(महावीर और त्रिशला का संवाद)
तर्ज-बार-बार तोहे क्या समझाऊँ………..
माता त्रिशला-
महावीर ओ वीर लाडला, आजा मेरे पास।
आँखों का तारा मेरा, कुण्डलपुरी का युवराज।। आँखों का ………।।
बेटा मेरे महलों में अब, शीघ्र बहू ले आ तू।
मेरी आशाओं का सुन्दर महल सजाएगा तू।
तुझ जैसी सुत की जननी बन, धन्य हुई मैं आज।
आँखों का तारा मेरा, कुण्डलपुरी का युवराज।।१।।
महावीर-
भोली भाली माता मेरी, सुन ले दिल की बात।
अपनी पसंद की दुल्हन, लाऊँगा कुछ दिन बाद।। अपनी……….।।
पहले तेरी गोदी में, छुप छुपकर तुझे मना लूँ।
फिर जीवन संगिनी को लेने, दूर कहीं मैं जाऊँ।।
खुशी-खुशी तू आज्ञा दे दे, तभी बनेगी बात।
अपनी पसंद की दुल्हन, लाऊँगा कुछ दिन बाद।।१।।
त्रिशला-
बेटा तू जिसमें खुश है, बस वही खुशी मेरी है।
मेरे मन की बात आज, मानो तूने कह दी है।।
लाड़ लड़ा ले चाहे जितना, पर अब चढ़े बारात।
आँखों का तारा मेरा, कुण्डलपुरी का युवराज।।२।।
महावीर-
अब मिल गया वचन तो सुन माँ, वह दुल्हन कैसी है।
नाम है उसका सिद्धिप्रिया, वह सिद्धमहल रहती है।।
उसको वरने जाऊँगा, मैं ले दीक्षा बारात।
अपनी पसंद की दुल्हन, लाऊँगा कुछ दिन बाद।।२।।
त्रिशला-
यह कैसी अनहोनी बातें, करता तू महावीरा।
अपनी भोली माता से, क्यों छल करता है वीरा।।
सह नहिं पाऊँगी मैं बेटा, असमय में ये मजाक।
आँखों का तारा मेरा, कुण्डलपुरी का युवराज।।३।।
महावीर-
जिसे तू कहती है अनहोनी, होना वही है माता।
मैं ना ब्याह रचाऊँ दूजा, सच कहता हूँ माता।
सिद्धिप्रिया से प्रेम है मुझको, सुन ले दिल की बात।
अपनी पसंद की दुल्हन, लाऊँगा कुछ दिन बाद।।३।।
त्रिशला-
इन महलों में क्या कमियाँ, दिखती हैं बेटा तुझको।
क्यों सोचा वन में जाने की, क्यों तू सताता मुझको।।
नहीं कमी हैं सुन्दरियों की, वीर मान ले बात।
आँखों का तारा मेरा, कुण्डलपुरी का युवराज।।४।।
महावीर-
महल का सुख नश्वर है माता, आतमसुख अविनश्वर।
तू अधीर क्यों होती है माँ, मोहचक्र में फसकर।।
मेरी अच्छी माता मुझको, दे दे आशिर्वाद।
अपनी पंसद की दुल्हन, लाऊँगा कुछ दिन बाद।।४।।
त्रिशला-
मेरा यह सुकुमार पुत्र, कैसे जंगल में रहेगा।
भूख प्यास सर्दी गर्मी, तू कैसे सहन करेगा।
मैं रो रोकर दुःख पाऊँगी, कैसे करूँ बर्दाश्त।
आँखों का तारा मेरा, कुण्डलपुरी का युवराज।।५।।
महावीर-
वीर की माता त्रिशला का दिल, महावीर बलशाली।
फिर तू माता ऐसे क्यूं, अपना मन करती खाली।।
तेरा पुत्र अनन्त बली है, भूल गर्इं क्या मात।
अपनी पंसद की दुल्हन, लाऊँगा कुछ दिन बाद।।५।।
त्रिशला-
बेटा हर माँ को अपना, घर-आँगन प्रिय लगता है।
बहू की छम छम पुत्र पौत्र के, संग ही मन रमता है।।
माता के सपनों का तू नहिं, समझ सकेगा राज।
आँखों का तारा मेरा, कुण्डलपुरी का युवराज।।६।।
महावीर-
हर माता की तरह तू अपनी, गणना मत कर माता।
तेरे पग में तो हर माँ, रखती है अपना माथा।
तुझ सम सोलह स्वप्न किसी ने, देखे हैं क्या मात।
अपनी पसंद की दुल्हन, लाऊँगा कुछ दिन बाद।।६।।
त्रिशला-
बड़ी-बड़ी बातें करके तू, मुझको समझाता है।
मेरे दिल की धड़कन तू क्यों, समझ नहीं पाता है।।
अपने पितु का एक सहारा, तू ही तो है लाल।
आँखों का तारा मेरा, कुण्डलपुरी का युवराज।।७।।
महावीर-
जाने कितने मात पिता, भव भव में पाए हमने।
मिथ्या भ्रान्ति तजो माता अब, देखो शाश्वत सपने।।
एक सूर्य का ही होता है, पूर्ण धरा पर राज।
अपनी पसंद की दुल्हन, लाऊँगा कुछ दिन बाद।।७।।
त्रिशला-
तुझसे पहले वीरा तेइस, तीर्थंकर जन्में हैं।
उनमें से उन्निस तीर्थंकर, ने तो ब्याह किये हैं।।
इसीलिए तुझसे भी बेटा, कहती तेरी मात।
आँखों का तारा मेरा, कुण्डलपुरी का युवराज।।८।।
महावीर-
ब्याह बुरा नहिं है लेकिन, अविवाह है उससे अच्छा।
ब्रह्मचर्य में सुख है शाश्वत, भोगों में नहिं सच्चा।
वासुपूज्य मलि नेमि पाश्र्व ने, तभी किया सब त्याग।
अपनी पसंद की दुल्हन, लाऊँगा कुछ दिन बाद।।८।।
त्रिशला-
पुत्र तेरा यह दृढ़ निश्चय, लगता अब निंह बदलेगा।
तेरे संग अब मेरा भी, जीवन उपवन महकेगा।।
तेरे असिधारा व्रत से, होगा जग का उद्धार।
आँखों का तारा मेरा, कुण्डलपुरी का युवराज।।९।।
महावीर-
अब तूने माँ का असली, कर्तव्य निभाया है।
सिद्धारर्थ की रानी का, गौरव तूने पाया है।।
करे ‘‘चन्दना’’ भी उस माँ को, अपने मन में याद।
अपनी पंसद की दुल्हन, लेने चला मैं माता आज।।९।। अपनी………..।।