मुझे स्मरण आता है राजाबाजार, कनॉटप्लेस-दिल्ली में १३ फरवरी २००२ का वह दिन जब पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी और मेरी चर्चा हुई भगवान महावीर की जन्मभूमि-कुण्डलपुर (नालंदा) के साक्षात् दर्शन की। दोनों के हृदय में विचार परिपुष्ट हो रहा था कि स्वयं जाकर ही भगवान की जन्मभूमि की पावन रज से अपना तन-मन पवित्र किया जाये, परन्तु पूज्य माताजी का नरम स्वास्थ्य और इतनी लम्बी यात्रा मन में किंचित् असमंजस की स्थिति को उत्पन्न कर रहे थे। पर वास्तव में इस पुण्य भूमि के परमाणुओं का आकर्षण ऐसा प्रबल हुआ कि पूज्य माताजी ने तुरंत ही घोषणा कर दी कि मुझे ससंघ कुण्डलपुर की ओर विहार करना है। मेरे हृदय का श्रद्धाभाव और भी दृढ़ हो गया देवाधिदेव भगवान महावीर के प्रति और अपनी गुरु पूज्य ज्ञानमती माताजी के प्रति, क्योंकि मैंने कुछ दिन पूर्व ही पूज्य माताजी द्वारा रचित ‘मनोकामना सिद्धि महावीर व्रत’ प्रारंभ किया था और अभी मेरे तीन या चार ही व्रत हुए थे कि कुण्डलपुर जाने की हार्दिक अभिलाषा पूर्ण होती हुई दिखलाई पड़ रही थी। मात्र ७ दिन के पश्चात् राजधानी दिल्ली के इण्डिया गेट से हम सबके कदम बढ़ चले कुण्डलपुर की ओर। हृदय में सुन्दर भावना थी कि वर्षोें से भगवान महावीर की जो जन्मभूमि उपेक्षा का केन्द्र बनकर धूमिल हो रही है, उस पावन भूमि को पुन: ऐसा स्वर्णिम बनाना है कि सारे विश्व को इसके अस्तित्व का भान हो। इसीलिए हृदय में बरबस फूट पड़ा-
‘‘तेरी चंदन सी रज में हम उपवन खिलाएंगे।
कुण्डलपुर के महावीरा तेरा महल बनाएंगे।।’’
मन में इतना आह्लाद था कि विहार में आने वाली कठिनाईयाँ भी बड़ी प्रिय लगती थीं, मार्ग के कंकड़ फूल जैसे लगते थे, थकान में भी सुकून की अनुभूति होती थी। वस्तुत: गुरुमुख द्वारा प्रारंभ से शिक्षा ही यही मिली है कि धर्म की, तीर्थ की, संस्कृति की सुरक्षा में यदि अपने तन का एक-एक कण भी न्यौछावर हो जाए तो भी अपना महान सौभाग्य समझकर प्रसन्न ही होना चाहिए। विहार भी सकुशल पूर्ण हुआ और कुण्डलपुर की पावन धरती का पूज्य माताजी के साथ जब मैंने स्पर्श किया तो अपने महान पुण्य पर अतिशय संतोष भी हुआ क्योंकि दीक्षा लेने के पश्चात् इतनी लम्बी-लम्बी यात्राएं करके अपने तीर्थों के दर्शन का सुअवसर प्राप्त हो सकेगा, ऐसी कल्पनाएं दूरगामी प्रतीत होती थीं। धीरे-धीरे निर्माणकार्य प्रारंभ हुआ, पूज्य माताजी के साथ प्रत्येक विचार-विमर्श में बैठने का अवसर प्राप्त होता ही था, मैंने देखा कि इस भूमि का कुछ ऐसा प्रबल पुण्य है कि निर्माण का जो भी नक्शा इत्यादि बनाया जाता वह अत्यन्त ही सुन्दर एवं शीघ्रता से तैयार हो जाता और शीघ्र ही उसका क्रियान्वयन भी प्रारंभ हो जाता। शायद यही कारण है कि डेढ़ वर्ष की अल्प अवधि में ऐसा भव्य निर्माण कुण्डलपुर की धरती पर हुआ है कि सभी लोग आश्चर्यचकित