्छखंड हैं तथा ३२ विदेहों में भी ५-५ म्लेच्छखंड हैं।तिलोयपण्णत्ति, पृ. ३५३। इस प्रकार ५ भरत, ५ ऐरावत और १६० विदेहों के ५-५ म्लेच्छखंड हैं अतः कुल (१७०²५·८५०) ८५० म्लेच्छ खण्ड हैं। इनमें भी मनुष्य रहते हैं, वे कर्मभूमिज हैं। भरत, ऐरावत के १०²५·५० म्लेच्छखंडों में चतुर्थकाल की आदि से लेकर अंत तक का परिवर्तन होता है, शेष ८०० में नहीं।तिलोयपण्णत्ति, पृ. ७१०। चूंकि चतुर्थकाल में चक्रवर्ती सम्राट वहां की ३२००० कन्याओं से विवाह करते हैं। शेष जो विदेहक्षेत्र के म्लेच्छखंड हैं उनमें चतुर्थकाल की आदि जैसी ही व्यवस्था रहती है, काल परिवर्तन नहीं होता है। इन म्लेच्छखंडों में धर्म, कर्म से बहिर्भूत, नीच कुल से समन्वित, विषयासक्त और दुर्गति में जाने वाले म्लेच्छ मनुष्य रहते हैं।सिद्धान्तसारदीपक, पृ. १५१। विदेहों के म्लेच्छखंड धर्मरहित हैं और धर्म कर्म से बहिर्भूत तथा खोटे कुलोत्पन्न म्लेच्छों से भरे हैं।सिद्धान्तसारदीपक पृ. २१५। आदिपुराण में कहा है कि ये लोग धर्मक्रियाओं से रहित हैं इसलिए म्लेच्छ माने गए हैं। धर्मक्रियाओं के सिवाय ये अन्य आचरणों से आर्यखण्ड में उत्पन्न होने वाले लोगों के समान हैं।धर्मकर्मबहिर्भूता इत्यमी म्लेच्छका मता:, अन्यथाऽन्यै: समाचारैरार्यावर्तेन ते समा:, १४२ आदिपुराण, पर्व ३१। ये म्लेच्छ राजा कुल परम्परागत देवों की उपासना भी करते हैं। यथा-चिलात और आवंत नाम के दो म्लेच्छ राजाओं ने भरत सम्राट के योद्धाओं को अपने देश पर आक्रमण करता हुआ जानकर कुल परम्परागत चले आए नागमुख और मेघमुख नाम के देवों का पूजन कर उनका स्मरण किया।आदिपुराण पर्व ३२। इससे यह समझ में आता है कि वे म्लेच्छ राजा क्षत्रिय राजाओं के समान ही थे तभी चक्रवर्ती उनकी कन्याओं से विवाह करते थे।
हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र ३६८४,४/१९ योजन विस्तृत है। उनमें सुषमा-दुषमा काल के सदृश जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था है। विशेषता केवल यह है कि इन क्षेत्रों में हानि-वृद्धि से रहित अवस्थिति एक सी हीr रहती है। हरिक्षेत्र और रम्यक क्षेत्र का विस्तार ८४२१,१/१९ योजन है। यहाँ पर सुषमा काल के सदृश मध्यम भोगभूमि की व्यवस्था सदा एक सी रहती है। सुमेरु के दक्षिण में देवकुरु और उत्तरकुरु है। इनका उत्तर-दक्षिण विस्तार ११५९२,२/१९ योजन है। यहां पर सुषमा-सुषमा सदृश उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था सदा अवस्थितरूप से है। इस प्रकार यहां जंबूद्वीप में ६ भोगभूमि हैं। ऐसे ही धातकीखंड में पूर्व धातकी में ६ और पश्चिम धातकी में ६ हैं। पुष्करार्ध में भी पूर्व पुष्करार्ध में ६ और पश्चिम पुष्करार्ध में ६, कुल ३० भोगभूमि हैं। इन भोगभूमियों में युगल ही स्त्री-पुरुष जन्म लेते हैं। वे आर्य-आर्या कहलाते हैं और १० प्रकार के कल्पवृक्षों से भोग सामग्री प्राप्त करते हैं। जघन्य भोगभूमि में आयु १ पल्य और शरीर की ऊंचाई एक कोश प्रमाण है। मध्यम भोगभूमि में आयु २ पल्य और शरीर की ऊंचाई २ कोश है। उत्तम भोगभूमि में आयु ३ पल्य और शरीर की ऊंचाई ३ कोश ही है। आयु के अन्त में पुरुष छींक और स्त्री जंभाई के द्वारा मरण को प्राप्त होते हैं। ये मरकर देवगति को ही प्राप्त करते हैं।
