प्रतिष्ठाचार्य पं. नरेश कुमार जैन ‘‘कांसल’’ , जम्बूद्वीप हस्तिनापुर
सिद्धान्तवाचस्पति, न्यायप्रभाकर, वात्सल्यर्मूित परम पूज्या १०५ गणिनी आर्यिका शिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी की सुशिष्या प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री १०५ चन्दनामती माताजी द्वारा रचित ‘‘मनोकामना सिद्धि विधान’’ जिनेन्द्र भक्ति पूजन की एक अनुपम कृति है।
प्रस्तुत कृति की रचना पू. माताजी ने उस समय की थी, जब सारे देश में क्या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भगवान महावीर का २६०० वां जन्मोत्सव बड़े धूम-धाम से मनाया जा रहा था उसी समय परम पूज्या आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने छब्बीस सौ मंत्रों से समन्वित ‘‘विश्वशांति महावीर विधान’’ की रचना करके भारत की राजधानी दिल्ली में २६ मांण्डला रचवाकर १०८-१०८ इन्द्र-इन्द्राणियों को प्रत्येक मंडल में बैठाकर पूजन भक्ति करवाई थी,
वह दिल्ली के इतिहास में पहला अवसर था। पूज्य माताजी की लेखनी से ऐसे एक नहीं लगभग ६०-७० विधान पूजन एवं २०० से अधिक ग्रन्थों का सृजन हुआ है। पू. माताजी वर्तमान काल में सबसे प्राचीन दीक्षित आर्यिका हैं जिन्होंने इस युग के प्रथमाचार्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर जी के दर्शन करने का सौभाग्य तो प्राप्त किया ही है
साथ में गुरु परम्परा की सात पीढ़ी के आचार्यों का दर्शन भी जिन्हें प्राप्त हुआ उन्हीं माताजी की शिष्या आर्यिका चन्दनामती माताजी ने ‘‘विश्वशांति महावीर विधान’’ से १०८ मंत्रों को लेकर इस ‘मनोकामना सिद्धि विधान’ की रचना की, जैसा कि उन्होंने स्वयं विधान के मंगलाचरण में लिखा है—
प्रभु महावीर के २६०० वें, जन्मकल्याणक वर्ष में ही।
गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी, ने, महाविधान रचा सच ही।।
इसमें छब्बीस सौ मंत्रों के, द्वारा प्रभु वीर की पूजा है।
यह विश्वशान्ति महावीर विधान, अलौकिक और अनूठा है।
इसमें से ही इक शतक आठ, मंत्रों के मोती चुन करके।
इक महावीर व्रत बतलाया, माता श्री ज्ञानमतीजी ने।।
इस विधान में पू. माताजी ने भगवान महावीर स्वामी की पूजन करके, प्रथम कोष्ठक में १६ अर्घ्य दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनाओं के देकर यह सिद्ध किया कि इन सोलह भावनाओं को तीर्थंकर, केवली अथवा श्रुतकेवली के पादमूल में भाकर ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया जा सकता है पुनः द्वितीय वलय में तीर्थंकर गर्भागमन के पूर्व तीर्थंकर की माता द्वारा सोलह स्वप्न देखे जाते हैं
उन स्वप्नों का छन्द बद्ध लेखन करके यह सिद्ध किया है कि भरत और ऐरावत क्षेत्र में जन्म देने वाले तीर्थंकर की माता को सोलह ही स्वप्न आते हैं ‘न कम न अधिक’। अंत में माता अपने मुख में एक उत्तम स्वर्णिम कान्ति युत वृषभ को प्रवेश करते हुई देखती है जिसका सुन्दर वर्णन पू. माताजी ने स्वयं पूर्णार्घ्य में दिया है—
सोलह स्वप्नों के बाद दिखा, त्रिशला रानी को इक सपना।
स्वर्णिम कांती युत एक वृषभ, मेरे मुख कमल प्रविष्ट हुआ।।
उस फल में ज्ञात हुआ उनको, तीर्थंकर सुत उदरस्थ हुए।
उन स्वप्न दिखाने वाले प्रभु को, पूजें हम पूर्णार्घ्य लिए।।
