विश्व में जैन धर्म का डंका बजाने वाले, देश और धर्म के गौरव श्रीयुत वीरचंद राघवजी गांधी का जन्म २५ अगस्त १८६५ को महुवा भावनगर के प्रतिष्ठित जैन परिवार में हुआ। मैट्रिक की परीक्षा में सम्पूर्ण राज्य में प्रथम स्थान प्राप्त करके मुंबई के एलपिंस्टन कालेज से बी.ए. की परींक्षा पास की। लंदन में कानून की सर्वोच्च डिग्री बार—एट—ला पास करके बैरिस्टर बने। २१ वर्ष की युवावस्था में जैन ऐसोसिएशन ऑफ इण्डिया के मानद् मंत्री बने। सॉलीसीटर के रूप में श्री शत्रुंजय तीर्थ पर सरकार द्वारा लगाये जा रहे चर्बी कारखाने को बन्द करवाने में आप पूरी तरह सफल रहे। ११ सितंबर १८९३ से चिकागो—अमेरिका में विश्वधर्म सम्मेलन प्रारंभ हुआ जो १७ दिन चला। सर्व धर्म परिषद चिकागो में विश्वविख्यात जैनाचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरि प्रसिद्ध नाम आत्मारामजी को जैन धर्म के प्रतिनिधि के रूप में आमंत्रित किया और उन्हें अपनी में मानद सदस्य का स्थान दिया । साधु जीवन की मर्यादा के अनुसार श्री आत्मारामजी म.सा. का जाना संभव नहीं था तो परिषद के अत्यधिक आग्रह पर श्री वीरचंद राघवजी गांधी को अपना प्रतिनिधि बनाकर अपनी रचना — ‘ चिकागो प्रश्नोत्तर’ के साथ सम्मेलन में भाग लेने भेजा। जैन युवा मनीषी श्रीयुत गांधी ने पहले ही दिन पूज्य गुरूदेव का गुणानुवाद करते हुए जो विद्वत्तापूर्ण प्रवचन दिया उससे उपस्थित विद्वानों में उसकी धूम मच गयी। वहाँ के सभी समाचार पत्रों में आपके फोटों व प्रवचनों की चर्चा होने लगी। आपकी सभाओं में उस समय दस हजार की उपस्थिति होती थी।आपने दो वर्षों तक अमेरिका में ५३५ मधुर भाषणों के द्वारा जैन धर्म—तत्व—दर्शन ज्ञान की अमृत वर्षा की। भारत की संस्कृति की पूर्ण सुरक्षा करने वाले इस महापुरुष ने बंगाल में दुर्भिक्ष से पीड़ित स्वदेश वासियों के लिए एक समुद्री जहाज अन्न से भरकर तथा ४० हजार रूपये नकद सरकार को भिजवाए। आपके सम्मान में अमेरिका में गांधी फिलोसोफीकल सोसायटी की स्थापना हुई। सन् १८९५ में आप इंग्लैण्ड, फ्रांस व जर्मनी आदि देशों में जिनशासन की विजय पताका फहराते हुए भारत पधारे और पू. गुरूदेव श्री आत्मारामजी म.सा. के पावन चरणों में अंबाला में उपस्थित होकर गौरव गाथाएँ सुनायी और गुरूदेव का आशीर्वाद प्राप्त किया। सन् १८९५ में बंबई में सेठ प्रेमचंद की अध्यक्षता में हजारों श्रद्धालुओं ने आपका बहुमान किया।सन् १८९८ में जस्टिस महादेव रानाडे की अध्यक्षता में आपका विशेष अभिनन्दन किया गया। स्वामी विवेकानंद ने श्री वीरंचद गांधी को अपना परम सहयोगी व मित्र माना। स्वामी विवेकानन्द ने जूनागढ़ के दीवान को जो पत्र लिखा वह इस प्रकार है—‘‘ यह गांधी व्यक्ति कठोर शीतल जल—वायु में भी शाक—सब्जी छोड़कर कुछ दूसरा ग्रहण नहीं करता, अपने धर्म और राष्ट्र की रक्षा में इसका रोम—रोम समर्पित है। अमेरिका के लोग भी इसे बहुत प्यार करते हैं लेकिन जिन्होंने इन्हें यहाँ भेजा वो उन्हें जाति बहिष्कृत करते हैं तो बहुत बड़ा पाप करते हैं। ७ अगस्त, १९०१ को बंबई में आपका मात्र ३७ वर्ष की अल्पायु में निधन हो गया, इस हृदय विदारक समाचार पर सारा अमेरिका व जैन समाज रो उठा। देश में स्थान—स्थान पर शोक सभाएं हुई व बंबई में तो ५ दिनों तक कारोबार बन्द रख कर शोक प्रकट किया गया ऐसे देश के गौरव जिन शासन रत्न श्रीयुत वीरचंद राघवजी गांधी को कोटि—कोटि नमन। श्री वीरचंद राघवजी गांधी के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए भारत सरकार ने इस महापुरुष पर डाक टिकट जारी करके अपनी श्रद्धांजली दी है परन्तु जैन समाज ने इस महामानव का यथोचित मूल्यांकन नहीं किया है। श्री गांधी के शुभकार्यों को आने वाली पीढ़ी तक पहुँचाने का संकल्प ही उनके प्रति अपनी विनम्र भावांजलि होगी।
मेरी जैन धर्म पर शुद्ध श्रद्धा का एक मात्र कारण श्रीयुत वीरचन्द गांधी ही है, जिन्होंने मेरे हृदय में सर्वप्रथम जैन धर्म का बीजारोपण किया। पाश्चात्य देशों के निवासी, जो जड़वाद की दल दल में फंसे हुए हैं, किसी भी देश में शान्ति नहीं है, दूसरे का गला घोंटने के लिए हर एक तैयार है, प्रजा को सच्ची शांति प्राप्त नहीं है, ऐसे देशों के निवासियों को मात्र जैन धर्म की सच्ची शिक्षा ही लाभप्रद हो सकती है। इसी शिक्षा के द्वारा वे लोग सुखी जीवन व्यतीत कर अपना अमूल्य मानव जन्म सफल कर सकते हैं। केवल एक जैन धर्म ही विश्व में ऐसा है, जो समूचे विश्व को सच्चे प्रेम से सात्विक जीवन का आनन्द दे सकता है । पाश्चात्य देशों में इसी शिक्षा से सच्ची शांति हो सकती है और सभी राष्ट्र प्रेमपूर्वक जीवित रह सकते हैं ।