मन एक बहुत बड़ी ऊर्जा का स्रोत है, किन्तु उस पर नियन्त्रण न होने के कारण उस ऊर्जा का विभिन्न विचारों के रूप में बहिर्गमन होता रहता है, एवं दुरूपयोग भी होता रहता है। मन विद्युत के मेन स्विच की तरह है इसे बन्द कर दें तो इन्द्रिय—लम्पटता रूपी उपकरण स्वत: ही बन्द हो जाते हैं। संसार को जीतना आसान है, लेकिन अपने मन को जीतना ही सच्ची जीत है। मन भोगों से कभी तृप्त नहीं होता। मन की इच्छायें अग्नि—कुण्ड सम कभी मनचाहा र्इंधन डालने पर भी बुझती नहीं ; उसे तृप्त करना है तो उस पर त्याग का अंकुश रखना पड़ेगा। मन आकांक्षाओं में जीता है। और आकांक्षाएँ अगणित होती हैं। यदि मन अनावश्यक छोड़ आवश्यकता में जीना प्रारम्भ कर दे तो आज ही तृप्त हो सकता है। मन को जीतना है, जीना है; तो हमें आवश्यकता में जीना होगा क्योंकि आवश्यकता की पूर्ति सीमित होने के कारण मन को जीतने की साधना सम्भव है। मन का ध्यान से घनिष्ठ सम्बन्ध है। किसी का आलम्बन पर मन को केन्द्रित करना ध्यान है— एकाग्रचिन्ता निरोध: का अर्थ है एक ही अग्र अर्थात् मुख या विषय में चिन्ता को रोक देना। अन्य मतों में जो ध्यानं निर्विषयं मन ऐसी मान्यता है, उसका निरसन करते हुए जैनमत की अवधारणा है कि ध्यान का एक विषय मन और निचली अवस्था में एक विषयभूत मन की परिणति ध्यान है। किसी एक आलम्बन पर मन को केन्द्रित करना ध्यान है। मन के विकार से अशुभ ध्यान अपध्यान मन की पवित्रता से प्रशस्त-ध्यान की सिद्धि मन की एकाग्रता के अभाव ध्यान में बाधाएँ और पवित्र चिन्तन से चिन्ताओं, विकल्पों से मुक्ति इस प्रकार मन की विभिन्न अवस्थाएं हमारे ध्यान में बाधक व साधक बनती है। जैन दर्शन में तो ध्यान का लक्षण—एकाग्र चिन्ता निरोध- किसी पदार्थ या विषय में स्थिर होना ध्यान है। अब वह ध्यान किस कोटी का है मन की शुद्धि और विशुद्धि पर निर्भर करता है। जैन दर्शन में मन एक अभ्यन्तर इन्द्रिय है। ये दो प्रकार की है— द्रव्य व भाव। हृदय स्थान में अष्टपांखुड़ी के कमल के आकार रूप पुद्गलों की रचना विशेष द्रव्य मन है। चक्षु आदि इन्द्रियवत् अपने विषय में निमित्त होने पर भी अप्रत्यक्ष व अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण इसे इन्द्रिय न कहकर अनिन्द्रिय या ईषत् इन्द्रिय कहा जाता है। संकल्प—विकल्पात्मक परिणाम तथा विचार, चिन्तवन, आदिरूप ज्ञान की अवस्था विशेष भाव मन है। मन इन्द्रिय को सहायता करता है, उसी मन के द्वारा क्रमश: विशेष और क्रिया होती है तथा जिनके द्वारा देखे सुने गये पदार्थो का स्मरण होकर हेय उपादेय का ज्ञान होता है, वह मन है। वैशेषिक मत का कहना है मन एक स्वतन्त्र द्रव्य है। वह रूप आदि रूप परिणमन से रहित है और अणु मात्र है। बौद्ध मत का कहना है कि विज्ञान ही मन है और इसके अतिरिक्त कोई पौद्गलिक मन नहीं है। सांख्य मत का कहना है कि प्रधान का विकार ही मन है और इसके अतिरिक्त कोई पौद्गलिक मन नहीं है। शंकराचार्य के अनुसार कर्म से केवल मन की ही शुद्धि होती है। तत्व वस्तु प्राप्त नहीं हो सकती। इसका मुख्य उपाय ध्यान है। स्वामी शिवानन्द के अनुसार ध्यान ही मोक्ष प्राप्त करने का एकमात्र राज है। चिन्तन की एकाग्रता को ध्यान कहते हैं। अपने ध्येय में लीन हो जाना स्वयं के चेतन स्वरूप में रम जाना ध्यान है। श्री श्री रविशंकर कहते है कि जब मन विश्राम करता है तब बुद्धि तीक्ष्ण हो जाती है। जब मन आकांक्षा, ज्वर या इच्छा जैसी छोटी—छोटी चीजों से भरा हो, तब बुद्धि क्षीण हो जाती है। और जब बुद्धि तथा ग्रहण क्षमता तीक्ष्ण नहीं होती, तब जीवन को पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं मिलती है, नए विचार नहीं आते तथा हमारी सामथ्र्य दिन—प्रतिदिन कम होने लगती है। इस ज्ञान से हम अपने छोटे मन के दायरे से बाहर कदम निकाल सकते हैं और कदम जीवन की कई समस्याओं का समाधान देगा। स्वामी चैतन्य कीर्ति कहते हैं कि जब बात मन, आत्मा के नवीनीकरण की हो,शुद्धता की हो, नए नजरिये की हो, नई आदतों की हो, तो ध्यान की महत्ता काफी अहम हो जाती है । ध्यान आपको निरंतर तरोताजा रखता है