सारांश गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी सम्प्रति सर्वाधिक वरिष्ठ दीक्षित गणिनी आर्यिका हैं। उन्हें डॉ. राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद एवं तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय, मुरादाबाद द्वारा डी. लिट् की मानद उपाधियों से सम्मानित किया जा चुका है। लगभग ३०० ग्रंथों का सृजन कर उन्होंने साहित्य सृजन के क्षेत्र में इतिहास रचा है। धर्म, दर्शन, व्याकरण, न्याय, अध्यात्म, भूगोल, खगोल के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कृतियाँ देने के साथ ही आपने लोकोपयोगी सरल साहित्य का भी सृजन किया है, जिसमें जनकल्याण की वात्सल्यमयी भावना के साथ मानवीय मूल्यों को उभारा गया है। उनके त्यागमय जीवन के ६० वर्ष पूर्ण होने एवं जन्मदिवस शरदपूर्णिमा (२९-१०-१२) के अवसर पर यह आलेख विशेष रूप से प्रस्तुत है।इस समय देश के अंचल में, जड़ता पीड़ा कुंठायें हैं : भाई के हनने को ही अब, भाई की उठी भुजाएं हैं। आचार—विचार अहिंसा पर, अब द्वेषदंभ का पहरा है, निर्जीव आस्थाएँ लगतीं, देवत्व हो चुका बहरा है।
वर्तमान परिवेश में सम्पूर्ण विश्व में राग, द्वेष, आतंक, दुर्व्यसन, मद्यपान, मांसाहार एवं सांस्कृतिक ह्रास आदि से ग्रसित मानव रुग्ण मानसिकता का शिकार है। आज सारा विश्व कठिन परिस्थितियों—यातनाओं की ज्वालाओं में झुलस रहा है। मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विकृतियों का बाहुल्य हो गया है। जीवन में सर्वत्र बुराइयों की गंदगी व्याप्त है। नैतिक और धार्मिक मूल्यों का अवमूल्यन ही नहीं अपितु विनाश हो रहा है। आज चारों ओर हिंसा का ताण्डव दिखाई दे रहा है। जहाँ देखो वहाँ मार काट शोषण की प्रवृत्ति दिखाई देती है। स्थितियाँ बहुत ही विषम हैं। आज का मनुष्य इकाई रूप में तथा समाज, राष्ट्र व विश्व समग्र रूप में अशांति के भंवरजाल में फंसकर विनाश के कगार पर खड़ा है। मानवीय संवेदनाएँ व्यक्तिवाद तथा स्वार्थपरता के दबाव में चूर—चूर हो गई है। धन और पद की लिप्सा ने मनुष्य को मनुष्य का शत्रु बना दिया है। आज सम्पूर्ण विश्व हिंसा के दावानल में सुलग रहा है। मानव भयाकृत व असुरक्षित महसूस कर रहा है। हिंसा का नग्न नृत्य जिस रूप में सामने आ रहा है, वह बहुत ही भयावह व खतरनाक है। आचरण पर विश्वास करना कठिन लगता है। जीवन की दशा के बारे में चिंतन—मनन करके विसंगतियों में लिप्त प्राणियों के उत्थान का निर्देशन गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का स्वभाव बन गया है।गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ऐसी आर्यिका हैं, जिनका सम्पूर्ण जीवन ही महाकाव्य है। जिनकी मृदु और कोमल वाणी में सरगम तैर जाता है, उनकी काव्य साधना में सादगी, विनय, अनुशासन और संयम की सुगंध जन—जन तक फैल रही है, जिससे प्रवाहित होकर हर आयु, जाति के स्त्री, पुरुष में इन मानवीय मूल्यों का बीजांकुर हुआ।
