१. ‘नियति. का प्रतिपादक : नियतिवाद गोम्मटसार कर्मकाण्ड में आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने चौदह गाथाओं (876-889) द्वारा तीन सौ तिरेसठ एकान्तमतों का संक्षिप्त निरूपण किया है । उसी प्रकरण के अन्तर्गत वे नियतिवाद नामक मान्यता का कथन इस प्रकार करते है “
जत्तु जदा जेण जहा जस्स य णियमेण होदि तत्तु तदा । तेण तहा तस्स हवे इदि वादो णियदिवादो दु । । 882 । ।
अर्थ ‘जो (कार्य), जब (जिस काल में), जिस (निमित्त) के द्वारा, जिस प्रकार से, जिस (पदार्थ) का नियम से होना होता है; वह (कार्य) तभी (उसी काल में), उसी (निमित्त) के द्वारा, उसी प्रकार से, उस (पदार्थ) का होता है’ – ऐसा मानना नियतिवाद है । इसी प्रकार का निरूपण प्राकृत पंचसंग्रह में तथा आचार्य अमितगति के संस्कृत पचसग्रह में भी पाया जाता है । कहने की आवश्यकता नहीं कि अन्य एकालवादों की तरह ही नियतिवाद भी एक ऐकान्तिक, मिथ्या मान्यता है “
2. आगम में उल्लिखित ‘पंचहेतु-समवाय जीव के कार्य की उत्पत्ति के विषय में स्वभाव, निमित्त, पुरुषार्थ, काललब्धि और नियति – ये पाँच हेतु आगम में कहे गए हैं, जैसा कि आचार्य सिद्धसेन सन्मतिसूत्र के तृतीय ‘अनेकान्त’ काण्ड में लिखते हैं :
कालो सहाव णियई पुलक पुरिस कारणेगता । मिच्छत्तं ते चेव उ समास होति सम्मत्तं । । 53 । ।
सम्मणसुत्तं (सम्पा० डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री, नीमच )
अर्थ : काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत, और पुरुष यानी पुरुषार्थ, इन पाँच कारणों या हेतुओं में से अकेले किसी एक से कार्य के निष्पन्न होने की मान्यता ऐकान्तिक है, मिथ्या है; जबकि इन पाँचों के समास,समग्रता अथवा सम्मेल को परस्पर सापेक्षतामय सम्यक् मेल को – हेतु मानना अनैकान्तिक है, सही है” ऊपर की गाथा संसारी जीव के किसी भी कार्य की उत्पत्ति के बारे में है । संशय के परिहारार्थ, उचित होगा कि लेख के प्रारम्भ में ही ‘जीव के कार्य की आगम-सम्मत क्या परिभाषा या अवधारणा (p०ा1प्टथ) है? ‘ इस बात को स्पष्ट कर लिया जाए । 2.1 जीव का कार्य समयसार की आत्मख्याति टीका मे आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं व: परिणमति स कर्ता. य: परिणामो भवेत् तु तत्कर्म: (कलश सं० 51, पूर्वार्द्ध), अर्थात् जो परिणमित होता है वह ‘कर्ता’ है; (परिणमित होने वाले या परिणमन करने वाले का) जो परिणाम है वह उसका ‘कर्म’ अथवा कार्य है । इस प्रकार, किसी पदार्थ का निज परिणाम ही उसका कार्य कहलाता है । यहाँ कर्ता .’ (परिणामी 7 उपादान) एवं उसका परिणाम 7 कार्य, दोनों सदा एक ही द्रव्य में होते हैं । निश्चयनय की विषयभूत, इस परिभाषा के अनुसार किसी भी जीव के अंतरंग चेतन परिणाम ही उसके ‘कार्य’ कहलाएंगे । यदि पहले दस गुणस्थानों के जीवों के सन्दर्भ में विचार करें तो: (क) श्रद्धा गुण के विपरीत परिणमन से हो रहे अविद्यात्मक परिणाम (अथवा तत्त्वप्राप्ति के साथ होने वाले, दर्शनमोहनीय के उपशम 7 क्षयोपशमादि- सापेक्ष, सम्यग्दर्शनात्मक परिणाम): (ख)चारित्र गुण के विकारी परिणमन से हो रहे कषाय-नोकषायात्मक परिणाम (अथवा द्रव्यसंयमपूर्वक भावसंयम की प्राप्तिरचरूप, चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम 7 उपशम-सापेक्ष सम्बक्चारित्रात्मक परिणाम); तथा (ग) मतिश्रुतादिइघनावरण कें क्षयोपशम-सापेक्ष मतिश्रुतादि-ज्ञानरूपी परिणाम – ये सभी परिणाम अशुद्धनिश्चयनय से जीव के ‘कार्य’ कहे जाएंगे ।नियमसार, गा० -18; श्री पद्मप्रभमलधारिदेवकृत टीका सहित । अन्यत्र, जहाँ निमित्तरूप जीवद्रव्य को ‘कर्ता’ कहा जाता है, तथा एकक्षेत्रावगाही पुद्गल पदार्थ के परिणाम को नैमित्तिक 7 कार्य कहा जाता है, वहाँ अनुपचरित-व्यवहारदृष्टि से ऐसा कहा जाता है । अतएव चेतन परिणामों के निमित्त कारण से का अन्तरंग में प्रतिसमय होने वाला आठ कर्मों का बन्ध, और ७ बहिरंग में होने वाले वचन-काय के व्यापारादिक भी इस दृष्टि से उस जीव के ही कार्य कहे जाएंगे ।राजवार्तिक, अ० 6, सू. 1, वा० 7 (सम्पा०-अनु० : प्रो० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ, पाँचवां सं०, 1999, मूल संस्कृत, पृ० 5०4, हिन्दीसार, पू० 7०5)</ref उक्त दृष्टि की अपेक्षा रभूलतर, तीसरी उपचरित-व्यवहारदृष्टि है जिसके अनुसार व स्वयं से ]भइत्रक्षेत्रायगाही चेतन अथवा जड़ पदार्थों की घट-पटादि पर्यायों को, जिनके होने में यह जीव निमित्त होता है, तथा ७ परिग्रह-परिवारादिक के संयोग-वियोगों को भी – जिन्हें यह जीव अपने प्रयत्न एवं शुभाशुभ कर्भोदय के अनुसार प्राप्त करता है जीव के ‘कार्य’ कहा जाता है देखिये सन्दर्भ 2. 2.2 पंचहेतुओं की परिभाषा अब, लन्मतिसूत्र की उपर्युक्त गाथा पर लौटते हुए, उसमें उल्लिखित पाँच हेतुओं में से प्रत्येक की क्या परिभाषा या अवधारणा जिनागम में प्रतिपादित की गई है – इस पर विचार करते हैं : 22 पुरुषार्थ : संस्कृत कोश के अनुसार ‘पुराषार्थ’ शब्द दो अर्थों में प्रयोग किया जाता है । प्रथम अर्थ है लक्ष्य, जिसके लिये मनुष्य प्रवृत्ति करता है ।’पुरुषार्थ ८ मानव जीवन के चार मुख्य अर्थों अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से एक (संस्कृत-हिन्दी कोश, वामन शिवराम आप्टे; मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली; हि० सं०, १८५६८; ?? ६२ इसी अर्थ में पुरुषार्थ के चार सुप्रसिद्ध भेद किये जाते हैं धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष (भगवती आराधना गा० 181 3- 1 4; ज्ञानार्णव 374) । परन्तु यह अर्थ उक्त गाथा में अभिप्रेत नहीं है; जो अभिप्रेत है. वह है द्वितीय अर्थ मानव द्वारा किया जाने वाला यत्न. प्रयत्न या चेष्टा ।’ इस तरह, हम देखते हैं कि ये दोनों अर्थ परस्पर सम्बद्ध हैं पहला जथ्य को जताता है तो दूसरा ‘लक्ष्य के लिये किये जाने वाले प्रयत्न को । इस द्वितीय अर्थ में ‘पुराषार्थ’ के अलावा, पौरुष’ एवं पुरुषकार’ शब्द भी जैन एवं जैनेतर साहित्य में प्रयुक्त हुए हैं । आप्तमीमांसा की भट्ट अकलकदेवकृत व्याख्या अष्टशती में, यह परिभाषा मिलती है पौरुषं पुनरिह चेष्टितम् अर्थात् चेष्टा करना पुरुषार्थ है ।” चूँकि आचार्य विद्यानन्दि ने अष्टशती को अपनी टीकाकृति में पूरी तरह आत्मसात् कर लिया है, अत: अष्टसहसी में भी यही परिभाषा मौजूद है ।’ ‘ आप्तमीमांसावृति में आचार्य वसुनन्दि ने पौरुषं मनोवाक्कायव्यापारलक्षणम् अर्थात् मन, वचन, काय के व्यापार अथवा प्रयास को पुरुषार्थ कहा है । अमृतचन्द्राचार्य प्रवचनसार की टीका में बहरी हैं. आत्मद्रव्य. पुरुषकार नय से जिसकी सिद्धि यलसाध्य है. ऐसा है ।” इन उद्धरणों से सुस्पष्ट है कि प्रकृत गाथा में उल्लिखित पाँचवें हेतु का अभिप्रेतार्थ है. चेष्टा, यत्न 7 प्रयत्न (ट[[पा), अथवा इष्ट (‘अदृष्ट’ या ‘दैव के प्रतिपक्षी के अर्थ में) । परन्तु खेद का विषय है कि महान आचार्यों द्वारा दी गई उपर्युक्त स्पष्ट एवं प्रामाणिक परिभाषा की अवहेलना करके, कुछ लोग मल्लिषेणसूरि के रचाद्वादनंजरी नामक गरुथ में मुक्त जीवों के विषय में किये गए एक कथन का आश्रय लेकर (जो कथन, वहाँ वैशेषिकमत की मान्यता का निरसन करने के प्रयोजनवश मात्र उपचार से किया गया है )आजकल एक नई परिभाषा गढ़ने में लगे हैं कि ‘ ‘वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम ही पुरुषार्थ है । ” (आगे चलकर, अनुच्छेद -1 ० में हम देखेंगे कि आर्ष आचार्यों के अनुसार ‘वीर्यान्तराय का क्षयोपशम’ वास्तव में ‘पुरुषार्थ’ की परिभाषा कदापि नहीं है, बल्कि ‘योग्यता’ की परिभाषा का एक अंश मात्र है ।) 