लवण समुद्र में ४८ और कालोद समुद्र में ४८ ऐसी ९६ कुभोगभूमि हैं। इन्हें कुमानुष द्वीप या अंतरद्वीप भी कहते हैं। जम्बूद्वीप की जगती से ५०० योजन जाकर ४ दिशा के ४ और ४ विदिशा के ४ ऐसे ८ द्वीप हैं। इन आठों की अन्तर दिशाओं में ५५० योजन जाकर ८ द्वीप हैं तथा भरत-ऐरावत के विजयार्ध के दोनों तटों से और हिमवान तथा शिखरी पर्वत के तटों से ६०० योजन समुद्र में जाकर ८ द्वीप हैं। दिशागत द्वीप १०० योजन विस्तृत हैं, विदिशा के द्वीप ५५ योजन, दिशा-विदिशा के अन्तराल के द्वीप ५० योजन और पर्वत के तटों के द्वीप २५ योजन विस्तृत हैं। ये सभी द्वीप जल से एक योजन ऊंचे हैं।त्रिलोकसार पृ. ७०१। इन द्वीपों में कुमानुष युगल ही जन्म लेते हैं और युगल ही मरण प्राप्त करते हैं। यहाँ की व्यवस्था जघन्य भोगभूमि के सदृश है अर्थात् इनकी आयु एक पल्य और शरीर की ऊंचाई एक कोश है। मरण के बाद ये देवगति को ही प्राप्त करते हैं। तिलोयपण्णत्ति, पृ. ४५८। पूर्वादि दिशाओं के मनुष्य क्रम से एक जंघा वाले, पूंछ वाले, सींग वाले और गूंगे हैं। विदिशाओं में क्रम से शष्कुलीकर्ण, कर्णप्रावरण, लम्बकर्ण और शशकर्ण जैसे कर्ण वाले हैं। अंतर दिशाओं के मनुष्य क्रम से सिंह, अश्व, श्वान, महिष, वराह, शार्दूल, घूक और बन्दर के समान मुख वाले हैं। हिमवान के दोनों तटों के क्रम से मत्स्यमुख और कालमुख वाले हैं। भरत के विजयार्ध के तटों के मेषमुख और गोमुख हैं। शिखरी पर्वत के तटों के मेघमुख और विद्युन्मुख हैं तथा ऐरावत के विजयार्ध सम्बन्धी तटों के आदर्शमुख और हस्तिमुख जैसे मुख वाले हैं। इन मनुष्यों के मुख, कान आदि ही पशुवत् विकृत हैं, शेष शरीर मनुष्यों का है अतएव ये कुमानुष कहलाते हैं। इनमें से एक जंघा वाले कुमानुष गुफाओं में रहते हैं और वहां की मीठी मिट्टी खाते हैं। शेष सभी कुमानुष वृक्षों के नीचे रहकर फल, पूâलों से जीवन व्यतीत करते हैंतिलोयपण्णत्ति, पृ. ४५५। अथवा ये कल्पवृक्षों से प्राप्त फलों का भोजन करते हैं कप्पंद्दुम दिण्ण फलभोजी (गाथा ९२०)।। लवण समुद्र के अभ्यन्तर भाग में ये ४±४±८±८·२४ द्वीप हैं। ऐसे ही बाह्य तट की तरफ भी २४ हैं। इसी प्रकार कालोद समुद्र के अभ्यंतर बाह्य तट संबंधी २४±२४·४८ हैं अत: ये ९६ अंतरद्वीप हैं। सम्यक्त्व से रहित कुत्सित पुण्य करके तथा कुपात्रों में दान देकर मनुष्य अथवा तिर्यंच इन कुमानुषों में जन्म ले लेते हैं। इस प्रकार से ५ भरत, ५ ऐरावत क्षेत्रों के आर्यखंड