गणिनीश्री ने भारत के प्राय: सभी तीर्थों और क्षेत्रों में विहार कर जीवों का कल्याण किया है। उन्होंने वर्तमान समाज के मापदण्डों और चारित्रिक ह्रास को देखते हुए युवा पीढ़ी के लिए चारित्रिक उन्नयन की ओर प्रेरित करने का भागीरथ प्रयास किया है। गणिनीश्री ने सर्वधर्म सद्भाव की बात की, विश्वबंधुत्व की भावना को अपने उपदेशों में सम्मिलित किया। विश्व का कोई भी धर्म क्यों न हो, सभी नैतिक मूल्यों की स्थापना का प्रतिपादन करते हैं। संसार में यदि कोई महान धर्म है तो वह है ‘विराट मानव धर्म’ जो किसी से राग द्वेष नहीं करता, सभी जीवों के प्रति मित्रता का भाव रखता है। अपने को स्वामी नहीं मानता एवं मिथ्या अहं से दूर होकर जो सुख—दु:ख में समान भाव रखता है। सदैव आत्मसंतुष्ट रहता है। जो आत्मसंयमी है, मन और बुद्धि को स्थिर रखता है, वही अपने जीवन के मूल्य को समझ सकता है। यह सब मनुष्य के सकारात्मक गुण हैं। इसका एक—एक गुण मूल्यवान मणि के समान है और मणियों की यह लड़ी पूरे विश्व को दिव्य बना सकती है। यदि मनुष्य इन गुणों का पालन करे तो संसार का चरित्र ही बदल सकता है। पूज्य माताजी ने कहा कि वर्तमान समाज में आर्थिक असमानता एवं अनावश्यक अनुचित संग्रह समाज में अनेक कष्टों का अनुभव कराता है। आज मानव के नैतिक मूल्यों के बिखराव के जो श्यामल सघन बादल मनुष्य की चेतना पर मंडरा रहे हैं वे वस्तुत: प्रलय के मेघ हैं। जहाँ हिंसा के घृणित तांडव, धनलोलुपता तथा दूसरी ओर भौतिकता की बढ़ती तृषा ने सब ओर से मनुष्य को अपने विषाक्त पंजों में दबोच रखा है। जहाँ मनुष्य, मनुष्य का दुश्मन बना हुआ है, ऐसी परिस्थितियों में बाहुबली नाटक की शिक्षाओं की जरूरत है। बाहुबली ने राजपथ छोड़ विराग पथ चुना, उसे ही सर्वस्व समझा, इस चिंतन की नितांत आवश्यकता है। अपरिग्रहवाद का उदात्त उदाहरण बाहुबली के जीवन से प्राप्त होता है। ‘पतिव्रता’ शीर्षक कृति में गणिनीश्री ज्ञानमती माताजी ने नारी धर्म की उत्कृष्टता पर बल देते हुए नारियों के गिरते चरित्र, संस्कारहीनता को मैनासुन्दरी के उदात्त चरित्र के द्वारा आधुनिक नारी को संकेत दिया है। मैनासुन्दरी ने कोढ़ी पति की सेवा करते हुए अपने सती धर्म का निर्वाह किया है। पूज्य माताजी ने इस कृति के माध्यम से नारी समाज को कर्तव्य का बोध कराया है। पतिव्रत धर्म की मर्यादा को रेखांकित किया है, जो वास्तव में अनुपम है।
यह कृति वर्तमान युग में अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रेरणादायक है। जैन महाभारत पुस्तक के माध्यम से माताजी ने जुआ (द्यूत क्रीड़ा) व्यसन सब अनर्थों एवं सर्व दु:खों की खान कहते हुए आपसी विवादों में न फँसकर समन्वय की प्रेरणा दी है, जिससे मानवीय मूल्यों पर अमल कर प्राणी मात्र अपने जीवन में सुख का विकास कर सके। यह कृति जैन जगत के लिए ही नहीं अपितु मानव मात्र के लिए उपकारक है। प्रतिज्ञा उपन्यास में अनुशासन का महत्व बताते हुए, मनुष्य को अपने जीवन में नियमित होने की ओर अग्रसर हो जीवन सार्थक बनाने की सीख दी है। आत्मानुशासन से ही मानव की प्रतिभा का विकास संभव है। आज आत्मानुशासन को खोकर मानव जीने लगा है। यही कारण है कि आज का मानव विश्व में घोर अधर्मों का पर्याय बनकर रह गया है। मन की एकाग्रता ही अनुशासन है, मन की एकाग्रता के बिना विद्या, कला या विज्ञान किसी भी ज्ञानशाखा का विकास नहीं हो सकता। लेखिका ने स्वयं कहा है—‘बिना नियम के यह मनुष्य जीवन व्यर्थ है इसलिए कुछ न कुछ नियम अवश्य ही जीवन में धारण करना चाहिए। मनुष्य को अपने जीवन में नियमित होना चाहिए तभी उसका जीवन सार्थक बन सकता है” उपकार उपन्यास के माध्यम से पूज्य माताजी ने युवा पीढ़ी के मन में ‘परहित सरस धरम नहिं भाई’ की भावना भरने का प्रयास किया है। परोपकार करना जीवों का मौलिक एवं सहज धर्म है। परोपकार के सोपान पर चढ़कर ही मुक्ति की मंजिल को पाया जा सकता है। मनुष्य देह का आभूषण श्रृंगार नहीं अपितु परोपकार है। परोपकार से ही यह जीवन धन्य बनता है। सज्जन पुरुष परोपकार के लिए ही देह धारण करते हैं। एक दोहे में कहा गया है—
