सारांश १४-१६ वीं शताब्दी के मध्य मालवा में अनेक मुस्लिम शासकों का शासन रहा। इस अवधि में होशंगशह गौरी, मोहम्मद गौरी, महमूद खिलजी, गयासुद्दीन खिलजी, नासिरुद्दीन खिलजी, महमूद खिलजी-११ आदि के शासन काल में मालवांचल में जैन धर्मानुयायी को अनेक प्रशासनिक पदों पर प्रतिष्ठित किया गया। इसके अतिरिक्त जैन श्रेष्ठियों का भी राजदरबारों में वर्चस्व रहा फलत: जैनधर्म की पर्याप्त प्रगति हुई। अनेक जिन मन्दिरों का निर्माण हुआ। महाकवि मण्डन एवं संग्राम सिंह सोनी इस काल के उल्लेखनीय जैन व्यक्तित्व हैं।परमार वंश के समापन के उपरान्त मालवा का शासन दिल्ली के सुल्तानों के हाथों में चला गया। १२३५ ई. में इल्तुतमिश ने मालवा पर आक्रमण अवश्य किया था, किन्तु वह मालवा से परमारों की सत्ता का उन्मूलन नहीं करपाया था। सन् १३०५ ई.में अलाउद्दीन के सेनापति ऐनु-उल-मुल्क ने पूर्वी मालवा में परमार नरेश महलकदेव को परास्त कर दिया। इस घटना के बाद परमार सत्ता पूरी तरह लड़खड़ा गयी। केवल जयसिंह तृतीय के हाथ नाममात्र की सत्ताा रही और १४वीं सदी में दूसरे दशक के लगते ही दिल्ली के खिलजी सुल्तानो का मालवा पर पूरी तरह प्रभुत्व स्थापित हो गया।
खिलजी वंश के पतन के उपरान्त दिल्ली की सत्ता तुगलकों के हाथ में चली गयी। अंतिम तुगलक सुल्तान अपनी सल्तनत को ठीक से कायम नहीं रख पाया। वैसे तो तुलगक वंश फिरोज तुगलक के ही समय डांवाडोल हो गया, किन्तु उसे वास्तविक चोट तैमर के आक्रमण ने पहुँचायी। तैमूर के आक्रमण के समय दिल्ली का सुल्तान महमूद तुगलक द्वितीय था, जो आक्रमण के कारण मालवा में गया। उस समय मालवा का सूबेदार दिलावर खाँ गोरी था, जिसने सम्प्रभु कर भरपूर सम्मान किया। यद्यपि दिलावरखाँ का पुत्र अलपखाँ इसके पक्ष में नहीं था। दासवंश के उपरान्त मालवा प्रत्यक्ष रूप से खिलजी प्रशासन के अधीन बना रहा।इसके उपरान्त दिल्ली में तुगलक वंश सत्ता पर आ गया।जैन धर्म इस काल में एक बार फिर विकास की ओर चल निकला, क्योंकि तुगलक शासकों से जैन श्रावकों के मधुर संबंध थे। इस स्थिति का प्रभाव का प्रभाव मालवा क्षेत्र में भी स्पष्टतया परिलक्षित हुआ। दिलावरखाँ गोरी सन् १३९० ई. से सन् १४०१ ईस्वी तक तुगलकों के अधीन मलवा का सुबुदार रहा। महमूद तुगलक द्वितीय के मालवा से विदा होने पर दिलावरखाँ ने सन् १४०१ ईस्वी में स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। इस तरह मालवा स्वतंत्र हो गया। धार अभी भी मालवा की राजधानी था। परन्तु दिलावरखाँ को शादियाबाद (माण्डू) अधिक प्रिय था और इस कारण माण्डू को सहसा बड़ा महत्व मिल गया।