के मनुष्य, १६० विदेहक्षेत्रों के आर्य खंडों के मनुष्य ऐसे १७० आर्यखंडों के मनुष्य, ३४० विद्याधर श्रेणियों के विद्याधर मनुष्य, ८५० म्लेच्छखंडों के मनुष्य और ९६ कुभोगभूमियों के मनुष्य, ये ५ भेदरूप मनुष्य हो जाते हैं। इनमें भरत, ऐरावत, विदेह के मनुष्य, विद्याधर श्रेणियों के मनुष्य और म्लेच्छखंडों के मनुष्य कर्मभूमिज हैं। ३० भोगभूमि और ९६ कुभोगभूमियों के मनुष्य भोगभूमिज हैं, इसलिए सभी मनुष्य दो भेदों में ही कहे गए हैं। मानुषोत्तर पर्वत के भीतर के क्षेत्रों में ही मनुष्य होते हैं, इसके बाहर नहींप्राङ्मानुषोत्तरान्मनुष्या: (३५) तत्त्वार्थसूत्र अ. ३। ‘‘नास्मादुत्तरं कदाचिदपि विधाधरा: ऋद्धिप्राप्ता अपि मनुष्या गच्छन्ति, अन्यत्रोपपाद समुद्घाताभ्याम्, ततोऽस्यान्वर्य संज्ञा (तत्वार्थराजवार्तिक)’’। जंबूद्वीप एक लाख, लवण समुद्र दो लाख, धातकीखंड चार लाख, कालोद समुद्र आठ लाख और पुष्करार्धद्वीप आठ लाख योजन विस्तृत है। इनमें जंबूद्वीप को चारों ओर से घेरकर लवणसमुद्र आदि होने से दोनों तरफ से उनकी संख्या ली जायेगी। अत: १±२±२±४±४±८±८±८±८·४५ लाख योजन का यह मनुष्य क्षेत्र है। इस मानुषोत्तर पर्वत से परे आधा पुष्कर द्वीप है। उसे घेरकर पुष्कर समुद्र है। इसी तरह एक-दूसरे को वेष्ठित किए हुए असंख्यात द्वीप-समुद्र इस मध्यलोक में हैं। अंतिम आधे द्वीप और पूरे समुद्र में एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय आदि सभी तिर्यंच रहते हैं। मनुष्यराशि-पर्याप्त मनुष्यों की संख्या २९ अंक प्रमाण है। यथा- १९८०७०४०६२८५६६०८४३९८३८५९८७५८४ भावस्त्रीवेदी मनुष्यराशि भी २९ अंक प्रमाण है। इनमें से अंतद्र्वीपज मनुष्य सबसे थोड़े हैं। इनसे भी संख्यातगुणे मनुष्य ५ देवकुरु, ५ उत्तरकुरु ऐसे १० कुरुक्षेत्रों में हैं। इनसे भी संख्यातगुणे ५ हरिवर्ष एवं ५ रम्यक क्षेत्रों में हैं। इनसे भी संख्यातगुणे ५ हैमवत और ५ हैरण्यवत क्षेत्रों में हैं। इनसे संख्यातगुणे ५ भरत और ५ ऐरावत क्षेत्रों में हैं और इनसे संख्यात गुणे विदेहक्षेत्र में हैं अर्थात् सबसे थोड़े मनुष्य कुभोगभूमि में और सबसे अधिक मनुष्य विदेहक्षेत्रों में हैं। तिलोयपण्णत्ति, पृ. ५२४।
भरत ऐरावत के ५-५ आर्यखंडों में कम से कम एक मिथ्यात्व और अधिक हों तो १४ गुणस्थान होते हैं। विदेहक्षेत्रों के १६० आर्यखंडों में कम से कम ६ और अधिक हों तो १४ गुणस्थान होते हैं। सर्व भोगभूमिजों में अधिकतम ४ गुणस्थान हैं। चूंकि ये व्रती नहीं बनते हैं, सब म्लेच्छखंडों में एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही है। विद्याधरों में ५ गुणस्थान हैं, यदि वे विद्याओं को छोड़कर मुनिदीक्षा ले लेते हैं तब १४ गुणस्थान तक भी प्राप्त कर लेते हैं।तिलोयपण्णत्ति, पृ. ५२५। ये सब मनुष्य पुरुषवेद, स्त्रीवेद अथवा नपुंसकवेद इन तीनों में से कोई एक वेद से सहित होते हैं। म्लेच्छखंडों में, भोगभूमि और कुभोगभूमि में नपुंसक वेद नहीं है।
