चातुर्मास समाप्त हुए अभी लगभग एक माह ही व्यतीत हुआ था कि पूज्य माताजी ने एक दिन मानसिक चिन्तन करके अनायास ही २५ नवम्बर १९९५ को यह निर्णय ले लिया कि मुझे अपने शरीर-स्वास्थ्य को भी न देखकर भगवान राम की निर्वाणभूमि एवं बीसवीं सदी के प्रथम पट्टाधीश श्री शांतिसागर जी महाराज की अक्षुण्ण परम्परा के पट्टाचार्य स्व. १०८ श्री श्रेयांससागर जी महाराज की कर्मभूमि मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र के लिए विहार अवश्य करना है।
चूँकि कई वर्षों से मांगीतुंगी तीर्थ पर विराजमान पूज्य आर्यिका श्री श्रेयांसमती माताजी के निवेदन भरे पत्र आ रहे थे तथा मांगीतुंगी क्षेत्र ट्रस्ट मंडल का भी अतीव आग्रह था कि पूज्य माताजी एक बार मांगीतुंगी पधारकर यहाँ की वर्षों से अवरुद्ध पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न करा दें अत: पूज्य माताजी ने आखिरकार उनके निवेदन को स्वीकार कर ही लिया।
पर्वत से नदियों के निकलने की अनादि परम्परा है किन्तु नदी कभी पर्वत को जन्म देती हो ऐसा सुनने, देखने अथवा पढ़ने में नहीं आया। इसी अदृष्टपूर्व इतिहास का परिचय कराती है गणिनी शिरोमणि आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की हस्तिनापुर से मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र तक की यह पर्वतीय यात्रा।
निर्णय के पश्चात् मात्र २ दिन का अन्तराल देकर २७ नवम्बर १९९५, मगशिर शु. षष्ठी को हस्तिनापुर जम्बूद्वीप में विराजमान अतिशयकारी सिद्ध प्रतिमाओं को नमन करके पूज्य माताजी ने संघ सहित मंगल विहार कर दिया। गंगा के तट से यह ज्ञान की गंगा जब बहती हुई पर्वत की वन्दना हेतु चल पड़ी, तो मार्ग में अनेक पर्वतीय कार्य होने लगे।
चुनाव की विजयश्री से प्रारंभ हुआ विहार का प्रथम दौर
आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी द्वारा रचित ईर्यापथ शुद्धि का एक श्लोक है-
श्रीमुखालोकनादेव,श्रीमुखालोकनं भवेत्।
आलोकन विहीनस्य, तत्सुखावाप्तय: कुत:।।
अर्थात् अन्तरंग और बहिरंग लक्ष्मी से युक्त श्री जिनेन्द्र भगवान के मुख का अवलोकन करने वाले मनुष्य को लक्ष्मी-धन की प्राप्ति होती है। इससे विपरीत भगवान का दर्शन नहीं करने वाले को उस लक्ष्मी सुख की प्राप्ति कैसे हो सकती है? यह जिनेन्द्र दर्शन की महत्ता को प्रगट करने वाला श्लोक है जिसका सारांश है कि व्यवहारिक और आत्मिक दोनों प्रकार की लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिए आर्हन्त्य लक्ष्मी को प्राप्त भगवान जिनेन्द्र की भक्ति करना आवश्यक है।
पूज्य गणिनी आर्यिकाशिरोमणि १०५ श्री ज्ञानमती माताजी ने २७ नवम्बर १९९५ को मध्यान्ह ३ बजे तीर्थ क्षेत्र परिसर से अपनी शिष्यमंडली के साथ जय जयकार के वातावरण में मांगीतुंगी का लक्ष्य लेकर मंगल विहार किया। आगे हस्तिनापुर सेन्ट्रल टाउन (जहाँ १५ हजार की जनसंख्या है) से कुछ पूर्व ही पोस्ट आफिस के मोड़ के पास मनोज कुमार जैन की मम्मी श्रीमती आदर्श जैन (ध.प. स्व. श्री अनन्तवीर्य जैन, हस्तिनापुर निवासी, मेरठ प्रवासी) संघ को अपने गृह चैत्यालय का दर्शन करने को निवेदन करने हेतु परिवार के साथ खड़ी थीं, उनके हाथों में ढेर सारे फूल थे।
वे प्रथम बार हस्तिनापुर टाउन एरिया के चुनाव में मेम्बरशिप के लिए भारतीय जनता पार्टी की ओर से खड़ी हुई थीं। पूज्य माताजी का आशीर्वाद पहले ही ग्रहण कर चुकी थीं, उस दिन हार-जीत का निर्णय मिलने वाला था अतः उनके संबंधीजन मवाना गए हुए थे। संयोग की बात, पूज्य माताजी एवं हम लोग ज्यों ही उनके समीप तक पहुँचने वाले थे और पुष्पों से भरी उनकी अंजुली गुरुचरणों में न्यौछावर होने ही वाली थी, उसी समय किसी ने आकर उन्हें संदेश दिया कि ‘‘आप चुनाव में विजयी हो गई हैं अत: बधाई स्वीकार करें।’’
श्रीमती आदर्श जैन ने सर्वप्रथम गुरुचरणों में नमन किया और पुष्पांजलि बिखेरती हुई कहने लगीं कि ‘‘माताजी का वरदहस्त ही मेरे लिए सबसे बड़ी सफलता का संबल है, मैं इससे ज्यादा और कुछ नहीं मानती।’’ उन्हें मंगल आशीर्वाद प्रदान करता हुआ गणिनी माताजी का संघ आगे बढ़ा, हमारा उस दिन का प्रथम रात्रिविश्राम ‘‘मवाना’’ नगर में होना था, वहाँ नगर प्रवेश करते ही पूर्व में आशीर्वादप्राप्त विजयी महिलाएँ पूज्य मातुश्री के दर्शन करने आ गर्इं, माताजी ने उन्हें पुनः अहिंसा एवं सदाचारपूर्वक समाज संचालन का शुभाशीष प्रदान किया।
उसके पश्चात् हम लोग २ दिन बाद ‘‘मेरठ’’ शहर में पहुँचे, वहाँ भी माताजी से पूर्व परिचित विजयी नगरप्रमुख आशीर्वाद लेने आए और शाकाहारी होने तथा न्यायपूर्वक जनता का कार्य करने हेतु संकल्प लिया। इसी प्रकार मोदीनगर, गाजियाबाद आदि नगरों में भी विजयश्री प्राप्त करने वालों के समाचार मिले, तब माताजी ने सभी को प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से आशीर्वाद प्रदान किया। जनता ने उनकी इस उदारता पर कोटि-कोटि वन्दन करके अपने को धन्य माना और इस विजय कथानक के साथ संघ का प्रभावनापूर्ण मंगल विहार दु्रतगति से प्रारंभ हुआ, तो शुभ शकुन के आधार पर सर्वत्र धर्म की, संघ की विजय ही विजय होती चली गई।
उत्तर वालों की दृष्टि में यह विदेश यात्रा थी
जब पश्चिमी उत्तरप्रदेश वालों को ज्ञात हुआ कि ज्ञानमती माताजी उत्तर भारत को छोड़कर बहुत दूर जा रही हैं, तब अनेक भक्त चिन्तित हो उठे और माताजी को समझाने का भी प्रयास किया कि ‘‘आपका स्वास्थ्य अब बहुत ज्यादा विहार के लायक नहीं है, आप इधर इलाके में ही विहार करके हम लोगों को ज्ञान लाभ प्रदान करें, आपके बिना जम्बूद्वीप की रौनक समाप्त हो जाती है…….इत्यादि।’’
जब विहार की चर्चा दैनिक अखबारों में आ गई, तब मेरठ निवासी श्री अमरचन्द जैन होमब्रेड की धर्मपत्नी सौ. श्रीमती कमलेश जैन ने आकर मुझसे कहा कि आज सवेरे मंदिर में चर्चा हो रही थी कि ‘‘ज्ञानमती माताजी विदेश जा रही हैं।’’ वे पुन: मुझसे पूछने लगीं कि ‘‘क्या दिगम्बर जैन साधु-साध्वी विदेश जा सकते हैं?’’
मैं हँसने लगी और फिर विचार आया कि ‘‘देखो! हमारी जनता कितनी भोली, अन्जान और ममत्व परिणामों से परिपूर्ण है कि वह माताजी को अपने से दूर जाती देखकर मोह को संवृत नहीं कर पाती है, तभी उनके द्वारा किये जाने वाले प्रदेश परिवर्तन को देश का ही परिवर्तन मानकर इसे विदेश यात्रा समझने लगी है।’’
पुनः मैंने कमलेश जी को बताया कि दिगम्बर जैन मुनि एवं आर्यिकाओं को चूँकि जीवनभर पदविहार का नियम होता है, हवाई जहाज, रेल, मोटर आदि समस्त वाहन पर बैठने के लिए पूर्ण त्यागी होते हैं अतः वे विदेश जा ही नहीं सकते हैं। आज तक कोई भी मुनि-आर्यिकाओं के विदेश यात्रा के कोई उदाहरण भी नहीं हैं अतः उन लोगों के लिए ऐसा सोचना भी दोषास्पद है।
हाँ, इन साधुओं से अतिरिक्त भट्टारकगण, ब्रह्मचारिणी बहनें एवं कुछ जैन विद्वान् विदेशों में जाकर अवश्य यथायोग्य धर्मप्रभावना करते हैं। वैसे इस यात्रा के विषय में मैंने यह जरूर अनुभव किया कि हर स्त्री-पुरुष पूज्य ज्ञानमती माताजी को अत्यन्त स्नेहपूर्ण नजरों से देखकर नमन करते और यह कहने को बाध्य हो जाते कि ‘‘माताजी ने बहुत लम्बी यात्रा सोच ली है, भगवान इनका स्वास्थ्य ठीक रखे और पूरा संघ कुशलतापूर्वक शीघ्र मांगीतुंगी से वापस उत्तर भारत में आवे, हमें इनके पुनः दर्शन जल्दी ही प्राप्त हों, यही भावना है।’’
दिल्ली में तो कुछ पुरानी परिचित महिलाएँ सिसक-सिसक कर रोती हुई आपस में कह रही थीं कि हमारी माताजी हमसे दूर जा रही हैं। पता नहीं, मेरे जीवन में इनका पुनः दर्शन होगा या नहीं। मैंने उन्हें बहुत धैर्य बंधाया कि आप लोग अपना दिल इतना छोटा न करें किन्तु वे तो अपनी वृद्धावस्था, रुग्णता तथा गुरुवियोग के कारण दुःख का अनुभव कर रही थीं। पूज्य माताजी ने उन सबको बड़े प्रेम से पुण्यतीर्थ की वंदना का महत्त्व बताकर शांत किया तथा सबके लिए खूब-खूब आशीर्वाद देते हुए महाराष्ट्र से शीघ्र वापस आने का आश्वासन दिया।
मागीतुंगी का नाम भी लोग ठीक से नहीं जानते थे
उत्तरप्रदेश, हरियाणा, राजस्थान आदि प्रान्तों में जब हम लोगों का भ्रमण हुआ, तब देखा कि कोई कहता-माताजी मांगातुंगा जा रही हैं, कोई मानतुंगगिरि कहते, कोई मांगेतुंगे इत्यादि, उन्हें मांगीतुंगी का ठीक से नाम तक नहीं मालूम था। यह स्थिति देखकर जब हम लोग उस सिद्धक्षेत्र के महत्व पर प्रकाश डालते, तब जनता कहने लगती थी
कि अब आपके निमित्त से हमारे दर्शन भी हो जायेंगे। इस प्रकार हजारों नर-नारियों को जीवन में पहली बार मांगीतुंगी के दर्शनों का सौभाग्य पूज्य ज्ञानमती माताजी के वहाँ पहुँचने पर प्राप्त हुआ।
शायद इसी स्थिति से अवगत पूज्य आचार्य श्री विद्यानंद महाराज ने दिल्ली में कहा था कि ‘‘अब मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र की प्रसिद्धि विश्वव्यापी होने वाली है क्योंकि ज्ञानमती माताजी जैसी कर्मठ साध्वी के कदम उस ओर बढ़ गए हैं। उन्होंने इस यात्रा के प्रति मंगल कामना करते हुए माताजी के ‘‘कुन्दकुन्द भारती’’ से विहार के समय कर्मयोगी ब्र.रवीन्द्र जी को एक मंगल कलश प्रदान किया था।
समयानुसार शब्दों की खोज
दिल्ली प्रवास की अंतिम श्रृंखला में दिनाँक १७ दिसम्बर १९९५ को आचार्य श्री विद्यानंद महाराज एवं गणिनी आर्यिका संघ का मिलन कुन्दकुन्द भारती में हुआ, जो परम वात्सल्य अंग के प्रतीक रूप में जैन समाज के लिए एक आदर्श बना। उस समय दोनों ज्ञानियों में तमाम तत्त्वचर्चा एवं विचारों के आदान-प्रदान हुए। महाराज श्री ने अमरकोष की एक पंक्ति लिखकर माताजी के कमरे में भिजवाई, जो उनकी गुणग्राहकता एवं सामयिक शब्दान्वेषण की ही विशेषता थी।
पंक्ति निम्न प्रकार से है- ‘‘स्यादाचार्याऽपि च स्वतः’’ (अमरकोश, २/६/१४) इसका अर्थ है कि जो स्वतः ही शब्दों की व्याख्या करने वाली नारी है वह ‘‘आचार्या’’ संज्ञक है। इसी बात को उन्होंने प्रवचन में भी कहकर ज्ञानमती माताजी को ‘आचार्या’ संज्ञा से सम्बोधित किया था। दिगम्बर जैन परम्परा में आर्यिकाओं के लिए यद्यपि इस पदवी की परम्परा नहीं है, उन्हें ‘गणिनी’ के रूप में ही सर्वोच्च पदवी से अलंकृत किया है, फिर भी ज्ञानी की कीमत ज्ञानी पुरुष ही कर सकते हैं, यह बात एक सूक्तिश्लोक भी बताता है-
विद्वान् एव विजानाति, विद्वज्जन परिश्रमम्।
न हि वन्ध्या विजानाति, पुत्रप्रसववेदनाम्।।
अर्थात् विद्वान ही विद्वानों का मूल्यांकन करते हैं।
संघपति की नम्रता और त्याग का अद्वितीय उदाहरण
११ दिसम्बर १९९५ को दरियागंज-नई दिल्ली के बाल आश्रम प्रांगण में दिल्ली पंचायत के द्वारा पूज्य माताजी की स्वागत सभा आयोजित की गई थी। उस सभा में जैन समाज के शीर्ष नेता साहू अशोक कुमार जैन (अब स्वर्गीय) ने संघ को मांगीतुंगी तक पहुँचाने की जिम्मेदारी लेने वाले लाला श्री महावीर प्रसाद जैन बंगाली स्वीट सेंटर-साउथ एक्स., नई दिल्ली का पगड़ी बांधकर स्वागत किया और वहीं से उन्हें ‘‘संघपति’’ की उपाधि दी गई।
स्वागत के पश्चात् महावीर प्रसाद ने अपने संक्षिप्त उद्बोधन में कहा
‘‘मैं तो संघ की सेवा करने वाला सामान्य श्रावक हूँ मुझे संघपति मत कहिए। आज के मौके पर मैं पूज्य माताजी से एक मांग करना चाहता हूँ। जैसे भगवान राम को नदी पार करवाने के पश्चात् मल्लाह ने उनसे कहा था कि ‘‘भगवन्! जिस प्रकार मैंने आपको नदी पार कराई है, उसी प्रकार आप भी मुझे इस संसाररूपी नदी से पार लगा देना, इसके अतिरिक्त मैं आपसे और कोई कीमत नहीं चाहता हूँ।’’ इसी प्रकार पूज्य माताजी! मैं तो आपको मांगीतुंगी की यात्रा कराऊँगा ही, लेकिन मेरी भी आपसे यह प्रार्थना है कि आप मुझे सिद्धशिला की यात्रा अवश्य करा देना।’’
इस यात्रा के प्रारंभ होते ही महावीर प्रसाद जी ने मांगीतुंगी पहुँचने एवं पंचकल्याणक होने तक शक्कर का त्याग कर दिया, जो अत्यन्त आग्रह के पश्चात् उन्होंने २३ मई १९९६ को पूर्ण किया। यह उनकी नम्रता एवं त्याग का ही उदाहरण है। दिल्ली जैसी आधुनिक नगरी में रहते हुए भी यह दम्पत्ति वास्तव में आदर्श गुरुभक्त हैं। इनकी धर्मपत्नी श्रीमती कुसुमलता जी व्रत-उपवास, आहारदान, वैयावृत्ति आदि करने में रानी चेलना का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। इन्हीं के संस्कारों से संस्कारित पूरा परिवार अत्यन्त धर्मनिष्ठ है।
ददाति यत्तु यस्यास्ति, सुप्रसिद्धमिदं वच:-
आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी की उक्त नीति के अनुसार यह सत्य है कि ‘‘जिसके पास जो वस्तु होती है, वह वही दे सकता है’’ अर्थात् सन्त-साधु ज्ञान तथा चारित्र की प्रतिमूर्ति होते हैं अतः वे सबको अपने उपदेशों के माध्यम से ज्ञान प्रदान करते हैं, इसी प्रकार श्रेष्ठी जनों के पास धन होता है अतः वे जिनमंदिर, मूर्ति आदि का निर्माण, गुरुओं के विहार में आर्थिक योगदान आदि
देकर अपने द्रव्य का सदुपयोग करते हैं। यूँ तो संघपति ने संघ संचालन का पूर्णभार वहन करने का संकल्प लिया ही था, फिर भी खारीबावली दिल्ली के द्वितीय श्रेष्ठी लाला प्रेमचंद प्रदीप कुमार जैन ने भी अपनी उदारता का परिचय देते हुए संघस्थ कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जी के एक इशारे पर मंगल विहार के मार्ग का सर्वेक्षण करने हेतु नई ‘‘टाटा सूमो’’ गाड़ी उन्हें प्रदान की।
इसके अतिरिक्त भी वे सदा संघ की सेवा हेतु हाथ जोड़कर निवेदन करते कि मेरे योग्य सेवा मुझे अवश्य बताइये। यह सब उनके पुण्य का ही प्रभाव है कि वे अगले जन्म के लिए अपना रिजर्व फण्ड तैयार कर रहे हैं। दिल्ली से विहार करके पूज्य माताजी का संघ सहित मांगीतुंगी में मंगल पदार्पण पूरे पाँच माह के पश्चात् २७ अप्रैल १९९६ को हुआ।
इस मध्य उत्तरप्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र इन छह प्रान्तों में विभिन्न नवनिर्माण योजनाएँ एवं धर्म-प्रभावना के अनेक विशाल कार्य सम्पन्न हुए, जो समय-समय पर सम्यग्ज्ञान तथा अन्य अखबारों के माध्यम से आपको ज्ञात हुए हैं। यहाँ संक्षेप में मैं उन स्थानों के नाम प्रस्तुत करके पाठकों को उनसे परिचित कराना चाहती हूँ, जहाँ (अयोध्या एवं मांगीतुंगी के मध्य) पूज्य माताजी ने नवनिर्माण कराने की प्रेरणा प्रदान की- सन् १९९३-९४ में- कहाँ क्या
१. अहिच्छत्र तीर्थ (उ.प्र.) तीस चौबीसी मंदिर (११ शिखर का)
२. अयोध्या (उ.प्र.) समवसरण एवं तीन चौबीसी मंदिर
३. त्रिलोकपुर (उ.प्र.) पारिजात चैत्यवृक्ष
४. टिवैतनगर (उ.प्र.) ह्री एवं बीस तीर्थंकर प्रतिमा
५. सिधौली (उ.प्र.) मंदिर विस्तारीकरण का शिलान्यास
६. तहसील फतेहपुर (उ.प्र.) विद्यालय शिलान्यास
७. सीतापुर (उ.प्र.) स्वाध्याय भवन
८. दरियाबाद (उ.प्र.) श्री ऋषभदेव उद्यान सन् १९९५-९६ में-
९. मेरठ (कमलानगर) बीस तीर्थंकर एवं चौबीस तीर्थंकर कमल मंदिर
१०. प्रीतविहार-दिल्ली ऋषभदेव कमल मंदिर(अनिल जैन की कोठी पर)
११. चमत्कार जी वैलाशपर्वत सवाई माधोपुर (राज.)
१२. श्री शान्तिवीर नगर, मन्दार कल्पवृक्ष महावीर जी (राज.)
१३. केशवरायपाटन (राज.) पंचपहाड़ी एवं दिव्यध्वनि स्तंभ
१४. कोटा (रजा.) तीन लोक रचना
१५. पिड़ावा (राज.) श्री पाश्र्वनाथ समवसरण रचना
१६. जयसिंहपुर महावीर की तपोभूमि एवं आ. शांतिसागर (उज्जैन) म.प्र. मांगलिक भवन
१७. लक्ष्मीनगर, उज्जैन आ. शांतिसागर मांगलिक भवन
१८. गोम्मटगिरी, ॐकार गिरि रचना इंदौर (म.प्र.)
१९. सुदामानगर, इंदौर तीस चौबीसी जिन प्रतिमा, आचार्य श्री शांतिसागर जी एवं वीरसागर जी महाराज के चरण
२०. सिद्धवरकूट सिद्धक्षेत्र तेरहद्वीप रचना
२१. सनावद णमोकार धाम
२२. पावागिरि-ऊन सिद्धक्षेत्र सुवर्णभद्र आदि चार मुनियों के चरण तथा आ. शांतिसागर-वीरसागर जी के चरण
२३. सेंधवा गृहचैत्यालय
२४. शांतिनगर-धूलिया (महा.) दि. जैन छात्रावास का शिलान्यास
२५. मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र सहस्रकूट कमल मंदिर, नवग्रह चरण एवं सीता माता के चरण (पर्वत पर)
२६. चाँदवड़ (महा.) नवग्रह के ९ चरण (नवग्रह शांति मंदिर हेतु सन् १९९६-९७ में-
२७. पावागढ़ (गुजरात) ध्यान मंदिर में ह्री की प्रतिमा, उद्यान में सीता-लवकुश का इतिहास
२८. ईडर (गुजरात) पहाड़ी पर ह्री की प्रतिमा, पहाड़ी को ऋषभदेवगिरि नामकरण
२९. तारंगा जी सिद्धक्षेत्र भगवान ऋषभदेव की ग्रेनाइट प्रतिमा, (गुज.) आ. शांतिसागर जी की प्रतिमा (गुफा में)
३०. डेरोल (गुज.) बीस तीर्थंकर के चरण, आ. शांतिसागर, वीरसागर महाराज के चरण
३१. खेरवाड़ा (राज.) पहाड़ी पर वैलाशपर्वत का शिलान्यास
३२. ऋषभदेव केशरिया जी पहाड़ी पर अयोध्या नगरी की रचना का शिलान्यास
३३. सलूम्बर (राज.) प्रयाग रचना
३४. झाड़ोल (राज.) ह्री प्रतिमा स्थापना की प्रेरणा
३५. देवपुरा (राज.) नवग्रहशांति मंदिर
३६. उदयपुर (राज.) महावीर स्वामी का समवसरण (यंत्र स्थापन), ऋषभदेव प्रतिमा स्थापना
३७. अणिन्दा पाश्र्वनाथ ॐ और ह्री की प्रतिमा स्थापना अतिशय क्षेत्र (राज.)
