यह भारत आज नहीं युग से, नारी से रहा न खाली है।
नारी के ही कारण इसकी, गौरव गरिमा बलशाली है।।
जहाँ ब्राह्मी और सुन्दरी की, माता यशस्वती-सुनन्दा है।
वहाँ मोहिनी माता ने पाया, मैना सा पूनम चन्दा है।।१।।
संतान मात की गोदी में, पलकर शैशव को प्राप्त करे।
विधि का विधान देखो यह भी, माता खुद उन्हें प्रणाम करे।।
इन अजब निराली बातों का, साक्षात् दर्श करवाती हूँ।
माँ रत्नमती जी का किचित्, मैं जीवन चरित सुनाती हूँ।।२।।
तीर्थंकर अभिषव से पवित्र, साकेतपुरी इक नगरी है।
कण-कण पवित्र इस स्थल का, नहिं इस सम दूजी नगरी है।।
श्री भरतराज का एकछत्र, शासन फैला जब से जग में।
इस वसुन्धरा का भारत भू, यह नाम पड़ा तब से सच में।।३।।
षट्खंड वसुधा को जीत प्रभू ने, चक्रवर्ति पद प्राप्त किया।
पुनरपि भुजबलि श्री बाहुबली पर, चक्ररत्न को चला दिया।।
सब राज्य विभव को त्याग बाहुबलि, गिरि कैलाश पधारे थे।
तब भरत अयोध्यापति बनकर, कुण्ठित मन राज्य संभारे थे।।४।।
इस नगरि अयोध्या के मधि में, सीतापुर जिला निराला है।
महमूदाबाद ग्राम जहाँ पर, नभ से टूटा इक तारा है।।
भक्तों की भीड़ लगी रहती, मंदिर मेले रथयात्रा पर।
घंटे बाजों की ध्वनि प्रभु का, संदेश सुनाती है घर-घर।।५।।
मंदिर के ही निकटस्थ भवन, श्रेष्ठी सुखपाल रहा करते।
दाम्पत्य सुखों से पूर्ण तथा, श्रावक षट्कर्म सदा करते।।
द्वय पुत्र पुत्रिद्वय के संग में, परिवारिक आनंद बाँटा था।
निज के धार्मिक संस्कारों को, सब सन्तानों में डाला था।।६।।
राजदुलारी मोहिनी इन दो, कन्या रत्नों को पा करके।
पितुमात के हर्ष की वृद्धि हुई, इनका लालन-पालन करके।।
महिपालदास भगवानदास, इक महल के दो स्तंभ बने।
इनसे शोभित सुखपाल दास, होते मन में संतुष्ट घने।।७।।
राजदुलारी ने बाल्य अवस्था से, तरुणावस्था को प्राप्त किया।
व्यवहारिक रीतिरिवाजों ने, माता से उसको पृथक् किया।।
वह सास-ससुर के घर पहुँची, तब नवजीवन प्रारंभ किया।
वैवाहिक प्रथा पुरानी है, उसको इनने आरंभ किया।।८।।
मोहिनी सभी को मोह रही, दोनों भाई संग खेल रही।
सब लाड़प्यार में पली मोहिनी, माँ के मन को मोह रही।।
पर कोई पुत्री माता के संग, कितने दिन रह सकती है।
पुत्री पर का धन है निश्चित, वह तो पर की ही शक्ति है।।९।।
मोहिनी किशोरा को लख कर, माँ-बाप सोचते हैं मन में।
इस योग्य गुणों वाला वर हो, जिससे जोड़ी वरदान बने।।
वर की तलाश तो दूर रही, वर पक्ष तरफ से माँग हुई।
सुन्दर सुयोग्य वर को लखकर, मन की सब पूरी आश हुई।।१०।।
बाराबंकी है जिला जहाँ, इक ग्राम टिकैतनगर शोभे।
