श्रमण जैन परम्परा में चतुर्विध संघ की स्वीकृति है । चतुर्विध संघ में मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका ये चार वर्ग आते हैं । इनमें मुनि (पुरुष) तथा आर्यिका (स्त्री) गृहस्थावस्था छोड्कर दीक्षित होते हैं तथा श्रावक एवं श्राविका गृहस्थ अणुव्रतादि का पालन करने वाले पुरुष व स्त्री हैं । चतुर्विध संघ में आर्यिका का द्वितीय स्थान है । संस्कृत के प्रामाणिक शब्दकोशों में उग्रर्यक, आर्यिका शब्द का भी उल्लेख है जिसका अर्थ आदरणीय महिला के रूप में किया गया है ।
संस्कृत- हिन्दी कोश, वामन शिवराम आप्टे, प्रका. मोतीलाल बनारसी दास, दिल्ली, द्वि. सं., 1969, पू. 16०. दिगम्बर जैन परम्परा में जीव की स्त्री पर्याय से मुक्ति यद्यपि स्वीकार नहीं की गयी है, जिसके पीछे मुख्य कारण मोक्ष के लिए अनिवार्य उकृष्टतम संयम एवं कठोर तपश्चरणादि में स्त्रियों की स्वभावगत शारीरिक अक्षमता माना गया है; किन्तु स्त्री अवस्था में भी संभव उकृष्ट धर्म साधना की उन्हें पूर्ण अनुमति तथा सुविधा प्रदान की गयी है । इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव के समवशरण में जहाँ एक तरफ कुल मुनियों की संख्या ०84 (चौरासी हजार चौरासी) थी, वहीं दूसरी तरफ आर्यिकाओं की संख्या 35०००० (तीन लाख पचास हजार) थी । श्रावकों की संख्या तीन लाख थी तो श्राविकाओं की संख्या पांच लाख थी । इसी प्रकार अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर के समवशरण में 14000 (चौदह हजार) मुनि थे, तो आर्यिकाओं की संख्या 36000 थी । यदि एक लाख श्रावक थे तो तीन लाख श्राविकायें थीं । शेष सभी तीर्थंकरों के समवशरणों में – विभिन्न संख्याओं के माध्यम से यही दिखायी देता है कि आर्यिकाओं और श्राविकाओं की संख्या कहीं अधिक रही है ।जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-2, संक. सु. जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, पृष्ठ ३८६-८८. यह स्थिति वर्तमान में भी देखी जा सकती है ।
1. आर्यिका के पर्यायवाची शब्द -‘ दिगम्बर परम्परा में दीक्षित स्त्री को आर्यिका कहा जाता है जबकि श्वेताम्बर परम्परा में दीक्षित स्त्री को साध्वी कहा जाता है । भगवती आराधना गाथा-३९६) में अज्जा (आया३ई शब्द आया है, मूलाचार में भी यही शब्द प्रयोग किया गया है । मूलाचार-आचार्य वट्टकेर विरचित, वसुनन्दि की संस्कृत वृत्ति सहित, प्रका. भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 2006, गाथा- 177,184,185,187,191,196. इसी ग्रन्थ में गाथा- 180 में ‘विरदाणं’ (विरतीना) शब्द का प्रयोग आर्यिका के लिए है । वसुनन्दि ने गाथा- 177 की वृत्ति में ‘संयती’ कहा है । पद्मपुराण में ‘संयता’ और ‘श्रमणी’ शब्द आर्यिकाओं के लिए ही प्रयुक्त किये गये हैं ।’त्यक्ताशेष गृहस्थवेषरचना मंदोदरी संयता । (पर्व 78, छन्द 94) श्रीमती श्रमणी पार्श्वे बखः परमार्यिका । – पद्मपुराणमूलाचार में प्रधान आर्यिका को ‘गणिनी’ तथा संयम, साधना एवं दीक्षा में ज्येष्ठ, वृद्धा आर्यिका को स्थविरा (थेरी) कहा गया है ।