सकल वाङ्मय द्वादशांगरूप है। उसमें सबसे प्रथम अंग का नाम आचारांग है और यह संपूर्ण श्रुतस्कंध का आधारभूत ‘श्रुतस्कंधाधारभूतं’१ है। समवसरण में भी बारह सभाओं में से सर्वप्रथम सभा में मुनिगण रहते हैं। उनकी प्रमुखता करके भगवान् की दिव्यध्वनि में से प्रथम ही गणधरदेव आचारांग नाम से रचते हैं। इस अंग की १८ हजार प्रमाण पद संख्या मानी गयी है। श्री कुंदकुंद स्वामी ने चौदह सौ गाथाओं में आचार ग्रंथ के रूप में मूलाचार ग्रन्थ की रचना की है। उस मूलाचार ग्रंथ के ऊपर टीकाकार श्री वसुनन्दी सिद्धान्तचक्रवर्ती ने इस ग्रन्थ की बारह हजार श्लोक प्रमाण बृहत् टीका लिखी है।
यह ग्रन्थ १२ अधिकारों में विभाजित है-
१. मूलगुणाधिकार-इस अधिकार में मूलगुणों के नाम बतलाकर पुन: प्रत्येक का लक्षण अलग-अलग गाथाओं में बतलाया गया है। अनन्तर इन मूलगुणों को पालन करने से क्या फल प्राप्त होता है यह निर्दिष्ट है। टीकाकार ने मंगलाचरण की टीका में ही कहा है-
‘मूलगुणै: शुद्धिस्वरूपं साध्यं, साधनमिदं मूलगुणशास्त्रं’-इन मूलगुणों से आत्मा का शुद्धस्वरूप साध्य है और यह मूलाचार शास्त्र उसके लिए साधन है।
२. बृहत् प्रत्याख्यान-संस्तरस्तवाधिकार-इस अधिकार में पापयोग के प्रत्याख्यान-त्याग करने का कथन है। संक्षेप में संन्यासमरण के भेद और उनके लक्षण को भी लिया है।
३. संक्षेप प्रत्याख्यानाधिकार-इसमें अति संक्षेप में पापों के त्याग का उपदेश है। दश प्रकार मुण्डन का भी अच्छा वर्णन है।
४. सामाचाराधिकार-प्रात:काल से रात्रिपर्यंत-अहोरात्र साधुओं की चर्या का नाम ही सामाचार चर्या है। इसके औघिक और पद-विभागी ऐसे दो भेद किये गये हैं। उनमें भी औघिक के १० भेद और पद-विभागी के अनेक भेद किये हैं। इस अधिकार में आजकल के मुनियों को एकलविहारी होने का निषेध किया है। इसमें आर्यिकाओं की चर्या का कथन तथा उनके आचार्य कैसे हों, इस पर भी अच्छा प्रकाश डाला गया है।२
५. पंचाचाराधिकार-इसमें दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तप आचार और वीर्याचार इन पाँचों आचारों का बहुत ही सुन्दर विवेचन है।
६. पिंडशुद्धि-अधिकार-इस अधिकार में उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजना, प्रमाण, अंगार, धूम और कारण इन आठ दोषों से रहित पिण्डशुद्धि होती है। उद्गम के १६, उत्पादन के १६, एषणा के १०, इस प्रकार ४२ दोष हुए। पुन: संयोजना, प्रमाण, अंगार और धूम ये ४ मिलकर ४६ दोष होते हैं। मुनिजन इन दोषों को टालकर, ३२ अन्तरायों को छोड़कर आहार लेते हैं। किन कारणों से आहार लेते हैं, किन कारणों से छोड़ते हैं इत्यादि का इसमें विस्तार से कथन है।
७. षडावश्यकाधिकार-इसमें ‘आवश्यक’ शब्द का अर्थ बतलाकर समता, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छह आवश्यक क्रियाओं का विस्तार से वर्णन है।
८. द्वादशानुप्रेक्षाधिकार-इसमें बारह अनुप्रेक्षाओं का वर्णन है। लोकानुप्रेक्षा को आचार्य ने छठी अनुप्रेक्षा में लिया है। सप्तम अनुप्रेक्षा का नाम अशुभ अनुप्रेक्षा रखा है और आगे उसी अशुभ का लक्षण किया है। इन अनुप्रेक्षाओं के क्रम का मैंने पहले खुलासा कर दिया है।
९. अनगारभावनाधिकार-इसमें मुनियों की उत्कृष्ट चर्या का वर्णन है। लिंग, व्रत, वसति, विहार, भिक्षा, ज्ञान, शरीर-संस्कार-त्याग, वाक्य, तप और ध्यान सम्बन्धी दश शुद्धियों का अच्छा विवेचन है तथा अभ्रावकाश आदि योगों का भी वर्णन है।
१०. समयसाराधिकार-इसमें चारित्रशुद्धि के हेतुओं का कथन है। चार प्रकार के लिंग का और दश प्रकार के स्थितिकल्प का भी अच्छा विवेचन है। ये हैं-१. अचेलकत्व, २. अनौद्देशिक, ३. शय्यागृहत्याग, ४. राजपिंडत्याग, ५. कृतिकर्म, ६. व्रत, ७. ज्येष्ठता, ८. प्रतिक्रमण, ६. मासस्थिति कल्प और
१०. पर्यवस्थितिकल्प हैं।
११. शीलगुणाधिकार-इसमें १८ हजार शील के भेदों का विस्तार है। तथा ८४ लाख उत्तरगुणों का भी कथन है।
१२. पर्याप्त्यधिकार-जीव की छह पर्याप्तियों को बताकर संसारी जीव के अनेक भेद-प्रभेदों का कथन किया है, क्योंकि जीवों के नाना भेदों को जानकर ही उनकी रक्षा की जा सकती है। अनन्तर कर्म प्रकृतियों के क्षय का विधान है, क्योंकि मूलाचार ग्रन्थ के पढ़ने का फल मूलगुणों को ग्रहण करके अनेक उत्तरगुणों को भी प्राप्त करना है। पुन: तपश्चरण और ध्यान विशेष के द्वारा कर्मों को नष्ट कर देना ही इसके स्वाध्याय का फल है।
यह तो मूलाचार ग्रन्थ के १२ अधिकारों का दिग्दर्शन मात्र है। इसमें कितनी विशेषताएं हैं, वे सब इसके स्वाध्याय से और पुन: पुन: मनन से ही ज्ञात हो सकेंगी। फिर भी उदाहरण के तौर पर दो-चार विशेषताओं का यहाँ उल्लेख कर देना अप्रासंगिक नहीं होगा-
एकल विहार का निषेध-
इस मूलाचार में आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने यह बताया है कि कौन से मुनि एकाकी विहार कर सकते हैं-
‘‘जो बारह प्रकार के तपों में तत्पर रहते हैं, द्वादश अंग और चौदह पूर्वरूप श्रुत के ज्ञाता हैं अथवा काल-क्षेत्र के अनुरूप आगम के वेत्ता हैं और प्रायश्चित्त शास्त्र में कुशल हैं, जिनका शरीर भी बलशाली है, जो शरीर में निर्मोही हैं और एकत्व भावना को सदा भाते रहते हैं, जिनके सदा शुभ परिणाम रहते हैं, वङ्कावृषभ आदि उत्तमसंहनन होने से जिनकी हड्डियाँ मजबूत हैं, जिनका मनोबल श्रेष्ठ है, जो क्षुधा आदि परीषहों के जीतने में समर्थ हैं, ऐसे महामुनि ही एकल बिहारी हो सकते हैं।’’
इससे अतिरिक्त, कौन से मुनि एकल विहारी नहाR हो सकते हैं-‘‘जो स्वच्छन्द गमनागमन करता है, जिसकी-उठना, बैठना, सोना आदि प्रवृत्तियाँ स्वच्छन्द हैं, जो आहार ग्रहण करने में एवं किसी भी वस्तु के उठाने-धरने और बोलने में स्वैर है ऐसा मेरा शत्रु भी एकाकी न रहे।’’
अकेले रहने से हानि क्या है, इसका उल्लेख करते हुए आचार्य लिखते हैं-
‘‘गुरु निन्दा, श्रुत का विच्छेद, तीर्थ की मलिनता, जड़ता, आकुलता, कुशीलता और पार्श्वस्थता आदि दोष हो जाते हैं और फिर कण्टक, शत्रु, चोर, क्रूर पशु, सर्प, म्लेच्छ मनुष्य आदि से संकट भी आ जाते हैं। रोग, विष आदि से अपघात भी सम्भव है। एकल विहारी साधु के और भी दोष होते हैं-जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का उलंघन, अनवस्था-और भी साधुओं का देखा-देखी एकलविहारी हो जाना, मिथ्यात्व का सेवन, अपने सम्यग्दर्शन आदि का विनाश अथवा अपने कार्य-आत्मकल्याण का विनाश, संयम की विराधना आदि दोष भी सम्भव हैं। अत: इस पंचमकाल में साधु को एकलविहारी नहीं होना चाहिए।’’
इसी मूलाचार ग्रन्थ के समयसार अधिकार में ऐसे एकलविहारी को ‘पापश्रमण’ कहा है-‘जो आचार्य के कुल को अर्थात् संघ को छोड़कर एकाकी विहार करता है और उपदेश को नहीं मानता है, वह ‘पापश्रमण’ कहलाता है।’
संघ में पाँच आधार माने गये हैं-
‘‘आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर। जहाँ ये नहीं हैं, वहाँ नहीं रहना चाहिए। जो शिष्यों के ऊपर अनुग्रह करते हैं वे आचार्य हैं। जो धर्म का उपदेश देते हैं वे उपाध्याय हैं। जो संघ का प्रवर्तन करते हैं वे प्रवर्तक हैं। जो मर्यादा का उपदेश देते हैं वे स्थविर हैं और जो गण की रक्षा करते हैं वे गणधर हैं।’’
तीर्थंकर के समवसरण में जो गणधर होते हैं यहाँ उन्हें नहीं लेना है। वे द्वादशांग के ज्ञाता होते हैं। उन गणधरों के बिना तो भगवान की दिव्यध्वनि ही नहीं खिरती है।
‘‘ये मूलगुण और यह जो सामाचार विधि मुनियों के लिए बतलायी गयी है वह सर्वचर्या ही अहोरात्र यथायोग्य आर्यिकाओं को भी करने योग्य है। यथायोग्य यानी उन्हें वृक्षमूल, आतापन आदि योग वर्जित किये हैं।’’ उनके लिए दो साड़ी का तथा बैठकर करपात्र में आहार करने का विधान है।
अच्छे साधु भगवान् हैं-सुस्थित अर्थात् अच्छे साधु को ‘भगवान्’ संज्ञा दी है-
भिक्खं वक्कं हिययं, साधिय जो चरदि णिच्च सो साहू।
एसो सुट्ठिद साहू, भणिओ जिणसासणे भयवं३।।१००६।।
जो आहार शुद्धि, वचनशुद्धि और मन की शुद्धि को रखते हुए सदा ही चारित्र का पालन करता है, जैनशासन में ऐसे साधु की ‘भगवान्’ संज्ञा है। अर्थात् ऐसे महामुनि चलते-फिरते भगवान् ही हैं।
मुनियों के अहोरात्र किये जाने वाले कृतिकर्म का भी विवेचन है-
चत्तारि पडिक्कमणे किदियम्मा तिण्णि होंति सज्झाए।
पुव्वण्हे अवरण्हे किदियम्मा चोद्दसा होंति।।६०२।।