श्री उमास्वामी आचार्य ने अन्य प्रकार से मनुष्यों में दो भेद किए हैं-यथा ‘आर्याम्लेच्छाश्च’तत्वार्थसूत्र, अ. ३, सूत्र ३६। मनुष्यों के आर्य और म्लेच्छ ऐसे दो भेद हैं। टीकाकार श्री भट्टाकलंक देव ने कहा है-‘ऋद्धि प्राप्त और अनृद्धि प्राप्त (बिना ऋद्धि वाले) की अपेक्षा आर्य के दो भेद हैं।’ अनृद्धि प्राप्त आर्य के ५ भेद हैं-क्षेत्रार्य, जात्यार्य, कर्मार्य, चारित्रार्य और दर्शनार्य। ऋद्धि प्राप्त आर्य के ८ भेद हैं-ये ऋद्धिधारी मुनियों के भेद हैं। ऋद्धि के बुद्धि, क्रिया, विक्रिया, तप, बल, औषध, रस और क्षेत्र ये ८ भेद हैं। इनके अवांतर भेद ५७ या ६४ भी माने हैं। म्लेच्छ के भी दो भेद हैं-अंतरद्वीपज और कर्मभूमिज। ९६ कुभोगभूमि में होने वाले कुमानुष अंतरद्वीपज म्लेच्छ हैं तथा यहाँ आर्यखण्ड में जन्म लेने वाले शक, यवन, शबर, पुलिंद आदि कर्मभूमिज म्लेच्छ हैं तत्वार्थराजवार्तिक पृ. २०० से २०४। इन आर्य-म्लेच्छ दो भेदों में ही उपर्युक्त कर्मभूमिज, भोगभूमिज मनुष्य अंतर्भूत हो जाते हैं। १७० कर्मभूमि के क्षत्रिय, वैश्य आदि उच्चवर्णी मनुष्य, विद्याधर तथा भोगभूमिज मनुष्य आर्य हैं। कर्मभूमि के नीच वर्णी मनुष्य, म्लेच्छखंड के मनुष्य और कुभोगभूमि के मनुष्य ये सभी म्लेच्छ हैं।
जहां कल्पवृक्षों से भोगों की सामग्री प्राप्त हो जाती है, असि, मषि, कृषि, व्यापार आदि क्रियायें नहीं करनी पड़ती हैं, वह भोगभूमि है। यहाँ मात्र सुख ही सुख हैतिलोयपण्णत्ति, पृ. ५२७ (३० भोगभूमि, ९६ कुभोगभूमि में केवल सुख है)।
जहां असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प ये छह क्रियायें होती हैं, वह कर्मभूमि है। यहां पर प्रकृष्ट शुभ-अशुभ कर्म किए जा सकते हैं इसीलिए कर्मभूमि नाम सार्थक है। प्रकृष्ट अर्थात् सर्वोत्कृष्ट सर्वार्थसिद्धि के सुख प्राप्त कराने वाला पुण्य, तीर्थंकर प्रकृति का बंध, उदय और महान ऋद्धियों की उत्पत्ति आदि असाधारण पुण्य तथा संपूर्ण संसार के कारणों के अभाव रूप निर्जरा भी इस कर्मभूमि में ही संभव है तथा प्रकृष्ट-कलंकल पृथ्वी-निगोद और सप्तम नरक के महादु:खों को प्राप्त कराने वाला पाप भी यहीं संभव है। इसी कारण से इन ५ भरत, ५ ऐरावत और १६० विदेहों का कर्मभूमि नाम हैतत्वार्थराजवार्तिक, अ. ३, सूत्र ३७ की टीका। इस कर्मभूमि में सुख और दु:ख दोनों पाए जाते हैंकर्मभूमियों में सुख और दु:ख दोनों ही होते हैं। तिलोयप., पृ. ५२७। यहीं से मनुष्य कर्मों का नाश कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार से ४५ लाख योजन प्रमाण ढाईद्वीप में इन १७० कर्मभूमियों से ही मोक्ष होता है। स्वर्ग के देव, देवेन्द्र भी यहाँ जन्म लेना चाहते हैं, चूंकि मनुष्यगति से ही मोक्ष प्राप्त किया जाता है।