दिलावर खाँ सन् १४०५ ई. तक स्वतंत्र मालवा का शासक रहा। यह वह समय था, जबकि मालवा में पर्याप्त मात्रा में जैन परिवार आ गये थे। उन्हें इसलिए मालवा आकर्षक लगा, क्योंकि दिलावरखाँ ने उन्हें जान और माल की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त किया था। दिलावर खाँ को इस समय धन की अत्यधिक आवश्यकता थी, जिसकी पूर्ति ये जैन परिवार कर सकते थे। दिलावर खाँ गोरी के समय जैन धर्म पुन: विकास की राह पर चला पड़ा। पाटन के एक प्रसिद्ध श्रेष्ठी पेथड़शाह के एक संबंधी संघपति झांझण को मालवा में उच्च राजनीतिक पद मिला था। यह व्यक्ति सोमेश्वर चौहान के मंत्री जालौर के सोनगरा गोत्रीय श्रीमाल आभू का वंशज था।
होशंगशाह गौरी
इसका मूल नाम अलपखाँ था, इसका शासन काल १४०६ सं १४३५ से ईस्वी माना जाता है जैन ग्रंथों में इसे आलमशाह भी कहा गया है। होशंगशाह के समय जैन धर्म काफी पनपा। इसके समय पेथड (बीका) का पुत्र झांझण दिल्ली से नाडूलाई होता हुआ, पुन: मालवा में आय। झांझण के छह पुत्र थे, जिनके नाम चाहड़, वाहड, देहड़ पदमसिंह, आल्हु और पाल्हु थे। होशंगशाह इन सबको सम्मान की दृष्टि से देखता था। चाहड़ के चन्द्र और खेमराज नामक दो पुत्र थे। वाहड के दो पुत्र समन्धर और मण्डन हुए। मण्डन होशंगशाह के समय एक विशिष्ट नाम था उसे मंत्रीश्वर कहा गया है क्योंकि वह महाप्रधान के पद पर था वह बड़ा कुशल राजनीतिक तथा विद्वान साहित्यकार था। झांझण का तीसरा पुत्र देहड़ था। देहड के पुत्र का नाम धनपाल या धनराज था। होशंगशाह के समय मण्डन के इस सुयोग्य चचेरे भाई ने संघपति का पद ग्रहण किया। झांझण और चौथा पुत्र पद्मसिंह था। उसने शंखेश्वर तीर्थ की संघ यात्रा समारोहपूर्वक सम्पन्न करवायी थी। इसी कारण इसे संघपति भी कहा जाता था।
झांझण का पाँचवा पुत्र आल्हू था, जिसने मंगलपुर और जीरापल्ली तीर्थ की संघ यात्राएँ की। इसी ने जीरापल्ली में एक सभा मण्डप निर्मित करवाया था। पाल्हु झांझण का छठा और अंतिम पुत्र था। वह उदारतापूर्वक धन व्यय करता था। इसने जिनचन्द्र सूरि की अध्यक्षता में श्री अर्बुद और जीरापल्ली तीर्थ की संघ यात्राएँ सम्पन्न करवायी थी। होशंगशाह का झांझण के छहों पुत्रों के प्रति अत्यधिक सम्मान था, क्योंकि ये भ्रातागण न केवल योग्य तथा धनी थे, अपतिु सुल्तान होशंगशाह को उत्तम सलाह भी देते थे। इन्हीं के कहने से सुल्तान ने राजा केसीदास, राजा हरिराज, राजा अगरदास तथा वरात, लूनार और बाहड नामक विख्यात और स्वाभिमानी ब्राह्मणों को बंदीग्रह से मुक्त किया था। ५ होशंगशाह का पुत्र गजनीखाँ था। गजनीखाँ किसी कारणवश अपने पिता से रूठकर माण्डगढ़ से अपने मित्रों के साथ नान्दियाँ ग्राम में आ गया था। इस ग्राम में संघरणा नामक एक अत्यधिक धनी व उदार जैन श्रेष्ठी निवास करता था। गजनीखाँ ने धारण से तीन लाख रूपया उधार मांगा, जिसे धारण ने इस शर्त के साथ दे दिया कि जब गजनीखाँ माण्डव का शासक बने, तब वे धनराशि धारण को लौटा दे। धारण ने ही कालान्तर में गजनीखाँ को समझा बुझाकर उसके पिता होशंगशाह के पास माण्डु के लिये प्रस्थित करवाया था सुल्तान होशंगशाह को धारण के इस कार्य ने बड़ा प्रसन्न किया।
