संस्कृत-व्याकरण के अनुसार ‘दर्शन’ शब्द ‘दृश’ धातु+ल्युट् प्रत्यय लगाकर बना है। इसका अर्थ है जिसके द्वारा देखा जाए अथवा जो देखता है अथवा दृष्टि मात्र ही दर्शन है। दर्शन शब्द की व्युत्पत्ति शास्त्रों मे विभिन्न प्रकार से प्राप्त होती है-
१. ‘‘दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम्।’’ जिसके द्वारा वस्तु स्वरूप को देखा जाता है वह ‘दर्शन’ है।
२. ‘‘दृश्यतेऽनेन परं तत्त्वमिति दर्शनम्। जिसके द्वारा परम तत्त्व के दर्शन किए जाएँ वह दर्शन है।
३. ‘‘पश्यति ‘‘दृश्यतेऽनेन दृष्टिमात्र वा दर्शनम्।’’ जो देखता है, जिसके द्वारा देखा जाता है या देखना मात्र दर्शन है।
४. ‘‘ दृश्यते निर्णीयते वस्तुतत्त्वमनेनेति दर्शनम् । ‘दर्शन’ उस तर्क-वितर्क, मंथन या परीक्षास्वरूप विचारधारा का नाम है जो तत्त्वों के निर्णय में प्रयोजनभूत हुआ करती है।
मनुष्य एक विचारशील या चिन्तनशील प्राणी है। वह प्रत्येक कार्य करते समय अपनी विचारशक्ति का प्रयोग करता है। इसी विचारशक्ति को विवेक कहते हैं। अतः मनुष्य में जो स्वाभाविक विचार शक्ति है उसी का नाम दर्शन है। ‘‘दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम्।” इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप देखा जाता है वह दर्शन है। अर्थात् यह संसार नित्य है या अनित्य,इसकी पुष्टि करने वाला कोई है या नहीं आत्मा का स्वरूप क्या है, इसका पुनर्जन्म होता है या नहीं, ईश्वर की सत्ता है या नहीं, इत्यादि प्रश्नों का समुचित उत्तर देना दर्शनशास्त्र का काम है। भारतीय दर्शनशास्त्र की एक मौलिक विशेषता यह है
कि वह वस्तुतः आध्यात्मिक है, क्योंकि इसका मूलमंत्र है- आत्मानं विद्धि अर्थात् आत्मा को जानो। समस्त भारतीय दर्शन आत्मा की महत्ता पर प्रतिष्ठित हैं। समस्त भारतीय दर्शनों का प्रयोजन मोक्षप्राप्ति है। संसार के सभी प्राणी आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिवैदिक -इन तीन प्रकार के दुःखों से पीड़ित हैं, अतः इन दुःखों से निवृत्ति का उपाय बतलाना दर्शनशास्त्र का प्रधान लक्ष्य है। इसलिए दर्शनशास्त्र दुःख, दुख के कारण, मोक्ष और मोक्ष के कारणों का प्रतिपादन करता है। जिस प्रकार चिकित्साशास्त्र में रोग, रोगनिदान, आरोग्य और औषधि- इन चार तत्वों का मोक्ष के कारणों का कथन करना आवश्यक है।
सर्वप्रथम दर्शनों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- भारतीय दर्शन और अभारतीय दर्शन (पाश्चात्य दर्शन) जिन दर्शनों का प्रादुर्भाव भारतवर्ष में हुआ है वे भारतीय दर्शन हैं और जिन दर्शनो का प्रादुर्भाव भारतवर्ष के बाहर अर्थात् पाश्चात्य देशों (यूनान आदि) में हुआ है, उन्हें अभारतीय दर्शन कहा जाता है। भारतीय दर्शन भी दो भागों मे विभक्त हो जाते हैं- १. वैदिक दर्शन- सांख्य, योग वेदान्त, मीमांसा, न्याय तथा वैशेषिक दर्शन। २. अवैदिक दर्शन – जैन, बौद्ध तथा चार्वाक दर्शन।