222 स्वभाव : इस हेतु का तात्पर्य कुछ लोग जीव का त्रैकालिक स्वभाव समझ लेते हैं, परन्तु ऐसा समझना युक्तियुक्त नहीं है क्योंकि वह पारिणामिक भाव तो त्रिलोकवर्ती समस्त जीवों के लिये सदाकाल एक-सदृश है, फिर वह विभित्र संसारी जीवों के विभित्र ‘कार्यों में विविधरूप से हेतु कैसे हो सकेगा? दूसरे शब्दों में कहें तो ‘त्रैकालिक स्वभाव’ को उक्त पंचहेतुओं में गिनने पर अतिरेक-दोष (हटह-तप्तप्रप्ट) का प्रसंग प्राप्त हो जाएगा । खोज करने पर, इस निष्कर्ष पर पहुँचा गया है कि ‘स्वभाव, का जो अर्थ यहाँ अभिप्रेत है, वह है. संस्कार । संसारी प्राणी के जीवन की समस्त शुभ-अशुभ प्रवृत्तियां उसके संस्कारों के अधीन घटित होती हुई देखी जाती हैं, जिनमें से कुछ यह जीव पूर्वभव से अपने साथ लाता है, और कुछ को इसी भव में संगति एवं शिक्षा आदि के प्रभाव से उत्पन्न एवं संचित करता है । सिद्धिविनिश्चय में भट्ट अकलंकदेव और उनके टीकाकार आचार्य अनन्तवीर्य कहते हैं : वस्तुस्वभावोऽयै यत् संस्कार: स्मृतिबीजमादधीत;” संस्काराद वासनापरनान्नः” अर्थात् जीव-वस्तु का? (वैभाविक) स्वभाव ही संस्कार है ?ं जिसको स्मृति का बीज माना गया है; सरकार और वासना, ये दोनों समानार्थक हैं । प्रमेयकमलमार्तण्ड में आचार्य प्रमाचन्द्र लिखते हैं सं स्कार: सांव्यवहारिकप्रत्यक्षमेदो धारणा;” संस्कारश्च कालान्तराविस्मरण- कारणलक्षणधारणारूप:’ 8 अर्थात् सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष का भेदभूत जो धारणा है उसी का नाम संस्कार है; और कालान्तर में विस्मरण न होने देने का कारण भी यही संस्कार है । 19 इन संस्कारों को मुख्यत: तीन कोटियों में रखा जा सकता है : अविद्या-अज्ञान के संस्कार, राग-द्वेष के संस्कार, और शिक्षा-अध्ययन आदि से छत्पन्न किये गए संस्कार । अन्तिम कोटि के पुन: दो भेद किये जा सकते हैं; एक, लौकिक शिक्षा, और दूसरे, तत्त्वज्ञान के संस्कार । अविद्या-अज्ञान-मिथ्यात्व के सरकार तो हम सभी संसारी जीव अनादि काल से ही उत्पत्र करते आ रहे है जैसा कि आचार्य पूज्यपाद समाधिशतक में कहते हैं : ‘ ‘चूँकि बहिरात्मा इन्द्रियरूपी द्वारों से बाह्य पदार्थों के ग्रहण करने में प्रवृत्त हुआ आत्मज्ञान से पराङ्मुख होता है, इसलिये देह को ही आत्मा समझता है । मनुष्य देह में स्थित आत्मा को मनुष्य, और तिर्यंच देह में स्थित आत्मा को तिर्यंच, इत्यादि समझता है । अपने शरीर के समान दूसरे के शरीर को देखकर, उसे पर का आत्मा मानता है । इस विभ्रम के पुन: पुन: प्रवृतिरूप अभ्यास से अविद्या नामक सरकार अथवा वासना इतनी दृढ़ हो जाती है कि उरपके कारण यह अज्ञानी जीव जन्म-जन्मान्तर मे भी शरीर को ही आत्मा मानता है । ‘ ’20 चूँकि कषाय या राग-द्वेष का मूल कारण अविद्या ही है; अत: राग-द्वेष के संस्कारों को भी हम सभी अनादिकाल से बारम्बार पुष्ट करते चले आ रहे हैं, जिसके कारण वे रागद्वेषादिक हमारे ‘स्वभाव बन गए हैं; जैसा कि आचार्य जयसेन ने कहा है : कर्मबन्धप्रस्तावे रागादिपरिणामोदुपि अशुद्धनिश्चयेन स्वभावो मण्यते अर्थात् कर्मबद्ध जीव के प्रकरण में, रागादिक परिणाम भी अशुद्धनिश्चयनय से जीव के ‘स्वभाव’ कहे जाते हैं ।” आचार्य अमृतचन्द्र के ये शब्द भी द्रष्टव्य हैं : इह हि संसारिणो जीवस्यानादिकर्मपुद्गलोपाधि- सन्निधिप्रत्ययप्रवर्तमानुप्रतिक्षणविवर्तनस्य क्रिया किल स्वभावनिर्वृत्तैवास्ति अर्थात् इस विश्व में अनादि कर्मपुद्गल की उपाधि के सविधिप्रत्यय या निमित्तकारण से होने वाला विवर्तन जिसके प्रतिक्षण होता रहता है, ऐसे संसारी जीव की वह विवर्तन, चिपरिणमन या विभावरूप क्रिया वास्तव में स्वभाव-निष्पत्र ही है ।” पुनश्च, अनलानुबन्धी कषायों के सन्दर्भ में आचार्य वीरसेन धवला में कहते हैं. एदे हि जीवग्हि जणिदसं सकारस्स अणै ते सु भावे सु अबडाणखूगामादो अर्थात् इन कषायपरिणामों के द्वारा जीव में उत्पन्न हुए संस्कारों का अनन्तभवों में अवस्थान माना गया है ।” उपर्युक्त अज्ञानात्मक संस्कारों के विपरीत, जब यह जीव सम्यग् उपदेश को पाकर ‘ ‘रव -पर भेदविज्ञान का पुन: पुन: अभ्यास करता है तब ज्ञान के उन संस्कारों के द्वारा स्वत: स्वतत्त्व को प्राप्त हो जाता है’ ‘ (समाधिशतक श्लोक 37, उत्तरार्द्ध) । ‘ ‘विनयपूर्वक अध्ययन किये गए जुत के संस्कार भवान्तर में भी साथ जाते है । ‘ ’24 ”नरकादि भवों में जहाँ उपदेश का अभाव है, वहाँ पूर्वभव में धारण किये हुए तत्त्वार्थ के संस्कार के बल से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है । ‘ ’25 पुनश्च, ‘ सम्यग्दृष्टि मनुष्य जब चारित्रमोह के उदय से शुद्धात्मभावना भाने में असमर्थ होता है, तब वह परमात्मस्वरूप अर्हन्त-सिद्धों के गुणानुवादरूप परम भक्ति करता है ।… पश्चात् पंचमहाविदेहों में जाकर समवशरणादिक को देखता है । पूर्व जन्म में भावित विशिष्ट भेदज्ञान की वासना या संस्कार के बल से मोह नहीं करती, अत: जिनदीक्षा धारण करके परम आत्मध्यान के द्वारा मोक्ष जाता है । ‘ ’26 निष्कर्ष यह कि जो ज्ञानात्मक संस्कार हैं ‘ ‘वे ज्ञान से उत्पन्न होते हुए, कालान्तर में ज्ञान के कारण भी होते हैं । ‘ ’27 इस प्रकार, हम पाते हैं कि प्रकृत गाथा में २चभाव का अभिप्राय वास्तव में जीव की वर्तमान रभूल या व्यंजन पर्याय में होने वाले उसके विभित्र सरकारों अथवा वृतियों7रुझानों7झुकावों (Proclivities/tendencies) से है । 223 पूर्वकृत संसारी जीव के सन्दर्भ में विचार करें तो अन्तरंग और बहिरंग के भेद से निमित्त दो प्रकार के होते है,” अत: ‘पूर्वकृत’ या वर्तमान कर्मोदय को अन्तरंग निमित्त में गर्भित किया जा सकता है । ‘दैव’ या ‘अदृष्ट’ को भट्ट अकलंकदेव व आचार्य विद्यानन्दि ने ‘पूर्वकृत’ का पर्यायवाची बतलाया है ।’ ध्यान देने योग्य है कि ‘पूर्वकृत शब्द से यह भी ध्वनित होता है कि दैव भी जीव की पूर्वभव या परलोक में की गई चेष्टाओं का ही प्रतिरूप है । यही कारण है कि उक्त आचार्यद्वय की ऊपर उद्धृत की गई ‘पुरुषार्थ की परिभाषाओं में ‘इह शब्द आया है; जिसका अभिप्राय है कि इहलोक में की गई चेष्टा ‘पुरुषार्थ कहलाती है (इसीलिये उसे ‘इष्ट’ भी कहा गया है); जबकि पूर्वभव?परलोक में की गई चेष्टा ही ‘दैव है; इसीलिये उसे ‘पूर्वकृत संज्ञा दी गई है और ‘अदृष्ट’ भी कहा गया है ।” लौकिक क्षेत्र में – जहाँ शुभ या अशुभ कर्मोदय को अभीष्ट की सफलता या विफलता में मुख्य हेतु माना गया है” – पूर्वकृत, कर्मोदय या दैव की प्रबलता को आचार्यो द्वारा ‘भवितव्यता’ भी कहा गया है । स्वामी समन्तभद्र ने आप्तमीमाजकी चार कारिकाओं ८०-९० में दैव और उसके प्रतिपक्षी पुरुषार्थ के अनेकान्त का विवेचन किया है । भट्ट अकलंकदेव ने कारिका 89 की टीका करते हुए, ‘अदृष्ट’ को बिल्कुल स्वीकार न करने वाले चार्वाक् आदि की ऐकालिक मान्यता के निरसन के प्रयोजनवश, ‘भवितव्यता के समर्थक एक श्लोक को इतिहास-प्रसिद्ध चाणक्य की नीतिविषयक पुस्तक चाणक्यनीतिदर्पणम् से अष्टशतीमें उदभूत किया है;” जिससे सुस्पष्ट है कि अकलंकदेव एवं (उनकी टीकाकृति को अपनी अष्टसहसश्लोकप्रमाण व्याख्या में पूर्णत: अन्तर्भूत कर लेने वाले) आचार्य विद्यानन्दि के मतानुसाज’ ‘भवितव्यता और ‘दैक, दोनों एकार्थवाची है । कोश के अनुसार भी, ‘माट?हटऽ।गं?,’ प्रारख?भाग्य7होनीउ5 और भवितव्यता समानार्थक हैं । पुनश्च, स्वामी समन्सभद्र ने स्वयल[त्त्तोत्र ७-३ में जो ”अलंध्यशक्ति: भवितव्यता” कहा है, वहाँ भी भवितव्यता का अभिप्रेतार्थ दैव, कर्म, अदृष्ट अथवा भाग्य की प्रबलता ही है; जैसा कि ‘तत्त्वप्रदीपिका व्याख्या में स्पष्ट किया गया है ।” 224 काललब्धि. अब ‘काल’ अथवा ‘काललथि’ के विषय में प्रकृत सन्दर्भ में (यानी मोक्षमार्ग के सन्दर्भ में) विचार करते हैं । षट्खण्डागम ‘जीवस्थानखण्ड’ की आठवीं चूलिका प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के विषय में है । उसके तीसरे सूत्र की व्याख्या करते हुए आचार्य वीरसेन कहते हैं ‘ ‘इस सूत्र के द्वारा क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि और प्रायोग्यलब्धि, ये चारों लथियां प्ररूपित की गई हैं ।