मूलाचार
(श्रीवसुनंदिसिद्धान्तचक्रवर्तिविरचित आचारवृत्ति सहित)
(हिन्दी अनुवाद-गणिनी ज्ञानमती माताजी)
श्रीमच्छुद्धेद्धबोधं सकलगुणनिधिं निष्ठिताशेषकार्यं
वक्तारं सत्प्रवृत्तेर्निहतमतिमलं शक्रसंवंदिताङ्घ्रिम्।
भर्तारं मुक्तिवध्वा विमलसुखगते: कारिकाया: समन्ता-
दाचारस्यात्तनीते: परमजिनकृतेर्नौम्यहं वृत्तिहेतो:।।
श्रुतस्कन्धाधारभूतमष्टादशपदसहस्रपरिमाणं, मूलगुणप्रत्याख्यान-संस्तर-स्तवाराधना-समयाचार-(समाचार) पंचाचार-पिंडशुद्धि-षडावश्यक-द्वादशानुप्रेक्षा-नगारभावना-समयसार-शीलगुणप्रस्तार-पर्याप्त्याद्यधिकारनिबद्धमहार्थगभीरं लक्षणसिद्धपदवाक्यवर्णोपचितं, घातिकर्मक्षयोत्पन्नकेवलज्ञानप्रबुद्धाशेषगुणपर्याय-खचितषड्द्रव्यनवपदार्थजिनवरोपदिष्टं, द्वादशविधतपोनुष्ठानोत्पन्नानेकप्रकारर्द्धिसमन्वितगणधरदेवरचितं, मूलगुणोत्तरगुणस्वरूपविकल्पोपायसाधनसहाय-फलनिरूपण-प्रवणमाचाराङ्गमाचार्य१-पारम्पर्यप्रवर्तमानमल्पबलमेधायु:शिष्यनिमित्तं द्वादशाधिकारैरुपसंहर्तुकाम: स्वस्य श्रोतृणां च प्रारब्धकार्यप्रत्यूहनिराकारणक्षमं शुभपरिणामं विदधच्छ्रीवट्टकेराचार्य:२ प्रथमतरं तावन्मूलगुणाधिकारप्रतिपादनार्थं मंगलपूर्विकां प्रतिज्ञां विधत्ते मूलगुणेष्वित्यादि-
मूलगुणेसु विसुद्धे वंदित्ता सव्वसंजदे सिरसा।
इहपरलोगहिदत्थे मूलगुणे कित्तइस्सामि।।१।।
मैं वसुनन्दि आचार्य मूलकर्ता के रूप में वीतराग परम जिनदेव द्वारा प्रणीत, नीति-यति आचार का वर्णन करने वाले आचारशास्त्र-मूलाचार ग्रन्थ की टीका के निमित्त उन सिद्ध भगवान् को नमस्कार करता हूँ जो अंतरंग और बहिरंग लक्ष्मी से विशिष्ट शुद्ध और श्रेष्ठ ज्ञान को प्राप्त हैं, सकल गुणों के भंडार हैं, जिन्होने समस्त कार्यों को पूर्ण कर कृतकृत्य अवस्था प्राप्त कर ली है, जो सत्प्रवृत्ति-सम्यक्चारित्र के प्रवक्ता हैं, जिन्होंने अपनी बुद्धि के मल-दोष को नष्ट कर दिया है, जिनके चरणकमल इन्द्रों से वंदित हैं और जो सर्व अंग से विमल सुख को प्राप्त कराने वाली मुक्तिरूपी स्त्री के स्वामी हैं।
जो श्रुतस्कन्ध का आधारभूत है; अठारह हजार पद परिमाण है; जो मूलगुण, प्रत्याख्यान, संस्तर, स्तवाराधना, समयाचार, पंचाचार, पिंडशुद्धि, छह आवश्यक, बारह अनुप्रेक्षा, अनगार भावना, समयसार, शीलगुणप्रस्तार और पर्याप्ति आदि अधिकार से निबद्ध होने से महान् अर्थों से गंभीर है; लक्षण-व्याकरण शास्त्र से सिद्ध पद, वाक्य और वर्णों से सहित है; घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुए केवलज्ञान के द्वारा जिन्होंने अशेष गुणों और पर्यायों से खचित छह द्रव्य और नव पदार्थों को जान लिया है ऐसे जिनेन्द्रदेव के द्वारा जो उपदिष्ट है; बारह प्रकार के तपों के अनुष्ठान से उत्पन्न हुई अनेक प्रकार की ऋद्धियों से समन्वित गणधर देव के द्वारा जो रचित है; जो मूलगुणों और उत्तरगुणों के स्वरूप, भेद, उपाय, साधन, सहाय और फल के निरूपण करने में कुशल है; आचार्य परंपरा से चला आ रहा ऐसा यह आचारांग नाम का पहला अंग है। उस आचारांग का अल्प शक्ति, अल्प बुद्धि और अल्प आयु वाले शिष्यों के लिए बारह अधिकारों में उपसंहार करने की इच्छा करते हुए अपने और श्रोताओं के प्रारम्भ किये गये कार्यों के विघ्नों को दूर करने में समर्थ शुभ परिणाम को धारण करते हुए श्री वट्टकेराचार्य अपरनाम (श्री कुन्दकुन्दाचार्य) सर्वप्रथम मूलगुण नामक अधिकार का प्रतिपादन करने के लिए ‘मूलगुणेसु’ इत्यादिरूप मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करते हैं–
गाथार्थ–मूलगुणों में विशुद्ध सभी संयतों को सिर झ्ुाकाकर नमस्कार करके इस लोक और परलोक के लिए हितकर मूलगुणों का मैं वर्णन करूँगा।।१।।
मंगलनिमित्तहेतुपरिमाणनामकर्तृन् धात्वादिभि: प्रयोज़नाभिधेयसम्बन्धांश्च व्याख्याय पश्चादर्थ: कथ्यते। मूलगुणेसु-मूलानि च तानि गुणाश्च ते मूलगुणा:। मूलशब्दोऽनेकार्थे यद्यपि वर्तते तथापि प्रधानार्थे वर्तमान: परिगृह्यते। तथा गुणशब्दोऽप्यनेकार्थे यद्यपि वर्तते तथाप्याचरणविशेषे वर्तमान: परिगृह्यते। मूलगुणा: प्रधानानुष्ठानानि उत्तरगुणाधार-भूतानि तेषु मूलगुणेषु विषयभूतेषु कारणभूतेषु वा सत्सु ये। विसुद्धे–विशुद्धा: निर्मला: संयतास्तान् मूलगुणेषु विशुद्धान्। वंदित्ता-वन्दित्वा मनोवाक्कायक्रियाभि: प्रणम्य, सव्वसंजदे-अयं सर्वशब्दो निरवशेषार्थवाचक: परिगृहीतो बह्वनुग्रहकारित्वात्तेन प्रमत्तसंयताद्ययोगिपर्यन्ता भूतपूर्वगत्या सिद्धाश्च परिगृह्यन्ते, सम्यक् यता: पापक्रियाभ्यो निवृत्ता: सर्वे च ते संयताश्च सर्वसंयतास्तान् सर्वसंयतान्प्र मत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसूक्ष्मसांपरायोपशांत-कषायक्षीणकषाय- सयोगकेवल्ययोगकेवलिसंयतान् सप्ताद्यष्टपर्यन्तषण्णवमध्यसंख्यया समेतान् सिद्धांश्चानंतान्। सिरसा-शिरसा मस्तकेन मूर्ध्ना। इहपरलोगहिदत्थे-इहशब्दा प्रत्यक्षवचन:, परशब्द उपरतेन्द्रियजन्मवचन:, लोकशब्द: सुरेश्वरादिवचन:। इह च परश्चेहपरौ तौ च तौ लोकौ च इहपरलोकौ ताभ्यां तयोर्वा हितं सुखैश्वर्यपूजासत्कारचित्तनिवृत्ति-फलादिकं तदेवार्थ: प्रयोजनं फलं येषां ते इहपरलोकहितार्थास्तान् इहलोकपरलोकसुखैश्वर्यादिनिमित्तान्।
आचारवृत्ति–मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम और कर्ता तथा प्रयोजन, अभिधेय और सम्बंध इनका व्याख्यान करके पश्चात् धातु आदि के द्वारा शब्दों का अर्थ करते हैं। मूलभूत जो गुण हैं वे मूलगुण कहलाते हैं। यद्यपि ‘मूल’ शब्द अनेक अर्थ में रहता है फिर भी यहाँ प्रधान अर्थ में लिया गया है। उसी प्रकार ‘गुण’ शब्द भी यद्यपि अनेक अर्थ में विद्यमान है तथापि यहाँ पर आचरण विशेष में वर्तमान अर्थ ग्रहण किया गया है। अत: उत्तरगुणों के लिए आधारभूत प्रधान अनुष्ठान को मूलगुण कहते हैं। ये मूलगुण यहाँ विषयभूत हैं अथवा कारणभूत हैं। इन मूलगुणों में जो विशुद्ध अर्थात् निर्मल हो चुके हैं ऐसे सर्व संयतों को, सर्व शब्द यहाँ सम्पूर्ण अर्थ का वाचक है क्योंकि वह बहुत का अनुग्रह करने वाला है इसलिए इस सर्व शब्द से प्रमत्तसंयत से लेकर अयोगी पर्यन्त सभी संयत और भूतपूर्व गति के न्याय से सिद्ध भी लिये जाते हैं। जो सं-सम्यक् प्रकार से यत-उपरत हो चुके हैं-पाप क्रियाओं से निवृत्त हो चुके हैं वे संयत कहलाते हैं। प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली, अयोगकेवली इस प्रकार छठवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के सभी मुनि संयत कहलाते हैं जो कि आदि में ७ और अंत में ८ तथा मध्य में छह बार नव संख्या रखने से तीन कम नौ करोड़ (८९९९९९९७) होते हैं। इस संख्या सहित सभी संयतों को और अनन्त सिद्धों को सिर झुकाकर नमस्कार करके इस लोक और परलोक में हितकर मूलगुणों का वर्णन करूँगा।
‘इह’ शब्द प्रत्यक्ष को सूचित करने वाला है, ‘पर’ शब्द इन्द्रियातीत जन्म को कहने वाला है और ‘लोक’ शब्द देवों के ऐश्वर्य आदि का वाचक है।
‘हित’ शब्द से सुख, ऐश्वर्य, पूजा-सत्कार और चित्त की निवृत्ति फल आदि कहे जाते हैं और अर्थ शब्द से प्रयोजन अथवा फल विवक्षित है। इस प्रकार से इहलोक और परलोक के लिए अथवा इन उभयलोकों में सुख, ऐश्वर्य आदि रूप ही है प्रयोजन जिनका, वे इहपरलोक हितार्थ कहे जाते हैं। अर्थात् ये मूलगुण इहलोक और परलोक में सुख, ऐश्वर्य आदि के निमित्त हैं।
इहलोके पूजां सर्वजनमान्यतां गुरुतां सर्वजनमैत्रीभावादिकं च लभते मूलगुणानाचरन्, परलोके च सुरैश्वर्यं तीर्थंकरत्वं चक्रवर्तिबलदेवादिकत्वं सर्वजनकान्ततादिकं च मूलगुणानाचरन् लभत इति। मूलगुणे-मूलगुणान् सर्वोत्तरगुणाधारतां गतानाचरणविशेषान्। कित्तइस्सामि-कीर्तयिष्यामि व्याख्यास्यामि। अत्र संयतशब्दस्य चत्वारोऽर्था नाम स्थापना द्रव्यं भाव इति। तत्र जातिद्रव्यगुणक्रियानिरपेक्षं संज्ञाकर्म नामसंयत:। संयतस्य गुणान् बुद्ध्याध्यारोप्याकृतिवति अनाकृतिवति च वस्तुनि स एवायमिति स्थापिता मूर्ति: स्थापनासंयत:। संयतस्वरूपप्रकाशनपरिज्ञानपरिणतिसामर्थ्याध्यासितोऽनुपयुक्त आत्मा आगमद्रव्यसंयत:। नोआगमद्रव्यं त्रिविध:। ज्ञायकशरीरसंयत: संयतप्राभृतज्ञस्य शरीरं भूतं भवन् भावि वा। भविष्यत्संयतत्वपर्यायो जीवो भाविसंयत:। तद्व्यतिरिक्तमसम्भवि कर्म नोकर्म, तयो: संयतत्वस्य कारणत्वाभावात्।
इन मूलगुणों का आचरण करते हुए जीव इस लोक में पूजा, सर्वजन से मान्यता, गुरुता (बड़प्पन) और सभी जीवों से मैत्रीभाव आदि को प्राप्त करते हैं तथा इन मूलगुणों को धारण करते हुए परलोक में देवों के ऐश्वर्य, तीर्थंकरपद, चक्रवर्ती, बलदेव आदि के पद और सभी जनों में मनोज्ञता-प्रियता आदि प्राप्त करते हैं। ऐसे मूलगुण जो कि सभी उत्तरगुणों के आधारपने को प्राप्त आचरण विशेष हैं, उनका मैं व्याख्यान करूँगा।
यहाँ पर संयत शब्द के चार अर्थ हैं-नाम संयत, स्थापना संयत, द्रव्य संयत और भाव संयत। उनमें से जाति, द्रव्य, गुण और क्रिया से निरपेक्ष किसी का ‘संयत’ यह नामकरण कर देना नाम संयत है। आकारवान् अथवा अनाकारवान् वस्तु में ‘यह वही है’ ऐसा मूर्ति में संयत के गुणों का अध्यारोप करना, इस प्रकार से स्थापित मूर्ति को स्थापना संयत कहते हैं। संयत के स्वरूप का प्रकाशक जो परिज्ञान है उसकी परिणति की सामर्थ्य से जो अधिष्ठित है किन्तु वर्तमान में उससे अनुपयुक्त है, ऐसा आत्मा आगमद्रव्य संयत है। नोआगम द्रव्य के ज्ञायक शरीर, भावि और तद्व्यतिरिक्त ऐसे तीन भेद हैं। उनमें से संयम के शास्त्रों को जानने वाले का शरीर ज्ञायकशरीर कहलाता है। उसके भी भूत, वर्तमान और भावि ऐसे तीन भेद हैं। भविष्यत् में संयत की पर्याय को प्राप्त होने वाला जीव भावि संयत है। यहाँ पर तद्व्यतिरिक्त नाम का जो नोआगम द्रव्य का तीसरा भेद है वह असंभव है क्योंकि वह कर्म और नोकर्मरूप है तथा इन कर्म और नोकर्म में संयतपने के कारणत्व का अभाव है। अर्थात् द्रव्यनिक्षेप के आगमद्रव्य और नोआगमद्रव्य ऐसे दो भेद किये हैं। पुन: नोआगमद्रव्य के ज्ञायकशरीर, भावि और तद्व्यतिरिक्त की अपेक्षा तीन भेद किये हैं। यहाँ तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्य कर्म का अभाव है।
संयतगुणव्यावर्णनपरप्राभृतज्ञ उपयुक्त: सम्यगाचरणसमन्वित आगमभावसंयतस्तेनेह प्रयोजनं, कुत: मूलगुणेषु विशुद्धानिति विशेषणादिति। मूलगुणादिस्वरूपावगमनं प्रयोजनम्। ननु पुरुषार्थो हि प्रयोजनं न च मूलगुणादिस्वरूपावगमनं२, पुरुषार्थस्य धर्मार्थकाममोक्षरूपत्वात्, यद्येवं सुष्ठु मूलगुणस्वरूपावगमनं प्रयोजनं यतस्तेनैव ते धर्मादयो लभ्यन्ते इति। मूलगुणै: शुद्धस्वरूपं साध्यं साधनमिदं३ मूलगुणशास्त्र, साध्यसाधनरूपसम्बन्धोऽपि शास्त्रप्रयोजनयोरतएव वाक्याल्लभते, अभिधेयभूता मूलगुणा: तस्माद् ग्राह्यमिदं शास्त्रं प्रयोजनादित्रय४ समन्वितत्वादिति। सर्वसंयतान् शिरसाभिवंद्य मूलगुणान् इहपरलोकहितार्थान् कीर्तियिष्यामीति पदघटना। अथवा मूलगुणसंयतानामयं नमस्कारो मूलगुणान् सुविशुद्धान् संयतांश्च५ वन्दित्वा मूलगुणान् कीर्तयिष्यामि, चशब्दोऽनुक्तोऽपि द्रष्टव्य:। यथा पृथिव्यप्तेजोवायुराकाशमित्यत्र।
मूलगुणकथनप्रतिज्ञां निर्वहन्नाचार्य: संग्रहसूत्रगाथाद्वयमाहि-
पंचय महव्वयाइं समिदीओ पंच जिणवरुद्दिट्ठा।
पंचेविंदियरोहा छप्पि य आवासया लोओ।।२।।
आचेलकमण्हाणं खिदिसयणमदंतघंसणं चेव।
ठिदिभोयणेयभत्तं मूलगुणा अट्ठवीसा दु।।३।।
संयत के गुणों का वर्णन करने में तत्पर जो प्राभृत-शास्त्र है उसको जानने वाला और उसी में उपयुक्त जीव अर्थात् सम्यक् प्रकार के आचरण से समन्वित साधु आगमभाव संयत कहलाता है-यहाँ पर इन्हीं भाव संयत से प्रयोजन है। क्योंकि ‘मूलगुणेषु विशुद्धान्’ गाथा में ऐसा विशेषण दिया गया है। मूलगुण आदि के स्वरूप को जान लेना ही इस ग्रन्थ का प्रयोजन है।
शंका–पुरुषार्थ ही प्रयोजन है न कि मूलगुण आदि के स्वरूप का जानना, क्योंकि पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप है।
समाधान–यदि ऐसी बात है तो मूलगुणों के स्वरूप का जान लेना यह प्रयोजन ठीक ही है क्योंकि उस ज्ञान से ही तो वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थ प्राप्त होते हैं।
इन मूलगुणों के द्वारा आत्मा का शुद्ध स्वरूप साध्य है और मूलगुणों का प्रतिपादक यह शास्त्र साधन है-इस प्रकार से साध्य-साधनरूप सम्बंध भी शास्त्र और प्रयोजन के इन्हीं वाक्यों से प्राप्त हो जाता है। यहाँ पर ये मूलगुण अभिधेयभूत वाच्य हैं इसलिए यह शास्त्र ग्राह्य है, प्रामाणिक है क्योंकि यह प्रयोजन आदि तीन गुणों से समन्वित है। अत: सर्वसंयतों को सिर से नमस्कार करके इस लोक एवं परलोक में हितकारी ऐसे मूलगुणों का मैं वर्णन करूँगा-ऐसा पदघटना रूप अर्थ हुआ। अथवा मूलगुण और संयतों को-दोनों को नमस्कार किया समझना चाहिए। मूलगुणों को और सुविशुद्ध अर्थात् निर्मल चारित्रधारी संयतों को नमस्कार करके मैं मूलगुणों को कहूँगा ऐसा अर्थ करना। यहाँ पर ‘मूलगुणों को और संयतों को’ इसमें जो चकार शब्द लेकर उसका अर्थ किया है वह गाथा में अनुक्त होते हुए भी लिया गया है। जैसे ‘पृथिव्यप्तेजोवायुराकाशम्’ सूत्र में चकार अनुक्त होते हुए भी लिया जाता है अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ऐसा अर्थ किया जाता है उसी प्रकार से उपर्युक्त में भी चकार के अर्थ के बारे में समझ लेना चाहिए।।१।।
अब मूलगुणों के कथन की प्रतिज्ञा का निर्वाह करते हुए आचार्य संग्रहसूत्ररूप दो गाथाओं को कहते हैं–
अर्थ–पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों का निरोध, छह आवश्यक, लोच, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त ये अट्ठाईस मूलगुण जिनेन्द्रदेव ने यतियों के लिए कहे हैं।।२-३।।
पंच य-पंचसंख्यावचनमेतत्। चशब्द एवकारार्थ: पंचैव न षट्। महव्वयाइं-महान्ति च तानि व्रतानि महाव्रतानि, महान् शब्दो महत्त्वे प्राधान्ये वर्तते, व्रतशब्दोऽपि सावद्यनिवृत्तौ मोक्षावाप्तिनिमित्ताचरणे वर्तते, महंद्भिरनुष्ठितत्वात् स्वत एव वा मोक्ष प्रापकत्वेन महान्ति व्रतानि महाव्रतानि प्राणासंयमनिवृत्तिकारणानि। समिदीओ-समितय: सम्यगयनानि समितय: सम्यक्श्रुतनिरूपित क्रमेण गमनादिषु प्रवृत्तय: समितय: व्रतवृत्तय इत्यर्थ:। जिणवरुद्दिट्ठा-कर्मारातीन् जयन्तीति जिनास्तेषां वरा: श्रेष्ठास्तैरुपदिष्टा: प्रतिपादिता जिनवरोपदिष्टा:। एतेन स्वमनीषिकाचर्चिता इमा: सर्वमूलगुणाभिधा न भवन्ति।
आचारवृत्ति–गाथा में आया हुआ ‘पंच’ शब्द संख्यावाची है। ‘च’ शब्द एवकार के लिए अर्थात् ये महाव्रत पाँच ही होते हैं, छह नहीं। जो महान व्रत हैं उनको महाव्रत कहते हैं। यहाँ पर महान शब्द महत्व अर्थ में और प्राधान्य अर्थ में लिया गया है। व्रत शब्द भी सावद्य से निवृत्तिरूप अर्थ में और मोक्ष की प्राप्ति के लिए निमित्तभूत आचरण अर्थ में है, क्योंकि ऐसे आचरण का महान पुरुषों के द्वारा अनुष्ठान किया जाता है। अथवा स्वत: ही मोक्ष को प्राप्त कराने वाले होने से ये महान व्रत महाव्रत कहलाते हैं। ये महाव्रत प्राणियों की हिंसा की निवृत्ति के कारणभूत हैं।
सम्यक् अयन अर्थात् प्रवृत्ति को समिति कहते हैं। सम्यव्â अर्थात् शास्त्र में निरूपित क्रम से गमन आदि क्रियाओं में प्रवृत्ति करना समिति है। ये समितियाँ व्रत की रक्षा के लिए बाड़स्वरूप हैं। इनका जिनेन्द्रदेव ने उपदेश दिया है। कर्मशत्रु को जो जीतते हैं वे ‘जिन’ कहलाते हैं। उनमें वर अर्थात् जो श्रेष्ठ हैं वे जिनवर हैं। उनके द्वारा ये उपदिष्ट हैं, इस कथन से ये सभी मूलगुण अपनी बुद्धि से चर्चित नहीं हैं किन्तु ये आप्त वचनों का अनुसरण करने वाले होने से प्रामाणिक हैं, ऐसा समझना चाहिए।
रत्नत्रय के साधक परिणाम–
(१) णाणादिरयणतियमिह, सज्झं तं साधयंति जमणियमा।
जत्थ जमा सस्सदिया, णियमा णियतप्पपरिणामा।।२।।
अर्थ–सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रय साध्य हैं, यम और नियम इस रत्नत्रयरूप साध्य को सिद्ध करने वाले हैं। इसमें यम नामक उपाय शाश्वतिक यावज्जीवन के लिए होता है और नियम अल्पकालिक होने से नियतकाल के लिए ग्रहण किया जाता है।
भावार्थ–महाव्रत आदि आजीवन धारण करने योग्य होने से यमरूप हैं और सामायिक, प्रतिक्रमण आदि अल्पकालावधि होने से नियम कहलाते हैं। ये यम-नियमरूप परिणाम रत्नत्रय प्राप्ति के साधन हैं।
मूलगुण और उत्तरगुण–
(२) ते मूलुत्तरसण्णा मूलगुणा महव्वदादि अडवीसा।
तवपरिसहादिभेदा, चोत्तीसा उत्तरगुणक्खा।।३।।
अर्थ–ये मूलगुण और उत्तरगुण जीव के परिणाम हैं। महाव्रत आदि मूलगुण अट्ठाईस हैं। बारह तप और बाईस परीषह ये उत्तरगुण चौंतीस होते हैं।
आप्तवचनानुसारितया प्रामाण्यमासां समितीनां व्याख्यातं भवति। कियन्त्यस्ता: पंचैव नाधिका:। पंचेविंदियरोहा-इन्द्र आत्मा तस्य लिङ्गमिन्द्रियं अथवा इन्द्रो नामकर्म तेन सृष्टमिन्द्रियं, तद् द्विविधं द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियं च, चक्षुरिन्द्रियाद्यावरण-क्षयोपशमजनितशक्तिर्भावेन्द्रियं तदुपकरणं द्रव्येन्द्रियं यतो ‘‘लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियं, निर्वृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियं’’ चेति, रोधा अप्रवृत्तय: इन्द्रियाणां श्रोत्रादीनां रोधा इन्द्रियरोधा: सम्यक्ध्यानप्रवेशप्रवृत्तय: कियन्तस्ते पंचैव। छप्पिय-षडपि च षडेव न सप्त नापि पंच। आवासया-अवश्यकर्तव्यानि आवश्यकानि निश्चयक्रिया: सर्वकर्मनिर्मूलनसमर्थनियमा:। लोचो-लोच: हस्ताभ्यां मस्तककूर्चगतवालोत्पाट:। आचेलकं-चेलं वस्त्रं, उपलक्षणमात्रमेतत्, तेन सर्वपरिग्रह: श्रामण्यायोग्य: चेलशब्देनोच्यते न विद्यते चेलं यस्यासावचेलक: अचेलकस्य भावोऽचेलकत्वं वस्त्राभरणादिपरित्याग:। अण्हाणं-अस्नानं जलसेकोद्वर्तनाभ्यंगादिवर्जनम्। खिदिसयणं-क्षितौ पृथिव्यां तृणफलकपाषाणादौ शयनं स्वपनं क्षितिशयनं स्थाण्डिल्यशायित्वम्। अदंतघंसणं चेव-दन्तानां घर्षणं मलापनयनं दन्तघर्षणं न अदन्तघर्षणं ताम्बूलदन्तकाष्ठादिवर्जनम्। चशब्द: समुच्चयार्थ:। एवकारोऽवधारणार्थ: अदन्तघर्षणमेव च। ठिदिभोयणं-स्थितस्योर्ध्वतनो: चतुरंगुलपादान्तरस्य भोजनम्। एयभत्तं-एकं च तद्भक्तं चैकभक्तं, एकवेलाहारग्रहणम्। मूलगुणा-मूलगुणा उत्तरगुणाधारभूता:। अट्ठवीसा दु-अष्टाविंशति: तु शब्दोऽवधारणार्थ:, अष्टभिरधिका विंशतिरष्टाविंशतिरष्टाविंशतिरेव मूलगुणा नोना: नाप्यधिका इति।
द्रव्यार्थिकशिष्यानुग्रहाय संग्रहेण संख्यापूर्वकान् मूलगुणान् प्रतिपाद्य पर्यायार्थिकशिष्यावबोधनार्थं विभागेन वार्तिकद्वारेण तानेव प्रतिपादयन्नाह-
हिंसाविरदी सच्चं अदत्तपरिवज्जणं च बंभं च।
संगविमुत्ती य तहा महव्वया पंच पण्णत्ता।।४।।