३८. चित्तौड़ (राज.) ह्री की प्रतिमा
३९. जूनिया (टोंक-राज.) ह्री की प्रतिमा
४०. भीलवाड़ा चैत्यवृक्ष(आर.के. कालोनी)
४१. केकड़ी (अजमेर-राज.) सम्मेदशिखर रचना
४२. रेवाड़ी (हरियाणा) वैलाशपर्वत की वेदी (मंदिर में)
इनमें से अनेक स्थलों पर संघपति लाला महावीर प्रसाद जैन-बंगाली स्वीट सेंटर एवं लाला प्रेमचंद प्रदीप कुमार जैन-खारीबावली दिल्ली ने लाखों रुपये की दानराशि घोषित करके कीर्तिमान स्थापित किया। इसी प्रकार से पूज्य माताजी के अन्य कई भक्तों ने समय-समय पर पहुँचकर कई योजनाओं में सहयोग प्रदान कर पुण्यलाभ प्राप्त किया।
यह तो मैंने नवनिर्माण की योजनाओं का संक्षिप्त उल्लेख किया है इसके अतिरिक्त कई नगरों में गृहचैत्यालय, अतिथिभवन, औषधालय आदि के निर्माण की भी प्रेरणा प्रदान की है, जिनमें से कई निर्माण तो पूर्ण हो चुके हैं तथा अनेक स्थानों पर यथायोग्य निर्माणकार्य द्रुतगति से चल रहा है।
मागीतुंगी सिद्धक्षेत्र में १०८ फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव
प्रतिमा निर्माण की प्रेरणा
मांगीतुंगी पर्वत पर बैठकर एक दिन ध्यान करते हुए पूज्य माताजी को आभास हुआ कि यहाँ की किसी चट्टान में पूर्वमुखी भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा का अखण्ड पाषाण छिपा हुआ है, जिसका निर्माण होना चाहिए। पुनः वास्तुशास्त्री से जानकारी करने पर ज्ञात हुआ कि मांगी पर्वत के नीचे (सुधबुध-गुफा के ऊपर) वास्तव में ५०० फुट की एक अखंड चट्टान कसौटी के अमूल्य पाषाण की है। यह सब जानकर सारी जनता का रोम-रोम पुलकित हो उठा एवं क्षेत्र के ट्रस्टी तथा श्री जयचंद जैन कासलीवाल (एम.एल.ए.) तथा डॉ. पन्नालाल पापड़ीवाल (अध्यक्ष- महाराष्ट्र तीर्थक्षेत्र कमेटी) ने पूज्य माताजी से उस प्रतिमा को साकार करवाने हेतु बारम्बार निवेदन किया।
२७ अक्टूबर को इसकी घोषणा होते ही दिल्ली, महाराष्ट्र के अनेक दानियों ने लाखों रुपये की न्योछावर राशि लिखवा दी। उस प्रतिमा निर्माण का दुरूह कार्यभार मुख्यरूप से कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र जी, डॉ. पन्नालाल पापड़ीवाल जी एवं आमदार कासलीवाल जी को सौंपा गया, प्रगति कार्य निरन्तर चल रहा है।
यह विशाल प्रतिमा विश्व की एक अनुपम कृति होगी, जो युगों-युगों तक दिगम्बरत्व का अलख जगाती रहेगी। इस कठिन निर्माणकार्य की निर्विघ्न सफलता हेतु पूज्य माताजी ने सभी को एक मंत्र जपने का आदेश दिया जो निम्न प्रकार है- ‘‘ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेवाय सर्वसिद्धिकराय सर्वसौख्यं कुरु कुरु ह्रीं नम:’’ आप सभी पाठकजन भी इस मंत्र की माला अवश्य फैरें ताकि पुण्यार्जन के साथ-साथ जिनप्रतिमा के निर्माण में भी आपका मानसिक सहयोग प्राप्त हो सके।
संक्रान्ति की प्रादेशिक प्रथा बड़ी विचित्र लगी
१४ जनवरी १९९६ को हम लोग राजस्थान के बाँदीकुई नगर में थे, वहाँ चौके में पूज्य माताजी को अष्टमी के दिन बिल्कुल नीरस आहार करते देखकर लोगों ने कहा कि ‘‘आज के दिन तो हमारे प्रान्त में गरीब-अमीर सभी के घरों में ‘‘दाल-बाटी-चूरमा’’ अवश्य खाया जाता है। अतः माताजी को भी आज नीरस भोजन नहीं करना चाहिए।
मैंने कहा कि यह तो प्रान्तीय परम्पराएँ हैं, उत्तरप्रदेश के अवध इलाके में आज के दिन लोग उड़द की खिचड़ी बनाकर खाते हैं, इसी प्रकार अलग-अलग प्रदेश में अलग-अलग परम्पराएँ होंगी। पुन: वहाँ के कई भाई-बहनों ने बताया कि ‘‘आज संक्रान्ति के दिन हमारे प्रान्त में बच्चे-बूढ़े महिलाएँ सभी गोलियाँ जरूर खेलते हैं और जो लोग नहीं खेलते हैं, उनके शरीर में फोड़े-फुसी-गुमड़े आदि निकल आते हैं।
इसी प्रकार पतंग भी आज खूब उड़ाई जाती है, कितने बच्चे पतंग उड़ाते-काटते छतों से गिरकर घायल भी होते हैं किन्तु पतंग उड़ाना छोड़ते नहीं हैं।’’ ये विचित्र परम्परापोषक बातें सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि लोग कैसी-कैसी धारणाएँ बना लेते हैं और उन्हें प्राचीन प्रथा के आधार पर चलाते रहते हैं। संक्रान्ति के दिन पतंग उड़ाने की परम्परा गुजरात में भी देखने को मिली।
सत्संग से बाल-हृदय परिवर्तन
सन्तों के बारे में कवियों ने कहा ही है कि-
ते गुरु मेरे उर बसहुं, जे भवजलधि जहाज।
आप तिरें पर तारहीं, ऐसे श्री ऋषिराज।।
आत्मकल्याण एवं पर प्राणियों के कल्याण करने वाले साधु-साध्वियों के प्रवचन एवं सानिध्य से न जाने कितने हृदय परिवर्तन होकर माँसाहारी से शाकाहारी एवं व्यसनी से निव्र्यसनी बनते तो देखे ही जाते हैं, इसके साथ-साथ उनकी वैराग्य प्रतिमा की चुम्बकीय शक्ति से बहुत सारी भव्यात्माएँ भी वैराग्य मार्ग में अग्रसर हो जाती हैं।
पूज्य ज्ञानमती माताजी तो इस बात की जीवन्त उदाहरण हैं जिनकी प्रेरणा से अनेकों स्त्री-पुरुष, बालक-बालिकाएँ, युवक-युवती, ब्रह्मचारिणी, आर्यिका, क्षुल्लिका, क्षुल्लक, मुनि, आचार्य आदि पदों पर आसीन हुए हैं। २७ फरवरी १९९६ को मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले में स्थित सुसनेर नगर के चौराहे पर हुए पूज्य माताजी के प्रवचन से प्रभावित होकर वहाँ के श्रावक निर्मल कुमार जैन लुहाड़िया की एक मात्र पुत्री कु. प्रीति जैन माता-पिता से कुछ कहे बिना ही हम लोगों के साथ वहीं से चल पड़ी और काफी संघर्ष के बाद उसने वैराग्य मार्ग में आकर पूज्य माताजी से आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत एवं दो प्रतिमा ग्रहण कर ली।
पूज्य माताजी की छत्रछाया में उसका सात्विक जीवन ज्ञान के अमृत से सिंचित हो रहा है। यह हृदय परिवर्तन मात्र ४-५ घण्टे के सत्संग से ही बिना किसी प्रेरणा के हो गया। इस बालिका ने कहा कि पूज्य माताजी द्वारा रचित पुस्तवें पढ़कर कई बार मैं सोचा करती थी कि मैं इन्हीं ज्ञानमती माताजी के पास कभी न कभी जरूर जाकर व्रत लूंगी, तो शायद पूज्य माताजी मुझे लेने ही सुसनेर आ गर्इं। यह अनहोने संयोग वास्तव में अविस्मरणीय हो जाते हैं।
एक की कर्मठता से पूरा समाज लाभान्वित हो गया
२३ फरवरी १९९६ को राजस्थान में साल्याखेड़ी ग्राम में पिड़ावा के धर्म बन्धु वहाँ संघ को ले जाने हेतु निवेदन करने आए किन्तु पता चला कि पिड़ावा जाने से कुछ रास्ता बढ़ जायेगा एवं सड़क बहुत खराब है। हम लोगों के पैरों की तकलीफ देखकर पूज्य माताजी ने वहाँ जाने की स्वीकृति नहीं दी, वे लोग बहुत ज्यादा आग्रह भी न करके रात्रि में वापस चले गये।
इधर ३-४ दिनों से झालरापाटन आदि नगरों के महानुभाव न जाने क्यों माताजी से पिड़ावा पदार्पण के लिए खूब आग्रह कर रहे थे इसीलिए आज उन श्रावकों के वापस चले जाने पर भी माताजी के मन में खटकता रहा कि एक बड़ा समाज धर्मलाभ से वंचित रह जाएगा। जबकि कुछ वास्तविकता यह भी थी कि पिड़ावा की समाज में शायद थोड़ी सुस्ती थी क्योंकि उन्होंने पहले से आकर कोई निवेदन नहीं किया था। अब हम २४ फरवरी को साल्याखेड़ी से पिड़ावा वाला रास्ता पीछे छोड़कर देहरिया आ गए, यहाँ से राजस्थान छूटकर मध्यप्रदेश की सीमा प्रारंभ हो गई।
उस दिन मध्यान्ह में १ बजे पिड़ावा के कुछ नर-नारियों को साथ लेकर वहाँ के पटवारी धनसिंह जैन आ गए और श्रीफल चढ़ाकर माताजी से कहने लगे कि ‘‘आपको पिड़ावा तो चलना ही पड़ेगा, वहाँ ३५० घर का दिगम्बर जैन समाज है, वे सब आपके आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं।’’ माताजी एवं हम सब हँसने लगे और उनसे कहा कि अब प्रयास करना बेकार है क्योंकि वह रास्ता पीछे छोड़कर हम मध्यप्रदेश में आ गए हैं।
फिर भी पटवारी जी पूरे आग्रह के साथ कहने लगे कि माताजी! यहाँ से एक बिल्कुल छोटा कच्चा रास्ता है, जिससे पिड़ावा केवल १०-१२ किमी. पड़ेगा। हमें आपके सानिध्य में वहाँ समवसरण रचना का कार्य भी प्रारंभ करना है तथा गाँव की समस्त जनता को आपका आशीर्वाद दिलवाना है। उनके अत्यधिक निवेदन पर माताजी ने करुणारस से आद्र्र होकर पिड़ावा जाने की स्वीकृति प्रदान कर दी पुन: हम लोगों ने पिड़ावा के लिए विहार कर दिया
और हमें उस मार्ग से चलना पड़ा, जहाँ संभवतः कभी कोई मनुष्य तो क्या पशुओं का आवागमन भी नहीं होता होगा। नदी, पहाड़, कंकड़, पत्थर, कांटे आदि को किसी भी तरह से शाम सूर्यास्त से पूर्व तक पार किया गया, तब हम १० किमी. चलकर शेरपुर नामक ग्राम में पहुँचे तथा अगले दिन २५ फरवरी को प्रातः ९.३० बजे पिड़ावा पहुँच गये। वहाँ पांडाल में सभा तैयार थी, मंदिरों के दर्शन करके हम सब सभामंच पर पहुँचे, जहाँ मेरे एवं क्षुल्लक जी के प्रवचनों के पश्चात् ‘‘भगवान पाश्र्वनाथ समवसरण’’ निर्माण की घोषणा होते ही दानदातारों ने अपनी अर्थांजलियाँ भेंट करनी शुरू कर दीं पुनः पूज्य माताजी के आशीर्वादात्मक प्रवचन हुए।
मध्यान्ह में २ बजे समवसरण का शिलान्यास असीम उत्साह के साथ सम्पन्न हुआ पुन: जनता को मंगल आशीर्वाद प्रदान कर संघ का आगे की ओर प्रस्थान हो गया। आगे का रास्ता भी अत्यंत खराब था, जिससे हम लोगों के पैर काफी छिल गये, छाले पड़ गए लेकिन साथ-साथ चल रहे पिड़ावा के श्रावकों की सन्तोषजनक प्रसन्नता देख-देखकर माताजी के मुख से यही निकला कि देखो! एक व्यक्ति के पुरुषार्थ से इतनी बड़ी समाज को लाभ मिल गया और २-४ व्यक्तियों की उदासीनता के कारण पूरा गाँव धर्मलाभ से वंचित रह जाता।
एक श्रावक की श्रद्धा
इस मध्य शेरपुर के एक मात्र निवासी जैन श्रावक कहने लगे कि मैंने ४-५ दिन पूर्व स्वप्न देखा कि माताजी हमारे यहाँ पधारी हैं किन्तु जब सुना कि आप सीधे सुसनेर जा रही हैं, तो मैंने अपने दुर्भाग्य पर दो आँसू बहाकर संतोष कर लिया था लेकिन आज आपको अपने गांव में पाकर मैं फूला नहीं समा रहा हॅूँ क्योंकि मेरा सपना सच में साकार हो गया है। सुबह पिड़ावा जाते समय रास्ते में एक युवक ने आकर बताया कि मैं आज रातभर कान के दर्द से छटपटाता रहा, एक मिनट भी नींद नहीं आई, कोई दवा से लाभ नहीं हुआ, फिर मैं उठकर जबर्दस्ती आप लोगों के दर्शन हेतु चल दिया।
माताजी! मुझे स्वयं आश्चर्य हो रहा है कि यहाँ आकर मस्तक झुकाते ही मेरे कान का दर्द न जाने कहाँ चला गया! वह सज्जन उस दिन से परमगुरुभक्त बन गये। इसी प्रकार कितने ही नर-नारियों को तन-मन-धन का मनवाञ्छित लाभ पूज्य माताजी के वात्सल्यमयी आशीर्वाद से प्राप्त हो जाता है, जो उनके अखण्ड तप-तेज का ही प्रभाव है। जैसा कि आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने कहा भी है-
उच्चैर्गोत्रं प्रणतेर्भोगो, दानादुपासनात्पूजा।
भत्ते सुन्दररूपं, स्तवनात्कीर्तिषु तपोनिधिषु।।
अर्थात् तपोनिधि सन्त-साध्वियों को नमन करने मात्र से उच्चगोत्र का बंध होता है, उन्हें आहार आदि दान देने से भोगोपभोग सामग्री प्राप्त होती हैं, उनकी उपासना से मनुष्य भी पूजा का पात्र बन जाता है, उनकी भक्ति करने से सुन्दर रूप मिलता है तथा उनके गुणों का स्तवन करने से अपने यशकीर्ति की वृद्धि होती है। ऐसे अनेकानेक गुणों से समन्वित गुरु चरणों में किया गया नमन यदि शारीरिक-आधि-व्याधि को दूर कर दे, तो उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है।
देवों की याद दिला दी एक भक्त आजाद कुमार जैन की सेवा ने
पिड़ावा से आगे सुसनेर तक का रास्ता भी बहुत अधिक पथरीला एवं कंकरीला था। वहाँ से विहार करते हुए रास्ते में शाजापुर-मध्यप्रदेश के इंजीनियर आजाद कुमार जैन (सनावद निवासी) आ गये और पद- विहार की कठिन परिस्थिति देखकर रात्रि में वापस चले गये। पुन: २६ फरवरी को प्रात: जब हम बोलियाबारी से श्यामपुर जा रहे थे तो रास्ते में देखा कि सैकड़ों मजदूर सड़क से कंकड़-पत्थर दूर करके झाड़ू लगा रहे थे।
हम सोचने लगे कि शायद सड़क बनाने हेतु सरकारी आदेशानुसार यह कार्य हो रहा है लेकिन उन लोगों ने बताया कि ‘‘आप सभी साधुओं के पदविहार का कष्ट देखकर इंजीनियर साहब आजाद कुमार जैन के आदेश पर यह सफाई चल रही है, सुसनेर तक यह सड़क आपको बिल्कुल स्वच्छ मिलेगी।’’
यह सेवा देखकर पूज्य माताजी कहने लगीं कि पहले जब भगवान् का समवसरण विहार करता था, तो वायुकुमार देव हवा से पृथ्वी स्वच्छ करते थे, मेघकुमार देव धरती को जल से एकदम शुद्ध करते थे। आज मेरे भक्त आजाद ने देवता के समान ही अपने अधिकार का सदुपयोग करके सड़क को निष्कंटक बना दिया, इससे इन्होंने असीम पुण्य का संचय कर गुरुभक्ति का अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया है।
मागीतुंगी के कीड़े पलायमान हो गये थे
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् राम आदि निन्यानवे करोड़ मुनिराजों की निर्वाणभूमि मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र पर जब पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का वर्षायोग चल रहा था, अत्यधिक वर्षा होने के बावजूद भी वहाँ कभी बरसाती कीड़े, डाँस, मच्छर आदि नहीं दिखते थे, तब वहाँ रहने वाली आर्यिका श्री श्रेयाँसमती माताजी, सुगुणमती माताजी, सुदृष्टिमती माताजी आदि कई बार कहा करती थीं कि ‘‘माताजी! हर वर्ष तो यहाँ पर बरसात में सर्प, बिच्छू खूब दिखते थे, मच्छरों के कारण तो यहाँ बिजली जलाना ही मुश्किल था किन्तु इस बार न एक मच्छर दिख रहा है और न सर्पादि का कोई उपद्रव है।
आपके तप का यह प्रभाव हम लोगों को प्रत्यक्ष देखने को मिल रहा है।’’ दरअसल, मांगीतुंगी में मई के पंचकल्याणक महोत्सव के समय माताजी ने पर्याप्त मंत्रों के माध्यम से कील, मंत्र आदि लगवाए थे उसी के फलस्वरूप वहाँ समस्त विघ्नों की उपशांति हो गई थी।
मुनि श्री रयणसागर जी की गुणग्राहकता
मांगीतुंगी के पंचकल्याणक में पूज्य मुनि श्री रयणसागर महाराज (परमपूज्य स्व. मुनि श्री दयासागर जी महाराज के शिष्य) का भी मंगल पदार्पण हुआ था। हम लोगों ने उनके पहली बार दर्शन किए थे और वे भी पूज्य ज्ञानमती माताजी से प्रथम बार मिलकर अतीव प्रसन्न थे। उन्होंने प्रतिष्ठा महोत्सव के पश्चात् भी १ माह मांगीतुंगी में रुककर अनेक विषयों पर माताजी से चर्चा की, तमाम परम्परा एवं आगम से संबंधित ज्ञान को ग्रहणकर वे सदैव कहा करते थे
कि अम्मा! आपने आचार्य शांतिसागर महाराज की परम्परा में जो प्रभावक अभिवृद्धि की है, उसे हम लोग कभी भूल नहीं सकते, आपके ज्ञान के समक्ष हम तो बिल्कुल बालक के समान हैं। पूज्य महाराजश्री ने भगवान् ऋषभदेव जन्मजयंती महोत्सव में भी अपना सक्रिय योगदान प्रदान करने का आश्वासन देते हुए कहा कि मैं जहाँ भी रहूँगा, आपके द्वारा भेजे गये सभी कार्यक्रम सामाजिक स्तर पर अवश्य आयोजित कराऊँगा, यह उनकी गुणग्राहकता का ही प्रतीक है।
पूज्य मुनि श्री के दीक्षित शिष्य, नवोदित प्रतिभा सम्पन्न क्षुल्लक मयंकसागर जी से भी मिलकर खूब प्रसन्नता हुई, वे भी सदैव पठन-पाठन, गुरुभक्ति में लीन रहते थे तथा भविष्य में इन गुरु-शिष्य से जिनधर्म की अतिशय प्रभावना होगी, ऐसी पूर्ण आशा है।
ब्र. गणेशीलाल जी की भावना भी सफल हुई
सिद्धक्षेत्र मांगीतुंगी पर ६५ वर्षों से अपनी समर्पित सेवा प्रदान करने वाले वयोवृद्ध ब्रह्मचारी गणेशीलाल जी (महामंत्री मांगीतुंगी ट्रस्ट कमेटी) भी इस व्यथा से पीड़ित थे कि शायद अब मुझे यहाँ की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा देखने को नहीं मिलेगी किन्तु पूज्य ज्ञानमती माताजी के प्रबल पुरुषार्थ से जब वह दुर्लभ क्षण उनके जीवनकाल में सुलभ हो गया, तो ८५ वर्षीय ब्रह्मचारी जी फूले नहीं समाए।
उन्होंने जीवन के समापन काल में जैनेश्वरी दीक्षा लेकर समाधि की प्राप्ति की। एक बार मांगीतुंगी में पारस्परिक चर्चा के दौरान जब उन्हें ज्ञानमती माताजी की कठोरचर्या के बारे में यह ज्ञात हुआ कि ‘‘उनकी आहार व्यवस्था एवं संघ व्यवस्था में कभी किसी कमेटी का, मंदिर के दान का, चन्दे से इकट्ठा किया हुआ पैसा नहीं लिया जा सकता है ऐसा उनका कट्टर नियम है।’’
तो उन्होंने आश्चर्यपूर्वक बड़ी प्रसन्नता व्यक्त की और कहने लगे कि आप जैसे विरले साधु ही ऐसे नियम पालन कर सकते हैं, तभी तो आपकी वचनवर्गणा से समाजों को नई चेतना प्राप्त होती है।
गृह चैत्यालय के लिए संघ की प्रतिमा भी दे दी
संघ का विहार जब दिल्ली से मांगीतुंगी की ओर हुआ, तो दिनाँक १८ दिसम्बर १९९५ को सैनिक फार्म में महासभा अध्यक्ष निर्मल कुमार जैन सेठी की कोठी पर रुकना हुआ। वे विहार के पश्चात् पूज्य माताजी से कहने लगे कि आज मैंने सीतापुर से भगवान् की प्रतिमा मंगवाई थी कि माताजी के करकमलों से मैं उन्हें अपने घर में विराजमान करवा कर गृहचैत्यालय बनाऊँगा
किन्तु कारणवश वह प्रतिमा आ नहीं पाई है। सेठी जी के चेहरे पर थोड़ी सी उदासी देखकर पूज्य माताजी तुरंत बोल पड़ीं-निर्मल! चिन्ता मत करो, मैं तुम्हारे यहाँ अपने संघ की प्रतिमा विराजमान कर देती हूँ, तुम लोग उनकी सेवा-पूजा करके सद्गृहस्थी का संचालन करो, यही मेरा मंगल आशीर्वाद है।
सेठी जी की प्रसन्नता का पार नहीं रहा, वहाँ प्रतिमा विराजमान करने के बाद संघ के लिए जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर से दूसरी प्रतिमा मंगवाकर आगे विहार का कार्यक्रम यथावत् चला। दरअसल चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज एवं आचार्य श्री वीरसागर महाराज की आज्ञानुसार उनकी परम्परा के सभी आचार्य एवं आर्यिकाओं के संघ में चैत्यालय की व्यवस्था आज भी चल रही है क्योंकि उनका कहना था कि कितने ही स्थानों पर मंदिर नहीं मिलते हैं,
तो वहाँ साधु और श्रावक-श्राविकाओं को दर्शन करने के लिए संघ में प्रतिमा रखना अति आवश्यक है। जिनेन्द्र दर्शन के बिना आचार्य श्री शिवसागर जी, आचार्य श्री धर्मसागर जी, आचार्य श्री देशभूषण जी, आचार्य श्री विमलसागर जी आदि कोई भी आहारचर्या नहीं करते थे। इसी आर्षपरम्परा के निर्वाह हेतु पूज्य ज्ञानमती माताजी के संघ में भी प्रायः एक जिनप्रतिमा का चैत्यालय रहता ही है।
दिल्ली के पश्चात् ऐसा प्रसंग आया दिनाँक ११ अप्रैल १९९६ को सेन्धवा (म.प्र.) में, जब निहालचंद जैन पाटनी के घर में हम लोग ठहरे और वहाँ ज्ञात हुआ कि ८-१० घर जैन श्रावकों के हैं किन्तु मंदिर दर्शन के बिना उनका जीवन निर्वाह चल रहा है, आगे उन लोगों में मंदिर बनाने की इच्छा भी है लेकिन अभी सफलता नहीं मिल पा रही है।
समस्या सुनकर माताजी ने तुरंत अपने चैत्यालय वाली महावीर स्वामी की प्रतिमा पाटनी जी के घर में ही ऊपर कमरे में गृहचैत्यालय बनाकर विराजमान करवा दी और बनने वाले मंदिर के लिए भी उसी समय काफी धनराशि की स्वीकृतियाँ हो गर्इं। इसी हर्षोल्लास के वातावरण में संघ का शाम को ५ बजे आगे के लिए विहार हो गया और मांगीतुंगी से हमें जिनप्रतिमा उसी दिन मंगवानी पड़ी।
इसी प्रकार कई स्थानों पर संघ की प्रतिमा देकर पूज्य माताजी ने अनेक भव्य प्राणियों को सम्यग्दर्शन प्राप्ति का माध्यम प्रदान किया, जो उनकी उदारता एवं वात्सल्य का परिचायक है। गाँव में सर्र्वस आया है? भौतिकवादी इस युग में दिगम्बर जैन साधु-साध्वियों का मंगल पदविहार धर्म से अनभिज्ञ लोगों के लिए वास्तव में बड़े अचम्भे का कारण बन रहा है।
आज से ७०-८० वर्ष पूर्व जब बीसवीं शताब्दी के प्रथम आचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज का संघ दक्षिण भारत से उत्तरप्रांत की ओर आया था, तब संघपति सेठ पूनमचंद घासीलाल जवेरी (बम्बई) ने बैलगाड़ियों में संघ संचालन का सारा सामान रखकर पूरी यात्रा सम्पन्न कराई थी परन्तु आज तो भौतिक संसाधनों ने संघ संचालकों की सारी समस्या ही हल कर दी है।
पूज्य माताजी के संघ के संघपति महावीर प्रसाद जैन बंगाली स्वीट, दिल्ली वालों ने प्रारंभ से विहार की व्यवस्था हेतु दो गाड़ियाँ (ट्रक एवं मेटाडोर), मोटर साइकिल तथा छोटे-मोटे कार्यों के लिए २-३ साइकिलों का प्रबंध कर लिया था। संघस्थ ब्रह्मचारिणी बहनें संघ का कुशल संचालन करती हुई १० जनवरी १९९६ को राजस्थान के एक गाँव ‘‘ढिगवड़ा’’ के स्कूल में पहुँचीं। सबसे पहले वहाँ रात्रिविश्राम का सामान (चावल की घास, चटाई, पाटे आदि) जालीनुमा बने हुए ट्रक में लेकर वे लोग गई थीं
क्योंकि सर्दी का मौसम था। शाम को ५ बजे हम लोग भी वहाँ पहुँच गये तो कु.बीना, आस्था आदि बहनें कहने लगीं कि यहाँ आते ही स्कूल के बच्चे, अध्यापक तथा गाँव के लोगों की भीड़ लग गई और वे हम लोगों से पूछने लगे कि- ‘‘दीदी! क्या यह सर्वस की गाड़ी आई है? आज यहाँ सर्वस दिखाया जायेगा क्या?’’ हमने कहा कि नहीं, यहाँ पर जैन साध्वी ज्ञानमती माताजी का संघ आ रहा है, वे लोग यहाँ रात्रि विश्राम करेंगी। गाड़ी से सामान निकालते हुए हमने घास के बोरे उतरवाये जो कि आप लोगों के सोने हेतु हम कमरे में ले जा रहे थे, तो उन लोगों ने पूछा कि- ‘‘क्या आपके साथ घोड़े भी हैं?