नकारात्मक विचार नहीं आने देता। हमेशा नया बनाए रखता है। आपके मन मस्तिष्क में नई ऊर्जा का संचार करता है। यही ऊर्जा जिंदगी को सकारात्मक बनाती है। जीवन में नई चीजों के उद्भव में सहायक बनती है। लिहाजा, अगर जीवन में परिवर्तन चाहिए तो ध्यान कीजिए। ध्यान से संभल आता है, चीजों को ज्यादा बेहतरीन ढंग से समझने की क्रिया का विकास होता है। दरअसल, अतीत का बोझ हमारी जिंदगी को बासी बना देता है। जब तक बासीपन दूर नहीं होगा, जीवन में नवीनता की उम्मीद करना बेमानी होगा। आधुनिक विज्ञान मन के अस्तित्व को नहीं मानता; बल्कि उसके स्थान पर स्मृति, विचार, साहचर्य आदि के साथ मानसिक वृत्तियों को भी स्वीकार करता है। जबकि भारतीस मनोविज्ञान में विशेष अध्ययन का विषय यह रहा है कि मन की शक्ति को कैसे संयमित किया जावे। मन: तत्त्व का मनन करता है और चित्त या बुद्धि से ग्रहण करता है। मन को जीतने का मंत्र है अध्यात्म। अध्यात्म से मन का सौन्दर्य खिलता है। अध्यात्म की शिक्षा, अध्यात्म की चर्चा, मन को उध्र्वगामी बनाती है जबकि भौतिकता से मन अधोगामी बनता है। अध्यात्म ही जीवन का परम सत्य है, जीवन की तर्ज है एवं देवत्व /अमरत्व की ओर ले जाता है । जिस मनुष्य के जीवन से अध्यात्म और धर्म उससे दूर हो गया है, वे पीड़ित हैं चिंतित हैं। जो अध्यात्म और आत्मा के पथ पर चलते हैं, वे मन के मालिक बनते हैं, मन को जीत पाते हैं समझो वे मृत्यु को भी जीत लेते हैं, मन को परमात्मा के चरणों में मिटाकर जिया जा सकता है। मन को मिटाने का अर्थ अपने अहंकार (ईगो) क्रोधादि दुर्गणों को मिटा देता देना है। यदि हम अपनी जीवन—चर्या पर आध्यात्मिक दृष्टिकोण से तथा सूक्ष्मता से दृष्टिपात करें तो हम पायेंगे कि हमारी अन्तश्चेतना बहुत ही क्षुद्र कोटि की वस्तुओं व व्यवस्थाओं में उलझी हुई है। हम येन—केन प्रकारेण अधिक से अधिक धन के लिए, अधिक से अधिक जानकारियों के लिए और अधिक मान—सम्मान के मालिक होने के लिए प्रयासरत है। धन, व्यक्ति, वस्तु, विचार , आदि के परिग्रह की हमारी कोई सीमा नहीं है। हमारी मांग अधिक से अधिक की है। इतना ही नहीं हमने अपने मन को बहुत सारी अनावश्यक सूचनाओं से, अर्थहीन हो चुकी भूतकाल की स्मृतियों से तथा भविष्य की असम्बद्ध कल्पनाओं से भी भर लिया है। शरीर व मन स्तर पर आघटित हुए इस जटिल परिग्रह की आपा—धापी में स्वविषयक प्रश्न—मैं कौन हूँ, तथा अपने जन्म विषयक-क्यों कैसे ? कहाँ से ? आदि प्रश्न हमारे मन में उठते ही नहीं है और यदि उठते हैं तो उनमें कोई गंभीरता हो भी तो इस तरह की आकांक्षाओं से भरे मन के द्वारा इन प्रश्नों के उत्तरों को नहीं जाना जा सकता । इस प्रकार शरीर व मन के स्तर पर आघटित हुई यह परिग्रह की अवस्था , स्वबोध और जन्म विषयक कथन्ता के बोध में बहुत बड़ी बाधा है। जब साधक भलीभाँति विचार करके शरीर व मन के स्तर पर पैदा हुई परिग्रह की मृग —मरीचिका से अपने आप को मुक्त कर लेता है तो प्राय: स्वत: ही उसे जन्म विषयक कथन्ता का बोध होने लगता है। मानव जीवन हमारे लिए सबसे बड़ी सौगात है। मनुष्य का जन्म ध्यान, तप, साधना, करके भगवान सम बनने के लिए हुआ है। यह जीवन ज्योतिर्मय बेहद कीमती है। जीवन को छोटे—छोटे उद्देश्यों के लिए जीना जीवन का अपमान है। अपनी मन व ध्यान की समस्त शक्तियों को तुच्छ कामों में व्यर्थ करना, व्यसनों एवं वासनाओं में जीवन का बहुमूल्य समय बर्बाद करना जीवन का तिरस्कार है। जीवन अनन्त है, हमारी शक्तियाँ भी अनन्त हैं और हमारी प्रतिभाएँ भी विराट हैं, लेकिन हम अपनी शारीरिक, मानसिक, व आध्यात्मिक शक्तियों का लगभग ५ प्रतिशत ही उपयोग कर पाते हैं। हमारी अधिकांश शक्तियाँ सुप्त ही रह जाती हैं। यदि हम अपनी आंतरिक क्षमताओं से मन, ध्यान, साधना, योग और तप का पूरा उपयोग करे, तो हम पुरुष से महापुरूष, युगपुरूष, मानव से महामानव बन सकते हैं। हमारी मानवीय चेतना से वैश्विक चेतना अवतरित होने लगती है, भगवान सम आलौकिक शक्तियाँ, सिद्धियाँ हमारी आत्मा के भीतर सन्निहित हैं। इस पृथ्वी पर मेरा जन्म आत्म कल्याण कर भगवान सम बनने के लिए हुआ है।