== जिस प्रकार विभिन्न दर्शनों के प्रवर्तक विभिन्न ऋषि-महर्षि हुए हैं, उस प्रकार जैनदर्शन का प्रवर्तक कोई व्यक्ति विशेष नहीं है। जैन शब्द ‘जिन’ शब्द से बना है। ‘जिन’ शब्द का अर्थ है जो व्यक्ति ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों और रागद्वेषादि भावकर्मों को जीतता है वह ‘जिन’ कहलाता है। कहा भी जाता है कि- ‘‘जयति कर्मारातीनिति जिनः’’ ऐसे ‘जिन’ के द्वारा उपदिष्ट धर्म तथा दर्शन को जैनधर्म और जैनदर्शन कहते हैं। प्रत्येक युग में चौबीस तीर्थंकर होते हैं तथा वे अनादिकाल से चले आ रहे धर्म और दर्शन का प्रतिपादन करते हैं। वर्तमान युग में ऋषभनाथ से लेकर महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकरों ने जैनधर्म तथा दर्शन के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है। आचार्य उमास्वामी द्वारा रचित ‘तत्त्वार्थसूत्र’ जैनदर्शन का आद्य सूत्रग्रंथ है। जैनदर्शन में जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष- ये सात तत्त्व बतलाए गए हैं। सात तत्त्वों में पुण्य और पाप को मिलाकर नौ पदार्थ बतलाए गए हैं। जीव पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल- ये छः द्रव्य माने गये हैं।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और पारिणामिक – ये पांच भाव होते हैं। अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु- ये पांच परमेष्ठी होते हैं। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह- ये पांच व्रत हैं। जैनदर्शन में प्रत्यक्ष और परोक्ष को ही प्रमाण माना जाता है। जैनदर्शन में प्रत्येक आत्मा कर्मों का नाश करके परमात्मा अर्थात् ईश्वर बन सकता है। कहा भी है- ‘‘अप्पा सो परमप्पा’’ अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है।
जैनदर्शन में ईश्वर को इस सृष्टि का कर्ता नहीं माना जाता तथा वह न तो कभी अवतार लेता है और न कभी लौटकर आता है। जो आत्मा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय- इन चार घातिया कर्मों का नाश कर देता है वह केवली अथवा अरिहन्त कहलाता है- अरिहन्त अवस्था में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य- इन चार अनन्त चतुष्टियों की प्राप्ति हो जाती है। कुछ काल बाद वही आत्मा शेष चार अघातिया कर्मों का नाश करके सिद्ध हो जाता है। सिद्धावस्था ही मोक्ष की अवस्था है। ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने पर मोक्ष प्राप्त होता है। जिस प्रकार दूध में से घी निकालने पर दुबारा नहीं मिलाया जा सकता, गेहूँ के दाने को भूनकर बोया नहीं जा सकता, तिल में से तेल निकालने के बाद दुबारा नहीं मिलाया जा सकता, स्वर्ण पाषाण में से एक बार सोना निकालने के बाद दुबारा नहीं मिलाया जा सकता, उसी प्रकार जो जीव एक बार मुक्त हो जाता है वह पुनः शरीर धारण नहीं करता। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र- ये तीनों मिलकर मोक्ष के मार्ग हैं। आचार्य उमास्वामी ने ‘तत्त्वार्थसूत्र’ ग्रन्थ में सर्वप्रथम मोक्षमार्ग का ही उल्लेख किया है- ‘‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः’’१ १. जैनदर्शन में मति, श्रुति, अविध, मनःपर्याय और केवल- ये पांच ज्ञान माने गये हैं। ‘‘मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम्।’’२