… प्रश्न : सूत्र में तो केवल एक काललयि ही प्ररूपित की गई है, उसमें इन चारों लब्धियों का होना कैसे सम्भव है? उत्तर : नहीं; क्योंकि प्रतिसमय अनलगुने हीन अनुभाग की उदीरणा का (अर्थात् क्षयोपशमलयि का), अनलगुणित क्रम द्वारा वर्धमान विशुद्धि का (अर्थात् विशुद्धिलयि का), और आचार्य के उपदेश की प्राप्ति का (अर्थात् देशनालब्धि का) (तथा तत्त्वचिंतवनरूप प्रायोग्यलब्धि का! एक काललयि में अर्न्तभाव हो जाता है । ” 37 ऐसा ही आशय आचार्य जयसेन द्वारा पंचास्तिकाय की टीका में व्यक्त किया गया है ‘ ‘जब यह जीव आगमभाषा के अनुसार कालादिक लब्धिरूप और अध्यात्मभाषा के अनुसार शुद्धात्माभिमुख परिणामरूप स्वसंवेदनइघन को प्राप्त करता है तब पहले मिथ्यात्त्वादि सात कर्मप्रकृतियों के उपशम होने पर, और फिर उनका क्षयोपशम होने पर सरागसम्यग्दृष्टि हो जाता है । ‘ ”8 चूँकि मोक्षमार्ग की शुरुआत ही – सम्यग्दर्शन से होती है, इसलिये आचार्यों के उपयुक्त उद्धरणों से निष्कर्ष निकलता है कि’ मोक्षमार्ग के सन्दर्भ में ‘काललथि’ कुछ और नहीं, प्रकारान्तर से ‘क्षयोपशम’ से लेकर ‘करण’ तक पाँचों लब्धियों के समुच्चय की, साधना द्वारा सम्प्राप्ति की अभिव्यक्ति मात्र है ।” 225 नियति : अब शेष रहा ‘नियति’ संज्ञक हेतु, सो ‘मिथ्या नियति’ की क्या परिभाषा है; यह तो ऊपर, प्रथम अनुच्छेद में एकान्त नियतिवाद की चर्चा के दौरान देख ही आए हैं । कोश में देखते हैं तो ‘नियति’ के अर्थों में वही माग्य प्रारब्ध 7 भवितव्यता,destiny/fate को शामिल किया गया है । :न्नैन्द्व सिद्धान्त कोश में भी प्राय: इसी दृष्टि को अपनाया गया है; ‘नियति’के नीचे दिये गए विभित्र उपशीर्षकों के अन्तर्गत जिन-जिन उद्धरणों -रि किया गया है, उन सबके अवलोकन से तो यही निष्कर्ष निकलता – स्थ्य; द्यै – यदि ऐसा है, तो नियति और दैव 7 भाग्य एकार्थवाची ठहरते न् -ऊ.??? च्?न्द-इत्स्नूत्रकार ने कहीं ‘नियति’ को परिभाषित किया है, और श्ँए-पुए ने—– रु-ई अमचार्य की रचना में ‘नियति’ की परिभाषा अभी तक ?उ,५ गाथा में कहे गए अन्य चार हेतुओं के साथ रखने वाली, ‘नियति’ की जिनागम-सम्मत ४८ एइ पर आगे चलकर विचार करेंगे । न के साराशस्वरूप, समहत (सन्मतिसूत्र) अनेक उपर्युक्त गाथा का तात्पर्य यह है कि जीवपदार्थ के किसी भी पर्यायरूपी कार्य के होने के सम्बन्ध में (चाहे वह कार्य लौकिक क्षेत्र में हो अथवा मोक्षमार्ग में), उक्त पाँचों हेतुओं का समास, सम्मेल अथवा समवाय होना चाहिये; इसी कारण इन्हें संक्षेप में ‘पंच-समवाय’ की संज्ञा भी दी गई है । यह भी स्पष्ट है कि यह गाथा संसारी जीवों में से केवल संइााई पंचेन्द्रिय जीवों पर मुख्यतया लागू पड़ती है जिनमें कि बुद्धिपूर्वक चेष्टा, प्रयत्न या पुरुषार्थ करने की क्षमता पाई जाती है । 3. आधुनिक नियतिवादियो द्वारा पंच-समवाय का अनुप्रयोग नियतिवाद के आधुनिक समर्थक भी उक्त पंचहेतुओं को जीव-सम्बन्धी कार्यव्यवस्था में कुछ इस प्रकार से घटाने का प्रयत्न किया करते हैं ‘ ‘किसी पदार्थ में किसी भी क्षण परिणमन की जो योग्यता है, वह एक ही प्रकार की होती है, अन्यथा नहीं,” इसलिये ‘स्वभाव’ का तात्पर्य है, विवक्षित जीवद्रव्य की विवक्षित क्षण में जो पर्याय होने की है, उसका होना । उसी के अनुकूल वैसा ही ‘निमित्त’ अपनी योग्यता से वहाँ उपस्थित रहता है ।” वह जीवद्रव्य उसी कार्य 7 पर्याय के लिये ‘पुरुषार्थ’ करता है । जो पर्याय उस क्षण प्रकट होनी थी, वही हुई सों ‘नियति’ है.?? और वह कार्य 7 पर्याय अपने ही काल में होता है, सो ही ‘काललब्धि’ है । ‘ उक्त प्रकार से आधुनिक नियतिवादी अपनी मान्यताओं के अनुसार जीव की कार्योत्पत्ति के सन्दर्भ में पंच-समवाय का अनुप्रयोग (मSS11ंप्मा1ं०ए) करते हैं । उनकी इन मान्यताओं की विस्तृत, आगमानुसारी परीक्षा तो आगे चलकर करेंगे; फिर भी, एक संक्षिप्त टिप्पणी यहाँ उपयुक्त होगी प्रथम तो ‘स्वभाश् का अर्थ जीव के विभित्र सरकार 7 रुझान या वृत्तियां हैं; जैसा कि आर्ष आचार्यों के अनेकानेक उद्धरणों से ऊपर स्पष्ट कर आए हैं । फिर भी, थोड़ी देर के लिये इस आपत्ति का स्थगन करके विश्लेषण करते हैं । यदि ऐसा माना जाता है कि ‘ ‘एक समय में एक ही पर्याययोग्यता होती है, अन्य नहीं;’ ‘ तो फिर, वह योग्यता तो अवश्य प्रकट होगी ही (भला, उसके लिये जीव के पुरुषार्थ की भी फिर क्या अपेक्षा!) क्योंकि अगर वह योग्यता प्रकट न हुई तो द्रव्य ही अपरिणामी ठहर जाएगा, जो कि स्पष्टतया सिद्धान्तविरुद्ध होगा!! इसलिये यदि ‘ ‘एक समय में एक ही पर्याययोग्यता होने का नियम’ ‘ कल्पिंत किया जाता है तो ‘स्वभाव’ भी नियत हो गया और ‘पुरुषार्थ’ भी । इन्हीं नियतिवादियों की एक अन्य मान्यता के अनुसार, चूँकि ‘ ‘निमित्त भी अपनी योग्यता से उसी समय वहाँ उपस्थित रहेगा, ” अत: ‘निमित्त’ भी नियत हो गया । ‘ ‘जिस काल में होने की थी, और जो पर्याय होने की थी; वह हुई, ” अत: ‘काल’ भी नियत हो गया और ‘कार्य 7 भवितव्य’ भी नियत हो गया । जब पाँचों ही समवाय इस प्रकार नियत हो गए, तब कार्यव्यवस्था का उक्त निरूपण यदि ऐकान्तिक नियतिवाद नहीं तो और क्या है? 4. परनिरपेक्ष द्रव्य-स्वभाव नियत है. जबकि परनिमित्तक द्रव्य-विभाव अनियत प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका वृत्ति के अन्त में परिशिष्ट के रूप में आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मद्रव्य का सैंतालीस नयों के द्वारा वर्णन किया है । वही उन्होंने ‘नियतिनय’ द्वारा आत्मद्रव्य का निरूपण इस प्रकार किया है नियतिनयेन नियमितौस्थ्यवहिवत्रियतस्वभावमासि ।2ह । अर्थ आत्मद्रव्य नियतिनय से नियतस्वभावरूप (अर्थात् चैतन्यरचभावरूप) भासित होता है; जिसकी उष्णता स्वभाव से ही नियमित होती है, ऐसी अग्नि की भाँति । (यह परनिरपेक्ष या ?ऊऊऊ निमित्त-निरपेक्ष, नियत द्रव्य-स्वभाव को ग्रहण करने वाले ‘नियतिनय’ का कथन है ।) तदनन्तर, आचार्यश्री इसके प्रतिपक्षी नय द्वारा आत्मद्रव्य का निरूपण करते हैं अनियतिनयेन नियत्यनियमितौष्ण्यपानीयवदनियतस्वभावभासि ।27 । अर्थ आत्मद्रव्य अनियतिनय से अनियतरचभावरूप (अर्थात् विभावरूप) भासित होता है; जिसकी उष्णता ‘नियति’ से नियमित नहीं है ऐसे पानी की भाँति; अर्थात् जैसे पानी के अग्निरूपी निमित्त से होने वाली उष्णता अनियत होने से पानी अनियतस्वभाव वाला या उष्णतामय विभाव वाला भासित होता है । (जल को जब और जैसी तीव्र-मन्द अग्नि का संयोग मिलेगा; तदनन्तर ही, और उसी तीव्र-मन्द उष्णता के अनुरूप, जल गर्म होगा । इस प्रकार, यह परसापेक्ष या निमित्त-सापेक्ष, अनियत द्रव्य-विभाव को ग्रहण करने वाले ‘अनियतिनय’ का कथन है ।) आचार्य अमृतचन्द्र के इस कथन से सुस्पष्ट है कि आत्मद्रव्य का बैभाविक परे– नियत नहीं, प्रत्युत अनियत है, क्योंकि वह रचभाव की भाँति पर-निरपेक्ष नहीं, बल्कि पर-सापेक्ष है; जैसा कि आचार्य कुन्दकुन्द नियमसार गाथा 1 4- 15 में बतलाते हैं कि जीवद्रव्य का समस्त वैभाविक 7 अशुद्ध णरइणमन स्व-पर-सापेक्ष होता है । अब, ‘पंचसमवाय’ में से ‘स्वभाव 7 सरकार’ मग- और ‘पुरुषार्थ’, दोनों चूँकि संसारी जीव के विभाव के ही दो भिन्न-भित्र पहलू हैं, अत: उनके नियत होने का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता । यहाँ एक प्रश्न उठना स्वाभाविक है जब जीव का न्थं जो उपादान 7 पुरुषार्थ है वही अनियत है, तब ‘पर’ जो निमित्त है उसको (जो कि स्पष्टत: ही जीव से भित्र एक स्वतन्त्र पदार्थ है) ‘नियत’ कहना भला कैसे युक्त हो सकता है? ध्यान देने योग्य है कि द्रव्यानुयोग का मूल सिद्धान्त ही यह है कि एक द्रव्य कदापि दूसरे द्रव्य के अधीन नहीं हो सकता । और, किसी भी निमित्तपदार्थ का अस्तित्व और परिणमन जीवपदार्थ के अस्तित्व से स्वतन्त्र ठहरा; तब फिर किसी जीवपदार्थ के विवक्षित कार्य 7 पर्याय के लिये किसी विवक्षित निमित्तपदार्थ की उपस्थिति नियत कैसे हो सकती है? निमित्त क्या उपादान का क्रीतदास ?? इस प्रकार, आगम के आलोक में निष्पक्ष रूप से विचार-विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि ‘पंचसमवाय’ में से ‘स्वभाव, ‘पुरुषार्थ’ और ‘निमित्त’ इन तीनों हेतुओं का ‘नियतपना’ मानना किसी प्रकार भी युक्तियुक्त नहीं ठहरता । शेष दो हेतुओं के विषय में भी आगे चलकर विचार करेंगे ।
