सुशील- चलो भाई प्रवीण! चलें,हम लोग भी गंगा स्नान करके पापों को हल्का कर लें।
प्रवीण- भाई सुशील! गंगा नदी आदि में स्नान करने से केवल शरीर का मैल ही धुलेगा, ना कि आत्मा का मैल। आत्मा के मैल को धोने के लिए अथवा कुछ पाप मॉल को हल्का करने के लिए तो अरिहंत भगवन के तीर्थ में स्नान करो। देखो’अरिहंत भगवन ही सच्चे तीर्थ हैं’।
सुशील- अच्छा तो इस तीर्थ में नहाने वाले यात्री कौन-कौन हैं
प्रवीण- तीनो लोकों में भव्य जीव इस तीर्थ में नहाने वाले यात्री हैं ।
सुशील- इसमें जल कहाँ है ?
प्रवीण- इसमें लोकालोक के सभी सच्चे तत्वों को बत्लाने में समर्थ ऐसा ‘दिव्यज्ञान’ रूपी जल प्रवाहित हो रहा है ।
सुशील- नदी में तट होते हैं,सो इसमें कहाँ हैं ?
प्रवीण- इसमें व्रत और शील के अमल और विशाल दोनों तरफ तट बने हुए हैं ।
सुशील- नदी में रझंश रहते हैं ।
प्रवीण- यहाँ भी शुक्लाध्याँ को ध्याने वाले महामुनिगाणरुपी रझंश शोभित हो रहे हैं ।
सुशील- वहां मंद सुन्दर घोष होता रहता है ।
प्रवीण- यहाँ भी स्वाध्याय का मन्द,बहुत ही सुन्दर घोष होता रहता है ।
सुशील- नदी में बालू चमक्तिराहती है ।
प्रवीण- हाँ भाई सुशील! इस महानदी में भी अनेकों गुण,समिति और गुप्त्रुपी बालू का समूह है जो रत्ना के कण के समान चमक रहा है ।
सुशील- नदी में आवर्त(भँवर)रहते है ।
प्रवीण- हाँ,यहाँ भी क्षमारुपी हजारों भँवर होते रहते हैं ।
सुशील- नदी में अनेकों तरह के छोटे-छोटे फूल खिले रहते हैं ।
प्रवीण- यहाँ भी सर्व जीव्दयारुपी खिले हुए पुष्पों से सुसोभित बहुत सि लताएँ फैली हुई हैं ।
सुशील- नदी में लहरे लहराती हैं ।
प्रवीण- यहाँ भी दुःसह परीषहरुपी बहुत सि लहरे लहराती रहती हैं ।
सुशील- नदी में फेन और के रहती है ।
प्रवीण- किन्तु इस महँ उत्तम नदी में कशाय्रुपी फेन नहीं है और राग-दवेष आदि दोष रूपी शैवाल-काई भी नहीं है ।
सुशील- नदी में कीचड़ रहती है,मगर,नक्र आदि जलचर भरे रहते हैं ।
प्रवीण- भाई!इस नदी में मोहरूपी कीचड़ नहीं है कि जिस कीचड़ में फसकर जीव संसाररूपी समुद्र के पार नहीं हो पाए तथा इस नदी में यमराज-मरंरुपी नक्र-चक्र,मगर आदि जलचर हिंसक प्राणी नहीं है ।
सुशील- तब तो भाई! यह नदी बहुत ही उत्तम है । जहाँ पर फेन,काई ,कीचड़ और जलचर जंतु नहीं है । हाँ प्रवीण! और बताओ नदी के किनारे तमाम पक्षियों के कल-कालरूप मधुर शब्द होते रहते हैं ।
प्रवीण- सुशील! इस नदी में बहुत से ऋषिगणरूपी पक्शिगणों से पंचपरम गुरु कि स्तुतिरूप मंद-सुन्दर निर्घोष होता रहता है ।
सुशील- नदी में पुल होते हैं ।
प्रवीण- इसमें भी अनेक प्रकार कि तपश्र्वर्या मेन तत्पर तपोनिधि साधु वे उत्तम पुल है क्योन्कि उन्के सहरे भी सन्सार समुद्र पार किया जाता है ।
सुशील- नदि के आस-पास उसी के निमित्त से झरने निकलते रह्ते है ।
प्रवीण- हाँ,यहाँ भी सुभ कर्मों का आस्रव,पाप का सँवर अथवा पाप-पुण्य दोनों का पूण सँवर और निर्जरारुपी झरने सुन्दर-सुन्दर झरते रहते है ।
सुशील- इस नदी में स्नान कर क्या किसी ने पाप मॉल धोया है?
