पढ़ लेती मन की चिट्ठिया,
यह मेरे बेटे की बिटिया घर—घर में पायल छमकाती,
आंगन फूलों सा महकाती मुस्कानों के दीप जलाकर,
मुफ्त हंसी के फूल खिलाकर बन जाती है गीत बोल के,
लौटा लाती दिन अतीत के चंचल सी चाबी की गुड़िया है
कोई जादू की पुड़िया स्नेह मूलधन लेकर बेटे,
घर से दूर—दूर जा बैठे उन्हें नहीं है माँ की चाहत,
जब वो आते कर जाते आहत ’वे‘ ले गये प्यार की पूंजी,
लौटाने में ही अववोमूंजी पर उनकी यह बिटिया रानी,
जाने कब हो गयी सयानी बुझते मन की दीप जलाकर,
चुका रही है सूद पिता का कोई सोच दुखी करता मन,
बढ़ जाती है पैरों की जकड़न आंसु जब बन जाते हैं आंहें,
घिर जाती बिटिया ही बांहें ‘दादी—दादी’ का सम्बोधन,
वो देता फिर से सम्मोहन छोटी से उसकी कद काठी,
बन जाती दादी की लाठी हंसती , वातावरण हंसाती,
दादी को शिशु सा दुलराती पंखों पर उड़ती सी चिड़िया,
बन जाती खुद दादी बुढ़िया इसलिये कहता जग सारा,
लगता सूद मूल से प्यारा यह मेरे बेटे की बिटिया,
पढ़ लेती मन की चिट्ठियां