धर्मचन्द्र- भाई नेमिकुमार! कल मेरी माता कह रही थीं कि भीम मे असीम शक्ति थी सो उनका कोई उदाहरण सुनाओ। नेमिकुमार- सुनो भाई, तुम्हें आज एक बढ़िया-सा उदाहरण सुनाता हूँ। लाक्षागृह दाह से पाँचों पाण्डव और कुन्ती माता महामन्त्र के प्रभाव से बचकर निकल गये। मार्ग में आगे चलते-चलते गंगा नदी मिली। उसे पार करने के लिये नाव में ये छहों लोग बैठ गये और धीवर (मल्लाह) जल्दी-जल्दी नाव चलाने लगा। चंचल तरंगों से वह नौका अच्छी तरह चल रही थी कि अचानक गंगा नदी के बीचों-बीच में जाकर स्थिर हो गई और अनेकों उपायों से चलाई जाने पर भी नहीं चल सकी। तब पाण्डवों ने उस मल्लाह से इसका कारण पूछा। उसने बताया कि-‘‘हे स्वामिन्! इस नदी में हमेशा रहने वाली एक तुण्डिका नाम की देवी है। वह अपना हक चाहती है।’’ तब युधिष्ठिर ने कहा-‘‘हे धीवर! यहाँ तो हमारे पास नैवेद्य आदि कुछ भी नहीं है। हम नदी पार पहुँचकर व्यवस्था करके देवी को सन्तुष्ट कर देंगे।’’ मल्लाह बोला- ‘‘राजन्! यह देवी उत्तम-उत्तम पकवानों से या खीर पूरी आदि से तृप्त नहीं होती है। यह देवी मनुष्य की बलि लेती है, तब तृप्त होती है। बलि लिये बगैर यह नौका आगे नहीं जाने देगी, प्रत्युत् नदी में डुबा देगी।’’ उस समय सभी पाण्डव विचार करने लगे कि देखो! कुएँ से बचे तो खाई में पड़ गये। अरे! कहाँ तो हम लाख के घर में जलने से बचकर निकल आये पुन: यहाँ नदी में मरण आ गया। अरे-अरे! कर्मों की गति बड़ी विचित्र है। जैसे कोई समुद्र का पानी लांघकर छोटे से गड्ढे में डूब जाये और मर जाये, वैसे ही हमारी दशा हो रही है। बड़े-बड़े संकटों से तो बच गये हैं और यहाँ छोटे से संकट में फंस गये हैं। यह सब सोचते हुए युधिष्ठिर ने भीम से कहा-‘‘भाई! कुछ उपाय सोचो।’’ भीम ने कुछ सोचकर कहा कि-‘‘भाई! यह धीवर जरा से जर्जरित है और दरिद्र भी है। इसे ही तुंडिका की बलि देकर हम लोग नदी पार करेंगे।’’ यह वचन सुनते ही बेचारा धीवर काँपने लगा और बोला-‘‘महाराज! यदि आप मुझे बलि दे देंगे तो फिर आगे कभी भी मल्लाह आप जैसे राजाओं को उस पार नहीं पहँुचायेगा। आपकी निंदा विश्व में फैल जायेगी कि आप कितने कृतघ्नी निकले।’’ धीवर की बात सुनते ही दयालुमना युधिष्ठिर ने कहा-‘‘भाई! ऐसी तुच्छ बात मत सोचो किन्तु बढ़िया उपाय सोचो।’’ पुन: भीम हँसकर बोले-‘‘हे भ्रात:! इस देवी के लिए इन छोटे भाई नकुल और सहदेव में से किसी एक की बलि करके नदी पार करना ठीक है, सभी को नदी में डुबाना ठीक नहीं है।’’ तब युधिष्ठिर ने पुन: भीम को समझाया कि मेरे द्वारा ही ये मेरे भाई कैसे मारे जा सकते हैं? फिर भीम ने कहा-तब तो अर्जुन को बलि कर दो। युधिष्ठिर ने पुन: कहा-‘‘भाई! क्या युद्ध कुशल अर्जुन के बिना अपना राज्य वापस मिलना सम्भव है? कदापि नहीं। इसलिये ऐसा विचार स्वप्न में भी मत करो।’’ तब भीम ने फिर हँसकर कहा कि-‘‘आप किसी भाई का मरण नहीं चाहते हो तो इस माता कुन्ती को ही देवी की भेंट में चढ़ा दो।’’ तब युधिष्ठिर ने कहा कि-‘‘भाई! जिसने हम लोगों को नव माह गर्भ में धारण करके जन्म दिया, लालन-पालन किया ऐसी यह माता हमारे लिये हमेशा पूज्य है, क्योंकि कहा गया है-
जननीयं जगन्मान्या कथं हिस्या हितार्थिभि:।
यतस्तु जगति ख्यातैर्माता तीर्थं प्रकथ्यते।।