अर्थात् चार प्रतिक्रमण में और तीन स्वाध्याय में इस प्रकार सात कृतिकर्म हुए, ऐसे पूर्वाह्न और अपराह्न के चौदह कृतिकर्म होते हैं।
टीकाकार श्री वसुनन्दि आचार्य ने इन कृतिकर्म को स्पष्ट किया है-‘‘पिछली रात्रि में प्रतिक्रमण में चार कृतिकर्म, स्वाध्याय में तीन और देववंदना में दो, सूर्योदय के बाद स्वाध्याय के तीन, मध्याह्न देववन्दना के दो, इस प्रकार पूर्वाह्न सम्बन्धी कृतिकर्म चौदह हो जाते हैं। पुन: अपराह्न वेला में स्वाध्याय के तीन, प्रतिक्रमण के चार, देववन्दना के दो, रात्रियोग ग्रहण सम्बन्धी योगभक्ति का एक और प्रात: रात्रियोग निष्ठापन सम्बन्धी एक ऐसे दो और पूर्व रात्रिक स्वाध्याय के तीन, ये अपराह्न के चौदह कृतिकर्म हो जाते हैं। पूर्वाह्न के समीप काल को पूर्वाह्न और अपराह्न के समीप काल को अपराह्न शब्द से लिया जाता है।’’
इस प्रकार मुनियों के अहोरात्र सम्बन्धी २८ कृतिकर्म होते हैं जो अवश्य करणीय हैं। इनका विशेष खुलासा इस प्रकार है-
साधु पिछली रात्रि में उठकर सर्वप्रथम ‘अपररात्रिक’ स्वाध्याय करते हैं। उसमें स्वाध्याय प्रतिष्ठापन क्रिया में लघु श्रुतभक्ति और लघु आचार्यभक्ति होती हैं। पुन: स्वाध्याय निष्ठापन क्रिया में मात्र लघु श्रुतभक्ति की जाती है। इसलिए इन तीन भक्ति सम्बन्धी तीन कृतिकर्म होते हैं। पुन: ‘रात्रिक प्रतिक्रमण’ में चार कृतिकर्म हैं। इसमें सिद्धभक्ति, प्रतिक्रमणभक्ति, वीरभक्ति और चतुर्विंशतितीर्थंकर भक्ति सम्बन्धी चार कृतिकर्म हैं। पुन: रात्रियोग निष्ठापना हेतु योगिभक्ति का एक कृतिकर्म होता है। अनन्तर ‘पौर्वाह्निक देववन्दना’ में चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति के दो कृतिकर्म होते हैं। इसके बाद पूर्वाह्न के स्वाध्याय में तीन कृतिकर्म, मध्याह्न की देववंदना में दो, पुन: अपराह्न के स्वाध्याय में तीन और दैवसिक प्रतिक्रमण में चार, रात्रियोग प्रतिष्ठापना में योगभक्ति का एक, अनन्तर अपराह्लिक देववन्दना के दो और पूर्व रात्रिक स्वाध्याय के तीन कृतिकर्म होते हैं। सब मिलकर
२८ कृतिकर्म हो जाते हैं। अनगारधर्मामृत आदि में भी इस प्रकरण का उल्लेख है। कृतिकर्म की विधि-
दोणदं तु जधाजादं बारसावत्तमेव च।
चदुस्सिरं तिसुद्धं च किदियम्मं पउंजदे।।
अर्थात् यथाजात मुनि मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक दो प्रणाम, बारह आवर्त और चार शिरोनति सहित कृतिकर्म को करे।
कृतिकर्म विधि-किसी भी क्रिया के प्रारम्भ में प्रतिज्ञा की जाती है, पुन: पंचांग नमस्कार करके, खड़े होकर तीन आवर्त और एक शिरोनति करके सामायिक दण्डक पढ़ा जाता है, पुन: तीन आवर्त एक शिरोनति करके सत्ताइस उच्छ्वास में नौ बार णमोकार मन्त्र पढ़ते हुए कायोत्सर्ग करके, पुन: पंचांग नमस्कार किया जाता है। पुन: खड़े होकर तीन आवर्त, एक शिरोनति करके जिस भक्ति के लिए प्रतिज्ञा की थी वह भक्ति पढ़ी जाती है। इस तरह एक भक्ति सम्बन्धी कायोत्सर्ग में प्रतिज्ञा के बाद और कायोत्सर्ग के बाद दो बार पंचांग नमस्कार करने से दो प्रणाम हुए। सामायिक दण्डक के प्रारम्भ और अन्त में तथा थोस्सामि स्तव के प्रारम्भ और अन्त में तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति करने से बारह आवर्त और चार शिरोनति हो गयीं। यह एक कृतिकर्म का लक्षण है, अर्थात् एक कृतिकर्म में इतनी क्रियाएँ करनी होती हैं। इसका प्रयोग इस प्रकार है-
‘‘अथ पौर्वाण्हिक देववंदनायां……चैत्यभक्ति३ कायोत्सर्गं करोम्यहम्’’।
यह प्रतिज्ञा करके पंचांग या साष्टांग नमस्कार करना, पुन: खड़े होकर तीन आवर्त और एक शिरोनति करके सामायिक पढ़ना चाहिए, जो इस प्रकार है-
णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं।।
चत्तारि मंगलं-अरहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहू मंगलं, केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा-अरहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा। चत्तारि सरण पव्वज्जामि-अरहंत सरणं पव्वज्जामि, सिद्ध सरणं पव्वज्जामि, साहू सरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि।
अड्ढाइज्जदीवदो समुद्देसु पण्णारसकम्मभूमिसु जाव अरहंताणं भयवंताणं आदियराणं तित्थयराणं जिणाणं जिणोत्तमाणं केवलियाणं, सिद्धाणं, बुद्धाणं, परिणिव्वुदाणं, अंतयडाणं, पारयडाणं, धम्माइरियाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मणायगाणं, धम्मवरचाउरंगचक्कवट्टीणं, देवाहिदेवाणं, णाणाणं, दंसणाणं, चरित्ताणं सदा करेमि किरियम्मं। करेमि भंत्ते! सामायियं सव्वसावज्जजोगं पच्चक्खामि जावज्जीवं तिविहेण मणसा वचसा काएण ण करेमि ण कारेमि कीरंतं पि ण समणुमणामि, तस्स भंत्ते! अइचारं पच्चक्खामि णिंदामि गरहामि अप्पाणं, जाव अरहंताणं, भयवंताणं, पज्जुवासं करेमि तावकालं पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि।
(इतना पढ़कर तीन आवर्त, एक शिरोनति करके २७ उच्छ्वास में ९ बार णमोकार मन्त्र का जाप करके, पुन: तीन आवर्त एक शिरोनति करके थोस्सामि स्तव पढ़े।)
-थोस्सामि स्तव-
थोस्सामि हं जिणवरे, तित्थयरे केवली अणंतजिणे।
णरपवरलोयमहिए, विहुयरयमले महप्पण्णे।।१।।
लोयस्सुज्जोययरे, धम्मं तित्थंकरे जिणे वंदे।
अरहंते कित्तिस्से, चउवीसं चेव केवलिणो।।२।।
उसहमजियं च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुमइं च।
पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे।।३।।
सुविहिं च पुप्फयंतं, सीयल सेयं च वासुपुज्जं च।
विमलमणंतं भयवं, धम्मं संतिं च वंदामि।।४।।
कुंथुं च जिणवरिंदं, अरं च मल्लिं च सुव्वयं च णमिं।
वंदामि रिट्ठणेमिं, तह पासं वड्ढमाणं च।।५।।
एवं मए अभित्थुआ, विहुयरयमला पहीणजरमरणा।
चउवीसं पि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु।।६।।
कित्तिय वंदिय महिया, एदे लोगोत्तमा जिणा सिद्धा।
आरोग्गणाणलाहं, दिंतु समहिं च मे बोहिं।।७।।
चंदेहिं णिम्मलयरा आइच्चेहिं अहियपहा सत्ता।
सायरमिव गंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु।।८।।
(इस पाठ को पढ़कर तीन आवर्त और एक शिरोनति करे, पुन: चैत्यभक्ति या जो भक्ति पढ़नी हो वह पढ़े।)
इस प्रकार यह ‘कृतिकर्म’ करने की विधि है।
प्राकृत गाथाओं की संस्कृत छाया की परम्परा श्री वसुनन्दि आचार्य के समय से तो है ही, उससे पूर्व से भी हो सकती है। इसके लिए स्वयं वसुनन्दि आचार्य ने लिखा है-
पर्याप्ति अधिकार में ‘वावीस सत्त तिण्णि य…’ ये कुल कोटि की प्रतिपादक चार गाथायें हैं। उनकी टीका में लिखते हैं-
‘‘एतानि गाथासूत्राणि पंचाचारे व्याख्यातानि अतो नेह पुनर्व्याख्यायते पुनरुक्तत्वादिति।
१६६-१६७-१६८-१६९ एतेषां संस्कृतच्छाया अपि तत एव ज्ञेया:।’’
इससे एक बात और स्पष्ट हो जाती है कि ग्रन्थकार एक बार ली गयी गाथाओं को आवश्यकतानुसार उसी ग्रन्थ में पुन: भी प्रयुक्त करते रहे हैं।
इसी पर्याप्ति अधिकार में देवियों की आयु के बारे में दो गाथाएँ आयी हैं। यथा-
पंचादी वेहिं जुदा सत्तावीसा य पल्ल देवीणं।
तत्तो सत्तुत्तरिया जावदु अरणप्पयं कप्पं।।११२२।।
सौधर्म स्वर्ग में देवियों की उत्कृष्ट आयु ५ पल्य, ईशान में ७ पल्य, सानत्कुमार में ९, माहेन्द्र में ११, ब्रह्म में १३, ब्रह्मोत्तर में १५, लांतव में १७, कापिष्ठ में १९, शुक्र में २१, महाशुक्र में २३, शतार में २५, सहस्रार में २७, आनत में ३४, प्राणत में ४१, आरण में ४८ और अच्युत स्वर्ग में ५५ पल्य है।
दूसरा उपदेश ऐसा है-
पणयं दस सत्तधियं पणवीसं तीसमेव पंचधियं।
चत्तालं पणदालं पण्णाओ पण्णपण्णाओ।।११२३।।
सौधर्म, ईशान इन दो स्वर्गों में देवियों की उत्कृष्ट आयु ५ पल्य, सानत्कुमार-माहेन्द्र में १७, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर में २५, लांतव-कापिष्ठ में ३५, शुक्र-महाशुक्र में ४०, शतार-सहस्रार में ४५, आनत-प्राणत में ५० और आरण-अच्युत में ५५ पल्य की है।
यहाँ पर टीका में आचार्य वसुनन्दि कहते हैं-
‘‘द्वाप्युपदेशौ ग्राह्यौ सूत्रद्वयोपदेशात्। द्वयोर्मध्य एकेन सत्येन भवितव्यं, नात्र संदेह मिथ्यात्वं, यदर्हत्प्रणीतं तत्सत्यमिति संदेहाभावात्। छद्मस्थैस्तु विवेक: कर्तुं न शक्यतेऽतो मिथ्यात्वभयादेव द्वयोर्ग्रहणमिति।’’
ये दोनों ही उपदेश ग्राह्य हैं, क्योंकि सूत्र में दोनों कहे गए हैं।
शंका-दोनों में एक ही सत्य होना चाहिए, अन्यथा संशय मिथ्यात्व हो जायेगा ?