तृतीय वलय की पूजन में पू. माताजी ने तीर्थंकर भगवान के ३४ अतिशयों का बहुत की सुन्दर शंभु छन्द में वर्णन किया है जिसमें १० जन्म के समय प्रगट होने वाले अतिशयों का वर्णन अति सुन्दर सिद्धान्त एवं भक्ति से ओतप्रोत है यथा—
जिनके परमौदारिक शरीर में, कभी पसीना नहिं आता।
शारीरिक स्वास्थ्य प्रदान करें, भक्तों को उनकी गुणगाथा।।
पृथ्वी के सब उत्तम परमाणु, जिनका रूप बनाते हैं।
सौंदर्य खान उन प्रभु का रूप, निरखने इन्द्र भी आते हैं।।
हित मित प्रिय मधुर वचन जिनके, अतिशय स्वरूप पाया जाता।
सबका करते कल्याण तथा, निज का कल्याण भी हो जाता।।
आगे माताजी ने ११ केवलज्ञान के अतिशयों का वर्णन भी अति सुन्दर-सरस-मधुर-कर्णप्रिय शब्दों में छन्दबद्ध किया है यथा—
यह केवलज्ञानी का अतिशय, महावीर प्रभु में प्रगट हुआ।
उनके चरणों की पूजन से, मेरे मन में सुख प्रगट हुआ।।
पुनः तेरह देवोपुनीत अतिशयों का वर्णन है। क्योंकि जब प्रभु तीर्थंकर भगवान को केवलज्ञान प्रगट होता है चार घातिया कर्म नष्ट हो जाते हैं तब देवों द्वारा तेरह अतिशय, चारों ऋतुओं के फल फूल एक साथ वृक्षों पर फल जाना, जनमानस का प्राणीमात्र में मैत्री भाव प्रगट हो जाना आदि ये अनुपम कार्य देवों द्वारा किये जाते हैं इन सभी का वर्णन पू. माताजी द्वारा इस कृति में किया गया है।
अंत में इस बात का भी समाधान पूर्णाघ्र्य में किया है कि लोक व्यवहार में १४ देवकृत अतिशय प्रसिद्ध हैं परन्तु तिलोयपण्णत्ति ग्रन्थ में आचार्य यतिवृषभ स्वामी ने देवकृत १३ अतिशय ही माने हैं।
दश अतिशय जन्म समय से ही, महावीर प्रभु में प्रगट हुये।
केवलज्ञानी बनते ही ग्यारह, अतिशय उनमें उदित हुए।।
तेरह देवोंपुनीत अतिशय हैं, कहे तिलोयपण्णत्ति में।
इन चौंतिस अतिशय युक्त वीर, प्रभु को पूजूँ पूर्णाघ्र्य लिये।।
चतुर्थ वलय में आठ प्रतिहार्यों का उत्तम दोहा छन्द में वर्णन किया है इन आठों अघ्र्यों का अलग वलय बनाने का उद्देश्य पू. माताजी का यह रहा होगा कि अतिशय केवल तीर्थंकर भगवान के ही प्रगट होते हैं परन्तु अष्ट प्रातिहार्य सामान्य केवली भगवान के भी प्रगट हो जाते हैं।
पुनः पंचम वलय में अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सौख्य, अनंत वीर्य आदि गुणों से विभूषित भगवान महावीर स्वामी के अनंत चतुष्टय गुणों का वर्णन शेर छन्द में किया है यथा—
निज मोहनीय कर्म नाश सौख्य पा लिया।
जो सुख कभी न नष्ट हो उसको दिखा दिया।।
मैं भी करूँ इस कर्म का विनाश भक्ति से।
ले अर्घ्य थाल अर्पूं जिनपद में भक्ति से।।
तीर्थंकर आदि अरिहंत परमेष्ठी जब चार घातिया कर्म नष्ट करके अरिहंत अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं तब उन महापुरुषों के क्षुधा, तृषा आदि अष्टादश महादोष भी नष्ट हो जाते हैं। इसी क्रम में पू. माताजी ने षष्ठम कोष्ठक में अट्ठारह अर्घ्य दोषों से मुक्ति और आत्मा में संतुष्टि प्राप्ति के लिए आधुनिक छन्दों में संगीत की सुर लहरी में पूजन भक्ति में ओतप्रोत हो जाये, इस भावना से समाहित किये हैं जैसे—
तीर्थंकर श्री महावीर प्रभू ने सारे दोष नशाए, हम पूजन करने आए।। टेक।।
तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी के लोक में पाँच नाम प्रसिद्ध हैं यथा—वीर, अतिवीर, सन्मति, वर्धमान और महति महावीर, इन नामों के साथ वीर प्रभू का इतिहास भी जुड़ा हुआ है जिनका वर्णन पू. माताजी ने सप्तम वलय में पूजन अर्घ्य रचकर के बारह अघ्र्य प्रभु चरणों में सर्मिपत किये हैं। प्रथम चार अघ्र्य नामों के लिए दिये हैं पुनः प्रभु के विशिष्ट गुणों का वर्णन किया है।