== भारतीय इतिहास में जैनदर्शन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भिन्न-भिन्न दार्शनिकों ने अपनी-अपनी स्वाभाविक रुचि परिस्थिति या भावना से वस्तुतत्त्व को जैसा देखा उसी को उन्होंने दर्शन के नाम से कहा। किन्तु किसी भी तत्त्व के विषय में कोई भी तात्त्विक दृष्टि ऐकान्तिक नहीं हो सकती है। सर्वथा भेदभाव या अभेदभाव, नित्यैकान्त या क्षणिवैकान्त एकान्तदृष्टि है। जैनदर्शनानुसार प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मात्मक है और कोई भी दृष्टि उन अनेक धर्मों का एक साथ प्रतिपादन नहीं कर सकती हैं। इस सिद्धान्त को जैनदर्शन ने अनेकान्त और स्याद्वाद के नाम से कहा है। जैनदर्शन का मुख्य उद्देश्य स्याद्वाद सिद्धान्त के आधार पर विभिन्न मतों का समन्वय करना है। विचार जगत का अनेकान्त ही नैतिक जगत् में अहिंसा का रूप धारण कर लेता है। अतः भारतीय पाश्चात्य दर्शनों के इतिहास को समझने के लिए जैनदर्शन का विशेष महत्त्व है।
मीमांसा’ शब्द का अर्थ है- पूजित विचार। अर्थात् किसी वस्तु के स्वरूप का यथार्थ वर्णन। ‘ ‘‘मीमांस्यते विचार्यते अवगृहीतोऽर्थो विशेषरूपेण अनया इति मीमांसा’’ जिसके द्वारा ग्रहण किया अर्थ विशेष रूप से मीमांसित किया जाता है अर्थात् विचारा जाता है वह मीमांसा है। ‘वेद के दो भाग हैं- कर्मकाण्ड तथा ज्ञानकाण्ड। यज्ञयागादि की विधि तथा अनुष्ठान का वर्णन् कर्मकाण्ड का विषय है। और जीव जगत तथा ईस्वर के रूप और परस्पर सम्बन्ध का निरूपण ज्ञानकाण्ड का विषय है। इन दोनों में दिखाई पड़ने वाले विरोधों को दूर करने के लिए मीमांसा की प्रवृत्ति होती है। मीमांसा के दो भेद हैं – कर्ममीमांसा और ज्ञानमीमांसा। कर्मविषयक विरोधों का समाधान करती है कर्ममीमांसा तथा ज्ञान विषयक विरोधों का समाधान करती है ज्ञानमीमांसा। कर्ममीमांसा या पूर्वमीमांसा के नाम से अभिहित दर्शन ‘मीमांसा’ कहलाता है। ज्ञानमीमांसा या उत्तरमीमांसा के नाम से अभिहित दर्शन ‘वेदान्त’ दर्शन कहलाता है। मीमांसा का मुख्य तात्पर्य ‘समीक्षा’ है। पूर्वमीमांसा दर्शन के मूल प्रवर्तक वेदव्यास के शिष्य ‘जैमिनी ऋषि’ थे, जिन्होने ईसा पूर्व ‘२००’ में जैमिनिसूत्र की रचना की। पूर्वमीमांसा में तीन मत प्रचलित हैं-
(क) कुमारिल भट्ट का ‘भाट्टमत,
(ख) प्रभाकर मिश्र का ‘प्राभाकरमत’ या ‘गुरुमत’,
(ग) मुरारी मिश्र का ‘मिश्रमत’।
कुमारिलभट्ट या ‘भाट्टमत’ की अपेक्षा –
पदार्थ दो हैं- भाव व अभाव। भाव चार हैं- द्रव्य, गुण, कर्म व सामान्य। अभाव चार हैं- प्राक, प्रध्वंस, अन्योन्य व प्रत्यक्ष। द्रव्य ‘ग्यारह’ हैं- पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, काल, आत्मा, मन, दिक, तम व शब्द। ‘गुण’ – गुण द्रव्य से भिन्न व अभिन्न हैं उनकी संख्या ‘तेरह’ है- रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, परिणाम, पृथकत्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रव्यत्व