समाधान-नहीं, यहाँ संशय मिथ्यात्व नहीं है क्योंकि जो अर्हंत देव के द्वारा कहा हुआ है वही सत्य है। इसमें संदेह नहीं है। हम लोग छद्मस्थ हैं। हम लोगों के द्वारा यह विवेक करना शक्य नहीं है कि ‘इन दोनों में से यह ही सत्य है’ इसलिए मिथ्यात्व के भय से दोनों को ही ग्रहण करना चाहिए। अर्थात् यदि पहली गाथा के कथन को सत्य कह दिया और था दूसरा सत्य। अथवा दूसरी गाथा को सत्य कह दिया और था पहला सत्य, तो हम मिथ्यादृष्टि बन जायेंगे। अतएव केवली-श्रुतकेवली के मिलने तक दोनों को हो मानना उचित हैं।
इस समाधान से टीकाकार आचार्य की पापभीरुता दिखती है। ऐसे ही अनेक प्रकरण धवला टीका में भी आये हैं। यहाँ यह भी स्पष्ट है कि श्री वसुनन्दि आचार्य ग्रन्थकार की गाथाओं को ‘सूत्र’ रूप से प्रामाणिक मान रहे हैं।
सर्वप्रथम ग्रन्थ
मुनियों के आचार की प्ररूपणा करने वाला ‘मूलाचार’ ग्रन्थ सर्वप्रथम ग्रन्थ है। आचारसार, भगवती आराधना, मूलाचारप्रदीप और अनगार धर्मामृत आदि ग्रन्थ इसी के आधार पर इसके बाद ही रचे गए हैं।
अनगारधर्मामृत तो टीकाकार वसुनन्दि आचार्य के भी बाद का है। ग्रन्थकर्ता पण्डितप्रवर आशाधर जी ने स्वयं कहा है-
एतच्च भगवद् वसुनन्दि-सैद्धांतदेवपादैराचारटीकायां१ दुओणदं……इत्यादि।
इस पंक्ति में पण्डित आशाधरजी ने वसुनन्दि को ‘भगवान्’ और ‘सैद्धान्त देवपाद’ आदि बहुत ही आदर शब्दों का प्रयोग किया है। क्योंकि वसुनन्दि आचार्य साधारण मुनि न होकर ‘fिसद्धान्तचक्रवर्ती’ हुए हैं। इस प्रकार से इस मूलाचार के प्रतिपाद्य विषय को बताकर इस ग्रन्थ में आई कुछ विशेषताओं का उल्लेख किया है।
यह मूलाचार ग्रन्थ एक है। इसके टीकाकार दो हैं-१. श्री वसुनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य और २. श्री मेघचन्द्राचार्य।
श्री वसुनन्दि आचार्य पहले हुए हैं या श्री मेघचन्द्राचार्य, यह अभी भी निर्णीत नहीं है। श्री वसुनन्दि आचार्य ने संस्कृत में ‘आचारवृत्ति’ नाम से इस मूलाचार पर टीका रची है और श्री मेघचन्द्राचार्य ने ‘मुनिजनचिन्तामणि’ नाम से कन्नड़ भाषा में टीका रची है।
श्री वसुनन्दि आचार्य ने ग्रन्थकर्ता का नाम प्रारम्भ में श्री ‘वट्टकेराचार्य’ दिया है जबकि मेघचन्द्राचार्य ने श्री ‘कुन्दकुन्दाचार्य’ कहा है।
आद्योपान्त दोनों ग्रन्थ पढ़ लेने से यह स्पष्ट है कि यह मूलाचार एक ही है। एक ही आचार्य की कृति है, न कि दो हैं या दो आचार्यों की रचनाए हैं। गाथाएं सभी ज्यों की त्यों हैं। हाँ इतना अवश्य है कि वसुनन्दि आचार्य की टीका में गाथाओं की संख्या बारह सौ बावन (१२५२) है जबकि मेघचन्द्राचार्य की टीका में यह संख्या चौदह सौ तीन (१४०३) है।
श्री वसुनन्दि आचार्य अपनी टीका की भूमिका में कहते हैं-
‘श्रुतस्कंधाधारभूतमष्टादश-पदसहस्रपरिमाणं, मूलगुण-प्रत्याख्यान-संस्तरस्तवाराधना-समयाचार-पंचाचार-पिण्डशुद्धि-षडावश्यक-द्वादशानुप्रेक्षानगारभावना-समयसार-शीलगुणप्रस्तार-पर्याप्त्याद्यधिकारनिबद्ध- महार्थगम्भीर-लक्षणसिद्ध-पद-वाक्य-वर्णोपचितं, घातिकर्म-क्षयोत्पन्न-केवलज्ञान-प्रबुद्धाशेष-गुणपर्यायखचित-षड्द्रव्यनवपदार्थ-जिनवरोपदिष्टं, द्वादशविधतपोनुष्ठानोत्पन्नानेकप्रकारर्द्धि-समन्वितं गणधरदेवरचितं, मूलगुणोत्तर-गुणस्वरूप-विकल्पोपायसाधनसहाय-फलनिरूपणं प्रवणमाचारांगमाचार्यपारम्पर्यप्रवर्तमानमल्पबलमेधायु:-शिष्यनिमित्तं द्वादशाधिकारैरुपसंहर्तुकाम: स्वस्य श्रोतृणां च प्रारब्धकार्यप्रत्यूहनिराकरणक्षमं शुभपरिणामं विदधच्छ्री- वट्टकेराचार्य: प्रथमतरं तावन्मूलगुणाधिकार-प्रतिपादनार्थं मंगलपूर्विकां प्रतिज्ञां विधत्ते मूलगुणेस्वित्यादि।’
इस भूमिका में टीकाकार ने बारह अधिकारों के नाम क्रम से दे दिए हैं। आगे इसी क्रम से उन अधिकारों को लिया है। तथा ग्रन्थकर्ता का नाम ‘श्री वट्टकेराचार्य’ दिया है।
ग्रन्थ समाप्ति में उन्होंने लिखा है-
‘इति श्रीमदाचार्यवर्य-वट्टकेरिप्रणीतमूलाचारे श्रीवसुनन्दि-प्रणीतटीकासहिते द्वादशोऽधिकार:।’ स्रग्धरा छन्द में एक श्लोक भी है। और अन्त में दिया है-इति मूलाचारविवृत्तौ द्वादशोऽध्याय: कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीत-मूलाचाराख्य-विवृति:। कृतिरियं वसुनन्दिन: श्री श्रमणस्य।’
श्री मेघचन्द्राचार्य अपनी कन्नड़ी टीका के प्रारम्भ में लिखते हैं-
वीरं जिनेश्वरं नत्वा मंदप्रज्ञानुरोधत:।
मूलाचारस्य सद्वृत्तिं वक्ष्ये कर्णाटभाषया।
परमसंयमोत्कर्षजातातिशयरूं श्रीमदर्हत्प्रणीत-परमागमाम्भोधिपारगरुं, श्री वीरवर्द्धमानस्वामितीर्थोद्धारकरुं, आर्यनिषव्यरुं, समस्ताचार्यवर्यरुं, मप्पश्री कोण्डकुन्दाचार्यरुं, परानुग्रहबुद्धियिं, कालानुरूपमागि चरणानुयोगनं संक्षेपिसि मंदबुद्धिगलप्प शिष्यसंतानक्के किरिदरोले प्रतीतमप्पंतागि सकलाचारार्थमं निरूपिसुवाचारग्रन्थमं पेलुथ्तवा ग्रन्थदमोदलोलु निर्विघ्नत: शास्त्रसमाप्त्यादि चतुर्विधफलमेक्षिसि नमस्कार गाथेयं पेलूद पदेंतें दोडे।’’
अर्थ-उत्कृष्ट संयम से जिन्हें अतिशय प्राप्त हुआ है, अर्थात् जिनको चारण ऋद्धि की प्राप्ति हुई है, जो अर्हत्प्रणीत परमागम समुद्र के पारगामी हुए हैं, जिन्होंने श्री वर्धमान स्वामी के तीर्थ का उद्धार किया है, जिनकी आर्यजन सेवा करते हैं, जिनको समस्त आचार्यों में श्रेष्ठता प्राप्त हुई है, ऐसे श्री कोण्डकुन्दाचार्य ने परानुग्रहबुद्धि धारण कर कालानुरूप चरणानुयोग का संक्षेप करके मन्दबुद्धि शिष्यों को बोध कराने के लिए सकल आचार के अर्थ को मन में धारण कर यह आचार ग्रन्थ रचा है।
यह प्रारम्भ में भूमिका है। प्रत्येक अध्याय के अन्त में—‘यह मूलाचारग्रन्थ श्री कुन्दकुन्दाचार्य विरचित है।’ ऐसा दिया है। इस ग्रन्थ की टीका के अन्त में भी ऐसा उल्लेख है-
‘‘एवं मूलगुण-बृहत्प्रत्याख्यान-लघुप्रत्याख्यान-समाचार-पिण्डशुद्ध्यावश्यक-निर्युक्त्यनगार-भावनानुप्रेक्षा-समाचार-पर्याप्ति-शीलगुणा इत्यन्तर्गत-द्वादशाधिकारस्य मूलाचारस्य सद्वृत्ति: श्रोतृजनान्तर्गत-रागद्वेषमोह-क्रोधादिदुर्भावकलंकपंकनिरवशेषं निराकृत्य पुनस्तदज्ञानविच्छित्तिं सज्ज्ञानोत्पत्तिं प्रतिसमयम-संख्यातगुणश्रेणि-निर्जरणादिकार्यं कुर्वन्ती ‘मुनिजनचिन्तामणिसंज्ञेयं’ परिसमाप्ता।
मर्यादया ये विनीता: विशुद्धभावा: सन्त: पठन्ति पाठयन्ति, भावयन्ति च चित्ते ते खलु परमसुखं प्राप्नुवन्ति। ये पुन: पूर्वोक्तमर्यादामतिक्रम्य पठन्ति पाठयन्ति…….’ भवन्तो निरन्तरमनन्तसंसारं भ्रमन्ति यतस्तत एव परमदिव्येयं भवन्ती-
मुनिजनचिन्तामणिर्या सा श्रोतृचित्तप्रकाशिता।
मूलाचारस्य सद्वृत्तिरिष्टसिद्धिं करोतु न:।।
इसका संक्षिप्त अभिप्राय यह है-