मूलाचार, देखें गाथा 178,192, वृत्ति सहित, तथा गाथा-१९४’ वर्तमान में सामान्यत: ‘माताजी’ सम्बोधन उनके लिए प्रचलित है । प्रधान आर्यिका को ‘बड़ी माताजी’ सम्बोधन भी जन-समुदाय में प्रचलित हो गया है । किन्तु इन सम्बोधनों का कोई शास्त्रीय आधार देखने में नहीं आया है । 2. आर्यिकाओं का स्वरूप -‘ मूलाचारकार के अनुसार ‘आर्यिकायें विकार रहित वस्त्र और वेष को धारण करने वालों, पसीनाघुस्त मैल और धूलि से लिप्त रहती हुयीं भी वे शरीर संस्कार से शून्य रहती हैं । धर्म, कुल, कीर्ति और दीक्षा के अनुकूल निर्दोषचर्या को करती है”
अविकारवत्यवेसा जल्लमलविलित्तचतदेहाओ ।
धन्नकुलकिसिदिक्खापहिरूपविसुद्धचरियाओ । । गाथा- 19०
इस गाथा की आचारवृत्ति में कहा है कि जिनके वस्त्र, वेष और शरीर आदि के आकार विकृति से रहित, स्वाभाविक-सात्त्विक हैं, अर्थात जो रंग-बिरंगे वस्त्र, विलासयुक्त गमन और भूविकार कटाक्ष आदि से रहित वेश को धारण करने वाली हैं । सर्वांग में लगा हुआ पसीना से युक्त जो रज है वह जल्ल है । अंग के एक देश में होने वाला मैल मल कहलाता है । जिसका गात्र इन जल्ल और मल से लिप्त रहता है, जो शरीर के संस्कार को नहीं करती हैं, ऐसी ये आर्यिकायें क्षमा, मार्दव आदि धर्म, माता-पिता के कुल, अपना यश और अपने व्रतों के अनुरूप निर्दोष चर्या करती हैं अर्थात् अपने धर्म, कुल आदि के विरुद्ध आचरण नहीं करती हैं ।मूलाचार, गाथा-190, आचारवृत्ति, पृष्ठ-155
3. आर्यिकाओं का समाचार -‘ जिस प्रकार आचारविषयक आचारादि ग्रन्धों में मुनियों का स्वरूप, चर्या, नियम- विधानादि का उल्लेख प्राप्त होता है उस विस्तार के साथ आर्यिकाओं का वर्णन प्राप्त नहीं होता है । साधना के क्षेत्र में मुनि और आर्यिका मैं किब्बित् अन्तर स्पष्ट करके आर्यिकाओं के लिए मुनियों के समान ही आचार-समाचार का प्रतिपादन इस साहित्य में प्राप्त होता है । मूलाचार तथा उसकी वसुनन्दिकृत संस्कृत वृत्ति में स्पष्ट निर्देश है कि जैसा समाचार श्रमणों के लिए कहा गया है उसमें वृक्षमूल योग (वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे खड़े होकर ध्यान करना), अभ्रावकाशयोग (शीत ऋतु में खुले आकाश में तथा ग्रीष्म ऋतु में दिन में सूर्य की ओर मुख करके खड्गासन मुद्रा में ध्यान करना) एवं आतापन योग (प्रचण्ड धूप में भी पर्वत ‘की चोटी पर खड़े होकर ध्यान करना) आदि योगों को छोड्कर अहोरात्र सम्बन्धी सम्पूर्ण समाचार आर्यिकाओं के लिए भी यथायोग्य रूप में समझना चाहिए’मूलाचार-गाथा-187, वृत्ति सहित
एसो अज्जाणपि अ सामाचारो जहक्लिओ पुव्वै ।
सबकि अहोरते विभासिदब्बो जधाजोग्गं । । (187)
इस गाथा से यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्यिकाओं के लिए वे ही अट्ठाईस मूलगुण और वे ही प्रत्याख्यान, संस्तर ग्रहण आदि, वे ही औघिक पदविभागिक समाचार माने गये हैं जो कि इस ग्रन्थ में मुनियों के लिए वर्णित हैं । मात्र ‘यथायोग्य’ पद से टीकाकार ने स्पष्ट कर दिया कि उन्हें वृक्षमूल आदि उत्तर योगों के करने का अधिकार नहीं है, यही कारण है कि आर्यिकाओं के लिये पृथक् दीक्षाविधि या पृथक् विधि-विधान का गन्ध नहीं है ।.