यथा—महायोगी, द्रव्यसिद्ध, अदेहगुण, अपुनर्भव गुण, ज्ञानैक चिद्गुण, जीवघन, सिद्धनाम और लोकाग्रगामुक आदि आठ विशेष गुणों की आराधना के साथ पू. माताजी ने लिखा—
गुण अनंत प्रभु आपके, कैसे वरणूँ नाथ।
पूरण अघ्र्य चढ़ाय के, मैं भी बनूँ सनाथ।।
अंत में जयमाला से पूर्व मनवाञ्छित फल पाने के लिए १०८ बार जाप्य मंत्र दिया है—
ऊँ ह्रीं मनोवााञ्छत फलप्रदाय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय नमः।
जयमाला में पू. माताजी ने भगवान महावीर स्वामी बनने से पूर्व दशवें भव का चित्रण िंसह पर्याय में सम्बोधन प्राप्त किया था जहाँ से इस जीव का उत्थान प्रारम्भ हुआ यह कथन अति प्रिय लगता है। कुण्डलपुर जन्मनगरी, नंद्यावर्त महल, माता त्रिशला रानी, पिता महाराज सिद्धार्थ आदि के वर्णन के साथ अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर हैं परन्तु सिद्धान्त का विलोप न हो जाये इस बात का ध्यान रखते हुये आगे महापद्म आदि चौबीस तीर्थंकर होंगे
इस बात का भी विशेष ध्यान रखा। परम पू. गणिनी शिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी के प्रति जो समर्पण भाव इस विधान में अनेकों स्थानों पर दर्शाते हुये मिला वह अनुकरणीय है। अंत में जयमाला में भी गुरु चरणों में अपनी विनयांजलि सर्मिपत की। पुनः विधान करने वालों को विधान का फल क्या प्राप्त हो इस बात को भी इत्याशीर्वादः में दर्शाया है—
जो भव्य मनोकामना सिद्धि, महावीर विधान करें रुचि से।
प्रभुजी के इक सौ आठ गुणों में, रमण करें तनमन शुचि से।।
वे लौकिक सुख के साथ साथ, आध्यात्मिक सुख भी प्राप्त करें।
‘‘चन्दनामती’’ जिनवर भक्ती का फल शिवपद भी प्राप्त करें।।
की रचयित्री परम पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री १०५ चन्दनामती माताजी विलक्षण प्रतिभा की धनी हैं। उनके धार्मिक संस्कार आचार-विचार जो उन्हें अपने परिवार से विरासत में प्राप्त हुये हैं, जिनकी गुरु दि. जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी परम पू. गणिनी आर्यिका शिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी हों और बचपन से ही जिनका सानिध्य जिन्हें प्राप्त हुआ हो एवं जिनके सानिध्य में रहकर अध्ययन साधना-आराधना करने का अवसर जिन्हें प्राप्त हुआ है ऐसी प्रज्ञाश्रमणी पू. आर्यिका चन्दनामती माताजी के विषय में क्या कहा जा सकता है।
जिनके पावन भजनों ने तो सारे भारत में संगीत साहित्य प्रेमियों को तो मानो दिव्य आत्म रसायन ही प्रदान कर दिया है। पू. माताजी का साहित्य के प्रति समर्पण, लेखन एवं प्रवचन शैली अनुकरणीय है। पूज्य माताजी ने अनेक विधान, पूजन, भजन एवं लेख आदि लिखकर जैन साहित्य के भण्डार को वृद्धिंगत किया है।
पूज्य माताजी ने गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती मातजी द्वारा षट्खण्डागम ग्रन्थ की जो संस्कृत टीका लिखी है उसका हिन्दी अनुवाद करके सामान्य अल्पज्ञानियों को भी पढ़ने का एक अवसर प्रदान किया है। पूज्य माताजी के चरणों में शत शत वंदन करते हुये उनके दीर्घायु की कामना करता हूँ। प्रस्तुत विधान दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान ने बड़े ही आकर्षक रंगीन कवर पृष्ठ के साथ पूजन विधान प्रेमी बंधुओं के लिए प्रकाशित करके अति उत्तम कार्य किया है।