कूटानां पर्वतानां च भवनानां महीरुहाम् । वापीनामपि सर्वासां वेदिका स्थलवद्भवेत्१।।३२६।।
।। समाप्तम्।।
सौमनस वन, इष्वाकार पर्वत, मानुषोत्तर पर्वत, कुण्डल गिरि, वक्षार पर्वत, कुलाचल और रमणीय रुचक पर्वत; इनके ऊपर स्थित जिनभवन की लम्बाई पचास (५०) योजन, विस्तार उससे आधा (२५ योजन) तथा ऊँचाई सैंतीस योजन और एक योजन के द्वितीय भाग (३७ १/२ यो.) प्रमाण मानी जाती है। (प्रत्येक जिनभवन में एक महाद्वार और दो क्षुद्रद्वार होते हैं) उसके महाद्वार का विस्तार चार (४) योजन और ऊँचाई आठ (८) योजन प्रमाण होती है। क्षुद्रद्वारों का प्रमाण महाद्वार की अपेक्षा आधा होता है। जिनभवन का अवगाढ (नींव) एक कोस मात्र होता है।।२९०-२९२।। जिनभवन का मनोहर देवच्छंद आठ (८) योजन लम्बा, दो (२) योजन विस्तीर्ण, चार (४) योजन ऊँचा तथा एक कोस अवगाहवाला होता है।।२९३।। उक्त देवच्छंद रत्नमय खम्भों के आश्रित, सुन्दर सूर्यादिके युगलों से उज्ज्वल, तथा अनेक पक्षियों एवं मृगों के युगलों से नित्य ही अलंकृत होता है।।२९४।। जिनमन्दिर में एक सौ आठ (१०८) गर्भगृह और उनमें स्फटिक एवं रत्नों से प्रशस्त रमणीय सिंहासन होते हैं।।२९५।। वहाँ पर्यंक आसन के आश्रित अर्थात् पद्मासन से स्थित और पाँच सौ धनुष ऊँची एक सौ आठ (१०८) रत्नमयी जिनप्रतिमाएँ विराजमान होती हैं।।२९६।। वहाँ हाथों में चामरों को धारण करने वाली व प्रत्येक रत्नों से निर्मित ऐसी बत्तीस नाग-यक्षों के युगलों की मूर्तियाँ होती हैं।।२९७।। प्रत्येक जिनबिम्ब के दोनों पाश्र्व भागों में सनत्कुमार और सर्वाण्ह यक्षों के तथा श्रीदेवी और श्रुतदेवी के प्रतिबिम्ब होते हैं।।२९८।। भृंगार, कलश, दर्पण, वीजना, ध्वजा, चामर, सुप्रतिष्ठ और छत्र; ये आठ उत्तम मंगलद्रव्य हैं। रत्नों से उज्ज्वल वे मंगलद्रव्य प्रतिमाओं के उभय पाश्र्व भागों में पृथक्-पृथक् एक सौ आठ (१०८) विराजमान होते हैं।।२९९-३००।। जिनमन्दिर के मध्य में देवच्छंद की अग्रभूमि (वसति) में सुवर्णमय व रजतमय बत्तीस हजार (३२०००) घट होते हैं।।३०१।। प्रत्येक महाद्वार के दोनों पाश्र्व भागों में दो से गुणित छः हजार अर्थात् बारह हजार (१२०००) धूप से परिपूर्ण घट (धूपघट) विराजमान होते हैं।।३०२।। महाद्वार के बाहर दोनों पाश्र्व भागों में पृथक्-पृथक् चार-चार हजार रत्नमालाएँ लटकती रहती हैं।।३०३।। उन रत्नमालाओं के बीच में कान्ति से दैदीप्यमान सब मिलकर तीन से गुणित आठ हजार अर्थात् चौबीस हजार (२४०००) सुवर्ण मालाएँ लटकती रहती हैं।।३०४।। मुखमण्डप में सुवर्णमय कलश, हेममाला और धूपघट इनमें से प्रत्येक द्विगुणित आठ हजार अर्थात् सोलह हजार (१६०००) होते हैं।।३०५।। मुखमण्डप के मध्य में मधुर झनझन ध्वनि से संयुक्त, मोती व रत्नों से निर्मित और क्षुद्र घंटियों से सहित ऐसे घंटाओं के समूह विराजमान होते हैं।।३०६।। क्षुद्रद्वारों के आगे स्थित उपर्युक्त मणिमाला आदि का प्रमाण महाद्वार के विषय में कही गई उन सबसे आधा-आधा कहा जाता है।।३०७।। वसती के पृष्ठ भाग में आठ हजार (८०००) मणिमालाएँ और तीन से गुणित आठ हजार अर्थात् चौबीस हजार (२४०००) सुवर्ण मालाएँ लटकती होती हैं।।३०८।। जिनालय के आगे ध्वजा आदिकों से संयुक्त रमणीय मुखमण्डप तथा उसके आगे प्रेक्षणमण्डप होता है।।३०९।। इस प्रेक्षणमण्डप के आगे आस्थानमण्डप और उसके भी आगे जिन व सिद्धों की प्रतिमाओं से तथा बारह पद्मवेदिकाओं से संयुक्त नौ स्तूप होते हैं।।