3. 1 आर्यिकाओं के रहने का स्थान तथा व्यवहार -‘ जिस प्रकार मुनि सदा भ्रमणशील रहते हुये संयम साधना करते हैं उसी प्रकार आर्यिकायें भी अनियत विहार करती हुयीं सतत् साधनारत रहती हैं; किन्तु जब उन्हें रात्रि में या कुछ दिन या चातुर्मास आदि में रुकना होता है तब उनके रहने का स्थान कैसा होना चाहिए इसका वर्णन मूलाचार में किया गया
अगिहस्थमिस्सणिलए असण्णिवाए विसुद्धसंचारे ।
दो तिण्णि व अज्जाओ बहुगीओ वा सहत्यंति । । (गाथा- 191)
अर्थात् जो गृहस्थों से मिश्रित न हो, जिसमें चोर आदि का आना-जाना न हो और जो विशुद्ध संचरण के योग्य हो ऐसी वसतिका में दो या तीन या बहुत सी आर्यिकायें एक साथ रहती हैं । आचारवृत्ति में कहा है कि जो अपनी पत्नी और परिग्रह मूएं आसक्त हैं उन गृहस्थों से मिश्र वसतिका नहीं होनी चाहिए । जहाँ पर असंयतजनों का संपर्क नहीं रहता है, जहाँ पर असज्जन और तिर्यंचों आदि का रहना नहीं है अथवा जहाँ सलुरुषों की सन्निकटता नहीं है अथवा जहाँ असंज्ञियों-अज्ञानियों का आना-जाना नहीं है अर्थात् जो बाधा रहित प्रदेश है । विशुद्ध संचार अर्थात् जो बाल, वृद्ध और रुग्ण आर्यिकाओं के रहने योग्य है और जो शास्त्रों के स्वाध्याय के लिए योग्य है, वह स्थान । इस प्रकार, मुनियों की वसतिका की निकटता से रहित, विशुद्ध संचरण युक्त वसतिका में आर्यिकायें दो या तीन अथवा तीस या चालीस पर्यन्त भी एक साथ रहती हैं । आर्यिकायें परस्पर में एक दूसरे की अनुकूलता रखती हुयीं, एक दूसरे की रक्षा के अभिप्राय को धारण करती हुयी; रोष, बैर, माया से रहित; लज्जा, मर्यादा और क्रियाओं सें संयुक्त; अध्ययन, मनन, श्रवण, उपदेश, कथन, तपश्चरण, विनय, संयम और अनुप्रेक्षाओं में तत्पर रहती हुयी; ज्ञानाभ्यास-उपयोग तथा शुभोपयोग से संयुक्त, निर्विकार वस्त्र और वेष को धारण करती हुयीं, पसीना और मैल से लिप्त काय को धारण करती हुयीं, संस्कार-मृगार से रहित; धर्म, कुल, यश और दीक्षा के योग्य निर्दोष आचरण करती हुयीं अपनी वसतिका में निवास करती हैं –
अण्णोण्णणुकूलाओ अण्णोण्णहिरक्सणामिजुत्ताओ ।
गयरोसवेरमाया सलज्जमज्जादकिरियाओ । ।
अव्ययो परियट्ठे सवणे कह- तहाणुपेहाए ।
तवविणयसंजमेसु य अविरहिदुपओगजोगआओ ।
(- मूलाचार, गाथा 1 88- 189)
82 आर्यिकाओं की आहारचर्या -‘ आर्यिकाओं को आहारचर्या के लिए अकेले जाने की स्वीकृति नहीं है । आचार में कहा है कि आर्यिकायें तीन, पांच, अथवा सात की संख्या में स्थविरा (वृद्धा) आर्यिका के साथ मिलकर उनका अनुगमन करती हुई तथा परस्पर एक दूसरे के रक्षण (सँभाल) का भाव रखती हुई ईर्यासमिति पूर्वक आहारार्थ निकलती हैं –
तिण्णि व पंच व सत्त व अज्जाओ अण्यमण्णरक्साओ । थेरीहिं सहंतरिदा मिक्साय समोदरति सदा । ।
गाथा-? 94