सरवर, तरुवर, संतजन, चौथा बरसे मेह। परोपकार के कारणे, चारों धारी देह।।
आज मानव हृदय से दया, करुणा, सहानुभूति, प्रेम की भावना शून्य होती जा रही है, जिसके कारण वह अनेक संकटों और कष्टों से घिरा रहता है। पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की दृष्टि में ‘जीवन में यदि अहिंसा का स्थान नहीं है, करुणा, सहानुभूति का हृदय में उद्गम नहीं है तो मनुष्य का जीवन व्यर्थ है।’ मानव हृदय में दया, करुणा, प्रेम की भावना को पल्लवित करने हेतु पूज्य माताजी ने जीवनदान उपन्यास लिखा। भारत देश की पावन अहिंसामयी भूमि पर जब हिंसा का तांडव नृत्य हो रहा है, जीवों की निर्मम बलि चढ़ाई जा रही है। समकालीन विषम परिस्थितियों में हिंसा की विभीषिका से त्रस्त मानव जाति के लिए अहिंसा और जीव दया का उपदेश देने वाली आटे का मुर्गा कृति लेखिका की मर्मस्पर्शी कृति है, जिसमें बलि प्रथा का विरोध कर, माँसाहार पर रोक लगाई है ” हिंसा, झूठ, अनैतिकता, दुराचार आदि से ग्रस्त जीवन पापरूप अंधकार की काली रात्रि से गुजर रहा है। ऐसे समय में माताजी द्वारा लिखित संस्कार उपन्यास, जैसा कि नाम मात्र से ही ज्ञात होता है कि संस्कार जीवन का वह अमूल्य रत्न है जिससे मानव अपनी आत्मा को संस्कारित करके परमात्म पद को भी प्राप्त कर सकता है। बिना संस्कारों एवं सद्गुणों का विकास किये कोई भी व्यक्ति जीवन में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। मानव, महामानव तब बन सकता है, जब वह सुसंस्कारों से सुसंस्कृत बन जाता है। सफलता के शीर्ष स्थान पहुँचने के लिए संस्कारों का योगदान महत्वपूर्ण है। आज के भौतिकवादी मानव की धारणा है बैर भाव आपस में दोनों ओर से ही चलता है परन्तु रेखांकित संस्कार उपन्यास को पढ़कर यह धारणा निराधार हो जाती है। लेखिका ने इस लघु कृति में युवावर्ग की रुचि के अनुरूप सरल सुबोध उपन्यास शैली में अपने विचार प्रस्तुत करके धर्म से विमुख पीढ़ी को धर्म की ओर, संस्कारों की ओर आकर्षित करने का उत्तम कार्य किया है।
क्रोध से कभी भी क्रोध पर विजय प्राप्त नहीं की जा सकती है। क्रोध अग्नि के समान है, जो हमारे गुणों को भस्मसात कर देता है, जिसे क्षमारूपी जल से ही शांत किया जा सकता है। पूज्य माताजी ने इस कृति के माध्यम से क्रोध रूपी अग्नि को क्षमा रूपी पावन जल से शांत करने की सीख भी दी है। हमारे पुराणों में अटूट सामग्री बिखरी पड़ी है, जो यदि नई पीढ़ी के सामने सही ढंग से प्रस्तुत की जाये तो नई पीढ़ी में धर्म और संस्कृति के प्रति निष्ठा, श्रद्धा और नैतिक आस्था जाग्रत हो सकती है। जैनधर्म के कर्म सिद्धान्त की विभिन्नताओं को बतलाने वाली यह हृदयस्पर्शी औपन्यासिक कृति सती अंजना के जीवन चरित्र का वर्णन करती है। अंजना का यह जीवन वृतान्त ‘जो जस करिय तो तस फल चाख्या।’ के सिद्धांत का रोमांचकारी उदाहरण है। प्रत्येक मनुष्य को अपने पूर्वसंचित कर्म का फल भोगना पड़ता है।