उन्हें खिलाने के लिए घास वगैरह भी क्या आप साथ में ही रखती हैं?’’ इतना सब बताते हुए वे बालिकाएँ जोर-जोर से हँसने लगीं और कहने लगीं-माताजी! जब हम लोग छोटे-छोटे उन गाँवों में, जहाँ जैन श्रावक नहीं होते हैं वहाँ, स्कूल, पंचायत भवन, डाकबंगले आदि स्थानों पर पहुँचते हैं, तो लोग तरह-तरह के प्रश्न पूछकर हम लोगों का मनोरंजन कर देते हैं।
ये सब सुनकर पूज्य माताजी कहने लगीं कि-‘‘देखो! हम जैन साधु-साध्वियों की चर्या ही ऐसी है, जिसे अन्य लोगों के लिए समझना बड़ा कठिन है। तुम लोग इतना अवश्य ध्यान रखना कि इन प्रश्नों का उत्तर हमेशा प्रौढ़तापूर्वक देना और कभी उनकी हँसी मत उड़ाना।’’
हम लोगों को पदविहार के मध्य जिन गाँवों में जैन श्रावक नहीं होते हैं, वहाँ स्कूल, कॉलेज में ही ठहरना पड़ता है, तब अनेक प्रकार के प्रसंगों का सामना करना पड़ता है पुनः वहाँ प्रवचन-प्रश्नमंच, पुरस्कार आदि आयोजित करके हजारों-हजार बालक-बालिकाओं, अध्यापक-अध्यापिकाओं को धर्मज्ञान देकर अपूर्व प्रसन्नता का अनुभव होता है।
भगवान राम के समान तीर्थ का उद्धार
मांगीतुंगी में १९ मई १९९६ को पूज्य गणिनी आर्यिका शिरोमणिश्री ज्ञानमती माताजी ने विशाल जनसमूह को सम्बोधित करते हुए एक पौराणिक घटना सुनाई कि आज से नौ लाख वर्ष पूर्व मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम वन में विचरण करते-करते कुंथलगिरि के निकट जब आये, तो वहाँ गाँव के बाहर देखा कि शाम को सारे नर-नारी अपने-अपने सिर पर सामान लिए आगे चले जा रहे हैं।
उन्होंने लक्ष्मण से पता लगवाया तो ज्ञात हुआ कि यहाँ पर कोई दैत्य शाम होते ही भयंकर शब्द करता है, जिसके कारण नगर के तमाम लोग भय के कारण मर जाते हैं, गर्भवती स्त्रियों के गर्भपात हो जाते हैं, कितने ही बालक काल के गाल में समाहित हो जाते हैं इसीलिए ये सब नर-नारी शाम को गाँव छोड़कर भाग जाते हैं और प्रातःकाल गाँव में वापस आ जाते हैं, यह सुनकर सीता कहने लगी कि शाम हो रही है, अभी यहाँ वही भयंकर शब्द शुरू हो जायेगा।
इसीलिए हम भी गाँव वालों के साथ चलें और प्रात: वापिस आ जायेंगे। लेकिन राम ने कहा-नहीं, हम लोग आज उस राक्षस से आमना-सामना करके नगर वालों के संकट को दूर करेंगे। सीता के जिद्द करने पर भी वे राजी नहीं हुए और जल्दी-जल्दी वे सभी कुंथलगिरि के पर्वत पर चढ़ गए। वहाँ सामने देखते हैं कि दो महान मुनिराज अपने अखण्ड ध्यान में लीन हैं।
सायंकाल होते ही एक राक्षस की भयंकर आवाज से पर्वत हिलने लगा। भयभीत हुई सीता को उन्होंने दोनों मुनियों के बीच में बिठा दिया तथा स्वयं धनुष की टंकार से उस दैत्य का सामना करने लगे। थोड़ी ही देर में दैत्य की शक्ति कुंठित हो गई और वह इन्हें नारायण व बलभद्र का अवतार मानकर अपनी विक्रिया समाप्त कर भाग गया।
इस प्रकार मुनियों का उपसर्ग दूर होते ही शुक्लध्यान के द्वारा उन्होंने केवलज्ञान की प्राप्ति कर ली। तब वहाँ देवों ने भी आकर गंधकुटी की रचना करके कुलभूषण, देशभूषण नामक केवली भगवंतों की महान पूजा की पुन: रामचन्द्र ने बहुत समय तक उस पर्वत पर रहकर कई जिनालयों का निर्माण कराया। इस प्रवचन से परिलक्षित होता है कि रामचन्द्र जैसे महापुरुष भी तीर्थों के उद्धार एवं मुनियों की रक्षा हेतु पूर्ण पुरुषार्थ करते थे।
यह तो नौ लाख वर्ष पूर्व का प्राचीन कथानक है किन्तु ऐसा लगने लगता है कि साक्षात् राम का रूप धारण करके ही पूज्य माताजी ने हस्तिनापुर, अयोध्या, मांगीतुंगी एवं अन्य अनेक तीर्थों के उद्धार का बीड़ा उठाया है। उन्हें इन उद्धारों के लिए कितने ही संघर्ष एवं कष्ट झेलने पड़ते हैं, तो भी वे अपने पुरुषार्थ से विचलित नहीं होती हैं तथा निस्पृहवृत्ति से भायी गई उनकी भावना आशातीत सफलताओं के साथ सम्पन्न होती है।
यही कारण है कि जिस मांगीतुंगी तीर्थ को लोग जानते भी नहीं थे, वह सारे देश में अब प्रसिद्धि को प्राप्त हो गया। प्र्महाराष्ट्र का लघु भ्रमण नया अनुभव दे गया- नीतिकारों ने कहा है कि-
पद्मिन्यो राजहंसाश्च, निग्र्रन्थाश्च तपोधनाः।
यत्र देशे प्रसर्पन्ति, सुभिक्षं तत्र जायते।।
अर्थात् पद्मिनी जाति की स्त्रियाँ, राजहंस, निर्ग्रन्थ साधु-साध्वी जहाँ भी विचरण करते हैं, वहाँ सुभिक्ष हो जाता है। यह नीति तो ९ जून १९९६ रविवार को तभी सार्थक हो गई थी, जब मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र पर वर्षायोग स्थापना की स्वीकृति पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने प्रदान कर दी थी। उस प्रवचन सभा के पश्चात् ज्यों ही माताजी पांडाल से उठकर त्यागीभवन में पहुँचीं,
त्यों ही मूसलाधार वर्षा के द्वारा मेघदेवता ने उनके प्रति आदरांजलि प्रगट की थी पुन: महाराष्ट्र के अन्य नगरों की जनता भी चातुर्मास से पूर्व डेढ़ माह के समय में उन्हें अपने शहरों में ले जाने के लिए लालायित हो उठी और मालेगांव, नाँदगाँव, सटाणा, कोपरगाँव आदि स्थानों से पधारे प्रमुख जनों ने श्रीफल चढ़ाकर निवेदन भी किया। मौसम और स्वास्थ्य यद्यपि दोनों की विशेष अनुकूलता नहीं थी फिर भी भक्तों की भक्ति ने मन को उद्वेलित किया और २ जुलाई १९९६, आषाढ़ शुक्ला दूज को माताजी मालेगांव का प्रमुख लक्ष्य लेकर अपने संघ के साथ विहार कर गर्इं।
विहार के दो दिन पश्चात् मालेगांव वालों को सूचना मिली कि ‘‘ज्ञानमती माताजी का मांगीतुंगी से हमारे शहर के लिए विहार हो चुका है’’ पुन: उन लोगों ने मार्ग में आकर कार्यक्रम की रूपरेखा समझी। मंगल विहार का यह अनुभव भी अपने आप में अपूर्व ही था कि साधु को विहार से पूर्व गन्तव्य स्थान के लिए सूचित करना कोई आवश्यक नहीं है, वे तो अतिथी होते हैं अत: कभी भी, कहीं भी बिना सूचना के विहार कर सकते हैं, इससे उन्हें निश्चित ही नये-नये अनुभव प्राप्त होते हैं। कहा भी है-
तिथिपर्वोत्सवा सर्वे, त्यक्ता येन महात्मना।
अतिथिं ते विजानीयात्, शेषमभ्यागतं विदुः।।
अर्थात् समस्त तिथियाँ, पर्व और उत्सवसंबंधी विकल्पों से ये साधु-साध्वी सदा ही दूर रहते हैं, इसीलिए इनका ‘‘अतिथि’’ यह यथार्थ नाम है तथा शेष लोगों को विद्वानों ने ‘‘अभ्यागत’’ संज्ञा से सम्बोधित किया है। प्र्हम उन्हें हँसे, वे हमें हँस रहे थे- हम लोग ४ जुलाई को पदविहार करते हुए प्रातः ८ बजे ‘‘आसखेड़ा’’ के विद्यालय में पहुँचे, जहाँ संघ की ब्रह्मचारिणी बहनों ने आहारचर्या की व्यवस्था की हुई थी। स्कूल के अध्यापकों की अभिरुचि देखकर वहाँ मध्यान्हकालीन प्रवचन का आयोजन किया गया।
सारे स्कूल के लगभग १००० बालक-बालिकाएँ प्रवचन सभा में एकत्रित हुए, सभामंच पर ब्र. श्रीचन्द जी एवं ब्र. गौतमचन्द जी के साथ सर्वप्रथम क्षुल्लक श्री मोतीसागर महाराज का पदार्पण हुआ और उन्हें एक चादर-लंगोट की वेशभूषा में देखकर सब बच्चों की हँसी का फौव्वारा छूट पड़ा। अध्यापकों ने अनुशासनपूर्ण दृष्टि से उन्हें शान्त किया और ब्र. गौतमजी ने मराठी भाषा में प्रवचन करके जैन गुरुओं की महत्ता तथा विद्यार्थी के गुणों पर भी प्रकाश डाला।
उसके बाद मोतीसागर महाराज ने अपने मंगल प्रवचन में कहा कि-‘‘आप लोग मुझे देखकर हँस रहे हैं एवं आप लोगों को देखकर मुझे हँसी आ रही है कि आज के इस आधुनिक युग में भी आप बालकगण नेकर-शर्ट की ड्रेस के साथ-साथ सिर पर सफेद टोपी लगाए हुए हैं। जैसे यह आपके स्कूल की ड्रेस है, वैसे ही यह हमारी ड्रेस है। हमारे देश के राष्ट्रपति महात्मागांधी की भी लगभग ऐसी ही वेशभूषा थी जो कि साधुता की प्रतीक थी।
साधुगण चलते-फिरते विद्यालय होते हैं, इनसे चारित्र निर्माण की अपूर्व प्रेरणा देश और समाज को प्राप्त होती है। पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी जैसी महान् साध्वी का पदार्पण आज आपके स्कूल में हुआ है, जिन्होंने नारी उत्थान के लिए जैन समाज में एक कीर्तिमान स्थापित किया है। एक कवि ने इनके लिए कहा है-
जो बतलाते नारी जीवन, लगता मधुरस की लाली है।
वह त्याग तपस्या क्या जाने, कोमल फूलों की डाली है।।
जो कहते योगों में नारी, नर के समान कब होती है।
ऐसे लोगों को ज्ञानमती का, जीवन एक चुनौती है।।
इसके पश्चात् मेरा उद्बोधन हुआ पुनः गणिनी माताजी ने स्कूल के बालक-बालिकाओं को, अध्यापकों एवं नगर के नागरिकों को अपना मंगल आशीर्वाद प्रदान किया। यह स्कूल ‘‘कर्मवीर भाऊरावपाटील’’ की स्मृति में रैय्यत समाज द्वारा निर्मित है, यहाँ टोपी लगाना प्रत्येक विद्यार्थी को आवश्यक है। मैं सोचती हूँ कि जब आज पूरे भारत में दिगम्बर जैन साधुओं के चतुर्विध संघ का विहार हो रहा है, जैन-अजैन सभी को उनके दर्शन भी सुलभतया होते हैं
क्योंकि विहार करते समय साधुओं को अधिकतर विद्यालयों में ही ठहरना पड़ता है, फिर भी अभी इस साधुचर्या से अनभिज्ञ लोगों के लिए मुनि और क्षुल्लक, ऐलक की मुद्रा हास्यास्पद ही बनी हुई है। धन्य है यह जैनी चर्या! जिसका धरती पर कभी एकछत्र शासन था किन्तु वह प्राकृतिक सार्वभौम जैनधर्म इस सदी में अन्य धर्मों की अपेक्षा पीछे हो रहा है।
एक शिम्पी की दुकान पवित्र हुई
आसखेड़ा से हम लोगों को ४-५ किमी. जाकर रात्रि विश्राम करना था किन्तु जब संघ व्यवस्थापक ने सर्वे किया तो ज्ञात हुआ कि १३ किमी. से पहले ठहरने का कोई स्थान नहीं है अत: उस दिन विद्यालय में ही रात्रि विश्राम हुआ और ५ जुलाई को प्रात: वहाँ से विहार हुआ, तब तक संयोगवश ७ किमी. दूर मेनरोड पर ही एक शिम्पी के नये अधबने मकान में जगह मिल गई और वहीं उस दिन का आहार हुआ।
मध्यान्ह में मकान मालिक ने अत्यन्त विनम्रतापूर्वक पूज्य माताजी से अपनी कपड़े की दुकान पर चरण रखने का निवेदन किया। आगे के लिए विहार करते समय हम लोग उनकी दुकान से होकर निकले चूँकि घर और दुकान की दीवार एक ही थी, माताजी ने उनसे शाकाहार के बारे में पूछा तो ज्ञात हुआ कि पूरा परिवार शाकाहारी है।
अत्यन्त प्रसन्नता के साथ माताजी ने उन्हें ‘‘धर्मलाभ’’ आशीर्वाद दिया, वे सभी फूले नहीं समा रहे थे तथा माताजी से पुन: इसी रास्ते से वापसी में जाने का आग्रह कर रहे थे। मालेगांव के कुछ जैन समाज के प्रमुख श्रावक भी वहाँ पहुँच गए थे, उन्होंने उन महानुभावों की गुरुभक्ति देखकर उनके भाग्य की सराहना की। वास्तव में साधु तो आकाश के समान विशाल हृदय वाले ही होते हैं, तभी जन-जन को उनका आशीर्वाद प्राप्त करने का लाभ मिलता है। एक कवि ने कहा भी है-
जाति न पूछो साधु की, ले लो इनसे ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान।।
अर्थात् साधु के प्रति जाति-पाँति का भेदभाव छोड़कर प्राणीमात्र को उनके ज्ञान का लाभ उठाना चाहिए। प्र्तीव्र भक्ति ने भावना बदल दी- महाराष्ट्र की दिगम्बर जैन समाज के लोकप्रिय नेता नासिक जिले के सम्माननीय विधायक (आमदार) श्री जयचंद जी कासलीवाल ५ जुलाई को ‘‘चांदवड़’’ से दो गाड़ियाँ लेकर रास्ते में श्रीफल चढ़ाने आ गए और कहने लगे कि माताजी! आपको हमारे चाँदवड़ जरूर चलना है, यदि आप यहीं से अपना रास्ता बदल दें तो केवल १०-५ किमी. का अन्तर पड़ेगा और वापस वहाँ से मालेगाँव होकर मांगीतुंगी का मार्ग ठीक रहेगा
अन्यथा मालेगांव से चाँदवड़ जाने पर आपको ४० किमी. अधिक चलना पड़ेगा। कुछ भी हो, आपको चांदवड़ तो चलना ही पड़ेगा। इसीलिए हम सभी समाज के लोग आपसे निवेदन करने आए हैं। विधायक जी की सुपुत्री कु. प्रीति जैन हमारे साथ मांगीतुंगी से ही पैदल चल रही थी, उसने माताजी की अस्वीकृति देखकर आग्रह को सत्याग्रह में परिवर्तित कर दिया। अन्ततोगत्वा प्रीति ने पूरे चातुर्मास तक मांगीतुंगी रहने का एवं आगे भी विहार में साथ चलने का भाव व्यक्त किया। इन सब परिस्थितियों को देखकर पूज्य माताजी ने मालेगांव से चाँदवड़ जाने की स्वीकृति प्रदान कर दी।
यद्यपि हम लोग मांगीतुंगी से मात्र मालेगांव की भावना लेकर ही निकले थे, चातुर्मास से पूर्व और कहीं अधिक जाने का न तो समय ही था और न स्वास्थ्य, किन्तु आमदार जी, उनकी पत्नी सौ. अर्चना जैन, पुत्री प्रीति जैन के आग्रह तथा समाज के विशेष निवेदन को वे टाल न पार्इं और तीव्र भक्ति देखकर उनकी भावना परिवर्तित हो गई। उन्होंने चांदवड़ जाने की स्वीकृति प्रदान कर दी।
कु. प्रीति एवं कु.पल्लवी की पदयात्रा संघ के साथ
देश-विदेशों में ख्याति प्राप्त विश्व की सबसे छोटी जादूगर कु. पल्लवी गुलाबचंद जैन कासलीवाल-ओझर निवासी भी अपने काका की सुपुत्री बड़ी बहन प्रीति के साथ मांगीतुंगी में पूज्य गणिनी माताजी के पास २५ जून को कुछ दिनों के लिए धार्मिक अध्ययन करने आई थी पुन: हम लोगों का मालेगांव की ओर विहार हो गया, तो ये दोनों बालिकाएँ भी साथ में पदयात्रा करती हुर्इं गुरुभक्ति, वैयावृत्ति, आहारदान, धर्मशिक्षण आदि का लाभ प्राप्त करने लगीं।
मार्ग में कितनी जगह लोग जादूगरनी पल्लवी को देखकर आश्चर्य चकित होते थे कि इतनी छोटी, सुकुमार और आधुनिक सुविधाओं में रहने वाली यह कन्या माताजी के साथ कैसे चल रही है? इसका इन त्यागीवर्गों के साथ मन कैसे लगता है? किन्तु यह बात आप उससे साक्षात् पूछकर देखें तो वह कहती है कि ‘‘जो आनन्द मैंने इस संघ के साथ प्रवास में प्राप्त किया है, वैसी अनुभूति मुझे कभी नहीं हुई।’’ यह सब पूज्य माताजी के तेजोमय व्यक्तित्व का ही आकर्षण है।
लगभग २०० किमी. की इस पदयात्रा के पश्चात् जब मांगीतुंगी से ३० जुलाई को वह अपना कालेज प्रारंभ हो जाने के कारण मम्मी-पापा के साथ वापस घर जाने लगी, तो उसके अश्रु गुरुचरणों का प्रक्षालन करते हुए उसकी अन्तर्वेदना को प्रगट कर रहे थे, जो धर्म संस्कारों के प्रतीक थे।
जलती धरती ने पैरों को तप्तायमान कर दिया
हम लोग ७ जुलाई १९९६ रविवार को मालेगाँव के वैम्प एरिया में पहुँचे, तो वहाँ की जैन समाज ने मध्यान्हकालीन प्रवचन कार्यक्रम एक हॉल में आयोजित किया और हम लोगों को दो फर्लांग दूर वहाँ जाना पड़ा। उस मार्ग में धरती पर पैर रखना तपे तवे पर पैर रखने के सदृश था। केवल वहाँ जाने तक में ही कुछ के पैरों में छाले आ गए और एक ब्रह्मचारी जी के तो पैरों में चीरा लगकर फट सा गया।
खैर! यह साधुचर्या की कठोरता समझकर हम सभी ने समताभावपूर्वक सहन किया किन्तु जूते, चप्पल पहनकर चलने वाले, सदा वाहन आदि पर चलने वाले गृहस्थ श्रावक इस परीषह का अनुमान भी नहीं लगा सकते हैं। कुछ भी हो, पंचमकाल के हीनसंहननधारी मनुष्य भी दिगम्बर जैनी दीक्षा धारण करके असंख्य कर्मों की निर्जरा कर सकते हैं, यह बात भावसंग्रह (प्राकृत) में स्पष्ट की गई है-
वरिससहस्सेण पुरा, जं कम्मं हणइ तेण काएण।
तं कम्मं वरिसेण हु, णिज्जरयइ हीण संहणणे।।
अर्थात् चतुर्थकाल में मुनिगण जितने कर्मों को उत्तम संहनन वाले शरीर से तप करके एक हजार वर्ष में नष्ट करते थे, उतने कर्मों को आज के हीन संहननधारी साधु एक वर्ष की तपस्या द्वारा नष्ट कर सकते हैं। इसीलिए आज के युग में हम लोग अपने कमजोर एवं सुकुमार शरीर को तपस्या की अग्नि में तपाने का पुरुषार्थ करते हैं, तभी इन्हें गर्मी, सर्दी, शूल-फूल के कष्ट सहन करने में कष्ट नहीं, बल्कि आल्हाद का अनुभव होता है।
पंचामृत अभिषेक महाराष्ट्र की पहचान है
बहुत पहले से सुना करती थी कि दक्षिण भारत में तेरहपंथ-बीसपंथ का कोई भेदभाव नहीं रहता है, वहाँ प्रत्येक दिगम्बर जैन मंदिर में स्त्री-पुरुष सभी मिलकर प्राचीन शास्त्रीय परम्परानुसार जिनेन्द्र भगवान् का पंचामृत अभिषेक करते हैं। इस शताब्दी के प्रथम आचार्य चारित्र चक्रवर्ती श्री शान्तिसागर महाराज भी इसी परम्परा को मानकर सदैव भगवान का पंचामृत अभिषेक देखा करते थे। यूँ तो महाराष्ट्र प्रान्त में हम लोग जब से आए थे,
तब से प्रत्येक गाँव में श्रद्धालु भक्त पूज्य माताजी को मंदिर में प्रवेश करते ही अभिषेक दिखाने को आतुर रहते थे तथा इधर घर-घर में बनाए हुए अपने गृह चैत्यालय का दर्शन कराने भी संघ को ले जाने का प्रयास करते थे किन्तु मालेगाँव शहर में ८ जुलाई १९९६ को जब गणिनी माताजी का संघ सहित मंगल प्रवेश हुआ, तो वहाँ के मंदिर में अभिषेक की जो शास्त्रोक्त प्रक्रिया देखी, वह मेरे लिए अविस्मरणीय हो गई। वहाँ के श्रावक-श्राविकाओं ने पं. आशाधर जी द्वारा रचित संस्कृत अभिषेक पाठ का सुन्दर स्वर में उच्चारण करते हुए लगभग १ घंटे में अभिषेक पूर्ण किया और संघ को पवित्र गन्धोदक प्रदान किया।
जहाँ दक्षिण भारत में पंथवाद की निष्पक्ष रूप से एकरूपता है, वहीं उत्तर भारत में दोनों पंथों का प्रचलन वर्तमान में देखा जा रहा है तथा कहीं-कहीं तेरहपंथ की खींचातानी भी शुद्धतेरहपंथ के नाम पर शुरू हो गई। इन विवादों में पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी सदैव सामञ्जस्य की स्थिति ही पसंद करती हैं, यही कारण है कि उनकी पावन प्रेरणा से सन् १९७२ में स्थापित दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान की रजिस्टर्ड कमेटी में सन् १९७५ में ही यह रेजूलेशन पास किया गया कि-
‘‘वर्तमान में दिगम्बर जैन आम्नाय में बीसपंथ और तेरहपंथ ये दो पंथ प्रचलित हैं। जंबूद्वीप के सभी जिनमंदिरों में दोनों पंथ के अनुयायी अपनी-अपनी इच्छानुसार अभिषेक पूजा कर सकते हैं, यहाँ पंथवाद का कोई विवाद नहीं रहेगा।’’ उनकी इस दीर्घदर्शिता के कारण उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम चारों दिशाओं से तथा सारे देश की जनता, जो जम्बूद्वीप रचना के दर्शन करने हस्तिनापुर पहुँचती है, उसे उपर्युक्त शिलालेख देखकर परम आह्लाद का अनुभव होता है तथा पूज्य ज्ञानमती माताजी की उदारनीति से उन्हें संतोष मिलता है।
साधु संघ वास्तव में चलते-फिरते विश्वविद्यालय होते हैं
हिन्दुस्तान के प्रत्येक प्रदेश में जहाँ सैकड़ों विश्वविद्यालय खुले हुए हैं, वहीं अनेक स्थान पर आज ‘‘ओपन यूनिर्विसटी’’ भी हैं। दिल्ली में एक ‘‘इन्दिरागाँधी ओपन यूनिवर्सिटी’’ है, जहाँ से हजारों विद्यार्थी फार्म भरकर घर बैठे पढ़ने और परीक्षा देने के अधिकारी होते हैं। यह तो लौकिक शिक्षण प्राप्त करके पेट भरने वाली विद्या सिखाने वाले विश्वविद्यालयों की बात हुई किन्तु साधु-साध्वियों के संघ तो असलियत में चारित्र निर्माण और आध्यात्मिकता के खुले विश्वविद्यालय होते हैं।
साधु शृंखला में पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी तो सबके लिए एक मिशाल हैं ही, उनके द्वारा कोई भी कार्य शुरू किये जाने पर प्रायः सभी साधुसंघ उस मार्ग का अनुसरण करते हैं जैसे-बाल ब्रह्मचारिणी बनकर त्याग मार्ग को अपनाना, ग्रन्थ लेखन करना, शास्त्रोक्त नवनिर्माण की प्रेरणा देना, शिविर-सेमिनारों का आयोजन कराना,……… इत्यादि कार्य उनके जीवन्त इतिहास के प्रतीक हैं। उनके बारे में सरस कवि ने लिखा है-
सच तो इस नारी की शक्ती, नर ने पहचान न पाई है।
मन्दिर में मीरा है तो वह, रण में भी लक्ष्मी बाई है।।
है ज्ञान क्षेत्र में ज्ञानमती, नारी की कला निराली है।
सच पूछो नारी के कारण, यह धरती गौरवशाली है।।
मालेगांव पहुँचते ही वहाँ के स्त्री-पुरुषों का उत्साह देखकर पूज्य माताजी ने हम लोगों को आदेश दिया कि यहाँ ५ दिन का ‘‘ध्यान शिविर एवं शिक्षण शिविर’’ आयोजित करके सबके लिए चिरस्थाई ज्ञान प्रदान करके जाना है।
बस, ८ जुलाई की मध्यान्ह से ही बच्चों एवं प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों के लिए बाल विकास तथा द्रव्यसंग्रह की कक्षाएँ शुरू हो गर्इं और रात्रि में इनामी प्रश्नमंच, आरती प्रतियोगिता, अन्त्याक्षरी प्रतियोगिता तथा प्रात:काल में ध्यानाभ्यास आदि अनेक कार्यक्रम १२ जुलाई तक चले, जिनसे भारी जन-समूह ने ज्ञान लाभ प्राप्त किया।
पदस्थ ध्यान के अन्तर्गत ‘‘ह्रीं’’ बीजाक्षर का ध्यानाभ्यास
मैंने प्रातःकाल की कक्षा में ८.३० से ९.१५ बजे तक योगसाधना के विभिन्न पहलुओं का महत्त्व बताकर ९-१०-११ जुलाई को तीन दिन में ‘‘ह्रीं’’ बीजाक्षर का तीन श्रेणियों में ध्यान कराया, जो वहाँ के श्रद्धालुओं के लिए चिरस्मृति का प्रतीक बन गया और वह ध्यान की ऑडियो वैसेट वहाँ वैम्प मंदिर में अनेक स्त्री-पुरुषों को आज तक भी ध्यान का अभ्यास करा रही है।
कषायों में क्रोध सबसे अधिक बुरा है
पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिका शिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी का प्रवचन प्रतिदिन प्रातःकाल ही ध्यानसाधना के बाद होता था और वे प्रतिदिन नये-नये दुर्लभ विषयों का प्रतिपादन अपने प्रवचन में करती थीं, जैसे – कर्मभूमियों की व्यवस्था, जैन ज्योतिर्लोक, जैन भूगोल, गुरुभक्ति से प्राप्त तपोशक्ति, भगवान् ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित षट्क्रिया आदि अनेक शास्त्रीय प्रकरणों का सरलरूप में स्पष्टीकरण करतीं, जो आसानी से सबको हृदयंगम हो जाते और सभी लोग जीवन में मिले इस दुर्लभ सन्तसमागम की भूरि-भूरि सराहना करते थे।