आचारवृत्ति के अनुसार यहाँ भिक्षावृत्ति उपलक्षण मात्र है । जैसे किसी ने कहा – ‘कौवे से दही की रक्षा करना’ तो उसका अभिप्राय यह हुआ कि बिल्ली आदि सभी से उसकी रक्षा करना है । उसी प्रकार से यहाँ ऐसा अर्थ लेना चाहिए कि आर्यिकाओं का जब भी वसतिका से गमन होता है तब इसी प्रकार से होता है, अन्य प्रकार से नहीं । तात्पर्य यह है कि आर्यिकायें देववंदना, गुरुवंदना, आहार, विहार, नीहार आदि किसी भी प्रयोजन के लिए बाहर जावें तो दो-चार आदि मिलकर तथा वृद्धा आर्यिकाओं के साथ होकर ही जावें । (पृ. 15 8- 159) 3 .3 आर्यिकाओं के लिए निषिद्ध कार्य -‘ बिना किसी उचित प्रयोजन के परगृह, चाहे वह मुनियों की ही वसतिका क्यों न हो, या गृहस्थों का घर हो, वहाँ आर्यिकाओं का जाना निषिद्ध है । यदि भिक्षा, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय आदि विशेष प्रयोजन से वहाँ जाना आवश्यक हो तो गणिनी महरिका या प्रधान आर्यिका) से आज्ञा लेकर अन्य कुछ आर्यिकाओं के साथ मिलकर जा सकती हैं, अकेले नहीं –
ण य परगेहमकज्जे गच्छे कज्जे अवस्सगमणिज्जे । गणिणीमापुच्छित्ता संघाडेणेव गच्छेब्ज । ।
(आचार-गा. 192)
आर्यिकाओं का स्व-पर स्थानों में दुःखार्त्त को देखकर रोना, अश्रुमोचन, स्नान (बालकों को स्नानादि कार्य कराना), भोजन कराना, रसोई पकाना, सूत कातना, छह प्रकार का आरम्भ -और जीवघात की कारणभूत क्रियायें पूर्णत: निषिद्ध हैं । संयतों के पैरों की मालिश करना, उनका प्रक्षालन करना, गीत गाना आदि कार्य उन्हें पूर्णत: निषिद्ध हैं –
रोदचाण्हावणभोयशपयण सुत्त च छब्बिहारंभे । विरदाण पादमक्खणधोवणगेय च ण य कुज्जा । ।
(गा. 193)
असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और लेख – ये जीवघात के हेतुभूत छह प्रकार की आरम्भ क्रियायें हैं । ये भी आर्यिकाओं को निषिद्ध हैं मूलाचार आचारवृत्ति; विशेषार्थ सहित; गाथा-८८५; पू. 305-6 3
.4 स्वाध्याय के नियम -‘ स्वाध्याय को अन्तरंक् तप की श्रेणी में गिना जाता है । मुनि-आर्यिका आदि सभी के लिए स्वाध्याय आवश्यक माना है । मूलाचार में आर्यिकाओं के स्वाध्याय के विषय में लिखा है कि गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली तथा अभिन्नदशपूर्वधर – इनके द्वारा कथित सूत्रग्रंथ, अंग ग्रंथ तथा पूर्वग्रंथ, इन सबका अस्वाध्यायकाल में अध्ययन मन्दबुद्धि के श्रमणों और आर्यिका समूह के लिए निषिद्ध है । अन्य मुनीश्वरों को भी द्रव्य-क्षेत्र-काल आदि की शुद्धि के बिना उपर्युक्त सूत्रग्रंथ पढ़ना निषिद्ध है । किन्तु इन सूत्रग्रंथों के अतिरिक्त आराधनानिर्युक्ति, मरणविभक्ति, स्तुति, पंचसंग्रह, प्रत्याख्यान, आवश्यक तथा धर्मकथा सम्बन्धी ग्रन्धों को एवं ऐसे ही अन्यान्य अन्यों को आर्यिका आदि सभी अस्वाध्यायकाल में भी पढ़ सव?ते हैं । (आ. वृत्ति. पू. २५५-५०)