मोहम्मद गौरी (१४३५-३६ ईस्वी)
होशंगशाह के समय माण्डव के दरबारियों के दो समूह हो गये थे। एक समूह का नेता शहजादा उथमन खाँ था तथा दूसरे समूह कमा नेता शहजादा गजनीखाँ था। होशंगशाह ने गजनीखाँ को अपना उत्तराधिकारी नियुक्ति किया था। यह करना घातक रहा। ८ जुलाई, १४३५ ई. को गजनी खाँ मोहम्मदशाह गोरी के नाम से मालवा का सुल्तान बना। महमूदखाँ को उसका संरक्षक नियुक्त किया गया। दुर्भाग्यवश नया सुल्तान अत्याधिक शराबी निकला। उसने सारा शासन प्रशासन अपने श्वसुर मलिक मुगीस तथा अपने साले व संरक्षक महमूद खाँ के हाथों में केन्द्रित कर दिया। परिणाम अच्छा नहीं निकला। अवसर देखकर मोहम्मदशाह को जहर देकर मार दिया७ ८ अप्रैल १४३६ ई. को सुल्तान मोहम्मदशाह संसार से विदा हो गया। गजनीखाँ का शासन अत्यन्त ही अल्पकालीन था। उसनक नान्दियाँ ग्राम से धारणाशाह को माण्डव आमंत्रित किया। उसने उससे उधार लिये तीन लाख रूपये के बदले में छहलाख रूपये प्रदान किया और दरबार में उच्च पद प्रदान किया। बादशाह का धारणा के प्रति यह अति स्नेह माण्डव के अन्य अमीरों को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने मोहम्मदशाह के कान भरना प्रारम्भ कर दिये। कमजोर मनोबल वाले सुल्तान ने संघ यात्रा पर निकले धारण को बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया। धारण की रिहाई के लिये संघ ने अनेक प्रयास किये, स्वयं को मुक्त करना पड़ा। जब मोहम्मदशाह को अपदस्थ कर महमूद खिलजी ने शासन संभाला तो उचित अवसर देखकर धारणशाह माण्डव से निकल भागा।
महमूद खिलजी (प्रथम)
सन् १४३६ ई. में महमूद खाँ माण्डव का सुल्तान था। वह खिलजी वंश का था और इस कारण मालवा का सुल्तान वंश उसी के साथ परिवर्तित हो गया। सिंहासन पर बैठने पर उसने अपने पिता मलिक मुगीस को ‘निजाम-उल-मुलक’ उपाधि प्रदान कर उसे बजीर के पद पर नियुक्त किया।सन् १४४२ ई. तक उसने अपने आप को पूरी तरह स्थापित कर लिया।९ महमूद खिलजी जैन धर्म के प्रति बड़ा सहिष्णु और संरक्षक सिद्ध हुआ। उसके समय में मण्डन के चार पुत्र पूजा, जोगा, संग्रामसिंह और श्रीमल्ल को माण्डव का राज्य दिया। उस समय अनेक सम्पन्न व्यापारियों का केन्द्र था।१० सन् १४६८ ई. में मुलि मेरुसुन्दर ने माण्डव दुर्ग में संधपति धनराज के अनुरोध पर शीलोपदेश मालना बालाव बोध की रचना की। उस समय पूरा निमाड़ अनेक जैन तीर्थों से युक्त था। माण्डव के अतिरिक्त तारापुर सिंघाना, तालनपुर, नानपरु चिकली ढ़ोला तथा लक्ष्मणी आदि स्थानों पर जिनालय विद्यमान थे। इसी सुल्तान महमूद खिलजी का एक मंत्री माण्डव निवासी जैनचंद्र साधु था, जो चांदाशाह के नाम से जाना जाता था। चांदाशाह एक कुशल राजनीतिज्ञ और जैन धर्म का प्रबल