मूलगुणादि द्वादश अधिकार युक्त मूलाचार की मुनिजन चिंतामणि नामक टीका समाप्त हुई। श्रोताओं को राग, द्वेषादि कलंकों को दूर करने वाली और अज्ञान को नष्ट करने वाली, ज्ञान को उत्पन्न करनेवाली और प्रतिसमय असंख्यात गुणश्रेणी से कर्म-निर्जरा आदि कार्य करनेवाली यह ‘मुनिजनचिंतामणि’ नाम की टीका समाप्त हुई। जो आगम की मर्यादा को पालते हैं, विनीत और विशुद्ध भाव को धारण करते हैं, वे भव्य इस टीका का पठन करते हैं और पढ़ाते हैं उनको परमसुख प्राप्त होता है। परन्तु जो मर्यादा का उलंघन कर पढ़ते हैं, पढ़ाते हैं, मन में विचारते हैं, वे अनन्त संसार में भ्रमण करते हैं।
यह मुनिजन चिन्तामणि टीका श्रोताओं के चित्त को प्रकाशित करती है, मूलाचार की यह सद्वृत्ति हमारी इष्ट सिद्धि करे।
इस विवेचन से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि यह मूलाचार ग्रन्थ श्री कुन्दकुन्ददेव के द्वारा रचित है।
संपूर्ण ग्रन्थ बारह अधिकारों में विभाजित है। श्री वट्टकेर आचार्य ने उन अधिकारों के नाम क्रम से दिये हैं-१. मूलगुण, २. बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तव, ३. संक्षेप-प्रत्याख्यान, ४. सामाचार, ५. पंचाचार, ६. पिण्डशुद्धि, ७. षडावश्यक, ८ द्वादशानुप्रेक्षा, ६. अनगारभावना, १०. समयसार, ११. शीलगुण और १२. पर्याप्ति।
प्रथम अधिकार में कुल ३६ गाथा हैं। आगे क्रम से ७१, १४, ७६, २२२, ८३, १९३, ७६, १२४, १२५, २६ और २०६ हैं। इस तरह कुल गाथायें १२५२ हैं।
श्री मेघचन्द्राचार्य ने भी ये ही १२ अधिकार माने हैं। अन्तर इतना ही है कि उसमें आठवाँ अधिकार अनगार भावना है और नवम द्वादशानुप्रेक्षा। ऐसे ही ११वां अधिकार पर्याप्ति है। पुन: १२वें में शीलगुण को लिया है। इसमें गाथाओं की संख्या क्रम से ४५, १०२, १३, ७७, २५१, ७८, २१८, १२८, ७५, १६०, २३७ और २७ हैं।
कहीं-कहीं यह बात परिलक्षित होती है कि श्री मेघचन्द्राचार्य ने जो गाथायें अधिक ली हैं, वे श्री वसुनन्दि आचार्य को भी मान्य थीं।
षडावश्यक अधिकार में अरहंत नमस्कार की गाथा है। यथा-
अरहंतणमोक्कारं भावेण य जो करेदि पयदमदि।
सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण।।५०६।।
इस गाथा को दोनों टीकाकारों ने अपनी-अपनी टीका में यथास्थान लिया है। आगे सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु को नमस्कार की भी ऐसे ही ज्यों की त्यों गाथाएँ हैं। मात्र प्रथम पद अरहंत के स्थान पर सिद्ध, आचार्य आदि बदला है। उन चारों गाथाओं को वसुनन्दि आचार्य ने अपनी टीका में छायारूप से ले लिया है। तथा मेघचन्द्राचार्य ने चारों गाथाओं को ज्यों की त्यों लेकर टीका कर दी। इसलिए ये चार गाथाएँ वहाँ अधिक हो गयीं और वट्टकेरकृत प्रति में कम हो गयीं। षडावश्यक अधिकार में अरिहंत नमस्कार की एक और गाथा आयी है जिसे मेघचन्द्राचार्य ने इसी प्रकरण में क्रमांक ५ पर ली है जबकि श्री वसुनन्दि आचार्य ने आगे क्रमांक ६५ पर ली है। वह गाथा है-
अरिहंति वंदणणमंसणाणि अरिहंति पूयसक्कारं।
अरिहंति सिद्धिगमणं अरहंता तेण उच्चंति।।५६४।।
सिद्ध परमेष्ठी आदि का लक्षण करने के बाद श्री मेघचन्द्राचार्य ने सिद्धों को नमस्कार आदि की जो गाथाएँ ली हैं उनकी ज्यों की त्यों छाया श्री वसुनन्दि आचार्य ने अपनी टीका में ही कर दी है और गाथाएं नहीं ली हैं। एक उदाहरण देखिए-
सिद्धाण णमोक्कारं भावेण य जो करेदि पयदमदी।
सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण१।।९।।
श्री वट्टकेरकृत प्रति में-
तस्मात् सिद्धत्वयुक्तानां सिद्धानां नमस्कारं भावेन य: करोति प्रयत्नमति: स सर्वदु:खमोक्षं प्राप्नोत्यचिरेण कालेनेति२।।
इस प्रकरण से यह निश्चय हो जाता है कि मेघचन्द्राचार्य ने जो अधिक गाथाएं ली हैं वे क्षेपक या अन्यत्र से संकलित नहीं हैं प्रत्युत मूलग्रन्थकर्ता की ही रचनाएं हैं। आगे एक दो ऐसे ही प्रकरण और हैं।
इस आवश्यक अधिकार में आगे पार्श्वस्थ, कुशील आदि पाँच प्रकार के शिथिलचारित्री मुनियों के नाम आये हैं। उनके प्रत्येक के लक्षण पाँच गाथाओं में किये गये हैं। मेघचन्द्राचार्य कृत टीका की प्रति में वे गाथाएं हैं, किन्तु वसुनन्दि आचार्य ने अपनी टीका में ही उन पाँचों के लक्षण ले लिये हैं। उदाहरण के लिए देखिये मेघचन्द्राचार्य टीका की प्रति में-
पासत्थो य कुसीलो संसत्तो सण्ण मिगचरित्तो य।
दंसणणाण चरित्ते अणिउत्ता मंदसंवेगा।।११३।।
वसहीसु य पडिबद्धो अहवा उवयरणकारओ भणिओ।
पासत्थो समणाणं पासत्थो णाम सो होइ।।११४।।
कोहादि कलुसिदप्पा वयगुणसीलेहि चावि परिहीणो।
संघस्स अयसकारी कुसीलसमणो त्ति णायव्वो।।११५।।
वेज्जेण व मंतेण व जोइसकुसलत्तणेण पडिबद्धो।
राजादी सेवंतो संसत्तो णाम सो होई।।११६।।
जिणवयणमयाणंतो मुक्कधुरो णाणचरणपरिभट्टो।
करणालसो भवित्ता सेवदि ओसण्णसेवाओ।।११७।।
आइरियकुलं मुच्चा विहरइ एगागिणो य जो समणो।
जिणवयणं णिंदंतो सच्छंदो होइ मिगचारी१।।११८।।
वसुनन्दि आचार्य ने इसे टीका में इस प्रकार दिया है-
संयतगुणेभ्य: पार्श्वे अभ्यासे तिष्ठतीति पार्श्वस्थ: वसतिकादि प्रतिबद्धो मोहबहुलो रात्रिंदिवमुपकरणानां कारको असंयत-जनसेवी संयतजनेभ्यो दूरीभूत:। कुत्सितं शीलं आचरणं स्वभावो यस्यासौ कुशील: क्रोधादि-कलुषितात्मा व्रतगुणशीलैश्च परिहीन: संघस्यायश:करणकुशल:। सम्यगसंयतगुणेष्वाशक्त: संशक्त: (संसक्त:) आहारादिगृद्ध्या वैद्यमंत्रज्योतिषादि-कुशलत्वेन प्रतिबद्धो राजादिसेवातत्पर:। ओसण्णो अपगतसंज्ञो अपगता विनष्टा संज्ञा सम्यग्ज्ञानादिकं यस्यासौ अपगत-संज्ञश्चारित्राद्यपहीनो जिनवचनमजानंचारित्रादिप्रभ्रष्ट: करणालस: सांसारिकसुखमानस:। मृगस्येव पशोरिव चरित्रमाचरणं यस्यासौ मृगचरित्र: परित्यक्ताचार्योपदेश: स्वच्छन्दगतिरेकाकी जिनसूत्रदूषणस्तप:सूत्राद्यविनीतो धृतिरहितश्चेत्येते पंचपार्श्वस्था दर्शनज्ञानचारित्रेषु अनियुक्ताश्चारित्राद्यननुष्ठानपरा मदसंवेगास्तीर्थधर्माद्यकृतहर्षा: सर्वदा न वंदनीया इति२।।९६।।
यह प्रकरण भी उन अधिक गाथाओं को मूलाचार के कर्ता की ही सिद्ध करता है। एक और प्रकरण देखिए-मूलाचार में-समयसार नामक अधिकार में गाथाएँ-
पुढविकाइगा जीवा पुढिंव जे समासिदा।
दिट्ठा पुढविसमारंभे धुवा तेसिं विराहणा।।१२०।।
आउकायिगा जीवा आऊं जे समस्सिदा।
दिट्ठा आउसमारंभे धुवा तेसिं विराधणा।।१२१।।
तेउकायिगा जीवा तेउं जे समस्सिदा।
दिट्ठा तेउसमारंभे धुवा तेसिं विराधणा।।१२२।।
वाउकायिगा जीवा वाउं जे समस्सिदा।
दिट्टा वाउसमारंभे धुवा तेसिं विराधणा।।१२३।।
वणप्फदिकाइगा जीवा वणफ्फदिं जे समस्सिदा।
दिट्ठा वणप्फदिसमारंभे धुवा तेसिं विराधणा।।१२४।।
जे तसकायिगा जीवा तसं जे समस्सिदा।
दिट्ठा तससमारंभे धुवा तेसिं विराधणा१।।१२५।।
