साहित्य समाज का दर्पण है एवं आगम आत्मा, धर्म व विश्व का तीसरा नेत्र कहा गया है जो दर्पण के बिना भी ज्ञान कराता है। सोलहकारण पूजा विधान परम पूज्य प्रज्ञाश्रमणी र्आियका श्री चंदनामती माताजी के द्वारा रचित है। १३६ पृष्ठों के इस विधान में पूज्य माताजी ने आगम का सार, गागर में सागर के समान भर दिया है। इसमें सम्पादकीय के अलावा २ पृष्ठों में परम पूज्य र्आियका श्री सुदृढ़मती माताजी द्वारा लिखित प्रस्तावना है। २ पृष्ठों में विधान की रचयित्री प्रज्ञाश्रमणी र्आियका रत्न श्री चंदनामती माताजी द्वारा लिखित परम पूज्य राष्ट्रगौरव गणिनी प्रमुख र्आियका शिरोमणि अपनी गुरुमाता का परिचय है। तत्पश्चात् २ पृष्ठों में पूज्य पीठाधीश क्षुल्लक रत्न श्री मोतीसागर जी महाराज द्वारा संस्थान का परिचय कराया गया है। पाँच पृष्ठों में श्री वीरज्ञानोदय ग्रंथमाला के सदस्यों के नाम विषयानुक्रमणिका तथा विधान समर्पण एवं शेष पृष्ठों में विधान की पूजाएँ हैं। अंत में कवर पृष्ठ पर रचयित्री का परिचय दिया है जो कि ब्र. कु. बीना जैन के द्वारा दिया गया है।
आगम में सोलहकारण भावनाओं का उल्लेख श्री तत्त्वार्थसूत्र—मोक्षशास्त्र के अलावा अनेक ग्रंथों में आया है। सोलहकारण भावनाओं को केवली, श्रुतकेवली भगवान के पादमूल में भाने-मनन चिंतन करने से तीर्थंकर पुण्य प्रकृति का आस्रव, बंध होता है। इसे भाने वाला जीव आगे के भवों में तीर्थंकर बनता है। विशेष विधि द्वारा की गई वृहत पूजा को विधान कहते हैं। प्रस्तुत विधान में पूज्य माताजी ने १७ पूजाएँ बनार्इं हैं प्रथम समुच्चय पूजा है शेष सोलह पूजायें सोलह कारण भावनाओं की हैं। अंत में प्रशस्ति, आरती, भजन एवं सोलहकारण व्रत कथा है। सोलहकारण पर्व अनादि निधन है जो दश लक्षण पर्व के समान वर्ष में तीन बार चैत्र, भाद्र एवं माघ महीने में आता है। अंतर ये है कि दशलक्षण पर्व दस दिन चलता है सोलहकारण पर्व पूरे महिने चलता है। दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शीलव्रतेष्वनतिचार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैयावृत्यकरण, अर्हद्भक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यकापरिहाणि, मार्ग-प्रभावना, प्रवचन वत्सलत्व ये सोलह कारण भावनायें मानी जाती हैं इनके चिंतवन करने से तीर्थंकर प्रकृति का आश्रव होता है। संसार में कौन ऐसा भव्य है, जो तीर्थंकर नहीं बनना चाहेगा अतः ये विधान, विस्तार से पूजा के माध्यम से इन्हींं भावनाओं के बारे में सांगोपांग बताता है एवं भगवान की भक्ति में निमग्न कराता है।
यूं तो परम पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी द्वारा रचित अनेक विधान हैं जैसे—नवग्रह शांति विधान, भक्तामर विधान, तीर्थंकर जन्मभूमि विधान, समयसार विधान, कल्याणमंदिर विधान, पंचकल्याणक तीर्थक्षेत्र विधान, दशलक्षण विधान, रत्नत्रय विधान आदि। सभी विधान उपयोगी पुण्यार्जन कराने वाले हैं। प्रस्तुत सोलहकारण विधान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सरस, सरल एवं भक्ति रस से ओतप्रोत काव्य है। पूजाओं का अध्ययन करने पर निम्न विशेषताएँ दृष्टिगत होती हैं—
१. भाषाशैली—इस विधान की भाषा शैली अत्यन्त सरस, सरल एवं विषय का पूर्ण ज्ञान कराने के साथ पंचपरमेष्ठी की भक्ति में लीन करके, पापों को नष्ट करके पुण्यार्जन कराने वाली है, इसमें ऐसा लगता है कि जैसे इनके काव्य में एवं गणिनी र्आियका श्री ज्ञानमती माताजी जो इनकी गुरु माँ हैं, उनके द्वारा रचित काव्यों में भाषा शैली का बड़ा सामंजस्य पाया जाता है।
