इसी भरतक्षेत्र के आर्यखंड में उज्जयिनी नाम की नगरी है। उसमें राजा पुहुपाल शासन करते थे। उनकी रानी निपुणसुन्दरी के सुरसुन्दरी और मैनासुन्दरी दो कन्यायें थीं। बड़ी पुत्री शैवगुरु के पास पढ़ी तथा मैनासुन्दरी ने आर्यिका के पास सभी विद्याओं और शास्त्रों का अच्छा अध्ययन कर लिया था। एक दिन पिता ने कहा-बेटी! तू अपनी इच्छा से अपने लिए वर का निर्णय बता दे। मैना ने इस पर मना कर दिया और कहा मेरे भाग्य से जैसा होगा ठीक है। पिता ने भाग्य के नाम से चिढ़कर मैना का कोढ़ी पति के साथ विवाह कर दिया। यद्यपि रानी और मंत्रियों ने अत्यधिक मना किया था फिर भी राजा ने नहीं सुना। चम्पापुर के राजा अरिदमन की रानी कुंदप्रभा के एक पुत्र हुआ। जिसका नाम श्रीपाल था। पिता के दीक्षित होने के बाद ये राज्य संचालन कर रहे थे। अकस्मात् भयंकर कुष्ठ रोग से ग्रसित होने से प्रजा को उनकी बदबू सहन नहीं हुई तब श्रीपाल ने अपने चाचा वीरदमन को राज्य सम्भलाकर आप अपने ७०० योद्धाओं के साथ देश से निकलकर वनों में विचरने लगे। राजा पुहुपाल ने इनके साथ ही पुत्री का विवाह कर दिया। मैनासुन्दरी पतिव्रत आदि गुणों से युक्त पतिसेवा करने लगी। एक दिन उसने मंदिर में जाकर निग्र्रंथ मुनि से पति के रोग निवारण के लिए पूछा। मुनिराज ने कहा- ‘‘हे भद्रे! तुम कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ की आष्टान्हिका में आठ-आठ दिन व्रत करके सिद्धचक्र की आराधना करो। मैनासुन्दरी ने गुरु से व्रत लेकर प्रथम ही कार्तिक के महीने में व्रत किया। मंदिर में जाकर जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा का अभिषेक२ करके विधिवत् सिद्धचक्र पूजा की, अनंतर गंधोदक लाकर अपने पति के सर्वांग में लगाया। साथ में रहने वाले ७०० योद्धाओं के ऊपर भी छिड़का। केवल आठ ही दिनों में श्रीपाल का कुष्ठरोग नष्ट हो गया और साथ ही ७०० योद्धा भी रोगमुक्त हो गये। मैनासुन्दरी की जिनभक्ति के प्रभाव को देखकर सभी बहुत ही प्रभावित हुए। श्रीपाल की माता कुंदप्रभा को जब दिव्यज्ञानी मुनिराज से पता चला कि श्रीपाल मैनासुन्दरी पत्नी के प्रभाव से स्वस्थ होकर उज्जयिनी नगरी के बगीचे में महल में रह रहे हैं, तब माता वहाँ आ गर्इं और पुत्र को स्वस्थ देखकर प्रसन्न हुर्इं। आकस्मिक एक दिन मैनासुन्दरी की माता निपुणसुंदरी मंदिर में अपनी पुत्री को अत्यन्त सुन्दर पुरुष के साथ बैठे देखकर रोने लगी। उसने सोचा-‘‘ओह! मेरी पुत्री ने रुग्णपति को छोड़कर किसी अन्य ही राजकुमार के साथ सम्बन्ध कर लिया है।’’ मैना माता के भावों को समझ गई तब उसने सारी बातें माता को बता दीं। माता सुनकर प्रसन्न हुर्इं और पुत्री की बहुत ही सराहना की। कुछ दिनों बाद श्रीपाल मैनासुन्दरी को अपनी माँ के पास छोड़कर विदेश चले गये। वहाँ अनेक सुख-दु:खों का अनुभव किया। १२ वर्ष बाद आठ हजार रानियों को तथा बहुत बड़ी सेना को लेकर वापस आ गये। अनंतर अपने चम्पापुर जाकर चाचा वीरदमन से युद्ध कर अपना राज्य वापस ले लिया और आठ हजार रानियों के मध्य में मैनासुन्दरी को पट्टरानी बना दिया और कुछ दिनों बाद मैनासुन्दरी के क्रम से तीन पुत्र हुए जिनके नाम महापाल, देवरथ और महारथ रक्खे गये। अन्य तीन रयनमंजूषा, गुणमाला आदि रानियों के भी पुत्र हुए। राजा श्रीपाल के सभी १२ हजार पुत्र थे और वे सभी धर्मकार्यों