तथा स्नेह। प्रभाकरमिश्र या गुरुमत की अपेक्षा पदार्थ आठ हैं- द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, समवाय, संख्या, शक्ति एवं सादृश्य। द्रव्य नौ हैं- पृथिवी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, काल, आत्मा, मन व दिक्। गुण इक्कीस हैं- रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, परिमाण, संयोग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, प्रयत्न, गुरुत्व, द्रव्यत्व, स्नेह, संस्कार, शब्द, धर्म, अधर्म तथा वेग। मुरारि मिश्र या ‘मिश्रमत’ की अपेक्षा परमार्थतः ब्रह्म ही एक पदार्थ है। व्यवहार से पदार्थ चार हैं- धर्मी, धर्म, आधार व प्रदेश विशेष।
मीमांसा वेद को अपौरुषेय व स्वतः प्रमाण वेदविहित हिंसा यज्ञादिक को धर्म, जन्म से ही वर्णव्यवस्था तथा ब्राह्मण को सर्वपूज्य मानते हैं। जैन उक्त सर्व बातों का खण्डन करते हैं। उनकी दृष्टि में प्रथमानुयोग आदि चार अनुयोग ही चार वेद हैं। अहिंसात्मक हवन व अग्निहोत्रादिरूप पूजा-विधान ही सच्चे यज्ञ हैं। वर्ण-व्यवस्था जन्म से नहीं, गुण व कर्म से होती है, उत्तम श्रावक ही यथार्थ ब्राह्मण है। इस प्रकार यह दोनों दर्शनों में भेद हैं। जैन दर्शन में द्रव्य का लक्षण ‘सत्’ कहा गया है और उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य- इन तीनों से युक्त अर्थात् इन तीनों रूप है, वह सत है। ‘‘सत् द्रव्यलक्षणम्,”३ उत्पादव्ययध्रौव्ययुत्तं सत्’’४ यद्यपि द्रव्य का लक्षण सत् है, लेकिन गुण और पर्यायों के समूह को भी द्रव्य कहते हैं। जैसे जीव एक द्रव्य हैं, उसमें सुख ज्ञान आदि गुण पाये जाते हैं और नर-नारी आदि पर्यायें पाई जाती हैं, किन्तु द्रव्य से गुण और पर्याय की सत्ता अलग नहीं है कि गुण भिन्न है, पर्याय भिन्न हैं और उनके मेल से द्रव्य बना है। अनादिकाल से ‘गुणपर्यायात्मक’ ही द्रव्य है। गुण नित्य होते हैं और पर्याय अनित्य होती हैं। अतः द्रव्य को नित्य-अनित्य कहा जाता है। जैनदर्शन् में सत् का लक्षण उत्पाद व्यय और ध्रौव्य माना गया है। मीमांसादर्शन के पारगामी महामति कुमारिल भट्ट भी पदार्थों को उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक, अवयव-अवयवी में भेदाभेद, वस्तु को स्व की अपेक्षा सत् और पर की अपेक्षा असत् तथा सामान्य-विशेष को ‘सापेक्ष’ मानते हैं।
द्वितीय शताब्दी के प्रभावशाली जैन आचार्य समन्तभद्र जी
द्वितीय शताब्दी के प्रभावशाली जैन आचार्य समन्तभद्र ने द्रव्य की त्रयात्मकता के विषय में दो दृष्टान्त दियें हैं। उन्हीं दृष्टांतों का समर्थन आचार्य कुमारिल ने भी किया है। आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं-
‘‘घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् ।
शोकप्रमोदमाध्यस्थं जनो याति सहेतुकम्।।५