२. छन्द—सोलहकारण विधान में निम्न छंदों का प्रयोग किया गया है— १. दोहा, २. सोरठा, ३. शेर छंद, ४. शंभु छंद, ५. अडिल्ल छंद, ६. कुसुमलता छंद, ७. चौबोल छंद, ८. सखी छंद, ९. गीता छंद, १०. नाराच छंद, ११. चौपाई छंद, १२. नरेन्द्र छंद, १३. स्रग्विणी छंद।
३. तर्ज या रागें—इस विधान की यही सबसे बड़ी विशेषता है कि इसको मधुर एवं संगीतमय बनाने के लिए भक्तों को भक्तिरस में ओतप्रोत करने के लिए लोक धुने एवं अनेक तर्जों को भी शामिल किया गया है। आज से पचास वर्ष पूर्व पूजाओं में संगीत न के बराबर चलता था एवं विधान की पूजायें बिना संगीत, बिना ढोलक आदि के होती थीं तथा वर्ष में कभी-कभी कहीं-कहीं होती थीं। आज विधान एवं पंचकल्याणकों में संगीत का बोल बाला है, सत्य कहा जाय तो ये पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी एवं पूज्य प्रज्ञाश्रमणी र्आियका श्री चंदनामती माताजी की ही देन है, जो आज इतने संगीतकार दिख रहे हैं एवं वर्ष भर पूजा विधान सर्वत्र होते रहते हैं।
४. प्रत्येक पूजा के प्रारम्भ (अष्टद्रव्य) के बाद ये बता दिया गया है इस पूजा के इस वलय में इतने अघ्र्य एवं इतने पूर्णाघ्र्य हैं।
५. परम पूज्य चारित्र चंद्रिका गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के द्वारा रचित पूजाओं की भाँति इस विधान की पूजायें भी ग्यारह प्रकारी पूजायें हैं जो अन्यत्र देखने में नहीं आती हैं। जिस पूजा में शांतिधारा, पुष्पांजलि शामिल हो वह पूजा एकादश प्रकारी पूजा कहलाती है।
६. बड़ी जयमाला में सोलहकारण भावनाओं के परिचय के साथ ही सोलह कारण व्रत को करने वाली कुरूपा कन्या के द्वारा व्रत को करने एवं उसका फल विदेह क्षेत्र के श्री सीमंधर तीर्थंकर के रूप में प्राप्त करने की कथा काव्य रूप में बताई गई है। ७. प्रथम पूजा में ही तीर्थंकर बनने की भावना की गई है। यथा—
दर्शन विशुद्धि हो, आतम की शुद्धि हो, आगे तीर्थंकर बन के, इस जग से मुक्ति हो, आओ करें मिल आज, सोलहकारण पूजा—२।।
आज विश्व में शायद ही कोई ऐसा हो, क्या नेता, अभिनेता, श्रीमान, धीमान, साधारणजन जो चारित्रचंद्रिका, युग प्रर्वितका, वाग्देवी, न्याय प्रभाकर, राष्ट्रगौरव, विश्वविभूति, दो-दो बार डी. लिट. की मानद उपाधि से अलंकृत परम पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के नाम से या माताजी से परिचित न हो। आबाल, वृद्ध सभी उन्हें जानते हैं, मानते हैं। परम पूज्य प्रज्ञाश्रमणी र्आियका श्री चंदनामती माताजी धन्य हैं सौभाग्यशाली हैं जिन्हें ऐसे गुरु का चरण सानिध्य प्राप्त हो रहा है। वे पूज्य गुरुमाता को अपना सर्वस्व मानती हैं। उनकी आज्ञा में प्रतिक्षण तत्पर रहती हैं। पूज्य ज्ञानमती माताजी के प्रति पूज्य चंदनामती माताजी के शब्द इस विधान में उद्धृत हैं। वास्तव में आज के कलिकाल में भी आध्यात्मिक ज्ञान, चारित्र साधना एवं मोक्षपथ को साकार करने वाले गुरुओं का जितना भी अभिनंदन किया जाये उतना कम है, जो बिना कुछ कहे अपनी मुद्रा द्वारा ही शांति, संयम, सदाचार का उपदेश देते हैं। ऐसे साधु इस भारत वसुंधरा की शान हैं और हम जैसे जो भी प्राणीगण परम सौभाग्य से उनके चरणों में आश्रय प्राप्त कर लेते हैं वे भी अपने जीवन को सही अर्थों में सार्थक कर लेते हैं। ऐसी चतुर्मुखी प्रतिभा की धनी पूज्य र्आियका श्री चंदनामती माताजी पीएच. डी. की मानद उपाधि से अलंकृत, बाल ब्रह्मचर्य युक्त, आशु कवियित्री आदि अनेक गुणों से सम्पन्न हजारों भजनों, अनेकों ग्रंथों की लेखिका हैं, इनके द्वारा रचित ये सोलहकारण विधान जन जन में मंगलकारी हो, भव्यों को तीर्थंकर बनाने में निमित्त बने, इसी भावना के साथ पूज्य माताजी के श्री चरणों में अनंतशः नमन।