हैं। लक्ष्य की एकाग्रता के साथ कठिन परिश्रम ने ही इस असाध्य कार्य को साध्य कर दिखाया है। मुझे गौरव होता है कि ऐसे ऐतिहासिक शिलालेख के हर अक्षर को मैंने अपने सामने उभरते हुए देखा है और अपनी शाश्वत संस्कृति के संरक्षण में मुझसे जो भी बन पड़ा, वह समर्पित किया है। इस कुण्डलपुर यात्रा का मेरे लिए जो सर्वाधिक विशिष्ट पहलू रहा, वह रहा ज्ञानार्जन का अमूल्य उपहार, जो इस वास्तविक जन्मभूमि को जन्मभूमि सिद्ध करने हेतु मुझे विशेषरूप से प्राप्त हुआ। वर्षों पहले से पूज्य ज्ञानमती माताजी के मुख से सुनती थी fिक गुणावां, पावापुरी, राजगृही के पास कुण्डलपुर भगवान महावीर की जन्मभूमि है और मैंने स्वयं भी दीक्षा लेने के पूर्व इस स्थान की वंदना की थी।
पुन: जब वैशाली को भगवान महावीर जन्मभूमि मानने वाली विचारधारा विशेषरूप से समक्ष आई तब तो रात-दिन प्राचीन जैनागम ग्रंथों के स्वाध्याय, मनन, चिंतन के माध्यम से वास्तविक शोध को उजागर करने का मानस और भी दृढ़ होता गया। विहार के मध्य भी जहाँ कहीं भी पुस्तकालय उपलब्ध होता, वहाँ ही विविध ग्रंथों से साक्ष्य एकत्रित करने की भावना बनी रहती। मन में बार-बार यही विचार आता कि शोध तो वही सार्थक है जिसके माध्यम से प्राचीन दिगम्बर जैनागम एवं जैनाचार्यों के कथन को ही परिपुष्टता प्राप्त हो, वही बुद्धि सार्थक है जो अपनी प्राचीन संस्कृति के प्रति ही कटिबद्ध रहे। इन्हीं भावनाओं से ओतप्रोत होकर जन्मभूमि-कुण्डलपुर से संंबंधित ज्ञानार्जन एवं आगमिक शोध में मुझे जो हार्दिक आनन्द प्राप्त हुआ, वह वचनातीत है। कुण्डलपुर की धरती पर बैठकर भी अध्ययन-स्वाध्याय का विशेष ही अवसर रहा क्योंकि यहाँ पर ही मैंने ‘भगवान महावीर हिन्दी-अंग्रेजी जैन शब्दकोश’ को पूज्य गणिनी माताजी की छत्रछाया में बैठकर गहन मनन-चिंतन के बाद अंतिम स्वरूप प्रदान किया। इसी प्रकार ‘कुण्डलपुर अभिनंदन ग्रंथ’ हेतु भी गुरु आज्ञापूर्वक इसे सर्वांगीण बनाने का प्रयास भी ज्ञानार्जन की दिशा में सार्थक कदम ही सिद्ध हुआ है। वास्तविकता तो यही है कि ज्ञान की प्राप्ति में जो आनन्द आत्मा से उद्भूत होता है वह अनुपम एवं अतुलनीय है, जितनी संतुष्टि सम्यक्-ज्ञान के माध्यम से प्राप्त होती है, वह संसार की किसी भी अन्य सामग्री से प्राप्त नहीं हो सकती। इस कुण्डलपुर विकास ने मुझे स्वाध्याय एवं अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग का जो अवसर प्रदान किया है, वह ही मेरे लिए अनुपम निधि है।