तै पढिदुमसज्याये णो कष्पदि विरद इत्थिवग्गस्स । एत्तो अण्णो गंथो कप्पदि पढिदुं असज्याए । ।
गाथा-२७८
आराहणणिन्तुत्ती मरणविभत्ती य संगहत्युदिओ । पच्चक्साणावासयधम्मकहाजो य एरिसओ । ।
(गा. 279)
35 वंदना और विनय संबंधी निर्देश -‘ आर्यिकाओं के द्वारा श्रमणों की वंदना विधि के विषय में कहा है कि आचार्य की वन्दना पाँच हाथ दूर से, उपाध्याय की वन्दना छह हाथ दूर से और साधु की वन्दना सात हाथ दूर से गवासन पूर्वक बैठकर ही करना चाहिए ।
पंच छ सत्त हत्थे सूरी अज्जावगो य साधू य । परिहरिऊणज्जाओ गवासणेणेव वंदंति । । गाथा-१९५
यहाँ यह क्रमभेद आलोचना, अध्ययन और स्तुति करने की अपेक्षा से यहाँ तो आर्यिकाओं द्वारा श्रमणों की विनय की व्याख्या की है किन्तु पंचाचाराधिकार में विनय के प्रकरण में यह भी बताया गया है कि मुनियों को भी आर्यिकाओं के प्रति यथायोग्य विनय रखनी चाहिए ।
रादिणिए उणरादिणिएसु अ अज्जासु चेव गिहिवग्गे । विष्णु. जहारिओ सो कायब्बो अप्पमत्तेण । । गाथा-३८४
अर्थात् एक रात्रि भी अधिक गुरा में, दीक्षा में एक रात्रि न्यून भी मुनि में, आर्यिकाओं में और गृहस्थों में अप्रमादी मुनि को यथायोग्य यह विनय करनी चाहिए । आचारवृत्ति के अनुसार जो दीक्षा में एक रात्रि भी बड़े हैं वे राव्यधिक गुरु हैं । यहाँ राव्यधिक शब्द से दीक्षा गुरु, भुतगुरु और तप में अपने से बड़े ओं को लिया है । जो दीक्षा से एक रात्रि भी छोटे हैं वे ऊनरात्रिक कहलाते । यहाँ पर ऊनरात्रिक से जो तप में कनिष्ठ-लधु हैं, गुणों में लघु हैं और आयु लघु है उन साधुओं में, अपने से छोटे मुनियों में, आर्यिकाओं ह्में और श्रावक ‘ में प्रमाद रहित मुनि को यथायोग्य विनय करना चाहिए । अर्थात् साधुओं जो योग्य हो, आर्यिकाओं के जो योग्य हो, श्रावकों के जो योग्य हो और यहाँ पर जो मुनियों द्वारा आर्यिकाओं की विनय है उसे नमस्कार नहीं समझना, प्रत्युत यथायोग्य शब्द से ऐसा समझना कि मुनिगण आर्यिकाओं का भी यथायोग्य आदर करें, क्योंकि ‘यथायोग्य’ पद उनके अनुरूप अर्थात् पदस्थ के अनुकूल विनय का वाचक है । उससे आदर सन्मान सौर बहुमान ही अर्थ सुघटित है”मूलाचार आचारवृत्ति; विशेषार्थ सहित; गाथा-384; पृ. 305-6 36 आर्यिकाओं के गणधर ‘ आर्यिकाओं को दीक्षा देना, उनकी शंकाओं का समाधान करना तथा उन्हें स्वाध्याय आदि करवाने के उद्देश्य से श्रमण को उनके संपर्क में यथासमय आना होता है । श्रमण संघ की इस – व्युवस्था के अनुसार साधारण श्रमणों (मुनियों) की अकेले आर्यिकाओं से बातचीत आदि का निषेध है । आर्यिकाओं को प्रतिक्रमण, स्वाध्याय आदि विधि संपन्न कराने के लिए मूलाचार के अनुसार गणधर मुनि की