5. अनियतिनय का विषयभूत पुरुषार्थ ऊपर, अनुच्छेद 3 में जिसका जिक्र कर आए हैं यह नियतिवादी मान्यता ऐकालिक इसीलिये है चूँकि वह नियतिनय का प्रतिपक्षी जो अनियतिनय है उसका विषयभूत अनियतस्वरूप जो जीव का पुरुषार्थ, उसकी तनिक भी सापेक्षता नहीं रखती । आलसी, निरुद्यमी लोग निजहितरूपी कार्य के मिथ्या नियतपने का सहारा लेकर मोक्ष-उपायरूप सम्यक् पुरुषार्थ का अनादर करते हैं; जबकि यह सर्वमान्य है कि मोक्षमार्ग में पुरुषार्थ ही प्रधान है । अपने-अपने राग-द्वेष से प्रेरित हुए प्राणी संसार में तो पुरुषार्थ करने से, अपने राग (द्वेष) के विषयभूत पदार्थों के पीछे दौड़ने से (अथवा, उनसे दूर भागने से), जरा भी नहीं चूकते, परन्तु जब मोक्षमार्ग की बात आती है तो आत्मकल्याणरूपी कार्य के कथित नियतपने का आश्रय लेकर पुरुषार्थ से जी चुराते हैं; यह एक सर्वानुभूत सत्य है । आधुनिक नियतिवाद के मूल में पड़ी है यह मान्यता कि ‘ ‘किसी पदार्थ की किसी समय में केवल एक पर्यायविशेष को प्रकट करने की ही योग्यता होती है जिसे कि पर्याययोग्यता कहते है ।’ ‘ आगे, विस्तार से विश्लेषण करने पर, देखेंगे कि जिनागम के अनुसार ऐसा वस्तुस्वरूप कदापि नहीं है । वस्तुत किसी भी पदार्थ में, किसी भी समय अनेक रूप से परिणमन करने की योग्यता होती है, हमारे विवक्षित कार्य के सन्दर्भ में वह पदार्थ चाहे उपादान हो अथवा निमित्त । जीवरूपी उपादान परिणमन करता है, वहाँ (1 क) घाति-अघातिकर्मों के उदय, अनुक्यु क्षयोपशमादिरूप अन्तरंगनिमित्त की अपेक्षा रहते हुए; (2) –टके स्वभाव 7 संस्कारों? रुझानों की सापेक्षतापूर्वक, नाना पर्याययोग्यताओं न् रे- किसी को बुनकर; और (1 ख) समुचित बहिरंग निमित्त (या निमित्तों) मे निजानुकूल योग्यता का अवलम्ब लेकर; वह (3) विवक्षित परिणमन करने रूप प्रयत्न के द्वारा निजपर्याय 7 कार्यरूप परिणत होता है; (4) जिस कार्यरूप परिणत होता है, वही भवितव्य है, और (5) जिस समय होता है वही काललब्धि है । इस प्रकार, ये पंचलमवाय, अनियतिनय के विषयभूत पुरुषार्थ की मुख्यता को समादर देकर किये गए, जीवसश्व-धी कार्यव्यवस्था के विश्लेषण में सम्यक् रूप से घटित होते हैं । तिरछे टाइप (1ंाम11ंp8) द्वारा जो क्रियायें यहाँ इंगित की गई हैं, वे समुच्चय रूप से बुद्धिपूर्वक चेष्टा, प्रयत्न, या पुरुषार्थ को अभिव्यक्त करती हैं ।1 बहिरंग निमित्त के सन्दर्भ में इतना और जानना चाहिये कि जीव द्वारा अभीष्ट कार्य के अनुकूल निमित्तों का अवलम्ब लेना तथा प्रतिकूल निमित्तों से बचना, दोनों ही बातें वहाँ शामिल हैं । 6. संसार और मोक्ष. दोनों का ही कारण : प्रधानत: जीव का अपना पुरुषार्थ यह जीव अनादिकाल से जो संसरण करता चला आ रहा है, मोह-राग-द्वेषरूप परिणमन करते हुए नाना वैभाविक अवस्था! धारण करता आ रहा है, इन सबका कारण मुख्यत: इसके २चयं के पुरुषार्थ की विपरीतता ही है, जैसा कि कहा मी गया है ज्ञानमनादिस्वपु रुषापराधप्रवर्त मानक – मलागछत्रत्वादे वबसावस्थायौ.. आत्मानमविजानदइाानमावेनैव इदमेवमवतिष्ठते समयसार गाथा ०, आत्मख्याति टीका) । अर्थ : ज्ञान अर्थात् आत्मद्रव्य, अनादिकाल से अपने पुरुषार्थ के अपराध से प्रवर्तमान कर्ममल के द्वारा व्याप्त होने से, बन्ध अवस्था में अपने स्वरूप को न जानता हुआ, इस प्रकार अज्ञान अवस्था में ही रह रहा है । दूसरी ओर, इस जीव के कल्याण का मार्ग भी प्रधानत: इसके स्वयं के पुरुषार्थ द्वारा ही सुनिश्चित किया जाता है; तभी तो प्रवचनसार में आचार्यों द्वारा कहा गया है जो मोहरागदोसे णिहणदि उवलम्म जोण्हमुवदेस । सो सब्बदुक्खमोक्से पावदि अचिरेण कालेण । १८८ । अत एव सर्वारम्मेण मोहक्षपणाय पुरुषकारे निषीदामि (तत्त्वप्रदीपिका वृत्ति) । अर्थ : जो जिनेन्द्र के उपदेश को प्राप्त करके मोह-राग-द्वेष का नाश करता है, वह अल्पकाल में सर्वदुःखों से मुक्त होता है ।… इसलिये सम्पूर्ण प्रयत्नपूर्वक मोह का क्षय करने के लिये मैं पुरुषार्थ का आश्रय ग्रहण करता हूँ । 7. मोक्षमार्ग के सन्दर्भ में पुरुषार्थ का स्वरूप मोक्षमार्ग के सन्दर्भ में विचार करें तो ‘पुराषार्थ’ शब्द का (कोश के अनुसार) पहला अर्थ ‘मोक्षरूपी साध्य’ को जताता है, जबकि दूसरा अर्थ (जो कि प्रस्तुत लेख में अभिप्रेत है) उस ‘साध्य के लिये की जाने वाली साधना’ को । इसी दूसरे अर्थ में आचार्य अमृतचन्द्र ने ‘पुरुषार्थसिद्धि-उपाय’, इस शब्दसमास का प्रयोग किया है । पुरुषार्थसिक्यूपाय में आचार्यश्री कहते हैं विपरीताभिनिवेश निरस्य सम्बग्व्यवस्य निजतत्त्वम् । यत्तस्मादविचलन स एव पुरुषार्थसिम्मपायोऽयम् । । १5 । । अर्थात् (1) विपरीत अभिनिवेश (शरीरादिक एवं कथायादिक के साथ इस जीव द्वारा किये जाने वाले अनादिकालीन एकानुभवन) का निरसन; (2) निजतत्त्व को सम्यक् रूप से यथावत् जानना 7 स्वरूपानुभवन; तथा (3) अपने उस स्वरूप (में लीन होकर फिर उस) से चूत न होना; यही मोक्षसाध्य की सिद्धि का उपाय है । इन तीनों उपायों अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्बखान २नम्यक्चारित्र की प्राप्ति के लिये, संइााई पंचेन्द्रिय जीवों द्वारा किया जाने वाला समरत सम्यक् प्रयत्न ही प्रस्तुत लेख के सन्दर्भ में ‘पुरुषार्थ’ शब्द का वाच्य है । भेदविज्ञान का साधक 7 पोषक वह सम्यक् पुरुषार्थ ही साधकजीव को अनवरत एवं प्रगाढ साD -ना की तर्कसंगत परिणति (1०81ंप्म1 p०0p1ाा51ं००) के रूप में, रत्नत्रय की परमपूर्णता तक पहुँचाने वाला होता है । मोक्षमार्ग में पुरुषार्थ की ही प्रधानता है, जैसा कि पण्डित टोडरमल जी ने मोक्षमार्गप्रकाशक के नौवें अधिकार में पुरुषार्थ को मुख्य 7 समर्थ कारण जबकि अन्य हेतुओं को गौण , असमर्थ कारण बतलाया है – ‘ ‘प्रश्न मोक्ष का उपाय काललब्धि आने पर, भवितव्य के अनुसार बनता है; या मोहादि के उपशमादि होने पर बनता है; या फिर अपने पुरुषार्थ से उद्यम करने पर बनता है? यदि प्रथम दो कारणों से बनता है तो हमें उपदेश किसलिये देते हो? समाधान एक कार्य के होने में अनेक कारण मिलते हैं; जहाँ मोक्ष का उपाय बनता है, वही तो पूर्वोक्त तीनों ही कारण मिलते हैं; और जहाँ नहीं बनता, वहाँ तीनों ही कारण नहीं मिलते । जो पूर्वोक्त तीन कारण कहे. उनमें काललब्धि व होनहार तो कोई चीज नहीं है : जिस काल में कार्य बनता है वही काललब्धि. और जो कार्य हुआ. वही होनहार । तथा जो कर्म के उपशमादिक हैं, वह पुद्गल की शक्ति है; उसका आत्मा कर्ता-हर्ता नहीं है । पुनश्च, पुरुषार्थ से उद्यम करते हैं. सो यह आत्मा का कार्य है : इसलिये आत्मा को पुरुषार्थ से उद्यम करने का उपदेश देते हैं । वहाँ, यह आत्मा जिस कारण से कार्यसिद्धि अवश्य होती हो. यदि उस कारणरूप उद्यम करे. तब तो अन्य कारण मिलते ही मिलते हैं. और कार्य की भी सिद्धि होती ही होती है । परन्तु, जिस कारण से कार्यसिद्धि होती हो, अथवा नहीं भी होती हो, उस कारणरूप यदि उद्यम करे, वहाँ अन्य कारण मिलें तो कार्यसिद्धि होती है, न मिलें तो सिद्धि नहीं होती । सो जिनमत में जो मोक्ष का उपाय कहा है. उससे मोक्ष होता ही होता है । इसलिये जो जीव पुरुषार्थ से जिनेश्वर के उपदेशानुसार मोक्ष का उपाय करता है. उसके काललब्धि व होनहार भी हुए. और कर्म के उपशमादि हुए हैं. तो वह ऐसा उपाय करता है । इस प्रकार. जो पुरुषार्थ से मोक्ष का उपाय करता है. उसके सर्व कारण मिलते हैं और उसको अवश्य मोक्ष की प्राप्ति होती है – ऐसा निश्चय करना । परन्तु जो जीव पुरुषार्थ से मोक्ष का उपाय नहीं करता. उसके काललब्धि व होनहार भी नहीं हैं : और कर्म के उपशमादि नहीं हुए हैं. तो यह उपाय नहीं करता 1 इसलिये जो पुरुषार्थ से मोक्ष का उपाय नहीं करता. उसके कोई कारण नहीं मिलते. और उसको मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती … ऐसा निश्चय करना । ‘ ’46 8. ‘द्रव्ययोग्यता’ और ‘पर्याययोग्यता’ जगत का प्रत्येक कार्य उत्पाद-व्यय-धौब्य, इस स्वभावत्रयी के अनुसार ही होता है, यह सर्वमान्य सिद्धान्त है । प्रत्येक द्रव्य में अनेकानेक मूल ‘द्रव्य-शक्तियाँ या ‘द्रव्य-योग्यताएँ’ समान रूप से सुनिश्चित हैं । उदाहरण के लिये, प्रत्येक जीव में सिद्ध होने की शक्ति अथवा योग्यता है – वर्तमान में वह जीव निगोद पर्याय में है अथवा पंचेन्द्रिय पर्याय में, इसका प्रश्न नहीं है । इसी प्रकार, चूँकि प्रत्येक जीव चौदह गुणरथग्नों सम्बन्धी असंख्यात लोकप्रमाण मित्र-भित्र वैभाविक परिणामों को करने में समर्थ है, अतएव प्रत्येक संसारी जीव में असंख्यात लोकप्रमाण द्रव्ययोग्यताएँ विद्यमान हैं । एक जाति के अनेक द्रव्यों में द्रव्ययोग्यताएँ समान होते हुए भी, अमुक चेतन पदार्थ या अमुक अचेतन पदार्थ में वर्तमान रभूल 7 व्यंजनपर्याय सम्बन्धी शक्तियाँ या योग्यताएँ सम्भव हैं, जिन्हें ‘पर्याय-शक्ति’ या ‘पर्याय-योग्यता’ कहा जाता है । जैसे यद्यपि प्रत्येक पुद्गल परमाणु में घट, पट आदि सभी कुछ (पौद्गलिक) पदार्थरूप बनने की द्रव्ययोग्यता है किन्तु यदि कोई परमाणु वर्तमान में मिट्टी के पिण्ड में शामिल है, मृत्पिण्डरूपी स्कन्ध का एक अश है, तो वह घटरूप ही परिणमन कर सकता है, पटरूप नहीं; अत: उसमें घट होने की तो पर्याययोग्यता है, परन्तु पट होने की पर्याययोग्यता का अभाव है । इसी प्रकार कोई अन्य परमाणु जो वर्तमान में कपासरूपी स्कन्ध का एक अवयव है, उसमें पटरूप होने की तो पर्याययोग्यता है, घटरूप होने की नहीं है ।” 9. एक समय में अनेकानेक पर्याययोग्यताओं का सद्भाव मिट्टी के पिण्ड वाला परमाणु वर्तमान में केवल घटरूप होने की योग्यता ही रखता हो, ऐसा नहीं है । उसमें सुराही, सकोरा, तौला, कुल्हड़ इत्यादि अन्य अनेक परिणमनों की संभावना मौजूद है, अर्थात् ये सब पर्याययोग्यताएँ उसमें विद्यमान हैं । अब कुम्हार की इच्छा, प्रयत्न और चक्र, दण्ड आदि जैसी बाह्य सामग्री मिलती है, तदनुसार अमुक पर्याय प्रकट हो जाती है । इतना ही नहीं, वही मिट्टी यदि कुम्हार द्वारा न लाई जाती और खेत में ही पड़ी रहती, तो वह विवक्षित परमाणु किसी पौधे के रूप में भी परिणम सकता था । इसी प्रकार कपास वाले परमाणु में सूत, डोरा, गदा, चादर आदि अनेक रूप परिणमन करने की योग्यताएँ अर्थात् पर्याययोग्यताएँ विद्यमान हैं । ऊपर दिये गए दोनों उदाहरण तो जड़-पदार्थ सम्बन्धी थे; अब हम पुन: अपने प्रकृत विषय अर्थात् चेतन पदार्थ के बारे में विचार करते हैं । प्रत्येक जीव में उपर्युक्त असंख्यात लोकप्रमाण द्रव्ययोग्यताएँ होते हुए भी वर्तमान स्थूल 7 व्यंजन पर्याय में (जैसे कि हमारी मनुष्य पर्याय में) कोई भी जीव उस राशि के एक अंशमात्र परिणाम करने में ही समर्थ है ।” ध्यान देने योग्य है कि एक लोकप्रमाणराशि का भी अर्थ है सम्पूर्ण लोकाकाश की प्रदेश-संख्या जो कि असंख्यातासंख्यात होती है । अब यह जीव इतनी अधिक सम्भावनाओं में से कौन सी पर्याय वर्तमान में प्रकट करता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि यह अपने उपयोग में किस पदार्थ का अवलम्बन अपनी रुचि 7 रुझान के अनुसार किस प्रयोजन से लेता है । उदाहरण के लिये, कोई मनुष्य घर में बैठा हुआ है; खाली बैठे हुए भी वह किसी-न-किसी पदार्थ के बारे में सोचता रहता है; कुछ-न-कुछ उधेड़-चुन अवश्य किया करता है । यदि वह अखबार पड़ता है या टेलिविजन देखने लगता है तो तदनुसार उसका मानस प्रवृत होता है, किसी घटना या कहानी के पात्रों से जुड़कर राग-द्वेषरूप परिणमन करने लगता है । दूसरी ओर, यदि वह किसी सुशास्त्र का अवलम्बन लेता है, उसका अध्ययन करने में अपने झूपयोग को लगाता है तो कुछ दूसरे ही प्रकार के भाव प्रशस्त जाति के परिणाम) उसके मन में उदित होंगे; जो? भी हो, चुनाव उस मनुष्य का है । इस प्रकार एक ओर आजीविका, परिवार, भोगोपभोग-सामग्री आदि, और दूसरी ओर सुदेव-शास्त्र-गुरा, इन भित्र-भित्र अवलम्बनों के माध्यम से भिन्न-भित्र प्रकार के परिणाम करना, यह सब इस जीव की पर्याययोग्यताओं के अन्तर्गत आता है । तात्पर्य यह है कि हम जिस किसी पदार्थ का अपने उपयोग में अवलम्बन लेते हैं, उसी से सम्बन्धित शुभ-अशुभ विकल्प, अपनी रुचि या रागद्वेषात्मक स्वभाव के अनुसार करने लगते हैं । इस प्रकार निष्पक्ष. तर्कसंगत. युक्तियुक्त और प्रत्यक्ष अनुभव से अबाधित विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि प्रत्येक पदार्थ में चाहे वह अचेतन हो अथवा चेतन. अनेकानेक प्रकार की पर्याययोग्यताएँ पाई जाती हैं । ही, इतना अन्तर अवश्य है कि अचेतन पदार्थ का परिणमन (अनेकानेक में से किसी एक पर्याययोग्यता की अभिव्यक्ति) तो मुख्यत: बाहरी निमित्तों के मिलने पर निर्भर करती है, जबकि चेतन जाति के पदार्थों अर्थात् जीवों में से, संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों का परिणमन (अनेकानेक में से किसी एक पर्याययोग्यता की अभिव्यक्ति) मुख्यत: उनकी स्वयं की रुचि और स्वयं के पुरुषार्थ पर आधारित है – यही कारण है कि सर्वज्ञ भगवान् तथा पूज्य आचार्यों ने उन्हीं को लक्ष्य करके उपदेश दिया है । रवामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा में स्वामी कुमार द्वारा भी यही अभिप्राय व्यक्त किया गया है कालाइलडिजुत्ता णाणासत्तीहि संजुदा कत्था । परिणममाणा हि सयं ण सक्कदे को वि वारेदुं । । 2१9 । । अर्थ. सभी पदार्थों में नाना शक्तियां, सामर्थ्य या योग्यताएं हैं । काल आदि की लब्धि होने पर, यानी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप सामग्री की प्राप्ति के अनुसार’ वे पदार्थ स्वयं परिणमन करते हैं; उन्हें उससे कोई नहीं रोक सकता । १०. ज्ञानात्मक परिणामों सम्बन्धी अनेकानेक योग्यताएं ज्ञानावरणीय आदि कर्मो के क्षयोपशम के अनुसार यदि कोई संइााई पंचेन्द्रिय जीव है (जैसे कि हम सभी मनुष्य हैं ही) तो उसके अनेकानेक शक्तियाँ या योग्यताएँ सम्भव हैं, जिन्हें ‘पर्याय-शक्ति’ या ‘पर्याय-योग्यता’ कहा जाता है । जैसे यद्यपि प्रत्येक पुद्गल परमाणु में घट, पट आदि सभी कुछ (पीकलिक) पदार्थरूप बनने की द्रव्ययोग्यता है किन्तु यदि कोई परमाणु वर्तमान में मिट्टी के पिण्ड में शामिल है, मृत्पिण्डरूपी स्कन्ध का एक अंश है, तो वह घटरूप ही परिणमन कर सकता है, पटरूप नहीं; अत: उसमें घट होने की तो पर्याययोग्यता है, परन्तु पट होने की पर्याययोग्यता का अभाव है । इसी प्रकार कोई अन्य परमाणु जो वर्तमान में कपासरूपी स्कन्ध का एक अवयव है, उसमें पटरूप होने की तो पर्याययोग्यता है, घटरूप होने की नहीं है ।” 9. एक समय में अनेकानेक पर्याययोग्यताओं का सद्भाव मिट्टी के पिण्ड वाला परमाणु वर्तमान में केवल घटरूप होने की योग्यता ही रखता हो, ऐसा नहीं है । उसमें सुराही, सकोरा, तौला, कुल्हड़ इत्यादि अन्य अनेक परिणमनों की संभावना मौजूद है, अर्थात् ये सब पर्याययोग्यताएँ उसमें विद्यमान हैं । अब कुम्हार की इच्छा, प्रयत्न और चक्र, दण्ड आदि जैसी बाह्य सामग्री मिलती है, तदनुसार अमुक पर्याय प्रकट हो जाती है । इतना ही नहीं, वही मिट्टी यदि कुम्हार द्वारा न लाई जाती और खेत में ही पड़ी रहती, तो वह विवक्षित परमाणु किसी पौधे के रूप में भी परिणम सकता था । इसी प्रकार कपास वाले परमाणु में सूत, डोरा, गढ़ा, चादर आदि अनेक रूप परिणमन करने की योग्यताएँ अर्थात् पर्याययोग्यताएँ विद्यमान हैं । ऊपर दिये गए दोनों उदाहरण तो जबड़-पदार्थ सम्बन्धी थे; अब हम पुन: अपने प्रकृत विषय अर्थात् चेतन पदार्थ के बारे में विचार करते हैं । प्रत्येक जीव में उपर्युका असंख्यात लोकप्रमाण द्रव्ययोग्यताएँ होते हुए भी वर्तमान स्थूल 7 व्यंजन पर्याय में (जैसे कि हमारी मनुष्य पर्याय में) कोई भी जीव उस राशि के एक अंशमात्र परिणाम करने में ही समर्थ है ।” ध्यान देने योग्य है कि एक लोकप्रमाणराशि का भी अर्थ है सम्पूर्ण लोकाकाश की प्रदेश-संख्या जो कि असंख्यातासंख्यात होती है । अब यह जीव इतनी अधिक सम्भावनाओं में से कौन सी पर्याय वर्तमान में प्रकट करता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि यह अपने उपयोग में किस पदार्थ का अवलम्बन अपनी रुचि 7 रुझान के अनुसार किस प्रयोजन से लेता है । उदाहरण के लिये, कोई मनुष्य घर में बैठा हुआ है; खाली बैठे हुए भी वह किसी-न-किसी पदार्थ के बारे में सोचता रहता है; कुछ-न-कुछ उधेड़-चुन अवश्य किया करता है । यदि वह अखबार पड़ता है या टेलिविजन देखने लगता है तो तदनुसार उसका मानस प्रवृत्त होता है, किसी घटना या कहानी के पात्रों से जुड़कर राग-द्वेषरूप परिणमन करने लगता है । दूसरी ओर, यदि वह किसी सुशास्त्र का अवलम्बन लेता है, उसका अध्ययन करने में अपने उपयोग को लगाता है तो कुछ दूसरे ही प्रकार के भाव (प्रशस्त जाति के परिणाम) उसके मन में उदित होंगे; जो भी हो, चुनाव उस मनुष्य का है । इस प्रकार एक ओर आजीविका, परिवार, भोगोपभोग-सामग्री आदि, और दूसरी ओर सुदेव-शास्त्र-गुरु, इन भित्र-भित्र अवलम्बनों के माध्यम से भिन्न-भिन्न प्रकार के परिणाम करना, यह सब इस जीव की पर्याययोग्यताओं के अन्तर्गत आता है । तात्पर्य यह है कि हम जिस किसी पदार्थ का अपने उपयोग में अवलम्बन लेते हैं, उसी से सम्बन्धित शुभ-अशुभ विकल्प, अपनी रुचि या रागद्वेषात्मक स्वभाव के अनुसार करने लगते हैं । इस प्रकार निष्पक्ष. तर्कसंगत. युक्तियुक्त और प्रत्यक्ष अनुभव से अबाधित विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि प्रत्येक पदार्थ में चाहे वह अचेतन हो अथवा चेतन. अनेकानेक प्रकार की पर्याययोग्यताएँ पाई जाती हैं । ही, इतना अन्तर अवश्य है कि अचेतन पदार्थ का परिणमन (अनेकानेक में से किसी एक पर्याययोग्यता की अभिव्यक्ति) तो मुख्यत: बाहरी निमित्तों के मिलने पर निर्भर करती है, जबकि चेतन जाति के पदार्थों अर्थात् जीवों में से, संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों का परिणमन (अनेकानेक में से किसी एक पर्याययोग्यता की अभिव्यक्ति) मुख्यत: उनकी स्वयं की रुचि और स्वयं के पुरुषार्थ पर आधारित है – यही कारण है कि सर्वज्ञ भगवान् तथा पूज्य आचार्यों ने उन्हीं को लक्ष्य करके उपदेश दिया है । स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा में स्वामी कुमार द्वारा भी यही अभिप्राय व्यक्त किया गया है : कालाइलडिजूत्ता णाणासत्तीहि संजूदा अत्था । परिणममाणा हि सयं ण सक्कदे को वि बारेदुं । । 2१ । । अर्थ सभी पदार्थों में नाना शक्तियां, सामर्थ्य या योग्यताएं हैं । काल आदि की लम्रि होने पर, यानी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप सामग्री की प्राप्ति के अनुसार’ वे पदार्थ स्वयं परिणमन करते हैं; उन्हें उससे कोई नहीं रोक सकता । १०. ज्ञानात्मक परिणामों सम्बन्धी अनेकानेक योग्यताएं. खानावरणीय आदि कर्मो के क्षयोपशम के अनुसार यदि कोई संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव है (जैसे कि हम सभी मनुष्य हैं ही) तो उसके पंचेन्द्रियों व मन सम्बन्धी मति-श्रुतइघनावरणकर्म और वीर्यान्तरायकर्म का जितना क्षयोपशम वर्तमान में है, उतनी ही ज्ञानात्मक पर्याय-योग्यताएं उस जीव के हैं । आचार्य विद्यानन्दि प्रमाण- परीक्षा में स्पष्ट लिखते हैं योग्यता. स्वविषयहमनावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशम विशेष एव अर्थात् अपने विषय सम्बन्धी ज्ञानावरणीय तथा वीर्यान्तराय का क्षयोपशम विशेष ही योग्यता है ।” यही अभिप्राय आचार्यश्री ने तत्वार्थश्लोकवार्तिक में अध्याय 1 सूत्र म्। 3 ( ‘मति: स्मृति: संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्’ ‘) की टीका के अन्तर्गत स्मृति, प्रत्यभिज्ञान आदि की व्याख्या करते हुए अनेकानेक स्थलों पर व्यक्त किया है; जैसे किउ पद्यवार्तिक 1०8 में क्षयोपशमसंज्ञेयं योग्यता अर्थात् क्षयोपशम नामक यह योग्यता.. ।” जब वस्तुस्बरूप ऐसा है, तभी तो सैईZ पंचेन्द्रिय जीव किसी भी क्षण, मुख्यत: अपने चुनाव के अनुसार किसी भी एक इन्द्रिय-विषय को अपने उपयोग में ले सकता है; शेष इन्द्रियों-सम्बन्धी क्षयोपशम उसी समय वही लब्धिरूप से विद्यमान रहता है,” चूँकि ‘लब्धि’ और ‘योग्यता’ समानार्थक हैं ।” यही आशय स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा में भी प्रकट किया गया है. पंचिंदिय-णाणाणं मच्छे शा च होदि उवजुत्तं । मण-णाणे उवजुत्तो इंदिय-णार्ण ण जाणेदि । । 259 । । एक्रे काले एक णाणं जीवस्स होदि उवजुत्तं । णाणा णाणाणि पुणो लडिसहावेण दुच्चैति । । 26० । । अर्थ पाँचों इन्द्रियइघनों में से, एक काल में एक ही ज्ञान का उपयोग होता है; जब मनोज्ञान 7 अनिन्द्रियहघन का उपयोग होता है, तब कोई भी इन्द्रियहण्न नहीं जानता अर्थात् उपयुक्त नहीं होता, क्योंकि एक काल में जीव के एक ही ज्ञान का उपयो ग हो ता है. तथापि लब्धि 7 सामर्थ्य 7 शक्ति 7 योग्यता-रूप-से एक काल में जीव के अनेक ज्ञान कहें हैं । एक इन्द्रिय-विषय को अपने उपयोग में लेते हुए, शेष इन्द्रियों-सम्बन्धी क्षयोपशम चूँकि उसी समय लब्धिरूप से विद्यमान रहता है, इसीलिये तो अगले ही क्षण हम किसी अन्य इन्द्रिय या अनिन्द्रिय 7 मन के विषय को अपने उपयोग में ले सकते हैं । यह सभी के अनुभव की बात है कि इस प्रकार से उपयोग-परिवर्तन हम प्रतिक्षण करते रहते हैं; और यह भी कि यह परिवर्तन प्रधानत: हमारी रुचि एवं हमारी चेष्टा की अपेक्षा रखता है । इस प्रकार, इस आगमानुसारी प्रतिपादन से स्पष्ट है कि जीव के ज्ञान की वर्तमान समस्त शक्तियां. चाहे वे उपयोगात्मक रूप से व्यक्त हो रही हों या फिर न्स्पुँर्चा ट्रँ डते हैं ० अर्थात् देशेष ही एच्चाय 1 टोका के स्थलों पर यता तभी तो किसी भी -सन्वन्धी के और १ प्रकट ह?एति?ा है; दयज्ञान के एक -था 7 हें हैं । लम्बन्धी अगले उपयोग दार से रिवर्तन र, इस समस्त फिर अनेकान्त 61,1 नग- 75 लब्धिरूप से विद्यमान हो ?r दोनों ही रूपों में वे जीव की वर्तमान योग्यताएं हैं. अर्थात् पर्याययोग्यताएं । . कषायात्मक परिणामों सम्बन्धी अनेकानेक योग्यताएं हमारे विकारी 7 वैभाविक 7 कषायात्मक 7 विकल्पात्मक परिणमन के बारे में भी वस्तुस्थिति यह है कि अपने रुचि 7 रुझान 7 स्वभाव एवं चुनाव के अनुसार, भिन्न-भित्र परपदार्थों अथवा परिस्थितियों का अवलम्बन लेकर हम हर्ष-विषादरूप अथवा राग-द्वेषरूप से परिणमित होते रहते हैं । यदि हम रभूलरूप से हिसाब लगाना चाहें तो : पाँच इन्द्रियों और मन के विषयभूत हजारों-लाखों चेतन-अचेतन पदार्थ; क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री-पुरुष-नपुंसकवेद उक्त कषायों 7 नोकषायों के अनुभवन की तरतमता (अर्थात् मंद-मंदतर-मंदतमता; तीव्र-तीव्रतर-तीव्रतमता) हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह मन, वचन, काय कत कारित अनमोदना इत्यादि को परस्पर में गुणा करके करोड़ों , अरबों भंग बनेंगे इस जीव के परिणामों के । (और, जब इसी विषय को केवलइघनगम्य सूक्ष्मता से जाना जाता है तो आश्चर्य नहीं कि असंख्यातासंख्यात भंग बनते हों ।) यदि ईमानदारी से विचार करेंगे तो पाएंगे कि हम सभी इनमें से अधिकांश विकल्प 7 परिणाम करने में समर्थ हैं । ही, चुनाव हमारा अपना है; हम सावधान रहकर परपदार्थों से यथाशक्ति उदासीनवृत्ति अपनाकर अपने परिणामों की संभाल भी कर सकते हैं । अथवा, यदि हम तथोचित भूमिका में हैं तो आत्मस्वरूप में लगकर परपदार्थ-सश्वरथी विकल्पों का निरसन भी कर सकते हैं । इस प्रकार, प्रस्तुत एवं पिछले दो अनुच्छेदों में किये गए विश्लेषण से सुस्पष्ट है कि ऐसा वस्तुतत्व कदापि नहीं हे कि एक समय में एक ही प्रकार के परिणमन की योग्यता हो. और फिर वही परिणमन होता हो । प्रत्युत. एक समय में अनेकानेक पर्याययोग्यताएं होते हुए भी जीव के रुझान 7 स्वभाव और प्रयत्न 7 पुरुषार्थ की प्रधानता की सापेक्षतापूर्वक एक ही परिणमन होता है : चाहे वह परिणमन (बहुल अंशों में) ज्ञानात्मक हो अथवा कषायात्मक । अतएव जीव के परिणमन ?