ये समितियाँ कितनी हैं ? ये पाँच ही हैं, अधिक नहीं हैं। पाँच ही इन्द्रियनिरोध व्रत हैं। इन्द्र अर्थात् आत्मा के लिंग को इन्द्रिय कहते हैं अथवा इन्द्र अर्थात् नामकर्म, उसके द्वारा जो निर्मित्त हैं वे इन्द्रियाँ कहलाती हैं। इनके द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय की अपेक्षा दो भेद हैं। चक्षुइन्द्रिय आदि इन्द्रियावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई शक्ति भावेन्द्रिय और उसके उपकरण को द्रव्येन्द्रिय कहते हैं। क्योंकि ‘लब्धि और उपयोग ये भावेन्द्रिय हैं तथा निवृत्ति और उपकरण ये द्रव्येन्द्रिय हैं ’ ऐसा सूत्रकारों का कथन है। इन इन्द्रियों की अर्थात् कर्ण आदि इन्द्रियों की विषयों में प्रवृत्ति नहीं करना रोध कहलाता है। सम्यक् ध्यान के प्रवेश में प्रवृत्ति करना अर्थात् धर्म-शुक्ल ध्यान में इन्द्रियों को प्रविष्ट करना यह इन्द्रियनिरोध है। ये कितने हैं ? ये भी पाँच ही हैं।
अवश्य करने योग्य कार्य को आवश्यक कहते हैं। इन्हें निश्चय-क्रिया भी कहते हैं। अर्थात् सर्व कर्म के निर्मूलन करने में समर्थ नियम विशेष को आवश्यक कहते हैं। ये आवश्यक छह ही हैं, सात अथवा पाँच नहीं हैं। हाथों से मस्तक और मूँछ के बालों का उखाड़ना लोच कहलाता है। चेल-यह शब्द उपलक्षण मात्र है, इससे श्रमण अवस्था के अयोग्य सम्पूर्ण परिग्रह को चेल शब्द से कहा गया है। नहीं है चेल जिनके, वे अचेलक हैं, अचेलक का भाव अचेलकत्व है अर्थात् सम्पूर्ण वस्त्र, आभरण आदि का परित्याग करना आचेलक्य व्रत है। जल का सिंचन, उबटन (तैलमर्दन) अभ्यंगस्नान आदि का त्याग करना अस्नान व्रत है। क्षिति-पृथ्वी पर एवं तृण, फलक (पाटे), पाषाण-शिला आदि पर सोना क्षितिशयन गुण कहलाता है। यही स्थाण्डिल-खुले स्थान पर सोनेरूप स्थाण्डिलशायी गुण है। दाँतों का घर्षण करना-दन्तमल को दूर करना दन्तघर्षण कहलाता है। दन्तघर्षण नहीं करना अदन्तघर्षण है अर्थात् तांबूल, दन्तकाष्ठ (दातोन) आदि का त्याग करना। पैरों के चार अंगुल अंतराल से खड़े होकर भोजन करना स्थितिभोजन है। एक वेला में आहार ग्रहण करना एकभुक्त नाम का मूलगुण है। यहाँ गाथा में च शब्द समुच्चय अर्थ के लिए है और एवकार शब्द अवधारण अर्थात् निश्चय के लिए है। ये मूलगुण उत्तरगुणों के लिए आधारभूत हैं अर्थात् उत्तरगुणों के लिए जो आधारभूत हैं, वे ही मूलगुण कहलाते हैं। मूलगुणों के बिना उत्तरगुण नहीं हो सकते, ऐसा अभिप्राय है।
ये मूलगुण अट्ठाईस होते हैं। यहाँ पर गाथा में तु शब्द अवधारण के लिए है अर्थात् ये मूलगुण अट्ठाईस ही हैं, न इससे कम हैं और न इससे अधिक ही हो सकते हैं।
द्रव्यार्थिक नय (सामान्य) से समझने वाले शिष्यों के अनुग्रह हेतु संग्रहरूप से संख्यापूर्वक मूलगुणों का प्रतिपादन करके अब पर्यायार्थिक नय विशिष्टरूप से समझने वाले शिष्यों को समझाने के लिए विभागरूप से वार्तिक द्वारा उन्हीं मूलगुणों को प्रतिपादित करते हुए आचार्य कहते हैं–
गाथार्थ–हिंसा का त्याग, सत्य बोलना, अदत्त वस्तुग्रहण का त्याग, ब्रह्मचर्य और परिग्रह-त्याग ये पाँच महाव्रत जिनेन्द्रदेव द्वारा कहे गये हैं।।४।।
त्रिविधा चास्य शास्त्रस्याचाराख्यस्य प्रवृत्ति:, उद्देशो, लक्षणं, परीक्षा इति। तत्र नामधेयेन मूलगुणाभिधानमुद्देश:। उद्दिष्टानां तत्त्वव्यवस्थापको धर्मो लक्षणम्। लक्षितानां यथालक्षणमुपद्यते नेति, प्रमाणैरर्थावधारणं परीक्षा तत्रोद्देशार्थमिदं सूत्रम्। उत्तरं पुनर्लक्षणम्, परीक्षा पुनरुत्तरत्र, एवं त्रिविधा व्याख्या। अथवा संग्रहविभागविस्तरस्वरूपेण त्रिविधा व्याख्या। अथवा सूत्रवृत्तिवार्तिकस्वरूपेण त्रिविधा। अथवा सूत्र-प्रतिसूत्र-विभाषासूत्रस्वरूपेण त्रिविधेति। एवं सर्वत्राभिसम्बन्ध: कर्तव्य इति। हिंसाविरदी-प्रमत्त योगात्प्राणव्यपरोपणं, प्रमाद: सकषायत्वं, तद्वानात्मपरिणाम: प्रमत्त:, प्रमतस्य योग: प्रमत्तयोगस्तस्मात्प्रमत्तयोगाद्दशप्राणानां वियोगकरणं हिंसेति, तस्या विरति: परिहार: हिंसाविरति: सर्वजीवविषया दया। सच्चं-सत्यं असदभिधानत्याग: ‘असदभिधानमनृतं’ सच्छब्द: प्रशंसावाची न सदसत् अप्रशस्तमिति यावत् असतोऽर्थस्याभिधानमसदभिधानं, अनृतं-ऋतं सत्यं न ऋतं अनृतं किं पुनस्तदप्रशस्तं प्राणिपीडाकरं यद्वचनतदप्रशस्त विद्यमानार्थविषयमविद्यमानार्थविषयं वा तस्यासदभिधानस्य त्याग: सत्यं। अदत्तपरिवज्जणं-अदत्तपरिवर्जनं अदत्तस्य परिवर्जनं अदत्तपरिवर्जनं, ‘अदत्तादानं स्तेयं’ आदानं ग्रहणं अदत्तस्य पतितविस्मृत स्थापिताननुज्ञातादिकस्य ग्रहणं अदत्तादानं तस्य परित्यागोऽदत्त परिवर्जनम्। चशब्द: समुच्चयार्थ:। बंभं च-ब्रह्यचर्यं च, ब्रह्मेत्युच्यते जीवस्तस्यात्मवत: परांगसम्भोगनिवृत्तवृत्तेश्चर्या ब्रह्मचर्यमित्युच्यते मैथुनपरित्याग:। स्त्रीपुंसोश्चारित्रमोहोदये सति रागपरिणामाविष्टयो: परस्परस्पर्शनं प्रतीच्छा मिथुन:, मिथुनस्य कर्म मैथुनं तस्य परित्यागो ब्रह्मचर्यमिति। संगविमुत्तीय-संगस्य परिग्रहस्य बाह्याभ्यन्तरलक्षणस्य विमुक्ति: परित्याग: संगविमुक्ति: श्रामण्यायोग्यसर्ववस्तुपरित्याग: परिग्रहासक्त्यभाव:। तहा-तथा तेनैवागमोक्तेन प्रकारेण। महव्वयाइं-महाव्रतानि सर्वसावद्यपरिहार कारणानि पंच न षट्। पण्णत्ता-प्रज्ञप्तानि प्रतिपादितानि कैर्जिनेन्द्रैरिति शेष:। महद्भिरनुष्ठितत्वात् स्वत एव वा महान्ति व्रतानि महाव्रतानि पंचैवेति।।
जीवस्थानस्वरूपं १बन्धस्थानपरित्यागं च प्रतिपादयन् हिंसा विरतेर्लक्षणं प्रपंचयन्नाह-
कायेंदियगुणमग्गणकुलाउजोणीसु सव्वजीवाणं।
णाऊण य ठाणादिसु हिंसादिविवज्जणमहिंसा।।५।।
आचारवृत्ति–इस आचार अर्थात् मूलाचार नाम के ग्रन्थ की प्रवृत्ति (रचना) तीन प्रकार की है-उद्देश, लक्षण और परीक्षा। उनमें से नामरूप से मूलगुणों का कथन करना उद्देश है। कहे गये पदार्थों के स्वरूप की व्यवस्था करने वाला धर्म लक्षण कहलाता है और जिनका लक्षण किया गया है ऐसे पदार्थों का जैसे-का-तैसा लक्षण है या नहीं, इस प्रकार से प्रमाणों के द्वारा अर्थ का निर्णय (निश्चय) करना परीक्षा है। इनमें से उद्देश के लिए यह गाथा सूत्र है। पुन: इसके आगे इनका लक्षण है और परीक्षा आगे-आगे यथास्थान की गई है। इस प्रकार से व्याख्या तीन प्रकार की होती है।
अथवा संग्रह, विभाग और विस्तररूप से तीन प्रकार की व्याख्या मानी गई है। अथवा सूत्र, वृत्ति और वार्तिक के स्वरूप से भी व्याख्या तीन प्रकार की हो जाती है या सूत्र, प्रतिसूत्र और विभाषा सूत्र के स्वरूप से भी व्याख्या के तीन भेद हो जाते हैं। इसी प्रकार से सभी जगह सम्बन्ध लगा लेना चाहिए।
प्रमत्तयोग से प्राणों का व्यपरोपण-वियोग करना हिंसा है। कषायसहित अवस्था को प्रमाद कहते हैं। कषायसहित आत्मा का परिणाम प्रमत्त कहलाता है। इस प्रमत्त का योग अर्थात् कषाय सहित परिणामों से मन-वचन-काय की क्रिया प्रमत्तयोग है। इस प्रमत्तयोग से दश प्राणों का वियोग करना हिंसा है। उस हिंसा का परिहार करना-सभी जीवों के ऊपर दया का होना ही अहिंसा महाव्रत है।
असत् बोलने का त्याग करना सत्यव्रत है। चूँकि ‘असत् कथन करना अनृत है’ ऐसा सूत्रकार का वचन है। यहाँ पर ‘सत्’ शब्द प्रशंसावाची है। जो सत् अर्थात् प्रशस्त नहीं है वह अप्रशस्त वचन असत् कहलाता है। अर्थात् अप्रशस्त अर्थ का कथन असत् अभिधान है। ऋत सत्य को कहते हैं। जो ऋत नहीं है वह अनृत है। वह क्या है ? जो प्राणियों को पीड़ा उत्पन्न करने वाले वचन हैं वे अप्रशस्त हैं। वे चाहे विद्यमान अर्थविषयक हों चाहे अविद्यमान अर्थविषयक हों, अप्रशस्त ही कहे जाते हैं। ऐसे वचनों का त्याग करना ही सत्य महाव्रत है।
अदत्त का वर्जन करना अचौर्यव्रत है, चूँकि ‘अदत्त का ग्रहण चोरी है’ ऐसा सूत्रकार का कथन है। गिरी हुई, भूली हुई, रखी हुई और बिना पूछे ग्रहण की हुई वस्तु अदत्त शब्द से कही जाती है। ऐसी अदत्त वस्तुओं का ग्रहण अदत्तादान है और इनका त्याग करना अचौर्यव्रत कहलाता है।
ब्रह्म शब्द का अर्थ जीव होता है। उस आत्मवान्-जितेन्द्रिय जीव की पर-अंग संभोग के अभावरूप वृत्ति का नाम चर्या है। इस प्रकार से ब्रह्मचर्य शब्द की परिभाषा है, जो कि मैथुन के परित्यागरूप है। चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से राग परिणाम आविष्ट हुए स्त्री और पुरुष की परस्पर में स्पर्श के प्रति जो इच्छा है उसका नाम मिथुन है और मिथुन की क्रिया को मैथुन कहते हैं। उसका परित्याग ब्रह्मचर्य है।
संग-बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह की विमुक्ति-त्याग करना संगविमुक्ति है। अर्थात् श्रमण के अयोग्य सर्ववस्तु का त्याग करना और परिग्रह में आसक्ति का अभाव होना ही परिग्रह-त्याग महाव्रत है। इस तरह ही आगमोक्त प्रकार से सर्वसावद्य-पापक्रियाओं के परिहार में कारणभूत ये महाव्रत पाँच ही हैं,छह नहीं हैं और न चार हैं। ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने प्रतिपादन किया है। चूँकि महान् पुरुषों ने इनका अनुष्ठान किया है अथवा ये स्वत: ही महान् व्रत हैं इसीलिए ये महाव्रत कहलाते हैं। ये पाँच ही हैं ऐसा समझना चाहिए।
जीवस्थान का स्वरूप और बन्ध का परित्याग प्रतिपादित करते हुए हिंसाविरति के लक्षण को विस्तार से कहने के लिए आचार्य गाथासूत्र कहते हैं–
गाथार्थ–काय, इन्द्रिय, गुणस्थान, मार्गणा, कुल, आयु और योनि-इनमें सभी जीवों को जान करके कायोत्सर्ग (ठहरने) आदि में हिंसा आदि का त्याग करना अहिंसा महाव्रत है।।५।।
काय-काया: पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसा: तात्स्थ्यान् साहचर्याद्वा पृथिवीकायिकादय: काया इत्युच्यन्ते, आधारनिर्देशो वा, एवमन्यत्रापि योज्यम्। इंद्रिय-इन्द्रियाणि पंच स्पर्शनरसनघ्राणचक्षु:श्रोत्राणि। एकं स्पर्शनमिन्द्रियं येषां ते एकेन्द्रिया:। द्वे स्पर्शनरसने इन्द्रिये येषां ते द्वीन्द्रिया:। त्रीणि स्पर्शनरसनघ्राणानीन्द्रियाणि येषां ते त्रीन्द्रिया:। चत्वारि स्पर्शनरसनघ्राण-चक्षुंषीन्द्रियाणि येषां ते चतुरिन्द्रिया:। पंच स्पर्शनरसनघ्राणचक्षु:श्रोत्राणीन्द्रियाणि येषां ते पंचेन्द्रिया:। गुण-गुणस्थानानि मिथ्यादृष्टि:, सासादनसम्यग्दृष्टि:, सम्यग्मिथ्यादृष्टि:, असंयतसम्यग्दृष्टि:, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत:, अप्रमत्तसंयत:, अपूर्वकरण: उपशमक: क्षपक:, अनिवृत्तिकरण: उपशमक: क्षपक:, सूक्ष्मसाम्पराय: उपशमक: क्षपक:, उपशान्त कषाय:, क्षीणकषाय:, सयोगकेवली, अयोगकेवली चेति चतुर्दशगुणस्थानानि। एतेषां स्वरूपं पर्याप्त्यधिकारे व्याख्यास्याम:, इति नेह प्रपंच: कृत:। मग्गण-मार्गणा यासु यकाभिर्वा जीवा मृग्यन्ते ताश्चतुर्दश मार्गणा:, गतीन्द्रियकाययोगवेदकषायज्ञानसंयम-दर्शनलेश्याभव्यसम्यक्त्व संज्ञ्याहारा: एतासामपि स्वरूपं तत्रैव व्याख्यास्याम:। जीवस्थानानि चैकेन्द्रियवादरसूक्ष्म-पर्याप्तापर्याप्त- द्वीन्द्रियपर्याप्तापर्याप्त- त्रीन्द्रियपर्याप्तापर्याप्त-चतुरिन्द्रियपर्याप्तापर्या- प्त-पंचेन्द्रियसंज्ञ्यसंज्ञिपर्याप्ता-पर्याप्ता:। कुल-कुलानि जाति- भेदा:, वटपलाशशंखशुक्तिमत्कुणपिपीलिकाभ्रमरपतङ्गम- त्स्यमनुष्यादय:, सीमन्तकादिनारकभेदा:,भवनादिदेवविशेषाश्च। आऊ-आयु: देहधारणं, नारकतिर्यग्मनुष्यदेवगति-स्थितिकारणानि। जोणि-योनय: जीवोत्पत्तिस्थानानि, सचित्ताचित्तमिश्रशीतोष्णमिश्रसंवृतविवृतमिश्राणि। एतेषा संख्याविशेषमुत्तरत्र व्याख्यास्याम:। कायाश्चेन्द्रियाणि च गुणस्थानानि च मार्गणाश्च कुलानि चायुश्च योनयश्च कायेन्द्रियगुण-मार्गणाकुलायुर्योेनयस्तासु तान् वा। सव्वजीवाणं-सर्वे च ते जीवाश्च सर्वजीवा:। सर्वशब्द: कार्र्त्स्न्यवचन:, जीवा: द्रव्यप्राणभावप्राणधारणसमर्था:, तेषां सर्वजीवानाम्। णाऊण-ज्ञात्वा स्वरूपमवबुध्य। ठाणादिसु-स्थानं कायोत्सर्ग: स आदिर्येषां ते स्थानादयस्तेषु स्थानादिषु, स्थानासनशयनगमनभो-जनोद्वर्तनाकुंचनप्रसारणादिक्रियाविशेषेषु। हिंसा-प्राणव्यपरोपणं आदिर्येषां ते हिंसादयस्तेषां विवर्जनं हिंसादिविवर्जनं वधपरितापमर्दनादिपरिहरणमहिंसा। एतदहिंसाव्रतं कायेन्द्रियगुण-मार्गणाकुलायुर्योनिविषयेषु स्थितानां जीवानां कायोत्सर्गादिषु प्रदेशेषु प्रयत्नवतो हिंसादिवर्जनं यत्तदहिंसाव्रतं स्यात्। अथवा कायेन्द्रियादीन् ज्ञात्वा स्थानादिषु त्रिâयासु जीवानां हिंसादिविवर्जनमिंहसा। कायादिस्वरूपेण स्थितानां जीवानां हिंसादिपरिहरणमिंहसेति भाव:।।
द्वितीयस्य व्रतस्य स्वरूपमाह –
रागादीिंह असच्चं चत्ता परतावसच्चवयणुिंत्त।
सुत्तत्थाणविकहणे अयधावयणुज्भâणं सच्चं।।६।।
आचारवृत्ति–पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस ये काय हैं, क्योंकि पृथ्वीकायिक, जलकायिक आदि जीव इन कायों में रहते हैं अथवा वे इन कायों के साथ रहते हैं इसलिए ये जीव ही यहाँ काय शब्द से कहे जाते हैं। अथवा यहाँ काय शब्द से जीवों के आधार का कथन किया गया है ऐसा समझना और इसी प्रकार से अन्यत्र भी लगा लेना चाहिए। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ हैं। एक स्पर्शनेन्द्रिय जिनके हैं, वे जीव एकेन्द्रिय कहलाते हैं। स्पर्शन और रसना, ये दो इन्द्रियाँ जिनके हैं, वे द्वीन्द्रिय हैं। स्पर्शन, रसना और घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ जिनके हैं, वे त्रीन्द्रिय हैं। स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु ये चार इन्द्रियाँ जिनके हैं, वे चतुरिन्द्रिय हैं तथा स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँचों इन्द्रियाँ जिनके हैं, वे पंचेन्द्रिय जीव कहलाते हैं।
गुण शब्द से गुणस्थान का ग्रहण होता है। ये गुणस्थान मिथ्यादृष्टि, सासादन-सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण में उपशम श्रेणी चढ़ने वाले उपशमक और क्षपकश्रेणी चढ़ने वाले क्षपक, अनिवृत्तिकरण में उपशमक और क्षपक, सूक्ष्मसाम्पराय में उपशमक और क्षपक, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली और अयोगकेवली-इस प्रकार से चौदह होते हैें। इनका स्वरूप आगे पर्याप्ति नामक अधिकार में कहेंगे, इसलिए यहाँ पर इनका विस्तार नहीं किया है।
जिनमें अथवा जिनके द्वारा जीव खोजे जाते हैं उन्हें मार्गणा कहते हैं। उनके चौदह भेद हैं – गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहारक। इनका स्वरूप भी उसी पर्याप्ति अधिकार में कहेंगे। जीवस्थान-जीव समास के भी चौदह भेद हैं जो इस प्रकार हैं–एकेन्द्रिय बादर-सूक्ष्म के पर्याप्त और अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय के पर्याप्त और अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय के पर्याप्त और अपर्याप्त, चतुरिन्द्रिय के पर्याप्त और अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय सैनी-असैनी के पर्याप्त और अपर्याप्त। जाति के भेद को कुल कहते हैं। बड़-पलाश, शंख-सीप, खटमल-चिंवटी, भ्रमर-पतंग, मत्स्य और मनुष्य इत्यादि जातियों के भेद हैं। सीमन्त –पटल आदि की अपेक्षा नारकियों में भेद हैं। भवनवासी आदि से देवों में भेद हैं। ये भेद ही जाति-कुल नाम से यहाँ कहे गये हैं। शरीर के धारण को आयु कहते हैं। यह आयु नरक गति, तिर्यंच गति, मनुष्य गति और देवगति में स्थिति-रहने के लिए कारण है। जीव की उत्पत्ति के स्थान को योनि कहते हैं, इसके सचित्त, अचित्त, मिश्र; शीत, उष्ण, मिश्र; और संवृत, विवृत, मिश्र-ऐसे नव भेद हैं। इन योनियों की विशिष्ट संख्या आगे कहेंगे। इन काय, इन्द्रिय, गुणस्थान, मार्गणा, कुल, आयु और योनियों में सभी जीवों को जानकर अथवा इनको और सभी जीवों के स्वरूप को जानकर हिंसा से विरत होता है।
जीव के साथ जो सर्व विशेषण है वह सम्पूर्ण को कहने वाला है। जो द्रव्यप्राण और भावप्राण को धारण करने में समर्थ हैं वे जीव कहलाते हैं। स्थान शब्द से यहाँ कायोत्सर्ग अर्थात् खड़े होना, ठहरना यह अर्थ विवक्षित है और आदि शब्द से आसन, शयन, गमन, भोजन, शरीर का उद्वर्तन, संकोचन, प्रसारण आदि क्रियाविशेषों में जीवों के प्राणों का व्यपरोपण-वियोग करना हिंसा आदि है और इस हिंसा आदि का वर्जन करना-वध, परिताप, मर्दन आदि का परिहार करना अहिंसा है।
ठहरना आदि क्रियाओं के प्रदेशों में प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले मुनि के हिंसादि का जो त्याग है वह अहिंसा व्रत है। अथवा काय, इन्द्रिय आदि को जान करके ठहरने आदि क्रियाओं में जीवों की हिंसादि का परिहार करना अहिंसा है। अर्थात् कायादि स्वरूप से रहने वाले जीवों की हिंसादि का परिहार करना अहिंसा है यह अभिप्राय है।
विशेषार्थ–जो काय आदि के आश्रित रहने वाले जीवों के भेद-प्रभेदों को जानकर पुन: गमन-आगमन, भोजन, शरीर का हिलाना-डुलाना, संकोचना, हाथ-पैर आदि पैâलाना इत्यादि प्रसंगों में जीवों के वध से-उनको पीड़ा देने या कुचल देने इत्यादि से – घात करता है वह हिंसा है, उसका त्याग ही अहिंसा व्रत है। अथवा कायोत्सर्ग आदि क्रियाओं के प्रसंग में सावधानी रखते हुए जीवों के वध का परिहार करना अहिंसा व्रत है।
द्वितीय व्रत के स्वरूप को कहते हैं–
गाथार्थ–रागादि के द्वारा असत्य बोलने का त्याग करना और पर को ताप करने वाले सत्य वचनों के भी कथन का त्याग करना तथा सूत्र और अर्थ के कहने में अयथार्थ वचनों का त्याग करना सत्य महाव्रत है।।६।।
रागादीिंह–राग: स्नेह: स आदिर्येषां ते रागादयस्तै रागादिभी रागद्वेषमोहादिभि: पैशून्येर्ष्यादिभिश्च। असच्चं–असत्यं मृषाभिधानम्। चत्ता–त्यक्त्वा परिहृत्य। परतावसच्चवयणुिंत्त–परतापसत्यवचनोिंक्त परतापसत्यवचनमिति वा। परान् प्राणिन: तपति पीडयति परतापं, परतापं च तत्सत्यवचनं च परतापसत्यवचनम्। येन सत्येनापि वचनेन परेषां परितापादयो भवन्ति तत्सत्यमपि त्यक्त्वा। अयधावयणुज्झणं–न यथा अयथा तच्च तद्ववचनं चान्यथावचनं अपरमार्थवचनं। द्रव्यक्षेत्रकालभावाद्यनपेक्षं सर्वथास्त्येवेत्येवमादिकं तस्य सर्वस्य उज्झनं परिहरणमयथावचनोज्झनं सदाचाराचार्यान्यथार्थकथने दोषाभावो वा सत्यमिति सम्बन्ध:। सुत्तस्थाणविकहणे–सूत्रं द्वादशांगचतुर्दशपूर्वाणि, अर्थो जीवादय: पदार्थास्तयोर्विकथनं प्रतिपादनं तस्मिन् सूत्रार्थविकथने, सूत्रस्य अर्थस्य च विकथने अयथावचनस्योत्सर्गोऽन्यथा न प्रतिपादनम्। सदाचारस्याचार्यस्य स्खलने दोषाभावो वा। सच्चं–सत्यमिति। रागादिभिरसत्यमभिधानमभिप्रायं च त्यक्त्वा, परितापकरं सत्यमपि त्यक्त्वा सूत्रार्थान्यथाकथनं च त्यक्त्वा आचार्यादीनां वचनस्खलने दोषं वा त्यक्त्वा यद्वचनं तत्सत्यव्रतमिति।
तृतीयव्रतस्वरूपनिरूपणायाह–
गामादिसु पडिदाइं अप्पप्पहुिंद परेण संगहिदं।
णादाणं परदव्वं अदत्तपरिवज्जणं तं तु।।७।।
