महावीर की अहिंसा का सिर्फ स्वाद लिया है मैंने
-महात्मा गाँधी
जिस धर्म में जितना दया—भाव है उतना ही उसमें अहिंसा धर्म है । दया की कोई सीमा नहीं होती। सीमा बाँधना मेरा काम नहीं है । सब कोई अपनी—अपनी सीमा निर्धारित कर लेते हैं । वैष्णव धर्म अहिंसा प्रधान है । जैन—ग्रंथों में उस पर विशेष रूप से विचार किया गया है और वह मुझे मान्य भी है । लेकिन अहिंसा पर जैन अथवा अन्य किसी धर्म का एकाधिकार नहीं है । अहिंसा सर्वव्यापक और अविचलित नियम है । जैन दर्शन में उपवास आदि के जो नियम दिए गए हैं उन्हें आत्मघात का पोषण करने वाला कहना मेरे ख्याल से जैन—पद्धति को न समझना है । अहिंसा और दया में उतना ही अन्तर है जितना सोने में और सोने के गहने में, बीज में और वृक्ष में। बीज में और वृक्ष में। जहाँ दया नहीं वहाँ अहिंसा नहीं। अत: यों कह सकते हैं कि जिसमें जितनी दया है उतनी ही अहिंसा है । अपने पर आक्रमण करने वाले को मैं न मारूँ, उसमें अहिंसा भी हो सकती है और नहीं भी। यदि उसे भयवश न मारूँ तो अहिंसा नहीं हो सकती। दयाभाव से ज्ञानपूर्वक न मारने में ही अहिंसा है । अिंहसक मनुष्य अत्याचारी से डरता नहीं है, उस पर दया करता है । दयाधर्म बतलाता है कि जिससे हम डरते हैं, उस पर दया नहीं कर सकते। ‘‘क्षमा वीरस्य भूषणम्’’ जो बात बात शुद्ध अर्थशास्त्र के विरुद्ध हो वह अहिंसा नहीं हो सकती। जिसमें परम अर्थ हो वह शुद्ध है ।
अहिंसा का व्यापार घाटे का व्यापार नहीं होता। अहिंसा के दो पलड़ों का जमा खर्च शून्प्य होता है । अर्थात् ! उसके दोनों पलड़े समान होते हैं । जो जीने के लिए खाता है, सेवा करने के लिए जीता है, मात्र पेट पालने के लिए कमाता है वह काम करते हुए भी अक्रिय है । क्रियाहीन अहिंसा आकाश—कुसुम के समान है । क्रिया हाथ पैर की अपेक्षा बहुत ज्यादा काम करता है । विचार मात्र किया है । विचार रहित अहिंसा हो ही नहीं सकती। अतएव ऐसा नहीं कहा जा सकता कि अहिंसा निष्क्रिय है और दया सक्रिय है, बल्कि दोनों ही सक्रिय हैं । सर्वभक्षी जब दया से प्रेरित होकर भक्ष्य पदार्थों की मर्यादा निश्चित करता है तब उस हद तक वह अहिंसा धर्म का पालन करता है । इसके विपरीत जो रूढ़ि के कारण मांसादि नहीं खाता, वह अच्छा तो करता है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि उसमें अहिंसा का भाव है ही। जहाँ अहिंसा है वहाँ ज्ञानपूर्वक दया होनी ही चाहिए । लेकिन, अहिंसा धर्म सच्चा धर्म हो तो व्यवहार में हर तरह उसका आचरण करना भूल नहीं, बल्कि कत्र्तव्य है । व्यवहार और धर्म के बीच विरोध नहीं होना चाहिए । धर्म का विरोधी व्यवहार छोड़ देने योग्य है । सब जगह, सब समय सम्पूर्ण अहिंसा सम्भव नहीं, ऐसा कहकर अहिंसा को एक ओर रख देनाहिंसा, मोह और अज्ञान है । सच्चा पुरुषार्थ तो इसमें है कि हमारा आचरण सदा अहिंसा के अनुसार हो। इस तरह आचरण करने वाला मनुष्य अन्त में परम पद प्राप्त करेगा। क्योंकि वह सम्पूर्णतया अहिंसा का पालन करने योग्य बनेगा और यों देहधारी के लिए सम्पूर्ण अहिंसा बीज रूप ही रहेगी। देह धारण के मूल में हीहिंसा है, इसी कारण देहधारी के पालने योग्य धर्म का सूचक शब्द निषेधात्मक अहिंसा के है ।