इसी प्रवचन शृंखला में दिनाँक १० जुलाई बुधवार को उन्होंने तीन लोक का स्वरूप बतलाया तथा अधोलोक को प्राप्त कराने वाली चार कषायों के बारे में बताते हुए कहा-यूँ तो कषाएँ चारों ही बुरी हैं, वे आत्मा को कस रही हैं और इनमें से लोभ को पाप का बाप भी कह दिया है, मान से नरकगति की प्राप्ति बताई है, माया से तिर्यंचगति मिलती है किन्तु जहाँ तक मैंने इस विषय में चिन्तन किया तो निष्कर्ष निकाला कि मान, माया और लोभ तो स्वयं के लिए ही घातक होती हैं
जबकि क्रोध कषाय स्व और पर दोनों का अहित करके जन्म-जन्मान्तर में वैर बन्धन को बढ़ाती है। देखो! एक वशिष्ठ नामक मुनि एक बार मथुरा के गोवद्र्धन पर्वत पर एक मास का उपवास लेकर ध्यान में लीन थे। उनकी तपस्या से प्रभावित होकर मथुरा के राजा उग्रसेन ने नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि मुनिराज के मासोपवास का पारणा मैं अपने राजमहल में ही आहार देकर करवाउँगा, अन्य किसी के घर में चौका नहीं लगेगा।
महीने भर के उपवास के बाद जब वशिष्ठ मुनिराज शहर में आहार के लिए आए, तब राजा उग्रसेन कार्यव्यस्तता में आहार देना भूल गए अत: मुनि चर्या करके वापस चले गये। इसी प्रकार दो-तीन बार राजा ने इसी प्रकार कहा और समय आने पर वे भूल गए, जिससे मुनिराज को आहार लाभ प्राप्त नहीं हो सका। एक बार चर्या करते हुए वे मुनि अशक्ततावश भूमि पर गिर पड़े, तब नगर की जनता कहने लगी कि हाय! यहाँ का राजा बड़ा दुष्ट है, जो भक्ति का प्रदर्शन करके घमण्ड के कारण हम लोगों को आहारदान न तो देने देता है और न स्वयं ही देता है।
ये शब्द मुनि ने सुन लिए और उसी समय उन्होंने क्रोधित होकर निदान कर दिया कि ‘‘अगले जन्म में इस राजा का पुत्र होकर इसका बदला चुकाऊँ’’ इस प्रकार मिथ्यात्व पूर्वक कषाय परिणामों से मरकर वह उग्रसेन की रानी के गर्भ में आ गया और वंâस के रूप में जन्म लेकर उसने अपने पिता को बन्दी बनाया पुनः कृष्ण ने जन्म लेकर उसका वध करके अपने नाना उग्रसेन को बन्धन मुक्त किया था।
देखो! क्रोध के कारण एक मुनि ने अपनी तपस्या मिथ्या कर दी एवं भव-भव में नरक आदि गतियों के दुःख उठाए। क्रोध में व्यक्ति को हिताहित का विवेक नहीं रह जाता है। वह अग्नि की प्रतिकृति बन जाता है इसीलिए उसे ‘‘आगबबूला’’ कहने लगते हैं। क्रोध को कभी भी क्रोध से शान्त नहीं किया जा सकता है, उसे तो क्षमा जल से ही शमन कर सकते हैं।
भगवान् पाश्र्वनाथ का उदाहरण क्षमा में प्रसिद्ध है तथा कमठ का क्रोध में नाम मशहूर हुआ है। आज देखा जाता है कि कोई-कोई मुनि कषाय की उग्रता से जरा सा निमित्त बनाकर भाग जाते हैं और कहने लगते हैं कि मेरा अपमान हो गया लेकिन साधु के लिए यह कथमपि उचित नहीं है। मुनि तो क्या गृहस्थ को भी क्रोष कषाय को कम करने का अभ्यास करना चाहिए एवं अधोगति में जाने से बचना चाहिए।
गुरु की किञ्चित् अस्वस्थता का समाचार पा दौड़े आए लाला प्रेमचंद जी
गुरु और शिष्य के निश्छल प्रेम की बातें इतिहासों में कई बार पढ़ी और सुनी थीं कि-
‘‘गुरु और शिष्य की कौन-सी बात अंजानी है।
सागर को मालूम है कि बूँद में कितना पानी है।।
किन्तु वर्तमान में जब विशिष्ट भक्तों की गुरुभक्ति सामने देखने को मिलती है, तो सम्राट चन्द्रगुप्त की स्मृति आए बिना नहीं रहती जिन्होंने मुनि बनकर श्रुतकेवली भद्रबाहु की जंगल में बारह वर्षों तक भक्ति करके देवों के भी आसन को कम्पित कर दिया था। मालेगाँव विहार से पूर्व एक बार पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी का स्वास्थ्य शारीरिक आदि परिश्रम के कारण कुछ नरम हो गया था, वह खबर किसी तरह से दिल्ली में संघपति महावीर प्रसाद एवं प्रेमचंद जी को पता लगी, तो उन्हें खूब बेचैनी हो गई और दोनों तुरंत मांगीतुंगी जाने को तैयार हो गये।
इसी मध्य इन लोगों को ज्ञात हुआ कि अनिल कुमार जैन कागजी स्वास्थ्य समाचार लेने जा चुके हैं, तब तक रवीन्द्र जी का फोन भी मिल गया कि स्वास्थ्य अब मध्यम है, कुछ कमजोरी विशेष के कारण गड़बड़ हो गया था। अनिल जी ने भी पुनः दिल्ली पहुँचकर सबको माताजी की स्वस्थता की सूचना दे दी थी किन्तु सबसे सुनने के बावजूद भी लाला प्रेमचंद जैन-खारीबावली दिल्ली वालों को चैन न पड़ी।
हम लोग ‘‘गायत्री भवन’’ में ठहरे हुए थे, जब उन्होंने पूज्य माताजी से सारे कुशल समाचार पूछ लिए, तभी चैन की साँस लेकर स्नान-भोजन आदि किया। पुन: प्रेमचंद जी तीन-चार दिन संघ के साथ ही रहे और संघस्थ ब्रह्मचारिणी बहनों से सारी संघ व्यवस्था संबंधी जानकारी लेकर कहने लगे कि ‘‘पूज्य माताजी हमारे देश की ऐसी निधि हैं, जिनके समक्ष सोना, चाँदी, हीरा, मोती, माणिक्य सारे रत्नों की कीमत भी कुछ नहीं है।
इन्हें जरा भी कष्ट होते ही हम लोग बेचैन हो जाते हैं, आप लोग इनकी स्वस्थता का पूरा ध्यान रखें क्योंकि हम लोगों को अभी इन्हें कुशलतापूर्वक इधर से विहार कराकर दिल्ली ले जाना है और बड़े-बड़े धर्मकार्य इनके माध्यम से सफल करना है। उनकी यह भक्तिपूर्ण वार्ता सुनकर मैंने कहा-प्रेमचंद जी! असाता कर्म के आगे कभी-कभी बाह्य उपचार भी असफल हो जाते हैं।
माताजी इन छोटे-छोटे कष्टों से कभी घबराती नहीं हैं, उनका तत्त्वज्ञान, भेदविज्ञान बहुत दृढ़ है अतः आप लोग भी घबराया मत करो। आपकी माताजी को हम लोग कुशलतापूर्वक ही सदा देखते हैं और सकुशल ही ये दिल्ली तक की लम्बी यात्रा भी तय कर लेंगी। खैर! अपनी गुरुभक्ति का परिचय देकर वे श्रावकरत्न तो वापस चले गए किन्तु उनकी भावनाओं की चर्चा हम कई दिन तक करते रहे।
गुरु चरणों से शहर की सारी गंदगी वर्षा में धुल गई
९ जुलाई की रात्रि में बहुत घनघोर वर्षा हुई। पूज्य माताजी के पास ही गायत्री भवन के हॉल में सारी ब्रह्मचारिणी बहनें सोई हुई थीं। लगभग ११ बजे से २ बजे रात तक भीषण दुर्गन्ध युक्त बदबू ने हम सबको बेचैन कर दिया, किसी तरह प्राणायाम पूर्वक बैठकर हम सब लोग माला पेरते रहे पुन: कुछ देर तक बदबू शान्त होने के बाद किंचित् निद्रा आई और सुबह उठकर प्रतिक्रमण, सामायिक आदि नित्य क्रिया के पश्चात् मैंने कहा कि आज यहाँ से कहीं अन्यत्र विहार कर देना चाहिए
क्योंकि इस दुर्गन्ध में ३-४ दिन निकाल पाना बड़ा कठिन है। हम लोगों की आकुलता देखकर पूज्य माताजी कहने लगीं-‘‘बेटा! साधु को सुगंध और दुर्गन्ध दोनों में समता भाव रखना होता है।’’ दूसरी बात मुझे लगता है कि यहाँ पास में कोई बड़ा नाला है और उसमें पूरे शहर की गंदगी बहकर आई थी, उसी कारण बदबू पैâल गई थी संभवत: इस तेज बरसात में वह सारी बह गई होगी, तो अब वातावरण स्वच्छ होकर सब ठीक हो जाएगा।
थोड़ी देर बाद वहाँ के एक गुरुभक्त महानुभाव श्री हीरालाल जैन पहाड़े आए, वे कहने लगे कि माताजी! यहाँ आपके चरण पड़ते ही दुष्काल घोषित होते-होते बच गया। ४-५ वर्षों बाद पहली बार इधर ऐसी वर्षा हुई है, किसानों को इससे भारी राहत मिली है। हमारे थोड़े से बदलते रुख को देखकर वे बोले कि मालेगांव में ८० प्रतिशत मुसलमान जनता रहती है इसीलिए यहाँ का पर्यावरण दूषित रहता है किन्तु आज वह सारी गंदगी आपके आशीर्वाद से धुलकर बह गई है, अब कोई बदबू नहीं आएगी।
हमें आप लोग आशीर्वाद और शक्ति प्रदान करें कि हम जैन कालोनी के निकट अपने साधुओं के लिए ‘‘त्यागी भवन’’ बनाएँ ताकि उनकी चर्या निर्बाधरूप से चल सके। अभी हमें मजबूरी में त्यागियों को यत्र-तत्र ठहराना पड़ता है। याद रहे, मालेगांव में लगभग १०० घर दिगम्बर जैन धर्मावलम्बियों के हैं, जो आस-पास के गाँवों से यहाँ आकर बसे हैं और सबके सहयोग से वहाँ एक विशाल दिगम्बर जैन मंदिर एवं जैन धर्मशाला का निर्माण हुआ है।
इसके पश्चात् चाँदवड़ (महाराष्ट्र) जाकर २६ जुलाई १९९६ को वापस मांगीतुंगी पहुँचे तथा २९ जुलाई को वहाँ वर्षायोग स्थापन हुआ। पुन:११ नवम्बर को चातुर्मास सम्पन्न करके १५ नवम्बर १९९६ (कार्तिक शु. ५) को दिल्ली की ओर मंगल विहार हुआ।
समाजों की समयसूचकता
राजस्थान में ‘‘रठोड़ा’’ नामक एक छोटा सा गाँव है, जहाँ जैन समाज अत्यन्त श्रद्धालु गुरुभक्त है। हमें पहले ही ज्ञात हो गया था कि इस गाँव में ६-७ श्रावक मुनि बन चुके हैं। आचार्य श्री धर्मसागर महाराज के संघ में मुनि श्री भूपेन्द्र सागर एवं योगेन्द्र सागर महाराज समाधिस्थ हो चुके हैं उनके गृहस्थावस्था के भाई-बन्धुओं ने भी आकर पूज्य माताजी से रठोड़ा चलने का खूब आग्रह किया। छोटा गांव होने के नाते गलियाँ थोड़ी गंदी भी थीं लेकिन सबकी पवित्र भावना देखते हुए संघ को वहाँ जाना पड़ा।
आगे के अपने निश्चित कार्यक्रम के अनुसार २८ जनवरी १९९७ को वहाँ आहार हुआ और मध्यान्हकालीन प्रवचन के पश्चात् शाम ३.३० बजे वहाँ से विहार हो गया। काफी दूर तक गांव के सैकड़ों नर-नारी भेजने आए, रास्ते में चलते हुए हमने कुछ लोगों से पूछा कि ‘‘आप लोगों ने आज पूरे दिन हमारे प्रवास, जुलूस आदि किसी भी आयोजन में अपने गाँव के साधुओं की एक बार भी जयकार नहीं बोली, क्या आप लोगों की उनके प्रति श्रद्धा नहीं है?’’ यह सुनकर रठोड़ा समाज के प्रमुख लोग कहने लगे कि ‘‘माताजी! हमारी नीति तो यह है कि जिस दूल्हे की बारात निकलती हो, उसके ही गीत गाने चाहिए।
जो साधु हमारे गांव में आते हैं, हम उनकी जयकार करते हैं। हमारे गांव के साधुओं में हमारी पूरी श्रद्धा है तथा आप जैसे लोगों के मुखारविन्द से हम अपने साधुओं की प्रशंसा सुनकर असीम प्रसन्नता का अनुभव कर लेते हैं और हम यह सोचते हैं कि हमारे जय बोलने की अपेक्षा दूसरों से सुनना ज्यादा अच्छा है क्योंकि अपने ही मुँह मियां मिट्ठू बनने में क्या मजेदारी है?’’ इसी प्रकार का वातावरण आचार्य शांतिसागर महाराज छाणी वालों की जन्मभूमि छाणी (राजस्थान) में भी देखने को मिला।
गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र आदि प्रान्त के अनेक ऐसे गाँव के श्रावकों की समयसूचकता वास्तव में सभी के लिए अनुकरणीय आदर्श के रूप में प्रतीत हुई। इस प्रवास के मध्य एक स्थान ऐसा भी मिला, जहाँ पर ज्ञात हुआ कि जो भी साधु यहाँ आते हैं, उनसे इस गांव के जन्में साधु की जय बोलने की जबर्दस्ती कुछ लोग करते हैं लेकिन यह वास्तविक गुरुभक्ति का नमूना नहीं है क्योंकि यह विषय साधुओं की व्यक्तिगत श्रद्धा का है, समाज को इसमें उन्हें बाध्य नहीं करना चाहिए।
हाँ! चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज की जय प्रत्येक धर्म सभाओं में अवश्य बोलना चाहिए क्योंकि उनकी ही कृपा से इस बीसवीं शताब्दी में दिगम्बर सन्तों के निर्बाध रूप से दर्शन प्राप्त हो रहे हैं। मेरी दृष्टि से तो प्रत्येक जिनमंदिरों के अंदर और बाहर पेन्टर से निम्न पंक्तियाँ लिखवा देनी चाहिए, जो बच्चे-बच्चे के मुँह से जुलूस आदि के नारे के रूप में उच्चारण भी कराना चाहिए-
१. गली-गली में गूंजे नाद-ऋषभदेव जय आदिनाथ।।
२. जैनं जयतु शासनम्-वन्दे शान्तिसागरम्।।
साधु के मान ही नहीं तो अपमान कैसा?
धर्मप्राण भारतदेश की इस वसुधा पर सन्तों के प्रति आस्था लगभग सभी सम्प्रदायों में आज भी चरमसीमा पर देखी जाती है और दिगम्बर जैन साधु-साध्वियों के कठोर त्याग के प्रति तो प्रत्येक प्राणी नतमस्तक होकर गौरव का अनुभव करता है, फिर भी कभी-कभी पदविहार करते हुए हम साधुओं को कुछ विपरीत अनुभव भी आते हैं।
दिनाँक २५ जुलाई १९९६ की बात है, जब संघ मांगीतुंगी में चातुर्मास स्थापित करने हेतु चाँदवड़ (महाराष्ट्र) से मांगीतुंगी जा रहा था, बीच में तहाराबाद से पूर्व करंजाड नाम का एक छोटा सा गांव था। वहाँ स्कूल में व्यवस्थापकों ने आहार की व्यवस्था की थी। हम लोग जब वहाँ पहुँचे, तो संघस्थ बहनों ने चौके के बाहर बरामदे में ही हमारे बैठने का इंतजाम किया था, पूछने पर ज्ञात हुआ कि यहाँ के लोग अन्य कमरे नहीं देंगे।
आमने-सामने वहाँ दो स्कूल थे, उनमें कमरे भी खुले हुए साफ दिख रहे थे किन्तु स्कूल के लोगों की अनुमति बिना संघ का कोई व्यक्ति उनमें घुसा नहीं और जैसे-तैसे तकलीफ सहन करके शुद्धि, आहार आदि सभी कार्य किये गये। हम लोग आपस में विचार करने लगे कि देखो। बेचारे अज्ञानी जीवों की कैसी स्थिति है, जो साधुचर्या की महत्ता ही नहीं जानते हैं।
खैर! साधुओं को तो हर तरह के प्रसंगों में समता भाव रखकर खुशी-खुशी उन्हें झेलना होता है। हमने कहा कि एक ही दिन में दो तरह के अनुभव आ गये। कल शाम को यहाँ से ९ किमी. पहले बनौली नामक ग्राम में हम एक अजैन व्यक्ति के यहाँ रात्रि विश्राम करके आज सुबह वहाँ से निकलने लगे, तो पास के घर वाले एक सज्जन ने पूज्य माताजी के चरणस्पर्श करते हुए कहा कि ‘‘मेरे भाग्य में आपका सत्संग नहीं था
इसीलिए आप मेरे यहाँ नहीं ठहरीं, जबकि मैंने कल बड़े उत्साहपूर्वक अपना मकान खाली कर दिया था कि माताजी यहाँ ठहरेंगी और हमें उनसे धर्मलाभ का अवसर प्राप्त होगा।’’ इस विषय में हमें कुछ मालूम भी नहीं था, पिछले गाँव सटाणा के श्रावकों ने जहाँ बताया, हम वहीं रुक गए।
उन महानुभाव की आँखों में प्रेम के अश्रु आ गये तो माताजी ने उन्हें सांत्वना देते हुए खूब-खूब आशीर्वाद प्रदान किया और विहार करके आगे करंजाड आकर इससे ठीक विपरीत स्थिति देखी, तो हँसी भी आई और उन जीवों पर करुणा भी जागृत हुई। मध्यान्ह की सामायिक के बाद माताजी ने मुझे एवं मोतीसागर जी को कहा कि ‘‘स्कूल के अध्यापक एवं बच्चों को प्रवचन सुनाना है।’’
तब मैंने अवश्य कहा कि ‘‘माताजी! इतनी उदारता तो नहीं करनी चाहिए जहाँ साधुओं के प्रति श्रद्धा के भाव नहीं हैं, वहाँ फालतू प्रवचन करने से क्या लाभ?’’ किन्तु माताजी कहने लगीं-नहीं बेटा! ऐसा नहीं सोचा जाता है, धर्म से अनभिज्ञ इन अज्ञानी प्राणियों को सम्बोधन प्रदान करना साधुओं का कर्तव्य है। इन प्रसंगों में हमें अपना अपमान नहीं मानना चाहिए क्योंकि मेरे गुरु महाराज आचार्य शांतिसागर एवं वीरसागर महाराज कहा करते थे कि साधु के जब मान ही नहीं होता, तो उनका अपमान कैसे हो सकता है? पुनः हम लोगों ने वहाँ प्रवचन किया, प्रश्नमंच करके बच्चों को १० पुरस्कार भी प्रदान किये गये।
यह सब देखकर स्कूल के अध्यापक एवं बच्चे सभी जैन सन्तों की चर्या से अत्यन्त प्रभावित हुए और कई लोगों ने शराब, अण्डा, माँस, बीड़ी, सिगरेट, जुआ आदि व्यसनों का त्याग किया, जिससे हम लोगों को भी बड़ी प्रसन्नता हुई। वास्तव में जैन साधुचर्या की यह विचित्रता ही है।
अनेक शहर एवं नगरों में जैन श्रावक बेचारे तरसते रहते हैं कि महाराज या माताजी के चरण किसी तरह मेरे घर में पड़ जाएँ किन्तु आहार का चौका या चैत्यालय हुए बिना अथवा किसी विशेष प्रसंग के अतिरिक्त साधु उनके यहाँ जाते नहीं हैं किन्तु विहार करते हुए मार्ग में स्कूल में तथा पटेल, पाटील, वैष्णव मकान-मंदिर आदि स्थानों पर हम लोग अपने आप ठहरते हैं क्योंकि १५ से २५ किमी. से अधिक एक दिन में पदविहार नहीं हो पाता है।
संघर्ष विजय में परिवर्तित हो गये
पूज्य ज्ञानमती माताजी ने अपने गुरु की सूक्ति का सदैव पालन करके संघर्षों पर विजय प्राप्त की है कि ‘‘सुई का काम करो कैंची का नहीं’’ अर्थात् सामाजिक संगठन पर बल देकर सबको एकता के सूत्र में बाँधना चाहिए, विघटन का कार्य कभी नहीं करना चाहिए। मंगल विहारों के मध्य यूँ तो अनेक स्थानों पर कई संघर्ष समाप्त होकर सामाजिक एकता की स्थापना हुई है किन्तु कुछ स्थान तो इस बात के अमिट संस्मरण ही बनकर रह गए। जैसे-
१. उज्जैन (म.प्र.) की दिगम्बर जैन समाज में कई वर्षों से आपसी फूट थी। जिसके कारण मुनिसंघ व्यवस्था कमेटी के मंच पर भी कभी उन विरोधियों को बिठाया नहीं जाता था। महावीर जयंती के वार्षिक कार्यक्रम भी दोनों ग्रुप अलग-अलग मनाकर दो रथयात्रा निकालते थे। ये सब बातें माताजी को ज्ञात हुई तो वहाँ ६ मार्च १९९६ को जब माताजी का ४३वाँ क्षुल्लिका दीक्षा दिवस मनाया जा रहा था एवं माताजी की प्रेरणा से वहाँ जयसिंहपुरा में ‘‘भगवान् महावीर तपोवन’’ का शिलान्यास हो रहा था,
उसी मंगलबेला में माताजी ने दोनों पक्षों को निष्पक्षरूप से समझाकर क्षणमात्र में सभा के अंदर परस्पर में क्षमायाचना करवा कर उन्हें गले मिलवा दिया और सभा में दोनों पक्षों की ओर से घोषणा कर दी गई कि ‘‘आज से हम सब एकजुट होकर धर्मप्रभावना के कार्य करेंगे, महावीर जयंती में एक ही रथ निकलेगा, उस दिन सबका सामूहिक भोज होगा तथा उज्जैन में पधारने वाले सभी साधु-साध्वियों का सदैव सम्मान होगा इत्यादि।’’
२. हम लोग तेज रफ्तार से मांगीतुंगी की ओर बढ़े जा रहे थे कि १६ अप्रैल १९९६ को नरडाणा (महाराष्ट्र) के निकट एक लोहा फैक्ट्री में रात्रि विश्राम था। १७ अप्रैल को प्रातः विहार करके सोनगिर पहुँचना था तभी प्रातः ५ बजे मांगीतुंगी से ब्र. गणेशीलाल जी (महामंत्री क्षेत्र कमेटी), डा. पन्नालाल पापड़ीवाल (महामंत्री-मांगीतुंगी पंचकल्याणक समिति), रविकुमार जैन (ट्रस्टी) आदि कई लोगों ने आकर मांगीतुंगी में कल १६ तारीख को घटी अघटित घटना के बारे में बताते हुए काफी चिन्ता एवं रोष व्यक्त किया। उनकी संक्षिप्त रिपोर्ट सुनकर पूज्य माताजी के मुँह से तत्काल निकल पड़ा कि
‘‘कोई चिन्ता मत करो, संकट आया था, टल गया, अब तुम्हारा कार्यक्रम बिल्कुल निर्विघ्न शानदार सम्पन्न होगा। यदि किसी ने इसमें विघ्न डालने का जरा भी दुष्प्रयास किया, तो वह सफल नहीं हो पायेगा।
तुम लोग अपने कार्य में लग जाओ और दूसरी ओर कोई लक्ष्य मत दो।’’ यह गुरुवाणी सुनकर सभी कार्यकत्र्ता प्रसन्न होकर अपने-अपने कार्यों में संलग्न होकर प्रतिष्ठा के कार्य में लग गये। २-४ दिन बाद सारे विघ्न स्वयमेव शान्त हो गये और माताजी के संघ का मांगीतुंगी में पदार्पण, ग्यारह सौ पचास प्रतिमाओं का पंचकल्याणक एवं मुनिसुव्रत भगवान् की २१ फुट उत्तुंग प्रतिमा का महामस्तकाभिषेक आदि समस्त समारोह आशातीत सफलता के साथ सम्पन्न हुए।
वहाँ उपस्थित १ लाख जनता को देखकर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री मनोहर जी जोशी भी भाषण में कहने लगे कि मैंने आज तक महाराष्ट्र की किसी राजनीतिक सभा में भी इतनी अपार भीड़ नहीं देखी।
३. मांगीतुंगी से हम सभी वापस दिल्ली की ओर अत्यन्त शीघ्रता के साथ विहार कर रहे थे, रास्ते में २७ फरवरी को राजस्थान का एक नगर ‘‘केकड़ी’’ आया, वहाँ प्रात: ९ बजे पहुँचे और मध्यान्ह ३ बजे विहार हो गया किन्तु इन छह घंटों में ही केकड़ी की काया पलट हो गई।
वहाँ अत्यन्त प्राचीन प्रतिमाओं सहित चार जिनमंदिरों के दर्शन किये और एक नवनिर्मित श्री आदिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर में जगह देखकर माताजी ने सम्मेदशिखर की रचना निर्माण की बात कही, तो तुरंत दानदातारों की इच्छा साकार हो गई और पूरा प्रारूप १५ मिनट में तैयार होकर आर्थिक लाभ से भी परिपूर्ण हो गया। मध्यान्ह में १ बजे से उसी मंदिर के विशाल हॉल में प्रवचन सभा चल रही थी, इसी मध्य १-२ महानुभावों ने क्षुल्लक मोतीसागर जी को बताया कि यहाँ कई वर्षों से समाज में काफी आपसी संघर्ष चल रहा है, इस मंदिर की मूर्ति पर कोर्टकेस चल रहा है, हम लोग इस फूट के कारण परेशान हैं। पूज्य माताजी यदि हमारे इस झगड़े को मैत्री में परिवर्तित करा दें, तो हम उनके बड़े आभारी होंगे।
मेरे प्रवचन के बीच में ही महाराज जी ने पूज्य माताजी को सारी बात बताई, तभी ज्ञात हुआ कि जो सज्जन इस मंदिर में कभी पैर भी नहीं रखते थे, वे आज आप लोगों का प्रवचन सुनने यहाँ आए हैं और उन्होंने सम्मेदशिखर की नवनिर्माण योजना में आज पहला नाम अपना लिखाया है। किसी व्यक्ति ने आकर यह भी बताया कि कई सन्तों एवं महानुभावों ने अनेक बार इस विषय में पुरुषार्थ किये हैं लेकिन आज तक सफलता नहीं मिल सकी है। पूज्य माताजी ने संक्षेप में ही स्थिति का परीक्षण किया और सभा में उन दोनों पार्टियों को सम्बोधन प्रदान किया। सारी समाज आश्चर्यचकित हो देख रही थी कि कौन सा जादू हो गया है!
संयोगवश उस लघु सम्बोधन से ही दोनों प्रतिद्वन्द्वी आपस में क्षमायाचना करके सबके सामने गले मिल गये तभा सभा में घोषणा कर दी कि आज से हमारा समस्त वैर विरोध समाप्त हो गया तथा हम आगे सभी कार्यों में पूरा सहयोग प्रदान करेंगे। सभी नर-नारियों के नेत्रों में हर्ष के अश्रु थे एवं धन्य-धन्य, जय-जय की ध्वनि सबके मुख से निकल रही थी।
बेचारे जोर-जोर से कहने लगे कि ऐसी माता यहाँ फिर-फिर आवें, हे ज्ञानमती माताजी! तुम्हारी आयु में मेरे जीवन के क्षण भी लग जाएँ, तुम्हें ऐसी लम्बी उमर मिले। यहाँ से विहार करने के बाद भागचन्द जैन एडवोकेट रास्ते में कहने लगे कि आज यहाँ जो आश्चर्यजनक कार्य ६ घण्टे में हुए हैं, वे छह माह में भी संभव नहीं थे। माताजी! हमारे केकड़ी के लोग आज अतीव प्रसन्न हैं, आपने जो सामाजिक एकता हमारे यहाँ स्थापित करवा दी है, उस उपकार को हम लोग कभी भूल नहीं सकते हैं।
यहाँ प्रसंगोपात्त मुझे ध्यान आ गया कि ३-४ दिन पहले केकड़ी से भागचन्द जी वकील साहब, मोहनलाल जैन कटारिया आदि कुछ महानुभाव शाहपुर में माताजी को आमंत्रण देने आए थे पुनः विहार में मेरे साथ पैदल चलते हुए वकील साहब ने मुझे कहा-‘‘माताजी! कल सोते हुए पिछली रात्रि में मैंने स्वप्न देखा कि एक बड़े से हाथी के ऊपर एक छोटा हाथी चढ़ा हुआ है एवं दोनों प्रेमपूर्वक आलिंगन कर रहे हैं। मेरे इस स्वप्न का क्या फल हो सकता है?