आचारवृत्ति–राग-स्नेह है आदि में जिनके वे रागादि हैं। उन रागादि-राग, द्वेष, मोह आदि के द्वारा और पैशून्य, ईर्ष्या आदि के द्वारा असत्य वचनों का त्याग करना। पर प्राणियों को जो तपाते हैं, पीड़ा देते हैं वे वचन परताप कहलाते हैं। ऐसे सत्य वचन भी अर्थात् जिस सत्य वचन के द्वारा भी परजीवों को परिताप आदि होते हैं उन सत्य वचनों को भी छोड़ देवें। जो जैसे के तैसे नहीं हैं वे अयथा वचन हैं अर्थात् अपरमार्थ वचन हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदि की अपेक्षा न करके ‘सर्वथा अस्ति एवं-सर्वथा ऐसा है ही है’ इत्यादि प्रकार के सभी वचनों का परिहार करना अयथा वचन त्याग है। अथवा सदाचारी आचार्य के द्वारा अन्यथा अर्थ कर देने पर भी दोष नहीं है अर्थात् यदि आचार्य सदाचार प्रवृत्ति वाले पापभीरु हैं और कदाचित् अर्थ का वर्णन करते समय कुछ अन्यथा बोल जाते हैं या उनके वचन स्खलित हो जाते हैं तो उसे दोषरूप नहीं समझना।
द्वादशांग अंग और चौदह पूर्व सूत्र कहलाते हैं। जीवादि पदार्थ अर्थ शब्द से कहे जाते हैं। इन सूत्र और अर्थ के प्रतिपादन करने में अयथावचन का त्याग करना अर्थात् सूत्र और अर्थ का अन्यथा कथन नहीं करना। अथवा सदाचार प्रवृत्ति वाले आचार्य के वचन स्खलन में दोष का अभाव मानना सत्य है। तात्पर्य यह है कि रागादि के द्वारा असत्य वचन और असत्य अभिप्राय को छोड़कर, पर के तापकारी ऐसे सत्यवचनों को भी छोड़ करके तथा सूत्र और अर्थ के अन्यथा कथनरूप वचन को भी छोड़ करके अथवा आचार्यादि के वचन स्खलन में दोष को छोड़कर अर्थात् दोष को न ग्रहण करके जो वचन बोलना है वह सत्य व्रत है।
तृतीय व्रत का स्वरूप बतलाने के लिए कहते हैं–
गाथार्थ–ग्राम आदि में गिरी हुई, भूली हुई इत्यादि जो कुछ भी छोटी–बड़ी वस्तु है और जो पर के द्वारा संगृहीत है, ऐसे परद्रव्य को ग्रहण नहीं करना, सो अदत्त–परित्याग नाम का महाव्रत है।।७।।
गामादिसु–ग्रामो वृत्तिपरिक्षिप्तजननिवास: स आदिर्येषां ते ग्रामादयस्तेषु ग्रामादिषु ग्रामखेटकर्वटमटंब-नगरोद्यानपथि-शैलाटव्यादिषु। पडिदाइं–पतितमादिर्येषां तानि पतितादीनि पतितनष्ट विस्मृतस्थापितादीनि। अप्पप्पहुिंद–अल्पं स्तोकं प्रभृतिरादिर्येषां तान्यल्पप्रभृतीनि स्तोकबहुसूक्ष्मस्थूलादीनि। परेण–अन्येन। संगहिदाइं–संगृहीतानि चात्मवशकृतानि च क्षेत्रवास्तुधनधान्यपुस्तकोपकरणच्छात्रादीनि तेषां सर्वेषां। णादाणं–नादानं न ग्रहणं आत्मीयकरणविवर्जनम्। परदव्वं–परद्रव्याणां। अदत्तपरिवज्जणं–अदत्तस्यापरित्यक्तस्यानभ्युपगतस्य च परिवर्जनं परिहरणं अदत्तपरिवर्जनं, अदत्त-ग्रहणेऽभिलाषाभाव:। तं तु–तदेतत्। परद्रव्याणां ग्रामादिषु पतितादीनामल्पबह्वादीनां परेण संगृहीतानां च यदेतन्नादान-मग्रहणं तददत्तपरिवर्जनं व्रतमिति। अथवा परद्रव्यं परेण संगृहीतं च ग्रामादिषु पतितादिकं चाल्पादिकं च नादानं नादेयं आत्मीयं न कर्तव्यमिति योऽयमभिप्रायस्तददत्तपरिवर्जनं नामेति।।
चतुर्थव्रतस्वरूपनिरूपणायाह–
मादुसुदाभगिणीव य दट्ठूणित्थित्तियं च पडिरूवं।
इत्थिकहादिणियत्ती तिलोयपुज्जं हवे बंभं।।८।।
आचारवृत्ति–बाड़ से परिवेष्टित जनों के निवास को ग्राम कहते हैं। तथा आदि शब्द से खेट, कर्वट, मटंब, नगर, उद्यान, मार्ग, पर्वत, अटवी आदि में गिरी हुई, खोई हुई, भूली हुई अथवा रखी हुई अल्प या बहुत अथवा सूक्ष्म–स्थूल आदि जो वस्तुएँ हैं तथा जो अन्य के द्वारा संगृहीत हैं–अपने बनाये गये हैं ऐसे क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, पुस्तक, उपकरण और छात्र आदि हैं उनको ग्रहण नहीं करना अर्थात् उनको अपने बनाने का त्याग करना और पर के द्रव्यों को बिना दिये हुए नहीं लेना, पर से बिना पूछे हुए किसी वस्तु के ग्रहण का त्याग करना अदत्त परिवर्जन व्रत है अर्थात् अदत्त के ग्रहण करने में अभिलाषा का अभाव होना ही अचौर्यव्रत है। तात्पर्य यह हुआ कि ग्राम आदि में गिरा हुआ, भूला हुआ, अल्प अथवा बहुत जो परद्रव्य है और जो पर के द्वारा संगृहीत वस्तुएं है उनका ग्रहण न करना अदत्त त्याग नाम का व्रत है। अथवा परद्रव्य और पर के द्वारा संगृहीत वस्तु तथा ग्राम आदि में पतित इत्यादि अल्प–बहु आदि वस्तुओं को ग्रहण नहीं करना अर्थात् उनको अपनी नहीं करनेरूप जो अभिप्राय है वह अचौर्य नाम का तृतीय व्रत है।
चतुर्थ व्रत का स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं–
गाथार्थ–तीन प्रकार की स्त्रियों को और उनके प्रतिरूप (चित्र) को माता, पुत्री और बहन के समान देखकर जो स्त्रीकथा आदि से निवृत्ति है वह तीन लोक में पूज्य ब्रह्मचर्य व्रत कहलाता है।।८।।
मादु–माता जननी। सुदा–सुता दुहिता। भगिणीव य–भगिनी स्वसा। इवौपम्ये द्रष्टव्य इवशब्द उपमार्थ: चशब्द: समुच्चयार्थ:। दट्ठूण–दृष्ट्वा सम्यक् ज्ञात्वा। इत्थित्तियं–स्त्रीणां त्रिकं वृद्धबालयौवनभेदात्। पडिरूवं च–प्रतिरूपं च। चित्रलेपभेदादिषु स्थितं प्रतिबिंबं देवमनुष्यतिरश्चां च रूपं। इत्थिकहादिणियत्ती–स्त्रीकथा आदिर्येषां ते स्त्रीकथादयस्तेभ्यो निवृत्ति: परिहार: स्त्रीकथादिनिवृत्ति:, वनिताकोमलालाप-मृदुस्पर्श-रूपालोकन-नृत्यगीतहासकटाक्ष-निरीक्षणाद्यनुरागत्याग:। अथवा स्त्रीभक्तराजचौरकथानां परित्याग: रागादिभावेन तत्र प्रबन्धाभाव:। तिलोयपुज्जं–त्रिभिर्लोकै: पूज्यं त्रिलोकपूज्यं देवीभावनमनुष्यैरर्चनीयम्। हवे–भवेत्। बंभं–ब्रह्मचर्यम्। देवमनुष्यतिरश्चां वृद्धबालयौवनस्वरूपं स्त्रीत्रिकं दृष्ट्वा यथासंख्येन माता सुता भगिनीव चिन्तनीयम्। तेषां प्रतिरूपाणि च तथैव चिन्तनीयानि। स्त्रीकथादिकं च वर्जनीयम्। अनेन प्रकारेण सर्वपूज्यं ब्रह्मचर्यं नवप्रकारमेकाशीतिभेदं द्वाषष्ट्यधिकं शतं चेति।।
पंचमव्रतस्वरूपपरीक्षार्थमुत्तरसूत्रमाह–
जीवणिबद्धाऽबद्धा परिग्गहा जीवसंभवा चेव।
तेिंस सक्कच्चागो इयरम्हि य णिम्ममोऽसंगो।।९।।
आचारवृत्ति–वृद्धा, बाला और युवती के भेद से तीन प्रकार की स्त्रियों को माता, पुत्री और बहिन के समान सम्यक् प्रकार से समझकर तथा चित्र, लेप आदि भेदों में बने हुए स्त्रियों के प्रतिबिम्ब को एवं देव, मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धी स्त्रियों के रूप देखकर उनसे विरक्त होना; स्त्रियों के कोमलवचन, उनका मृदुस्पर्श, उनके रूप का अवलोकन, उनके नृत्य, गीत, हास्य, कटाक्ष-निरीक्षण आदि में अनुराग का त्याग करना स्त्रीकथादि निवृत्ति का अर्थ है। अथवा स्त्रीकथा, भोजनकथा, राजकथा और चोरकथा इन विकथाओं का त्याग करना अर्थात् रागादि भाव से उनमें सम्बन्ध–आसक्ति–का अभाव होना, यह त्रिलोकपूज्य देवों से, भवनवासियों से और मनुष्यों से अर्चनीय ब्रह्मचर्य महाव्रत होता है। गाथा में ‘इव’ शब्द उपमा के लिए है और ‘च’ शब्द समुच्चय के लिए। तात्पर्य यह है कि देवी, मानुषी और तिर्यंचनियों के वृद्ध, बाल और यौवन स्वरूप तीन प्रकार की अवस्थाओं को देखकर क्रम से उन्हें माता, पुत्री और बहन के समान समझना चाहिए। उनके प्रतिबिम्बों को भी देखकर वैसा समझना चाहिए। इस प्रकार से सर्वपूज्य ब्रह्मचर्य व्रत नवप्रकार का, इक्यासी प्रकार का और एक सौ बासठ प्रकार का होता है।
विशेषार्थ–स्त्री पर्याय तीन गतियों में पाई जाती है इसलिए स्त्री के मूलरूप से तीन भेद किये हुए हैं। देवी में यद्यपि स्वभावत: बाल, वृद्ध और युवती का विकल्प नहीं होता तथापि विक्रिया से यह भेद संभव है। इन तीनों प्रकार की स्त्रियों के बाल, वृद्ध और यौवन की अपेक्षा तीन अवस्थाएं होती हैं। इस प्रकार ९ भेद हुए। ९ प्रकार के भेदों में मन वचन काय से गुणा करने पर २७ भेद एवं २७ को कृत, कारित, अनुमोदना से गुणा करने पर ८१ भेद होते हैं। फिर ८१ को चेतन और अचेतन दो भेदों से गुणा कर दिया जाए तो १६२ की संख्या प्राप्त होती है। अचेतन का विकल्प काष्ठ–पाषाण आदि की प्रतिमाओं एवं चित्रों से सम्भव है।
अब पंचम व्रत के स्वरूप की परीक्षा के लिए अगला सूत्र कहते हैं–
गाथार्थ–जीव से सम्बन्धित, जीव से असम्बन्धित और जीव से उत्पन्न हुए, ऐसे ये तीन प्रकार के परिग्रह हैं। इनका शक्ति से त्याग करना और इतर परिग्रह में (शरीर उपकरण आदि में) निर्मम होना यह असंग अर्थात् अपरिग्रह नाम का पाँचवाँ व्रत है।।९।।
जीवणिबद्धा–जीवेषु प्राणिषु निबद्धा: प्रतिबद्धा जीवनिबद्धा: प्राण्याश्रिता मिथ्यात्व-वेद-राग-हास्य-रत्यरति-शोक-भय-जुगुप्सा-क्रोध-मान-माया-लोभादय: दासीदासगोऽश्वादयो वा। अबद्धा–अप्रतिबद्धा अनाश्रिता जीवपृथग्भूता: क्षेत्रवास्तुधनधान्यादय:। परिग्गहा–परिग्रहा: समन्तत आदानरूपा मूर्च्छा। जीवसम्भवा–जीवेभ्य: सम्भवो येषां ते जीवसम्भवा जीवोद्भवा मुक्ताफलशङ्खशुक्तिचर्मदन्तकम्बलादय: क्रोधादयो वा श्रामण्यायोग्या:। चेव–चैव। तेसिं–तेषां सर्वेषां पूर्वोक्तानां। सक्कच्चागो–शक्त्या त्याग: सर्वात्मस्वरूपेणानभिलाष: सर्वथापरिहार:। अथवा तेषां संगानां परिग्रहाणां त्याग: पाठान्तरम्। इयरम्हि य–इतरेषु च संयमज्ञानशौचोपकरणेषु। णिम्ममो–निर्मम ममत्वरहितत्वं नि:संगत्वम्। असंगो–असंगव्रतत्वम्। किमुक्तं भवति–जीवाश्रिता ये परिग्रहा ये चानाश्रिता: क्षेत्रादय: जीवसम्भवाश्च ये तेषां सर्वेषां मनोवाक्कायै: सर्वथा त्याग: इतरेषु च संयमाद्युपकरणेषु च असङ्गमतिमूर्च्छारहितत्वमित्येतदसङ्गव्रतमिति।। पंचमहाव्रतानां स्वरूपं भेदं च निरूप्य पंचसमितीनां भेदं स्वरूपं च निरूपयन्नाह–
इरिया भासा एसण णिक्खेवादाणमेव समिदीओ।
पदिठावणिया य तहा उच्चारादीण पंचविहा।।१०।।
आचारवृत्ति–मिथ्यात्व, वेद, राग, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ आदि अथवा दासी, दास, गो, अश्व आदि ये जीव से निबद्ध अर्थात् जीव के आश्रित परिग्रह हैं। जीव से पृथग्भूत क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य आदि जीव से अप्रतिबद्ध, जीव से अनाश्रित, परिग्रह हैं। जीवों से उत्पत्ति है जिनकी-ऐसे मोती, शंख, सीप, चर्म, दाँत, कम्बल आदि अथवा श्रमणपने के अयोग्य क्रोध आदि परिग्रह जीवसंभव कहलाते हैं। सब तरफ से ग्रहण करनेरूप मूर्च्छा परिणाम को परिग्रह कहते हैं। इन सभी प्रकार के परिग्रहों का शक्तिपूर्वक त्याग करना, सर्वात्मस्वरूप से इनकी अभिलाषा नहीं करना अर्थात् सर्वथा इनका परिहार करना, अथवा ‘तेसिं संगच्चागो ’ ऐसा पाठान्तर होने से उसका यह अर्थ है-इन संग (परिग्रहों) का त्याग करना और इतर अर्थात् संयम, ज्ञान तथा शौच के उपकरण में ममत्व रहित होना यह असंग व्रत अर्थात् अपरिग्रह व्रत कहलाता है। तात्पर्य यह है कि जो जीव के आश्रित परिग्रह हैं, जो जीव से अनाश्रित क्षेत्र आदि परिग्रह हैं और जो जीव से सम्भव परिग्रह हैं उन सबका मन, वचन, काय से सर्वथा त्याग करना और इतर संयम आदि के उपकरणों में आसक्ति नहीं रखना, अति मूर्च्छा से रहित होना, इस प्रकार से यह परिग्रहत्याग महाव्रत है।
पाँच महाव्रत का स्वरूप और भेदों का निरूपण करके अब पाँच समितियों के भेद और स्वरूप का निरूपण करते हुए आचार्य कहते हैं–
गाथार्थ–ईर्या, भाषा, एषणा, निक्षेपादान तथा मलमूत्रादि का प्रतिष्ठापन–सम्यक्परित्याग ये समितियाँ पाँच प्रकार की ही हैं।।१०।।
इरिया–ईर्या गमनागमनादिकं। भाषा–भाषा वचनं सत्य-मृषा–सत्यमृषाऽसत्यमृषाप्रवृत्तिकारणम्। एसणा–एषणा चतुर्विधाहारग्रहणवृत्ति:। णिक्खेवादाणं–निक्षेपो ग्रहीतस्य संस्थापनं आदानं स्थितस्य ग्रहणं निक्षेपादाने एवकारोऽवधारणार्थ:। समिदीओ–समितय: सम्यव्âप्रवृत्तय:। समितिशब्द: प्रत्येकमभिसम्बध्यते, ईर्याया: समिति: ईर्यासमिति: सम्यगवलोकनं समाहितचित्तस्य प्रयत्नेन गमनागमनादिकम्। भाषाया: समिति: भाषासमिति: श्रुतधर्माविरोधेन पूर्वापरविवेकसहितमनिष्ठुरादि–वचनम्। एषणाया: समितिरेषणासमिति: लोकजुगुप्सादिपरिहीनविशुद्धपिण्डग्रहणम्। निक्षेपादानयो: समितिर्निक्षेपादानसमितिश्चक्षु: पिच्छकप्रतिलेखनपूर्वकसयत्नग्रहणनिक्षेपादि:। पदिठावणिया य–प्रतिष्ठापनिका च, अत्रापि समितिशब्द: सम्बन्धनीय:, प्रतिष्ठापनासमितिर्जन्तुविवर्जितप्रदेशे सम्यगवलोक्य मलाद्युत्सर्ग:। तहा–तथैव। उच्चारादीण–उच्चारादीनां मूत्रपुरीषादीनां प्रतिष्ठापना सम्यक्परित्यागो य: सा प्रतिष्ठापनासमिति:। पंचविहा एव–पंचप्रकारा एव समितयो भवन्तीत्यर्थ:।
सामान्येन पंचसमितीनां स्वरूपं निरूप्य विशेषार्थमुत्तरमाह–
फासुयमग्गेण दिवा जुगंतरप्पेहिणा सकज्जेण।
जंतूणि परिहरंतेणिरियासमिदी हवे गमणं।।११।।
आचारवृत्ति–गमन–आगमन को ईर्या कहते हैं। सत्य, मृषा, सत्यमृषा और असत्यमृषा अर्थात् सत्य, असत्य, उभय और अनुभयरूप प्रवृत्ति में कारणभूत वचन को भाषा कहते हैं। चतुर्विध आहार के ग्रहण की वृत्ति को एषणा कहते हैं। ग्रहण की हुई वस्तु को रखना निक्षेप है और रखी हुई का ग्रहण करना आदान है ऐसा निक्षेपादान का लक्षण है। मलमूत्रादि का प्रतिष्ठापन अर्थात् सम्यक् प्रकार से परित्याग करना प्रतिष्ठापनिका का लक्षण है। सम्यक् प्रवृत्ति को समिति कहते हैं। यह समिति प्रत्येक के साथ सम्बन्धित है। ईर्या की समिति ईर्यासमिति है। अर्थात् सम्यक् प्रकार से अवलोकन करना, एकाग्रमना होते हुए प्रयत्नपूर्वक गमन-आगमन आदि करना। भाषा की समिति भाषासमिति है अर्थात् शास्त्र और धर्म से अविरुद्ध पूर्वापर विवेक सहित निष्ठुर आदि वचन न बोलना। एषणा-आहार की समिति एषणा समिति है अर्थात् लोक निंदा आदि से रहित विशुद्ध आहार का ग्रहण करना। निक्षेप और आदान की समिति निक्षेपादान समिति है अर्थात् नेत्र से देखकर और पिच्छिका से परिमार्जित करके यत्नपूर्वक किसी वस्तु को उठाना और रखना। प्रतिष्ठापना की समिति प्रतिष्ठापन समिति है अर्थात् जन्तु से रहित प्रदेश में सम्यक् प्रकार से देखकर मल-मूत्र आदि का त्याग करना। इस तरह ये पाँच प्रकार की ही समितियाँ होती हैं ऐसा अभिप्राय है।
सामान्य से पाँच समितियों का स्वरूप निरूपित करके अब उनके विशेष अर्थ के लिए उत्तरसूत्र कहते हैं–
गाथार्थ–प्रयोजन के निमित्त चार हाथ आगे जमीन देखने वाले साधु के द्वारा दिवस में प्रासुकमार्ग से जीवों का परिहार करते हुए जो गमन है वह ईर्यासमिति है।।११।।
फासुगमग्गेण–प्रगता असवो जीवा यस्मिन्नसौ प्रासुक: प्रासुकश्चासौ मार्गश्च प्रासुकमार्गो निरवद्य: पंथास्तेन प्रासुकमार्गेण, गजखरोष्ट्रगोमहिषीजनसमुदायोपमर्दितेन वर्त्मना। दिवा–दिवसे सूरोद्गमे प्रवृत्तचक्षु:प्रचारे। जुगंतरप्पेहिणा–युगान्तरं चतुुर्हस्तप्रमाणं प्रेक्षते पश्यतीति युगान्तरप्रेक्षी तेन युगान्तरप्रेक्षिणा सम्यगवहितचित्तेन पदनिक्षेपप्रदेशमवलोकमानेन। सकज्जेण–कार्यं प्रयोजनं शास्त्रश्रवणतीर्थयात्रागुरुप्रेक्षणादिकं सह कार्येण वर्तते इति सकार्यस्तेन सकार्येण सप्रयोजनेन धर्मकार्यमन्तरेण न गन्तव्यमित्यर्थ:। जंतूणि–जन्तून् जीवान् एकेन्द्रियप्रभृतीन्। परिहरंतेण–परिहरता अविराधयता। इरियासमिदी–ईर्यासमिति:। हवे–भवेत्। गमणं–गमनम्। सकार्येण युगान्तरप्रेक्षिणा संयतेन दिवसे प्रासुकमार्गेण यद्गमनं क्रियते सेर्यासिमितिर्भवतीत्यर्थ:। अथवा संयतस्य जन्तून् परिहरतो यद्गमनं सेर्यासमिति:।।
भाषासमिते: स्वरूपनिरूपणायोत्तरसूत्रमाह–
पेसुण्णहासकक्कसपरणिंदाप्पपसंसविकहादी।
वज्जित्ता सपरहियं भासासमिदी हवे कहणं।।१२।।
आचारवृत्ति–‘प्रगता असवो यस्मिन्’–निकल गये हैं प्राणी जिसमें से उसे प्रासुक कहते हैं। ऐसा प्रासुक-निरवद्य मार्ग है। उस प्रासुक मार्ग से अर्थात् हाथी, गधा, ऊंट, गाय, भैंस और मनुष्यों के समुदाय के गमन से उपमर्दित हुआ जो मार्ग है उस मार्ग से दिवस में-सूर्य के उदित हो जाने पर, चक्षु से वस्तु स्पष्ट दिखने पर, चार हाथ आगे जमीन को देखते हुए अर्थात् अच्छी तरह एकाग्रचित्तपूर्वक पैर रखने के स्थान का अवलोकन करते हुए, सकार्य अर्थात् शास्त्रश्रवण, तीर्थयात्रा, गुरुदर्शन आदि प्रयोजन से एकेन्द्रिय आदि जन्तुओं की विराधना न करते हुए, जो गमन करना होता है, वह ईर्यासमिति है। इससे यह भी समझना कि धर्म कार्य के बिना साधु को नहीं चलना चाहिए।
तात्पर्य यह है कि धर्मकार्य के निमित्त चार हाथ आगे देखते हुए साधु के द्वारा दिवस में प्रासुक मार्ग से जो गमन किया जाता है वह ईर्या समिति कहलाती है। अथवा साधु का जीवों की विराधना न करते हुए जो गमन है वह ईर्यासमिति है।
अब भाषा समिति का निरूपण करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं–
गाथार्थ–चुगली, हँसी, कठोरता, परनिन्दा, अपनी प्रशंसा और विकथा आदि को छोड़कर अपने और पर के लिए हितरूप बोलना भाषा समिति है।।१२।।
पेसुण्ण–पिशुनस्य भाव: पैशुन्यं निर्दोषस्य दोषोद्भावनम्। हास–हसनं हास: हास्यकर्मोदयवशादधर्मार्थहर्ष:। कक्कस–कर्कश: श्रवणनिष्ठुरं कामयुद्धार्थप्रवर्तकं वचनम्। परणिंदा–परेषां निंदा जुगुप्सा परनिंदा। परेषां तथ्यानामतथ्याना वा दोषाणामुद्भावनं प्रति समीहा अन्यगुणासहनम्। अप्पपसंसा–आत्मन: प्रशंसा स्तव: आत्मप्रशंसा स्वगुणाविष्करणाभिप्राय:। विकहादी–विकथा आदिर्येषां ते विकथादय: स्त्रीकथा, भक्तकथा, चौरकथा, राजकथादय:। एतेषां पैशून्यादीनां द्वंद्वसमास:। वज्जित्ता–वर्जयित्वा परिहृत्य। सपरहियं–स्वश्च परश्च स्वपरौ ताभ्यां हितं स्वपरहितं, आत्मनोऽन्यस्य च सुखकरं कर्मबंधकारणविमुक्तम्। भाषासमिदी–भाषासमिति:। हवे–भवेत्। कहणं–कथनम्। पैशून्य–हासकर्कशपरनिन्दात्मप्रशंसा-विकथादीन् वर्जयित्वा स्वपरहितं यदेतत् कथनं भाषासमितिर्भवतीत्यर्थ:।।
एषणासमितिस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह–
छादालदोससुद्धं कारणजुत्तं विसुद्धणवकोडी।
सीदादीसमभुत्ती परिसुद्धा एसणासमिदी।।१३।।
आचारवृत्ति–पिशुन-चुगली के भाव को पैशुन्य कहते हैं अर्थात् निर्दोष के दोषों की उद्भावना करना, निर्दोष को दोष लगाना। हास्यकर्म के उदय से अधर्म के लिए हर्ष होना हास्य है। कान के लिए कठोर, काम और युद्ध के प्रवर्तक वचन कर्कश हैं। पर के सच्चे अथवा झूठे दोषों को प्रकट करने की इच्छा का होना अथवा अन्य के गुणों को सहन नहीं कर सकना यह परनिंदा है। अपनी प्रशंसा-स्तुति करना अर्थात् अपने गुणों को प्रकट करने का अभिप्राय रखना और स्त्रीकथा, भक्तकथा, चोरकथा और राजकथा आदि को कहना विकथादि हैं। इन चुगली आदि के वचनों को छोड़कर अपने और पर के लिए सुखकर अर्थात् कर्मबन्ध के कारणों से रहित वचन बोलना भाषासमिति है।
तात्पर्य यह है कि पैशुन्य, हास्य, कर्कश, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा और विकथा आदि को छोड़कर स्व और पर के लिए हितकर जो कथन करना है वह भाषासमिति है।
अब एषणासमिति के स्वरूप को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं–
गाथार्थ–छ्यालीस दोषों से रहित शुद्ध, कारण से सहित, नव कोटि से विशुद्ध और शीत-उष्ण आदि में समान भाव से भोजन करना यह सम्पूर्णतया निर्र्दोष एषणा समिति है।।१३।।
