तंत्र :— यह मंत्र विद्या का एक प्रमुख विशिष्ट अंग है। तन्त्रों का सम्बन्ध विज्ञान से है इसमें कुछ ऐसी रासायनिक वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है, जिनसे एक चमत्कार पूर्ण स्थिति पैदा की जा सके। मानवी शक्ति प्राप्त करने के लिए मंत्र यंत्र—गर्भित विशिष्ट प्रयोगों का वैज्ञानिक संचयन तंत्र है। विद्वानों ने तंत्र शब्द की व्याख्या में दो आशयों को मुख्यत: रखा है। एक दृष्टिकोण इसे उस ज्ञान के मार्ग दर्शक के रूप में व्याख्यात करता है, जिससे लौकिक दृष्टया असाधारण शक्ति, चमत्कार तथा वैशिष्ट्य का लाभ होता है। दूसरा दृष्टिकोण, अलौकिक या मोक्ष परक है, इसलिए तंत्र को चरम सिद्धि उस ज्ञान की बोधिका है, जिससे जन्म—मरण के बन्धन से उन्मुक्त होकर जीव सत् चित आनन्दमय बन जाय, मोक्षगत हो जाय या सिद्धत्व प्राप्त कर ले। मंत्र और यंत्र से यह विषय विशेषतया संबद्ध है अत: तदनुरूप अभ्यास व साधना से कार्य सिद्धिदायक है। तंत्रों में मंत्र भी प्रयोग में आते हैं और यंत्र भी। तंत्र में मंत्र का प्रयोग कभी कभी आवश्यक भी होता है, क्योंकि उससे तंत्र की शक्ति द्विगुणित हो जाती है। बाह्य दृष्टि से मंत्र तंत्र के द्वारा आकर्षण, माहन, मारण, वशीकरण उच्चाटनादि किया जाता है। जैन मंत्र शास्त्रों में मंत्रों में अनेक भेद बताये हैं, किन्तु उनका जन्मदाता अनादि मूल मंत्र णमोकार महामंत्र है उसी के सम्बन्ध में यहां विचार किया जाता है— णमोकार मंत्र में मातृका ध्वनियों का तीनों प्रकार का क्रम सन्निविष्ट है। इसी कारण यह मंत्र आत्मकल्याण के साथ लौकिक अभ्युदयों को देने वाला है। अष्टकर्मों को विनाश करने की भूमिका इसी मंत्र के द्वारा उत्पन्न की जा सकती है। संहारक्रम कर्मविनाश को प्रगट करता है तथा सृष्टिक्रम और स्थितिक्रम आत्मानुभूति के साथ लौकिक अभ्युदयों की प्राप्ति में सहायक है। इस मंत्र की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि इसमें मातृका ध्वनियों का तीनों प्रकार का क्रम सन्निहित है, इसीलिए इस मंत्र से मारण, मोहन और उच्चाटन तीनों प्रकार के मंत्रों की उत्पत्ति हुई है। बीजाक्षरों की निष्पत्ति के सम्बन्ध में बताया गया है—
‘हलो बीजानि चौक्तानि, स्वरा: शक्तय ईरिता:।’’ककार से लेकर हकार पर्यंत व्यञ्जन बीजसंज्ञक हैं और आकरादि स्वर शक्तिरूप हैं। मंत्र बीजों की निष्पत्ति बीज और शक्ति के संयोग से होती है। सारस्वत बीज, मायाबीज, शुभनेश्वरी बीज, पृथ्वी बीज, अग्निबीज, प्रणवबीज, मारुतबीज, जलबीज, आकाशबीज आदि की उत्पत्ति उक्त हल् और अंचों (स्वरों) के संयोग से हुई है। यों तो बीजाक्षरों का अर्थ बीज कोश एवं बीज व्याकरण द्वारा ही ज्ञात किया जाता है। णमोकार मन्त्र का अचिन्त्य और अद्भुत प्रभाव है इस मन्त्र की साधना द्वारा सभी प्रकार की ऋद्धि सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं। यह मंत्र आत्मिक शक्ति का विकास करता है। अत: समस्त बीजाक्षरों वाला यह मंत्र जिसमें मूल ध्वनिरूप बीजाक्षरों का संयोजन भी शक्ति के क्रमानुसार किया गया है।
मातृकाओं का महत्त्व :— विद्यानुवाद में मातृकाओं का महत्त्व स्वीकार करते हुए बताया है कि मातृकाएं शक्तिपुञ्ज हैं। शक्ति मातृकाओं से भिन्न नहीं है। जो व्यक्ति मन्त्र—बीजो मेें निबद्धकर इन मातृकाओं का व्यवहार करता है, वह आत्मिक और भौतिक दोनों प्रकार की शक्तियों का विकास कर लेता है। मातृकाएं बीजाक्षरों और पल्लवों के साथ मिलकर आकर्षण विकर्षणों को उत्पन्न करने में समर्थ हो जाती हैं। मातृकाएं बीजों में निबद्ध हो कर चाञ्चल्य का सृजन भी करती हैं, जिससे किसी भी पदार्थ में टूट—फूट की क्रिया उत्पन्न होती है। यह क्रिया ही शक्ति का आधार स्रोत है और इसी से मन्त्र—जाप द्वारा चमत्कारी कार्य उत्पन्न किये जाते हैं। वर्तमान विज्ञान भी यह बतलाता है कि बीजमंत्रों में निहित शक्ति ब्यूह हमारी इन्द्रियों को उत्तेजित कर देता है और यह उत्तेजना जलतरंग की अनुरणन ध्वनि के तुल्य क्रमश: मन्द, तीव्र, तीव्रतर, मन्द, मन्दतर होती हुई कतिपय क्षणों तक रणन करती रहती है। इसी प्रकार बीजों का घर्षण की शक्ति—व्यूह का संचार करता है। इसी कारण आचार्यों ने कहा है—
न दुष्टवर्णप्रायश्चेन्मनत्र: सिद्धि प्रयच्छति।
इत्युक्तो वर्णयोगोऽत्र परेषां वण्र्यते मतम्।।
अर्थात् दुष्टवर्ण मन्त्र में प्रयुक्त होकर कभी भी सिद्धि प्राप्त नहीं करा सकते हैं। सिद्धि, साधन नक्षत्र, राशि और ग्रह परिशुद्ध बीज हैं, इन्हीं बीजों द्वारा चमत्कारपूर्ण भौतिक शक्तियां प्राप्त की जाती हैं।