एक किसान के एक पुत्र है और एक पुत्री। किसान के पास एक सोने का घड़ा है। पुत्री उस घड़े को चाहती है। पुत्र उस घड़े को तोड़कर मुकुट बनवाना चाहता है। किसान पुत्र की हठ पूरी करने के लिए घड़े को तुड़वाकर उसका मुकट बनवा देता है। घड़े के नाश से पुत्री दुःखी होती है, मुकुट के उत्पाद से पुत्र प्रसन्न होता है और किसान जो कि सोने का इच्छुक है, वह न शोक करता है। न हर्ष, क्योंकि मुकुट बन जाने के बाद भी सोना उसमें कायम है, अतः वस्तु त्रयात्मक है।
‘‘पयोव्रतो न दध्यति न पयोऽत्ति दधिव्रतः।
अगोरसव्रतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम्।।६
जिसने केवल दूध की खाने का व्रत लिया है, वह दही नहीं खाता। जिसने केवल दही खाने का व्रत लिया है वह दूध नहीं खाता और जिसने गोरस मात्र न खाने का व्रत लिया है वह न दूध खाता है और न दही, क्योंकि दूध और दही दोनों गोरस की दो पर्यायें हैं, अतः गोरसत्व दोनों में है। इससे सिद्ध है कि वस्तु त्रयात्मक- उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक है। मीमांसादर्शन के आचार्य कुमारिल भट्ट मीमांसाश्लोकवार्तिक में लिखते हैं-
‘‘वर्धमारकभंगे च रुचकः क्रियते यदा।
तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्याप्युत्तरार्थिनः।।”७
‘‘हेमार्थिनस्तु माध्यस्थं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् ।
नोत्पादस्थितिभंगानामभावे स्यान्मतित्रयम् ।।८
‘‘न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम् ।
स्थित्या बिना न माध्यस्थं तेन सामान्यनित्यता।।”९
अर्थात् – जब सोने के प्याले को तोड़कर उसकी माला बनाई जाती है तब जिसको प्याले की जरूरत है, उसको शोक होता है, जिसे माला की आवश्यकता है उसे हर्ष होता है और जिसे सोने की आवश्यकता है उसे न हर्ष होता है न शोक। अतः वस्तु त्रयात्मक है। यदि, उत्पाद, स्थिति और व्यय न होते तो तीन व्यक्तियों के तीन प्रकार के भाव न होते, क्योंकि प्याले के नाश के बिना प्याले की आवश्यकता वाले को शोक नहीं हो सकता और सोने की स्थिरता के बिना सोने के इच्छुक को प्याले के विनाश और माला के उत्पाद में माध्यस्थ नहीं रह सकता। अतः वस्तु सामान्य से नित्य है और विशेष पर्याय अर्थात् रूप से अनित्य है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि किसी अंश में मीमांसा दर्शन अनेकान्तवादी है। इस अपेक्षा से जैनदर्शन व मीमांसादर्शन तुल्य है। और भी अन्य कई विषयों में जैनदर्शन व मीमांसादर्शन में भेद व तुल्यता है। जैसे दोनों ही जरायुज, अण्डज व स्वेदज (संमूच्र्छन) शरीरो को पांच भौतिक स्वीकार करते हैं। दोनों की इन्द्रिय विषयों के त्याग आदि को मोक्ष का साधन मानते हैं। दोनों ही शरीरादि की आत्यन्तिक निवृत्ति को मोक्ष मानते हैं। इस प्रकार दोनों दर्शनों में तुल्यता है। परन्तु जैन दार्शनिकों की भांति मीमांसक सर्वज्ञत्व का अस्तित्व नहीं मानते, आत्मा को स्वसंवेदनगम्य नहीं मानते।
१. तत्त्वार्थसूत्र , १/१,
२. वही,१/९.
३. वही, ५/२९,
४. वही, ५/३०,
५. आप्तमीमांसा, श्लोक-५९,
६. वही,-६०,
७. मीमांसाश्लोकवार्तिक, श्लोक-२१,
८. वही,-२२,
९. वही,-२३ –
वरिष्ठ व्याख्याता, जैनदर्शन विभाग, श्री ला.ब.रा. संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली-१६