अनुयायी था वह बड़ा धर्मात्मा योग्य संगठक, सरल और उदार थ। उसने शत्रुंजय, गिरनार आदि तीर्थों की संघ यात्राओं पर काफी धन व्यय करके संघपति का पद प्राप्त किया था। उसने माण्डवगढ़ में ७२ काष्ठमय जिनालय निर्मित करवाये थे, जिनमें अनेक धातु चौबीसी पट्ट रखवाये थे। महमूद खिली के समय का एक अत्यधिक उल्लेखनीय व्यक्तित्व संग्रामसिंह सोनी था। यह नरेदव सोनी का पुत्र था तथा महमूद खिलजी के समय खजाँची के पद पर नियुक्त था। संग्रामसिह सोनी, श्वेताम्बर, मतानुयायी जैन (ओसवाल) था। महमूद खिलजी के द्वारा राणा कुम्भा और दक्षिण के निजाम के साथ लड़े गये युद्धों में संग्रामसिह सोनी ने मदद की और र्कीित अर्जित की। संग्रामसिंह सोनी राजनीतिज्ञ ही नहीं, वरन् विद्वान भी थ। उसने बुद्धिसागर नामक ग्रंथ की रचना भी की थी। इसने एक हजार स्वर्ण मुद्राएं व्यय करके अलग—अलग स्थानों पर ज्ञान—भण्डारों की स्थापना भी की थी। इसे सुल्तान ने ‘नकद-उल-मुल्क’ की उपाधि दी थी। महमूद खिलजी का राज्यकाल मालवा के जैन धर्म के प्रचार प्रसार का एक प्रकार से स्वर्ण युग रहा। दिगम्बर संप्रदाय के मूल संघ और काष्ठा संघ दोनों ही यहां इस काल में पल्लवित हुए।
गयासुद्दीन खिलजी (१४६९-१५०१)
महमूद के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र गियाथशाह, गयासुद्दीन खिलजी के नाम से मालवा का सुल्तान बना। यह एक विलासी और कलाप्रेमी शासक थ। यह धार्मिक दृष्टि से कट्टर था, फिर भी जैन धर्म के प्रति वह सहिष्णु और उदार था। बहुत संभव है कि अत्यधिक विलासी होने के कारण सदैव धन की आवश्यकता पड़ती रही हो और इस कारण व जैनियों के प्रति अधिक उदार हो गया। उसके समय भी जैन कल्पसूत्रों का पुनर्लेखन होता रहा। भट्टाश्रक संप्रदाय उसके समय में विशेष रूप से पल्लवित हुआ। सूरत शाखा के भट्टारक मल्लीभूषण उसी के समय माण्डव में आये थे। गयासुद्दीन खिलजी के शासनकाल में मालवा के जवासिया ग्राम में एक प्राग्वाट ज्ञातीय परिवार था। इस प्रकार के सदस्य बड़ी धार्मिक प्रवृत्ति के थे। इस परिवार के सदस्यों ने तपागच्छ नामक श्री लक्ष्मीसागर सूरि के कर कमलों से सुमतिनाथ की प्रतिभा प्रतिष्ठत करवायी थी। इसी प्रकार गयासुद्दीन के राज्य माण्डव में सूरा और वीरा नाम प्राग्वाट-ज्ञातीस दो नर-रत्न निवास करते थे वे बड़े उदार व दानी सज्जन थे। वे जिनेश्वरदेव के परम भक्त थे। इस भाईयों ने गयासुद्दीन खिलजी की आज्ञा प्राप्त कर सुधानन्द सूरि के तत्ववधान मेंं माण्डगढ़ से श्री शत्रुजय महातीर्थ की यात्रा करने के लिए संघ निकाला गया। गियाथशाह के समय मंजराल नामक एक जैन विद्धान खालसा मुनि की देख-रेख के लिये वजीर किया था।इसे मुंज बवकाल भी कहते थे।