व्यवस्था होनी चाहिए । आर्यिकाओं के गणधर (आचार्य आदि विशेष) को कैसा होना चाहिए उसके विषय में आचार्य वट्टकेर लिखते हैं – जो धर्म के प्रेमी हैं, धर्म में दृढ़ हैं, संवेग भाव सहित हैं, पाप से भीरु हैं, शुद्धाचरण वाले हैं, शिष्यों के संग्रह और अनुग्रह में कुशल हैं और हमेशा ही पाप क्रिया की निवृत्ति से युक्त हैं, गंभीर हैं, स्थिरचित्त हैं, मित बोलने वाले हैं, किंचित् कुतूहल करते हैं, चिरदीक्षित हैं, तत्वों के ज्ञाता हैं – ऐसे मुनि आर्यिकाओं के आचार्य होते हैं :
पियधम्मो दढधम्मो सविग्गोउबज्जभीरु परिसुद्धो । संगहणुग्गहकुसलो सदद सारक्सणाजुत्तो । ।
गंभीरो दुद्धरिसो मिदवादी अप्पकोदुहल्लो य । चिरपब्बइदो गिहिदत्थो अन्नाणं गणधरो होदि । ।
(गाथा 1 83- 184)
यदि आचार्य इन गुणों से रहित हैं और आर्यिकाओं के गणधर बनते हैं तो क्या होगा? उसके बारे में भी मूलाचारकार कहते हैं कि इन गुणों से रहित आचार्य यदि आर्यिकाओं का आचार्यत्व करता है तो उसके चार काल विराधितहोते हैं और गच्छ की विराधना हो जाती है –
एवं गुणवदिरित्तो जदि –कारत करेदि अज्जाण चत्तारि कालगा से गच्छादिविराहणा होब्ज । । 185 । ।
आचारवृत्ति में चार काल से तात्पर्य गणपोषण, आत्मसंस्कार, सल्लेखना और उत्तमार्थ, अथवा दीक्षाकाल, शिक्षाकाल, गणपोषण और आत्मसंस्कार लगाया गया है । इस प्रकार, यदि आचार्य गुणहीन हो तो संघ भोई भंग हो जाता है ।
4. आर्यिका और मुनि के मध्य निर्धारित मर्यादायें -‘ जैन श्रमण परम्परा में श्रमण संघ को निर्दोष एवं अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए आगम साहित्य में अनेक विधान निर्मित हैं । उनमें आर्यिका और मुनि के मध्य संबंधों की मर्यादा कैसी होनी चाहिए इस बात पर भी विशेष बल दिया है । मूलाचार के अनुसार मुनियों एवं आर्यिकाओं का संबंध (परस्पर व्यवहार) धार्मिक कार्यों तक ही सीमित है । यदि आवश्यक हुआ तो कुछ आर्यिकायें एक साथ मिलकर श्रमण से धार्मिक शास्त्रों के अध्ययन, शंका-समाधान आदि कार्य कर सकती है अकेले नहीं । अकेले श्रमण और आर्यिका के परस्पर बातचीत तक का निषेध है । कहा भी है कि तरुण श्रमण किसी भी तरुणी आर्यिका या अन्य किसी स्त्री से कथा-वार्तालाप न करे । यदि इसका उल्लंघन करेगा तो आज्ञाकोप, अनवस्था (मूल का ही विनाश), मिथ्यात्याराधना, आत्मनाश और संयम-विराधना – इन पाप के हेतुभूत पांच दोषों से दूषित होगा –
तरुणो तरुणीए सह कहा व उल्लावण च जदि कुज्जा । आणाकोवादीया पंचवि दोसा कदा तेण । । (गा. 179 वृत्ति सहित)
अध्ययन या शंका-समाधान अथवा अन्य प्रयोजनभूत, अत्यावश्यक धार्मिक कार्यों के लिए आर्यिकायें यदि श्रमण संघ आयें तो उस समय श्रमण को वहाँ अकेले नहीं ठहरना चाहिए और निष्प्रयोजन उनसे वार्तालाप नहीं करना चाहिए किन्तु कदाचित् धर्मकार्य के प्रसंक् में बोलना भी ठीक हैमूलाचार, गाथा-177 वृत्ति सहित, पृ. 146