जिनमंदिर के ही निकटस्थ भवन में, धनकुमार श्रेष्ठी रहते।।
सब पुत्र-पुत्रियों के संग में, आनन्द मग्न हो रमण करें।
इन सबमें छोटेलाल पुत्र के, संग मोहिनि संबंध करें।।११।।
यह बात जची सबके दिल में, बस शीघ्र कार्य प्रारंभ हुआ।
वर-वधू की राशि मिला करके, शुभ लग्न में यह संबंध हुआ।।
मोहिनि उस घर को छोड़ चली, जिसको निज मान रही अब तक।
बेटी जब तक अविवाहित है, घर से संबंध रहे तब तक।।१२।।
फिर तो पति के ही चरणों में, उसका जीवन न्यौछावर है।
पति के ही घर को अपना कर, उसमें निज पर का भान करे।।
यह है रिश्ता नाता जग का, कब से चलता ही आया है।
इस बिन संसार और मुक्ति का, मार्ग नहीं बन पाया है।।१३।।
दो वर्ष अनंतर मोहिनि ने, इक कन्या रत्न प्रदान किया।
जो मैना से बन ज्ञानमती, सारे जग का कल्याण किया।।
जन-जन को ज्ञानदान देकर, निज सम्यग्ज्ञान प्रचार करें।
जिनकी वाणी रस अमृत से, नर निर्झर अमृत प्राप्त करें।।१४।।
मैना के दीक्षित जीवन से, इनके मन में वैराग्य हुआ।
सामान्य संयमित जीवन कर, दो प्रतिमा के व्रत ग्रहण किया।।
निज व्रत को पालन करके भी, पति आज्ञा में अग्रणी रहीं।
कर्तव्यपरायण हो करके, सब पुत्रपुत्रि को पाल रहीं।।१५।।
कुछ काल अनंतर ही इनके, घर में इक घटना-चक्र घटा।
इक पुत्री मनोवती ने भी, मैना के पथ पर कदम रखा।।
सब भाई-बंधु और मातपिता, समझा-समझाकर हार गए।
उस अडिग प्रतिज्ञा के समक्ष, सबने ही मस्तक झुका दिए।।१६।।
माता मोहिनी के ऊपर यह, क्या वङ्कााघात प्रहार हुआ।
वे समझ नहीं पा रहीं कि यह, किस कालचक्र का वार हुआ।।
कुछ क्षण विचार करतीं वे भी, संसार पंक से निकलूँ मैं।
पर पुन: नारी जीवन के कर्तव्यों, का ध्यान करें मन में।।१७।।
वह मनोवती बन अभयमती, जग अभयदान का पात्र बना।
गुरु ज्ञानमती से ज्ञान ग्रहण कर, जीवन का कल्याण किया।।
मोहिनी गृहस्थ में रह करके, षट्कर्मों का पालन करतीं।
नित धर्मनीति से चार पुत्र, और पुत्रियों का लालन करतीं।।१८।।
ज्यों समय बीतता जाता है, पितु – मात सभी घबड़ाते हैं।
कोई पुत्र या पुत्री न जाए चला, बस यही भावना भाते हैं।।
पर क्या कोई नर है जग में, विधि का विधान जो टाल सके।
अनहोनी भी होके रहती, नहिं होनहार कोई टाल सके।।१९।।
जैसे-तैसे कर सहन किया, तब पिता ने इन आघातों को।
पच्चीस दिसंबर सन् उनहत्तर, चले स्वर्ग तज प्राणों को।।
सब नरनारी के बीच समाधी-मरण हुआ बहुशांती से।
जिनमुनि का आशीर्वाद मिला, नवकार मंत्र पढ़ते-पढ़ते।।२०।।
उस दिन से माँ के जीवन में, ‘माधुरी’ आ गया परिवर्तन।