८जैन रामायण पर आधारित अंजना के इस रोमांचक कथानक को पुराणों से निकालकर औपन्यासिक रूप में प्रस्तुत कर लेखिका ने आधुनिक नारी समाज पर महान उपकार किया है। अंजना की क्षमा और सहनशीलता आधुनिक नारी समाज के लिए अनुकरणीय है। ज्ञान का अक्षय भंडार तथा अध्यात्म के सागररूपी इस वाङ्गमय में जीवन मूल्यों के मोती संचित हैं, जो मानव मात्र के सफल जीवन के लिए आचरण योग्य तो है ही क्रमश: आत्मोन्नति में भी परम सहायक है। जिनस्तवनमाला माताजी द्वारा रचित स्तोत्रों का संग्रह है। इस काव्य रचना में माताजी ने श्री पार्श्वनाथ जिन स्तुति में तेईसवें भगवान पार्श्वनाथ की सहनशीलता, धैर्य, दृढ़ता एवं उदात्त क्षमा का भावों के अनुकरण करने की प्रेरणा दी है।
भगवान बाहुबली काव्य में कवयित्री ने वर्तमान युग को संदेश दिया है कि संसार वैभव शाश्वत् नहीं हैं” धन, सम्पत्ति, राज्य के सभी व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और देशों के बीच वैमनस्य, संघर्ष उत्पन्न करने वाले तत्व हैं। युद्ध की पीठिका ही भौतिक सम्पत्ति की एषणा है। भाई—भाई के बीच के तनाव का मूल भी यही है। दूसरे युद्ध कितने भयानक और विनाशक होते हैं। उनके परिणाम सृष्टि के विनाश के लिए कितने घातक हैं। युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं है। अपनी समस्या स्वयं हल करो। विश्वशांति के लिए इससे अच्छा मार्ग ही क्या है ? इस सत्य को आज का युग समझे तो युद्ध की विभीषिका और विनाश से निजात पाई जा सकती है। तीसरा संदेश है कि वैभव धन में नहीं वैराग्य में है, सुख भोग में नहीं योग में है,त्याग में है। अंतिम सुख मुक्ति है और उसे तपाराधना द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। इस लघु कृति के माध्यम से गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने प्रत्येक प्राणी मात्र को जीवन जीने की कला सिखाते हुए गन्तव्य की ओर की प्रेरणा दी है। ‘नारी सबला है अबला नहीं’ यह करके दिखाने वाली बालब्रह्मचारिणी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने नारी जगत के उत्थान हेतु नारी आलोक भाग—१, भाग—२, भाग—३, भाग—४ प्रस्तुत किए हैं। ये पुस्तके वास्तव में वे बोध कथाएँ हैं, जो जीवन के कंटकाकीर्ण मार्ग में पाथेय और प्रकाश का कार्य करती है।
आधुनिक काल में भी साधारणतया कन्या का जन्म घर में क्षोभ उत्पन्न कर देता है किन्तु वास्तविकता तो यह है कि हमारी धर्मपरम्परा सतियों के सतीत्व के बल पर ही अक्षुण्ण बनी हुई है। इन चार भागों के माध्यम से पूज्य माताजी ने नारी समाज को गौरवपूर्ण स्थान प्रदान किया है। संस्कार और संस्कृति का संरक्षण करने में नारी की सदैव प्रमुख भूमिका रही, यह कृति बालिकाओं के जीवन को संस्कारित करने वाली है। वर्तमान में पुत्री को लेकर भ्रूण हत्या का तांडव हो रहा है। कन्या को संसार में आने से पहले ही गर्भ में मार दिया जाता है। माताजी ऐसे लोगों को कन्या का महत्व बताती हैं, उन्हें खूब फटकारती हैं। जिनके पुत्री नहीं होती है, वह भावनाविहीन होते हैं। माताजी ने इस रचना के माध्यम से नारी जगत को हृदयग्राही शब्दों में जीवनयापन करने का संदेश दिया है, वह आज राष्ट्रीय- अंतर्राष्ट्रीय महिला समाज के लिए अनुकरणीय है— प्रिय बालिकाओं! तुम सभी को अपना इह लोक और