कृपया आप बताने का कष्ट करें कि यह मेरे शुभ का प्रतीक है या अशुभ का? मैंने कहा कि देखो! न तो मुझे निमित्त ज्ञान है, न ही ज्योतिषज्ञान, किन्तु आपका स्वप्न सुनकर जरुर लगता है कि यह किसी न किसी मंगल मिलन का प्रतीक है। वकील साहब बोले कि पूज्य ज्ञानमती माताजी जैसी महान् साध्वी के दर्शन से ज्यादा और मंगल मिलन क्या होगा? लेकिन आज जब अनहोना सामाजिक संगठन का कार्य हुआ, तब मैंने वकील साहब से कहा कि आपका स्वप्न वास्तव में तो आज साकार हुआ है। केकड़ी में निवाई (राज.) के कई लोग पूज्य माताजी को निवाई चलने का आग्रह करने हेतु आए हुए थे,
यह सारा चमत्कार प्रत्यक्ष अपनी आँखों से देखकर लालचन्द जी, भागचन्द जी आदि महानुभाव विनम्र निवेदन करने लगे कि माताजी! हमारे निवाई में पिछले वर्ष से काफी सामाजिक फूट हो गई है, हम लोग उससे बहुत दुःखी हैं। हमें विश्वास है कि आपके चरण पड़ने से वहाँ भी अपूर्व शांति की स्थापना होगी अतः आप दया करके वहाँ जरुर चलें।
उनके अत्यन्त आग्रह के बावजूद भी चूँकि माधोराजपुरा, जयपुर और दिल्ली पदार्पण की तारीखें पहले ही निश्चित हो चुकी थीं अतः निवाई वालों को निराश होना पड़ा पुनः वहाँ के लालचन्द जी हमारे साथ में आमेर तक बराबर पैदल चलते रहे और वापस जाते समय उनकी आँखों से धर्मप्रेम की अविरल अश्रुधारा निकल रही थी, जो उनकी गुरुभक्ति का प्रतीक थी।
कादेड़ा ग्राम शायद इसी इन्तजार में था
२५ फरवरी १९९७ की शाम को हम लोग बच्छखेड़ा से कादेड़ा पहुँचे, वहाँ मेनरोड पर ही बसे गाँव में लालमिर्चों का बाजार होने के कारण भीषण तीक्ष्णता थी। कु. बीना शास्त्री वहाँ का सर्वे करके जब वापस आई तो खूब छींक रही थी, उसने बताया कि गाँव में तो धाँस के कारण आप लोग ठहर ही नहीं सकती हैं इसीलिए मैं गाँव के पहले स्वूस्कूल रात्रि विश्राम की व्यवस्था करके आई हूँ।
हम सब वहीं जाकर ठहरे पुनः २६ता. को प्रातः आगे ‘‘खबास’’ गाँव के लिए विहार करते समय सड़क पर ही बने जिनमंदिर के दर्शन किए, वहाँ पूज्य माताजी का मंगल प्रवचन भी हुआ किन्तु वहाँ विचित्र स्थिति देखने को मिली कि-मंदिर में प्राचीन सुन्दर संगमरमर की कलात्मक वेदी बनी हुई है लेकिन बड़ी-बड़ी पद्मासन मूर्तियाँ बाहर रखी हुई हैं और वेदी बिल्कुल खाली पड़ी है। पूछने पर ज्ञात हुआ कि ३० साल से वेदी बनी हुई है किन्तु वेदी प्रतिष्ठा, शुद्धि आदि नहीं हो पा रही है।
यहाँ जैन समाज के मात्र ८-१० घर हैं, वे सब कार्य में ढीले हैं, उदासीन हैं, इसीलिए आज तक यह कार्य नहीं हो पाया। क्षुल्लक मोतीसागर जी ने रास्ते में भी उन लोगों को काफी प्रेरणा दी कि वेदी में भगवान् शीघ्रातिशीघ्र विराजमान करो, इससे समाज की उन्नति होगी। उनके द्वारा ठीक से स्वीकार न करने पर ‘‘केकड़ी’’ के श्रावकों के ऊपर इस कार्य का भार डालते हुए कहा गया
कि आप साधारण आयोजन करके २-४ हजार रुपया खर्च कर वेदी प्रतिष्ठा करा लें, हम हस्तिनापुर से विद्वान् भेजकर यह सारा काम बिल्कुल संक्षेप में करा देंगे पुन: घीसालाल जैन केकड़ी ने आश्वासन दिया और पूज्य माताजी ने तुरंत १० मार्च से १३ मार्च १९९७ का मुहूर्त निश्चित करके सभा में घोषणा कर दी। निश्चित मुहूर्त के अनुसार पंडित प्रवीणचंद शास्त्री-जम्बूद्वीप, हस्तिनापुर को वहाँ भेजा गया, वेदी प्रतिष्ठापूर्वक भगवान् वेदी में विराजमान हो गये।
सभी ने आनन्द विभोर होकर खूब जयजयकार किया पुनः कुछ महानुभाव आकर जयपुर में हम लोगों से बताने लगे कि माताजी! ५-७ हजार की भीड़ कादेड़ा में हुई तथा कई लाख रुपये की बोलियाँ हो गर्इं, बहुत अच्छा समारोह आपके आशीर्वाद से सम्पन्न हुआ, आगे भी आप हम सभी पर ऐसी ही कृपादृष्टि रखिएगा।
ऐसी अनहोनी घटनाएँ वास्तव में अपूर्व संयोग या होनहार को ही सूचित करती हैं अन्यथा जो कार्य ३० वर्ष से रुका पड़ा था, वह ज्ञानमती माताजी के क्षणिक पदार्पण से पूर्ण हो जाए, प्रबल निमित्त के अतिरिक्त इसे और कुछ नहीं कहा जा सकता है।
काल के अनुसार साधुचर्या पर चिन्तन होना चाहिए
हम लोग गुजरात के एक शहर ‘‘ईडर’’ में गए। वहाँ अत्यन्त भक्तिमान समाज है तथा मंदिरों में काफी प्राचीन प्रतिमाएँ हैं। यहाँ एक छोटी सी पहाड़ी पर दिगम्बर जैन मंदिर है, उसे पूज्य माताजी की प्रेरणा से ‘‘ऋषभदेवगिरि’’ नाम प्रदान किया गया है। इस ईडर शहर में आहारचर्या के समय मैं ३-४ चौके से वापस लौटी पुनः प्रकाशचन्द जैन नाम के श्रावक के चौके में आहार हुआ। कारण यह था कि चौके में स्टोव पर खाना बनाया गया था
और आहार के समय स्टोव बाहर कर दिये जाने पर भी मिट्टी के तेल (घासलेट, वैरोसिन) की काफी दुर्गन्ध थी। मुझे समझ में नहीं आया कि आहार करूँ या न करूँ? क्योंकि अभी तक अपनी संंघ परम्परा (आचार्य शांतिसागर परम्परा) में गैस या स्टोव का बना भोजन साधुओं के आहार में खुला नहीं है। इसीलिए मैं उन घरों से लौट आई एवं प्रशस्त चौके में आहार करने के बाद मैंने पूज्य माताजी से निवेदन किया कि ऐसे अवसर पर क्या करना चाहिए? उन्होंने तो मुझे कहा कि तुमने ठीक किया।
चूँकि इस विषय पर अभी कोई सामूहिक निर्णय नहीं हुआ है इसीलिए पुरानी परम्परानुसार लकड़ी या कोयले की अग्नि पर बना भोजन ही अपने को लेना है। फिर भी मेरा कहना यही है कि इन सामयिक समस्याओं पर साधुओं को एकजुट होकर मीटिंग करना चाहिए और कुछ तथ्यों की सामूहिक उद्घोषणा होनी चाहिए।
जैसे आज से ३२ वर्ष पूर्व दिसम्बर १९७४ में परमपूज्य आचार्य श्री धर्मसागर महाराज ने मेरठ शहर की रेलवे रोड स्थित धर्मशाला में बैठकर ४० साधु-साध्वियों के बीच में कुएँ के जल से संबंधित निर्णय लिया था कि बोरिंग एवं हैण्डपम्प का जल कुएँ के समान ही शुद्ध है क्योंकि आजकल गाँवों के कुएँ सूख गए हैं, उनका पानी सड़ रहा है तथा घरोंं की छोटी चक्की का आटा चौके में प्रयोग किया जा सकता है .इत्यादि ।
पुन: फरवरी १९७५ में हस्तिनापुर में आचार्यश्री ने चौके के चंदोवे के विषय में निर्णय दिया कि लिन्टर वाली साफ-सुथरी छतों में बिना चंदोवे के भी आहार हो सकता है और कड़ियों की घास-फूस वाली छत में चंदोवा लगाना आवश्यक है। इन्हीं निर्णयों के अनुसार उस संघ परम्परा में मध्यम स्तरीय क्रियाओं का परिपालन चल रहा है। संभवतः इन्हीं जैसी तमाम समस्याओं के समाधान हेतु ही मूलाचार में आचार्य श्री कुन्द्कुंम्ददेव ने पाँच-पाँच वर्ष में साधुआ को एक जगह एकत्रित होकर ‘‘युगप्रतिक्रमण’’ करने का निर्देश दिया है लेकिन वर्तमान में वह परम्परा लुप्त ही हो गई।
सन् १९८७ में हस्तिनापुर में पूज्य ज्ञानमती माताजी ने आचार्य विमलसागर महाराज के साथ में उस युगप्रतिक्रमण का प्रारंभीकरण किया और उसके बाद वे अपने संघ में ही ५-५ वर्ष के बाद यह प्रतिक्रमण किया करती हैं। क्या ही अच्छा हो, यदि १००० की संख्या में विद्यमान आचार्य, उपाध्याय, मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक-क्षुल्लिका आदि सभी किसी तीर्थ या शहर में एकत्रित होकर उदार भाव से एक-दूसरे के अनुभव सुनें एवं सब मिलकर कुछ न कुछ समाधान ढूँढकर समाज में एक सदृश प्रवृत्ति का दिग्दर्शन करायें।
स्वप्न में सरस्वती की बात साकार हो गई
पूज्य गणिनी माताजी ने ८ अक्टूबर १९९५ को हस्तिनापुर में जैन सिद्धान्त के सर्वोच्च सूत्रग्रंथ षट्खण्डागम की ‘‘सिद्धान्तचिन्तामणि’’ नाम की संस्कृत टीका लेखन का दुरूह कार्य शुरू किया था पुनः २७ नवम्बर को मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र के लिए हस्तिनापुर से विहार कर दिया, तब तक केवल २५-३० पृष्ठों का लेखन हुआ था, इस बारे में उन्हें एक दिन चिन्ता हो गई कि मैंने इतना लम्बा विहार सोच तो लिया है
किन्तु मेरा यह लेखन का कार्य रास्ते में तो हो नहीं सकता है, कैसे और कब यह टीका पूरी होगी? संयोगवश दूसरे दिन रात्रि में माताजी ने स्वप्न देखा कि ‘‘सरस्वती माताजी साक्षात् प्रगट होकर मुझसे कह रही हैं-ज्ञानमती जी! तुम चिन्ता मत करो, तुम्हारा लेखन बराबर चलता रहेगा, रास्ते में तुम्हें कोई बाधा नहीं होगी।’’
माताजी ने सुबह मुझे बताते हुए कहा कि ‘‘जीवन में पहली बार मेरी सरस्वती माता से वार्ता हुई है। पता नहीं कितनी सफलता मुझे मिलेगी!’’ आश्चर्य ही नहीं, शायद यह अतिशयोक्ति ही है कि इस यात्रा में भी माताजी का लेखन कार्य बराबर चलता रहा और ७ मार्च १९९७ को कुल ४६३ दिन में १००० (एक हजार) पृष्ठों में प्रथमखण्ड की छहों पुस्तकों की संस्कृत टीका का ऐतिहासिक लेखन कार्य पूर्ण किया एवं द्वितीय खण्ड का कार्य प्रारंभ किया।
इस मध्य मांगीतुंगी से विहार करते समय भी ठीक उसी प्रकार का स्वप्न हुआ कि सरस्वती माता कह रही हैं-देखो ज्ञानमती जी! मैंने तुमसे कहा था न कि तुम्हारा काम नहीं रुकेगा। अब तो तुम खुश हो? सुबह होते ही फिर पूज्य माताजी कहने लगीं-चन्दनामती! देखो, सरस्वती माता की कही हुई सारी बातें कैसी साकार हो रही हैं। मैंने तो जीवन में पहली बार ही इस प्रकार स्वप्नों में सरस्वती देवी से साक्षात्कार किया है। आज के क्षणों में मुझे लगता है।
कि जैसे पुष्पदन्त-भूतबली मुनियों के समक्ष मंत्र सिद्ध से देवियाँ प्रगट हो गई थीं और उनके द्वारा षट्खण्डागम सूत्रग्रंथ का लेखन पूर्ण कर दिये जाने पर देवताओं ने आकर उनकी पूजा की थी, उसी प्रकार यदि शारदा माता की दीर्घकाल से सेवा कर रहीं अर्थात् साहित्य सृजन कर रहीं ज्ञानमती माताजी से प्रसन्न होकर चव्रेश्वरी आदि कोई व्यन्तर देवियाँ स्वप्न में उन्हें समाधान देकर सन्तुष्ट कर दें, तो शायद कोई अतिशयोक्ति वाली बात नहीं है।
दिल दहल गया वह दृश्य देखकर
१९ जनवरी १९९७ को हम ‘‘हाथरवा’’ से ‘‘बड़ाली’’ नामक गाँव में पहुचे। वहाँ स्वूस्कूल ठहरे, एक दिगम्बर जैन डॉक्टर महानुभाव के घर में चौके लगे, वहाँ आहार के पश्चात् ‘‘खेडब्रह्मा’’ की ओर विहार करते समय कुछ लोगों ने बताया कि यहाँ अभी कुछ माह पूर्व भूगर्भ से २७ जिनप्रतिमाएँ निकली थीं, उनमें से लगभग १५-१६ प्रतिमाएँ तो ईडर के दिगम्बर जैन श्रावकों ने ले जाकर वहाँ मंदिर में विराजमान की हैं, जिनके दर्शन भी हम लोग करके आए हैं, इसके अतिरिक्त २६ प्रतिमाएँ यहाँ श्वेताम्बर जैन मंदिर में विराजमान हैं।
हम उन्हें देखने गाँव के भीतर गए, तो उस दर्जी के घर को देखा जहाँ बाथरूम बनाने के लिए खुदाई करते हुए अचानक वे सारी प्रतिमाएँ भूगर्भ से निकल पड़ीं। बड़ाली में चूँकि दिगम्बर जैन समाज है नहीं, श्वेताम्बरों की वहाँ पर बहुलता है इसीलिए दिगम्बर समाज को वे सारी मूर्तियाँ नहीं मिल सकीं। हम जब उस श्वेताम्बर मंदिर में उन मूर्तियों की स्थिति देखने गये तो सचमुच दिल दहल गया। उन लोगों ने मूर्तियों को अपने कब्जे में ही नहीं किया बल्कि सभी प्रतिमाओं के लिंग काट दिए।
वैसे यह अत्यन्त विचारणीय जघन्य कार्य है। नई मूर्तियों का निर्माण अपने-अपने मतानुसार कोई भी करा ले, यह तो सहज सुलभ है किन्तु प्राकृतिक दिगम्बर प्राचीन प्रतिमाओं की दिगम्बरत्व मुद्रा काटने का दुःसाहस भला अगले भव में क्या फल प्रदान करेगा? थोड़ा सोचें एवं पाप भीरु बनें कि यदि हम किसी साधारण मनुष्य, जो अपना शत्रु है, उसके भी कोई अंग प्रत्यंग को काट दें तो एक नैतिक अपराध माना जाता है, तो तीन लोक के नाथ भगवान की प्रतिमाओं पर ऐसे प्रहार करना अपराध है या नहीं? स्वयं चिन्तन करें।
साधु बने हैं तो सहना ही पड़ेगा
कई बार आहार के पश्चात् महिलाओं को एक गीत गाते सुना जाता है-
‘‘माताजी दीक्षा दे दो, चलूँगी थारे साथ।
मैं लड्डू खाने वाली, मुझे रोटी लगे उदास।
रोटी में गुजर करूँगी, चलूँगी थारे साथ।।’’
यह गीत सुनकर कभी मैं हँसा करती थी और सोचा करती थी कि ‘‘श्रावक लोग तो बेचारे भक्तिवश चौके में इतनी सारे चीजें बनाते हैं कि हम साधुजन उन्हें देखकर ही घबड़ा जाते हैं और अपनी चर्या-स्वाध्याय-सामायिक आदि क्रियाओं की निष्प्रमाद चर्या निर्वाह हेतु कभी-कभी हमें उन चीजों का त्याग भी करना पड़ता है, फिर ये महिलाएँ गीत में ऐसा क्यों बोलती हैं? किन्तु वास्तव में नये गाँव, नये प्रदेशों में पदविहार करने पर आहारसंबंधी तमाम अनुभव आते हैं, तो उनकी पंक्तियाँ सार्थक प्रतीत होने लगती हैं।’’
हम राजस्थान के एक गाँव झालरापाटन में थे, वहाँ अनेक चौकों में जहाँ-जहाँ जिसकी विधि मिली, वहाँ गये। मेरा जहाँ पड़गाहन हुआ, वहाँ आहार की सारी वस्तुओं में नमक की जगह फिटकरी मिली हुई थी। संघस्थ ब्रह्मचारिणी बहनें पास में बैठकर शोधन कर-करके लोगों से आहार दिलवा रही थीं। मुझे दाल, सब्जी कुछ अच्छी नहीं लग रही थी किन्तु साधुचर्या की कठिनता समझ-समझ कर लगभग प्रतिदिन की भाँति ही आहार ले लिया, कोई कुछ समझ नहीं पाया कि कुछ गड़बड़ है।
यहाँ तक कि फलों में भी नमक समझकर फिटकरी मिला-मिला कर देते रहे, संकेत न करने की आदत के कारण मैंने थोड़े-बहुत फल भी ले लिए पुन: आहार के बाद जब मैंने स्थान पर आकर पूज्य माताजी से प्रत्याख्यान ग्रहण करते समय बताया कि आहार में फिटकरी लेने के कारण जी मिचली हो रही है। माताजी ने थोड़ा अमृतधारा और घी की मालिश करवाई और कहने लगीं कि- ‘‘बेटा! साधु बने हो, तो यह सब तो सहना ही पड़ेगा वर्ना कर्म निर्जरा कैसे होगी?’’
ऐसे अनुभव कई जगह प्रायः आते ही रहते हैं, जब या तो नमक की जगह दूसरी चीज या नमक बहुत अधिक हो गया अथवा डाला ही नहीं गया, तो गुरुकृपा से खुशी-खुशी सहन करने में कोई कष्ट महसूस नहीं होता है और आहार में कड़वी तूमड़ी आदि के इतिहास याद करके कष्ट सहन करने की अपूर्व क्षमता भी आती है।
कु. सुवर्णा जैन की अपूर्व पदयात्रा
यूँ तो साधुओं के साथ सभी गाँव-शहरों के श्रावक-श्राविकाएँ थोड़ी-बहुत दूर तक पैदल चलकर उन्हें लेने या पहुँचाने तो जाते ही हैं किन्तु उनके साथ हजारों किमी. की पदयात्रा करने वाले लोग बहुत कम मिलते हैं, उन कम लोगों में एक युवा बालिका रही-सुवर्णा जैन, जिसने उत्तर प्रदेश के टिकैतनगर ग्राम से मांगीतुंगी आकर संघ के साथ विहार करने की हार्दिक इच्छा व्यक्त की एवं अपने पिता सुभाषचन्द्र जैन से जबर्दस्ती आज्ञा भी ले ली।
फिर तो उसने पूरे १३५ दिन की पदयात्रा हम लोगों के साथ करते हुए फूल-शूल, नदी-पहाड़, कंकड-पत्थर के मार्ग तय किये एवं अपूर्व प्रसन्नता के साथ गुरुसानिध्य का लाभ उठाया। बीच में भैया एवं पापा के आने पर भी यात्रा छोड़कर वह वापस नहीं गई अत: पूरी यात्रा के खट्टे-मीठे अनुभव प्राप्तकर उसने जीवन में प्रथम अमूल्य अवसर प्राप्त किया। ज्ञातव्य है कि कु. सुवर्णा पूज्य ज्ञानमती माताजी की गृहस्थावस्था की भतीजी हैं ।
अन्य पुण्यशालियों ने भी पदयात्रा में भाग लिया
मांगीतुंगी से दिल्ली तक के विहार में सुवर्णा के पश्चात् द्वितीय नम्बर में सर्वाधिक पैदल चलने का सौभाग्य प्राप्त किया दुर्लभ कुमार जैन-उज्जैन (म.प्र.) एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती सुदेश जैन ने, जो ५ जनवरी १९९७ से ६ मार्च तक ८१४ किमी. हम लोगों के साथ चलकर सुख-दुःख के सभी क्षणों में सदा मुस्कराते रहे।
इसी प्रकार से ब्र. गौतमचन्द्र और उनकी ध.प. सौ. ब्र. इन्दुमती जैन-औरंगाबाद (महा.), कु. साधना-मांगीतुंगी, शुभचन्द्र जैन (टिवैतनगर-उ.प्र.), कु. प्रीति जैन-चांदवड़ (महा.), कु. समता एवं नम्रता जैन-श्रीरामपुर (महा.), सौ. कान्ता जैन ध.प. हीरालाल जैन-अहमदाबाद, (गुज.), महावीर प्रसाद जैन-लावा (राज.), लालचंद जैन-निवाई (राज.), श्रीमती कुमुदनी जैन एवं उनकी सुपुत्री कु. सरिता जैन-कानपुर (उ.प्र.), श्रीमती मालती जैन एवं उनके सुपुत्र चि. पारस जैन-दिल्ली आदि ने सैकड़ों किमी. की पदयात्रा करके सत्संग का पूरा-पूरा लाभ उठाया।
इसी प्रकार मांगीतुंगी जाते समय सौ. शोभा एवं शरद पहाड़े-श्रीरामपुर (महा.), प्रमोद एवं प्रवीण जैन-मांगीतुंगी, विशाल जैन, रिंकेश, दीपेश, रूपेश-सनावद (म.प्र.), कु.ऋतु जैन-सनावद, मुनि श्री निजानंदसागर, नवयुवकमंडल-कापडणा (महा.) आदि का पदविहार में महत्वपूर्ण योगदान रहा।
सुकुमार बालिकाओं का अथक परिश्रम
इतने लम्बे विहार में सबसे बड़ी चिन्ता यह थी कि लाला महावीर प्रसाद जी संघपति के रूप में लाखों रुपया तो खर्च कर देंगे किन्तु रास्ते में संघसंचालन का दुरूह कार्य कौन करेगा? संघ में रहने वाली छोटी-छोटी कोमल ब्रह्मचारिणी कन्याएँ मात्र आत्मकल्याण और विद्या अध्ययन के लिए माताजी की छत्रछाया में रहती हैं।
उन्हें संघविहार कराने का न तो अनुभव ही था और न इतना परिश्रम करना ही उनके बस का था। पूज्य माताजी कभी मेरे स्वास्थ्य की वजह से और कभी अन्य सबकी परेशानी देखकर इस विहार से पीछे हट जाती थीं। फिर जब एक दिन मैंने कहा कि पूज्य माताजी! मेरे कारण आप इस यात्रा को मत स्थगित कीजिएगा, आपका आशीर्वाद जब प्रतिपल मुझे प्राप्त हो रहा है, तब मुझे अवश्य शक्ति मिलेगी और मुझे विश्वास है कि यात्रा निर्विघ्न सम्पन्न होगी।
पुन. कु. बीना-आस्था को भी जब मैंने बताया कि अब केवल रास्ते में संघ संचालन की समस्या है वर्ना माताजी की मांगीतुंगी विहार करने की पूरी इच्छा बन गई है, तब उन दोनों बहनों ने तुरंत आश्वासन देते हुए कहा कि माताजी! आप निश्चिंत होकर विहार कीजिए, हम लोग सारी व्यवस्था संभालकर आपकी यात्रा में सहभागी बनेंगे।
इस प्रकार दक्षिण यात्रा शुरू हुई और दोनों बहनों ने तथा ब्र. श्रीचन्द जी ने सारी संघव्यवस्था संभाली, उनके साथ-साथ कु. सारिका, कु. चन्द्रिका, कु. इन्दु, कु. अलका एवं कु. प्रीति आदि छोटी-छोटी सुकुमार बालिकाओं ने जिस अथक परिश्रम से यह यात्रा सम्पन्न कराई है, वह वास्तव में अविस्मरणीय है।
दिल्ली के भक्त श्रावक एवं हर गांव के लोग इन कन्याओं को देखकर कहने लगते कि माताजी! आपके संघ की बहनें तो प्रत्येक कार्य में निपुण हैं, स्टेज पर चाहे भजन गाने का हो या भाषण करने का, चौके में हो या अध्ययन में अथवा अध्यापन आदि सभी क्षेत्र में ये लोग पूर्ण कुशलता के साथ भाग लेती हैं। मैंने कहा कि यह सब पूज्य ज्ञानमती माताजी के आशीर्वाद का ही फल है, जो कि उनके पास रहने वाला हर व्यक्ति सर्वतोमुखी (आलराउन्डर) हो जाता है।
अपने कर्तव्य का पालन करते हुए इन बालिकाओं ने रास्ते के सारे सुख-दुःखों का अनुभव करते हुए भी सदैव मुस्कराहट का ही परिचय दिया। इसके लिए उन्हें बहुत-बहुत मंगल आशीर्वाद देते हुए मैं उनके चारित्रवृद्धि की मंगल कामना करती हूँ।
दीक्षास्थली माधोराजपुरा की आत्मीयता
आज से ५० वर्ष पूर्व राजस्थान की जिस पवित्र नगरी माधोराजपुरा में युग की प्रथम बालब्रह्मचारिणी ने आचार्य श्री वीरसागर महाराज के करकमलों से आर्यिका दीक्षा धारणकर ‘‘ज्ञानमती’’ नाम प्राप्त किया था, वहाँ के श्रावकों की अत्यधिक भक्ति के कारण माधोराजपुरा में भी संघ का पदार्पण गुरुवार,६ मार्च १९९७ को हुआ।
पूज्य माताजी भी दीक्षा के बाद पहली बार वहाँ पहुँच रही थीं इसीलिए वहाँ के उत्साह एवं प्रसन्नता का कोई ठिकाना न था। नगर प्रवेश की मंगल बेला में दिल्ली से भी संघपति जी पूरे दलबल के साथ पहुँच गये क्योंकि उन सभी लोगों को माधोराजपुरा वालों ने अतीव आग्रहपूर्वक आमंत्रण भेजा था। दीक्षा नगरी जहाँ किसी नववधू की भांति खूब सजाई गई थी, वहीं राजकीय प्राथमिक विद्यालय स्वूस्कूल प्रारंभ होने वाले जुलूस में विशेष रूप से तीन घोड़े भी मंगाए गए थे,
जो राजस्थान, अवध एवं राजधानी दिल्ली के नाम से प्रतिनिधित्व करते हुए वहाँ के नवयुवकों को बैठाकर आगे-आगे चल रहे थे। मुख्य प्रवेशद्वार पर एवं अन्य कई द्वारों पर माताजी के बड़े-बड़े फोटो (कट आउट) लगाए गए थे। तरह-तरह के झाड़-फानूस, बिजली, झालर, घंटे आदि सजाकर समस्त जाति-सम्प्रदाय के नागरिक पलख पांवड़े बिछाकर अपनी निधि का स्वागत करने को आतुर थे। गुलाब के फूलों की वृष्टि, रतन एवं सितारों को बरसाकर मकानों की छत से, अटारियों से एवं गलियों से उछल-उछलकर लोग नारे एवं जयजयकारों से नगरी को गुंजायमान कर रहे थे।
पूज्य माताजी वहाँ तीन दिन रुकीं तो हिन्दू, मुसलमान, जैन आदि सम्पूर्ण जाति-बन्धुओं ने अपनी दुकानें एवं समस्त प्रतिष्ठान बंद रखे तथा प्रवचन सभा में भाग लिया। गाँव में जितनी भी संस्थाएँ, कमेटी, सोसाइटी थीं, सभी के लगभग २०-२५ प्रतिनिधियों ने माताजी का सम्मान किया पुनः उन्हें संघपति की ओर से माताजी के लेमिनेटेड चित्र एवं कुछ साहित्य भेंट किया गया।
बेटी विदा कराने का भी मुहूर्त होता है
हम लोग ५ मार्च की शाम को फागी से विहार करके ५ किमी. दूर एक प्याऊ पर आ गये थे, जहाँ से माधोराजपुरा केवल ३ किमी.था। यद्यपि वहाँ स्थान अत्यन्त अल्प एवं खराब था किन्तु खुला एरिया होने के कारण उन लोगों ने शामियाना, टेन्ट वगैरह लगाकर रात में खूब भजन-कीर्तन किया, सैकड़ों लोग रात में वहीं सोये। ६ मार्च को प्रातः ७ बजे माधोराजपुरा के कुछ पुरुष एवं १-२ महिलाओं ने आकर माताजी को श्रीफल चढ़ाया, हम सभी को साड़ियाँ भेंट की और बोले कि ‘‘माताजी! अब आप पीहर की ओर प्रस्थान करें, हम आपको विदा कराने आए हैं।
यह सुनकर हम लोग हँसने लगे। वे पुनः बोले कि कल बुधवार था, हमारे राजस्थान में बुधवार को बेटी नहीं विदा करते हैं, इसीलिए कल शाम को हमने आपको यहाँ ठहरने का कष्ट दिया वर्ना केवल दो किमी. चलकर ही माधोराजपुरा के सुन्दर स्वूस्कूलमें आपका रात्रि विश्राम कराते।’’ पूज्य माताजी तो ऐसे व्यवहारिक प्रसंगों से पूर्ण अनभिज्ञ रही हैं अतः वे बहुत संकोच करने लगती हैं इन छोटी-छोटी मनोरंजक बातों पर।
यहाँ भी उक्त बात सुनते ही उन्होंने शरम के कारण सिर झुका लिया और उन लोगों के कमरे से बाहर जाते ही हमसे बोलीं-‘‘यह सब क्या हो रहा है? मुझे यह ड्रामा अच्छा नहीं लगता। साधुओं का भी भला कोई पीहर या ससुराल होता है।’’ हम सब शिष्यों ने किंचित् हँसी के साथ इस विषय को यह कहकर समाप्त किया कि ‘‘आपकी ज्ञानमती पर्याय की जन्मभूमि तो यह है ही, फिर पहली बार आगमन के कारण जहाँ लोगों में जोश-खरोश है, वहीं सांसारिक अपनत्व भी उमड़ पड़ने से यदि कोई स्नेहिल शब्द मुँह से निकल जाते हैं, तो इसमें शरमाने की क्या बात है?