इस जग में अपना कौन बचा, जिसमें करती मैं अपनापन।।
पर पुत्रों की विक्षिप्त दशा को, देख हृदय कुछ द्रवित हुआ।
कुछ दिन गृह आश्रम में रहकर, कामिनी पुत्रि का ब्याह किया।।२१।।
माधुरी और त्रिशला इन दो, पुत्री का और सहारा था।
अविवाहित बेटा था रवीन्द्र, जो एकमात्र गृहतारा था।।
भादों दशलक्षण महापर्व, जो एक वर्ष में आता है।
अजमेर महानगरी में नर-नारी का लग रहा तांता है।।२२।।
आचार्य धर्मसागर जी का, चउविध संघ वहाँ विराज रहा।
श्री ज्ञानमती माताजी के, उपदेशामृत का ठाठ वहाँ।।
कैलाशपुत्र निज परिकर सह, माँ को संग लेकर निकल पड़े।
मुनिसंघ दर्श के इच्छुक हो, आहारदान के भाव लिये।।२३।।
दश दिवस वहाँ पर रह करके, चउविध दानों का लाभ लिया।
संघ साधू की परिचर्या कर, उपदेशामृत का पान किया।।
इक दिन कैलाशचन्द्र बोले, माँ अब घर को चलना चहिए।
गृहकाज और व्यापार सभी की, देखभाल करना चहिए।।२४।।
माँ बोलीं तुम सब घर जाओ, थोड़े दिन मुझको रहने दो।
इन सबकी त्याग-तपस्या से, मुझको भी शिक्षा लेने दो।।
घबड़ाओ मत बेटा मैं तो, कुछ ही दिन में घर आऊँगी।
मेरा शारीरिक स्वास्थ कहाँ, जो दीक्षा मैं ले पाऊँगी।।२५।।
मैं तो केवल इक बाला की, प्रतिभा शक्ती को देखूँगी।
इस अल्प आयु में केशलोंच, कैसे करती यह देखूँगी।।
माँ की इन बातों को सुनकर, बेटे को कुछ तो धैर्य बंधा।
बोले, माँ मैं कुछ ही दिन में, छोटे भाई को भेजूँगा।।२६।।
दोनों छोटी बहनों को ले, कैलाश चल दिए थे घर को।
लेकिन इक संशय बार-बार, होता रहता उनके मन को।।
माँ कभी न सोचे यह मन में, मेरा इस जग में कौन रहा।
मैं भी माताजी बन जाऊँ, यह सांसारिक संबंध रहा।।२७।।
कुछ दिवस बीतते ही देखो, यह कैसा हुआ धमाका था।
माँ मोहिनी भी दीक्षा लेंगी, यह आया घर संदेशा था।।
इस समाचार को सुन करके, मानो सबको मूर्च्छा आई।
यह अनहोनी कैसे होगी, यह कैसी अशुभ घड़ी आई।।२८।।
कैलाश-प्रकाश-सुभाष सभी, तत्क्षण ही घर से निकल पड़े।
माँ की दीक्षा रुकवाने को, आचार्यश्री के चरण पड़े।।
क्या ऐसी भी दीक्षा होती, जिसमें न किसी की सम्मति हो।
किसकी हस्ती है जो मेरी, माँ को दीक्षा दे सकती हो।।२९।।
आचार्यश्री पड़ गए धर्मसंकट में सोच करें मन में।
इक ओर मोहिनी खड़ी सुदृढ़, हाथों में श्रीफल ले करके।।
चतुराहारों का त्याग किया, जब तक दीक्षा नहिं पाऊँगी।
सांसारिक संबंध पुत्र-बहू, मैं वापस घर नहिं जाऊँगी।।३०।।
सब पुत्र-पुत्रियाँ बिलख रहीं, माँ तुमने क्या सोचा मन में।
पितु का साया तो उठ ही गया, माँ भी निर्मम हो गयी हमसे।।