३१०।। उनके आगे बारह वेदियों एवं जिन व सिद्ध प्रतिमाओं से संयुक्त चैत्यवृक्ष और सिद्धार्थवृक्ष होते हैं। उनके भी आगे महाध्वजाएँ होती हैं ।।३११।। उनके आगे जिनभवन और उसकी चारों ही दिशाओं में मत्स्य आदि जलजन्तुओं से रहित निर्मल जलवाली चार वापिकाएँ होती हैं।।३१२।। उनके आगे वीथी के उभय पाश्र्वभाग में प्रासादयुगल, उसके आगे रमणीय तोरण और उसके आगे दो प्रासाद होते हैं।।३१३।। इन सबको वेष्टित करके स्थित मनोहर सुवर्णमय वेदी उन्नत ध्वजाओं, चर्या (मार्गों) व अट्टालयों से सुशोभित होती है।।३१४।। उसके आगे चारों दिशाओं में रत्नमय खम्भों के अग्रभाग में स्थित और मन्द वायु से कम्पित दस प्रकार की ध्वजाएँ विराजमान होती हैं।।३१५।। सिंह, गज, बैल,गरुड़, मयूर, चन्द्र, सूर्य, हंस, कमल, और चक्र से चिह्नित वे ध्वजाएँ संख्या में अलग-अलग एक सौ आठ (१०८) होती हैं। क्षूद्रध्वजाएँ भी पृथक्-पृथक् उतनी मात्र (१०८-१०८) होती हैं।।३१६।। सिंहादि से अंकित उन दस प्रकार की महाध्वजाओं में से एक दिशागत प्रत्येक ध्वजा की संख्या १०८ है अतः एक दिशागत दस प्रकार की समस्त ध्वजाओं की १०८ ² १० · १०८० हुर्इं, चारों दिशाओं की इन ध्वजाओें की संख्या १०८० ² ४ ·४३२० हुई। इनमें एक-एक महाध्वजा के आश्रित उपर्युक्त दस प्रकार की क्षुद्रध्वजाएँ भी प्रत्येक १०८ – १०८ हैं, अतः एक-एक महाध्वजा के आश्रित क्षुद्रध्वजाओं की संख्या १० ² १०८ ² १०८ · ११६६४०, चारों दिशाओं में स्थित क्षुद्रध्वजाओं की समस्त संख्या ११६६४० ² ४ · ४६६५६०; महाध्वजा ४३२० ² क्षुद्रध्वजा ४६६५६० · ४७०८८०; यह चारों दिशाओं में समस्त ध्वजाओं की संख्या हुई। ध्वजाभूमि को वेष्टित करके सुवर्णमय वेदिका विराजती है। इसकी ऊँचाई एक योजन और विस्तार आधे कोस प्रमाण होता है।।३१७।। वेदिका के आगे रमणीय अशोकवन, सप्तच्छदवन, सुन्दर चम्पक नामक वन तथा आम्र नामक वन; ये चार विशाल वन होते हैं।।३१८।। वे वन पूर्व दिशा को प्रारम्भ करके प्रदक्षिण क्रम से स्थित होते हैं। वन के ठीक मध्य में मानस्तम्भ सुशोभित होता है।।३१९।। उन वन को वेष्टित करके रमणीय रत्नमय प्राकार विराजमान होता है। वह प्राकार चार गोपुरद्वारों से संयुक्त तथा चर्यालय एवं अट्टालय आदिकों से संयुक्त होता है।।३२०।। सौ (१००) योजन लंबा, उससे आधा (५० योजन) विस्तृत, पचत्तर (७५) योजन ऊँचा और आधे योजन मात्र गहराई से संयुक्त ऐसा जो उत्कृष्ट जिनभवन होता है उसका मुख्य द्वार आठ योजन विस्तीर्ण और सोलह योजन ऊँचा कहा जाता है। उसके अन्य दो लघुद्वार मुख्य द्वार की अपेक्षा आधे प्रमाण वाले कहे गए हैं। इस प्रकार के प्रमाण वाले चार जिनभवन भद्रसाल वन में चारों दिशाओं में सुशोभित हैं। भद्रसाल वन में स्थित इन जिनभवनों के ही समान नन्दन वन में भी चार जिनभवन विराजमान हैं। सौमनस वन में स्थित पूर्वोक्त जिनायतनों की अपेक्षा आधे प्रमाण वाले पाण्डुक वन के जिनायतन हैं। इसी प्रकार सब (५) मेरुओं के ऊपर स्थित जिनभवन समझना चाहिए।।३२१-३२४।। सब विजयार्धों और जम्बू एवं शाल्मलि वृक्षों के ऊपर स्थित जिनालयों के प्रमाण भरतक्षेत्रस्थ विजयार्ध आदि के ऊपर स्थित जिनालयों के समान हैं। (आयाम १ कोस, विस्तार आधा (१/२) कोस, उँचाई पौन (३/४) कोस; मुख्य द्वार की ऊँचाई ३२० धनुष और विस्तार १६० धनुष) ।।३२५।। कूटों, पर्वतों, भवनों, वृक्षों और सब वापियों के भी स्थल के समान वेदिका हुआ करती है।।३२६।।