अज्जागमणे काले ण अत्यिदब्बं तघेव एक्केण । ताहिं पुण सल्लावो ण कायथ्यों अकब्जेण । । (गा. 177)
एक आर्यिका कुछ प्रश्नादि पूछे तो अकेला’ श्रमण उसका उत्तर न दे, अपितु कुछ श्रमणों के सामने उत्तर दे । यदि कोई आर्यिका गणिनी को आगे करके प्रश्न करे तब ही उत्तर देना चाहिए –
तासिं पुण पुच्छाओ इक्किस्से णय कहिज्ज एक्को दु । गणिणी पुरओ किच्चा जदि पुच्छइ तो कहेदब्बं । । (गा. 178)
अभी तक तो यह बताया कि आर्यिका को अकेले श्रमणों की वसतिका में नहीं जाना चाहिए किन्तु मूलाचार में यह भी कहा है कि श्रमणों को भी आर्यिकाओं की वसतिका में नहीं जाना चाहिए, न ठहरना चाहिए । वहाँ क्षणमात्र या कुछ समय तक की प्रयोजनभूत क्रियायें भी नहीं करनी चाहिए । अर्थात् वहाँ बैठना, लेटना, स्वाध्याय, आहार, भिक्षा-ग्रहण, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग एवं मलोत्सर्ग आदि क्रियायें पूर्णत: निषिद्ध हैंयही गाथा समयसाराधिकार में भी है, देखें गाथा-954 (मात्र भिक्षा-ग्रहण का प्रयोग नहीं है ।)
णो कष्पदि विरदाणं विरदीणमुवासयम्हि विशेखें । तत्य णिसेज्जउवट्ठणसच्छायाहारभिक्सोवसरण । ।
(गाथा- 18०, वृत्तिसहित) मूलाचार के समयसाराधिकार में कहा है कि जो मुनि आर्यिकाओं की वसतिका में आते-जाते हैं, उनकी व्यवहार से भी निन्दा होती है और परमार्थ से भी । पारस्परिक आकर्षण बढ़ाने वाले प्रयास से परमार्थ बाधित होता है तथा व्यवहार जगत में भी ऐसे मुनि निन्दा के भागी बन जाते हैं –
होदिं दुगंछा दुविहा ववहारादो तधा य परमट्ठे । पयदेण य परमके ववहारेण य तहा पच्छा । । गाथा-७५५)
इस प्रकार मुनियों को आर्यिकाओं के रहने वाले स्थल पर आने-जाने का स्पष्ट रूप से निषेध किया गया है । इसी प्रकरण में आगे कहा है कि जो साधु क्रोधी, चंचल, आलसी, चुगलखोर है एवं गौरव और कषाय की बहुलता वाला है वह श्रमण आश्रय लेने योग्य नहीं है –
चंडो चवलो मंदो तह साहू पुट्टिमसपहिसेबी । गारवकसायबहुलो दुरासओ होदि सो समणो । । गाथा-९५७
यह गाथा आर्यिकाओं की चर्चा के बाद क्रमप्राप्त होने से ऐसा लगता है कि उन्हीं के लिए कही गई है किन्तु सम्भवत: मूलाचारकार यह संदेश सभी मुनियों एवं श्रावकों को देना चाह रहे हैं क्योंकि गाथा संख्या-959 में उनका म्पप्ट कहना है कि आरम्भ सहित श्रमण चिरकाल से दीक्षित क्यों न हो तो भी उसकी उपासना न करें –
दंभ परपरिवादं णिसुणत्तण पावसुत्तपडिसेवं । चिरपव्यइद पि मुणी आरंभजुद ण सेविब्ज । । गाथा-९५३