छादालदोससुद्धं–षड्भिरधिका चत्वारिंशत् षट्चत्वारिंशत् षट्चत्वारिंशतश्च (षट्चत्वारिंशच्च) ते दोषाश्च षट्चत्वािंरशद्दोषा: तै: शुद्धं निर्मलं षट्चत्वािंरशद्दोषशुद्धं उद्गमोत्पादनैषणादि –कलंकरहितम्। कारणजुत्तं–कारणैर्निर्मितैर्युक्तं सहितं कारणयुक्तं असातोदयजातबुभुक्षाप्रतीकारार्थं वैयावृत्यादिनिमित्तं च। विसुद्धणवकोडी–नव च ता: कोटयश्च विकल्पाश्च नवकोटय: विशुद्धा निर्गता नवकोटयो यस्माद्विशुद्धनवकोटि मनोवचनकायकृतकारितानुमतिरहितम्। सीदादि–शीतमादिर्यस्य तच्छीतादि शीतोष्णलवणसरसविरसरूक्षादिकम्। समभुत्ती–समा सदृशी भुक्तिर्भोजनं समभुक्ति:। शीतादौ समभुक्ति: शीतादिसमभुक्ति: शीतोष्णादिषु भक्ष्येषु रागद्वेषरहितत्वम्। परिसुद्धा–समन्ततो निर्मला। एसणासमिदी–एषणासमिति:। षट्चत्वारिंशद्दोषरहितं यदेतत् पिंडग्रहणं सकारणं मनोवचनकायकृतकारितानुमतिरहितं च शीतादौ समभुक्तिश्च, अनेन न्यायेनाचरतो निर्मलैषणासमितिर्भवतीत्यर्थ:।।
आदाननिक्षेपसमितिस्वरूपं निरूपयन्नाह–
णाणुवहि संजमुवहिं सउचुवहिं अण्णमप्पमुवहिं वा।
पयदं गहणिक्खेवो समिदी आदाणणिक्खेवा।।१४।।
आचारवृत्ति–उद्गम, उत्पादन, एषणा आदि छ्यालीस दोषों से रहित शुद्ध आहार निर्दोष कहलाता है। असाता के उदय से उत्पन्न हुई भूख के प्रतीकार हेतु और वैयावृत्य आदि के निमित्त किया गया आहार कारणयुक्त होता है। मन-वचन-काय को कृत–कारित-अनुमोदना से गुणित करने पर नव होते हैं। इन नवकोटि-विकल्पोें से रहित आहार नव-कोटि-विशुद्ध है। ठण्डा, गर्म, लवण से सरस या विरस अथवा रूक्ष आदि भोजन में सामानभाव अर्थात् शीत, उष्ण आदि भोज्य वस्तुओं में राग-द्वेष रहित होना, इस प्रकार सब तरफ से निर्मल-निर्दोष आहार ग्रहण करना एषणासमिति होती है।
तात्पर्य यह है कि छ्यालीस दोष रहित जो आहार का ग्रहण है, जो कि कारण सहित है और मन– वचन-कायपूर्वक, कृत–कारित-अनुमोदना से रहित तथा शीतादि में समता भावरूप है वह साधु के निर्मल एषणासमिति होती है।
अब आदाननिक्षेपण समिति के स्वरूप का निरूपण करते हुए कहते हैं–
गाथार्थ–ज्ञान का उपकरण, संयम का उपकरण, शौच का उपकरण अथवा अन्य भी उपकरण को प्रयत्नपूर्वक ग्रहण करना और रखना आदाननिक्षेपण समिति है।।१४।।
णाणुवहि–ज्ञानस्य श्रतुज्ञानस्योपधिरूपकरणं ज्ञानोपधिर्ज्ञाननिमित्तं पुस्तकादि। संजमुवहिं–संयमस्य पापक्रियानिवृत्ति-लक्षणस्योपधि रूपकरणं संयमोपधि: प्राणिदयानिमित्तं पिच्छिकादि:। सउचुवहिं–शौचस्य पुरीषादिमलापहरणस्योपधि २रूपकरणं शौचोपधिर्मूत्रपुरीषादिप्रक्षालननिमित्तं कुंडिकादिद्रव्यम् ज्ञानोपधिश्च संयमोपधिश्च शौचोपधिश्च ज्ञानोपधि-संयमोपधिशौचोपधयस्तेषां ज्ञानाद्युपधीनाम्। अण्णमवि–अन्यस्यापि संस्तरादिकस्य। उविंह वा–उपधेर्वा उपकरणस्य संस्तरादिनिमित्तस्य उपकरणस्य प्राकृतलक्षणबलादत्र षष्ठीविभक्तिर्द्रष्टव्या। पयदं-प्रयत्नेनोपयोगं कृत्वा। गहणिक्खेवो–ग्रहणं ग्रह: निक्षेपणं निक्षेप: ग्रहश्च निक्षेपश्च ग्रहनिक्षेपौ। समिदी–समिति:। आदाणणिक्खेवा–आदाननिक्षेपौ। ज्ञानोपधि-संयमोपधिशौचोपधीनामन्यस्य चोपधेर्यत्नेन यौ ग्रहणनिक्षेपौ प्रतिलेखनपूर्वकौ सा आदाननिक्षेपा समितिर्भवतीत्यर्थ:।।
पंचमसमितिस्वरूपनिरूपणायाह–
एगंते अच्चित्ते दूरे गूढे विसालमविरोहे।
उच्चारादिच्चाओ पदिठावणिया हवे समिदि।।१५।।
आचारवृत्ति–ज्ञान-श्रुतज्ञान के उपधि-उपकरण अर्थात् ज्ञान के निमित्त पुस्तक आदि ज्ञानोपधि हैं। पापव्रिâया से निवृत्ति लक्षणवाले संयम के उपकरण अर्र्र्थात् प्राणियों की दया के निमित्त पिच्छिका आदि संयमोपधि हैं। मल आादि के दूर करने के उपकरण अर्थात् मलमूत्रादि प्रक्षालन के निमित्त कमण्डलु आादि द्रव्य शौचोपधि हैं। अन्य भी उपधि का अर्थ है संस्तर आदि उपकरण अर्थात् घास, पाटा आदि वस्तुएँ। इन सब उपकरणों को प्रयत्नपूर्वक अर्थात् उपयोग स्थिर करके सावधानीपूर्वक ग्रहण करना तथा देख शोधकर ही रखना यह आदान-निक्षेपण समिति है। यहाँ गाथा में ‘उपधि’ शब्द में द्वितीया विभक्ति है किन्तु प्राकृतव्याकरण के बल से यहाँ पर षष्ठी विभक्ति का अर्थ लेना चाहिए।
तात्पर्य यह हुआ कि ज्ञानोपकरण, संयमोपकरण तथा अन्य भी उपधि (वस्तुओं) का सावधानीपूर्वक पिच्छिका से प्रतिलेखन करके जो उठाना और धरना है वह आदान-निक्षेपण समिति है।
अब पाँचवीं समिति का स्वरूप निरूपित करते हैं–
गाथार्थ–एकान्त,जीवजन्तु रहित, दूरस्थित, मर्यादित, विस्तीर्ण और विरोधरहित स्थान में मल-मूत्रादि का त्याग करना प्रतिष्ठापना समिति है।।१५।।
एगंते–एकान्ते विजने यत्रासंयतजनप्रचारो नास्ति। अच्चित्ते–हरितकायत्रसकायादिविविक्ते। दग्धे–दग्धसम स्थण्डिले। दूरे–ग्रामादिकाद्विप्रकृष्टे प्रदेशे। गूढे–संवृते जनानामचक्षुर्विषये। विसालं–विशाले विस्तीर्णे विलादिविरहिते। अविरोहे–अविरोधे यत्र लोकापवादो नास्ति। उच्चारादि–उच्चारो मलं आदिर्यस्य स उच्चारादिस्तस्य उच्चारादे: मूत्रपुरीषादे:। चाओ–त्याग:। पदिठावणिया–प्रतिष्ठापनिका। हवे–भवेत्। समिदी–समिति:। एकान्ताचित्त-दूरगूढविशालाविरोधेषु प्रदेशेषु यत्नेन कायमलादेर्यस्त्याग: सा उच्चारप्रस्रवणप्रतिष्ठापनिका समितिर्भवतीत्यर्थ:।
इन्द्रियनिरोधव्रतस्वरूपनिरूपणायोत्तरविभागासूत्रमाह–
चक्खू सोदं घाणं जिब्भा फासं च इंदिया पंच।
सगसगविसएिंहतो णिरोहियव्वा सया मुणिणा।।१६।।
आचारवृत्ति–जहाँ पर असंयतजनों का गमनागमन नहीं है ऐसे विजन स्थान को एकान्त कहते हैं। हरितकाय और त्रसकाय आादि से रहित, जले हुए अथवा जले के समान ऐसे स्थण्डिल-खुले मैदान को अचित्त कहा है। ग्रिाम आदि से दूर स्थान को यहाँ दूर शब्द से सूचित किया है। संवृत्त-मर्यादा सहित स्थान अर्थात् जहाँ लोगों की दृष्टि नहीं पड़ सकती ऐसे स्थान को गूढ़ कहते हैं। विस्तीर्ण या विलादि से रहित स्थान विशाल कहा गया है और जहाँ पर लोगों का विरोध नहीं है, वह अविरुद्ध स्थान है। ऐसे स्थान में शरीर के मल-मूत्रादि का त्याग करना प्रतिष्ठापना नाम की समिति है।
तात्पर्य यह हुआ कि एकान्त, अचित्त, दूर, गूढ़, विशाल और विरोधरहित प्रदेशों में सावधानीपूर्वक जो मल आदि का त्याग करना है वह मल-मूत्र विसर्जन के रूप में प्रतिष्ठापन समिति होती है।
अब इन्द्रियनिरोध व्रत के स्वरूप का निरूपण करने के लिए उत्तरविभाग सूत्र कहते हैं–
गाथार्थ–मुनि को चाहिए कि वह चक्षु, कर्ण, घ्राण, जिह्वा और स्पर्शन इन पाँच इन्द्रियों को अपने विषयों से हमेशा रोके।।१६।।
चक्खु–चक्षु:। सोदं–श्रोत्रम्। घाणं–घ्राणम्। जिब्भा–जिह्वा। फासं–स्पर्श:। च समुच्चयार्थ:। इंदिया–इन्द्रियाणि मतिज्ञानावरणक्षयोपशमशक्तय:। इन्द्रियं द्विविधं द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियं चेति। तत्र द्रव्येन्द्रियं द्विविधं निर्वृत्तिरूपकरणं च। कर्मणा निर्वर्त्यते इति निर्वृत्ति:, सा च द्विविधा बाह्याभ्यन्तरा चेति उत्सेधाङ्गुलासंख्येयभागप्रमितानां शुद्धानामात्म-प्रदेशानां प्रतिनियतचक्षु: श्रोत्रघ्राणरसनस्पर्शनेन्द्रियसंस्थानेनावस्थितानां वृत्तिराभ्यन्तरा निर्वृत्ति:। तेषु आत्मप्रदेशेषु इन्द्रियव्यपदेशभाग् य: प्रतिनियतसंस्थान-नामकर्मोदयापादितावस्थाविशेष: पुद्गलप्रचय: सा बाह्या निर्वृत्ति:। येन निर्वृत्तेरुपकार: क्रियते तदुपकरणं। तदपि द्विविधं आभ्यन्तरबाह्यभेदेन। तत्राभ्यन्तरं कृष्णशुक्लमण्डलं।
बाह्यमक्षिपत्रपक्ष्मद्वयादि। एवं श्रोत्रेन्द्रियघ्राणेन्द्रियरसनेन्द्रियस्पर्शनेन्द्रियाणां वक्तव्यं बाह्माभ्यन्तरभेदेन द्वैविध्यम्। भावेन्द्रियमपि द्विविधं लब्ध्युपयोगभेदेन। लम्भनं लब्धि:। का पुनरसौ ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमविशेष:। यत्सन्निधानादात्मा द्रव्येन्द्रियनिर्वृत्तिं प्रति व्याप्रियते सा लब्धि:। तन्निमित्त आत्मन: परिणाम उपयोग: कारणधर्मस्य कार्ये दर्शनात्। वीर्यान्तरायमतिज्ञानावरणक्षयोपशमांगोपांगनामलाभा-वष्टम्भबलादात्मना स्पृश्यतेऽनेनेति स्पर्शनम्, रस्यतेऽनेनेति रसनम्, घ्रयतेऽनेनेति घ्राणम्, चष्टेऽर्थान पश्यत्यनेनेति चक्षु:, श्रूयतेऽनेनेति श्रोत्रम्। स्वातन्त्र्यविवक्षा च दृश्यते कर्तृकरणयोरभेदात्। इदं मे चक्षु: सुष्ठु पश्यति। अयं मे कर्ण: सुष्ठु शृणोति। स्पृशतीति स्पर्शनम्। रसतीति रसनम्। जिघ्रतीति घ्राणम्। चष्टे इति चक्षु:। शृणोतीति श्रोत्रमिति। एवमिन्द्रियाणि पंच। तद्विषयाश्च पंच। वर्ण्यत इति वर्ण:। शब्द्यते इति शब्द:। गन्ध्यत इति गन्ध:। रस्यत इति रस:। स्पृश्यत इति स्पर्श: इति। पंच–संख्यावचनमेतत्। सगसगविसएिंहतो–स्वकीयेभ्य: स्वकीयेभ्यो विषयेभ्यो रूपशब्दगन्धरसस्पर्शेभ्य: स्वभेद–भिन्नेभ्यो मनोहरामनोहररूपेभ्य:। णिरोहियव्वा–निरोधयितव्यानि-सम्यक् ध्याने प्रवेशयितव्यानि। सया–सदा सर्वकालम्। मुणिणा–मुनिना संयमप्रियेण। स्वकीयेभ्य: स्वकीयेभ्यो विषयेभ्यो रूपशब्दगन्धरसस्पर्शेभ्यश्चक्षुरादीनां निरोधनानि मुनेर्यानि तानि पंच इन्द्रियनिरोधनानि पंच मूलगुणा भवन्तीत्यर्थ:। अथवा ये पंच निरोधा इंद्रियाणां क्रियंते मुनिना स्वविषयेभ्यस्ते पंचेंद्रिय-निरोधा: पंच मूलगुणा भवन्तीत्यर्थ:।
प्रथमस्य चक्षुर्निरोधव्रतस्य स्वरूपनिरूपणार्थमाह–
सच्चित्ताचित्ताणं किरियासंठाणवण्णभेएसु।
रागादिसंगहरणं चक्खुणिरोहो हवे मुणिणो।।१७।।
आचारवृत्ति–चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा और स्पर्शन ये इन्द्रियाँ है अर्थात् मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम की शक्ति का नाम इन्द्रिय है। इन्द्रिय के दो भेद हैं-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय। उनमें द्रव्येन्द्रिय के भी दो भेद हैं-निर्वृत्ति और उपकरण। कर्म के द्वारा जो बनायी जाती है वह निर्वृत्ति है। उसके भी दो भेद हैं-आभ्यंतर निर्वत्ति और बाह्य निर्वृत्ति। उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण, शुद्ध आत्मा के प्रदेशों का प्रतिनियत चक्षु, कर्ण, घ्राण, रसना और स्पर्शन इन्द्रियों के आकार से अवस्थित होना आभ्यन्तर-निर्वृत्ति है और उन आत्म-प्रदेशों में इन्द्रिय इस नाम को प्राप्त प्रतिनियत आकाररूप नामकर्म के उदय से होने वाला अवस्था विशेषरूप जो पुद्गल वर्गणाओं का समूह है वह बाह्य निर्वृत्ति है। जिसके द्वारा निर्वृत्ति का उपकार किया जाता है वह उपकरण है। आभ्यन्तर और बाह्य की अपेक्षा उसके भी दो भेद हैं। चक्षु इन्द्रिय का काला और सफेद जो मण्डल है वह आभ्यन्तर उपकरण है और नेत्रों की पलक विरूनि आदि बाह्य उपकरण हैं। ऐसे ही श्रोत्रेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय इनमें बाह्य और आभ्यन्तर निर्वृत्ति तथा उपकरण के भेदों को समझना चाहिए।
भावेन्द्रियों के भी दो भेद हैं–लब्धि और उपयोग। लंभनं लब्धि: अर्थात् प्राप्त करना लब्धि है। वह ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम विशेष है अर्थात् जिसके सन्निधान से आत्मा द्रव्येन्द्रिय की रचना के प्रति व्यापार करता है वह लब्धि है। उस निमित्तक आत्मा का परिणाम उपयोग है क्योंकि कारण का धर्म कार्य में देखा जाता है। वीर्यान्तराय और मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नामक नामकर्म के लाभ से प्राप्त हुए बल से आत्मा जिसके द्वारा स्पर्श करता है वह स्पर्शन है। इन्हीं उपर्युक्त कर्म के क्षयोपशम और उदय के बल से अर्थात् वीर्यान्तराय कर्म और मतिज्ञानावरण के अन्तर्गत रसनेन्द्रिय आवरण कर्म के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नाम कर्म के उदय से आत्मा जिसके द्वारा चखता है उसको रसना कहते हैं। इसी प्रकार आत्मा जिसके द्वारा सूंघता है वह घ्राणेन्द्रिय है। आत्मा जिसके द्वारा पदार्थ को ‘चष्टे’ अर्थात् देखता है वह चक्षु इन्द्रिय है और जिसके द्वारा सुनता है वह श्रोत्र है। ये उपर्युक्त लक्षण कारण की अपेक्षा से कहे गये हैं अर्थात् ‘स्पर्श्यतेऽनेनेति स्पर्शनम् ’ इत्यादि। इस व्युत्पत्ति के अर्थ में इन्द्रियाँ अप्रधान हैं। इसमें स्वातन्त्र्य विवक्षा भी देखी जाती है क्योंकि कर्ता और करण में अभेद पाया जाता है।
जैसे–‘ इदं मे चक्षु: सुष्ठु पश्यति’ इत्यादि। अर्थात् यह मेरी आँख ठीक से देखती है, यह मेरा कान अच्छा सुनता है, इत्यादि। इसी प्रकार जो स्पर्श करता है वह स्पर्शन इन्द्रिय है, जो चखता है वह रसना है, जो सूूँघता है वह घ्राण है, जो देखती है वह चक्षु है और जो सुनता है वह कान है। इस प्रकार ये पाँच इन्द्रियाँ हैं।
इन इन्द्रियों के विषय भी पाँच प्रकार के हैं-जो देखा जाता है वह वर्ण है; जो ध्वनित होता है, सुना जाता है वह शब्द है; जो सूंघा जाता है वह गन्ध है; जो चखा जाता है वह रस है और जो स्पर्शित किया जाता है वह स्पर्श है। गाथा में ‘पंच’ शब्द संख्यावाची है। स्वकीय भेदों से भेदरूप सुन्दर और असुन्दर ऐसे रूप, शब्द, गन्ध, रस तथा स्पर्श स्वरूप अपने–अपने विषयों से इन पाँचों इन्द्रियों का निरोध करना चाहिए अर्थात् मुनियों को हमेशा इन्हें समीचीन ध्यान में प्रवेश कराना चाहिए।
तात्पर्य यह हुआ कि रूप, शब्द, गंध, रस और स्पर्श स्वरूप अपने–अपने विषयों से मुनि के जो चक्षु आदि इन्द्रियों के निरोध होते हैं वे पाँच इन्द्रिय निरोध मूलगुण कहलाते हैं अथवा मुनि के द्वारा पाँच इन्द्रियों का जो अपने विषयों से रोकना है वे ही पाँच इन्द्रिय निरोध नाम के मूलगुण होते हैं।
विशेषार्थ–यहाँ पर पाँच इन्द्रियों में चक्षुइन्द्रिय को लेकर पुन: कर्णेन्द्रिय को लिया है, अनन्तर घ्राण, रसना और स्पर्शन को लिया है। सिद्धान्त ग्रन्थों में स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ऐसा क्रम लिया है। इन दोनों प्रकारों में परस्पर में कोई बाधा नहीं है। वहाँ सिद्धान्त में उत्पत्ति की अपेक्षा इन्द्रियों का क्रम है, क्योंकि जो एकेन्द्रिय हैं उनके एक स्पर्शन ही है न कि चक्षु; जो दो इन्द्रिय जीव हैं उनके स्पर्शन और रसना, जो तीन इन्द्रिय जीव हैं उनके स्पर्शन, रसना और घ्राण; चार इन्द्रिय जीवों के स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु तथा पाँच इन्द्रिय जीवों के कर्ण और मिलाकर पाँच इन्द्रियाँ हो जाती हैं। परंतु यहाँ पर क्रम की कोई विवक्षा नहीं, मात्र पाँचों इन्द्रियों को अपने–अपने विषयों से रोकने में पाँच मूलगुण हो जाते हैं अत: यहाँ अक्रम से लेने में भी कोई बाधा नहीं हैं।
अब प्रथम चक्षुनिरोध का स्वरूप निरूपण करने के लिए कहते हैं–
गाथार्थ–सचेतन और अचेतन पदार्थों के क्रिया, आकार और वर्ण के भेदों में मुनि के जो राग–द्बेष आदि संग का त्याग है वह चक्षुनिरोध व्रत होता है।।१७।।
सच्चित्ताचित्ताणं–सहचित्तेन सामान्यज्ञानदर्शनोपयोगनिमित्तचैतन्येन वर्तन्त इति सचित्तानि सजीवरूपाणि देवमनुष्यादियोषिद्रूपाणि, न चित्तानि अचित्तानि सचित्तद्रव्यप्रतिबिम्बानि, अजीवद्रव्याणि च। सचित्तानि चाचित्तानि च सचित्ताचित्तानि, तेषां सचित्ताचित्तानाम्। किरियासंठाणवण्णभेएसु–क्रिया गीतविलासनृत्यचंक्रमणात्मिका, संस्थानं समचतुरस्त्रन्यग्रोधाद्यात्मकं वैशाखबन्धपुटाद्यात्मकं च, वर्णा: गौरश्यामादय:। क्रिया च संस्थानं च वर्णाश्च क्रियासंस्थान-वर्णा: तेषां भेदा विकल्पा: क्रियासंस्थान सवर्णभेदास्तेषु क्रियासंस्थानवर्णभेदेषु, नृत्यगीतकटाक्षनिरीक्षणसम-चतुरस्त्रा-कारगौरश्यामादिविकल्पेषु, शोभनाशोभनेषु। रागादिसंगहरणं–राग आदिर्येषां ते रागादय: रागादयश्च ते संगाश्च रागादिसंगा: संगाश्चासक्तयस्तेषां हरणं निराकरणं रागादिसंगहरणं रागद्वेषाद्यनभिलाष:। चक्खुणिरोहो–चक्षुषोर्निरोधश्चक्षुर्निरोधः चक्षुरिन्द्रियाप्रसर:। हवे–भवेत्। मुणिणो–मुनेरिन्द्रियसंयमनायकस्य। स्त्रीपुरुषाणां स्वरूपलेपकर्मादिव्यवस्थितानां ये क्रियासंस्थानवर्णभेदास्तद्विषये यदेतत् रागादिनिराकरणं तच्चक्षुर्निरोधव्रतं मुनेर्भवतीत्यर्थ:।।
श्रोत्रेन्द्रियनिरोधव्रतस्वरूपनिरूपणायाह–
सड्जादि जीवसद्दे वीणादि-अजीवसंभवे सद्दे।
रागादीण णिमित्ते तदकरणं सोदरोधो दु।।१८।।
आचारवृत्ति–सामान्य ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग निमित्तक चैतन्य को चित्त कहते हैं। उसके साथ जो रहते हैं वे सचित्त हैं अर्थात् देव, मनुष्य आदि के, स्त्रियों के सजीव रूप सचित्त हैं, सचित्त द्रव्य के प्रतिबिम्ब और अजीव द्रव्य अचित्त हैं। इन सचेतन और अचेतन पदार्थों की गीत, विलास, नृत्य, गमन आदि क्रियाओं में, इनके समचरतुरस्र, न्यग्रोध आदि आकारों और वैशाख तथा बन्धपुट आदि आसनों में और गौर, श्याम आदि वर्णों में अर्थात् नर्तन, गीत, कटाक्ष, निरीक्षण, समचतुरस्र आकार और गौर–श्याम आदि तथा सुन्दर–असुन्दर आदि अनेक भेदों में राग-द्वेषपूर्वक आसक्ति का त्याग करना अर्थात् राग–द्वेष आदि पूर्वक अभिलाषा नहीं होना-यह इन्द्रिय संयम के स्वामी मुनि का चक्षुनिरोध व्रत है।
विशेषार्थ–उपयोग को भावेन्द्रिय में भी लिया है और जीव का आत्मभूत लक्षण भी उपयोग है जोकि सिद्धों में भी पाया जाता है, दोनों में क्या अन्तर है ? और यदि अन्तर न माना जाये तो सिद्धों में भी भावेन्द्रिय का सद्भाव मानना पड़ेगा।
इस पर धवला टीकाकार ने बताया है–‘िक्षयोपशमजनितस्योपयोगस्योन्fद्रयत्वात्। न च क्षीणाशेषकर्मसु सिद्धेषु क्षयोपशमोऽस्ति, तस्य क्षायिकभावेनापसारित्वात्।’ अर्थात् क्षयोपशम से उत्पन्न हुए उपयोग को इन्द्रिय कहते हैं, किन्तु जिनके सम्पूर्ण कर्म क्षीण हो गये हैं, ऐसे सिद्धों में क्षयोपशम नहीं पाया जाता है, क्योंकि वह क्षायिकभाव के द्वारा दूर कर दिया जाता है। अभिप्राय यह है कि भावेन्द्रियों में जो उपयोग लिया है वह भी यद्यपि आत्मा का ही परिणाम है तो भी वह कर्मों के क्षयोपशम की अपेक्षा रखता है और सिद्धों को भावेन्द्रियाँ न होने के कारण उनका उपयोग पूर्णतया ज्ञान-दर्शनरूप से क्षायिक है अत: वह इन्द्रियों में गर्भित नहीं है।
तात्पर्य यह है कि अपने स्वरूप या लेपकर्म आदि में बने हुए जो स्त्री या पुरुष हैं उनकी क्रियाओं, आकार और वर्णभेदों में जो राग-द्वेष आदि का निराकरण करना है वह मुनि का चक्षुनिरोध नाम का व्रत है।
अब श्रोत्रेन्द्रिय निरोध व्रत का स्वरूप निरूपण करने के लिए कहते हैं–
गाथार्थ–षड्ज, ऋषभ, गान्धार आदि शब्द और वीणा आदि अजीव से उत्पन्न हुए शब्द-ये सभी रागादि के निमित्त हैं। इनका नहीं करना कर्णेन्द्रिय निरोध व्रत है।।१८।।
सड्जादिजीवसद्दे–षड्ज: स्वरविशेष: य आदिर्येषां ते षड्जादय: जीवस्य शब्दा जीवशब्दा: षड्जादयश्च जीवशब्दाश्च षड्जादिजीवशब्दा: षड्जर्षभगान्धारमध्यमधैवतपंचमनिषादभेदा उर:कण्ठशिर: स्थानभेदभिन्ना:, आरोह्यवरोहिस्थायि-संचारिवर्णयुक्ता मन्द्रतारादिसमन्विता:, अन्ये च दु:स्वरशब्दा रासभादिसमुत्था ग्राह्या:। वीणादि-अजीवसंभवा–वीणा आदिर्येषां ते वीणादयो वीणादयश्च ते अजीवाश्च वीणाद्यजीवास्तेभ्य: संभवन्तीति वीणाद्यजीवसम्भवा वीणा-त्रिशरी-रावणहस्तालावनि-मृदंग-भेरी-पटहाद्युद्भवा:। सद्दे-शब्दा:। रागादीण–राग आदिर्येषां ते रागादयस्तेषां रागादीनां रागद्वेषादीनाम्। णिमित्ते–निमित्तानि हेतवो रागादिकारणभूता:। तदकरणं–तेषां षड्जादीनामकरणमश्रवणं च तदकरणं स्वतो न कर्तव्या नापि तेऽन्यै: क्रियमाणा रागाद्याविष्टचेतसा श्रोतव्या इति। सोदरोधो दु–श्रोत्रस्य श्रोत्रेन्द्रियस्य रोध: श्रोत्ररोध:। दु विशेषार्थ:। रागादिहेतवो ये षड्जादयो जीवशब्दा वीणाद्यजीव-सम्भवाश्च, तेषां यदश्रवणं आत्मना अकरणं च तच्छ्रोत्रव्रतं मुनेर्भवतीत्यर्थ:। अथवा षड्जादिजीवशब्दविषये वीणाद्यजीवसंभवे शब्दविषय च रागादीनां यन्निमित्तं तस्याकरणमिति।।