एक अन्य बिन्दु पर भी ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगी कि राजधानी दिल्ली से कुण्डलपुर की यात्रा के मध्य एवं कुण्डलपुर की धरती पर बैठकर भी देशभर की जितनी भी दिगम्बर जैन समाज से विचारों का आदान-प्रदान हुआ, वहाँ ९९ प्रतिशत जनमानस कुण्डलपुर (नालंदा) को भगवान महावीर की जन्मभूमि के रूप में सहर्ष स्वीकार करता नजर आया, लोगों के मन में कहीं कोई अन्य विकल्प दृष्टिगोचर ही नहीं होता था, वर्षों से सम्मेदशिखर, राजगीर, पावापुरी इत्यादि के दर्शन करते हुए लोग कुण्डलपुर पधारते रहे हैं, ऐसा ही तथ्य उभरकर सामने आया। जैनेतर समाज में पाठ्य-पुस्तकों के माध्यम से जो वैशाली को भगवान महावीर की जन्मभूमि के रूप में स्थापित किया गया, उन्हीं लोगों के प्रश्न कभी-कभी सामने आते थे, हम लोग तो यथाशक्ति सभी को वस्तुस्थिति से परिचित कराते थे और लोग स्वीकार करते थे कि जनमानस की श्रद्धा ही सर्वोपरि है, आप लोगों ने कुण्डलपुर (नालंदा) का विकास करके लाखों श्रद्धालुओं की श्रद्धा को दृढ़ संबल प्रदान किया है। कुण्डलपुर के इस नवविकास से परिचित होकर न जाने कितने शोधार्थी इस स्थान के ऊपर शोध करने की भावना लेकर पूज्य माताजी के पास आ रहे हैं पर माताजी तो यही कहा करती हैं कि हमारी सारी शोध का केन्द्र तो हमारे प्राचीन जैनाचार्यों द्वारा लिखे आगम ग्रंथ ही होने चाहिए और उनके आधार से ही इस कुण्डलपुर तीर्थ को बनाया नहीं गया वरन् नवनिर्माण करके बचाया गया है, अब आप लोग जो चाहे सो शोध कर सकते हैं, हमारी श्रद्धा आपकी शोध की मोहताज नहीं है।
साररूप में यही कहना चाहूँगी कि कुण्डलपुर का विकास करके पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने दिगम्बर जैन समाज की संस्कृति के संरक्षण का महान कार्य किया है और पूज्य माताजी के वरदहस्त में मुझे भी अपनी शक्ति इस महान उद्देश्य के प्रति समर्पित करने में जो आन्तरिक ऊर्जा एवं आल्हाद की प्राप्ति हुई है, वह मेरे लिए अक्षय निधि की भाँति है। ऐसी परमपूज्य माताजी का वात्सल्य एवं अनुशासन सदैव मुझे आच्छादित करता रहे, यही मंगलभावना हृदय में रहा करती है। क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी महाराज ने अपनी शक्ति से भी बढ़कर लोगों को जन्मभूमि-कुण्डलपुर के प्रति जागृत करने में एवं तीर्थ के नवनिर्माण में अपने समय का, शक्ति का एवं ज्ञान का जो सदुपयोग किया है, वह स्तुत्य एवं अविस्मरणीय है। भाई जी के नाम से प्रसिद्ध कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र जी ने भी वर्षों के अनुभवों का निचोड़ इस नवनिर्माण में लगाकर पूर्ण तत्परता से पूज्य माताजी के दिशानिर्देशों का पालन करते हुए जो निधि समस्त समाज को उपलब्ध कराई है, वह उनकी कर्मठता एवं कार्यक्षमता को सदैव उच्चारित करती रहेगी। जन्मभूमि-कुण्डलपुर का यह नवनिर्मित नंद्यावर्त महल तीर्थ विश्व को भगवान महावीर के सर्वोदयी सिद्धान्तों से सदैव परिचित कराता रहेगा, जैनधर्म की यशगाथा को फहराता रहेगा और पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी जैसी महान साध्वी का यह प्रयास अमर होकर भव्यजनों को कल्याण के पथ पर अग्रसर करता रहेगा, यही विश्वास है। गुरुचरणों में विनम्र वंदन सहित,