-ए?’???’? 76 ५०, अनेकान्त 61,1 -५-५-४ का मु ख्य नियामक पुरुषार्थ ठहरता है. न कि ‘एक-अके ली’ पर्याययोग्यता । १. ‘एक काल में केवल एक पर्याययोग्यता’ की मान्यता – अन्य भी अनेक महत्वपूर्ण आगमप्रमाणों के सरासर विरुद्ध ‘ ‘किसी जीव में विवक्षित क्षण में एक ही पर्याययोग्यता होती है जो महानुभाव इस प्रकार मानते हैं, उनकी ऐसी मान्यता, उपर्युक्त प्रमाणों के अलावा, अन्य भी बहुत से आगमप्रमाणों से सम्पूर्णतया खण्डित होती है । उनमें से कुछ यहाँ प्रस्तुत किये जाते हैं : 1. अर्हन्त और सिद्धात्माओं के केवलज्ञान गुण की वर्तमान पर्याय क्या है, तनिक इस पर विचार करें । वे केवलज्ञानी आत्मा एक लोक एवं अलोकाकाश को जान रहे हैं, क्योंकि उससे ज्यादा होय उपलब्ध नहीं है । तब क्या उनकी वर्तमान पर्याययोग्यता एक ही लोक-अलोक को जानने की है’ ‘एक काल में केवल एक पर्याययोग्यता’ की कल्पना के समर्थक हमारे बस्तुओं को इस प्रश्न का उत्तर ‘ह्मँ’ में त्त्वे पड़ेगा; परन्तु ग्लइनागम का उत्तर नकारात्मक है, क्योंकि राजवार्तिक में भट्ट अकलंकदेव कहते हैं यावाल्लोकालोकस्वभावोऽनन्त: तावन्तोदुनन्तानन्ता यद्यपि क्यू:. तानपि इप्ततुमस्व सामर्थ्यमास्तीत्य- परिमितमाहात्म्य तत् केवलज्ञानने वेदितव्यम् अर्थात् जितना यह लोकालोक स्वभाव से ही अनन्त है, उतने यदि अनन्तानन्त भी लोकालोक हों तो उन्हें भी जानने की सामर्थ्य अथवा योग्यता केवलज्ञान में है, ऐसा केवलज्ञान का अपरिमित महाल जानना चाहिये ।म्र संख्याप्रमाण के इक्कीस भेदों में” जिससे सर्वोत्कृष्ट संख्या का अस्तित्व बतलाया गया है, वह है केवलइघनगुण के अविभाग-प्रतिच्छेद ८४७०८४, जो कि ‘उत्कृष्ट अनन्तानन्त’ हैं । केवलज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों से अधिक प्रमाण वाला न कोई द्रव्य है, न कोई क्षेत्र है, न कोई काल है, और न ही कोई भाव ।” आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने त्रिलोकसार में सात गाथाओं छह-?:) द्वारा द्विरूपवर्गधारा का निरूपण किया है, उनके भावार्थ को भली-भाँति हृदयंगम करने पर समझ में आता है कि लोकालोक के समस्त ज्ञेय केवलज्ञान की ज्ञायकशक्ति के अनन्तवें भाग के भी अनन्तवें भागमात्र हैं । परमात्म-प्रकाश आदि अन्यों में भी केवलज्ञान के लिये लता और ज्ञेयों के लिये मण्डप का दृष्टान्त दिया है । लता या बेल जितना मण्डप है उतनी ही फैलती है, किन्तु यदि मण्डप बड़ा होता तो बेल अधिक भी फैल सकती थी ।” इस प्रकार, निस्सन्देहत: स्पष्ट है कि एक् लोकालोक, संख्यात…, असंख्यात…, अनन्त ५– की प्रश्नने -पद: अत: ०९ क्या १७.- भी, पँ: – में आचह्य ??? जदि ०० पाना–नें असंख्य.? दोष नहइ । –पँ 61,1 -३-३-१ 77 अनन्तानन्त लोकालोकों को प्रतिसमय जानने की सामर्थ्य 7 शक्ति 7 योग्यताएं ?५साथ केवलज्ञान में है; किन्तु केवल एक लोकालोक को जानने की डोग्यता शक्ति ही व्यक्त हो पाती है, मात्र उतने ही ज्ञेयों का अस्तित्व पाए जाने के कारण । प्रवचनसार गाथा 23 का एक अंश है : णाणं णेयप्पमाणमुहिट्ठे अर्थात् ज्ञान को ज्ञेयप्रमाण कहा गया है । ज्ञातव्य है कि आचार्य कुन्दकुन्द का यह कथन केवलज्ञान की अनुन्तानन्त शक्ति 7 सामर्थ्य 7 योग्यता की व्यक्ति को दृष्टि में रखकर ही किया गया प्रतीत होता है ।” अर्थ आचार्यों के उपर्युक्त कथनों के विपरीत, आधुनिक नियतिवाद के प्रचारक के निम्न वचन पर दृष्टिपात कीजिये : ‘ ‘एक समय में दो योग्यताएं कदापि नहीं होतीं; क्योंकि जिस समय जैसी योग्यता है वैसी पर्याय प्रकट होती है । और, उस समय यदि दूसरी योग्यता भी हो तो एक ही साथ दो पर्यायें हो जाएं; परन्तु ऐसा कभी नहीं हो सकता । जिस समय जो पर्याय प्रकट होती है उस समय दूसरी पर्याय की योग्यता नहीं होती । ” 59 सुधी पाठक अब स्वयं निर्णय करें कि एक ओर तो आर्ष आचार्यों के प्रामाणिक वचन, और, दूसरी ओर, किसी वक्ता का यह स्वकल्पित, आगम-विरुद्ध कथन; इनके बीच वे किसे मान्य समझेंगे? और, यह भी कि जो लोग भट्ट अकलंकदेव के उपर्युक्त कथन को सत्य नहीं मानते, क्या वे अनन्तानन्त लोकालोकों को भी प्रतिसमय जानने में समर्थ केवलज्ञान के ‘ ‘सच्चे श्रद्धानी’ ‘ कहलाने के अधिकारी हैं? 2. गणधरदेवादिक चरमशरीरी तपोधन निर्ग्रन्थों के होने वाले उत्कृष्ट परनावधिइघन एवं सर्वावधिइघन का विषयभूत उत्कृष्ट क्षेत्र आगम में असंख्यात लोकप्रमाण बतलाया गया है ।” ‘रूपिम्बवधे: ‘ तथ्य ऋ, 1727) के अनुसार, अवधिज्ञान की प्रवृत्ति रूपी पदार्थों में ही होती है, और रूपी पदार्थ (अर्थात् पुद्गल एवं कर्मपुद्गलों से बद्ध संसारी जीवात्माएं) चूँकि लोक से बाहर नहीं पाए जाते; अत: परमावधि-सर्वावधिज्ञान केवल लोकाकाश के भीतर ही जानता है । तब क्या उसकी वर्तमान पर्याययोग्यता लोकाकाश के भीतर ही जानने की है? यहाँ भी, जिनागम का उत्तर नकारात्मक है, क्योंकि षट्खण्डागम की धवला टीका में आचार्य वीरसेन लिखते हैं : एसो एक्को चेव लोगो. परमोहि-सब्बोहीओ असंखेच्चलोगे जाणति त्ति घडदे? ण एस दोसो. सब्दो पोग्गलरासी जदि असंखेच्चलोगे आबूरिऊण अवचिट्ठदि तो वि जाणति त्ति तेसिं सत्तिप्पदसणादो ।” शंका : यह एक ही लोक है, परमावधि और सर्वावधिइमनी असंख्यात लोकों को जानते हैं, यह कैसे घटित होता है? समाधान : यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यदि सब पुद्गलराशि असंख्यात लोकों को भरकर स्थित ‘एक समय मैं केवल एक पर्याययोग्यता’ की कथित अवधारणा में जीव के पुरुषार्थ को कोई स्थान नहीं! किसी विवक्षित कार्य के सन्दर्भ में दो प्रकार के पदार्थ होते हैं, उपादान और निमित्त; इतना तो सर्वमान्य है । यदि उपादान और निमित्त, दोनों में अपनी-अपनी अनेक प्रकार की पर्याययोग्यताएं हों, तभी विवक्षित कार्य में पुरुषार्थ की भूमिका बनती है, अन्यथा नहीं; चूँकि किसी समय उपादानपदार्थ अपनी किसी एक पर्याययोग्यता को प्रकट करने के लिये विवक्षित निमित्तपदार्थ की अनेक पर्याययोग्यताओं में से एक, निजपाइ२णमन-अनुकूल योग्यता का अवलम्बन लेकर परिणमन करे, यही तो उपादान का पुरुषार्थ है । इसके विपरीत, यदि उपादानपदार्थ में एक्? समय में मात्र एक ही पर्याययोग्यता हो और निमित्तपदार्थ में भी उस समय में मात्र एक ही प्रकार की, उपादान-अनुकूल पर्याययोग्यता हो, तब फिर पुरुषार्थ को किसी भी प्रकार का अवकाश ही कहाँ रहा? (इसी बात की युक्तता बैठाने के लिये, ‘ ‘जीवरूपी उपादानपदार्थ विवक्षित निमित्त का अवलम्बन लेता है’ ‘ ऐसा आगमानुसारी कथन न करके, ”वहाँ निमित्त की मात्र उपस्थिति रहती है’ ‘ ऐसा स्वकल्पित कथन करने के लिये हमारे नियतिवादी वस्तुओं को मजबूर होना पड़ा है ।) ऐसी पुरुषार्थ-निरपेक्ष कार्य-व्यवस्था कोरा नियतिवाद नहीं तो और क्या है? 14. ‘ ‘कर्तृत्व-बुद्धि के अभाव हेतु नियति को मानना जरूरी’ ‘- नियतिवादियों के इस कथित औचित्य का विश्लेषण नियतिवादियों का यह अनोखा ‘सिद्धान्त है कि जो भी घटित होता है, सब कुछ पहले से नियत होता है. ‘ ‘जिस जीवपदार्थ की जो पर्याय, जिस समय, जैसे होनी है, वैसी ही होती है; वैसा ही निमित्त वही उपस्थित रहता है; और इतना ही नहीं! वैसा ही जीव का पुरुषार्थ भी होता है!!” अपने इस तथाकथित सिद्धान्त के पक्ष में, आधुनिक नियतिवादी यह औचित्य ० ०5ा1ं[1ंप्प्ता1ं०ा1) पेश करते हैं कि उनके इस ‘सिद्धान्त’ पर श्रद्धा करके ही जीव कर्तापने के अहंकार का अभाव कर सकता है । इसी तरह की दैव 7 भाग्यवादियों की ऐकालिक मान्यता है : ‘सुख-दुःख, पाप-पुण्य, स्वर्ग–नरक सब कुछ दैव के अधीन है; पुरुषार्थ निरर्थक है, उससे क्या सिद्धि? पुरुषार्थ को धिकार हो; भाग्य ही सर्वोत्कृष्ट है । ‘1 जो कुछ भी हो रहा है, सब भाग्य के करने से ही हो रहा है; मेरे करने का कुछ भी नहीं है ।’ ‘ दैववादी, इस प्रकार, अपने जीवन की बागडोर भाग्य के भरोसे सौंपकर ‘ प्ययं -इ?- – ?