श्री वसुनन्दि आचार्य ने ‘पुढविकायिगा जीवा’ यह प्रथम गाथा ली है। उसी की टीका में आगे की पाँचों गाथाओं का भाव दे दिया है। गाथा में किंचित् अन्तर है जो इस प्रकार है-
पुढवीकायिगजीवा पुढवीए चावि अस्सिदा संति।
तम्हा पुढवीए आरंभे णिच्चं विराहणा तेसि।।११६।।
टीका-पृथिवीकायिकजीवास्तद्वर्णगंधरसा: सूक्ष्मा: स्थूलाश्च तदाश्रिताश्चान्ये जीवास्त्रसा: शेषकायाश्च संति तस्मात्तस्या: पृथिव्या विराधनादिके खननदहनादिके आरंभे आरंभसमारंभसंरंभादिके च कृते निश्चयेन तेषां जीवानां तदाश्रितानां प्राणव्यपरोपणं स्यादिति। एवमप्कायिक-तेज:कायिक-वायुकायिक-वनस्पतिकायिकत्रस-कायिकानां तदाश्रितानां च समारंभे ध्रुवं विराधनादिकं भवतीति निश्चेतव्यम्।
इसी प्रकार और भी गाथाएँ हैं-
तम्हा पुढविसमारंभो दुविहो तिविहेण वि।
जिणमगगाणुचारीणं जावज्जीवं ण कप्पदि।।११७।।
वसुनन्दि आचार्य ने मात्र इसी गाथा की टीका में लिखा है-
‘एवमप्तेजोवायुवनस्पतित्रसानां द्विप्रकारेऽपि समारंभे अवगाहनसेचनज्वालनतापनबीजनमुखवातकरणच्छेदन- तथणादिकं न कल्प्यते जिनमार्गानुचारिण इति।’
किन्तु मेघचन्द्राचार्य कृत टीका की प्रति में ‘तम्हा आउसमारम्भो’ आदि से लेकर पाँच गाथाएँ स्वतन्त्र ली हैं।
ऐसे ही इन गाथाओं के बाद गाथा है-
जो पुढविकाइजीवे ण वि सद्दहदि जिणेहिं णिद्दिट्ठे।
दूरत्थो जिणवयणे तस्स उवट्ठावणा णत्थि।।११८।।
मेघचन्द्राचार्य कृत टीका की प्रति में इसके आगे भी ‘जो आउकाइ जीवे’ आदि से ‘जो तसकाइगे जीवे’ तक पाँच गाथाएँ हैं। किन्तु वसुनन्दि आचार्य ने उसी ‘पृथिवीकायिक’ जीव सम्बन्धी गाथा की टीका में ही सबका समावेश कर लिया है।
पुनरपि गाथा आगे है-
जो पुढविकाइजीवे अइसद्दहदे जिणेहिं पण्णत्ते।
उवलद्धपुण्णपावस्स तस्सुवट्ठावणा अत्थि।।११९।।
इसके बाद भी कर्णाटक टीका की प्रति में ‘जो आउकाइगे जीवे’ आदि से-‘जो तसकाइगे जीवे’ पर्यंत पाँच गाथाएं हैं। किन्तु वसुनन्दि आचार्य ने इस गाथा की टीका में इन पाँच गाथाओं का अर्थ ले लिया है-
एवमप्कायिक-तेज:कायिक-वायुकायिक-वनस्पतिकायिक-त्रसकायिकांस्तदाश्रितांश्च य श्रद्दधाति मन्यते अभ्युपगच्छति तस्योपलब्धपुण्यपापस्योपस्थाना विद्यते इति।
पुनरपि आगे गाथा है-
ण सद्दहदि जो एदे जीवे पुढविदं गदे।
स गच्छे दिग्धमद्धणं लिंगत्थो वि हु दुम्मदि।।१२०।।
इसके आगे भी श्री मेघचन्द्राचार्य की टीका में अप्कायिक आदि सम्बन्धी पाँच गाथाएं हैं जबकि वसुनन्दि आचार्य ने इनकी टीका में ही सबको ले लिया है।
आगे इसी प्रकार से एक गाथा है-
जदं तु चरमाणस्स दयापेहुस्स भिक्खुणो।
णवं ण वज्झदे कम्मं पोराणं च विधूयदि।।१२३।।
मेघचन्द्राचार्य कृत टीका की प्रति में इसके आगे छह गाथाएँ और अधिक हैं-
जदं तु चिट्ठमाणस्स दयापेक्खिस्स भिक्खुणो।
णवं ण वज्झदे कम्मं पोराणं च विधूयदि।।१५२।।
जदं तु आसमाणस्स दयापेक्खिस्स भिक्खुणो।
णवं ण वज्झदे कम्मं पोराणं च विधूयदि।।१५३।।
जदं तु सयमाणस्स दयापेक्खिस्स भिक्खुणो।
णवं ण वज्झदे कम्मं पोराणं च विधूयदि।।१५४।।
जदं तु भुजमाणस्स दयापेक्खिस्स भिक्खुणो।
णवं ण वज्झदे कम्मं पोराणं च विधूयदि।।१५५।।
जदं तु भासमाणस्स दयापेक्खिस्स भिक्खुणो।
णवं ण वज्झदे कम्मं पोराणं च विधूयदि।।१५६।।
दव्वं खेत्तं कालं भावं च पडुच्च तह य संघडणं।
चरणम्हि जो पवट्ठइ कमेण सो णिरवहो होइ२।।१५७।।
श्री वसुनन्दि आचार्य ने अपनी १२३वीं गाथा की टीका में सबका अर्थ ले लिया है। यथा-
‘‘एवं यत्नेन तिष्ठता यत्नेनासीनेन शयनेन यत्नेन भुंजानेन यत्नेन भाषमाणेन नवं कर्म न बध्यते चिरंतनं च क्षीयते तत: सर्वथा यत्नाचारेण भवितव्यमिति।’’
यही कारण है कि वसुनन्दि आचार्य ने उन गाथाओं का भाव टीका में लेकर सरलता की दृष्टि से गाथाएं छोड़ दी हैं, किन्तु कर्णाटक टीकाकार ने सारी गाथाएं रक्खी हैं।
आवश्यक अधिकार में नौ गाथाएं ऐसी हैं जिनकी द्वितीय पंक्ति सदृश है, वही वही पुनरपि आती है। वसुनन्दि आचार्य ने दो गाथाओं को पूरी लेकर आगे सात गाथाओं में द्वितीय पंक्ति छोड़ दी है
जस्स सण्णिहिदो अप्पा संजमे णियमे तवे।
तस्स सामायियं ठादि इदि केवलिसासणे।।२४।।
जो समो सव्वभूदेसु तसेसु थावरेसु य।
तस्स सामायियं ठादि इदि केवलिसासणे।।२५।।
जस्स रागो य दोसो य वियडिं ण जणेंfित दु।।२६।।
जेण कोधो य माणो य माया लोभो य णिज्जिदो।।२७।।
जस्स सण्णा य लेस्सा य वियडिंं ण जणंति दु।।२८।।
जो दुरसेय फासे य कामे बज्जदि णिच्चसा।।२९।।
जो रूवगंधसद्दे य भोगे वज्जदि णिच्चसा।।३०।।
जो दु अट्ठं च रूच्छं च झाणं झायदि णिच्चसा।।३१।।
जो दु धम्मं च सुक्कं च झाणे झायदि णिच्चसा।।३२।।
अन्तिम नवमी गाथा की टीका में कहा है-
‘‘……….यस्तु धर्मं चतुष्प्रकारं शुक्लं च चतुष्प्रकारं ध्यानं ध्यायति युनक्ति तस्य सर्वकालं सामायिकं तिष्ठतीति, केवलिशासनमिति सर्वत्र सम्बन्धो द्रष्टव्य इति।’’
इस प्रकरण में टीकाकार ने स्वयं स्पष्ट कर दिया है कि ‘‘तस्स सामायियं ठादि इदि केवलि सासणे।’’ यह अर्थ सर्वत्र लगा लेना चाहिए। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ-जहाँ गाथाएँ वैसी-वैसी ही आती थीं, टीकाकार उन्हें छोड़ देते थे और टीका में ही उनका अर्थ खोल देते थे। इसलिए कर्णाटक टीका में प्राप्त अधिक गाथाएँ मूल ग्रन्थकार की ही हैं, इस विषय में कोई संदेह नहीं रह जाता है।
जितने भी ये उद्धरण दिए गये हैं, इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ‘मूलाचार’ ग्रन्थ एक है, उसके टीकाकार दो हैं।
श्रीमद्वट्टकेराचार्य विरचित ‘मूलाचार’, जिसमें आचार्य वसुनन्दि द्वारा रचित टीका संस्कृत में ही है, माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला से वीर संवत् २४४९ में प्रकाशित हुआ है। इसका उत्तरार्ध भी मूल के साथ ही वीर संवत् २४४९ में उसी ग्रन्थमाला से प्रकाशित हुआ है।
वीर संवत् २४७१ (सन् १९४४) में जब चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर जी ने पं. जिनदास फडकुले को एक मूलाचार की प्रति हस्तलिखित दी थी, जिसमें कन्नड़ टीका थी, स्वयं पं. जिनदास जी ने उसी मूलाचार की प्रस्तावना में लिखा है-‘‘इस मूलाचार का अभिप्राय दिखानेवाली एक कर्नाटक भाषा टीका हमको चारित्र चक्रवर्ती १०८ आचार्य शान्तिसागर महाराज ने दी थी। उसमें यह मूलाचार ग्रन्थ श्री कुन्दकुन्दाचार्य विरचित है, ऐसा प्रत्येक अध्याय की समाप्ति में लिखा है तथा प्रारम्भ में एक श्लोक तथा गद्य भी दिया है। उस गद्य से भी यह ग्रन्थ श्री कुन्दकुन्दाचार्य कृत है ऐसा सिद्ध होता है।२….‘यह कर्नाटक टीका श्री मेघचन्द्राचार्य ने की है। आगे अपनी प्रस्तावना में पण्डित जिनदास लिखते हैं कि ‘हमने कानडी टीका की पुस्तक सामने रखकर उसके अनुसार गाथा का अनुक्रम लिया है तथा वसुनन्दि आचार्य की टीका का प्राय: भाषान्तर इस अनुवाद में आया है।