१५ राज्य की ओर से उसे ‘मफर-उल-मुल्क’ की उपाधि प्राप्त थी। मेघ का भतीजा पुंजराज था। वह भी एक उच्च राज्यधिकारी था। उसे हिन्दुआराय वजीर के नाम से जाना जाता था। प्रशासक होने के साथ-साथ वह बड़ा विद्धान भी था। सन् १५०० ई. में उसने ‘सारस्वत प्रक्रिया’ नामक व्याकरण की रचना की थी। उसी की प्रेरणा पाकर ईश्वर सूरि ने ‘ललितांग-चरित’ नामक ग्रंथ की रचना की थी।१६ ऐसा लगता है कि गियाथशाह के शासन काल के उत्तराद्र्ध में जैनियों में पारस्परिक स्पद्र्धा बढ़ गयी, जो समकालीन राजनीतिक परिस्थितियों की देन थी।
नासिरूद्दीन खिलजी (१५००-१५११ ईस्वी)
नासिररूद्दीन के राज्य काल में भी जैन धर्म समाज को पूर्ववत् संरक्षण मिलता रहा। उसके समूचे राज्यकाल में संग्रामसिंह सोनी ‘नकद-उल-मुल्क’ की स्थिति में यथावत् बना रहा। मण्डन करा भतीजा पुंजकाल अभी भी ‘हिन्दुआराय’ पुकारा जाता था। जीवणशाह, गोपाल आदि इस काल के महत्वपूर्ण जैन व्यक्ति थे सन् १५०४ ई. में ईश्वर सूरि नामक कवि ने ‘ललितांग-चरित’ नामक एक रोचक काव्य गंरथ दशपुर में रचा गया था। जिसमें पातिसाह निसीर का उल्लेख आया है। इस ग्रंथ का दूसरा नाम ‘रासकचुडामणि-पुण्य’प्रबंध’ भी कहा गया है।सन् १५०८ ई. में मण्डप दुर्ग में मलधार गच्छ के कवि हीरानन्द ने ‘विद्या-विलास पवाडो’ नाम चरित काव्य की रचना की। नासिरूद्दीन के काल मे ऐसा लगता है कि जैन कला और स्थापत्य का लंबा सिलसिला समाप्त होने लगा था। आश्चर्यजनक रूप से हम उसके राज्य काल में जैन प्रतिमाओं का अभाव सा पाते हैं। दो कारणों से इस समय जैन मत की गति कुण्ठित हो गयी थी। पितृहन्ता नासिरूद्दीन जैन समाज को चाहता नहीं था तथा दूसरी ओर नासिररूद्दीन के बदमिजाज और शराबी व्यक्तित्व से जैन समाज कही कोई संगीति नहीं मिल पा रही थी। नासिरुद्दीन खिलजी में एक दशक का यह राज्यकाल जैन धर्म के लिये मिश्रित उपलब्धियों वाला था, क्योंकि जहां एक ओर मालवा में सत्तारूढ़ वर्ग में जैन धर्म का विरोध प्रारंभ हो गया था, वहीं दूसरी ओर दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय अपनी स्थिति को दृढ़ीभूत करने के प्रयास में थे। अभिलेखीय साक्ष्यों से प्राप्त जानकारी से ऐसा लगता है कि नासिरूद्दीन खिलजी और महमूद खिलजी द्वितीय के राज्यकाल में मालवा में दिगम्बर सम्प्रदाय लगभग अस्त हो गया था और श्वेताम्बर मत भी कोई विशिष्ट उपलब्धियाँ प्रदर्शित नहीं कर रहे थे।
महमूद खिलजी द्वितीय (१५११-१५३१ ईस्वी)
महमूद को मालवा का सुल्तान बनने के पूर्व अपने भाई शहाबुद्दीन मोहम्मद द्वितीय से ग्रह युद्ध लड़ना पड़ा था। ऐसी स्थिति में महमूद ने एक राजपूत नेता मेदिनी राय के सहयोग से सुल्तान पद प्राप्त किया । इस घटना से मेदिनी राय का प्रभाव पर्याप्त बढ़ गया। सुल्तान ने उसको हटाने का का प्रयास किया, किन्तु यह संभव न देख मालवा का सुल्तान गुजरात चला गया और वहां के सुल्तान की सहायता से उसने पुन: मालवा के शासक बनाने का प्रयास