प्रवीण- अवश्य,महान-महान गणधरों ने,चक्रवर्तियों ने,इन्द्रों ने और भी बहुत भव्यतर पुण्डरीक महापुरुषों ने इस अरिहंत भगवनरूपी महानदी में इस अमेय तीर्थ में कलि कलुष को धोने के लिए भक्ति से स्नान किया है और कर्म मॉल को धोकर निरंजन,क्रत्क्रत्य,शुद्ध,विशुद्ध,सिद्ध परमात्मा हो गए हैं ।
इसलिए मे भी इस महातीर्थ में स्नान करने के लिए उतरा हूँ । यह तीर्थ परमपावन है,भेदभाव से रहित सभी जीवों को पवित्र करने वाला है और अन्य लोंगो से अजय है तथा स्वभाव से ही गंभीर बहुत ही गहरा है । यह तीर्थ मेरे भी सम्पूण पापों को दूर करे और मुझे भी शीघ्र ही पवित्र करे ।
सुशील- ओहो! यह महातीर्थ कितना सुन्दर है । अब मे भी रोज इसमें स्नान करने आया करूँगा ।
प्रवीण- तो भाई सुशील! यह तुममे इस महातीर्थ में स्नान करने कि भावना जाग्रत हुई हो तो यह श्लोक याद कर लो और नियम कर लो कि आज से मे प्रतिदिन जिनमन्दिर के दर्शन करने जाऊँगा और श्री जिनेंद्रदेव के सामने इस मधुर स्तुति का पाठ करूँगा । देखो सुशील! यह स्तुति श्री गौतम गणधर के द्वारा रचित है । जब उन्होंने सर्वप्रथम श्री वीर भगवन के समवशरण में श्री वीर प्रभु को देखा था । देखते ही गद्गद वाणी में ‘जयतु भगवान’ इत्यादि बोलते हुए भक्ति से विभोर होकर स्तुति कि थी । इस स्तुति पाठ के मध्य के छः श्लोक हैं-
सुशील- ओहो! यह महातीर्थ कितना सुन्दर है । अब मे भी रोज इसमें स्नान करने आया करूँगा ।
प्रवीण- तो भाई सुशील! यह तुममे इस महातीर्थ में स्नान करने कि भावना जाग्रत हुई हो तो यह श्लोक याद कर लो और नियम कर लो कि आज से मे प्रतिदिन जिनमन्दिर के दर्शन करने जाऊँगा और श्री जिनेंद्रदेव के सामने इस मधुर स्तुति का पाठ करूँगा । देखो सुशील! यह स्तुति श्री गौतम गणधर के द्वारा रचित है । जब उन्होंने सर्वप्रथम श्री वीर भगवन के समवशरण में श्री वीर प्रभु को देखा था । देखते ही गद्गद वाणी में ‘जयतु भगवान’ इत्यादि बोलते हुए भक्ति से विभोर होकर स्तुति कि थी । इस स्तुति पाठ के मध्य के छः श्लोक हैं-
महातीर्थअरिहंत देव महानद उत्तम, तीर्थ अलौकिक है जग में।
त्रिभुवन भविजन तीर्थ स्नान से, पापों का क्षालन करते ।॥1॥
लोकालोक सुतत्व प्रकाशक, दिव्या ज्ञान जल नित बहता ।