पण्डित जिनदास फडकुले द्वारा हिन्दी भाषा में अनूदित कुन्दकुन्दाचार्य विरचित यह मूलाचार ग्रन्थ चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री की प्रेरणा से ही आचार्य शान्तिसागर जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था, फलटण से वीर संवत् २४८४ में प्रकाशित हुआ है।
मैंने मूलाचार ग्रंथ के अनुवाद के पूर्व भी श्री वट्टकेराचार्य कृत मूलाचार और इस कुन्दकुन्द कृत मूलाचार का कई बार स्वाध्याय किया था। अपनी शिष्या आर्यिका जिनमती को वट्टकेर कृत मूलाचार की मूल गाथाएँ पढ़ाई भी थीं। पुन: सन् १९७७ में जब हस्तिनापुर में प्रात: इसका सामूहिक स्वाध्याय चलाया था, तब श्री वसुनन्दि आचार्य की टीका का वाचन होता था। यह ग्रन्थ और उसकी यह टीका मुझे अत्यधिक प्रिय थी। पण्डित जिनदास द्वारा अनूदित मूलाचार में बहुत कुछ महत्त्वपूर्ण अंश नहीं आ पाये हैं यह बात मुझे ध्यान में आ जाती थी। अत: शब्दश: टीका का अनुवाद पुनरपि हो इस भावना से तथा अपने चरणानुयोग के ज्ञान को परिपुष्ट करने की भावना से मैंने उन्हीं स्वाध्यायकाल के दिनों में इस महाग्रन्थ का अनुवाद करना शुरू कर दिया। वैशाख वदी २, वीर संवत् २५०३ में मैंने अनुवाद प्रारम्भ किया था। जिनेन्द्रदेव की कृपाप्रसाद से, बिना किसी विघ्न बाधा के, अगले वैशाख सुदी ३ अक्षय तृतीया वीर संवत् २५०४ दिनांक १०-५-१९७८ दिन बुधवार को हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र
पर ही इस अनुवाद को पूर्ण किया है।।
इसके अनुवाद के समय भी तथा पहले भी ‘मूलाचार दो हैं, एक श्री कुन्दकुन्दविरचित, दूसरा श्री वट्टकेर विरचित’ यह बात बहुचर्चित रही है। किन्तु मैंने अध्ययन-मनन और चिन्तन से यह निष्कर्ष निकाला है कि मूलाचार एक ही है, इसके कर्ता एक हैं किन्तु टीकाकार दो हैं।
जो कर्नाटक टीका और उसके कर्ता श्री मेघचन्द्राचार्य हैं वह प्रति मुझे प्रयास करने पर भी देखने को नहीं मिल सकी है। पण्डित जिनदास फडकुले ने जो अपनी प्रस्तावना में उस प्रति के कुछ अंश उद्धृत किये हैं, उन्हीं को मैंने उनकी प्रस्तावना से ही लेकर यहाँ उद्धृत कर दिया है। यहाँ यह बात सिद्ध हुई कि-
श्री कुन्दकुन्द कृत मूलाचार में गाथाएँ अधिक हैं। कहीं-कहीं गाथायें आगे पीछे भी हुई हैं और किन्हीं गाथाओं में कुछ अन्तर भी है। दो टीकाकारों से एक ही कृति में ऐसी बातें अन्य ग्रन्थों में भी देखने को मिलती हैं।
श्री कुन्दकुन्द द्वारा रचित समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय में भी यही बात है। प्रसंगवश देखिए समयसार आदि में दो टीकाकारों से गाथाओं में अन्तर-
श्री कुन्दकुन्द के समयसार ग्रन्थ की वर्तमान में दो टीकाएं उपलब्ध हैं। एक श्री अमृतचन्द्र सूरि द्वारा रचित है, दूसरी श्री जयसेनाचार्य ने लिखी है। इन दोनों टीकाकारों ने गाथाओं की संख्या में अन्तर माना है। कहीं-कहीं गाथाओं में पाठभेद भी देखा जाता है। तथ्ाा किंचित् कोई-कोई गाथाएँ आगे-पीछे भी हैं। संख्या में श्री अमृतचन्द्र सूरि ने चार सौ पन्द्रह (४१५) गाथाओं की टीका की है। श्री जयसेनाचार्य ने चार सौ उनतालीस (४३९) गाथाएँ मानी हैं। यथा-‘‘इति श्री कुन्दकुन्ददेवाचार्य-विरचित-समयसारप्राभृताभिधानग्रन्थस्य सम्बन्धिनी श्रीजयसेनाचार्यकृता दशाधिकारैरेकोनचत्वारिंशदधिकगाथाश्चतुष्टयेन तात्पर्यवृत्ति: समाप्ता।’’
गाथाओं में किंचित् अन्तर भी है। यथा-
एवंविहा बहुविहा परमप्पाणं वदंति दुम्मेहा।
ते ण परमट्ठवाई णिच्छयवाईहिं णिद्दिट्ठा।।४३।।
श्री जयसेनाचार्य ने तृतीय चरण में अन्तर माना है। यथा-
तेण दु परप्पवादी णिच्छयवादीहिं णिद्दिट्ठा।
अधिक गाथाओं के उदाहरण देखिए-
अज्झवसाणणिमित्तं…….यह गाथा क्रमांक २६७ पर अमृतचन्द्रसूरि ने रखी है। इसे श्री जयसेनाचार्य ने क्रमांक २८० पर रखी है। इसके आगे पाँच गाथाएँ अधिक ली हैं। वे हैं-
कायेण दुक्खवेमिय सत्ते एवं तु जं मदिं कुणसि।
सव्वावि एस मिच्छा दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता।।२८१।।
वाचाए दुक्खवेमिय सत्ते एवं तु जं मदिं कुणसि।
सव्वावि एस मिच्छा दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता।।२८२।।
मणसाए दुक्खवेमिय सत्ते एवं तु जं मदिं कुणसि।
सव्वावि एस मिच्छा दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता।।२८३।।
सच्छेण दुक्खवेमिय सत्ते एवं तु जं मदिं कुणसि।
सव्वावि एस मिच्छा दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता।।२८४।।
इसी तरह सादृश्य लिये हुए अनेक गाथाएं एक साथ कुन्दकुन्ददेव रखते हैं। जैसे-
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होइ।
तह जाणओ दु ण परस्स जाणओ जाणो सो दु।।३५६।।
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होई।
तह पासओ दु ण परस्स पासओ पासओ सो दु।।३५७।।
इसी तरह की ८ गाथायें और हैं।
इसी प्रकार से प्रवचनसार ग्रन्थ में श्री अमृतचन्द्रसूरि ने २७५ गाथाओं की टीका रची है। श्री जयसेनाचार्य ने इस ग्रन्थ में भी तीन सौ ग्यारह (३११) गाथाओं की टीका की है। यथा-
‘‘……इति श्रीजयसेनाचार्यकृतायां तात्पर्यवृत्तौ एवं पूर्वोक्तक्रमेण ‘‘एस सुरासुर….’’ इत्याद्येकोत्तरशत-गाथापर्यन्तं सम्यग्ज्ञानाधिकार:, तदनन्तरं ‘‘तम्हा तस्स णमाईं इत्यादि त्रयोदशोत्तरशतगाथापर्यंतं ज्ञेयाधिकारापरनाम सम्यक्त्वाधिकार:, तदनन्तरं ‘तवसिद्धे णयसिद्धे’ इत्यादि सप्तनवतिगाथापर्यन्तं चारित्राधिकारश्चेति महाधिकार-त्रयेणेकादशाधिक-त्रिंशतगाथाभि: प्रवचनसार प्राभृतं समाप्तं।’’
इस ग्रन्थ में जयसेनाचार्य ने जो अधिक गाथाएँ मानी हैं, उन्हें अन्य आचार्य भी श्री कुन्दकुन्द कृत ही मानते रहे हैं। जैसे-
तेजो दिट्टी णाणं इड्ढी सोक्खं तहेव ईहरियं।
तिहुवण पहाण दइयं माहप्पं जस्स सो अरिहो।।
इस गाथा को नियमसार ग्रन्थ की टीका करते समय श्री पद्मप्रभमलधारीदेव ने भी लिया है। यथा-
तथा चोक्तं श्री कुन्दकुन्दाचार्य देवै:२-
तेजो दिट्ठी णाणं इड्ढी सोक्खं…….।
श्री जयसेनाचार्य प्रत्येक अधिकार के आरम्भ में और अन्त में गाथाओं की संख्या और उनका सन्दर्भ बार-बार देते रहते हैं। यह बात उनकी टीका को पढ़ने वाले अच्छी तरह समझ लेते हैं। ऐसे ही पंचास्तिकाय में भी श्री अमृतचन्द्रसूरि ने १७३ गाथाओं की टीका रची है तथा श्री जयसेनाचार्य ने १९१ गाथाओं की टीका लिखी है।
इन तीनों ग्रन्थों में श्री अमृतचन्द्रसूरि ने उन गाथाओं को क्यों नहीं लिया है, उन्हें टीका करते समय जो प्रतियाँ मिलीं उनमें उतनी ही गाथाएँ थीं या अन्य कोई कारण था, कौन जाने?
