प्रियाद् भव संस्कार (प्रसूति होने पर) जिस दिन संतान का जन्म हो उसी दिन जात कर्म रूप मंत्र व पूजन का बड़ा भारी पूजन विधान किया जाता है। चूंकि जन्म का १० दिन का सूतक होता है। अत: अन्य गृहस्थाचार्य जिसे सूतक न लगा हो जिन मंदिर में पूजा विधान करायें। पश्चात् घर में विधिवत रूप से यंत्राभिषेक पूजन हवन कराए कुटुम्बीजन सामने रहें। बालक के प्रसूति कक्ष में निम्नांकित संस्कार करें—
१. नाभिनाल काटने समय— ‘‘घातिजयो भव श्री दव्यस्त जात क्रियां कुर्वन्तु’’
२. उबटन लगाते समय— ‘हे जात श्री देव्य: ते जाति क्रिया कुर्वन्तु:’
३. स्नान कराते समय— ‘‘त्वं मंदराभिषेकार्हो भव:’’
४. शिर पर अक्षत क्षेपण के समय—‘‘चिरं जीव्य:’’
५. शिर— मुंह पर घी में औषधि मिलाकर क्षेपण करते समय — ‘‘चिरं जीव्या: नश्यात् कर्म मलं कृत्स्नं’’
६. माता स्तन मुंह में देते समय—‘‘ विश्वेश्वरी स्तन्य भागी भूया:’’
७. गर्भमल—जरायुपटल—नाभिनाल को उपजाऊ भूमि के गर्भ में रखते समय ‘‘सम्यग्दृष्टे—सम्यग्दृष्टे सर्व मात:— सर्वमात वसुन्धरे स्वाहा—त्वत्पुत्र: इव मात पुत्रा: चिरंजीविनो भूयास:।।’’
८. माता को गर्म जल से स्नान कराते समय— ‘‘ सम्यग्दृष्टे: सम्यग्दृष्टे: आसन्नभव्ये विश्वेश्वरी विश्वेश्वरि ऊर्जित पुण्ये ऊर्जित पुण्ये जिनमात: जिनमात: स्वाहा।।’’ पश्चात् निम्नांकित मंत्र पढ़ते हुए गंधोदक बालक के ऊपर छीटें—
दिव्य नेमि विजयाय स्वाहा— परम नेमि विजयाय स्वाहा— आर्हन्त्य नेमि—
विजयाय स्वाहा — घातिजयोभव—श्री आदि देव्य: जाति क्रिया कुर्वन्तु मन्दराभिषेकार्हो भवतु।
पिता— नम्नांकित श्लोक पढ़ता हुआ बालक के शिर पर हाथ फैरे।
कुल जाति वयो रूप गुणै: शील प्रजान्वयै:। भाग्या विद्या वता सौम्य सूत्र्तित्वै: समधिष्ठित: ।।
सम्यक्दृष्टि स्तवां वेय मतस्त्व मपि पुत्रक:। संप्रीति माप्नुहितीणि प्राप्य चक्राण्यनु क्रमात् ।।
अर्थ — हे नवजात शिशो तू अपनी माता के समान कुल जाति वय रूप शील संतान भाग्य विधि मागीन्वयी सौम्य मूर्ति सम्यक्दृष्टि और व्रतादि गुणों से संयुक्त होकर दिव्य चक्र विजय परम चक्रों को क्रम से प्राप्त हो।’’ फिर पिता नवजात शिशु को स्पर्श कर कहे—
अंगा दंगा त्संभवासि हृदयादपि जायसे । आत्मा वै पुत्र नामाप्ति स जीव शरदा शतं।।
अर्थ— तू मेरे शरीर से उपजा है हृदय से उपजा है मानो मेरी आत्मा ही है। सो दीर्घ वर्षों तक जीता रहो।’’ पश्चात् पिता नवजात शिशु के मस्तक पर पुष्प क्षेपण करता हुआ बोले—
‘‘ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ह्रौं ह्रं ह्र: नानानु जानुज प्रजो भव भव अ सि आ उसा स्वाहा।’’
तीसरे दिन पिता— बालक को ताराओं से व्याप्त आकाश का दर्शन कराते समय कहे— ह्म‘ अनंत ज्ञानदर्शी भव ’’
७. नाम कर्म संस्कार— (जन्म के ४५ वें दिन बाद शुभ मुहूर्त में) सर्व प्रथम विधिवत रूप से यंत्र पूजन हवन घर में सम्पन्न करें। पुन: ज्योतिषी से जन्म पत्रिका बनवाऐ। मूल नक्षत्र में जन्म होने पर उसी नक्षत्र के आने पर (२८ दिन में आता है) यदि प्रथम या द्वितीय पाद में जन्म हो तो १०१ माला और तृतीय पाद में जन्म हो तो ५१ माला नीचे लिखे मंत्र की जपाना चाहिए। (इसी दिन चौंसठऋद्धि मण्डल विधान करना चाहिए)
मंत्र— ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अ सि आ उसा मूल नक्षत्रोत्पन्न पुत्र/पुत्री संबंधी सर्वारिष्ट निवारणं कुरू कुरू स्वाहा।’’
नोट— बालक की राशि अनुसार सहस्त्रनाम में से एक नाम छाँटकर रख लें। सर्व प्रथम गृहस्थाचार्य मंगलाष्टक पढ़ता हुआ बालक के शिर पर जल सेचन करे। फिर शांति मंत्र की दशांग धूप से १ माला प्रमाण आहुतियाँ दे। पुन: उसी शांति मंत्र से बालक के मस्तक पर पुष्प क्षेपें—
