खम्मामि सव्व जीवाणं, सव्वे जीवा खमन्तु में । मित्ती में सव्व भूदेसु, वैंर मज्झं ण केणवि ।।४३।।
वह चिन्तन में सभी जीवों को क्षमा करता है तथा भावना भाता है कि सभी जीव उसे क्षमा करें। मुनि समभाव रूप होकर सोचता है – मेरा किसी के साथ बैरभाव नहीं है। केवल बैरभाव ही नहीं, अपितु राग का अनुबंध, हर्ष, दीनभाव, भय, शोक, रति, अरति आदि का त्याग करता है। यतियों के छहकाल कहे गये हैं – १. दीक्षाकाल २. शिक्षा काल ३. गणपोषण काल ४. आत्मसंस्कार काल ५. सल्लेखना काल और ६. उत्तमार्थ काल। इनमें अंतिम तीन कालों में यदि मरण उपस्थित होने की सम्भावना हो तो मुनि क्षेत्र, वास्तु आदि बाह्य और मिथ्यात्व आदि अभ्यन्तर परिग्रह को तथा आहार के साथ शरीर आदि का मन वचन काय व कृत कारित अनुमोदना से त्याग करता है। वह पांच पापों का त्याग करता है तथा समस्त जीवों के प्रति समता भाव धारण करता है। किसी से भी बैर भाव न रखता हुआ समस्त आशा को त्याग कर समाधि स्वीकार करता है। सल्लेखना काल में वह मुनि विचार करता है –एओ में सस्सओ अप्पा, णाणदंसणलक्खणो । सेसा में बहिरा भावा, सव्वे संजोग लक्खणा ।।४८।।
मेरा आत्मा ही शाश्वत है, ज्ञानदर्शन लक्षण वाला है। जीव अकेला जन्मता और मरता है। शेष सभी बाहरी संयोग है। ऐसा विचार कर देह से निर्ममत्व भाव करता हुआ आत्मा का आलम्बन लेता है। संसार के सभी पदार्थ संयोग रूप हैं। जहां संयोग है, वियोग उसके पीछे खड़े है। संयोग के कारण जीव दुखी है अस्तु मन वचन काय पूर्वक वह समस्त संयोग को छोड़ता है।वही ग्रन्थ- श्लोक नं. ४९ पृ. ५६