तृतीयस्य घ्राणेन्द्रियनिरोधव्रतस्य स्वरूपनिरूपणार्थमाह–
पयडीवासणगंधे जीवाजीवप्पगे सुहे असुहे।
रागद्देसाकरणं घाणणिरोहो मुणिवरस्स।।१९।।
आचारवृति–षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, धैवत, पंचम और निषाद के भेदों की अपेक्षा जीव से उत्पन्न हुए शब्दों के सात भेद है। छाती, कण्ठ, मस्तक स्थान से उत्पन्न होने की अपेक्षा भी शब्दों के अनेक भेद हैं। आरोही, अवरोही, स्थायी और संचारी वर्णों से युक्त मन्द्र तार आदि ध्वनि से सहित भी नाना प्रकार के शब्द जीवगत देखे जाते हैं और अन्य भी गधे आदि से उत्पन्न हुए दु:स्वर शब्द भी यहाँ ग्रहण किये जाते हैं। वीणा, त्रिशरी, रावण के हाथ की आलावनि,ि मृदंग, भेरी, पट्ट आदि से होने वाले शब्द अजीव से उत्पन्न होते हैं अत: ये अजीवसंभव कहलाते हैं। ये सभी प्रकार के राग-द्वेष आदि के निमित्तभूत हैं। इन शब्दों को न करना और न सुनना अर्थात् राग-द्वेष के कारणभूत इन शब्दों को न स्वयं करना और न ही दूसरों द्वारा किये जाने पर रागादि युक्त मन से इनको सुनना-यह श्रोत्रेन्द्रिय निरोधव्रत है।
तात्पर्य यह कि षड्ज आदि जीव-शब्द और वीणा आदि से उत्पन्न हुए अजीवशब्द-ये सभी राग-द्वेष आदि के हेतु हैं। इनका जो नहीं सुनना और नहीं करना है मुनि का वह श्रोत्रव्रत कहलाता है। अथवा संक्षेप में यह समझिए कि षड्जादि जीव शब्द के विषयों में और वीणादि से उत्पन्न अजीव शब्द के विषयों में राग-द्वेषादि का निमित्त है। उसे नहीं करना श्रोत्रेन्द्रियजय है।
अब तृतीय घ्राणेन्द्रियनिरोध व्रत का स्वरूप निरूपण करने के लिए कहते हैं–
गाथार्थ–जीव और अजीवस्वरूप सुख और दु:खरूप प्राकृतिक तथा पर-निमित्तक गन्ध में जो राग-द्वेष का नहीं करना है वह मुनिराज का घ्राणेन्द्रियजय व्रत है।।१९।।
पयडीवासणगंधे–प्रकृति:स्वभाव:, वासना अन्यद्रव्यकृतसंस्कार:, प्रकृतिश्च वासना च प्रकृतिवासने ताभ्यां गन्ध: सौरभ्यादिगुण: प्रकृतिवासनागन्धस्तस्मिन् स्वस्वभावान्यद्रव्यसंस्कारकृते सौरभ्यादिगुणे। जीवाजीवप्पगे–जीवति जीविष्यति जीवितपूर्वो वा चेतनालक्षणो जीव: सुखदु:खयो: कर्ता, न जीवोऽजीवस्तद्विपरीत: जीवश्चाजीवश्च जीवाजीवौ तौ प्रगच्छतीति जीवाजीवप्रग: जीवाजीवस्वरूप: तस्मिन् जीवाजीवस्वरूपे कस्तूरीयक्षकर्दमचंदनादिसुगन्धद्रव्ये। सुहे–सुखे स्वात्मप्रदेशाह्लादनरूपे। असुहे–असुखे स्वप्रदेशपीडाहेतौ सुखदु;खयोर्निमित्ते। रागद्देसाकरणं–रागश्च द्वेषश्च रागद्वेषौ तयोरकरणं अनभिलाष:१ रागद्वेषाकरणमनुरागजुगुप्सानभिलाष:। घाणणिरोहो–घ्राणेन्द्रियनिरोध: घ्राणेन्द्रियाप्रसर:। मुणिवरस्स–मुनीनां वर: श्रेष्ठो मुनिवर: यतिकुञ्जरस्तस्य मुनिवरस्य। जीवगते अजीवगते च प्रकृतिगन्धे वासनागन्धे च सुखरूपेऽसुखरूपे च यदेतद्रागद्वेषयोरकरणं मुनिवरस्य तत् घ्राणेन्द्रियनिरोधव्रतं भवतीत्यर्थ:।।
चतुर्थरसनेन्द्रियनिरोधव्रतस्वरूपनिरूपणार्थमाह–
असणादिचदुवियप्पे पंचरसे फासुगम्हि णिरवज्जे।
इट्ठाणिट्ठाहारे दत्ते जिब्भाजओ२ऽगिद्धी।।२०।।
आचारवृत्ति–स्वभाव को प्रकृति कहते हैं, अन्य द्रव्य के द्वारा किये गये संस्कार को वासना कहते हैं और सुरभि आदि गुण को गन्ध कहते हैं। जो जीता है, जियेगा और पहले जीवित था वह जीव है अथवा चेतना लक्षण वाला जीव है जो कि सुख और दुख का कर्ता है। जीव के लक्षण से विपरीत लक्षण वाला अजीव है। इन जीव अजीव स्वरूप से गन्ध दो प्रकार की होती है। इसमें से कस्तूरी मृग की नाभि से उत्पन्न होती है, अत: यह जीवस्वरूप गन्ध है। यक्षकर्दम, चन्दन आदि अजीव स्वरूप गन्ध हैं। जो सुगन्धित हैं वे अपनी आत्मा के प्रदेशों में आह्लादनरूप सुख की निमित्त हैं। इनसे विपरीत जीव-अजीवरूप दुर्गन्ध आत्म-प्रदेशों में पीड़ा के निमित्त होने से दु:खरूप है। इनमें राग-द्वेष नहीं करना अर्थात् अनुराग और ग्लानि का भाव नहीं होना-यह मुनिपुंगवों का घ्राणेन्द्रिय निरोध नाम का व्रत है। तात्पर्य यह कि जीवगत और अजीव जो स्वाभाविक अथवा अन्य निमित्त से की गयी गन्ध हैं जो कि सुख और दु:खरूप हैं अर्थात् अच्छी या बुरी हैं उनमें जो राग-द्वेष का नहीं करना है वह मुनिवरों का घ्राणेन्द्रियनिरोध व्रत है।
विशेषार्थ-जिसमें कस्तूरी, अगुरू, कपूर और कंकोल समान मात्रा में डाले जाते हैं वह यक्षकर्दम है अथवा महासुगन्धित लेप यक्षकर्दम कहलाता है।
अब चौथे रसना इन्द्रियनिरोध का स्वरूप निरूपण करने के लिए कहते हैं–
गाथार्थ–अशन आदि से चार भेदरूप, पंच रसयुक्त, प्रासुक, निर्दोष, पर के द्वारा दिये गए रुचिकर अथवा अरुचिकर आहार में लम्पटता का नहीं होना जिह्वाइन्द्रियनिरोध व्रत है।।२०।।
असणादिचदुवियप्पे–अशनमादिर्येषां तेऽशनादयो भोजनादय: चत्वारश्च ते विकल्पाश्च चतुर्विकल्पा: अशनादयश्चतुर्विकल्पा यस्मिन्नसौ अशनादिचतुर्विकल्पस्तस्मिन्नशनपानखाद्यस्वाद्यभेदे भक्तदुग्धलड्डुकैलादिस्वभेदभिन्ने। पंचरसे–पंचरसा यस्मिन्नसौ पंचरसस्तस्मिन् पंचरसे तिक्तकटुकषायाम्लमधुरभेदभिन्ने। लवणस्य मधुररसेऽन्तर्भाव:। फासुए–प्रासुके जीवसम्मूर्च्छनादिरहिते। णिरवज्जे–अवद्याद्दोषान्निर्गतो निरवद्यस्तस्मिन् निरवद्ये पापागमविरहिते कुत्सादिदोषमुक्ते च। इट्ठाणिट्ठ-इष्टोऽभिप्रेतो मनोह्लादक:, अनिष्टोऽनभिप्रेत: मनोदुखद:, इष्टश्च अनिष्टश्चेष्टानिष्टस्तस्मि-न्निष्टानिष्टे। आहारे–आहारो बुभुक्षाद्युपशामकं द्रव्यं तस्मिन्नाहारे। दत्ते–प्राप्ते दातृजनोपनीते। जिब्भाजओ–जिह्वाया जयो जिह्वाजयो रसनेन्द्रियात्मवशीकरणम्। अगिद्धी–अगृद्धिरनाकांक्षा। आहारे अशनादिचतुष्प्रकारे पंचरससमन्विते प्रासुके निरवद्ये च प्राप्ते२ सति येयमगृद्धिस्तज्जिह्वाजयव्रतं भवतीत्यर्थ:।।
स्पर्शनेन्द्रियनिरोधव्रतस्य स्वरूपं प्रतिपादयन्नुत्तरसूत्रमाह–
जीवाजीवसमुत्थे कक्कडमउगादिअट्ठभेदजुदे।
फासे३ सुहे य असुहे फासणिरोहो४ असंमोहो।।२१।।
आचारवृत्ति–अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य के भेद से भोज्य वस्तु के चार भेद हैं। इनके उदाहरण में भक्त अर्थात् रोटी–भात आदि अशन हैं, दूध आदि पीने योग्य पदार्थ पान हैं, लड्डू आदि खाद्य हैं और इलायची आदि स्वादिष्ट वस्तुएँ स्वाद्य हैं। तिक्त, कटुक, कषायले, खट्टे और मीठे के भेद से रस के पाँच भेद हैं। यहाँ पर नमक को मधुररस में अन्तर्भूत किया गया है। अर्थात् नमक भोजन में सबसे अधिक रुचिकर होने से इसका अन्तर्भाव मधुररस में ही हो जाता है। सम्मूर्च्छन आदि जीवों से रहित को प्रासुक कहते हैं। आगम कथित आहार के दोषों से रहित भोजन निर्दोष कहलाता है, अर्थात् जो पाप के आस्रव का कारण नहीं है और कुत्सा–निन्दा, ग्लानि आदि दोषों से रहित है तथा जो दातारों के द्वारा दिया गया एवं भूख आदि को शमन करने वाला द्रव्य जो कि आहार इस नाम से विवक्षित है ऐसा आहार चाहे मन को आह्लादकर होने से इष्ट हो या मन को अरुचिकर होने से अनिष्ट हो उसमें गृद्धि अर्थात् आसक्ति या आकांक्षा नहीं रखना, अपनी रसना इन्द्रिय को अपने वश में करना-यह जिह्वाजय व्रत कहलाता है।
अब स्पर्शनेन्द्रिय निरोधव्रत के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए उत्तरसूत्र कहते हैं–
गाथार्थ–जीव और अजीव से उत्पन्न हुए एवं कठोर, कोमल आदि आठ भेदों से युक्त सुख और दु:खरूप स्पर्श में मोह-रागादि नहीं करना स्पर्शनेन्द्रिय निरोध है।।२१।।
जीवाजीवसमुत्थे–जीवश्च अजीवश्च जीवाजीवौ तयो: जीवाजीवयो: समुत्तिष्ठते सम्भवतीति जीवाजीव-समुत्थस्तिंस्मश्चेतनाचेतनसम्भवे। कक्कडमउगादि अट्ठभेदजुदे–कर्कश: कठिन: मृदु: कोमलं कर्कशश्च मृदुश्च कर्कशमृदू तावादिर्येषां ते कर्कशमृद्वादय: अष्टौ च ते भेदाश्चाष्टभेदा: कर्कशमृद्वादयश्च ते अष्टभेदाश्च कर्कशमृद्वाद्यष्टदास्तैर्युक्त: कर्कशमृद्वाद्यष्टभेदयुक्तस्तस्मिन् कर्कशमृदुशीतोष्णस्निग्धरुक्षगुरुलघुगुणविकल्पसमन्विते वनितातूलिकाद्याधारभूते। फासे–स्पर्शे। सुहे–सुखे सुखहेतौ। असुहे य–असुखे१ च दु:खहेतौ। फासणिरोहो–स्पर्शनिरोध: स्पर्शनेन्द्रियजय:। असंमोहो–न सम्मोह: असम्मोहोऽनाह्लाद इत्यर्थ:। जीवाजीवसमुद्भवे कर्कशमृद्वाद्यष्टभेदयुक्ते सुखासुखस्वरूपनिमित्ते स्पर्शविषये योऽयमसम्मोहोऽनभिलाष: स्पर्शनेन्द्रियनिरोधव्रतं भवतीत्यर्थ:।।
पंचेन्द्रियनिरोधव्रतानां स्वरूपं निरूप्य षडावश्यकव्रतानां स्वरूपं नामनिर्देशं च निरूपयन्नाह–
समदा थवो य वंदण पाडिक्कमणं तहेव णादव्वं।
पच्चक्खाण विसग्गो करणीयावासया छप्पि।।२२।।
आचारवृत्ति–कठोर, कोमल, शीत, उष्ण, चिकने, रूखे, भारी और हल्के ये आठ प्रकार के स्पर्श हैं। ये स्त्री आदि के निमित्त से होने पर चेतन से उत्पन्न हुए कहे जाते हैं और गद्दे, वस्त्र आदि से निमित्त होने पर अचेतनजन्य माने जाते हैं। ये सुख हेतुक हो या दु:ख हेतुक, इनमें आह्लाद नहीं करना अर्थात् हर्ष-विषाद नहीं करना-यह स्पर्शनेन्द्रियजय है।
तात्पर्य यह है कि जीव या अजीव से उत्पन्न हुए, कर्कश आदि आठ भेदों से युक्त, सुख अथवा दु:ख में निमित्तभूत स्पर्श नामक विषय में जो अभिलाषा का नहीं होना है वह स्पर्शनेन्द्रिय निरोध व्रत है।
पाँचों इन्द्रियों के निरोधरूप व्रतों का स्वरूप बताकर अब छह आवश्यक व्रतों का स्वरूप और नाम निर्देश बताते हुए कहते हैं–
गाथार्थ–सामायिक, स्तुति, वंदना, प्रतिक्रमण और उसी प्रकार प्रत्याख्यान तथा व्युत्सर्ग ये करने योग्य आवश्यक क्रियाएँ छह ही जानना चाहिए।।२२।।
समदा–समस्य भाव: समता रागद्वेषादिरहितत्वं२ त्रिकालपंचनमस्कारकरणं वा। थवो–स्तव: चतुर्विंशतितीर्थंकरस्तुति:। वंदणा–वन्दना एकतीर्थकृत्प्रतिबद्धा दर्शनवन्दनादिपंचगुरुभक्तिपर्यन्ता वा। पडिक्कमणं–प्रतित्रकमणं प्रतिगच्छति पूर्वसंयमं येन तत् प्रतिक्रमणं स्वकृतादशुभयोगात्प्रतिनिवृत्ति: दैवसिकादय: सप्तकृतापराधशोधनानि। तहेव–तथैव तेनैव प्रकारेणागमाविरोधेनैव। णादव्वं–ज्ञातव्यं सम्यगवबोद्धव्यम्। पच्चक्खाणं–प्रत्याख्यानम-योग्यद्रव्यपरिहार: तपोनिमित्तं योग्यद्रव्यस्य वा परिहार:। विसग्गो–व्युत्सर्ग:, देहे ममत्वनिरास: जिनगुणचिन्तायुक्त: कायोत्सर्ग:। करणीया–करणीया अनुष्ठेया:। आवासया–आवश्यका आवश्यकानि वा, न वशोऽवश: अवशस्य कर्मावश्यका: निश्चयक्रिया:। छप्पी–षडपि न पंच नापि सप्त। समतास्तववन्दनाप्रतिक्रमणानि तथैव प्रत्याख्यानकायोत्सर्गौ, एवं षडावश्यका निश्चयक्रिया यास्ता नित्यं षडपि कर्तव्या:।
मूलगुणा इति कृत्वेति सामान्यस्वरूपं प्रतिपाद्य विशेषार्थं प्रतिपादयन्नाह–
जीविदमरणे लाभालाभे संजोयविप्पओगे य।
बंधुरिसुहदुक्खादिसु समदा सामाइयं णाम।।२३।।
आचारवृत्ति–समभाव को समता कहते हैं अर्थात् राग–द्वेषादि से रहित होना अथवा त्रिकाल में पंच नमस्कार का करना। चतुर्विंशति तीर्थंकरों की स्तुति स्तव है। एक तीर्थंकर से सम्बन्धित वंदना है अथवा दर्शन, वंदन आदि में जो ईर्यापथशुद्धिपूर्वक चैत्यभक्ति से लेकर पंचगुरुभक्ति पर्यन्त क्रिया है अर्थात् विधिवत् देववंदना क्रिया है वह वंदना आवश्यक है। पूर्व संयम के प्रति जो गमन करना है, प्राप्त करना है वह प्रतिक्रमण है अर्थात् अपने द्वारा किये हुए अशुभ योग से प्रतिनिवृत्त होना-छूटना। इसके दैवसिक आदि सात भेद हैं जो कि सात प्रसंग से किये गये अपराधों का शोधन करने वाले हंै। अयोग्य द्रव्य का त्याग करना प्रत्याख्यान है अथवा तपश्चरण के लिए योग्य द्रव्य का परिहार करना भी प्रत्याख्यान है। शरीर से ममत्व का त्याग करना और जिनेन्द्रदेव के गुणों का चिन्तवन करना–यह कायोत्सर्ग है। इन सबको आगम के अविरोधरूप से ही सम्यक् जानना चाहिए। ये करने योग्य आवश्यक छह ही हैं। जो वश में नहीं है (इन्द्रियों के अधीन नहीं है) वह अवश है, अवश के कार्य आवश्यक हैं। इन्हें निश्चयक्रिया भी कहते हैं। ये आवश्यक क्रियाएँ छह ही हैं, न पाँच हैं न सात। तात्पर्य यह है कि समता, स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग-इस प्रकार छह आवश्यक हैं जो कि निश्चयक्रियाएँ हैं अर्थात् नियम से करने योग्य हैं। इन छहों को नित्य ही करना चाहिए।
ये मूलगुण हैं ऐसा होने से इनका सामान्य स्वरूप प्रतिपादित करके अब इनका विशेष अर्थ बतलाने के लिए कहते हैं–
गाथार्थ–जीवन–मरण में, लाभ–अलाभ में, संयोग–वियोग में, मित्र–शत्रु में तथा सुख–दु:ख इत्यादि में समभाव होना सामायिक नाम का व्रत है।।२३।।
जीविदमरणे–जीवितमौदारिकवैक्रियिकादिदेहधारणं, मरणं मृत्यु: प्राणिप्राणवियोगलक्षणं, जीवितं च मरणं च जीवितमरणे तयोर्जीवितमरणयो:। लाभालाभे–लाभोऽभिलषितप्राप्ति:, अलाभोऽभिलषितस्याप्राप्ति: लाभश्चालाभश्च लाभालाभौ तयोर्लाभालाभयोराहारोपकरणादिषु प्राप्त्यप्राप्त्यो:। संजोयविप्पओगे य–संयोग इष्टादिसन्निकर्ष:, विप्रयोग इष्टवियोग: संयोगश्च विप्रयोगश्च संयोगविप्रयोगौ तयो: संयोगविप्रयोगयो: इष्टानिष्टसन्निकर्षासन्निकर्षयो:। बन्धूरिसुखदुक्खादिसु–बन्धुश्च अरिश्च सुखं च दु:खं च बन्ध्वरिसुखदु:खानि तान्यादीनि येषां ते बन्ध्वरिसुखदु:खादयस्तेषु स्वजनमित्रशत्रुसुख-दु:खक्षुत्पिपासाशीतोष्णादिषु। समदा–समता चारित्रानुविद्धसमपरिणाम:। सामाइयं णाम–सामायिकं नाम भवति। जीवितमरणलाभालाभसंयोगविप्रयोगबन्ध्वरिसुखदु:खादिषु यदेतत्समत्वं समानपरिणाम: त्रिकालदेववन्दनाकरणं च तत्सामायिकं व्रतं भवतीत्यर्थ:।।
चतुर्विंशतिस्तवस्वरूपं निरूपयन्नाह–
उसहादिजिणवराणं णामणिरुिंत्त गुणाणुकििंत्त च।
काऊण अच्चिदूण य तिसुद्धिपणमो थवो णेओ।।२४।।
आचारवृत्ति–औदारिक, वैक्रियिक आदि शरीर की स्थिति रहना जीवन है। प्राणियों के प्राण वियोग लक्षण-मृत्यु को मरण कहते हैं। अभिलषित वस्तु आहार, उपकरण आदि की प्राप्ति का नाम लाभ है और अभिलषित की प्राप्ति न होना अलाभ है। इष्ट आदि पदार्थ का संबन्ध होना-मिल जाना संयोग है और इष्ट का अपने से पृथक् हो जाना वियोग है अर्थात् इष्ट का संयोग या वियोग हो जाना अथवा अनिष्ट का संयोग या वियोग हो जाना संयोग-वियोग है। इन सभी में तथा स्वजन, मित्र-शत्रु, सुख-दु:ख में और आदि शब्द से भूख, प्यास, शीत, उष्ण आदि में चारित्र से समन्वित समभाव का होना ही सामायिक व्रत है।
तात्पर्य यह है कि जीवन–मरण, लाभ-अलाभ, संयोग-वियोग, बन्धु–शत्रु और सुख–दु:ख आदि प्रसंगों में जो समान परिणाम का होना है और त्रिकाल में देववंदना करना है वह सामायिक व्रत है।
चतुर्विंशतिस्तव का स्वरूप निरूपित करते हैं–
गाथार्थ–ऋषभ आदि तीर्थंकरों के नाम का कथन और गुणों का कीर्तन करके तथा उनकी पूजा करके उनको मन, वचन, कायपूर्वक नमस्कार करना स्तव नाम का आवश्यक जानना चाहिए।।२४।।
उसहादिजिणवराणं–ऋषभ: प्रथमतीर्थंकर आदिर्येषांते ऋषभादयस्ते च ते जिनवराश्च ऋषभादि-जिनवरास्तेषामृषभादि-जिनवराणां वृषभादिवर्धमानपर्यन्तानां चतुा\वशतितीर्थंकराणां। णामणिरुिंत्त–नाम्नामभिधानाना निरुक्तिर्नामनिरुक्तिस्तां नामनिरुक्तिं प्रकृतिप्रत्ययकालकारकादिभिर्निश्चयेन अनुगतार्थकथनं ऋषभाजितसम्भवाभिनन्दनसुमतिपद्मप्रभ-सुपार्श्वचन्द्र-प्रभपुष्पदन्तशीतलश्रेयोवासुपूज्यविमलानन्तधर्मशान्तिकुन्थ्वरमल्लिमुनिसुव्रतनम्यरिष्टनेमिपार्श्ववर्धमाना: नामकीर्तनमेतत्। गुणाणुकििंत्त च–गुणानामसाधारणधर्माणामनुकीर्तिरनुख्यापनं गुणानुकीर्तिस्तां गुणानुकीा\त च निर्दोषाप्तलक्षणस्तुतिम् लोकस्योद्योतकरा धर्मतीर्थकरा: सुरासुरमनुष्येन्द्रस्तुता: दृष्टपरमार्थतत्त्वस्वरूपा: विमुक्त-घातिकठिनकर्माण:, इत्येवमादिगुणानु-कीर्तनं। काऊण–कृत्वा गुणग्रहणपूर्वकं नामग्रहणं प्रकृत्य। अच्चिदूण य–अर्चयित्वा च गन्धपुष्पधूपदीपादिभि: प्रासुकैरानीतैर्दिव्यरूपैश्च
दिव्यैर्निराकृतमलपटलसुगन्धैश्चतुा\वशतितीर्थंकरपदयुगलानामर्चनं कृत्वान्यस्याश्रुतत्वात्तेषामेव ग्रहणम्। तिसुद्धिपणमो–तिस्रश्च ता: शुद्धयश्च त्रिशुद्धयस्ताभि: त्रिशुद्धिभि: प्रणाम: त्रिशुद्धिप्रणाम:मनोवाक्कायशुद्धिभि: स्तुते: करणं। थवो–स्तव:, चतुा\वशतितीर्थंकरस्तुति: नामैकदेशेऽपि शब्दस्य प्रवर्तनात् यथा सत्यभामा भामा, भीमो भीमसेन:। एवं चतुा\वशतिस्तव: स्तव:। णेयो–ज्ञातव्य:। ऋषभादिजिनवराणां नामनिरुिंक्त गुणानुकीर्तनं च कृत्वा योऽयं मनोवचनकायशुध्या प्रणाम: स चतुा\वशतिस्तव इत्यर्थ:।
वन्दनास्वरूपं निरूपयन्नाह–
अरहंतसिद्धपडिमातवसुदगुणगुरूण रादीणं।
किदियम्मेणिदरेण य तियरणसंकोचणं पणमो।।२५।।
आचारवृत्ति–ऋषभदेव को आदि से लेकर वर्धमान पर्यन्त चौबीस तीर्थंकरों का प्रकृति, प्रत्यय, काल, कारक आदि के द्वारा निश्चय करके अनुगत-परंपरागत अर्थ करना नामनिरुक्ति पूर्वक स्तवन है।
अथवा ऋषभ, अजित, संभव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, पुष्पदंत, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुंथु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, अरिष्टनेमि, पार्श्व और वर्धमान इस प्रकार से नाम-उच्चारण करना नाम स्तवन है। इन्हीं तीर्थंकरों के असाधारण धर्मरूप गुणों का वर्णन करना गुणानुकीर्तन है अर्थात् निर्दोष आप्त का लक्षण करते हुए उनकी स्तुति करना, जैसे हे भगवन्! आप लोक में उद्योत करने वाले हैं, धर्मतीर्थ के कर्ता हैं; सुर, असुर और मनुष्यों से, इन्द्रों से स्तुति को प्राप्त हैं, वास्तविक तत्त्व के स्वरूप को देखने वाले हैं और कठोर घातिया कर्मो को नष्ट कर चुके हैं-इत्यादि प्रकार से अनेक–अनेक गुणों का कीर्तन करना भी गुणानुकीर्तन है। इस प्रकार इन तीर्थंकरों का गुणग्रहणपूर्वक नामग्रहण करके तथा मलपटल से रहित सुगन्धित दिव्यरूप लाये गये प्रासुक गंध-पुष्प-धूप–दीप आदि के द्वारा चौबीस तीर्थंकरों के पदयुगलों की अर्चना करके मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक उनको प्रणाम करना-स्तवन करना स्तव आवश्यक है।
यहाँ पर अन्य श्रुतादि को नहीं सुना जाने से अर्थात् श्रुत या गुरु आदि का प्रकरण न होने से तीर्थंकरों का स्तवन ही ग्रहण किया जाना चाहिए। चूँकि नाम के एक देश में भी शब्द की प्रवृत्ति देखी जाती है। जैसे भामा शब्द से सत्यभामा और भीम शब्द से भीमसेन को समझ लिया जाता है इसी प्रकार से स्तव नाम से चतुर्विंशति तीर्थंकर का स्तव जानना चाहिए।
तात्पर्य यह है कि ऋषभ आदि जिनवरों की नाम निरुक्ति और गुणों का अनुकीर्तन करके जो मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक प्रणाम किया जाता है वह चतुर्विंशतिस्तव है।