माताजी का सुन्दर गौरवर्णी चेहरा लज्जावश लाल सुर्ख सा हो गया, आखिर अपनी दीक्षाभूमि के नागरिकों का अप्रतिम वात्सल्य देखकर हृदय में गौरव तो हुआ ही होगा कि कम से कम आज भी उन सबके मन में त्याग एवं त्यागियों के प्रति नम्र भावना है जो कि पूरे गाँव की सर्वतोमुखी उन्नति का प्रतीक है।
खैर! गुरुवार को प्रातः इस मंगल रश्म रिवाज के पश्चात् माधोराजपुरा में पूज्य माताजी का संघ सहित गुरु एवं बेटी दोनों रूप में मंगल पदार्पण हो गया। पता नहीं ये रिवाज अन्य प्रान्तों में भी हैं या नहीं कि बेटी को किस दिन विदा नहीं कराते हैं और किस दिन कराते हैं? मुझे भी इस संबंध में कोई जानकारी नहीं है।
रिश्तेदारी भी निकल गई
अभी तो माताजी को छोटी सी बात में ही संकोच उत्पन्न हो रहा था और अब बात उससे भी आगे बढ़ गई, जब नगर के अन्दर प्रवेश करते ही ऊँची ध्वनि सुनाई पड़ने लगी-‘‘मेरी बहना आई है, ज्ञान की गंगा लाई है’’ एवं ‘‘हर माँ की बेटी कैसी हो, ज्ञानमती जी जैसी हो आदि।
कुछ देर बाद ही ज्ञात हुआ कि जुलूस में जो मंगल कलश लेकर सबसे आगे चल रहे थे, वे राँवका दिगम्बर जैन परिवार के लोग थे, इनके माता-पिता श्रीमती एवं श्री सागरचन्द जैन राँवका पूज्य माताजी की दीक्षा के समय उनके माता-पिता बने थे। संतोष कुमार जैन राँवका उनके सबसे बड़े सुपुत्र हैं, उनके पूरे परिवार ने उस दिन विशेष रूप से स्वागत किया। जुलूस के बीच में माताजी की मंगल आरती जब राँवका मकान के पास उतारी गई, तो बूढ़ी माँ जी आकर माताजी के चरणों से लिपट गर्इं
और हर्ष के अश्रुओं से उनके चरणप्रक्षाल करने लगीं। वह दृश्य अत्यन्त हृदयद्रावक एवं प्रेरक बन गया था। वास्तव में इन खुशियों का वर्णन लेखनी के द्वारा नहीं किया जा सकता है। आगन्तुक हजारों अतिथि उन दृश्यों को देखकर द्रवित हो गये थे। मैंने उस दिन अपने सार्वजनिक वक्तव्य में कहा था कि ‘‘जब सन् १९५६ में यहाँ माताजी की आर्यिका दीक्षा हो रही थी, तब इनके माता-पिता पूर्ण स्वस्थरूप में टिवैâतनगर (उ.प्र.) में मौजूद थे लेकिन न जाने क्यों?
उन्हें खबर भी नहीं दी गई कि तुम्हारी बेटी की दीक्षा हो रही है। मैंने अपने होश में उन माता-पिता की अविरल अश्रुधारा देखी है, जो बेटी की दीक्षा देखने को तरस गये और कहते रह गये कि आखिर हमने क्या गुनाह किया था, जो हमें एक पत्र देकर बुलाया भी नहीं गया। हमने उसे पैदा किया था, हमें उससे तीव्र मोह था लेकिन हम उसे उठाकर तो नहीं ले आते।’’
इसमें ज्ञानमती माताजी की निस्पृहता, निष्ठुरता और निर्मोहिता तो प्रमुख रही ही होगी किन्तु आचार्यसंघ की व्यवहारशून्यता भी माननी ही होगी कि संघ के किसी साधु, ब्रह्मचारी, साध्वी आदि किसी के मन में भी न आया कि जहाँ सबके पास दीक्षा के पोस्टर-पत्र आमंत्रण हेतु भेजे जा रहे हैं, वहीं मूल दीक्षार्थी के घर या गाँव में भी पता पूछकर एक समाचार भी तो भेजा जाये।
खैर! दीक्षा तो हो ही गई और वैशाख कृष्णा दूज के दिन ली गई दीक्षा दूज के चाँद की तरह ही असीम वृद्धि में परिवर्तित हुई किन्तु गृहस्थावस्था के माता-पिता परिकर के न आने से इस राँवका परिवार का पुण्य जागृत हुआ, जो भव-भव में उन लोगों के लिए अविस्मरणीय रहेगा। माधोराजपुरा के नागरिक यदि ज्ञानमती माताजी को अपने गाँव की पुत्री मानते हैं, तो यहाँ का बच्चा-बच्चा इनका भाई और भतीजा है और सभी को इनके आदर्शों का पालन करते हुए त्याग एवं सदाचार का परिचय देना चाहिए।
दीक्षा में वटवृक्ष का अद्भुत संयोग
हमने वहाँ पहुँचकर माताजी से पूछा कि ‘‘आपकी दीक्षा किस स्थान पर हुई थी?’’ वे कहने लगीं कि मुझे ज्यादा स्मृति तो नहीं है किन्तु धुंधली सी याद ताजी हो रही है कि वहाँ पर एक बड़ का बहुत बड़ा पेड़ था। हमारी जिज्ञासा जानकर माधोराजपुरा के लोग हमें उस मुख्य स्थान पर ले गये, जहाँ सन् १९५६ में पूज्य माताजी की दीक्षा हुई थी।
मेन बाजार के उस स्थान पर एक बहुत पुराना खूब बड़ा वटवृक्ष था। माताजी को भी उसे देखते ही दीक्षा के समय का सारा नजारा याद आ गया। इस प्रसंग में मैंने कहा कि माताजी ने भगवान् ऋषभदेव की जन्मभूमि अयोध्या की छत्रछाया में जन्म लेकर उनकी पुत्री ब्राह्मी गणिनी जैसा ही मार्ग स्वीकार किया और यह भी संयोग की ही बात है कि ऋषभदेव ने वटवृक्ष के नीचे दीक्षा ली थी, तो माताजी के गुरुदेव ने भी उनके लिए वटवृक्ष वाला स्थान ही चुना, शायद इसीलिए भगवान् ऋषभदेव इनके परमइष्ट आराध्य देव बन गये, उनके परमाणु ही कुछ इनके अन्दर समा गये, तभी ज्ञान की अजस्र धारा प्रवाहित करती हुर्इं।
जहाँ इन्होंने दो सौ से अधिक ग्रन्थ लिखकर नारी गरिमा का कीर्तिमान स्थापित किया, वर्तमान में षट्खंडागम की संस्कृत टीका, ‘‘सिद्धान्तचिन्तामणि’’ का लेखन कर रही हैं, वहीं भगवान् ऋषभदेव का जन्मजयंती महोत्सव, अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महोत्सव, भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार आदि अनेक कार्यक्रमों का आयोजन करवाकर जन-जन को जैनधर्म की प्राचीनता से परिचित किया है। उस प्राचीन वटवृक्ष के नीचे खड़े होकर ग्रामवासियों ने पूज्य माताजी से अपने कल्याण हेतु किंचित् सन्देश व आशीर्वाद प्राप्त किया तथा कई फोटो खिंचवाए।
उस सांड के पोते को भी देखा
ब्र. सूरजमल बाबाजी-निवाई (राज.) वालों के मुख से तो कई बार हम लोग सुना करते थे कि माताजी की दीक्षा के समय एक बड़ा सांड सभा को पार करके सीधे मंच के पास इनके मंगल चौक (जिस पर इन्हें दीक्षा के लिए बिठाया जा चुका था) के समक्ष नतमस्तक हो गया था। तब तमाम लोगों ने उसे कोई भव्य प्राणी समझकर लड्डू-फल खिलाए थे।
वही बात माधोराजपुरा में उस वृक्ष के नीचे खड़े कई प्रत्यक्षदर्शी प्रौढ़ व्यक्तियों ने हम सबको बताई। उसके साथ एक रोमांचक घटना यह ज्ञात हुई कि गाँव के लोग उस सांड को माताजी की दीक्षा के बाद से लेकर जीवनपर्यन्त लड्डू या अन्य मिष्ठान्न ही खिलाते रहे। कुछ लोगों ने बताया कि उसे हम लोग जैन श्रावक जैसा मानते थे और वह कभी किसी को हानि नहीं पहुँचाता था।
हाँ, इतना अवश्य था कि वह जिस मकान या दुकान के सामने जाकर खड़ा हो जाता, वही उसे मिठाई खिलाने लगते तथा यदि कभी कोई उसके सामने अरुचि से मिठाई पेश करता था, तो वह पता नहीं वैâसे उसकी मनोभावना दूषित जानकर मिठाई नहीं खाता और आगे बढ़ जाता। कुल मिलाकर पूरे कस्बे में उसे देवता जैसा मानकर उसकी आवभगत की जाती थी।
सबसे अधिक आश्चर्य तो तब हुआ, जब पता लगा कि अभी ३-४ वर्ष पूर्व ही वह मरा है। उसके मरने पर गाँव में उसकी शवयात्रा निकाली गई और उसके अंतिम संस्कार स्थल पर स्मृतिस्वरूप एक चबूतरा बनाया गया। तब मैंने उन लोगों को सलाह दी कि कहीं इस चबूतरे के निमित्त से किसी मिथ्यात्व का प्रचार न होने लगे इसीलिए आप लोग यहाँ एक शिलापट्ट लिखवाकर लगा दें कि ‘‘यहाँ दफनाया गया सांड एक अहिंसक पशु बनकर सदाचारी मनुष्य के समान क्रिया करता था।
पूज्य ज्ञानमती माताजी की दीक्षा के समय अत्यन्त नम्रता का परिचय देकर इसने सबके हृदय में अपना स्थान बना लिया था, इसीलिए नगरवासियों ने उसकी स्मृति में इस चबूतरे का निर्माण कराया है, आप सब इसके जीवन से प्रेरणा प्राप्त करें।’’ वहाँ से हम अपने विश्रामस्थल की ओर लौट रहे थे, तो रास्ते में एक सांड बैठा था,
गाँव के लोगों ने बताया कि ‘‘माताजी! यह उसी सांड का पोता है, इसे भी सब लड्डू खिलाते हैं।’’ हमारे खड़े होने पर वह थोड़ी देर देखता ही रहा पुन: एक थाल में कुछ लोग नुक्ती ले आए और उसे बड़े प्रेम से खिलाया। कुछ बच्चों ने छेड़खानी की तो वह भागने लगा किन्तु हम लोगों को देखकर पुन: शान्तभाव से बैठ गया। इसमें कुछ न कुछ पूर्व जन्म के संस्कार अवश्य होंगे।
हो सकता है पहले मनुष्य पर्याय में इसने सन्तों का सत्संग किया हो किन्तु कुछ मायाचारी आदि कारणों से मरकर तिर्यंच बन गया और अब संत चरणों में नमन करने से कुछ जातिस्मरण हो गया हो, या आगे के लिए शुभगति का बंध हो गया हो इसीलिए उसने इतनी शान्तता का परिचय प्रदान किया।
माधोराजपुरा कस्बे की यूँ तो कुल आबादी १०-१२ हजार है, जिसमें लगभग ७० घर जैन समाज के हैं, ४ जैन मंदिर हैं, जो अपनी प्राचीनता का परिचय दे रहे हैं। दीक्षास्थली के पीछे ही विशाल प्राचीन किला खण्डहर के रूप में पड़ा है, उसे भी हम लोग देखने गये तो कई ऐतिहासिक तथ्य ज्ञात हुए।
तीर्थंकर तपकल्याणक वनस्थली
माधोराजपुरा के लोग इस नगर को यद्यपि ‘‘ज्ञानमती दीक्षा वनस्थली’’ के रूप में विकसित करना चाहते थे, उसी निमित्त से वहाँ एक बड़ी जमीन पहले से ही उन लोगों ने निश्चित कर रखी थी। उस स्थान पर पूर्व निर्धारित योजनानुसार दिल्ली के जाने माने भक्त श्रेष्ठी कमलचन्द जैन-खारीबावली के सौजन्य से एक ‘‘ज्ञानमती कीर्तिस्तंभ’’ का शिलान्यास कराया गया किन्तु ज्ञानमती माताजी तो सदा अपने गुरु या तीर्थंकरों के नाम से ही बड़ी-बड़ी योजना साकार करने में अपनी सफलता मानती हैं।
उन्हें जब कीर्तिस्तंभ की बात पता चली तो कहने लगीं कि मैंने तो पहले से ही माधोराजपुरा के लिए बिल्कुल नई रचना निर्माण का भाव संजोया हुआ है। वह है-‘‘तीर्थंकर तपकल्याणक वनस्थली’’ इसमें चौबीस तीर्थंकरों के अलग-अलग दीक्षावृक्ष बनाकर उनके नीचे पिच्छी-कमंडलु सहित ध्यानमुद्रा में भगवन्तों की प्रतिमा विराजमान होंगी। सारी योजना सभा में घोषित होते ही मिनटों में साकार हो गई और ७ मार्च को भारी उत्साह के साथ शिलान्यास हुआ, जिसमें आसपास के नगरों के हजारों नर-नारियों ने भाग लेकर अर्थांजलि चढ़ाई।
धार्मिक पंथवाद की प्रान्तीय परम्परा
हम लोग जन्मतः उत्तरभारत के निवासी हैं, उसमें भी अयोध्या की तरफ पूर्वी उत्तरप्रदेश में बचपन से कभी तेरहपंथ-बीसपंथ की चर्चा ही नहीं सुनी थी। उधर सभी मंदिरों में स्त्री-पुरुष समानरूप से पूर्ण शुद्धिपूर्वक मंदिरों में अभिषेक-पूजा करते थे, वहाँ वही परम्परा आज भी है। यदि कहीं-कहीं थोड़ा बहुत तेरहपंथी पण्डितों का असर भी हुआ है तो भी कट्टरवादिता नहीं है।
इसी प्रकार फल-पूâल चढ़ाना, पंचामृत अभिषेक ये सभी बातें निर्विवाद रूप से देखते थे किन्तु पश्चिमी उत्तरप्रदेश में आने के पश्चात् हम लोगों को पंथवाद का भेद आदि ज्ञात हुआ तो माताजी सदा इन विषयों में मध्यस्थ ही रहीं, उनका कहना रहा कि ‘‘जहाँ जिनकी जैसी परम्परा है वहाँ उन्हें वैसा ही करने दो, हमें उनसे क्या लेना-देना।
इसीलिए कभी भी उनके साथ किसी का कोई विवाद नहीं हुआ और उन्होंने कहीं पर कभी भी कोई हस्तक्षेप नहीं किया। हाँ, यदि किसी ने आगम के परिपे्रक्ष्य में कभी जानने की इच्छा प्रगट की तो उसका समाधान अवश्य किया। लगभग ३० वर्ष से उत्तरप्रदेश की तेरहपंथ परम्परा देखते-देखते हम लगभग उसी के आदी हो गये थे किन्तु सुनते अवश्य थे कि इन उत्तर भारत में श्रेष्ठियों के घर की महिलाएँ भी जब गोम्मटेश्वर बाहुबली के उत्सव में जाती हैं तो भगवान् का अभिषेक करके आती हैं और इस प्रान्त में परम्परा न होने से यहाँ नहीं करती हैं।
जब सन् १९९३-९४ में अयोध्या की ओर माताजी ने विहार किया, तो वहाँ सभी नगरों में वही पुरानी परम्परा देखी। उधर के लोग अपने घर में कोई भी नया फल आम-अंगूर आदि आने पर पहले मंदिर में चढ़ाकर खाते-खिलाते हैं। जब सन् १९९५-९६ में हमने दक्षिण भारत की ओर विहार किया, तो राजस्थान में दोनों मान्यताएँ मिलीं, मध्यप्रदेश में ९० प्रतिशत तेरहपंथ एवं १० प्रतिशत बीसपंथ देखा तथा महाराष्ट्र में शतप्रतिशत बीसपंथ परम्परा है,।
गुजरात में प्रायः बीसपंथ ही है, राजस्थान के मेवाड़ एवं बागड़ संभाग में कट्टर बीसपंथ परम्परा है पुनः शेष राजस्थान में मिली-जुली व्यवस्था तथा हरियाणा में प्रायः तेरहपंथ आम्नाय देखी एवं राजधानी दिल्ली में समन्वयवादी और कट्टरवादी दोनों तरह के लोग सम्पर्क में आते हैं किन्तु हम लोगों को किसी से कोई विवाद नहीं रहता।
ये तो श्रावक की क्रियाएँ हैं, मेरी समझ में तो इसमें साधुओं को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और यदि करते हैं, तो प्राचीन आचार्य प्रणीत ग्रन्थों का आश्रय लेकर श्रावकों का सही मार्गदर्शन ही करना चाहिए अन्यथा जैसा कि आचार्य श्री शिवकोटि ने भगवती आराधना ग्रन्थ में कहा है कि-
पदमक्खरं च एक्कं पि जो ण रोचेदि सुत्तणिद्दिट्ठं।
सेसं रोचंतो विहु मिच्छाइट्ठी मुणेयव्वो।।
अर्थात् शास्त्र में वर्णित एक भी पद या अक्षर का जो श्रद्धान नहीं करता है, वह मिथ्यादृष्टि माना जाता है। आगम हमारी किसी की व्यक्तिगत बपौती नहीं है अतः हम उसमें किसी तरह का हेरफैर करने के अधिकारी भी नहीं हो सकते हैं। अपनी स्वार्थसिद्धि की बजाय हमें उसका निष्पक्ष भाव से अध्ययन करके जीवन में उतारना चाहिए, तभी शास्त्रस्वाध्याय की सार्थकता हो सकती है। श्री गुणभद्रस्वामी ने आत्मानुशासन में कहा भी है-
शास्त्राग्नौ मणिवद्भव्यः, विशुद्धो भाति निर्वृतः।
अंगारवत्खलो दीप्तो, मली व भस्म वा भवेत् ।।
अर्थात् शास्त्ररूपी अग्नि में तपकर भव्य प्राणी तो मणि (रत्न) के समान विशुद्ध-निर्मल हो जाते हैं तथा दुर्जन प्राणी उसमें अंगारे के समान तप्त हो जाते हैं अथवा जलकर राख-भस्मीभूत हो जाते हैं। पंचमकाल में शास्त्र ही हमारे लिए ज्ञान नेत्र हैं, उनका ज्ञान कराने वाले साधु-साध्वी ही हमारे परमेश्वर हैं अत: देव-शास्त्र-गुरु पर श्रद्धान करके अपने सम्यग्दर्शन को दृढ़ करना चाहिए न कि पंथवाद का दुराग्रह पकड़कर उसे मलिन करना चाहिए।
महिलाओं की भिन्न-भिन्न वेशभूषा
इस फैशनवादी युग में तो लड़कियाँ एवं महिलाओं की बदलती वेशभूषा की तो कोई एक आधारशिला नहीं रह गई है। कभी लड़कियाँ लड़कों की ड्रेस पहनने लगती हैं, तो कभी लड़के लोग लड़कियों की ड्रेस सलवार जैसे पठानी सूट आदि पहनने लगते हैं। कभी लड़कियाँ हेयर स्टाइल लड़कों जैसे बनवाने लगती हैं, तो कभी पुरुष अपने बाल लड़कियों जैसे थोड़े लम्बे कर लेते हैं। पाश्चात्य संस्कृति का भी भरपूर असर भारतीय पहनावे पर आ गया है, जिससे प्राय: हर माँ-बाप अपनी लड़कियों की सुरक्षा को लेकर चिन्तित रहने लगे हैं।
जब हम किसी प्रान्त के बड़े शहरों में गये, तो वहाँ की फैशनपरक वेशभूषाएँ देखकर प्रान्तीय परम्परा का ज्यादा अनुमान नहीं लग पाता था किन्तु जब छोटे-बड़े ग्राम-कस्बों में हमारा विहार हुआ, तो जरूर उनकी संस्कृति, पहनावा आदि का परिचय हुआ। उत्तरप्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि प्रान्तों में तो प्रायः महिलाएँ साड़ी पहनकर सिर ढकती हैं किन्तु कर्नाटक, महाराष्ट्र एवं गुजरात में महिलाएँ सिर खुला ही रखती हैं।
और बालों में पूâल के गुच्छे या लड़ी लगाने की आम परम्परा है। कर्नाटक में खुले सिर ही विवाह होते हैं और सिर ढकने को लोग अशुभ मानते हैं। उनका कहना है कि इधर प्रान्त में विधवा होने के बाद महिलाएँ सिर ढकती हैं। राजस्थान के बड़े घरानों में जहाँ नई वधुओं के लंबे घूंघट हट गये हैं, वहीं पुरानी महिलाएँ पूरी तरह से रूढ़िवादिता का पालन करती हुई काफी लम्बा घूंघट निकालती हैं।
पुरुषों में भी नवयुवकों ने नई वेशभूषा अपना ली है किन्तु पुराने लोग अभी भी धोती-कुर्ता एवं राजस्थानी पगड़ी बाँधे हुए देखे जाते हैं। बहुत छोटे गांव में भी आदिवासियों के सिर पर बाबा आदम के जमाने की पुरानी पगड़ी दिखाई देती है तथा पहनाव भीलों जैसा जंगली लगा। राजस्थान की ग्रामीण महिलाएँ एक हाथ लम्बा घूंघट करके भी दूर-दूर से सिर पर ३-३ घड़े एवं बगल में एक घड़ा दबाकर पानी भरकर लाती हैं।
वे जब हम लोगों को सड़क पर पैदल चलते देखतीं, तो एक आँख खोलकर घूंघट के अन्दर से ही देखकर हँसने लगती थीं लेकिन हमें उनके चेहरे नहीं दिखते थे। बागड़ में कहीं-कहीं हमने देखा कि महिलाओं के घूंघट तो खूब लम्बे हैं किन्तु छाती-पेट सब खुले रहते हैं। तो विंâचित् हँसी भी आती और उनकी अज्ञानतापूर्ण रूढ़िवादिता पर आश्चर्य भी होता। इसी प्रकार कहीं-कहीं लड़कियों को भी केवल पेटीकोट-ब्लाउज पहने देखकर संघ के लोग खूब हँसते थे।
किन्तु क्षुल्लक मोतीसागर महाराज के डर से सब शीघ्र ही गंभीरतापूर्वक अपने-अपने काम में लग जाते थे। गुजरात प्रांत में प्रवेश करते ही हम ब्यारा नामक गाँव से विहार कर रहे थे, तो एक वकील लड़की मेरे साथ चल रही थी। कुछ चर्चा के मध्य मैंने उससे पूछा कि तुम्हारे पति क्या करते हैं? तुम्हारी ससुराल कहाँ है? वह हँसकर बोली कि माताजी! मैं तो अभी कुवारी हूँ। मैं थोड़ा झेंप सी गई तुरंत मैंने कहा कि फिर तुमने पैर में बिछुए और गले में मंगलसूत्र क्यों पहना है?
ये तो सुहाग के प्रमुख चिन्ह होते हैं। उस समय साथ चल रही और भी महिलाएँ बताने लगीं कि हमारे गुजरात में ऐसी कोई परम्परा नहीं है, कुवारी कन्याएँ भी शौक में ये चीजें पहन लेती हैं और सुहागन नहीं भी पहनती हैं। तब मुझे पहली बार वहाँ की परम्परा के बारे में कुछ ज्ञान हुआ कि गुजरात में ऐसा भी होता है। जबकि पूरे उत्तर प्रान्त में विवाह के पश्चात् ही महिलाएँ बिछुए और मंगलसूत्र पहनती देखी जाती हैं। इन प्रान्तीय परम्पराओं को जाने बिना कई जगह समस्या का सामना करना पड़ता है।
इसी प्रकार उत्तर भारत में लौकी नामक सब्जी को बड़ी लाभप्रद मानकर श्रावक-साधु सभी खाते हैं किन्तु दक्षिण प्रान्त में लौकी को अभक्ष्य मानकर कोई भी नहीं खाते हैं। ऐसी कई बातें प्रान्तीय परम्पराओं पर आधारित हैं, जिन्हें जानकर ही कोई निर्णय करना चाहिए। प्र्मौसम का धन्यवाद कैसे करें?