श्री जयसेनाचार्य ने तो प्रत्येक अधिकार के प्रारम्भ और समाप्ति के समय बहुत ही जोर देकर उन अधिक गाथाओं को श्री कुन्दकुन्ददेव कृत सिद्ध किया है। ‘पंचास्तिकाय’ ग्रन्थ का उदाहरण देखिए-
प्रथमतस्तावत् ‘’इंदसयवंदियाण’’-मित्यादिपाठक्रमेणेकादशोत्तरशतगाथाभि: पंचास्तिकाय-षड्द्रव्य-प्रतिपादन-रूपेण प्रथमो महाधिकार:, अथवा स एवामृतचन्द्रटीकाभिप्रायेण त्रयधिकशतपर्यन्तश्च। तदनन्तरं ‘अभिवंदिऊण सिरसा’ इत्यादि पंचाशद्गाथाभि: सप्ततत्त्व-नवपदार्थ-व्याख्यानरूपेण द्वितीयो महाधिकार:, अथ च स एवामृतचन्द्र-टीकाभिप्रायेणाष्टाचत्वारिंशद्-गाथापर्यन्तश्च। अथानन्तरं जीवस्वभावो इत्यादि िंवशतिगाथाभिर्मोक्षमार्ग-मोक्षस्वरूपकथनमुख्यत्वेन तृतीयो महाधिकार:, इति समुदायेनेकाशीत्युत्तरशतगाथा-भिर्महाधिकारत्रयं ज्ञातव्यं।
यह तो प्रारम्भ में भूमिका बनायी है फिर एक-एक अंतराधिकार में भी इसी प्रकार गाथाओं का स्पष्टीकरण करते हैं-
प्रथम अधिकार के समापन में देखिए-
अत्र पंचास्तिकायप्राभृतग्रन्थे पूर्वोक्तक्रमेण सप्तगाथाभि: समयशब्दपीठिका चतुर्दशगाथाभिर्द्रव्यपीठिका, पंचगाथाभिर्निश्चयव्यवहारकालमुख्यता, त्रिपंचाशद्गाथाभिर्जीवास्तिकायव्याख्यानं, दशगाथाभि: पुद्गलास्तिकाय-व्याख्यानं, सप्तगाथाभिर्धर्मास्तिकायद्वयविवरणं, सप्तगाथाभिराकाशास्तिकाय-व्याख्यानं, अष्टगाथाभिश्चूलिका-मुख्यत्वमित्येकादशोत्तर-गाथाभिरष्टांतराधिकारा गता।
इस ग्रन्थ के अन्त में श्री जयसेनाचार्य लिखते हैं-
इति श्रीजयसेनाचार्यकृतायां तात्पर्यवृत्तौ प्रथमतस्तावदेकादशोत्तरशत-गाथाभिरष्टभिरन्तराधिकारै:, तदनन्तरं पंचाशत-गाथाभिर्दशभिरन्तराधिकारैर्नव-पदार्थप्रतिपादकाभिधानो द्वितीयो महाधिकार:, तदनन्तरं विंशतिगाथा-भिर्द्वादशस्थलैर्मोक्षस्वरूप-मोक्षमार्गप्रतिपादकाभिधानस्तृतीय महाधिकारश्चेत्यधिकारत्रयसमुदायेनैकाशीत्युत्तर-शतगाथाभि: पंचास्तिकायप्राभृत: समाप्त:।
जैसे इन ग्रन्थों में दो टीकाकार होने से गाथाओं की संख्या में अन्तर आ गया है, वैसे ही मूलाचार में है यह बात निश्चित है। इन सब उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता से है कि दो आचार्यों के नाम से दो जगह से प्रकाशित ‘मूलाचार’ ग्रन्थ एक ही है, एक ही आचार्य की रचना है।
श्री वट्टकेर आचार्य और कुन्दकुन्दाचार्य ये दोनों इस मूलाचार के रचयिता हैं या फिर दोनों में से कोई एक हैं, या ये दोनों एक ही आचार्य हैं-इस विषय पर यहाँ कुछ विचार किया जा रहा है।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य के निर्विवाद सिद्ध समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय और अष्टपाहुड़ ग्रन्थ बहुत ही प्रसिद्ध हैं। समयसार में एक गाथा आयी है-
अरसमरूवमगंधं, अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं।
जाण अलिंगग्गहणं, जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं।।४९।।
यही गाथा प्रवचनसार में क्रमांक १८ पर आयी है। नियमसार में क्रमांक ४६ पर है। पंचास्तिकाय में क्रमांक १२७ पर है और भावपाहुड़ में यह ६४वीं गाथा है।
इसी तरह समयसार की एक गाथा है-
आदा हु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरिते य।
आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे।।२७७।।
यही गाथा नियमसार में १०० नम्बर पर है और भावसंग्रह में ५८वें नम्बर पर है।
इसी प्रकार से ऐसी अनेक गाथाएं हैं जो कि इनके एक ग्रन्थ में होकर पुन: दूसरे ग्रन्थ में भी मिलती हैं।
इसी तरह-
भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च।
आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं।।१५।।
यह गाथा समयसार में १५वीं है। मूलाचार में भी यह गाथा दर्शनाचार का वर्णन करते हुए पांचवें अध्याय में छठे क्रमांक पर आयी है। ‘आदा खु मज्झ णाणे’ यह गाथा भी मूलाचार में आयी है।
रागो बंधइ कम्मं मुच्चइ जीवो विरागसंपण्णो।
एसो जिणोवदेसो समासदो बंधमोक्खाणं।।५०।।
यह गाथा मूलाचार के अध्याय ५ में है। यही गाथा किंचित् बदलकर समयसार में है। अन्तिम चरण में ‘तम्हा कम्मेसु मा रज्ज’ ऐसा पाठ बदला है। नियमसार ग्रन्थ श्री कुन्दकुन्ददेव की रचना है। यह ग्रन्थ मुनियों के व्यवहार और निश्चय चारित्र का वर्णन करता है। इसमें व्यवहार चारित्र अति संक्षिप्त है-गौण है, निश्चयचारित्र ही विस्तार से है, वही मुख्य है। इस ग्रन्थ में अनेक गाथाएं ऐसी हैं जो कि मूलाचार में ज्यों की त्यों पायी जाती हैं। यथा नियमसार में-
मूलाचार गाथा क्रम
१. | जं किंचि मे दुच्चरित्तंं सव्वं तिविहेण वोसरे। सामाइयं च तिविहं, करेमि सव्वं णिरायारं।।१०३।। |
(३९) |
२. | सम्मं मे सव्वभूदेसु, मज्झं ण वेरं केणवि। आसाए वोसरित्ता णं समाहि पडिवज्जाए।।१०४।। |
(४२) |
३. | ममत्तिं परिवज्जामि, णिम्मत्तिं उवट्ठिदो। आलंबणं च मे आदा, अवसेसं च वोस्सरे२।।९९।। |
(४५) |
४. | एगो य मरदि जीवो, एगो य जीवदि सयं। एगस्स जादिमरणं, एगो सिज्झदि णीरयो३।।१०१।। |
(४७) |
५. | एको मे सासदो अप्पा, णाणदंसणलक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा४।।१०२।। |
(४८) |
६. | णिक्कसायस्स दंतस्स, सूरस्स ववसायिणो। संसारभयभीदस्स पच्चक्खाणं सुहं हवे।।१०५।। |
(१०४) |
७. | मग्गो मग्गफलं त्ति य, दुविहं जिणसासणे समक्खादं। मग्गो मोक्खउवायो, तस्स फलं होइ णिव्वाणं१।।२।। |
(मू. अ. ५, गाथा ४) |
८. | जा रायादिणियत्ती, मणस्स जाणीहि तं मणोगुत्ती। अलियादिणियत्तिं वा, मोणं वा होदि वदिगुत्ती।।६९।। |
(मू. अ. ५, गा. १२५) |
९. | कायकिरियाणियत्ती, काउसग्गो सरीरगे गुत्तो। हिंसाइणियत्ती वा, सरीरगुत्ति त्ति णिद्दिट्ठा।।७०।। |
(मू. अ. ५, गा. १२६) |
१०. | ण वसो अवसो, अवसस्स कम्म वावस्सयं ति बोधव्वा। जुत्ति त्ति उवाअं ति य, णिरवयवो होदि णिज्जुत्ती।।१४२।। |
(मू. अ.७, गा. १४) |
११. | विरदो सव्वसावज्जे, तिगुत्तो पिहिदिंदिओ। तस्स सामाइगं ठादि, इदि केवलिसासणे२।।१२५।। |
(मू. अ.७, गा. २३) |
१२. | जस्स सण्णिहिदो अप्पा, संजमे णियमे तवे। तस्स सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे।।१२७।। |
(मू. अ, ७, गा. २४) |
१३. | जो समो सव्वभूदेसु, थावरेसु तसेसु वा। तस्स सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे।।१२६।। |
(मू. अ. ७, गा. २५) |
१४. | जस्स रागो दु दोसो दु, विगडिं ण जणेइ दु। तस्स सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे।।१२८।। |
(मू. अ.७, गा. २६) |
१५. | जो दु अट्टं च रुद्दं च झाणं वज्जेदि णिच्चसा। तस्स सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे।।१२९।। |
(मू. अ. ७, गा. ३१) |
१६. | जो दु धम्मं च सुक्कं च, झाणं झाएदि णिच्चसा। तस्स सामाइगं ठाई, केवलिसासणे।।१३३।। |
(मू. अ. ७, गा. ३२) |
इन गाथाओं से अतिरिक्त और भी गाथाएँ पाहुड ग्रन्थ में मिलती हैं। जैसे-
जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूदं।
जरमरणवाहिबेयण खयकरणं सव्वदुक्खाणं३।।९५।।
यह गाथा मूलाचार में है और दर्शनपाहुड में भी है।
मूलाचार श्री कुन्दकुन्ददेव की कृति है, इसके लिए एक ठोस प्रमाण यह भी है कि उन्होंने ‘द्वादशानुप्रेक्षा’ नाम से एक स्वतन्त्र रचना की है। मूलाचार में भी द्वादशानुप्रेक्षाओं का वर्णन है। प्रारम्भ की दो गाथाएँ दोनों जगह समान हैं। यथा-
‘‘सिद्धे णमंसिदूण य झाणुत्तमखविय दीहसंसारे।
दह दह दो दो य जिणे दह दो अणुपेहणा वुच्छं।।१।। मू. अ. ८
अद्धुवमसरणमेगत्तमण्ण संसारलोगमसुचित्तं।
आसवसंवरणिज्जर धम्मं बोहिं च चिंतेज्जो।।२।। मू. अ. ८
अर्थ-जिन्होंने उत्तम ध्यान के बल से दीर्घ संसार को नष्ट कर दिया है ऐसे सिद्धों को तथा दश, दश, दो और दो ऐसे १०+१०+२+२=२४ जिन-तीर्थंकरों को नमस्कार करके मैं दस, दो अर्थात् द्वादश अनुप्रेक्षाओं को कहूँगा। अध्रुव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि ये १२ अनुप्रेक्षा के नाम हैं। वर्तमान में तत्त्वार्थसूत्र महाग्रन्थ के आधार से बारह अनुप्रेक्षाओं का यह क्रम प्रसिद्ध है-१. अनित्य-अधु्रव, २. अशरण, ३ संसार, ४. एकत्व, ५. अन्यत्व, ६. अशुचि, ७. आस्रव, ८. संवर ६. निर्जरा, १०. लोक, ११. बोधिदुर्लभ, १२. धर्म। यहाँ मूलाचार में तृतीय ‘संसार’ अनुप्रेक्षा को पांचवें क्रम पर रक्खा है। दशवें क्रम की ‘लोक’ भावना को छठे क्रम पर लिया है। १२वीं अनुप्रेक्षा ‘धर्म’ को ११वें पर तथा ११वीं बोधि को १२वें पर लिया है। अथवा यों कहिए कि श्रीकुन्दकुन्ददेव पहले हुए हैं, उनके समय तक बारह अनुप्रेक्षाओं का यही क्रम होगा। उन्हीं के पट्टाधीश श्री उमास्वामी आचार्य बाद में हुए। उनके समय से क्रम बदल गया होगा। जो भी हो, ‘द्वादशानुप्रेक्षा’ ग्रन्थ में इसी क्रम से ही बारह अनुप्रेक्षाओं का विस्तार किया है। तथा मूलाचार में भी उसी क्रम से अलग-अलग अनुप्रेक्षाओं का वर्णन है। इस प्रकरण से भी यह मूलाचार श्री कुन्दकुन्द कृत है यह बात पुष्ट होती है।