अब वंदना आवश्यक का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-अर्हन्त, सिद्ध और उनकी प्रतिमा; तप में श्रुत या गुणों में बड़े गुरु का और स्वगुरु का कृतिकर्म पूर्वक अथवा बिना कृतिकर्म के मन–वचन-कायपूर्वक प्रणाम करना वंदना है।।२५।।
अरहंतसिद्धपडिमा–अर्हन्तश्च सिद्धाश्चार्हत्सिद्धास्तेषामर्हत्सिद्धानां प्रतिमा अर्हत्सिद्धप्रतिमा अर्हत्सिद्धप्रतिबिम्बानि स्वरूपेण चार्हन्त: घातिकर्मक्षयादर्हन्त:, अष्टविधकर्मक्षयात्सिद्धा: अथवा गतिवचनस्थानभेदात्तयोर्भेद:, अष्टमहाप्रातिहार्य-समन्विता अर्हत्प्रतिमा, तद्रहिता सिद्धप्रतिमा। अथवा कृत्रिमायास्ता अर्हत्प्रतिमा:, अकृत्रिमा: सिद्धप्रतिमा:। तवसुदगुण-गुरुगुरूण–तपति दहति शरीरेन्द्रियाणि तपो द्वादशप्रकारमनशनादिकं, श्रुतमंगपूर्वादिरूपं मतिपूर्वकं, गुणा व्याकरणतर्कादिज्ञानविशेषा: तपश्च श्रुतं च गुणाश्च तप: श्रुतगुणास्तैर्गुरवो महान्तस्तप:श्रुतगुणगुरव:, गुरुश्च येन दीक्षा दत्ता, तेषां, द्वादशविधतपोधिकानां, श्रुताधिकानां, गुणाधिकानां, स्वगुरो: अर्हत्सिद्धप्रतिमानां च। रादीणं–रात्र्यधिकानां दीक्षया महतां च। किदियम्मेण–क्रियाकर्मणा कायोत्सर्गादिकेन सिद्धभक्तिश्रुतभक्तिगुरुभक्तिपूर्वकेण। इदरेण–इतरेण श्रुतभक्त्यादिक्रियापूर्वकमन्तरेण शिर: प्रणामेन मुंडवंदनया। तियरणसंकोचणं–त्रयश्च ते करणाश्च त्रिकरणा मनोवाक्काय क्रिया: तेषां संकोचनं त्रिकरणसंकोचनं मनोवाक्कायशुद्धक्रियं मन:शुद्ध्या वाक् शुद्ध कायशुद्ध्या इत्यर्थ:। पणमो–प्रणाम: स्तवनम्। अर्हत्सिद्धप्रतिमानां, तपोगुरूणां श्रुतगुरूणां गुणगुरुणां दीक्षागुरूणां दीक्षया महत्तराणां कृतकर्मणेतरेण च त्रिकरणसंकोचनं यथा भवति तथा योऽयं प्रणाम: क्रियते सा वन्दना नाम मूलगुण इति।।
अथ किं प्रतिक्रमणमित्याशंकायामाह–
दव्वे खेत्ते१ काले भावे य कयावराहसोहणयं।
िंणदणगरहणजुत्तो मणवचकायेण पडिक्कमणं।।२६।।
आचारवृत्ति-जिन्होंने घाति कर्मों का क्षय कर दिया है वे अर्हन्त हैं और जो आठों कर्मों का क्षय कर चुके हैं वे सिद्ध हैं। इनके प्रतिबिम्ब को प्रतिमा कहते हैं। अथवा गति, वचन और स्थान के भेद से भी अर्हन्त और सिद्ध में भेद है। अर्थात् अर्हंत मनुष्य गति में हैं, सिद्ध चारों गतियों से परे सिद्धगति में हैं। इसी तरह जो अन्य जनों में नहीं पाई जाने वाली इन्द्रादि द्वारा की गयी पूजा के योग्य हैं वे अर्हन्त हैं और जो अपने स्वरूप से पूर्णतया निष्पन्न हो चुके हैं वे सिद्ध हैं। अर्हन्तों का स्थान मध्यलोक है और सिद्धों का स्थान लोकशिखर का अग्रभाग है – इनकी अपेक्षा अर्हन्त और सिद्धों में भेद है। अष्ट महाप्रतिहार्य से समन्वित अर्हन्त प्रतिमा हैं और उनसे रहित सिद्ध प्रतिमा हैं। अथवा जो कृत्रिम प्रतिमाएँ हैं वे अर्हन्त प्रतिमा हैं और जो अकृत्रिम हैं वे सिद्ध प्रतिमा हैं। जो शरीर और इन्द्रियों को तपाता है, दहन करता है, वह तप है जो कि अनशनादि के भेद से बारह प्रकार का है। अंग और पूर्व आदि श्रुत हैं। यह श्रुतज्ञान, मतिज्ञान पूर्वक होता है। व्याकरण, तर्क आदि के ज्ञान विशेष को गुण कहते हैं। इन तप श्रुत और गुणों से जो महान् हैं अर्थात् जो तपों में अधिक हैं, श्रुत में अधिक हैं तथा गुण में अधिक हैं वे तपोगुरु, श्रुतगुरु और गुणगुरु कहलाते हैं तथा अपने गुरु को यहाँ गुरु से लिया है, ऐसे ही जो दीक्षा की अपेक्षा एक रात्रि भी बड़े हैं वे रात्र्यधिक गुरु हैं। इन सभी की कृतिकर्म पूर्वक वंदना करना अर्थात् सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, आचार्यभक्ति पूर्वक कायोत्सर्ग आदि के द्वारा मन-वचन – काय की शुद्धि पूर्वक इनको प्रणाम करना वंदना है। अथवा श्रुतभक्ति आदि क्रिया के बिना भी सिर झुकाकर इनको नमस्कार करना वंदना है। अर्थात् समय–समय पर कृतिकर्मपूर्वक वंदना की जाति है और हर क्रिया के प्रारम्भ में सिर झुकाकर नमोऽस्तु शब्द का प्रयोग करके भी वंदना की जाती है। वह सभी वन्दना है।
तात्पर्य यह है कि अर्हन्त-सिद्धों की प्रतिमा तपोगुरु, श्रुतगुरु, दीक्षागुरु और दीक्षा में अपने से बड़े गुरु-इन सबका कृतिकर्म पूर्वक अथवा बिना कृतिकर्म के नमस्कार मात्र करके मन–वचन–काय की विशुद्धि द्वारा विधिपूर्वक जो नमस्कार किया जाता है वह वन्दना नाम का मूलगुण कहलाता है।
प्रतिक्रमण क्या है ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं-
गाथार्थ-निन्दा और गर्हापूर्वक मन–वचन–काय के द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के विषय में किये गये अपराधों का शोधन करना प्रतिक्रमण है।।२६।।
दव्वे–द्रव्ये आहारशरीरादिविषये। खेत्ते–क्षेत्रे वसतिकाशयनासनगमनादिमार्गविषये। काले–पूर्वाह्वापराह्वादिवसरात्रिपक्षमास-संवत्सरातीतानागतवर्तमानादिकालविषये। भावे–परिणामे चित्तव्यापारविषये। कयावराहसोहणयं–कृतश्चासावपराधश्च कृता-पराधस्तस्य शोधनं कृतापराधशोधनं द्रव्यादिद्वारेण व्रतविषयोत्पन्नदोषनिर्हरणं। णीदणगरहणजुत्तो–निन्दनमात्मदोषा-विष्करणं, आचार्यादिषु आलोचनापूर्वकं दोषाविष्करणं गर्हणं, निन्दनं च गर्हणं च निन्दनगर्हणे ताभ्यां, युक्तो निन्दन-गर्हणयुक्तस्तस्य निन्दनगर्हणयुक्तस्यात्मप्रकाशपरप्रकाशसहितस्य। मणवचकाएण–मनश्च वचश्च कायश्च मनोवच:कायं तेन मनोवच:कायेन शुभमनोवच:कायक्रियादिभि:। पडिक्कमणं–प्रतिक्रमणं स्वकृतादशुभयोगात्प्रतिनिवृत्ति:, अशुभपरिणाम-पूर्वककृतदोषपरित्याग:। निन्दनगर्हणयुक्तस्य मनोवाक्कायक्रियाभिर्द्रव्य-क्षेत्रकालभावविषये तैर्वा कृतस्यापराधस्य व्रतविषयस्य शोधनं यत्तत् प्रतिक्रमणमिति।।
प्रत्याख्यानस्वरूपनिरूपणार्थमाह–
णामादीणं छण्हं अजोगपरिवज्जणं तियरणेण।
पच्चक्खाणं णेयं अणागयं चागमे काले।।२७।।
आचारवृत्ति-आहार, शरीर आदि द्रव्य के विषय में; वसतिका, शयन, आसन और गमन–आगमन आदि मार्ग के रूप, क्षेत्र के विषय में; पूर्वाह्न–अपराह्न, दिवस, रात्रि, पक्ष, मास, संवत्सर तथा भूत–भविष्यत्–वर्तमान आदि काल के विषय में और परिणाम-मन के व्यापाररूप भाव के विषय में जो अपराध हो जाता है अर्थात् इन द्रव्य आदि विषयों में या इन द्रव्य-क्षेत्र–काल–भावों के द्वारा व्रतों में जो दोष उत्पन्न हो जाते हैं उनका निन्दा–गर्हापूर्वक निराकरण करना, अपने दोषों को प्रकट करना निन्दा है और आचार्य आदि गुरुओं के पास आलोचना पूर्वक दोषों का कहना गर्हा है।
निन्दा में आत्मसाक्षीपूर्वक ही दोष कहे जाते हैं तथा गर्हा में गुरु आदि पर के समक्ष दोषों को प्रकाशित किया जाता है-यही इन दोनों में अन्तर है। इस तरह शुभ मन–वचन–काय की क्रियाओं के द्वारा, अपने द्वारा किये गये अशुभ योग से प्रतिनिवृत्त होना-वापिस अपने व्रतों में आ जाना अर्थात् अशुभ परिणामपूर्वक किये गये दोषों का परित्याग करना इसका नाम प्रतिक्रमण है।
तात्पर्य यह है कि निन्दा और गर्हा से युक्त होकर साधु मन–वचन–काय की क्रिया के द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के विषय में अथवा इन द्रव्यादिकों के द्वारा किये गये व्रत विषयक अपराधों का जो शोधन करते हैं उनका नाम प्रतिक्रमण है।
अब प्रत्याख्यान का स्वरूप निरूपित करते हुए कहते हैं-
गाथार्थ-भविष्य में आने वाले तथा निकटवर्ती भविष्यकाल में आने वाले नाम, स्थापना आदि छहों अयोग्य का मन-वचन–काय से वर्जन करना–इसे प्रत्याख्यान जानना चाहिए।।२७।।
णामादीणं–जातिद्रव्यगुणक्रियानिरपेक्षं संज्ञाकरणं नामाभिधानं तदादिर्येषां ते नामादयस्तेषां नामस्थापनाद्रव्य-क्षेत्रकालभावानाम्। छण्हं–षण्णाम्। अजोगपरिवज्जणं–न योग्या अयोग्यास्तेषां नामादीनामयोग्यानां पापागमहेतूनां परिवर्जनं परित्याग:। तियरणेण–त्रिकरणै: शुभमनोवाक्कायक्रियाभि: अशुभाभिधानं कस्यचिन्न करोमि, न कारयामि, नानुमन्ये, तथा वचनेन न वच्मि, नापि काथयामि, नाप्यनुमन्ये, तथा मनसा न चिन्तयामि, नाप्यन्यं भावयामि, नानुमन्ये। एवं अशुभस्थापनामेनां कायेन न करोमि, न कारयामि, नानुमन्ये, तथा वाचा न भणामि, न भाणयामि, नानुमन्ये, तथा मनसा न चिंतयामि, नाप्यन्यं भावयामि नानुमन्ये। तथा सावद्यं द्रव्यं क्षेत्रं कालं भावं च न सेवे, न सेवयामि, सेवन्तं, (सेवमानं) नानुमन्ये। तथा वचसा त्वं सेवस्वेति न भणामि, न भाणयामि, नापि चिन्तयामीति। पच्चक्खाणं–प्रत्याख्यानं परिहरणं अयोग्यग्रहणपरित्याग:। णेयं–ज्ञातव्यम्। अणागयं च–अनागतं चानुपस्थितं च। अथवा अनागते दूरेणागते काले। आगमे काले–आगते उपस्थिते। अथवा आगमिष्यति सन्निकृष्टे काले मुहूर्तदिवसादिके। नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावानां षण्णां अनागतानां त्रिकरणैर्यदेतत् परिवर्जनं आगते चोपस्थिते च यदेतद्दोषपरिवर्जनं तत्प्रत्याख्यानं ज्ञातव्यमिति। अथवा दूरे भविष्यति काले आगमिष्यति चासन्ने वर्तमाने तेषां षण्णामपि अयोग्यानां वर्जनं प्रत्याख्यानम्। अथवा अनागते काले अयोग्यपरिवर्जनं नामादिषट्प्रकारं यदेतदागतं मनोवचनकायै: तत्प्रत्याख्यानं ज्ञातव्यमिति। अथ प्रतिक्रमणप्रत्याख्यानयो: को विशेष इति चेन्नैष दोष:, अतीतकालदोषनिर्हरणं प्रतिक्रमणम्। अनागते वर्तमाने च काले द्रव्यादिदोषपरिहरणं प्रत्याख्यानमनयोर्भेद:। २तपोऽर्थं निरवद्यस्यापि द्रव्यादे: परित्याग: प्रत्याख्यानं, प्रतिक्रमणं पुनर्दोषाणां निर्हरणायैवेति।।
आचारवृत्ति-पाप के आस्रव में कारणभूत अयोग्य नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का मन–वचन–काय से त्याग करना प्रत्याख्यान है। शुभ मन-वचन–काय की क्रियाओं से किसी के अशुभ नाम को न मैं करता हूँ, न कराता हूँ, न करते हुए की अनुमोदना करता हूँ अर्थात् अशुभ नाम को न करूँगा, न कराऊँगा और न ही करते हुए की अनुमोदना करूँगा; उसी प्रकार न वचन से बोलूँगा न बुलवाऊँगा, न बोलते हुए की अनुमोदना करूँगा। न मन से अशुभ नाम का चिन्तवन करुँगा, न अन्य से उसकी भावना कराऊँगा, न ही करते हुए की अनुमोदना करूँगा। उसी प्रकार न वचन से बोलूंगा, न बुलवाऊँगा, न बोलते हुए की अनुमोदना करूँगा। न मन से अशुभ नाम का चिन्तवन करूँगा, न अन्य से उनकी भावना कराऊँगा, न ही करते हुए की अनुमोदना करूँगा। इसी प्रकार अशुभ स्थापना को न काय से करूँगा, न कराऊँगा, न ही करते हुए की अनुमोदना करूँगा; उसी प्रकार वचन से अशुभ स्थापना को न कहूँगा, न कहलाऊँगा और न ही अनुमोदना करूँगा तथा मन से उस अशुभ स्थापना का न चिन्तवन करूँगा, न अन्य से भावना कराऊँगा और न ही करते हुए की अनुमोदना करूँगा। इसी प्रकार से सावद्य-सदोष द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का न सेवन करूँगा, न सेवन कराऊँगा और न ही सेवन करते हुए की अनुमोदना कराऊँगा; उसी प्रकार इन सदोष द्रव्यादि का ‘तुम सेवन करो ’ ऐसा वचन से न कहूँगा, न कहलाऊँगा, न ही कहते हुए की अनुमोदना करूँगा। न मन से चिन्तवन करूँगा, न कराऊँगा, न करते हुए की अनुमोदना करूँगा। इस प्रकार अयोग्य के ग्रहण का परित्याग करना प्रत्याख्यान है।
उपस्थित होने वाला काल अनागत काल है अथवा यहाँ अनागत शब्द से दूर भविष्य में आने वाला काल लिया गया है और आगत शब्द से उपस्थित काल अर्थात् निकट में आने वाले मुहूर्त, दिन आदि रूप भविष्य काल को लिया है। इन अनागत सम्बन्धी नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों का मन–वचन–काय से वर्जन है और उपस्थित हुए काल में जो दोषों का वर्जन है वह प्रत्याख्यान है। अथवा दूरवर्ती भविष्यकाल तथा आने वाले निकटवर्ती वर्तमान काल में इन अयोगरूप नाम, स्थापना आदि छहों का त्याग करना प्रत्याख्यान है। अथवा अनागतकाल में अयोग्यरूप नाम आदि छह प्रकार जो आयेंगे उनका मन-वचन–काय से त्याग करना प्रत्याख्यान है।
प्रश्न-प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान में क्या अन्तर है ?
उत्तर-अतीतकाल के दोषों का निराकरण करना प्रतिक्रमण है और अनागत तथा वर्तमान काल में होने वाले द्रव्यादिसम्बन्धी दोषों का निराकरण करना प्रत्याख्यान है, यही इन दोनों में भेद है। अथवा तपश्चरण के लिए निर्दोष द्रव्य आदि का भी त्याग करना प्रत्याख्यान है तथा दोषों के निराकरण करने हेतु ही प्रतिक्रमण होता है।
कायोत्सर्गस्वरूपनिरूपणार्थमाह–
देवस्सियणियमादिसु जहुत्तमाणेण उत्तकालम्हि।
जिणगुणचिंतणजुत्तो काउस्सग्गो२ तणुविसग्गो।।२८।।
देवस्सियणियमादिसु–दिवसे भवो दैवसिक: स आदिर्येषां ते दैवसिकादयस्तेषु दैवसिकरात्रिक-पाक्षिकचातुर्मासिकसांवत्सरि-कादिषु नियमेषु निश्चयक्रियासु। जहुत्तमाणेण–उक्तमनतिक्रम्य यथोक्तं, यथोक्तं च तन्मानं च यथोक्तमानं तेन अर्हत्प्रणीतेन३ कालप्रमाणेन पंचिंवशतिसप्तिंवशत्यष्टोत्तरशताद्युच्छ्वासपरिमाणेन। उत्तकालम्हि–उक्त: प्रतिपादित: काल: समय उक्तकालस्तस्मिन्नुक्तकाले आत्मीयात्मीयवेलायां। यो यस्मिन्काले कायोत्सर्ग उक्त: स तस्मिन् कर्तव्य:। जिणगुणिंचतणजुत्तो–जिनस्य गुणा जिनगुणास्तेषां चिन्तनं स्मरणं तेन युक्तो जिनगुणचिंतनयुक्त:, दयाक्षमासम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्रशुक्लध्यानधर्मध्यानानन्तज्ञानादिचतुष्टयादिगुणभावनासहित:। काउस्सग्गो–कायोत्सर्ग:। तणुविसग्गो–तनो: शरीरस्य विसर्गस्तनुविसर्गो देहे ममत्वस्य परित्याग:। दैवसिकादिषु नियमेषु यथोक्तकाले योऽयं यथोक्तमानेन जिनगुणचिन्तनयुक्तस्तनुविसर्ग: स कायोत्सर्ग इति।।
लोच उक्त: स कथं क्रियते इत्यत आह–
वियतियचउक्कमासे लोचो उक्कस्समज्भिकमजहण्णो।
सपडिक्कमणे दिवसे उववासेणेव कायव्वो।।२९।।
अब कायोत्सर्ग का स्वरूप निरूपण करते हैं-
गाथार्थ-दैवसिक, रात्रिक आदि नियम क्रियाओं में आगम में कथित प्रमाण के द्वारा आगम में कथित काल में जिनेन्द्रदेव के गुणों के चिन्तवन से सहित होते हुए शरीर से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग नाम का आवश्यक है।।२८।।
आचारवृत्ति-दिवस में होने वाला दैवसिक है अर्थात् दिवस सम्बन्धी दोषों का प्रतिक्रमण दैवसिक प्रतिक्रमण है। इसी तरह रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और वार्षिक आदि नियमरूप निश्चय क्रियाओं में अर्हन्तदेव के द्वारा कथित पच्चीस, सत्ताईस, एक-सौ-आठ आदि उच्छ्वास प्रमाण काल के द्वारा उन्हीं–उन्हीं क्रिया सम्बन्धी काल में जिनेन्द्रदेव के गुणों के स्मरण से युक्त होकर अर्थात् दया, क्षमा, सम्यग्दर्शन-ज्ञान–चारित्र, शुक्लध्यान, धर्मध्यान तथा अनन्तज्ञान आदि अनन्त चतुष्टय गुणों की भावना से सहित होते हुए शरीर से ममत्व का परित्याग करना कायोत्सर्ग है।
तात्पर्य यह है कि दैवसिक आदि नियमों में शास्त्र में कथित समयों में जो शास्त्रोक्त उच्छ्वास की गणना से णमोकार मंत्र पूर्वक जिनेन्द्रगुणों के चिन्तवन सहित शरीर से ममत्व का त्याग किया जाता है उसका नाम कायोत्सर्ग है।।
जो लोच मूलगुण कहा है वह वैâसे किया जाता है ? इसके उत्तर में कहते हैं-
गाथार्थ–प्रतिक्रमण सहित दिवस में, दो, तीन या चार मास में उत्तम, मध्यम या जघन्यरूप लोच उपवास पूर्वक ही करना चाहिए।।२९।।
वियतियचउक्कमासे–द्वौ च त्रयश्च चत्वारश्च द्वित्रिचत्वारस्ते च ते मासाश्च द्वित्रिचतुर्मासास्तेषु द्वित्रिचतुर्मासेषु, मासशब्द: प्रत्येकं अभिसम्बध्यते द्वयोर्मासयो:, त्रिषु मासेषु चतुर्षु मासेषु वा सम्पूर्णेषु असंपूर्णेषु वा। द्वयोर्मासयोरति-क्रान्तयो: सतोर्वा। त्रिषु मासेषु अतिक्रान्तेष्वनतिक्रान्तेषु सत्सु वा। चतुर्षु मासेषु पूर्णेष्वपूर्णेषु वा नाधिकेषु इत्याध्याहार: कार्य: सर्वसूत्राणां सोपस्कारत्वादिति। लोचो–लोच: बालोत्पाटनं हस्तेन मस्तककेशश्मश्रूणामपनयनं जीवसम्मूर्च्छनादिपरिहारार्थं रागादिनिराकरणार्थं स्ववीर्यप्रकटनार्थं सर्वोत्कृष्टतपश्चरणार्थं लिंगादिगुणज्ञापनार्र्थं चेति। उक्कस्स–उत्कृष्ट:, अत्यर्थ-माचरणार्थाभिप्राय:। मज्झिम–मध्यम: अजघन्योत्कृष्ट:। जहण्ण–जघन्य: मन्दाचरणाभिप्राय:। सपडिक्कमणे–सप्रतिक्रमणे सह प्रतिक्रमणेन वर्तते इति सप्रतिक्रमणस्तस्मिन्सप्रतिक्रमणे। दिवसे–अहोरात्रमध्ये। उववासेण–उपवासेन अशनादिपरि-त्यागयुक्तेन। एवकारोऽवधारणार्थ:। कायव्वो–कर्तव्य: निर्वर्तनीय:। लोचस्य निरुक्तिर्नोक्ता सर्वस्य प्रसिद्धो यत:। सप्रति-क्रमणे दिवसे पाक्षिकचातुर्मासिकादौ उपवासेनैव द्वयोर्मासयोर्यत् केशश्मश्रूत्पाटनं स उत्कृष्टो लोच:। त्रिसु मासेषु मध्यम:, चतुर्षु मासेषु जघन्य:। अथवा विधानमेतत्, एतेषु कालविशेषेषु एवं-विशिष्टो लोच: कर्तव्य:। एवकारेणोपवासे लोचोऽवधार्यते न दिवस:, तेन प्रतिक्रमणरहितेऽपि दिवसे लोचस्य सम्भव:। अथवा सप्रतिक्रमणे दिवसे इत्यनेन किमुक्तं भवति लोचं कृत्वा प्रतिक्रमणं कर्तव्यमिति। लुंचृधातुरपनयने वर्तते तच्चापनयनं क्षुरादिनापि सम्भवति तत्किमर्थमुत्पाटनं मस्तके केशानां श्मश्रूणां चेति चेन्नैष दोष: दैन्यवृत्तियाचनपरिग्रहपरिभवादिदोषपरित्यागादिति।।
अचेलकत्वस्वरूपप्रतिपादनायोत्तरसूत्रमाह–
वत्थाजिणवक्केण१ य अहवा पत्ताइणा असंवरणं।
णिब्भूसण णिग्गंथं अच्चेलक्कं जगदि पूज्जं।।३०।।
आचारवृत्ति-दो मास के उल्लंघन हो जाने पर अथवा पूर्ण होने पर, तीन मास के उल्लंघन के हो जाने पर अथवा कमती रहने पर या पूर्ण हो जाने पर एवं चार मास के पूर्ण हो जाने पर अथवा अपूर्ण रहने पर किन्तु अधिक नहीं होने पर लोच किया जाता है ऐसा अध्याहार करके अर्थ किया जाना चाहिए क्योंकि सभी सूत्र उपस्कार सहित होते हैं अर्थात् सूत्रों में आगम से अविरुद्ध वाक्यों को लगाकर अर्थ किया जाता है क्योंकि सूत्र अतीव अल्प अक्षर वाले होते हैं। संमूर्च्छन आदि जीवों के परिहार के लिए अर्थात् जूं आदि उत्पन्न न हो जावें इसलिए, शरीर से राग भाव आदि को दूर करने के लिए, अपनी शक्ति को प्रकट करने के लिए, सर्वोत्कृष्ट तपश्चरण के लिए और लिंग-निर्ग्रंथ मुद्रा के गुणों को बतलाने के लिए हाथ से मस्तक तथा मूंछ के केशों को उखाड़ना लोच कहलाता है। यह लोच पाक्षिक, चातुमार्सिक आदि प्रतिक्रमणों के दिन उपवासपूर्वक ही करना चाहिए।
दो महीने में किया गया लोच अतिशयरूप आचरण को सूचित करने वाला होने से उत्कृष्ट कहलाता है, तीन महीने में किया गया मध्यम है और चार महीने में किया गया मन्द आचरणरूप जघन्य है। इस प्रकार से प्रतिक्रमण सहित दिनों में उपवास करके लोच करना यह विधान हुआ है अथवा गाथा में एवकार शब्द उपवास शब्द के साथ है जिससे उपवास में ही लोच करना चाहिए ऐसा अवधारण होता है, इससे प्रतिक्रमण से रहित भी दिवसों में लोच संभव है। अथवा प्रतिक्रमण सहित दिवस का यह अर्थ समझना कि लोच करके ही प्रतिक्रमण करना चाहिए।
प्रश्न-लुंचृ धातु अपनयन-दूर करने अर्थ में है। वह केशों को दूर करनेरूप अर्थ तो, क्षुरा-उस्तरा, वैंâची आदि से भी सम्भव है तो फिर मस्तक और मूंछों के केशों को हाथ से क्यों उखाड़ना ?