पूज्य माताजी के प्रवचन में कई बार सुना करती थी
पद्मिनी जाति की विशेष स्त्रियाँ, राजहंस और निग्र्रंथ तपोधन-साधु-साध्वी जिस देश में विचरण करते हैं, वहाँ स्वयमेव सुभिक्ष हो जाया करता है। इस दुःषमकाल में हमारे भारत देश में न तो पद्मिनी स्त्रियाँ हैं, न मानसरोवर पर रहने वाले राजहंस हैं, न हि ऋद्धिधारी जिनकल्पी महामुनि हैं और न ही विशल्या जैसी दिव्यशक्तिधारिणी कन्याएँ हैं, जिनकी दृष्टिमात्र से सारे रोग-शोक-महामारी नष्ट हो जाये।
किन्तु फिर भी कठोर तपस्या करने वाले एवं दीर्घकालीन दीक्षा लक्ष्मी से समन्वित कुछ साधु-साध्वी आज भी इस धरती पर उपर्युक्त श्लोकार्थ को अंशमात्र साकार करने वाले अवश्य विद्यमान हैं, जिनके समक्ष प्रकृति को नमन करना ही पड़ता है। हमारे इस लम्बे प्रवास में भी हमारे साथ पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का प्राचीन प्रतिमा की भाँति अतिशय ही रहा कि प्रकृति ने मौसम की अनुवूâलता करके पग-पग पर हमारा सहयोग किया।
मांगीतुंगी जाते समय हम २७ नवम्बर १९९५ से १५ फरवरी १९९६ तक केवल एक ही समय दिन में १ बजे से ४ बजे तक चलते थे, उसके बाद सुबह-दोपहर दोनों समय चलकर पूरे पाँच महिने में १६२० किमी. का रास्ता तय किया था किन्तु वापसी में १८०० किमी. केवल १३५ दिन में (साढ़े चार माह में) चले, उसमें खास निमित्त मौसम की अनुवूâलता का रहा।
दिसम्बर, जनवरी के महीने में उत्तरी इलाकों में जबर्दस्त सर्दी होती है, उस समय हम महाराष्ट्र और गुजरात की सड़कों पर दोनों समय चलते थे, वहाँ का गुलाबी मौसम हमारे विहार में अतीव सहायक रहता था पुन: २३ जनवरी से राजस्थान में जब हमारा प्रवेश हुआ, तो भीषण ठंड का दौर निकल चुका था अत: वहाँ भी सुबह ७-८ बजे से चलने में कभी असुविधा नहीं हुई।
इसीलिए हम कहीं भी पूर्व निर्धारित समय से लेट नहीं पहुँचे बल्कि कहीं-कहीं तो ज्यादा चलने के कारण समय से एक दिन पूर्व ही पहुँच गये। जो रास्ता हमें बहुत लम्बा लग रहा था, वह भी मौसम के सहयोग एवं माताजी द्वारा प्रदत्त मंत्र जाप्य से शीघ्र ही पार हो गया। जयपुर से दिल्ली तक सड़क मार्ग २७० किमी. है, उसकी चिन्ता कई दिन पूर्व से थी कि ३० मार्च को दिल्ली प्रवेश की तारीख दे दी गई है ।
१६ मार्च की शाम को हम जयपुर से निकलेंगे, तो बीच के केवल १३ दिनों में हमारे अत्यन्त थके पैर हमें दिल्ली वैâसे पहुँचा देंगे? किन्तु हम तो निरन्तर मंत्रजाप्य करते हुए आगे बढ़ रहे थे। हम रोज २२-२३ किमी. की रफ्तार से चले और २९ मार्च की शाम ५ बजे ही दिल्ली के दरियागंज बाल आश्रम में पहुँच गये।
बीच में २६-२७ मार्च की भीषण गर्मी देखकर हम थोड़ा परेशान हुए पुन: २७ तारीख को जब ब्र. रवीन्द्र जी ने करोलबाग एवं नरेश जैन बंसल से हमारे पास समाचार भिजवाया कि गुड़गाँवा से १५ किमी. यदि चल लें, तो नरेश बंसल के शोरूम पर रात्रि विश्राम कर लें, उनकी बड़ी इच्छा है। मैंने कहा कि इस गर्मी में इतना लम्बा चलना दोपहर में संभव ही नहीं है किन्तु पता नहीं क्या चमत्कार हुआ।
कि दोपहर में बादल घिर आए, ठंडी-ठंडी हवा ऐसी चलने लगी, जैसे गर्मी का मौसम ही न हो। मैं यद्यपि गुड़गाँवा में भी २ किमी. अधिक एक भक्त के यहाँ चलकर आई थी और सुबह तो १० किमी. चली ही थी, फिर भी पैरों में न जाने कहाँ से शक्ति आ गई कि हँसते-मुस्कराते रास्ता पार हो गया। संभवतः उस दिन पूरे प्रवास का सबसे ज्यादा किमी. (२६ किमी.) चलना पड़ा था।
फिर रात में तेज बरसात आने से अगले दिन २९ मार्च को शोरूम से १० किमी. चलकर सफदरजंग एन्क्लेव में राजकुमार जैन वीरा बिल्डर्स की कोठी पर आए, वहाँ आकर आहार करके शाम को दरियागंज पहुँचे। मौसम ने इन सब प्रसंगों में साथ देकर वास्तव में सन्त तपस्या के प्रभाव का परिचय प्रदान किया है।
उसका धन्यवाद भला किन शब्दों में किया जाये? वह तो बस सदा तपस्वियों की साधना में बाधक न बनकर साधक बना रहे, यही समय की माँग है वर्ना इस धरती पर प्राकृतिक प्रकोप मानवों की दानवता के कारण अपना विकराल रूप धारण किए हुए हैं जिन्हें दूर करने में मात्र सन्तों की तपस्या, आध्यात्मिकता ही साधन है, बाकी कुछ नहीं।
घटाने की कोशिश में रास्ता बढ़ता ही गया
गुजरात प्रान्त से विहार करके जब दिल्ली जाने का रूट बना, तो लग रहा था कि रास्ता थोड़ा जरूर बढ़ रहा है किन्तु सबने समझाया कि माताजी! आप मध्यप्रदेश के सबसे कम वाले शिवपुरी रूट से जाएँगी, तो लगभग १३०० (तेरह सौ) किमी. और गुजरात होकर जाने में केवल १०० (सौ) किमी. ज्यादा पड़ेगा परन्तु सारा गुजरात, जो आपके दर्शनों का प्यासा है, उसे लाभ मिल जायेगा। सबकी भक्तिपरक बातें सुनकर माताजी ने गुजरात का निर्णय दे दिया। उसके बाद तो रास्ता बढ़ता ही चला गया।
सबसे पहले जो अहमदाबाद मांगीतुंगी से केवल ३५० किमी. था, हमें पावागढ़ सिद्धक्षेत्र होकर जाने में५०० किमी. प़ड़ गया, पुन: उस प्रान्त वालों के अत्यधिक आग्रह पर ईडर, हिम्मतनगर, सलाल आदि नगरों का दौरा करने पर रास्ता अधिक हो गया और आगे कई जगह ब्र. श्रीचन्द जी गाड़ी लेकर लम्बे रास्ते को कम करने गये, तो अनभिज्ञता के कारण वह रूट ज्यादा हो गया, फिर श्रावकों ने बताया कि आप यदि उस रास्ते से आते तो १०-१५ किमी. कम चलना पड़ता।
कई जगह ऐसी ही बातें सुनकर हम लोग हँसते और आपस में कहते कि ‘‘ज्यों-ज्यों दवा करने चले, त्यों-त्यों मरज बढ़ता ही जा रहा है। फिर भी हम सब सकुशल रहे, कोई बीमार नहीं हुआ, यही सबसे बड़ा प्रभु का आशीर्वाद रहा। तारंगासिद्धक्षेत्र की वंदना के लिए भी लगभग ८० किमी. एवं अणिंदा पाश्र्वनाथ अतिशय क्षेत्र के दर्शन हेतु भी ३०-४० किमी. बढ़ाये गये।
पुरानी शिष्याओं का मिलन
पूज्य माताजी की सबसे पुरानी शिष्याओं में आर्यिका जिनमती जी, आदिमती जी थीं। दक्षिण भारत की यात्रा के समय माताजी बोली थीं कि कहीं न कहीं जिनमती जी मुझे जरूर मिलेंगी लेकिन १ फरवरी १९९६ को इन्द्रगढ़ (राज.) में पता लगा कि जिनमती माताजी की अत्यधिक रक्तक्षय के कारण ३० जनवरी को समाधि हो गई।
शिष्या के वियोग का समाचार सुनकर यद्यपि काफी देर हृदय में विक्षिप्तता रही, फिर अपने तत्त्वज्ञान से उन्होंने हम सबको पुरानी बातें सुनाकर श्रद्धांजलि सभा रखी और धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य हो गया। अब जब माताजी को गुजरात से राजस्थान होकर दिल्ली जाना था, तब वहाँ साबला में विराजमान दूसरी पुरानी शिष्या आदिमती माताजी एवं श्रुतमती माताजी को कहलवाया कि कहीं न कहीं आकर मिलना जरूर है। उधर उन लोगों की तीव्र इच्छा थी अपनी अम्मा से मिलने की।
बीच में लोहारिया के प्रमुख श्रावक नाथूलाल सेठ, मगनलाल जैन आदि काफी प्रयासरत थे कि पूज्य माताजी के संघ को हम लोहारिया जरूर ले जायेंगे और वहीं इस वर्ष का चातुर्मास भी करायेंगे किन्तु रूट कुछ इस प्रकार बना कि लोहारिया के साथ-साथ डूंगरपुर, सागवाड़ा आदि विशेष भक्तिमान नगरों के श्रावक भी रोते ही रह गये और माताजी वहाँ न जा सकीं। चूँकि दिल्ली तक की सारी तारीखें पूर्व निर्धारित हो चुकी थीं और इस सौ किलोमीटर के एरिये को बढ़ा देने से सारा प्रोग्राम उलट-पुलट हो जाता, फिर आगे की गर्मी से भी जी घबड़ा रहा था।
लम्बी चलाई के कारण हम सब काफी थके भी थे अतः सारी परिस्थितियाँ देखकर माताजी ने भक्तों के दुःख से दुःखी होने के बावजूद भी उन सबको मना कर दिया और सलूम्बर (राज.) में आदिमती माताजी, श्रुतमती जी एवं नवदीक्षित आर्यिका सुबोधमती जी को आने का संदेश भिजवा दिया। हम लोग इधर केशरिया जी से विहार करते हुए २९ जनवरी १९९७ को प्रात: सलूम्बर पहुँचे थे और उधर साबला से विहार करके ये तीनों माताजी ८ जनवरी को सलूम्बर आ गई थीं। सुबह नगर प्रवेश से पूर्व ही ये माताजी रास्ते में आ गर्इं और अपनी अम्मा से चिपककर सिसक-सिसककर रोने लगीं। माताजी ने उन्हें खूब वात्सल्यपूर्वक देखा और २२ वर्ष से बिछुड़ी शिष्याओं का सुख-दुःख पूछकर उन्हें सांत्वना प्रदान की।
दो दिन तक वहाँ उन लोगों के साथ हम सभी को रहने का, विचारों के आदान-प्रदान का मौका मिला। आदिमती माताजी, श्रुतमती माताजी ने पूज्य माताजी की खूब वैयावृत्ति की, उनसे अनेक शिक्षाएँ प्राप्त की तथा पुन:-पुन: गुरुदर्शन की इच्छा व्यक्त करते हुए तीसरे दिन हम लोगों के विहार के पश्चात् वे भी साबला की ओर विहार कर गर्इं।
गुरु-शिष्य का यह रोमांचक मिलन वास्तव में इतिहास का एक अंग बन गया और मेरी मनोभावना प्रबल होकर संकल्प में परिवर्तित हुई कि ‘‘मैं गुरु की छत्रछाया जीवन में कभी नहीं छोडूंगी ताकि जीवित रहते हुए गुरुवियोग का दु:ख मुझे सहन न करना पड़े।’’
क्षुल्लक मोतीसागर जी का अपूर्व समर्पण
पूज्य माताजी के वर्तमानकालीन संघस्थ शिष्यों में क्षुल्लक मोतीसागर महाराज सर्वाधिक पुराने शिष्य हैं। सन् १९६७ में सनावद (म.प्र.) चातुर्मास से माताजी का शिष्यत्व स्वीकार करने के बाद आज तक ४० वर्षों में ब्र. मोतीचंद से क्षुल्लक मोतीसागर बनकर जहाँ आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त किया है, वहीं धर्मप्रभावना के प्रत्येक कार्य में बीजारोपण करने का श्रेय भी इन्हें प्राप्त है।
जम्बूद्वीप निर्माण, ज्ञानज्योति रथ प्रवर्तन, अयोध्या विकास, मांगीतुंगी पंचकल्याणक, प्रयाग एवं कुण्डलपुर तीर्थ निर्माण, भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार, भगवान महावीर ज्योति रथ प्रवर्तन तथा अन्य-अन्य तमाम कार्य जो पूज्य ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से हुए, उन सबमें क्षुल्लक मोतीसागर जी का समर्पण सदा अविस्मरणीय रहा है।
यद्यपि क्षुल्लक के लिए पदविहार करना मुनि-आर्यिका के समान अनिवार्य नहीं है, फिर भी इन्होंने अयोध्या एवं मांगीतुंगी यात्रा का पूरा प्रवास (लगभग ६ हजार किमी.) पैदल ही करके अपूर्व धर्मप्रभावना का कार्य किया है एवं संघ की व्यवस्था को बहुत ही मनोयोग से संभाला है। पूज्य माताजी के श्रीचरणों में क्षुल्लक जी की इसी प्रकार से समर्पित भावना सदा बनी रहे तथा इनके स्वस्थ जीवन में सर्वतोमुखी प्रगति हो, यही मेरी मंगल कामना है।
ब्र. कर्मयोगी रवीन्द्र जी की कर्मठता
योग्य व्यक्ति की पहचान उनके कर्मठ व्यक्तित्व से होती है और वे कर्मठ व्यक्तित्व समाज में बिरले लोग ही होते हैं। पूज्य माताजी के संघस्थ कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जी उन बिरले नवयुवकों में से ही जैन समाज के क्षितिज पर चमकते अनोखे सितारे हैं, जो विद्वत्ता के साथ-साथ अपूर्व कार्यप्रणाली की क्षमता के धनी हैं।
पूज्य माताजी के द्वारा संकल्पित प्रत्येक साहित्यिक, निर्माणात्मक, सृजनात्मक कार्यों को समाज में मूर्तरूप प्रदान करने वाले रवीन्द्र जी से देश की लगभग समस्त जनता परिचित हो चुकी है। उनकी लगनशीलता एवं कर्मठता के फलस्वरूप ही अयोध्या, मांगीतुंगी, प्रयाग, कुण्डलपुर आदि के विशाल कार्य पूज्य माताजी की भावना के अनुरूप सम्पन्न हुए हैं।
इसीलिए जहाँ अवध की जनता ने उन्हें अयोध्या तीर्थक्षेत्र कमेटी का दो बार अध्यक्ष बनाया, वहीं मांगीतुंगी में निर्मित होने वाली १०८ फुट उत्तुंग भगवान् ऋषभदेव की खड्गासन प्रतिमा निर्माण योजना का भी इन्हें दक्षिण भारत की जनता ने प्रमुख बनाया तथा मांगीतुंगी के जटिल कार्य पंचकल्याणक महोत्सव सम्पन्न कराने के पश्चात् उधर के अनेक नगरों में रवीन्द्र जी का भावभीना स्वागत हुआ।
महाराष्ट्र प्रान्त का ऐतिहासिक महोत्सव
लघु सम्मेदशिखर के नाम से जाना जाने वाला महाराष्ट्र प्रान्त का सर्वप्राचीन दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र मांगीतुंगी तीर्थ अब सम्पूर्ण भारत के मानस पटल पर उभर कर आ गया है। ५५ वर्षों के पश्चात् वहाँ १९ मई से २३ मई १९९६ तक पंचकल्याणक महोत्सव एवं तीर्थंकर श्री १००८ मुनिसुव्रतनाथ भगवान का महामस्तकाभिषेक समारोह जिन आशातीत सफलताओं के साथ सम्पन्न हुआ।
उसके लिए वहाँ पधारे धर्म गुरुओं के मंगल आशीर्वाद, दिल्ली, राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, अवध आदि प्रान्तों का आर्थिक सहयोग, अनेक कर्मठ कार्यकर्ताओं की कड़ी मेहनत, महाराष्ट्र की जनता का अदम्य उत्साह, प्रदेश के दैनिक अखबारों के संपादक एवं संवाददाताओं का प्रचारात्मक सहयोग, प्रादेशिक दूरदर्शन विभाग का सहयोग, जैन पत्र-पत्रिकाओं का सहयोग, प्रतिष्ठाचार्य तथा उनके सहयोगी विद्वानों का वैधानिक सहयोग, पुलिस विभाग, प्रशासन सहयोग आदि अनेक निमित्त दृष्टिगोचर होते हैं।
ठण्डे मौसम ने हिल स्टेशन की याद दिला दी
यहाँ पर सर्वाधिक सहयोग मौसम ने दिया, जिसके लिए आयोजकगण पूर्व से चिंतित थे कि इतनी भीषण गर्मी वाले ज्येष्ठ माह में कितने यात्री यहाँ आएंगे और वैâसे गर्मी सहन करेंगे? किन्तु इसे अतिशय चमत्कार ही कहना होगा कि दिन में लू-लपट का नाम नहींr था एवं शाम होते ही मौसम हिल स्टेशन जैसा सुहावना हो जाता था।
पिछली रात्रि में तो सभी लोग हल्की रजाइयाँ अथवा मोटी चादरें ओढ़कर चैन की नींद सोते थे, सुबह स्नान में गरम पानी खोजते यात्री अपनी-अपनी बाल्टियाँ लेकर टहलते नजर आते पुन: सभी के मुँह से यही निकलता था कि यहाँ आकर तो शिमला-मसूरी आदि हिल स्टेशन जैसा आनन्द आ रहा है एवं पवित्र तीर्थ की वंदना के साथ ही, गुरुदर्शन तथा पंचकल्याणक महोत्सव देखकर पुण्य संचय भी हो रहा है।
भूमि देवता ने जल समस्या हल कर दी
मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र पर पंचकल्याणक करने में दीर्घकाल से जल की समस्या भी बाधा उत्पन्न कर रही थी, जिसके कारण वहाँ के ट्रस्टी कहा करते थे कि जब तक पानी की व्यवस्था नहीं होगी, तब तक हम लोग महोत्सव कैसे कर सकते हैं? तब १५ दिसम्बर १९९५ को पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने कहा कि ‘‘सब चिंता छोड़ दो, जाओ, जहाँ खुदाई करोगे, वहीं पानी निकल पड़ेगा, पंचकल्याणक मई में ही होगा और सब लोग पानी पीकर पानी-पानी हो जायेंगे।’’
और हुआ भी यही कि उस पहाड़ी क्षेत्र पर जहाँ पत्थर की चट्टानों में कभी-कहीं पानी नहींr दिखता था, वहाँ भगवान मुनिसुव्रतनाथ एवं माताजी का नाम लेकर बोरिंग कराते ही पानी निकल पड़ा और वह पाइप लाइनों से पूरी जनता तक पहुँचाया गया, जिससे जनता को जल के अभाव का सामना नहीं करना पड़ा।
सिद्धक्षेत्र का प्रथम चातुर्मास अपूर्व सिद्धी का प्रतीक बना
यूँ तो पूज्य माताजी द्वारा त्यागमय जीवन में कदम रखने के पश्चात् उनके अनेक चातुर्मास विभिन्न प्रान्तों के विभिन्न शहरों एवं तीर्थों पर सम्पन्न हो चुके थे किन्तु उन्होंने अभी तक किसी सिद्धक्षेत्र पर चातुर्मास नहीं किया था, वह संयोग मिला सन् १९९६ में ९९ करोड़ मुनिवरों की निर्वाणभूमि सिद्धक्षेत्र मांगीतुंगी को।
इसे सिद्धक्षेत्र का अतिशय कहा जाए, आर्यिका श्रेयांसमती माताजी व संघ की प्रबल इच्छा कही जाए या महाराष्ट्र की जनता का भाग्य, नासिक जिले के लोकप्रिय विधायक (आमदार) जयचंद कासलीवाल और डॉ. पन्नालाल जैन पापड़ीवाल (महाराष्ट्र तीर्थक्षेत्र कमेटी के अध्यक्ष) का अकाट्य पुरुषार्थ कहा जाये, अथवा पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की आन्तरिक भावना?
जो कुछ भी मानें किन्तु उसके पीछे निर्वाणभूमि के प्रति छिपी माताजी की अनन्य भक्ति भावना तो स्वीकार करना ही पड़ेगा क्योंकि आग्रह करते-करते जब एक दिन भक्तों ने इस बात पर माताजी का ध्यान केन्द्रिय किया कि आपका एक चातुर्मास सिद्धक्षेत्र पर भी होना चाहिए, तब उन्होंने चिन्तन किया और हम लोगों से कहने लगीं कि वास्तव में मैंने सन् १९५२ के श्रावण मास में घर छोड़ा और तब से आज तक मेरे ४४ चातुर्मासों में कोई सिद्धक्षेत्र चातुर्मास स्थल नहीं है।
सन् १९६३ में सम्मेदशिखर का योग भी आया था किन्तु कलकत्ता वालों के अत्यधिक आग्रह से मैंने १० दिन में ३०० किमी. की तीव्र गति की पदयात्रा करके कलकत्ता पहुँचकर चातुर्मास स्थापित किया था। अब मेरी कुछ इच्छा है कि इस सिद्धक्षेत्र पर एक चातुर्मास कर ही लें।’’
हम लोगों ने (मैंने, क्षुल्लक मोतीसागर जी और ब्र. रवीन्द्र कुमार जी ने) कहा कि आपकी इच्छा और आदेश के समक्ष हम विनयावनत हैं और हम कुछ भी सुझाव वैâसे दे सकते हैं? सबके मिले-जुले योगदान से चातुर्मास मांगीतुगी में हो गया और वह पूज्य माताजी तथा सिद्धक्षेत्र दोनों के जीवन में अपूर्व सिद्धि का प्रतीक बन गया।
सहस्रकूट कमलमंदिर एक अपूर्व देन
मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र पर लगभग १० वर्ष पूर्व स्व. पंचम पट्टाधीश आचार्य श्री श्रेयांससागर महाराज की प्रेरणा से धातु की एक हजार आठ खड्गासन प्रतिमाओं के निर्माण हेतु दातारों ने पैसे दिए किन्तु वे प्रतिमाएँ अभी निर्मित नहीं हो सकी थीं। गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी एवं आर्यिकारत्न श्री श्रेयांसमती माताजी की प्रबल प्रेरणा से वहाँ के ट्रस्टीगण मई १९९६ तक वे समस्त प्रतिमाएँ जयपुर से बनवाकर ले आये और समय से उनकी प्राण-प्रतिष्ठा भी हो गई।
इसी मध्य जब पूज्य माताजी ने एक दिन आर्यिका श्री श्रेयांसमती माताजी से पूछा कि ये सहस्रकूट प्रतिमाएँ कहाँ विराजमान होंगी? तब श्रेयांसमती माताजी ने विश्वहितंकर सातिशय चिंतामणि पाश्र्वनाथ मंदिर के शिखर पर ले जाकर स्थान दिखाया, जहाँ शिखर में तीन कटनी का गोल छोटा सा चबूतरा बना था, वहाँ जगह इतनी छोटी थी कि अन्दर जाकर तो कोई दर्शन ही नहीं कर सकता था। उसे देखकर माताजी कहने लगीं-
‘‘मुझे ये स्थान सहस्रकूट जिनालय के लिए बिल्कुल पसंद नहीं है। इतनी सुन्दर प्रथम बार निर्मित खड्गासन सहस्रकूट प्रतिमाओं के लिए तो मंदिर अलग से ही बनना चाहिए।’’ यह सुनकर श्रेयांसमती माताजी एवं कुछ ट्रस्टी महानुभाव बोल पड़े- ‘‘माताजी! हम लोगों ने तो अभी तक इस बारे में कुछ सोचा भी नहीं है। आप जैसा चाहें, वैसा मंदिर बनवा दीजिए।’’
उस दिन माताजी ने कुछ चिन्तन किया और एक कमल जिनालय का निर्माण करवाकर उसकी १०८ पंखुडियों पर ये प्रतिमाएँ विराजमान करने की प्रेरणा दी। ब्र.रवीन्द्र जी से उसकी रूपरेखा बनवाकर क्षुल्लक मोतीसागर महाराज ने २२ मई १९९६ को विशाल सभा में ज्यों ही उस मंदिर की घोषणा की, दानदातारों की भीड़ लग गई और शीघ्र ही लाखों रुपये की स्वीकृतियाँ हो गर्इं। इसके पश्चात् समस्या थी कि मंदिर का निर्माण कैसे और कौन करवाएगा?