शांति मंत्र— ऊँ ह्राँ ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अ सि आ उसा सर्व शान्ति कुरू कुरू स्वाहा।
पश्चात् निम्नांकित मंत्र पाठ से नामांकरण करें— दिव्याष्ट सहस्त्र नामभागी भव: । विजयाष्ट सहस्त्र नाम भागी भव । परमाष्ट सहस्त्र नाम भागी भव। नामांकरण मंत्र—
‘‘ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं अर्हं बालकस्य नामकरणं करोमि……… नाम्ना आयुरा रोग्यैश्वर्य वान
भव भव अष्टोत्तर सहस्त्राभिधानार्हो भव भव क्षौं झौं अ सि आ उ सा स्वाहा।
विशेष— सहस्त्रनाम में से राशि के अनुसार ४/५ नाम की पृथक २ पर्ची बनाकर गोली रूप बना लें तथा अबोध बालक से ’’ णमो अरिहंताणं’’ बोलकर एक गोली उठवाऐं, वही नाम रखें। बालक का नाम करण करने के बाद उसके मस्तक पर पुष्प डालते हुए निम्नांकित मंत्र का ३ बार पाठ करें— ‘‘दिव्याष्ट सहस्त्रनाम भागी भव विजयाष्ट सहस्त्र नाम भागी भव परमाष्ट सहस्त्रनाम भागी भव’’ फिर बालक को श्रीफल हाथ में देकर माँ साथ में ले जाकर श्री जिन मंदिरजी में जाऐं, प्रतिमा के पादमूल में बालक का मस्तक के प्रतिमा की ओर करके लिटा दें तथा बालक के कान में ९ बार णमोकार मंत्र सुनाऐं। उसी समय बालक को अष्ट मूलगुणों को धारण कराकर जैन बनाएँ। श्री जिन मंदिर जी में द्रव्य (पूजन) सामग्री को दान में दें।
८. आठवां बर्हियान संस्कार— (जन्म के ४ माह बाद)— शुभ मुहुर्त में जन्म के ३ या ४ माह में बालक को बाहर ले जाना चाहिए, सर्व प्रथम माँ पुत्र को स्नान कराकर नवीन वस्त्र पहनाकर घर में यंत्र अभिषेक पूजन हवन करे। पश्चात् बालक के मस्तक पर निम्नांकित मंत्र बोलते हुए पुष्प डाले—
‘‘ऊँ णमोऽर्हते भगवते जिन भास्कराय तव मुखं बालकं दर्शयामि दीर्घायुष्यं कुरू कुरू स्वाहा।।’’
फिर बालक के हाथ में कुछ द्रव्य देवे (इससे बालक दाय भाग का स्वामी हो जाता है ) और मस्तक पर पुष्प क्षेपते हुए मंत्र बोले— फिर पूजन हवन का शान्ति विसर्जन करें और बालक के हाथ में श्रीफल देकर श्री जिन मंदिर जी जाएँ। वहाँ प्रतिमा के समक्ष श्रीफल अर्पण करें। आचार्य बालक के कान में पाक्षिक व्रतों के नाम लेकर णमोकार मंत्र पढ़कर फूक दे।
विशेष— श्रावक चार प्रकार के होते है। १. पाक्षिक २. नैष्टिक ३. चर्या ४. साधक ।
पाक्षिक— यह ३ प्रकार के होते हैं। प्रारब्ध (प्राथमिक) घटमानी (अभ्यासी) निष्पन्न (सदा अहिंसा रूप परिणाम करना) तीन मकार और पांच उद्म्बर फलों का त्यागी, पाँच अणुव्रतों का पालक, षट् आवश्यक कत्र्तव्यों का करने वाला रात्रि भोजन तथा गैर छना पानी का त्यागी होता है।
नैष्टिक — उत्तम लेश्या वाला ११ प्रतिमाओं में प्रतिमाओं का पालक होता है।
चर्या— दशवीं प्रतिमा तक के व्रत पालन करने वाला—धर्म देव मंत्र औषधि और अपने भोगोपभोग के लिए कभी हिंसा नहीं करते। हिंसा हो जाए तो विधि पूर्वक प्रायश्चित करते हैं।
साधक’— पवित्र ध्यान द्वारा आत्मा की सिद्धि का साधन करता है। समाधिमरण करना साधकपना है।
ग्यारहवीं प्रतिमा के २ भेद हैं। १. क्षुल्लक २. ऐलक (मात्र लंगोटी रखने वाला) ग्यारह प्रतिमाओं में १ से ६ तक जघन्य, ७ से ९ तक माध्यम एवं १०—११ उत्तम श्रेणी के हैं।
मंत्र— उपनय निष्क्रान्ति भागी भव। वैवाहनिष्क्रान्ति भागी भव। मुनीन्द्र निष्क्रान्ति भागी भव। सुरेन्द्र निष्क्रान्ति भागी भव। मन्दराभिषेक निष्क्रान्ति भागी भव।यौवराज्य निष्क्रान्ति भागी भव। महाराज्य निष्क्रान्ति भागी भव। परमराज्य निष्क्रान्ति भागी भव। आर्हन्त्य निष्क्रान्ति भागी भव।
वीतराग वाणी माह—मई /जून २०१४