किया, किन्तु चित्तोैड़गढ़ के महाराणा संगा ने बीच में ही उसे वैâद कर लिया। काफी कुछ भेंट देकर ही महमूद माण्डव लौट सका। महमूद का माण्डव लौटना, उसके लिये धातक सिद्ध हुआ, क्योंकि गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने सन् १५१३ ई. में माण्डव पर आक्रमण कर उसके सात पुत्रों सहित बंदी बना लिया। गुजरात ले जाते हुए उसे रास्ते में ही मार डाला गया। इस तरह माण्डव से खिलजी शासन का अंत हो गया। महमूद के राज्यकाल में मुस्लिम अमीर पुन: प्रभावशाली हो गये। मेदिनीराय का पतन हो गया। बंसतराज जैसा शक्तिशाली राजनीतिज्ञ मारा गया तथ संग्रामसिंह सोनी को मालवा से निष्कासित किया गया। इन घटनाओं का जैन समाज के अस्तित्व पर प्रभाव पड़ा। मालवा दरबार में जैन का प्रभाव लगभग समाप्त हो गया। उनका व्यापार दिन पर दिन कम होता चला गया और धीरे-धीरे वे या तो मारे गये या मालवा से पलायन कर गये। ऐसी स्थिति में किसी प्रकार के जैन निर्माण की परिकल्पना व्यर्थ की है। मालवा के सुल्तानों के समय जैन धर्म ने उल्लेखनीय प्रगति की। चाहे राजनीति हो या सामाजिक क्षेत्र, प्रशासकीय दायित्व हो या निर्माण कार्य सर्वत्र जैन प्रशासकों एवं श्रेष्ठियों की तूती बोलती रही। सांस्कृतिक क्षेत्र में महाकवि मण्डन तथा प्रशासकीय क्षेत्र में संग्रामसिहं सोनी इस काल में दो महत्वपूर्ण व्यक्ति थे, जो मालवा के इतिहास के अत्यन्त ही महत्वपूर्ण व्यक्तियों में परिगणित किये जा सकते हैं।
संदर्भ सूची
१. जैन प्रकाशचन्द्र, मालवा अंचल में जैन धर्म का इतिहास एवं अभिलेखीय स्रोत,पृष्ठ-२
२. उपरोक्त, पृष्ठ-२,३
३. उपरोक्त, पृष्ठ-३
४. उपरोक्त, पृष्ठ -४
५. क्राउजे शालाल्ट, जैन साहित्य और महाकाल मंदिर विक्रम स्मृति गं्रथ, पृष्ठ-४०५,४०६
६. जैन प्रकाशचन्द्र, मालव अंचल में जैन धर्म का इतिहास एवं अभिलेखीय स्रोत,पृष्ठ- ६
७. उपरोक्त, पृष्ठ-६
८. उपरोक्त, पृष्ठ -७
९. जैन बलभद्र -भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ, भाग -३,पृष्ठ -२३१
१०. घोष अमला नन्द-जैन काला और स्थापत्य, पृष्ठ-१और ३
११. जैन, के.सी., ainsm on rajasthan,he=-70
१२. राठौर, गजसिंह-जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग-३, पृष्ठ-१३७
१३. जैन प्रकाशचन्द्र, मालव अंचल में जैन धर्म का इतिहास एवं अभिलेखनीय स्रोत, पृष्ठ-१०
१४. भाटिया एवं प्रतिपाल,The Parmars, he=‰-269
१५. जैन रमेश, मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ,पृष्ठ-२५२
१६. बर्नीजियाउद्दीन, तारीख-ए-फिरोजशाही १
१७. ए.एच.निजामी, Contribution of jainism to the history of Malwa, पृष्ठ-८७
१८. उपरोक्त, पृष्ठ-८८,८९,९४
१९. गौड़ तेजसिंह, जैन ज्योतिष साहित्य एक दृष्टि, पृष्ठ-२५६
२०. नहाटा, अगर चन्द, मालवा के श्वेताम्बर जैन भाषा कवि, पृष्ठ-२७२,२७८