वसुनन्दि इस गाथा की टीका करते हुये कहते हैं कि ‘मारण, उच्चाटन, भीकरण, मच, यन्त्र, तन्त्र, ठगशास्त्र, पुत्रशास्त्र, कोकशास्त्र, वात्मायनशास्त्र, के लिए पिण्ड देने के कथन करने वाले शास्त्र, मांसादि के गुणविधायक छ शास्त्र, सावद्यशास्त्र तथा ज्योतिष शास्त्र में रत मुनि भले ही कितना ज्येष्ठ प्ट’ न हो उसका संसर्ग न करें । (आचारवृत्ति पू. 142, मूलाचार उत्तरार्द्ध) इस प्रकार मूलाचार में ऐसे मुनि के संसर्ग और उनकी उपासना का निषेध किया गया है जो वीतरागता के पथ से चूत होकर आरम्भयुक्त हो गये हैं । उपसंहार -‘ प्रस्तुत निबन्ध में अधिकांश प्रतिपादन आचार्य उकेर विरचित मूलाचार तथा इसी ग्रन्थ में वसुनन्दि विरचित आचारवृत्ति के आधार पर किया गया है । आचार्य कुन्दकुन्द विरचित ग्रन्थों तथा भगवती आराधना आदि अन्यों में भी आर्यिकाओं के सम्बन्ध में चर्चायें विद्यमान हैं । सभी स्थलों पर आर्यिकाओं का सम्माननीय स्थान है; उनके महत्व तथा उनकी चर्याओं का उल्लेख है । यह बात भी सही है कि आर्यिकाओं के आचार के लिए पृथक् शास्त्र की रचना नहीं हुयी । मूलत: श्रमणाचार की ही चर्चा है और अधिकांशत: (कुछ बातों को छोड्कर) आर्यिकाओं के लिए भी श्रमणवत् ही सभी विधान हैं । आर्यिकाओं को वे ही महाव्रत कहे गये हैं जो मुनियों के हैं किन्तु आर्यिकाओं के लिए ये महाव्रत उपचार से कहे हैं । इसी प्रसंह में इस ग्रंथ की हिन्दी अनुवादिका आर्यिका ज्ञानमती जी ने आद्य उपोद्घात में सागारधर्मामृत के एक श्लोक के आधार पर लिखा है कि ‘ ‘ग्यारहवीं प्रतिमाधारी ऐलक लंगोट में ममत्व सहित होने से उपचार महाव्रत के योग्य भी नहीं है, किन्तु आर्यिका एक साड़ी मात्र धारण करने पर भी ममत्व रहित होने से उपचार महावती है । कीपीने5पि सँर्न्त्यत्वात् नार्हत्यार्यो महाव्रतम् । अपि भाक्तममूर्च्छत्वात् साटिके5प्यार्यिकार्हति । । मूलाचार, उत्तरार्द्ध; आध उपोद्घात, पू० 5- एक साड़ी पहनना और बैठकर आहार करना इन दो चर्याओं में ही मुनियों से इनमें अन्तर है ।’ ‘ श्रमणों और आर्यिकाओं के बीच मर्यादाओं का विधान मूलाचार में किया गया है उसमें एक भी विधान ऐसा नहीं है जिसका पालन वर्तमान में सहजतया न किया जा सके, प्रत्युत वर्तमान के वातावरण में उसका पालन अधिक दृढ़ता पूर्वक होना चाहिए । अन्य सहायक ग्रन्य- 1. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग 1, 2,3,4,5 2. मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन- डी. फूलचन्द जैन प्रेमी, प्रका. पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी 3. मूलाचार भाषा वचनिका, पं. नन्दलाल छाबड़ा, संपा. डी. फूलचन्द जैन एवं डी. मुन्नीपुष्पा बना और बैठकर —त्नैंश् त्थूँ जैन, प्रका. भा- अनेकान्त विद्वत्परिषद् .. 4. ‘आर्यिका, आर्यिका हैं; मुनि नहीं’ – पं० रतनलाल बैनाडा, प्रका. ज्ञानोदय प्रकाशन, जबलपुर