कुछ दिन तो चलो रहो घर में, हम सबको धैर्य बंधाओ तुम।
माँ-बाप बिना असहाय बालकों, को कुछ तो समझाओ तुम।।३१।।
बेटियाँ सभी रोतीं कहतीं, माँ पीहर कैसे जाएंगे।
माँ बिन क्या घर अच्छा लगता, अरमान सभी खो जाएंगे।।
दामाद सभी रो रहे खड़े, माँ ऐसा अभी न सोचो तुम।
छोटे भाई भगवानदास, रो रहे बहन कुछ बोलो तुम।।३२।।
सब कुटुंबियों का रुदन देख, अजमेर भी विह्वल हो उठता।
जन-जन की आँखों में अश्रू, यह दृश्य परम कारुणिक रहा।।
इक बार सभी के होठों से, यह शब्द अवश्य निकल जाता।
ऐसी दीक्षा मत होने दो, इनको दे दो इनकी माता।।३३।।
लेकिन मोहिनी प्रतिज्ञा का, पालन करके दिखलाएगी।
मोहिनी आज निर्मोहिनी बन, गृहपिंजड़े से उड़ जाएगी।।
माँ को देखा जब निराहार, तो सबका ही दिल कांप गया।
लाखों प्रयत्न करके हारे, तब माँ के चरण प्रणाम किया।।३४।।
माँ जैसी मरजी हो कर लो, आहार चलो तुम ग्रहण करो।
हम निराहार नहिं देख सकें, तुम क्यों शरीर कमजोर करो।।
देखो सुभाष बेहोश पड़ा, इस पर तो थोड़ा तरस करो।
सब पुत्र-पुत्रियों को खुद ही, क्यों दुख सागर में मग्न करो।।३५।।
लेकिन माँ जैसे पत्थर की, नहिं एक अश्रु है आँखों में।
वैरागिन बन दीक्षा लेऊँ, इक यही आश है बस मन में।।
मगशिर वदी तीज तभी आई, यह आशा पूरी करने को।
मोहिनी बन गईं ‘‘रत्नमती’’, तब मोक्षलक्ष्मी वरने को।।३६।।
कर रहीं ज्ञानमती केशलोंच, अपने सम उन्हें बनाने को।
लाखों जन समुदायों के मधि, जैनी चर्या समझाने को।।
परिजन-पुरजन सब खड़े हुए, आँखों से अश्रू बहा रहे।
नहिं बोल सके लेकिन कुछ भी, बस मौन सम्मती दिला रहे।।३७।।
आचार्यश्री ने सोच-समझकर, एक बार पूछा फिर से।
मोहिनी तुम्हें तो मोह नहीं, किसी पुत्र-मित्र संबंधी से।।
तब उठीं मोहिनी हिम्मत से, चउसंघ की साक्षी ले करके।
सब जीवों से कर क्षमाभाव, मन में समता धारण करके।।३८।।
फिर निश्चल होकर बैठ गईं, गुरुवर मुझको दीक्षा दीजे।
श्रीवीतराग के चरणों में, हो मति ऐसी शिक्षा दीजे।।
आर्यिका व्रतों को धारण कर, स्त्रीलिंग से मुक्ती पाऊँ।
बनकर निर्ग्रंथ तपश्चर्या कर, निज में ही मैं रम जाऊँ।।३९।।
मुनिसंघ ने भी विमर्श करके, तब ‘‘रत्नमती’’ यह नाम दिया।
रत्नों की खान कहाती हैं, यह रत्नप्रसूता मात महा।।
चल दिए कुटुंबी सभी दुखित, मन माँ का आशीर्वाद लिए।
अब मात बन गई जगतमात, यह कह सब गृह प्रस्थान किए।।४०।।
माधुरी यह दिल में सोच रही, मैं ही अब क्यों घर में जाऊँ।
आजीवन ब्रह्मचर्य लेकर, माँ की छाया में रह जाऊँ।।
नहिं रोक सके कोई बंधू, उसकी भी अटल प्रतिज्ञा को।