उत्तर-ऐसी बात नहीं है, क्योंकि उस्तरा आदि से केशों को दूर करने में दैन्यवृत्ति होना, याचना करना, परिग्रह रखना या तिरस्कारित होना आदि दोषों का होना संभव है, किन्तु हाथ से केशों को दूर करने में ये उपर्युक्त दोष नहीं आ सकते हैं।
भावार्थ-अपने हाथों से केशों को उखाड़ने से उसमें जीवों की उत्पत्ति नहीं हो सकती है, शरीर के संस्काररूप केशों को न रखने से शरीर से अनुराग भाव समाप्त हो जाता है, अपनी शक्ति वृद्धिंगत होती है, कायक्लेश होने से उत्तम से उत्तम तपश्चरणों का अभ्यास होता है और मुनि के जो चार लिंग माने गये हैं-
आचेलक्य, केशलोच, पिच्छिका ग्रहण और शरीर संस्कार हीनता, इनमें से केशलोच से लिंग ज्ञापित होता है, ये तो केशलोच के गुण हैं। यदि उस्तरा आदि से केशों को निकलावें तो नाई के सामने माथा नीचे करने से उसकी गरज करने से दीनवृत्ति दिखती है, स्वाभिमान और स्वावलम्बन समाप्त हो जाता है, नाई को देने हेतु पैसे की याचना करनी पड़ेगी या वैंâची आदि परिग्रह अपने पास रखना पड़ेगा अथवा लोगों से नाई के लिए या वैंâची के लिए कहने से किसी समय उनके द्वारा अपमान, तिरस्कार आदि भी किया जा सकता है। इन सब दोषों से बचने के लिए और शरीर से निर्ममता को सूचित करने के लिए जैन साधु-साध्वी अपने हाथ से केशों को उखाड़कर लोच मूलगुण पालते हैं।
अचेलकत्व का स्वरूप बतलाने के लिए उत्तरसूत्र कहते हैं-
गाथार्थ-वस्त्र, चर्म और वल्कलों से अथवा पत्ते आदिकों से शरीर को नहीं ढकना, भूषण-अलंकार से और परिग्रह से रहित निर्ग्रंथ वेष जगत् में पूज्य अचेलकत्व नाम का मूलगुण है।।३०।।
वत्थाजिणवक्केण–वस्त्रं पटचीवरकम्बलादिकं, अजिनं चर्म मृगव्याघ्रादिसमुद्भवं, वल्कं वृक्षादित्वक्, वस्त्रं चाजिनं च वल्कं च वस्त्राजिनवल्कानि तैर्वस्त्राजिन वल्कै: पटचीवरचर्मवल्कलैरपि। अहवा–अथवा। पत्ताइणा–पत्रमादिर्येषां तानि पत्रादीनि तै: पत्रादिभि: पत्रबालतृणादिभिरसंवरणमनावरणमनाच्छादनं। णिब्भूसणं–भूषणानि कटककेयूरहारमुकुटाद्याभरणमंडन-विलेपनधूपनादीनि तेभ्यो निर्गतं निर्भूषणं सर्वरागांगविकाराभाव:। णिग्गंथं–ग्रन्थेभ्य: संयमविनाशकद्रव्येभ्यो निर्गतं निर्ग्रंथं बाह्याभ्यन्तरपरिग्राहाभाव:। अच्चेलक्कं–अचेलकत्वं चेलं वस्त्रं तस्य मनोवाक्कायै: संवरणार्थमग्रहणं। जगदिपूज्जं–जगति पूज्यं महापुरुषाभिप्रेतवंदनीयम्। वस्त्राजिनवल्कलै: पत्रादिभिर्वा यदसंवरणं निर्ग्रंथं निर्भूषणं च तदचेलकत्वं व्रतं जगति पूज्यं भवतीत्यर्थ:। अथ वस्त्रादिषु सत्सु दोष: इति चेन्न हिंसार्जनप्रक्षालन-याचनादिदोषप्रसंगात् ध्यानादिविघ्नाच्चेति।।
अस्नानव्रतस्य स्वरूपं प्रतिपादयन्नाह–
ण्हाणादिवज्जणेण य विलित्तजल्लमलसेदसव्वंगं।
अण्हाणं घोरगुणं संजमदुगपालयं मुणिणो।।३१।।
आचारवृत्ति-वस्त्र-धोती दुपट्टा, कंबल आदि; अजिन-मृग, व्याघ्र आदि से उत्पन्न चर्म; वल्कल-वृक्षादि की छाल, इनसे शरीर को नहीं ढकना अथवा पत्ते और छोटे–छोटे तृण आदि से शरीर को नहीं ढकना, भूषण-कड़े, बाजूबंद, हार, मुकुट आदि आभरण और मंडन, विलेपन, धूपन आदि वस्तुएँ, ये सब भूषण शब्द से विवक्षित हैं इनसे निर्गत-रहित जो वेष है वह निर्भूषण वेष है अर्थात् सम्पूर्ण प्रकार से राग और अंग के विकारों का अभाव होना, ग्रन्थ-संयम के विनाशक द्रव्य, उनसे रहित निर्ग्रंथ अवस्था होती है अर्थात् बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह का अभाव होना ही निर्ग्रंथ है। इस प्रकार से चेल-वस्त्र को शरीर–संवरण के लिए मन, वचन–काय से ग्रहण नहीं करना यह आचेलक्य व्रत है, जो कि जगत् में पूज्य है, महापुरुषों के द्वारा अभिप्रेत है और वंदनीय है।
तात्पर्य यह निकला कि वस्त्र, चर्म, वल्कल से अथवा पत्ते आदि से जो शरीर का नहीं ढकना है, निर्ग्रंथ और निर्भूषण वेष का धारण करना है वह आचेलक्य व्रत जगत में पूज्य होता है।
प्रश्न-वस्त्र आदिकों के होने पर क्या दोष है ?
उत्तर-ऐसा नहीं कहें, क्योंकि हिंसा, अर्जन, प्रक्षालन, याचना आदि अनेक दोष आते हैं तथा ध्यान, अध्ययन आदि में विघ्न भी होता है। अर्थात् किसी भी प्रकार से वस्त्र से शरीर को ढकने की बात जहाँ तक होगी वहाँ तक उन वस्त्रों के आश्रित हिंसा अवश्य होगी, उनको संभालना, धोना, सुखाना, फट जाने पर दूसरों से मांगना आदि प्रसंग अवश्य आयेंगे। पुन: इन कारणों से साधु को ध्यान और अध्ययन में बाधा अवश्य आयेगी, इसलिए नग्न वेष धारण करना यह आचेलक्य नाम का मूलगुण है।
अस्नानव्रत का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-स्नान आदि के त्याग कर देने से जल्ल, मल और पसीने से सर्वांग लिप्त हो जाना मुनि के प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम पालन करनेरूप, घोरगुणस्वरूप अस्नानव्रत होता है।।३१।।
ण्हाणादिवज्जणेण य–स्नानं जलावगाहनं आदिर्येषां ते स्नानादय: स्नानोद्वर्तनाञ्जनजलसेकताम्बूललेपनादयस्तेषां वर्जनं परित्याग: स्नानादिवर्जनं तेन स्नानादिवर्जनेन जलप्रक्षालनसेचनादिक्रियाकृतांगोपांगसुखपरित्यागेन। विलित्तजल्लमलसे-दसव्वंगं–जल्लं सर्वांगप्रच्छादकं मलं अंगैकदेशप्रच्छादकं स्वेद: प्रस्वेदो रोमकूपोद्गतजलं, जल्लं च मलं च स्वेदश्च जल्ल-मलस्वेदास्तै: विलिप्त सर्वांगं विलिप्तजल्लमलस्वेदसर्वांगं। विलिप्तशब्दस्य पूर्वनिपात:। अथवा जल्लमलाभ्यां स्वेदो यस्मिन् जल्लमलस्वेदं, सर्वं च तदंगं च सर्वांगं सर्वशरीरं विलिप्तं च तज्जल्लमलस्वेदं च सर्वांगं च तद्विलिप्तजल्लमल-स्वेदसर्वांगम्। अथवा विलिप्ता: सूपचिता जल्लमलस्वेदा यस्मिन् सर्वांगे तद्विलिप्तजल्लमलस्वेदं तच्च तत् सर्वांगं च। अण्हाणं–अस्नानं जलावगाहनाद्यभाव:। घोरगुणो–महागुण: प्रकृष्टव्रतं अथवा घोरा: प्रकृष्टा गुणा यस्मिन् तद् घोरगुणम्। संजमदुगपालयं–संयम: कषायेन्द्रियनिग्रह: संयमस्य द्विकं द्वयं संयमद्विकं तस्य पालकं संयमद्विकपालकं इन्द्रिय-संयमप्राणसंयमरक्षकम्। मुणिणो–मुने: चारित्राभिमानिनो मुने:। स्नानादिवर्जनेन वलिप्तजल्लमलस्वेदसर्वांगं महाव्रतपूतं यत्तदस्नानव्रतं घोरगुणं संयमद्वयपालकं भवतीत्यर्थ:। नात्राशुचित्वं स्यात् स्नानादिवर्जनेन मुने: व्रतै: शुचित्वं यत:। यदि पुनर्व्रतरहिता जलावगाहनादिना शुचय: स्युस्तदा मत्स्यमकरदुश्चरित्रासंयता: सर्वेऽपि शुचयो भवेयु:। न चैवं, तस्मात् व्रतनियमसंयमैर्य: शुचि: स शुचिरेव। जलादिकं तु बहु कश्मलं नानासूक्ष्मजन्तुप्रकीर्णं सर्वसावद्यमूलं न तत्संयतैर्यत्र तत्र प्राप्तकालमपि सेवनीयमिति।।
क्षितिशयनव्रतस्य स्वरूपं प्रपंचयन्नाह–
फासुयभूमिपएसे अप्पमसंथारिदम्हि पच्छण्णे।
दंडं धणुव्व सेज्जं खिदिसयणं एयपासेण।।३२।।
आचारवृत्ति-जल में अवगाहन करना-जल में प्रवेश करके नहाना स्नान है। आदि शब्द से उबटन लगाना, आँख में अंजन डालना, जल छिड़कना, ताम्बूल भक्षण करना, शरीर में लेपन करना अर्थात् जल से प्रक्षालन, जल का छिड़कना आदि क्रियाएँ जो कि शरीर के अंग–उपांगों को सुखकर हैं उनका परित्याग करना स्नानादि–वर्जन कहलाता है। जल्ल-सर्वांग को प्रच्छादित करने वाला मल; मल-शरीर के एकदेश को प्रच्छादित करने वाला मल और स्वेद-रोमकूप से निकलता हुआ पसीना। स्नान आदि न करने से शरीर इन जल्ल, मल और पसीने से लिप्त हो जाता है अर्थात् शरीर में खूब पसीना और धूलि आदि चिपककर शरीर अत्यन्त मलिन हो जाता है यह अस्नानव्रत घोरगुण अर्थात् महान गुण है। प्रकृष्ट- सबसे श्रेष्ठ व्रत है अथवा घोर अर्थात् प्रकृष्ट गुण इस व्रत में पाये जाते हैं। यह कषाय और इन्द्रियों का निग्रह करने वाला होने से दो प्रकार के संयम का रक्षक है अथवा इन्द्रियसंयम और प्राणीसंयम का रक्षक है अर्थात् स्नान नहीं करने से इन्द्रियों का निग्रह होता है तथा प्राणियों को बाधा नहीं पहुँचने से प्राणिसंयम भी पलता है। इस प्रकार से चारित्र के अभिलाषी मुनि के स्नानादि के न करने से जल्ल, मल और स्वेद से सर्वांग के लिप्त हो जाने पर भी जो महाव्रत से पवित्र है वह अस्नान नामक व्रत घोरगुणरूप है और दो प्रकार के संयम की रक्षा करने वाला है। अर्थात् यहाँ स्नानादि का वर्जन करने से मुनि के अशुचिपना नहीं होता है क्योंकि उनके व्रतों से पवित्रता मानी गयी है।
पुन: व्रतों से रहित भी जन यदि जल–स्नान आदि से पवित्र हो जावें तब तो फिर मत्स्य, मकर आदि जलजन्तु और दुश्चारित्र से दूषित असंयत जन आदि सभी पवित्र हो जावें। किन्तु ऐसी बात नहीं है, इसलिए व्रत, नियम और संयम के द्वारा जो पवित्रता है वह ही पवित्रता है। किन्तु जल आदि तो बहुत कश्मलरूप है, नाना प्रकार के सूक्ष्म जन्तुओं से व्याप्त है और संपूर्ण सावद्य-पापयोग का मूल है। वह यद्यपि जहाँ–तहाँ प्राप्त हो सकता है तो भी संयतों के द्वारा सेवनीय नहीं है ऐसा समझना।
क्षितिशयन व्रत का स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं-
गाथार्थ-अल्प भी संस्तर से रहित अथवा किंचितमात्र संस्तर से सहित एकान्त स्थानरूप प्रासुक भूमि प्रदेश में दण्डाकार या धनुषाकार शयन करना अथवा एक पसवाड़े से सोना क्षितिशयन व्रत है।।३२।।
फासुयभूमिपएसे–प्रगता असव: प्राणा यस्मिन्नसौ प्रासुको जीववधादिहेतुरहित: भूमे: प्रदेशो भूमिप्रदेश: प्रासुकश्चासौ भूमिप्रदेशश्च प्रासुकभूमिप्रदेशस्तस्मिन् जीविंहसामर्दनकलहसंक्लेशादिविमुक्तभूमिप्रदेशे। अप्पमसंथारिदम्हि–अल्पमपि स्तोकमपि असंस्तरितं अप्रक्षिप्तं यस्मिन् सोऽल्पासंस्तरितस्तस्मिन्नल्पासंस्तरिते अथवा अल्पवति संस्तरिते येन बहुसंयमविघातो न भवति तस्मिन् तृणमये काष्ठमये शिलामये भूमिप्रदेशे च संस्तरे गृहस्थयोग्यप्रच्छादनविरहिते आत्मना वा संस्तरिते नान्येन। अथवा आत्मानं मिमीत इति आत्ममं आत्मप्रमाणं संस्तरितं चारित्रयोग्यं तृणादिकं यस्मिन् स आत्ममसंस्तरितप्रदेशस्तस्मिन्। पच्छण्णे–प्रच्छन्ने गुप्तैकप्रदेशे १स्त्रीपशुषंढकविवर्जिते असंयतजनप्रचारविवर्जिते। दण्डं–दण्ड इव शयनं दण्ड इत्युच्यते। धणु–धनुरिव शयनं धनुरित्युच्यते। शय्याशब्द: प्रत्येकमभिसम्बध्यते। दण्डेन शय्या धनुषा शय्या। अधोमुखेनोत्तानेन शय्या न कर्तव्या दोषदर्शनात्। खिदिसयणं–क्षितौ शयनं क्षितिशयनं। विवर्जितपल्यंकादिकं। एयपासेण–एकपार्श्वेन शरीरैकदेशेन। प्रासुकभूमिप्रदेशे चारित्राविरोधेनाल्पसंस्तरितेऽसंस्तरिते आत्मप्रमाणेनात्मनैव वा संस्तरिते प्रच्छन्ने दण्डेन धनुषा एकपार्श्वेन मुनेर्या शय्या शयनं तत् क्षितिशयनव्रतमित्यर्थ:। किमर्थमेतदिति चेत् इन्द्रियसुखपरिहारार्थं तपोभावनार्थं शरीरादिनिस्पृहत्वाद्यर्थं चेति।।
अदन्तमनव्रतस्य स्वरूपं निरूपयन्नाह–
अंगुलिणहावलेहणिकलीिंह१ पासाणछल्लियादीिंह।
दंतमलासोहणयं संजमगुत्ती अदंतमणं।।३३।।
आचारवृत्ति-जीव वध आदि हेतु से रहित प्रदेश प्रासुक प्रदेश है अर्थात् जीवों की हिंसा से, उनके मर्दन से अथवा कलह, संक्लेश आदि से रहित जो प्रदेश है वह प्रासुक प्रदेश है।
जहाँ पर किंचित् भी संस्तरण नहीं किया है अर्थात् कुछ भी नहीं बिछाया है वह अल्प असंस्तरित है, अथवा जहाँ पर अल्पवान संस्तर किया गया है जिससे बहुत संयम का विघात न हो ऐसे तृणमय, काष्ठमय, शिलामय और भूमिमय इन चार प्रकार के संस्तर में से किसी एक प्रकार का संस्तर किया गया है, ऐसा संस्तर जो कि गृहस्थ के योग्य प्रच्छादन से रहित है, अथवा जो अपने द्वारा बिछाया गया है अन्य के द्वारा नहीं, वह संस्तर यहाँ विवक्षित है।
अथवा जो ‘आत्मानं मिमीते’ आत्मा को मापता है अर्थात् अपने शरीर प्रमाण है ऐसा बिछाया गया संस्तर यहाँ विवक्षित है जोकि चारित्र के योग्य तृण आदिरूप है वह आत्मप्रमाण संस्तरित प्रदेश साधु के शयन के योग्य है। वह प्रच्छन्न होवे अर्थात् वहाँ पर स्त्री, पशु और नपुंसक लोग न होवें और असंयतजनों के आने–जाने से रहित हो ऐसे गुप्त-एकान्त प्रदेश साधु के शयन योग्य है। वहाँ पर दण्ड के समान शरीर को करके अर्थात् दण्डाकार या धनुष के समान सोना अथवा एक पसवाड़े से शयन करना-इन तीन प्रकार से सोने का विधान होने से यहाँ पर अधोमुख होकर या ऊपर मुख करके सोना नहीं चाहिए यह आशय है क्योंकि इसमें दोष देखे जाते हैं। उपर्युक्त विधि से शयन ही क्षितिशयन व्रत है। तात्पर्य यह हुआ कि चारित्र से अविरोधी ऐसे अल्प संस्तर को डाल करके अथवा संस्तर नहीं भी बिछा करके, अपने शरीर प्रमाण में अथवा अपने द्वारा बिछाए गये ऐसे संस्तरमय, एकान्तरूप प्रासुक भूमि–प्रदेश में दण्डरूप से, धनुषाकार से या एक पसवाड़े से जो मुनि का शयन करना है वह क्षितिशयन व्रत है।
प्रश्न-यह किसलिए कहा है ?
उत्तर-इन्द्रिय सुखों का परिहार करने के लिए, तप की भावना के लिए और शरीर आदि से नि:स्पृहता आदि के लिए यह भूमिशयन व्रत होता है। अर्थात् पृथ्वी पर सोने से या तृण–घास, पाटे आदि पर सोने से, कोमल–कोमल बिछौने आदि का त्याग हो जाने से इन्द्रियों का सुख समाप्त हो जाता है, तपश्चरण में भावना बढ़ती चली जाती है, शरीर से ममत्व का निरास होता है और भी अनेकों गुण प्रकट होते हैं।
अदंतधावन व्रत का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-अंगुली, नख, दांतोन और तृण विशेष के द्वारा, पत्थर या छाल आदि के द्वारा दाँत के मल का शोधन नहीं करना यह संयम की रक्षारूप अदन्तधावन व्रत है।।३३।।
अंगुलि–अंगुलि: हस्ताग्रावयव:। णह–नख: कररुह:। अवलेहणि–अवलिख्यते मलं निराक्रियतेऽनया सा अवलेखनी दन्तकाष्ठं। कलििंह–कलिस्तृणविशेष:, अत्र बहुवचनं द्रष्टव्यं प्राकृतलक्षणबलात्। अंगुलिनखाव-लेखनीकलयस्तै:। पासाणं–पाषाणं। छल्लि–त्वक वल्कलावयव:। पाषाणं च त्वक च पाषाणत्वचं तदादिर्येषां ते पाषाणत्वचादयस्तै: पाषाणत्वचादिभिश्च। आदिशब्देन खर्परखण्डतन्दुलवर्तिकादयो गृह्यन्ते। संजमगुत्ती–संयमगुप्ति:। दंतमलासोहणयं–दन्तानां मलं तस्याशोध-नमनिराकरणं दन्तमलाशोधनं। संजमगुत्ती–संयमस्य गुप्ति: संयमगुप्ति: संयमरक्षा इन्द्रियसंयमरक्षण-निमित्तम्। समुदायार्थ:–अंगुलिनखावलेखनीकलिभि: पाषाणत्वचादिभिश्च यदेतद्दन्तमलाशोधनं संयमगुप्तिनिमित्तं तददन्तमनव्रतं भवतीत्यर्थ:। किमर्थं वीतरागख्यापनार्थं सर्वज्ञाज्ञानुपालननिमित्तं चेति।।
स्थितिभोजनस्य स्वरूपं निरूपयन्नाह–
अंजलिपुडेण ठिच्चा कुड्डाइ विवज्जणेण समपायं२।
३पडिसुद्धे भूमितिए असणं ठिदिभोयणं णाम।।३४।।
आचारवृत्ति-अंगुली-हाथ के अग्रभाग का अवयव, नख, अवलेखनी-जिसके द्वारा मल निकाला जाता है वह दांतोन आदि, कलि-तृण विशेष,पत्थर और वृक्षों की छाल। यहाँ आदि शब्द से खप्पर के टुकड़े, चावल की बत्ती आदि ग्रहण की जाती हैं। इन सभी के द्वारा दाँतों का मल नहीं निकालना यह इन्द्रियसंयम की रक्षा के निमित्त अदंतधावन व्रत है। समुदाय अर्थ यह हुआ कि अंगुली, नख, दांतोन, तृण, पत्थर, छाल आदि के द्वारा जो दंतमल को दूर नहीं करना है वह संयमरक्षा निमित्त अदंतमनव्रत कहलाता है।
प्रश्न-यह किसलिए है ?