परलोक सर्वोत्कृष्ट बनाने का पुरुषार्थ करना चाहिए। तुम्हें मिलकर महिला समाज को संगठित करना होगा। दहेज प्रथा का विरोध पुत्र की माताओं से कराओ, शीलधर्म की रक्षा, दैनिक कर्तव्य, दोनों घरों को स्वर्ग बनाने का प्रयास, कलह, अशांति को छोड़कर धर्म की रक्षा में अपने को प्रस्तुत करो। उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि ‘गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी’ का समग्र वाङ्गमय मानव को मुक्तिपथ प्रदर्शित करता है। जीवन को हर क्षण, हर पल एक दिव्य शांति की अनुभूति कराता है, आत्मीय भावनाओं में मानव मूल्यों को सींचता है। जीवन और दर्शन रूपी उपवन में नीतिरूपी पुष्पों से अध्यात्म की सौरभ से यह वाङ्गमय आद्योपान्त सुवासित है।
ज्ञान की सागर ज्ञानमती ने, भागीरथ प्रयास किया। जैन शास्त्र का मंथन कर, ज्ञानामृत को खूब दिया।।
एक सच्चा साहित्यकार वही है जो चारित्र और आचरण की दृढ़ता के साथ—साथ उन बिन्दुओं को भी साहित्य के माध्यम से उजागर करे जिन्हें अपनाकर सृष्टि अपना कल्याण कर सके। गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती जी के समूचे साहित्य में जन कल्याण और लोक कल्याण, यहाँ तक कि सम्पूर्ण सृष्टि के हित की भावना सन्निहित है” पूज्य माताजी की साहित्य सर्जना सरस्वती के भण्डार की अमूल्य निधि है। गणिनीश्री द्वारा प्रणीत साहित्य नैतिक मूल्यों के विकास में, मानवीय मूल्यों के विकास में अत्यन्त उपयोगी है। उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से विश्व जीवन को चैतन्यता प्रदान करने वाला मानवतावादी संदेश दिया है। प्राकृतिक, सामाजिक, शैक्षिक, साहित्यिक, राजनैतिक, अहिंसक, न्यायिक, प्रसंगों द्वारा उन्होंने सम्पूर्ण मानव जाति को भारतीय सांस्कृतिक आदर्शों को पुनर्स्थापित करने का संदेश दिया है। धर्म ग्रंथों में उल्लेख है कि जब—जब धर्म की क्षीणता होती है और कुत्सित आचरणरूपी अधर्म पनपने लगता है,तब कोई न कोई महान व्यक्ति जन्म लेकर धर्म का उत्थान करता है। संभवत: वर्तमान परिस्थितियों का निवारण करने और जन कल्याण की भावना से ओतप्रोत पापान्धकार एवं अज्ञानांधकार से मुक्ति दिलाने हेतु पूज्य माताजी ने सूर्य बन श्रमणत्व एवं श्रावकत्व को जो ऊर्जा, तेज और प्रकाश बाँटा है उससे घोर अंधेरों में भी सबको अपनी—अपनी मंजिल और दिशाबोध होता रहेगा। त्यागमयी जीवन के ६० वर्ष पूर्ण होने पर शतश: वन्दन।
१. सरमन लाल सरस, गणिनी आर्यिकाश्री का सरस काव्य परिचय, गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ, हस्तिनापुर, १९९२, पृ. २८९
२. रेखा जैन, गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के व्यक्तित्व एवं हिन्दी साहित्य का अनुशीलन, शोध प्रबन्ध, देवी अहिल्या वि. वि., इन्दौर, २०१०, पृ. १४५
३. वही, पृ. २२
४. वही, पृ. ८१
५. आचार्य कनकनन्दी, अनुशासन, संस्कार और हम, हृदयपरिवर्तन आंदोलन, मावली, पृ. २००४, पृ. ७२
६. वही, पृ. ६६
७. गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ, पृ, ५१३
८. रेखा जैन, गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के व्यक्तित्व एवं हिन्दी साहित्य का अनुशीलन, पृ. ९९
९. गणिनी आर्यिका ज्ञानमती, नारी आलोक भाग—१, दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर, पृ. १५