सब मान रहे इसको कोई, भव-भव में करी तपस्या हो।।४१।।
यह दृश्य देख करके रवीन्द्र भी, सोचे तत्त्व व्यवस्था को।
स्त्रीपुत्रादि नहीं कोई, संग जाते जीव अकेला हो।।
कुछ दिन घर जाकर भाई के, संग रह सबको संतुष्ट किया।
दो वर्षों के पश्चात् धर्मसागराचार्य का दर्श किया।।४२।।
श्रीफल ले करके हाथों में, जा गुरुवर चरण प्रणाम किया।
भवबंधन से मुक्ती हेतू, शुभ ब्रह्मचर्य व्रत प्राप्त किया।।
इस समाचार के मिलने पर, घर में भी हाहाकार हुआ।
भाई-भाभी सब रोते थे, मानो क्या वज्राघात हुआ।।४३।।
यह दैव बड़ा निर्दयी बली, कैसा यह रंग दिखाता है।
छोटे-छोटे भाई बहनों को, हम सबसे छुड़वाता है।।
इस तरह सोचते सब भाई, सांसारिक भोग न रुचते हैं।
फिर भी गृहस्थ में रह करके, पूजा दानादिक करते हैं।।४४।।
श्री ज्ञानमती माता सदृश ही, रत्नमती आर्यिका बनीं।
माता पुत्री संबंध नहीं, रह गया धर्मनीति समझीं।।
कुछ दिन आचार्य संघ रह करके, धर्मसाधना करती थीं।
गुरु का आशीर्वाद पा करके, निज को धन्य समझती थीं।।४५।।
आर्यिकासंघ मंगल विहार, दिल्ली की ओर करा जब ही।
माँ रत्नमती भी इस ही संघ में, ज्ञानमती के संग रहीं।।
दिल्ली महानगरी इन्द्रप्रस्थ, कहलाती है इस भूतल पर।
पच्चीस सौवें निर्वाणोत्सव की, धूम मच रही इस थल पर।।४६।।
दिल्लीवासी के भाग्य जगे, माँ ज्ञानमती दर्शन करके।
निर्वाणोत्सव के अवसर पर, ऐसी विदुषी को पा करके।।
फिर क्या था इस सुन्दर सुवर्ण, अवसर पर चार चाँद लगते।
भारत के कोने-कोने से, कितने ही संत तभी चमके।।४७।।
श्री धर्मसागराचार्य देशभूषण आचार्य पधारे थे।
मुनि विद्यानंद माँ ज्ञानमती, ये साधूजगत सितारे थे।।
इन गुरुओं के दर्शन कर करके, रत्नमती पुलकित होतीं।
कुछ दिवस बाद माँ ज्ञानमती संग, हस्तिनागपुर चल देतीं।।४८।।
जहाँ जम्बूद्वीप विशाल तीर्थ, बन गया जगत में न्यारा है।
इसके मधि मेरु सुदर्शन गिरि, जिनवर अभिषव से प्यारा है।।
मेरू के सिद्ध जिनालय के, दर्शन-वंदन करती रहतीं।
शास्त्रिक पौराणिक बातों का, साक्षात् दर्श करती रहतीं।।४९।।
ये रत्नमती माताजी के, जीवन की सब स्मृतियाँ हैं।
माँ ज्ञानमती और अभयमती, सब इनकी ही तो कृतियाँ हैं।।
गर बाँस नहीं होते तो नहिं, बज सकती थी बांसुरी कभी।
जग उऋण नहीं हो सकता है, उपकारों से ‘‘माधुरी’’ कभी।।५०।।
इस जग में सूरज और चंदा का, वास प्रकाश रहे जब तक।
माता की दिग – दिगन्तव्यापी, चहुँ ओर कीर्ति फैले तब तक।।
माँ रत्नमती के चरणों में, सुमनांजलि अर्पित करती हूँ।
मेरा प्रयास यह और फले, सर्वस्व समर्पण करती हूँ।।५१।।