श्री कुन्दकुन्ददेव ने चारित्रपाहुड में श्रावक के बारह व्रतों में जो क्रम लिया है, वही क्रम ‘यतिप्रतिक्रमण’ में श्री गौतमस्वामी द्वारा लिखित है। यथा-
तत्थ इमाणि पंचाणुव्वदाणि……तत्थ इमाणि तिण्णि गुणव्वदाणि पढमे गुणव्वदे दिसिविदिसि पच्चक्खाणं, विदिए गुणव्वदे विविधअणत्थदंडादो वेरमणं, तदिए गुणव्वदे भोगोपभोगपरिसंखाणं चेदि, इच्चेदाणि तिण्णि गुणव्वदाणि। तत्थ इमाणि चत्तारि सिक्खावदाणि, तत्थ पढमे समाइयं, बिदिए पोसहोवासयं, तदिए अतिथिसंविभागो, चउत्थे सिक्खावदे पच्छिम सल्लेहणामरणं चेदि। इच्चेदाणि चत्तारि सिक्खावदाणि।
दंसण वय सामाइय पोसह सचित्त राइभत्ते य।
बंभारंभ परिग्गह अणुमण मुद्दिट्ठ देसविरदो य।।
चारित्रपाहुड़ में-
पंचेवणुव्वयाइं गुणव्वयाइं हवंति तह तिण्णि।
सिक्खावय चत्तारि य संजमचरणं च सायारं।।२३।।
दिसिविदिसमाण पढमं अणत्थदंडस्स वज्जणं विदियं।
भोगोपभोगपरिमा इयमेव गुणव्वया तिण्णि।।२५।।
सामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोसहं भणियं।
तइयं च अतिहिपुज्जं चउत्थं सल्लेहणा अंते।।२६।।
दंसण वय सामाइय पोसह सचित्त राइभत्ते य।
बंभारंभ परिग्गह अणुमण उद्दिट्ठ देसविरदो य।।२२।।
इस प्रकार से श्री गौतमस्वामी ने पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये बारह व्रत श्रावक के माने हैं। इसमें से अणुव्रत में तो कोई अन्तर है नहीं, गुणव्रत में दिशविदिशप्रमाण, अनर्थदण्डत्यागव्रत और भोगोपभोगपरिमाण ये तीन गुणव्रत हैं। सामायिक, प्रोषध, अतिथिपूजा और सल्लेखना ये चार शिक्षाव्रत हैं।
दर्शन, व्रत, सामायिक आदि ये ग्यारह प्रतिमा हैं। पूर्व में जैसे श्री गौतमस्वामी ने प्रतिक्रमण में इनका क्रम रखा है, वही क्रम श्री कुन्दकुन्ददेव ने अपने चारित्रपाहुड ग्रन्थ में रखा है। इसके अनन्तर उमास्वामी आदि आचार्यों ने गुणव्रत और शिक्षाव्रत में क्रम बदल दिया है। तथा सल्लेखना को बारह व्रतों से अतिरिक्त में लिया है। इसी प्रकार प्रतिक्रमण में श्री गौतमस्वामी ने बारह तपों में जो क्रम रक्खा है, वही क्रम मूलाचार में देखा जाता है। तथा—‘तवायारो बारसविहो, अब्भंतरो छव्विहो बाहिरो छव्विहो चेदि।’ तत्थ बाहिरो अणसणं आमोदरियं वित्तिपरिसंखा, रसपरिच्चाओ सरीरपरिच्चाओ विवित्तसयणासणं चेदि। तत्थ अब्भंतरो पायच्छित्तं विणओ वेज्जावच्चं सज्झाओ झाणं विउस्सग्गो चेदि।’
तप आचार बारह प्रकार का है-अभ्यन्तर छह प्रकार का और बाह्य छह प्रकार का। उसमें बाह्य तप अनशन, अवमौदर्य, वृत्तपरिसंख्यान, रस परित्याग, शरीर परित्याग-कायोत्सर्ग और विविक्तशयनासन के भेद वाला है। और अभ्यंतर तप प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान तथा व्युत्सर्ग के भेद से छह भेदरूप है।
यही क्रम मूलाचार में है-
अणसण अवमोदरियं रसपरिचाओ य वुत्तिपरिसंखा।
कायस्स वि परितावो विवित्तसयणासणं छट्ठं।।३४६।। अ. ५
पायच्छित्तं विणयं वेज्जावच्चं तहेव सज्झायं।
झाणं च विउस्सग्गो अब्भंतरओ तवो एसो।।३६०।।
इससे यह ध्वनित होता है कि श्री गौतमस्वामी ने बाह्य तपों में कायोत्सर्ग को पाँचवा और विविक्तशयनासन को छठा लिया है। तथा अभ्यन्तर तपों में भी ध्यान को पाँचवाँ और व्युत्सर्ग को छठा कहा है।
इसी क्रम को लेकर मूलाचार में भी श्री कुन्दकुन्ददेव ने गौतमस्वामी के कथनानुसार ही क्रम रखा है। बाद में श्री उमास्वामी से तपों के क्रम में अन्तर आ गया है।
प्रतिक्रमण के कुछ अन्य पाठ भी ज्यों के त्यों श्री कुन्दकुन्द की रचना में पाये जाते हैं-
णिस्संकिद णिक्कंखिद णिव्विदिगिंच्छा अमूढदिट्ठी य।
उवगूहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पहावणा य ते अट्ठ२।।२०१।।
यह गाथा प्रतिक्रमण में है। यही की यही मूलाचार में है और चारित्रपाहुड में भी है। और भी कई गाथायें हैं, जो ‘प्रतिक्रमण’ में हैं वे ही ज्यों की त्यों मूलाचार में भी हैं-
खम्मामि सव्वजी\वाणं सव्वे जीवा खमंतु मे।
मित्ती मे सव्वभूदेसु वेरं मज्झं ण केण वि।।४३।। मूलाचार
रायबंधं पदोसं च हरिसं दीणभावयं।
उस्सुगत्तं भयं सोगं रदिमरदिं च वोसरे३।।४४।।
मिच्छत्तवेदरागा तहेव हस्सादिया य छद्दोसा।
चत्तारि तह कसाया चोद्दस अब्भंतरा ग्ांथा४।।४०७।। मू. अ. ७
इन सभी प्रमाणों से यह बात सिद्ध हो जाती है कि मूलाचार श्री कुन्दकुन्ददेव की ही रचना है।
अब यह प्रश्न होता है कि तब यह ‘वट्टकेर आचार्य’ का नाम क्यों आया है। तब ऐसा कहना शक्य है कि कुन्दकुन्ददेव का ही अपरनाम वट्टकेर माना जा सकता है। क्योंकि श्री वसुनन्दि आचार्य ने प्रारम्भ में तो श्रीमद्वट्टकेराचार्य: ‘श्री वट्टकेराचार्य’ नाम लिया है। तथा अन्त में ‘इति मूलाचारविवृतौ द्वादशोऽध्याय:। कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीतमूलाचाराख्यविवृति:। कृतिरियं वसुनन्दिन: श्री श्रमणस्य।’ ऐसा कहा है। इस उद्धरण से तो संदेह को अवकाश ही नहीं मिलता है।
पण्डित जिनदास फडकुले ने भी श्री कुन्दकुन्द को ही ‘वट्टकेर’ सिद्ध किया है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने ‘परिकर्म’ नाम की जो षटखण्डागम के त्रिखण्डों पर वृत्ति लिखी है, उससे उनका नाम ‘वृत्तिकार’-‘बट्टकेर’ इस रूप से भी प्रसिद्ध हुआ होगा। इसी से वसुनन्दी आचार्य ने आचारवृत्ति (टीका) के प्रारम्भ में (वट्टकेर) नाम का उपयोग किया होगा, अन्यथा उस ही वृत्ति (टीका) के अन्त्य में वे ‘कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीतमूलाचाराख्यविवृत्ति:’ ऐसा उल्लेख कदापि नहीं करते। अत: कुन्दकुन्दाचार्य ‘वट्टकेर’ नाम से भी दि. जैन जगत् में प्रसिद्ध थे१।’
‘जैनेन्द्रकोश’ में श्री जिनेन्द्रवर्णी ने भी मूलाचार को श्री कुन्दकुन्ददेव कृत माना है। इसकी रचना शैली भी श्री कुन्दकुन्ददेव की ही है। जैसे उन्होंने समयसार और नियमसार में सदृश गाथायें प्रयुक्त की हैं। यही शैली मूलाचार में भी है। यथा-
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होइ।
तह जाणओ दु ण परस्स जाणओ जाणओ सो दु।।३५६।।
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होइ।
तह पासओ दु ण परस्स पासओ पासओ सो दु।।३५७।।
इसी तरह की ‘संजओ’ ‘दंसणं’ आदि पद बदल कर गाथा ३६५ तक १० गाथायें हैं। ऐसे ही नियमसार में-
णाहं णारय भावो तिरियत्थो मणुवदेपज्जाओ।
कत्ता णहि कारयिदा अणुमंता णेव कत्तीणं।।७७।।
ऊपर की पंक्ति बदलकर नीचे की पंक्ति ज्यों की त्यों लेकर ८१ तक पाँच गाथायें हैं। आगे ९वें अधिकार में भी ‘तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे।’ नौ गाथाओं तक यह पंक्ति बार-बार आयी है। इसी तरह मूलाचार में-
आउकायिगा जीवा आउं जे समस्सिदा।
दिट्ठा आउसमारंभे धुवा तेसिं विराधना।।१२१।।
ऐसे ही ‘तेउकायिगा’ आदि पद बदल-बदल कर ये ही गाथायें पांच बार आई हैं। आगे भी इसी तरह बहुत सी सदृश गाथायें देखी जाती हैं जो कि रचना शैली की समानता को सिद्ध करती हैं।
तथा च-कन्नड़ भाषा में टीका करने वाले श्री मेघचन्द्राचार्य ने बार-बार इस ग्रन्थ को कुन्दकुन्ददेव कृत कहा है। और वे आचार्य दिगम्बर जैनाचार्य होने से स्वयं प्रामाणिक हैं। उनके वाक्य स्वयं आगमवाक्य हैं-प्रमाणभूत हैं, उनको प्रमाणित करने के लिए और किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। इसलिए यह मूलाचार श्री कुन्दकुन्ददेव की कृति है और श्री कुन्दकुन्ददेव का ही दूसरा नाम ‘वट्टकेराचार्य’ है, यह बात सिद्ध होती है।
जैन इतिहास के माने हुए विद्वान् स्व. जुगलकिशोर जी मुख्तार ने भी वीर सेवा मन्दिर से प्रकाशित ‘पुरातनवाक्य सूची’ की प्रस्तावना में मूलाचार को कुन्दकुन्द रचित मानते हुए वट्टकेर और कुन्दकुन्द को अभिन्न दिखलाया है।