अरे! जननी जगत मान्य होती है। हितार्थी लोग भला उसी की हिंसा करेंगे। क्योंकि जगत् में प्रसिद्ध पुरुषों ने तो माता को तीर्थ कहा है। हे भीम! तू न्याय में चतुर होकर ऐसे वचन कैसे बोल रहा है?’’ इस प्रकार भीम के विनोद के अनन्तर विचारशील महामना युधिष्ठिर स्वयं देवी की बलि जाने के लिये तैयार हुए और सभी भाईयों को हित का उपदेश देकर माता की सेवा करने का आदेश दिया। पुन: वे गीले वस्त्र से स्नान कर पवित्रमना होकर राग-द्वेष का त्याग करके ध्यान में निश्चल हो गये। अपनी आत्मा को इस नश्वर शरीर से भिन्न समझते हुए सभी भाईयों को क्षमा करके और उनसे क्षमा कराके नियम सल्लेखना ले ली कि यदि मैं इस जल के उपसर्ग से बचूँगा तो पुन: आहार ग्रहण करूँगा अन्यथा चतुराहार का मेरे लिये त्याग है। ज्यों हि वे माता की वन्दना करके नदी में कूदने के लिये उद्यत हुए कि भीम, अर्जुन आदि सभी भाई एकदम रोने लगे। माता कुन्ती तो बेहोश हो गईं ।जब कुन्ती सचेत हुई तो महा करुण-क्रन्दन करने लगीं। अनन्तर वह स्वयं नदी में कूदना चाहती थीं कि इतने में भय रहित होते हुए भीम बोले कि-‘‘हे स्वामिन्! आप स्थिर होकर धर्मपूर्वक कुरूवंश का राज्य करें और मुझे मरने की आज्ञा दें। मैं शीघ्र ही इस नरभक्षी तुंडिका को प्रसन्न करूँगा।’’ ऐसा कहते हुए भीम धड़ाम से नदी में कूद पड़े। नदी में गिरे हुए भीम को देखकर तुंडिका मगर का आकार धारण करके सामने दौड़कर आ गई। महाशक्तिशाली भीम उस समय नदी में ही उस मगर से लड़ने लगे। क्रोधित हुए भीम और मगर ने बहुत देर तक पैरों के आघात आदि से युद्ध किया पुन: भीम ने उस मगर को पकड़कर उसके सौ टुकड़े कर दिये तब वह तुंडिका देवी बहुत ही क्रुद्ध होती हुई पुन: भयंकर मगर के रूप में आकर भीम को समूचा ही निगल गई। क्रुद्ध भीम ने अपने हाथ से उसका पेट फाड़कर उसकी पीठ की हड्डी को उखाड़कर उसे खूब मारा। उत्तम कांति के धारक भीम ने उस तुंडिका को विह्वल कर डाला। तब वह बेचारी घबराकर अन्यत्र भाग गई। इस प्रकार भीम स्वयं अपनी भुजाओं से गंगा नदी को पार कर किनारे आ गये। धर्मचन्द्र- भाई नेमिकुमार! मनुष्य देवों से युद्ध करके उन्हें पछाड़ दें, ऐसी बात तो मैंने आज तक सुनी ही नहीं थी। अरे! इसीलिये तो भीम की शक्ति की प्रशंसा आज भी होती रहती है। अच्छा यह तो बताओ कि पुन: वे युधिष्ठिर आदि कहाँ गये? नेमिकुमार- भीम के नदी में कूदते ही नौका चल पड़ी किन्तु वे युधिष्ठिर आदि भीम के शोक से अत्यन्त विलाप करते हुए रो रहे थे। रोते-रोते वे चारों भाई और माता कुन्ती नदी के किनारे आकर उतर गये और बार-बार पीछे देखते हुए चल रहे थे मानों वे भीम की प्रतीक्षा ही कर रहे हों। इतने में ही महापराक्रमी महापुण्यशाली भीम आ गये और उन्होंने विनय से माता के चरणों का वन्दन करके भाई युधिष्ठिर को भी प्रणाम किया। धर्मचन्द्र- उस समय उन लोगों के हर्ष का ठिकाना नहीं रहा होगा? नेमिकुमार- अवश्य ही मित्र! उस समय वे सब भीम को गले से लगाकर रोमांचित हो गये और काल के गाल से बचकर तुंडिका को पराजित करके आये हुए भाई की भूरि-भूरि प्रशंसा की। देखो मित्र! यह सभी महिमा पुण्य की ही है अत: सदैव पुण्य का संचय करना चाहिये। अरे! यह आत्मा अनन्त शक्तिमान है और तभी तो यह तुंडिका से भी भयंकर ऐसे मोहराज का पेट चीरकर उसके ऊपर विजय प्राप्त करके पूर्ण सुखी परमात्मा बन सकता है। जैसा कि भीम भी स्वयं आगे कर्मों का नाश कर परमात्मा हो चुके हैं, सिद्ध हो चुके हैं। धर्मचन्द्र- ऐसे भीम को सिद्ध परमात्मा के रूप में मेरा बारम्बार नमस्कार होवे।