क्षेत्र पर तो विशाल निर्माणाधीन मुनिसुव्रत मंदिर ही अभी अधूरा पड़ा था, यात्रियों की सुविधा हेतु अनेक वर्षों से स्वीकृत २० कमरों का निर्माण भी आज तक पूरा नहीं हो पाया था, तो अब बिल्कुल नया काम करवाने की जिम्मेदारी भला कौन लेता? किन्तु सभी ट्रस्टियों की इच्छा थी कि माताजी ने जैसे जगह-जगह नई योजनाएँ साकार करवाई हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कोई न कोई नई रचना अवश्य बन जावे।
ट्रस्टियों ने सोच-विचार कर कमल मंदिर के निर्माण का संयोजक डॉ. पन्नालाल जैन पापड़ीवाल को बनाया किन्तु वे भी इतना बड़ा कार्य अक्टूबर तक मात्र ३ महीने के अन्दर करवाने में परेशानी महसूस कर रहे थे। यह सारी प्रक्रिया तथा प्रारंभ में कार्य की रुकावट आदि देखकर पूज्य गणिनी माताजी ने कमल मंदिर के निर्माण की जिम्मेदारी ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन के ऊपर डालते हुए कहा कि ‘‘२४ अक्टूबर आश्विन शुक्ला त्रयोदशी को शुभ मुहूर्त में कमल की १०८ पंखुडियों पर सहस्रकूट की १००८ प्रतिमाएँ विराजमान करना है।’’ इतनी सब बात होने के बाद जगह का पूर्णरूपेण निर्णय हेकर ५ जून १९९६ को शिलान्यास उस स्थान पर किया गया, जहाँ तीर्थक्षेत्र के महामंत्री वयोवृद्ध ब्र. गणेशीलाल जी सपरिवार ६५ वर्षों से निवास कर रहे थे।
उन्होंने स्वेच्छा से अपना अहोभाग्य समझते हुए टूटे-फूटे जीर्ण मकान को छोड़कर नए कमरों में गृहस्थी परिवर्तन कर लिया। उसके बाद २ जुलाई १९९६ को पूज्य माताजी का मालेगांव की ओर ससंघ मंगल विहार हो गया और रवीन्द्र जी हस्तिनापुर चले गये। इस मध्य जीर्ण मकान को गिरवाने, नींव खुदवाने आदि का काम डॉ. पन्नालाल पापड़ीवाल ने द्रुतगति से करवाया पुन: पूज्य माताजी का संघ २६ जुलाई को मांगीतुंगी पहुँच गया।
२९ जुलाई (आषाढ़ शु. १४) को पूज्य गणिनी ज्ञानमती माताजी, आर्यिका श्री श्रेयांसमती माताजी, इन दोनों संघों ने वर्षायोग स्थापना की और रवीन्द्र जी ने कमल मंदिर का नक्शा बनवाकर कार्य प्रारंभ करवा दिया। उन्होंने आसाम के कारीगर वासुदेवपाल को १०८ पांखुडी बनाने का ठेका दे दिया किन्तु अगस्त के अंतिम सप्ताह तक निर्माण की मंद स्थिति देखकर क्षुल्लक मोतीसागर जी को चिंता हुई और उन्होंने रवीन्द्र जी को परामर्श देते हुए कहा कि ‘‘यह मंदिर इस गति से अक्टूबर तक तैयार नहीं हो सकता है।
इसे वास्तव में पूरा करने के लिए तुम्हें हस्तिनापुर से अपने कारीगर, सुपरवाइजर आदि को बुलाना पड़ेगा।’’ तब रवीन्द्र जी ने तत्काल फोन करके हस्तिनापुर से अपनी पूरी निर्माण की टीम बुलाई और सितम्बर से कार्य तूफानी स्तर पर प्रारंभ हो गया। इस प्रकार ३-४ बार में हस्तिनापुर से सुपरवाइजर (शरीफ अहमद), मिस्त्री, मजदूर, लुहार, बढ़ई आदि लगभग २०-२५ व्यक्तियों ने मांगीतुंगी पहुँचकर २० अक्टूबर १९९६ तक बाहर की रेलिंग आदि सहित पूरा ‘‘सहस्रवूâट कमल मंदिर’’ तैयार करके क्षेत्र को प्रदान कर दिया, जिसमें २२ से २४ अक्टूबर तक वेदी शुद्धि, प्रतिष्ठा का कार्य हुआ।
एवं २४ अक्टूबर को प्रात: ९ बजे प्रतिमाएं विराजमान हो गर्इं तथा मध्यान्ह ३ बजे मंदिर पर कलशारोहण, ध्वजारोहण द्वारा अतिशय कान्ति का उद्योत होने लगा। मंदिर का उद्घाटन २६ अक्टूबर को संघपति लाला महावीर प्रसाद जैन (बंगाली स्वीट सेंटर-दिल्ली) ने किया तथा दोनों संघों के पावन सानिध्य में इस वृहत् कार्य की पूर्णता पर गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के आशीर्वादात्मक उद्बोधन को पाकर जनमानस आल्हादित हो गया।
महाराष्ट्र एवं सुुदूरवर्ती प्रान्तों के तमाम तीर्थयात्रियों ने यहाँ पहुँचकर यही कहा कि ३ माह में मांगीतुंगी की तो काया ही पलट गई है। मात्र एक कमल मंदिर की पूर्णता ही नहीं, पूज्य ज्ञानमती माताजी के लगभग ६ माह के प्रवास के अंतर्गत सरकार एवं समाज सभी का सक्रिय सहयोग प्राप्त हुआ, जो क्षेत्र की चतुर्मुखी प्रगति का कारण बना।
नासिक जिले के लोकप्रिय विधायक (आमदार) श्री जयचंद जैन कासलीवाल ने महाराष्ट्र सरकार की ओर से मांगीतुंगी पर्वत की चोटी तक विद्युत प्रकाश की स्थाई व्यवस्था करवा दी, यात्रियों को धर्मशाला से पर्वत के निकट सीढ़ियों तक जाने हेतु पक्की सड़क पुल का निर्माण भी करवा दिया। इस प्रकार सिद्धक्षेत्र का यह प्रथम चातुर्मास महाराष्ट्र प्रान्त के लिए अपूर्व सिद्धी एवं प्रसिद्धी में निमित्त बन गया, क्योंकि शासन के अतिरिक्त दिगम्बर जैन समाज का भी आशातीत सहयोग प्राप्त हुआ।
मागीतुंगी में एक और अनहोना संयोग देखने को मिला
चातुर्मास के मध्य कल्पद्रुम, इन्द्रध्वज, सिद्धचक्र आदि कुल मिलाकर छोटे-बड़े लगभग ६० विधान सम्पन्न हुए एवं २६ अक्टूबर १९९६ शरदपूर्णिमा को पूज्य माताजी का ६३वाँ जन्मजयंती महोत्सव मनाया गया। उसी दिन मांगीतुंगी में एक अनहोना संयोग और भी देखने को मिला जो अतिशय का ही द्योतक था। हुआ यूँ कि पूज्य माताजी ने मार्च १९९६ में घोषणा की थी कि अप्रैल सन् १९९७ से पूरे देश में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का जन्मजयंती महामहोत्सव राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाना प्रारंभ किया।
जाएगा, जो जैनधर्म की प्राचीनता, सार्वभौमिकता का परिचायक होगा। इस व्यापक समारोह के अन्तर्गत माताजी ने अयोध्या, प्रयाग, हस्तिनापुर में जन्म, दीक्षा एवं आहारचर्या के प्रतीक निर्मित करने की प्रेरणा की, तो प्रयाग से डॉ. प्रेमचंद जैन वहाँ की योजना को समझने हेतु मांगीतुंगी पधारे थे। माताजी उन्हें बता रही थीं कि प्रयाग में धातु का एक विशाल वटवृक्ष बनाकर उसके नीचे भगवान ऋषभदेव की पिच्छी-कमण्डलु सहित मुनि मुद्रा की खड्गासन प्रतिमा विराजमान करना है क्योंकि प्रयाग भगवान के उत्कृष्ट त्याग के कारण ही सार्थक नाम वाला है।
इस चर्चा के मध्य में ही श्री प्रेमचंद प्रदीप कुमार जैन, खारीबावली-दिल्ली ने कहा कि ‘‘प्रयाग में यह वटवृक्ष की पूरी योजना मेरी ओर से बनाई जावे’’ तथा संघपति महावीर प्रसाद जी बोले कि ‘‘मेरी ओर से प्रयाग में भगवान ऋषभदेव की २१ फुट पद्मासन प्रतिमा का निर्माण करवा दीजिए।’’ इन दोनों दानी महानुभावों का दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान-हस्तिनापुर एवं प्रयाग की ओर से सम्मान किया गया। सभा में उपस्थित समस्त जनसमूह आश्चर्यचकित हो कहने लगा कि
‘‘यह वैâसी जादुई शक्ति है, जो जिह्वा से वचन निकलते ही भक्तगण आगे से आगे उन्हें पूर्ण करने को तैयार खड़े रहते हैं।’ मैंने कहा कि ‘‘यह सब भगवान के प्रति माताजी की अप्रतिम भक्ति का ही चमत्कार है इसीलिए इनके प्रत्येक कार्य के पीछे चव्रेâश्वरी देवी की शक्ति दौड़ती रहती है।’’ पूज्य माताजी के जीवन में सिद्धक्षेत्र का यह प्रथम चातुर्मास जन-जन के लिए किसी न किसी कार्य की सिद्धि का प्रतीक बन गया, यह प्रसन्नता की बात है। भविष्य में इसी प्रकार से गुरु प्रेरणा प्रत्येक समाज का कल्याण करे, यही मंगलकामना है।
मांगीतुंगी तीर्थ से विहार :-
मूर्ति निर्माण की घोषणा से जहाँ एक ओर सभी के हृदय खुशी से अभिभूत हो रहे थे, वहीं पूज्य माताजी के मांगीतुंगी से विहार की घोषणा ने सभी को गंभीर मुद्रा में डाल दिया। पिछले ६-७ महीनों से माताजी के सानिध्य में जो उल्लास एवं उमंग देखने को मिलती थी, सभी को उसके खो जाने का डर था।
आर्यिका श्री श्रेयांसमती माताजी, उनके संघ की सभी आर्यिकाएँ, पूज्य माताजी के असीमवात्सल्य को पाकर हृदय से अभिभूत थीं। खैर चातुर्मास के उपरान्त अपने पूर्व नियोजित कार्यक्रमानुसार पूज्य माताजी ने १४ नवम्बर १९९६ को वहाँ से विहार कर दिया एवं ३० मार्च १९९७ को संघ सहित भारत की राजधानी दिल्ली पहुँच गई।
आर्यिका माताजी का वात्सल्य भुलाया नहीं जा सकता
जिस दिन से हम लोगों ने हस्तिनापुर से मांगीतुंगी की ओर विहार किया था, उस दिन से ही मांगीतुंगी में विराजमान पूज्य आर्यिका श्री श्रेयांसमती माताजी के अतिरिक्त आर्यिका श्री सुगुणमती माताजी, आर्यिका श्री चन्द्रमती माताजी, आर्यिका श्री सुदृष्टिमती माताजी, आर्यिका श्री मनोमती माताजी, आर्यिका श्री दक्षमती माताजी आदि आर्यिकाएँ भी अतीव प्रसन्न थीं कि इस निमित्त से हमें पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के दर्शन एवं उनसे ज्ञानार्जन और दीर्घकालीन अनुभव भी प्राप्त हो सकेगा।
हम लोगों की निर्विघ्न यात्रा सम्पन्नता हेतु इन सभी माताओं ने जाप्यादि के अनुष्ठान भी किये थे तथा वहाँ पहुँचने पर इन लोगों के असीम वात्सल्य ने हमारी सारी थकान दूर कर दी थी। मांगीतुंगी पंचकल्याणक एवं चातुर्मास के प्रवासकाल में पूज्य सभी माताजी के साथ बिताए गए स्वाध्याय, आगमचर्चा, वैयावृत्ति आदि के स्र्विणम क्षण सदैव याद आते हैं। गणिनी माताजी के प्रति इन लोगों की अगाढ़ श्रद्धा-भक्ति तो थी ही, मुझ लघु दीक्षित आर्यिका व क्षुल्लक मोतीसागर जी के लिए भी सदा विनय, वात्सल्य एवं गुणग्राहकता ही झलकती थी। यही कारण रहा कि हम सबको भी वहाँ का प्रत्येक कार्य जम्बूद्वीप के समान अपना प्रतीत होता था और कठिन से कठिन कार्य करके, लेखन आदि का परिश्रम करके भी हमें थकावट महसूस नहीं होती थी।
वहाँ कुछ अत्यधिक पुराने एवं दकियानूसी विचारों वाली एक आर्यिका मनोमती जी थीं, जो चौके में किसी श्रावक-श्राविका को पॉलिस्टर के कपड़े पहने देख लेतीं या किसी की चोटी में रबड़ बैंड, हाथ में अंगूठी आदि देख लेतीं, तो कभी-कभी बेचैन होकर आहार छोड़ देतीं या काफी हूँ हूँ करके चौके के बाहर से उन्हें भगा देती थीं, तो मैं तथा संघ की ब्रह्मचारिणी बहनें उनके साथ खूब मजाक भी करती थीं
लेकिन उन्होंने कभी बुरा न मानकर सदैव मुस्कराहट का ही परिचय देते हुए कहा कि तुम खूब हँस लो, मुझे अच्छा लगता है, परन्तु मैं क्या करूँ? मुझे यह सब देखकर घबड़ाहट होने लगती है। पूज्य माताजी जब उन्हें समझातीं, तो वे बड़े विनय भाव से कहने लगतीं कि ऐसी वात्सल्यमयी माँ मुझे बड़े भाग्य से मिली है, इस प्रकार बच्चों के समान प्यार से समझाने वाला मुझे जीवन में कोई नहीं मिला था। आपके जाने के बाद मुझे इस तरह से कौन समझाएगा ?इत्यादि।’’
इसी प्रकार एक वयोवृद्ध आर्यिका श्री सुगुणमती माताजी दिन में ४-५ बार मंदिर दर्शन करने जातीं, कभी-कभी गिर जाने पर चोट लगने पर भी उन्हें २-४ बार मंदिर दर्शन के बिना चैन नहीं पड़ती थी, तो क्षुल्लक मोतीसागर जी ने उन्हें ‘दर्शनमती’ कहना शुरू कर दिया लेकिन वे बिल्कुल भी बुरा न मान कर यही कहती रहतंीं कि ‘‘
आप लोगों का प्रेम हमेशा याद आएगा तथा आप सभी का दिन भर कार्य करने का जो सुन्दर तरीका है, सामूहिक स्वाध्याय, सामूहिक अध्ययन, संघ का अनुशासन आदि देखकर मन बड़ा प्रसन्न होता है।’’ इस प्रकार आर्यिका श्री सुदृष्टिमती माताजी हमेशा पूज्य गणिनी माताजी के लिए शास्त्रभंंडार से शास्त्र निकालना, वैयावृत्ति करना, पिच्छी बनाना आदि प्रत्येक कार्य हेतु हरदम तैयार रहतीं और हम लोगों के सुख-दुःख का भी खूब ध्यान रखते हुए प्रसन्नता का अनुभव करतीं।
इन छोटी उम्र वाली माताजी की नवोदित प्रतिभा भविष्य में निश्चित ही गुरु परम्परा वृद्धि में चार चाँद लगाएगी। चातुर्मास में श्रावण शु. ८ को औरंगाबाद की एक ब्रह्मचारिणी राजाबाई कासलीवाल ने लेकर शैलमती नाम प्राप्त किया। वे भी मांगीतुंगी के इतिहास से जुड़ी एक कड़ी हैं। इन समस्त माताओं से युक्त र्आियका संघ का वात्सल्य अब तो हमारे जीवन का अविस्मरणीय अंग ही बनकर रह गया है क्योंकि पदविहारी साधुओं का मिलन तो यदा-कदा ही संभव होता है।
हरियाणा राज्य में प्रेरणादायी प्रतिबंध
२३ मार्च १९९७ को हम लोग राजस्थान के ‘‘शाजांपुर’’ के डाकबंगले में ठहरे थे। अगले दिन २४ मार्च को होली थी इसीलिए जगह-जगह शराब की दुकानों पर लोग झूमते नजर आते थे। उस दिन शाम को ठीक ६ बजे राजस्थान प्रान्त की सीमा समाप्त करके ‘‘बावल’’ नामक गाँव केस्कूल में आए तो हरियाणा की सीमा प्रारंभ होते ही वहाँ के लोगों ने बताया कि
‘‘माताजी! हमारे हरियाणा में तो सरकार की ओर से कानून लागू है कि शराब पीकर यदि कोई गाड़ी चलाता पाया गया, पीता हुआ कोई सड़क पर देखा गया अथवा शराब की बोतलें लेकर किसी को पकड़ा गया तो उसे सीधे जेल भेज दिया जाता है। इसके साथ ही पूरे हरियाणा में कोई शराब की दुकान नहीं खोल सकता है।
यह राजकीय प्रतिबंध है।’’ यह प्रतिबंध सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई और हमने कहा कि यदि इसी प्रकार हर प्रदेशों में ऐसे ही कानून बन जाएं, तो हमारा देश ‘‘सोने की चिड़िया’’ की सार्थकता को पा जावे, जिस हरियाणा को हम बहुत बिगड़ा हुआ क्षेत्र माना करते थे, वहाँ बहुत ही सदाचार प्रवृत्ति देखने को मिली। यहाँ तक कि हम लोगों ने होली (दुलहंडी) के मुख्यदिवस पर भी दोनों समय पदविहार किया। रेवाड़ी एवं दिल्ली के श्रावक साथ रहे, कहीं भी किसी प्रकार की समस्या सामने नहीं आई।
टूरिंग शिलान्यास
यूँ तो हम लोग मांगीतुंगी से विहार करते हुए जगह-जगह नई-नई योजनाओं के शिलान्यास करते आए थे। उसी शृंखला में हरियाणा प्रान्त भी अछूता नहीं रहा, रेवाड़ी के मॉडल-टाउन एरिया में नवनिर्मित होने वाले मंदिरजी के लिए पूज्य माताजी ने कैलाशपर्वत की वेदी का शिलान्यास संघस्थ ब्रह्मचारिणी बहनों को भेजकर करवाया क्योंकि २५ मार्च को वहाँ चैत्र कृष्णा एकम तिथि को पूज्य माताजी का ४४वाँ क्षुल्लिका दीक्षा दिवस शहर में मनाया जा रहा था।
पुन: उसी दिन आगे धारूहेड़ा के लिए विहार भी था किन्तु २६ मार्च को धारूहेड़ा पहुँचते ही चमत्कार की मानो पराकाष्ठा ही हो गई। हुआ यूँ कि धारूहेड़ा में गाँव से बाहर मेन हाईवे रोड पर ‘‘जैन पब्लिस्कूल’’ में पूज्य माताजी व हम सभी को जरा सी देर रोककर देवेन्द्र कुमार जैन नामक वहाँ के श्रावक ने कहा कि पिछले वर्ष यहाँ से जाते समय आपने आशीर्वाद दिया था,।
तो हमें खूब बड़ी भूस्कूल के पार्व हेतु मिल गई है, अब आप ऐसा आशीर्वाद दीजिए कि हम इस भूमि का अच्छा विकास कर सके। पूज्य माताजी हम लोगों के साथ लघु विचार-विमर्श करके बोलीं कि इस पार्व का नाम ‘‘भगवान ऋषभदेव ‘‘ रखो तथा इस में एक छोटा सा बनाकर उस पर भगवान ऋषभदेव की पद्मासन प्रतिमा विराजमान करो ताकि दोनों ओर से निकली मुख्य सड़कों पर चलते पथिकों की दृष्टि भगवान् पर पड़े और अनायास ही वे अपने पापों का नाश करने में सफल हो सके।
धारूहेड़ा के जो ४-५ लोग साथ थे, उन्हें यह प्रस्ताव बहुत अच्छा लगा फिर तो ‘‘शुभस्य शीघ्रं’’ वाली नीति सार्थक हो गई और देखते ही देखते का स्थान निश्चित हो गया, पूज्य माताजी के करकमलों से वहाँ रक्षायंत्र स्थापित करवाने के दृष्टिकोण से गड्ढा खुदने लगा, फिर एक सज्जन बोले कि ‘‘माताजी! यदि आप आदेश करें तो शिलान्यास ही हो जाये। मैं अभी ५ मिनट में सारी सामग्री ले आता हूँ।’’ माताजी की स्वीकृति होते ही सारा समारोह घंटे भर में सम्पन्न हो गया।
तब तक गाँव के २०-२५ नर-नारी भी वहाँ आ गये थे, क्षुल्लक मोतीसागर जी की प्रेरणा से बोली भी हुर्इं, तो मिनटों में १ लाख से अधिक धनराशि एकत्रित हो गई। सभी ने उत्साहपूर्वक वैâलाशपर्वत का शिलान्यास किया पुन: माताजी के संघ का ‘धारूहेड़ा’’ गाँव के अन्दर पदार्पण हुआ और आहार के पश्चात् मध्यान्ह प्रवचन करके ४ बजे ही आगे विहार हो गया।
इतना सब देखकर कई नगरों के लोग तो कहने लगते थे कि आपके संघ में यह तो देवोपुनीत जैसी व्यवस्था लगती है कि २-४ घंटों में ही आपके संघ के माध्यम से समाज को कई प्रकार की उपलब्धियाँ हो जाती हैं। उस दिन तो मैं भी कह उठी कि ‘‘माताजी! आप वास्तव में अब ‘‘शिलान्यासमती’’ और ‘‘निर्माणमती’’ के रूप में ही साकार हो रही हैं क्योंकि अब तो चलते-फिरते शिलान्यास होने लगे हैं।
णमोकार बैंक की शाखाएँ
जम्बूद्वीपस्थल-हस्तिनापुर में पूज्य माताजी की प्रेरणा से ८ अक्टूबर १९९५, शरदपूर्णिमा को ‘‘णमोकार महामंत्र बैंक’’ की स्थापना हुई थी पुनः उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात प्रान्तों में संघ भ्रमण के दौरान दो सौ से अधिक बैंक की शाखाएँ खुलीं और ५० हजार से अधिक निःशुल्क लेखन पुस्तिकाएँ दानदातारों की ओर से लेखकों को वितरित की गईं। इन १० वर्षों में बैंक में करोड़ों मंत्रों का संग्रह हो चुका है।
महिला संगठन की इकाई समितियाँ
मार्च १९९६ में इंदौर (मध्यप्रदेश) में पूज्य माताजी की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से उन्हीं के सानिध्य में एक ‘‘अखिल भारतीय दिगम्बर जैन महिला संगठन’’ नाम से महिलाओं का संगठन गठित हुआ, जो अन्य समस्त सभा, संस्थाओं की राजनीति से दूर सामाजिक कुरीतियों को हटाने हेतु सक्रिय है तथा अनेक प्रान्तों में इसकी लगभग १७५ इकाई समितियाँ खुल चुकी हैं, जो सक्रिय कार्य करती हुई नारी जागरण की ओर अग्रसर हैं।
स्वप्नवत् सारा विहार सम्पन्न हो गया
अपने निश्चित कार्यक्रमानुसार जब हम लोग ३० मार्च १९९७ को लालकिला मैदान दिल्ली आ गए, तो संघपति महावीर प्रसाद जी, उनकी पत्नी सौ. कुसुमलता जी, प्रेमचंद जी-खारीबावली, कमलचंद जैन आदि महानुभाव कहने लगे कि माताजी! आज ऐसा लग रहा है, मानो यह सब स्वप्न था। क्या यह वास्तव में सत्य घटना है कि आप लोग ३६०० किमी. एक वर्ष में चलकर वापस आ गये हैं?
सत्य को ही स्वप्न समझने में मैं स्वयं भी सम्मिलित हो गई और समझ नहीं आया कि इतनी भारी धर्मप्रभावना के साथ उत्तर से दक्षिण-पश्चिम की सीमाओं को अपने ही पैरों से नाप लेना वास्तव में भगवान ऋषभदेव का जाप्य मंत्र एवं पूज्य माताजी का आशीर्वाद ही हमारा संबल रहा है। पाठकजन इस स्वप्न को पूर्ण सत्य ही मानें और अपने आत्मबल को वृद्धिंगत कर देव-शास्त्र-गुरु के परमभक्त बनें।
धर्मगुरुओं से वात्सल्यपूर्ण मिलन
हस्तिनापुर से मांगीतुंगी एवं मांगीतुंगी से वापस दिल्ली प्रवास तक मध्य में कुछ स्थानों पर दिगम्बर जैन आचार्यों, मुनियों एवं आर्यिकाओं से भी मिलकर अनेक सामयिक विषयों पर चर्चाएं हुई, वे स्थान और साधु के नाम इस प्रकार हैं-
१. आचार्य श्री विद्यानंद महाराज -दिल्ली
२. आचार्य श्री सन्मतिसागर महाराज संघ -दिल्ली
३. आर्यिका कुलभूषणमती माताजी -महावीर जी (राज.)
४. मुनि श्री सिद्धान्तसागर महाराज -सवाई माधोपुर (साहू सीमेंट पैक्ट्री)राज.
५. मुनि श्री तरुणसागर महाराज -कोटा (राज.)
६. मुनि श्री निजानंदसागर महाराज -इंदौर (म.प्र.)
७. मुनि श्री रयणसागर महाराज -मांगीतुंगी (महा.)
८. आर्यिका श्री श्रेयांसमती माताजी -मांगीतुंगी (महा.)
९. आर्यिका श्री कीर्तिमती माताजी -महुवा (गुज.)
१०. मुनि श्री कीर्तिधरनंदी महाराज -अहमदाबाद
११. मुनि श्री हेमंतसागर एवं विरागसागर महाराज -खेरवाड़ा एवं केशरिया जी (राज.)
१२. आर्यिका श्री आदिमती एवं श्रुतमती माताजी -सलूम्बर (राज.)
१३. आचार्य श्री पद्मनंदि महाराज संघ -देवपुरा (राज.)
१४. आचार्य श्री अभिनन्दन सागर महाराज संघ -उदयपुर (राज.)
१५. आचार्य श्री नेमिसागर महाराज -दिल्ली-लालमंदिर
राजनेताओं को मंगल आशीर्वाद
अनेक नगर एवं शहरों में छोटे-बड़े राजनेता, पुलिस अधिकारी, पटवारी, नगरप्रमुख, सरपंच आदि ने आकर पूज्य माताजी के श्रीचरणों में वंदन कर शुभाशीर्वाद प्राप्त किया है, उनमें से कुछ प्रमुख नेताओं के नाम प्रसंगोपात्त यहाँ दे रही हूँ- नेता के नाम कहाँ आए?
१. श्री चरती लाल गोयल दरियागंज, दिल्ली(दिल्ली प्रदेश विधान सभा अध्यक्ष)
२. श्री मनोहर जोशी -मुख्यमंत्री महाराष्ट्र प्रदेश मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र
३. श्री जयचंद जैन कासलीवाल मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र(विधायक) महाराष्ट्र
४. महाराष्ट्र शासन के अनेक विभागीय मंत्री मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र
५. श्री शंकर सिंह वाघेला अहमदाबाद (गुजरात)मुख्यमंत्री गुजरात प्रदेश
६. श्री कृष्णपाल सिंह -महामहिम राज्यपाल गुजरात गांधीनगर (गुजरात)
७. दीप्तीवेनपटेल चेयर मैन महिला उत्कर्ष मंडल अहमदाबाद गुजरात
८. आनन्दीबेनपटेल सांसद अहमदाबाद
९. भावनाबेन दवे (भूतपूर्व मेयर अहमदाबाद) अहमदाबाद
१०. लीलाबेन अध्वर्यु (कार्पोरेटर) अहमदाबाद
११. श्री दिनेश चंद रावल (चेयरमेन इंडियन काउंसिल ऑफ वेलपेयर) अहमदाबाद
१२. श्री विजय भाई पटेल (सांसद) अहमदाबाद
१३. श्री यतीन भाई ओझा (विधान सभा सदस्य) अहमदाबाद
१४. श्री शांतिलाल चपलोत (राजस्थान विधान सभा अध्यक्ष) सलूम्बर (राज.)
१५. श्री साहब सिंह वर्मा लालकिला मैदान (मुख्यमंत्री दिल्ली प्रदेश) दिल्ली
१६. श्री जय प्रकाश अग्रवाल (सांसद) लालकिला मैदान, दिल्ली
१७. कु. पूर्णिमा सेठी (विधायक) दिल्ली लालकिला, दिल्ली
१८. श्री मदनलाल गाबा (क्षेत्रीय विधायक) ऋषभविहार, दिल्ली
१९. डा. हर्षवर्धन(स्वास्थ्य एवं शिक्षामंत्री-दिल्ली प्रदेश) ऋषभविहार, दिल्ली
२०. श्रीमती मिथिलेश जैन (अध्यक्ष पर्यावरण विभाग) ऋषभविहार, दिल्ली
२१. श्री जय प्रकाश अग्रवाल (सांसद) ऋषभविहार, दिल्ली
२२. श्री वीरेन्द्र कुमार जैन (वित्त राज्य मंत्री भारत सरकार) सूर्य नगर (गाजियाबाद)
२३. श्री वासुदेव कप्तान-विधायक दिल्ली प्रदेश लालकिला मैदान, दिल्ली
राजधानी में प्रवेश के साथ ही कार्यक्रमों का सिलसिला शुरू हो गया
अब तक दिल्ली वाले भी अच्छी तरह से समझ चुके हैं कि ज्ञानमती माताजी न तो स्वयं खाली बैठती हैं और न वे किसी को जरा भी देर खाली बैठने देती हैं अत: दिल्ली में ३० मार्च १९९७ को मंगल प्रवेश होते ही २ अप्रैल को भगवान ऋषभदेव जन्मजयंती महोत्सव का विशेष कार्यक्रम दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर एवं अग्रवाल दिगम्बर जैन पंचायत के संयुक्त तत्त्वावधान में रथयात्रा एवं दिगम्बर जैन लाल मंदिर में १०८ चाँदी के कलशों से भगवान ऋषभदेव का जन्माभिषेकपूर्वक मनाया गया तथा इस वर्ष को ‘‘भगवान ऋषभदेव जन्मजयंती महोत्सव वर्ष’’ घोषित किया गया।
इसी अवसर पर पूज्य माताजी की प्रेरणा से चाँदनी चौक, दिल्ली में अखिल भारतीय दिगम्बर जैन महिला संगठन की इकाई का दीप जलाकर उद्घाटन किया गया। वर्तमान में दिल्ली की विभिन्न कॉलोनियों में उस महिला संगठन की लगभग ५० इकाईयाँ कार्य कर रही हैं।