में दत्तचित्त रहते थे। एक बार चम्पापुर में केवली भगवान का समवसरण आया। राजा ने सपरिवार जाकर वंदना पूजा की। अनंतर अपने पूर्वभव पूछे, केवली भगवान् ने कहा- इसी भरत क्षेत्र के रत्नसंचयपुर में श्रीकण्ठ नाम का राजा रहता था। वह विद्याधर था। उसकी रानी श्रीमती बहुत ही धर्मात्मा थी। एक दिन दोनों ने मुनिराज के पास श्रावक के व्रत ग्रहण किये। घर आकर राजा ने व्रतों को छोड़ दिया और जैन धर्म की निंदा करने लगे। एक दिन वे ७०० वीरों के साथ वन-क्रीड़ा के लिए गये थे। वहाँ गुफा में ध्यानमग्न एक महान योगी मुनिराज को देखा। ‘‘यह कोढ़ी है, कोढ़ी है’’ ऐसा कहकर उन्होंने अपने ककरों से उन्हें समुद्र में गिरवा दिया। समुद्र में भी मुनि को ध्यान मग्न देखकर राजा ने दया बुद्धि से बाहर निकलवा दिया और अपने स्थान वापस आ गये। किसी एक दिन पुन: अत्यन्त कृशकाय दिगम्बर मुनि को देखकर राजा ने कहा- ‘‘अरे निर्लज्ज दिगम्बर! नग्न घूमते हुए तुझे शर्म नहीं आती। …… तेरा मस्तक काट डालना चाहिए।’’ इतना कहकर मारने के लिए राजा ने तलवार उठाई कि तत्क्षण ही उनके हृदय में दया का स्रोत उमड़ आया। तब वे तलवार को म्यान में रखकर वापस घर आ गये। ऐसे परम तपस्वी मुनिराज पर उपसर्ग करने से राजा को महान पाप का बंध हो गया। एक दिन स्वयं राजा ने अपनी रानी श्रीमती से ये सारी बातें बता दीं। रानी बहुत चिंतित हुई, चिन्ता से संतप्त मन उसने भोजन भी छोड़ दिया। जब राजा को पता चला कि रानी इस कारण दु:खी हैं कि मैंने श्रावक के व्रत ग्रहण कर, छोड़ दिये और मुनि पर उपसर्ग किया है। तब राजा ने पश्चात्ताप कर रानी की तुष्टि के लिए मंदिर में जाकर मुनिराज से अपने पापों की शांति का उपाय पूछा। मुनिराज ने राजा को सम्यक्त्व का उपदेश देकर मिथ्यात्व का त्याग करा दिया। पुन: श्रावक के व्रत देकर सिद्धचक्र विधान करने को कहा। राजा ने रानी के साथ विधिवत् आठ वर्ष तक आष्टान्हिक पर्व में सिद्धचक्र की आराधना की। अनंतर उद्यापन करके संन्यास विधि से मरण कर स्वर्ग में देवपद प्राप्त किया। रानी भी स्वर्ग में देवांगना हुई। इस भव में राजा श्रीकण्ठ का जीव ही तुम श्रीपाल हुए हो रानी श्रीमती का जीव यह मैनासुन्दरी हुआ है। तुमने जो मुनि को कोढ़ी कहा था, सो कोढ़ी हुए हो। जो मुनि को समुद्र में डलवाया था सो धवलदत्त सेठ ने तुम्हें समुद्र में गिरा दिया था। इत्यादि भवों को सुनकर धर्म के प्रति अत्यधिक श्रद्धावान हो गया। एक दिन विद्युत्पात देखकर राजा श्रीपाल को वैराग्य हो गया। तब उसने अपने बड़े पुत्र को राज्य देकर वन में जाकर महामुनि के पास दीक्षा धारण कर ली। उस समय उसके ७०० योद्धा पुरुषों ने भी दीक्षा ले ली। माता कुंदप्रभा और मैनासुन्दरी ने भी दीक्षा ले ली। साथ ही ८००० रानियों ने भी दीक्षा ग्रहण कर ली। निर्दोष चर्या का पालन करते हुए मुनि श्रीपाल ने घोर तपश्चरण करके केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त कर लिया। आर्यिका मैनासुन्दरी ने भी घोर तपश्चरण के द्वारा कर्मों को कृश कर दिया तथा सम्यक्त्व के प्रभाव से स्त्रीलिंग को छेदकर सोलहवें स्वर्ग में देवपद प्राप्त कर लिया। आगे वह देव मनुष्यभव प्राप्त कर दीक्षा लेकर मोक्षपद प्राप्त करेगा। मैनासुन्दरी की पतिसेवा और सिद्धचक्र आराधना आज भी भारतवर्ष में सर्वत्र प्रसिद्धि को प्राप्त है।