उत्तर-यह व्रत वीतरागता को बतलाने के लिए और सर्वज्ञदेव की आज्ञा के पालन हेतु कहा गया है।
स्थितिभोजन का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-दीवाल आदि का सहारा न लेकर जीव-जन्तु से रहित तीन स्थान की भूमि में समान पैर रखकर खड़े होकर दोनों हाथ की अंजली बनाकर भोजन करना स्थितिभोजन नाम का व्रत है।।३४।।
अंजलिपुडेण–अञ्जलिरेव पुटं अञ्जलिपुटं तेन अञ्जलिपुटेन पाणिपात्रेण स्वहस्तपात्रेण४। ठिच्चा–स्थित्वा उर्ध्वाध:५ स्वरूपेण नोपविष्टेन नापि सुप्तेन न तिर्यग्व्यवस्थितेन भोजनं कार्यमित्यर्थ:। ऊर्ध्वजंघ: संस्थाय। कुड्डाइविवज्जणेण–कुड्यमादिर्येषां ते कुड्यादयस्तेषां विवर्जनं परिहरणं कुड्यादिविवर्जनं तेन कुड्यादिविवर्जनेन भित्तिविभागस्तंभादीननाश्रित्य। समपायं–समौ पादौ यस्य क्रियाविशेषस्य तत्समपादं चतुरंगुलप्रमाणं पादयोरन्तरं कृत्वा स्थातव्यमित्यर्थ:। परिसुद्धे–परिशुद्धे जीववधादिविरहिते। भूमितिए–भूमित्रिके भूमेस्त्रिकं भूमित्रिकं तस्मिन् स्वपादप्रदेशोत्सृष्टपतनपरिवेषकप्रदेशे। असणं–अशनं आहारग्रहणम्। ठिदिभोयणं–स्थितस्य भोजनं स्थितिभोजनं नामसंज्ञकं भवति। परिशुद्धे भूमित्रिके कुडदिविवर्जनेनाञ्जलि–पुटेन समपादं यथा भवति तथा स्थित्वा यदेतदशनं क्रियते तत्स्थितिभोजनं नाम व्रतं भवतीति। समपादाञ्जलिपुटाभ्यां न सर्व: एकभक्तकाल: त्रिमुहूर्तमात्रोऽपि विशिष्यते किन्तु भोजनं मुनेर्विशिष्यते तेन त्रिमुहूर्तकालमध्ये यदा यदा भुङ्क्ते तदा तदा समपादं कृत्वा अञ्जलिपुटेन भुञ्जीत। यदि पुनर्भोजनक्रियायां प्रारब्धायां समपादौ न विशिष्यते अञ्जलिपुटं च न विशिष्यते हस्तप्रक्षालने कृतेऽपि तदानीं जानूपरिव्यतिक्रमो योऽयमन्तराय: पठित: स न स्यात्। नाभेरधो निर्गमनं योऽन्तराय: सो पि न स्यात्। अतो ज्ञायते त्रिमुहूर्तमध्ये एकत्र भोजनक्रियां प्रारभ्य केनचित् कारणान्तरेण हस्तौ प्रक्षाल्य मौनेनान्यत्र गच्छेत् भोजनाय यदि पुन: सोऽन्तरायो भुञ्जानस्यैकत्र भवतीति मन्यते जानूपरिव्यतिक्रमविशेषणमनर्थकं स्यात्। एवं विशेषणमुपादीयेत समपादयोर्मनागपि चलितयोरन्तराय: स्यात् नाभेरधो निर्गमनं दूरत एव न१ सम्भवतीति अन्तरायपरिहारार्थमनर्थकं ग्रहणं स्यात् तथा पादेन किञ्चित् ग्रहणमित्येवमादीन्यन्तरायख्यापकानि सूत्राण्यनर्थकानि स्यु:। तथाञ्जलिपुटं यदि न भिद्यते करेण किञ्चिद् ग्रहणमन्तरायस्य विशेषणमनर्थकं स्यात्। गृह्णातु वा मा वा अञ्जलिपुटभेदेन अन्तराय:स्यादित्येवमुच्यते। तथा जान्वध: परामर्श: सोऽप्यन्तरायस्य विशेषणं न स्यात्। एवमन्येऽपि अन्तराया न स्युरिति। न चैतेऽन्तराया: सिद्धभक्तावकृतायां गृह्यन्ते सर्वदैव भोजनाभाव: स्यात्। न चैवं, यस्मात्सिद्धभिंक्त यावन्न२ करोति तावदुपविश्य पुनरुत्थाय भुङ्क्ते। मांसादीन् दृष्ट्वा च रोदनादिश्रवणेन च उच्चारादींश्च कृत्वा भुङ्क्ते न च तत्र काकादििंपडहरणं३ सम्भवति। अथ किमर्थं स्थितिभोजनमनुष्ठीयते चेन्नैष दोष: यावद्धस्तपादौ मम संवहतस्तावदाहारग्रहणं योग्यं नान्यथेति ज्ञापनार्थं। मिथस्तस्य हस्ताभ्यां भोजनं उपविष्ट: सन् भाजनेनान्यहस्तेन वा न भुञ्जेऽहमिति प्रतिज्ञार्थं च, अन्यच्च स्वकरतलं शुद्धं भवति अन्तराये सति बहोर्विसर्जनं च न भवति अन्यथा पात्रीं सर्वाहारपूर्णां त्यजेत् तत्र च दोष: स्यात्। इन्द्रियसंयमप्राणसंयमप्रतिपालनार्थं च स्थितिभोजनमुक्तमिति।।
एकभक्तस्य स्वरूपं निरूपयन्नाह–
उदयत्थमणे काले णालीतियवज्जियम्हि मज्भकम्हि।
एकम्हि दुअ तिए वा मुहुत्तकालेयभत्तं तु।।३५।।
आचारवृत्ति-दीवाल का भाग या खंभे आदि का सहारा न लेकर, पैरों में चार अंगुल प्रमाण का अन्तर रखकर खड़े होकर अपने कर-पात्र में आहार लेना स्थितिभोजन है। यहाँ ‘खड़े होकर’ कहने से ऐसा समझना कि साधु न बैठकर आहार ले सकते हैं, न लेटकर, न तिरछे आदि स्थित होकर ही ले सकते हैं किन्तु दोनों पैरोें में चार अंगुल अन्तर से खड़े होकर ही लेते हैं। वे तीन स्थानों का निरीक्षण करके आहार करते हैं। अपने पैर रखने के स्थान को, उच्छिष्ट गिरने के स्थान को और परोसने वाले के स्थान को, जीवों के गमनागमन या वध आदि से रहित-विशुद्ध देखकर आहार ग्रहण करना होता है। उसका स्थितिभोजन नामक व्रत कहलाता है।
तात्पर्य यह है कि तीनों स्थानों को जीव-जन्तु रहित देखकर भित्ति आदि का सहारा न लेकर समपाद रखकर खड़े होकर अंजलिपुट से जो आहार ग्रहण किया जाता है वह स्थितिभोजन व्रत है।
समपाद और अंजलिपुट इन दो विशेषणों से तीन मुहूर्त मात्र भी एक भक्त का जो काल है वह संपूर्ण काल नहीं लिया जाता है किन्तु मुनि का भोजन ही इन विशेषणों से विशिष्ट होता है।
इससे यह अर्थ हुआ कि साधु जब–जब भोजन करते हैं तब–तब समपाद को करके अंजलिपुट से ही करते हैं। यदि पुन: भोजन क्रिया के आरंभ कर देने पर संपाद विशेष नहीं है और अंजलिपुट विशेष नहीं है तो हाथ के प्रक्षालन करने पर भी उस समय जानूपरिव्यतिक्रम नाम का जो अंतराय कहा गया है वह नहीं हो सकेगा और नाभि के नीचे निर्गमन नाम का जो अंतराय है वह नहीं हो सकेगा इसलिए यह जाना जाता है कि तीन मुहूर्त के मध्य एक जगह भोजन क्रिया को प्रारम्भ करके किसी अन्य कारण से हाथों को धोकर मौन से अन्यत्र भोजन के लिए जा सकते हैं। यदि पुन: वह अंतराय भोजन करते हुए के एक जगह होती है ऐसा मान लो तो जानूपरिव्यतिक्रम विशेषण अनर्थक हो जावेगा। Eिfकन्तु ऐसा विशेषण ग्रहण करना चाहिए था कि सम पैरों के किंचित् भी चलित होने पर अंतराय हो जावेगा, पुन: नाभि के नीचे से निकलनेरूप अंतराय दूर से ही संभव नहीं हो सकेगा इसलिए अंतराय परिहार के लिए है ऐसा ग्रहण अनर्थक ही हो जावेगा। उसी प्रकार से ‘ पैर से किंचित् ग्रहण करना ’ इत्यादि प्रकार के अंतरायों को कहने वाले सूत्र भी अनर्थक ही हो जावेंगे। तथा यदि अंजलिपुट नहीं छूटना चाहिए ऐसा मानेंगे तो ‘कर से किंचित् ग्रहण करनेरूप ’ अंतराय का विशेषण अनर्थक हो जायेगा। ग्रहण करो अथवा मत करो किन्तु अंजलिपुट के छूट जाने से अंतराय हो जावेगा ऐसा कहना चाहिए था। तथा जान्वध: परामर्श नामक जो अंतराय है वह भी नहीं बन सकेगा। इसी प्रकार से अन्य भी अंतराय नहीं हो सकेंगे।
सिद्धभक्ति के नहीं करने पर ये अंतराय ग्रहण किये जाते हैं ऐसा भी नहीं कह सकते हैं अन्यथा हमेशा ही भोजन का अभाव हो जावेगा। किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि जब तक सिद्धभक्ति को नहीं करते हैं तब तक बैठे रहकर पुन: खड़े होकर भोजन करते हैं। मांस आदि को देखकर, रोना आदि सुनकर अथवा मलमूत्र आदि विसर्जन करके भोजन करते हैं और वहाँ पर काक आदि के द्वारा पिण्ड ग्रहण अंतराय भी संभव नहीं है।
प्रश्न-पुन: किसलिए स्थितिभोजन का अनुष्ठान किया जाता है ?
उत्तर-यह दोष नहीं है, क्योंकि जब तक मेरे हाथ-पैर चलते हैं तब तक ही आहार ग्रहण करना योग्य है अन्यथा नहीं, ऐसा सूचित करने के लिए मुनि खड़े होकर आहार ग्रहण करते हैं। बैठकर दोनों हाथों से या बर्तन में लेकर या अन्य के हाथ से मैं भोजन नहीं करूँगा ऐसी प्रतिज्ञा के लिए भी खड़े होकर आहार करते हैं और दूसरी बात यह भी है कि अपना पाणिपात्र शुद्ध रहता है तथा अंतराय होने पर बहुत सा भोजन छोड़ना नहीं पड़ता है अन्यथा थाली में खाते समय अंतराय हो जाने पर पूरी भोजन से भरी हुई थाली को छोड़ना पड़ेगा, इसमें दोष लगेगा। तथा इन्द्रिय संयम और प्राणीसंयम का परिपालन करने के लिए भी स्थितिभोजन मूलगुण कहा गया है ऐसा समझना।
एकभक्त का स्वरूप निरूपण करते हुए कहते हैं-
गाथार्थ-उदय और अस्त के काल में से तीन–तीन घड़ी से रहित मध्यकाल के एक, दो अथवा तीन मुहूर्त काल में एक बार भोजन करना यह एकभक्त मूलगुण है।।३५।।
उदयत्थमणे–उदयश्चास्तमनं च उदयास्तमने तयो: सवितुरुदयास्तमनयो:। काले–कालयो:, अथवा उदयास्तमनकालौ द्वितीयान्तौ द्रष्टव्यौ। णालीतियवज्जियम्हि–नाड्या घटिकायास्त्रिकं नाडीत्रिकं तेन नाडीत्रिकेण वर्जितं नाडीत्रिकवर्जितं तस्मिन् घटिकात्रिकवर्जिते। मज्झम्हि–मध्ये। एक्कम्हि–एकस्मिन्। दुअ–द्वयो:। तिए वा–त्रिषु वा। मुहुत्तकाले–मुहूर्तकाले। एयभत्तं तु–एकभक्तं तु। उदयकालं नाडीत्रिकप्रमाणं वर्जयित्वा। अस्तमनकालं च नाडीत्रिकप्रमाणं वर्जयित्वा शेषकालमध्ये एकस्मिन् मुहूर्ते द्वयोर्मुहूर्तयोस्त्रिषु वा मुहूर्तेषु यदेतदशनं तदेकभक्तसंज्ञकं व्रतमिति पूर्वगाथासूत्रादशनमनुवर्तते तेन सम्बन्ध इति। अथवा नाडीत्रिकप्रमाणे उदयास्तमनकाले च वर्जिते महाकाले त्रिषु मुहूर्तेषु भोजनक्रियाया या निष्पत्तिस्तदेकभक्तमिति। अथवा अहोरात्रमध्ये द्वे भक्तवेले तत्र एकस्यां भक्तवेलायां आहारग्रहणमेकभक्तमिति। एकशब्द: संख्यावचन: भक्तशब्दोऽपि कालवचन इति। एकभक्तैकस्थानयो: को विशेष इति चेन्न पादविक्षेपाविक्षेपकृतत्वाद्विशेषस्य, एकस्मिन् स्थाने त्रिमुहूर्तमध्ये पादविक्षेपमकृत्वा भोजनमेकस्थानं, त्रिमुहूर्तकालमध्ये एकक्षेत्रावधारण रहिते भोजनमेकभक्तमिति। अन्यथा मूलगुणोत्तरगुणयोरविशेष: स्यात् न चैवं प्रायश्चित्तेन विरोध: स्यात्। तथा चोक्तं प्रायश्चित्तग्रन्थेन, ‘एकस्थानमुत्तरगुण: एकभक्तं तु मूलगुण’ इति। तत्किमर्थमिति १चेन्न इन्द्रियजयनिमित्तं, आकांक्षानिवृत्त्यर्थं, महापुरुषाचरणार्थं चेति। किमर्थं महाव्रतानां भेद इति चेन्न, छेदोपस्थापन-शुद्धिसंयमाश्रयणात्। नापि महाव्रतसमितीनामभेद: सचेष्टाचेष्टाचरणविशेषाश्रयणात्। नाप्यात्मदु:खार्थमेतत् अन्यथार्थत्वात् भिषक्क्रियावदिति। अथ तपसां गुप्तीनां च क्वान्तर्भाव इति प्रश्ने उत्तरमाह-अनशन नाम अशनत्याग: स च त्रिप्रकार:। मनसा च न भुञ्जे न भोजयामि, भोजने व्यापृतस्य नानुमति करोमि भुञ्जे भुङ्क्ष्व वचसा न भणामीति चतुर्विधाहारस्याभिसन्धिपूर्वकं कायेनादानं न करोमि हस्तसंज्ञया प्रवर्तनं न करोमि नानुमतिसूचनं कायेन करोमि इत्येवं मनोवाक्कायक्रियाणां कर्मोपादानकारणानां त्यागोऽनशनं नाम। तथा योगत्रयेण तृप्तिकारिण्या भुजिक्रियाया दर्पवाहिन्या निराकृतिरवमोदर्यं। तथा आहारसंज्ञाया जय: गृहादिगणनान्यायेन वृत्तिपरिसंख्यानं। तथा मनोवाक्कायक्रियाभीरसगोचरगार्द्धत्यजनं रसपरित्याग:। काये सुखाभिलाषत्यजन कायक्लेश:। चित्तव्याकुलतापराजयो विविक्तशयनासनम्। स्वकृतापराधगूहनत्यजनं आलोचना। स्वकृतादशुभयोगात्प्रतिनिवृत्ति: प्रतिक्रमणं। तदुभयोज्झनमुभयम्। येन यत्र वा अशुभयोगोऽभूत् तन्निराक्रिया१ ततोऽपगमनं विवेक:। देहे ममत्वनिरास: कायोत्सर्ग:। तपोऽनशनादिकम्। असंयमजुगुप्सार्थं प्रव्रज्याहापनं छेद:। पुनश्चारित्रादानं मूलं। कालप्रमाणेन चतुर्वर्ण्यश्रमण-संघाद्वहिष्करणं परिहार:। विपरीतं गतस्य मनस: निवर्तनं श्रद्दधानं, दर्शनज्ञानचारित्रतपसामतीचारो२ अशुभक्रियास्तासामपोहनं विनय:। चारित्रस्य कारणानुमननं वैयावृत्त्यम्। अंगपूर्वाणां सम्यक् पठनं स्वाध्याय:। शुभविषये एकाग्रचिन्तानिरोधनं ध्यानम्। सावद्ययोगेभ्य आत्मनो गोपनं गुप्ति:। सा च मनोवाक्कायक्रियाभेदात्त्रिप्रकारा। एतेषां सर्वेषां तपसां गुप्तीनां च नित्ययुक्तानां च मूलगुणेष्वेवान्तर्भाव:। कादाचित्कानां चोत्तरगुणेष्वन्तर्भाव इति, तथा सम्यक्त्वज्ञान-चारित्राणामपि मूलगुणेष्वन्तर्भावस्तैर्विना तेषामभावादिति।।
मूलगुणफलप्रतिपादनार्थोपसंहारगाथामाह–
एवं विहाणजुत्ते मूलगुणे पालिऊण तिविहेण।
होऊण जगदि पुज्जो अक्खयसोक्खं लहइ मोक्खं।।३६।।
एवं–अनेन प्रकारेण। विहाणजुत्ते–विधानयुक्तान् पूर्वोक्तक्रमभेदभिन्नान् सम्यक्त्वाद्यनुष्ठानपूर्वकान्। मूलगुणे–मूलगुणान् पूर्वोक्तलक्षणान्। पालिऊण–पालयित्वा सम्यगनुष्ठाय आचर्य। तिविहेण–त्रिविधेन मनसा वचसा कायेन वा। होऊण–भूत्वा। जगदिपूज्जो–जगति लोके पूज्योऽर्चनीय:। अक्खयसोक्खं–अक्षयसौख्यं व्याघातरहितं। लभइ–लभते प्राप्नोति। मोक्खं–मोक्षं अष्टविधकर्मापायोत्पन्नजीवस्वभावम्।।
इत्याचारवृत्तौ वसुनंदिविरचितायां प्रथम: परिच्छेद:।।१।।
आचारवृत्ति-सूर्योदय के बाद तीन घड़ी और सूर्यास्त के पहले तीन घड़ी काल को छोड़कर शेषकाल के मध्य में एक मुहूर्त, दो मुहूर्त या तीन मुहूर्त पर्यंत जो आहार ग्रहण हैं वह एकभक्त नाम का व्रत है। इस प्रकार से पूर्वगाथा सूत्र में ‘अशन’ शब्द है, उसका यहाँ सम्बन्ध किया गया है। अथवा तीन घड़ी प्रमाण सूर्योदय काल और तीन घड़ी प्रमाण सूर्यास्त काल को छोड़कर मध्य काल में तीन मुहूर्त तक जो भोजन क्रिया की निष्पत्ति-पूर्ति है वह एकभक्त है। अथवा अहोरात्र में भोजन की दो बेला होती हैं उसमें एक भोजन बेला में आहार ग्रहण करना एकभक्त है। यहाँ पर एक शब्द संख्यावाची है और भक्त शब्द कालवाची है ऐसा समझना।
प्रश्न-एक भक्त और एक स्थान में क्या अंतर है ?
उत्तर-पाद विक्षेप करना और पाद विक्षेप न करना यही इन दोनों में अंतर है। तीन मुहूर्त के बीच में एक स्थान में खड़े होकर अर्थात् चरण विक्षेप न करके भोजन करना एक स्थान है और तीन मुहूर्त के काल में एक क्षेत्र की मर्यादा न करते हुए भोजन करना एकभक्त है। यदि ऐसा नहीं मानोगे तो मूलगुण और उत्तर- गुण में कोई अन्तर नहीं रहेगा, किन्तु ऐसा है नहीं, नहीं तो प्रायश्चित्त शास्त्र से विरोध आ जायेगा, उसमें कहा हुआ था कि एकस्थान उत्तरगुण है और एकभक्त मूलगुण है।
ऐसा भेद क्यों है ?
इन्द्रियों को जीतने के लिए, आकांक्षा का त्याग करने के लिए और महापुरुषों के आचरण के लिए ही भेद है।
महाव्रतों में भेद क्यों हैं ?
छेदोपस्थापना शुद्धि नामक संयम के आश्रय से यह भेद है। महाव्रत और समिति में भी अभेद नहीं है, क्योंकि क्रियात्मक और अक्रियात्मक आचरण विशेष देखा जाता है अर्थात् समिति क्रियारूप हैं उनमें यत्नाचारपूर्वक गमन करना, बोलना आदि होता है और महाव्रत अक्रियारूप हैं क्योंकि वे परिणामात्मक हैं। ये महाव्रत, समिति आदि आत्मा को दु:ख देने वाले हैं ऐसा भी नहीं समझना क्योंकि वैद्य की शल्यक्रिया के समान ये दु:ख से विपरीत अन्यथा अर्थ वाले ही हैं अर्थात् जैसे वैद्य रोगी के फोड़े को चीरता है तो वह आपरेशन तत्काल में दु:खप्रद दिखते हुए भी उसके स्वास्थ्य के लिए है, वैसे ही इन महाव्रत समितियों के अनुष्ठान में तत्काल में भले ही दु:ख दीखे, किन्तु ये आत्मा को स्वर्ग-मोक्ष के लिए होने से सुखप्रद ही हैं।
प्रश्न-तपों का और गुप्तियों का कहाँ पर अन्तर्भाव होता है ?
उत्तर-नित्य युक्त-नित्य करने योग्य तप और गुप्तियों का मूलगुणों में अन्तर्भाव हो जाता है और कादाचित्क-कभी–कभी करने योग्य इनका उत्तरगुणों में अन्तर्भाव होता है तथा सम्यग्दर्शन-ज्ञान–चारित्र का भी मूलगुणों में ही अन्तर्भाव माना है, क्योंकि इनके बिना मूलगुण ही नहीं होते हैं।
तप और गुप्तियों का संक्षिप्त लक्षण-
तप के बारह भेद हैं। अनशन, अवमौदर्य आदि छह बाह्य तप हैं और प्रायश्चित, विनय आदि छह अभ्यन्तर तप हैं।
भोजन का त्याग करना अनशन है, उसके तीन प्रकार हैं-मैं मन से भोजन नहीं करता हूँ, न अन्य को कराता हूँ और न भोजन करते हुए अन्य को अनुमोदना ही देता हूँ। तुम भोजन करो ऐसा वचन से नहीं कहता हूँ, न कहलाता हूँ और न अनुमोदना ही देता हूँ। चार प्रकार के आहार को अभिप्रायपूर्वक काय से न मैं ग्रहण करता हूँ, न हाथ के इशारे से प्रवृत्ति करता हूँ और न काय से अनुमति की सूचना करता हूँ। इस प्रकार से कर्मों के ग्रहण में कारणभूत ऐसी मन, वचन और काय की क्रियाओं का त्याग करना ही अनशन नाम का तप है। (इन्द्रियों की) तृप्ति और दर्प (प्रमाद) को करने वाले भोजन का मन, वचन, काय से त्याग करना अर्थात् भूख से कम खाना अवमौदर्य तप है। गृह आदि की संख्या के न्याय से अर्थात् गृहपात्र आदि नियम विशेष करके आहार संज्ञा को जीतना वृत्तिपरिसंख्यान तप है। मन-वचन-काय से रसविषयक गृद्धि का त्याग करना रसपरित्याग तप है। शरीर में सुख की अभिलाषा का त्याग करना कायक्लेश तप है।
चित्त की व्याकुलता को जीतना अर्थात् चित्त की व्याकुलता के कारणभूत स्त्री, पशु, नपुंसक आदि जहाँ नहीं हैं ऐसे विविक्त-एकान्त स्थान में सोना, बैठना यह विविक्तशयनासन तप है।
ये छह प्रकार के बाह्य तप हैं। अभ्यन्तर तप में पहला तप प्रायश्चित्त है उसके दश भेद हैं।
उनका वर्णन कर रहे हैं-
स्वयं किये हुए अपराध नहीं छुपाना आलोचना है।
अपने द्वारा किये हुए अशुभ योग की प्रवृत्तियों से हटना प्रतिक्रमण है।
आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों करना तदुभय तप है।
जिससे अथवा जिसमें अशुभयोग हुआ हो उस वस्तु का छोड़ना विवेक है।
शरीर से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है।
अनशन अर्थात् उपवास आदि तपों का अनुष्ठान करना तप प्रायश्चित्त है।
असंयम से ग्लानि उत्पन्न होने पर दीक्षा के दिन, मास आदि कम करना छेद है।
पुन: चारित्र अर्थात् दीक्षा ग्रहण करना मूल है।
कुछ काल के प्रमाण से चतुर्विध श्रमणसंघ से साधु का बहिष्कार कर देना परिहार प्रायश्चित्त है।
विपरीत-मिथ्यात्व को प्राप्त हुए मन को वापस लौटाकर सम्यक्त्व में स्थिर करना श्रद्धान प्रायश्चित्त है। ये प्रायश्चित्त तप के दश भेद हुए।
अब अन्य विनय आदि अभ्यन्तर तपों को कहते हैं-
दर्शन ज्ञान चारित्र और तप में अतिचाररूप जो अशुभ क्रियाएँ हैं उनका त्याग करना विनय है।
चारित्र के कारणों का अनुमनन करना वैयावृत्य है।
अंग और पूर्व का सम्यक् पढ़ना स्वाध्याय है।
शुभ विषय में एकाग्र चिन्ता का निरोध करना अर्थात् चित्त को स्थिर करना ध्यान है।
इस प्रकार बारह विध तपों का वर्णन हुआ।
अब गुप्ति को कहते हैं-
सावद्य अर्थात् पाप योग से आत्मा का गोपन-रक्षण करना गुप्ति है। इसके मन, वचन और काय की क्रिया के भेद से तीन भेद हो जाते हैं। अर्थात् सावद्य परिणामों से मन को रोकना मनोगुप्ति है, सावद्य वचनों को नहीं बोलना वचनगुप्ति और सावद्य काययोग से बचना कायगुप्ति है। नित्ययुक्त ये तप और गुप्तियाँ मूलगुणों में गर्भित हैं और नैमित्तिकरूप ये उत्तरगुणों में गर्भित हैं। उसी प्रकार सम्यग्दर्शन-ज्ञान–चारित्र भी मूलगुणों में अन्तर्भूत हैं क्योंकि इनके बिना मूलगुण हो ही नहीं सकते।
अब मूलगुणों का फल प्रतिपादन करने के लिए उपसंहाररूप गाथा कहते हैं-
गाथार्थ-उपर्युक्त विधान से सहित मूलगुणों को मन, वचन, काय से पालन करके मनुष्य जगत् में पूज्य होकर अक्षय सुखरूप मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।।३६।।
आचारवृत्ति-पूर्वोक्त क्रम से भेदरूप तथा सम्यक्त्व आदि अनुष्ठानपूर्वक मूलगुणों को मन, वचन, काय से पालन करके साधु इस जगत् में अर्चनीय हो जाता है और आगे बाधारहित अक्षयसुखमय और अष्टविध कर्मों के अभाव से उत्पन्न हुए जीव के स्वभावरूप मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
इस प्रकार आचार्य श्री कुंदकुंद स्वामी ( अपर नाम वट्टकेर ) कृत मूलाचार ग्रन्थ की वसुनन्दि आचार्य विरचित
आचारवृत्ति नामक टीका में मूलगुण नामक प्रथम परिच्छेद पूर्ण हुआ।