ँ- 80 7 अनेकान्त 61,1 -234 १3. ‘एक समय मैं केवल एक पर्याययोग्यता’ की कथित अवधारणा में जीव के पुरुषार्थ को कोई स्थान नहीं! किसी विवक्षित कार्य के सन्दर्भ में दो प्रकार के पदार्थ होते हैं, उपादान और निमित्त; इतना तो सर्वमान्य है । यदि उपादान और निमित्त, दोनों में अपनी-अपनी अनेक प्रकार की पर्याययोग्यताएं हों, तभी विवक्षित कार्य में पुरुषार्थ की भूमिका बनती है, अन्यथा नहीं; चूँकि किसी समय उपादानपदार्थ अपनी किसी एक पर्याययोग्यता को प्रकट करने के लिये विवक्षित निमित्तपदार्थ की अनेक पर्याययोग्यताओं में से एक, निजपाइ२णमन-अनुकूल योग्यता का अवलम्बन लेकर परिणमन करे, यही तो उपादान का पुरुषार्थ है । इसके विपरीत, यदि उपादानपदार्थ में एक्? समय में मात्र एक ही पर्याययोग्यता हो और निमित्तपदार्थ में भी उस समय में मात्र एक ही प्रकार की, उपादान-अनुकूल पर्याययोग्यता हो, तब फिर पुरुषार्थ को किसी भी प्रकार का अवकाश ही कहाँ रहा? (इसी बात की युक्तता बैठाने के लिये, ‘ ‘जीवरूपी उपादानपदार्थ विवक्षित निमित्त का अवलम्बन लेता है’ ‘ ऐसा आगमानुसारी कथन न करके, ”वहाँ निमित्त की मात्र उपस्थिति रहती है’ ‘ ऐसा स्वकल्पित कथन करने के लिये हमारे नियतिवादी वस्तुओं को मजबूर होना पड़ा है ।) ऐसी पुरुषार्थ-निरपेक्ष कार्य-व्यवस्था कोरा नियतिवाद नहीं तो और क्या है? 14. ‘ ‘कर्तृत्व-बुद्धि के अभाव हेतु नियति को मानना जरूरी’ ‘- नियतिवादियों के इस कथित औचित्य का विश्लेषण नियतिवादियों का यह अनोखा ‘सिद्धान्त है कि जो भी घटित होता है, सब कुछ पहले से नियत होता है. ‘ ‘जिस जीवपदार्थ की जो पर्याय, जिस समय, जैसे होनी है, वैसी ही होती है; वैसा ही निमित्त वही उपस्थित रहता है; और इतना ही नहीं! वैसा ही जीव का पुरुषार्थ भी होता है!!” अपने इस तथाकथित सिद्धान्त के पक्ष में, आधुनिक नियतिवादी यह औचित्य ० ०5ा1ं[1ंप्प्ता1ं०ा1) पेश करते हैं कि उनके इस ‘सिद्धान्त’ पर श्रद्धा करके ही जीव कर्तापने के अहंकार का अभाव कर सकता है । इसी तरह की दैव 7 भाग्यवादियों की ऐकालिक मान्यता है : ‘सुख-दुःख, पाप-पुण्य, स्वर्ग–नरक सब कुछ दैव के अधीन है; पुरुषार्थ निरर्थक है, उससे क्या सिद्धि? पुरुषार्थ को धिकार हो; भाग्य ही सर्वोत्कृष्ट है । ‘1 जो कुछ भी हो रहा है, सब भाग्य के करने से ही हो रहा है; मेरे करने का कुछ भी नहीं है ।’ ‘ दैववादी, इस प्रकार, अपने जीवन की बागडोर भाग्य के भरोसे सौंपकर ‘ प्ययं ? करने-धरने के विकल्पों से’ ‘ – भले ही, अपनी भ्रमात्मक धारणा में ही सही ‘ ‘निश्चिन्त हो जाता है । ” ऐसा ही एक ‘सिद्धान्त’ ईश्वर-कर्तृत्व का है : ‘ ‘जो कुछ भी होता है वह सब ईश्वर की मर्जी से ही होता है; जीवात्मा तो अज्ञानी है, असमर्थ है, कुछ भी करने में समर्थ नहीं है; सुख-दुःख. स्वर्ग या नरक में जाना सब ईश्वर के अधीन है; ‘2 ईश्वर ही इस सृष्टि का रचयिता 7 कर्ता 7 विधाता 7 नियन्ता, सब कुछ है; मैं कुछ भी करने वाला नहीं हूँ । ” ईश्वरवादी इस प्रकार ‘ ‘उसकी इच्छा के आगे स्वयं को समर्पित कर देता है’ और समझता है कि ‘ ‘मैं तो अब अकर्ता हो गया हूँ । ‘ उक्त तीनों ही तरह की मान्यताओं के अर्न्तगत. जीव के चित्त में होने वाले विकार भी चूँकि ‘ईश्वरेच्छा. ‘भाग्य’ अथवा ‘नियति’ के अधीन ही घटित होंगे : अत: उनसे मुक्त होना भी ईश्वर. भाग्य अथवा नियति के ही अधीन होगा । फलत:. जीव की आध्यात्मिक उन्नति के सन्दर्भ में. उसकी कथंचित् स्वाधीनता का भी प्रश्न नहीं उठता 1 वास्तव में, उपर्युक्त तीनों ही मान्यताएं यथार्थ नहीं हैं, असत्य हैं । उपादान रूप से तो कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ का कर्ता 7 नियन्ता हो ही नहीं सकता, चाहे वह ‘ईश्वर’ ही क्यों न हो, क्योंकि ऐसा होना तो अर्न्तविरोधी (5०1′- p०ा1ाामह1ं०ा०ा?) होगा; तथा निमित्त कदापि कर्ता होता नहीं । और, यह कैसा सिद्धान्त कि स्वयं को कर्तापने के भाव से मुक्त करने के हेतु भगवान् में पर-कर्तृत्व की कल्पना का आरोपण किया जाए? ऐसी कोरी काल्पनिक मान्यता के भरोसे, क्या आध्यात्मिक सत्य की प्राप्ति हो सकेगी? ‘दैक और ‘नियति’ की उपर्युक्त मान्यताओं पर विचार करने पर उनमें भी अनेक दोष स्पष्टतया दृष्टिगोचर होते हैं । दैव या भाग्य माने पूर्वकर्म, सो वह – जड है; वह जड़कर्म चेतनाशक्ति से युक्त जीवात्मा की अवस्थाओं का कर्ता _ – सकता? व न.’ ०? ७२२ =ईं. .५, ‘० नं० नियतिवादी ‘नियति नामक एक पृथक् स्वतन्त्र ‘तत्व मानते – ‘ जब जो कुछ होता है वह सब ही नियत रूप से होता हु -प्र है. अन्यथा नहीं । ” 73 परन्तु. सर्वज्ञभाषित षड्द्रव्य —-च को मानने वाले हम जैनों के लिये चूँकि जीव के -.० – फ्तुन्स्य की वैभाविक परिणतिरूप द्रव्यकर्मों के बीच ० ?? भे 82 अनेकान्त 61,1 -८५-५-४ निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध का अत्यन्त वैज्ञानिक एवं विस्तृत-विवेचनायुक्त कर्मसिद्धान्त मौजूद है, अत: हमें एक नूतन नियतितत्त्व को मानने की मजबूरी भला क्यों होने लगी? ही, अब अपने को सर्वज्ञ का अनुयायी कहने वाले आधुनिक नियतिवादी, सर्वज्ञ भगवान् द्वारा प्रतिपादित वस्तुतत्व को कैसे घुमा-फिरा कर पेश करके, उसी नियति का समर्थन करने के प्रयास में लगे हैं, यह देखकर दुःखद आश्चर्य ही हो सकता है!! यदि कोई कहता है कि हम तो अपनी पर्यायों के नियतपने को केवल इसलिये मानते हैं कि इससे हमारी मान्यता में से पर्याय का कर्तापना मिट . जाएगा; तो इसका उत्तर यह है कि निज विकारी पर्याय में कर्ताबुद्धि तो आत्मस्वभाव में सम्बक्रूप से लगने पर अपने आप मिट जाती है, क्योंकि वहाँ ‘दो’ के लिये अवकाश ही नहीं है । जब यह आत्मा सही अर्थो में निर्विकल्पक-ज्ञाता रहता है तो कर्ता रह ही नहीं सकता, क्योंकि ‘ ‘विकल्पक: परं कर्ता. ‘ ऐसा आचार्यो का वचन है समयसार आत्मख्याति ‘ टीका, कलश 95) । इसके विपरीत, आत्मस्वभाव में स्व-परभेदविइघनपूर्वक सम्बक्रूप से लगे बिना. यदि पर्याय का कर्तापना मिटाने की मिथ्या चेष्टा की ” जाती है तो उससे अकर्तापने का कृत्रिम मानसिक विकल्प ही बनेगा; जिसके परिणामस्वरूप स्वच्छन्द-प्रवृत्तिरूप आचरण होगा न् – जो कि स्पष्ट ही अहितकर होगा । १5. इच्छा-स्वातस्थ्य. अथवा पुरुषार्थ के अनियतत्व के सद्भाव -. में ही आगमोपदिष्ट संयम की सम्भावना है. अन्यथा नहीं अनादिकाल से ही इस जीव ने आहार, भय, मैथुन और परिग्रह – इन चार संज्ञाओं या अभिलाषाओं-वांछाओं के सरकार संचित किये हुए हैं । 74 रच-पर भेद-विइघनपूर्वक इन संस्कारों में स्वभावबुद्धि को छोड़ते हुए, जब यह जीव बहिरंग में इन वांछाओं के विषयभूत परपदार्थों का प्रतिज्ञापूर्वक त्याग करता है. और अन्तरंग में तत्सम्बन्धी विकल्पों का निरसन करता है, तभी संयम घटित होता है, अन्यथा नहीं । ‘संयम’ के इस आगमानुसारी निरूपण में जो एक अनिवार्य घटक १८४४ निहित है, वह है ‘इच्छा-स्पातफ्ल’ १८९०. ०’ १। । आहारादिक के विषय में जहाँ-जहाँ इच्छा-स्पातज्ब नहीं है, वहाँ-वहाँ संयम भी नहीं हो सकता – यह तथ्य सर्वमान्य है तथा आगम और युक्ति, दोनों से अबाधित है । यही कारण है कि सम्यग्दृष्टि, शुक्ललेश्यायुक्त,.? प्रवीचार-रहित, तत्त्वचर्चादिक में लीन सर्वार्थसिद्धि आदि अनुत्तर-अनुदिशवासी 8 अनेकान्त 6171-2-3-4 १6. आचार्यो के उपदेश की सार्थकता और नियतिवादियों की मान्यताओं में विरोध ‘ ‘उपादान-पदार्थ को एक नियत, निश्चित पर्याययोग्यता के अनुरूप परिणमन करना है और उसी के अनुकूल पर्याययोग्यता वाला निमित्तपदार्थ वहाँ स्वयमेव उपस्थित रहता है’ ‘ – यदि ऐसा माना जाता है तो परमागम में भगवान् आचार्यों द्वारा दिया गया उपदेश निरर्थक हो जाएगा कि ‘ ‘हे जीव! तू ‘पर’ से उपयोग को हटाकर निजात्मतत्त्व के सम्मुख कर; मिथ्यात्व और अविरतिरूप परिणामों का त्याग करके तू सम्यक, एवं तदनन्तर, द्रव्यसंयमपूर्वक भावसंयम को ग्रहण कर ।’ आचार्यों के कराणापूर्वक दिये गए ऐसे परमहितकारी सम्बोधनों को यदि ”मात्र उपदेश देने की शैली’ ‘ कहकर उनकी अवहेलना 7 अवज्ञा की जाती है; और ‘ ‘जीववस्तु का परिणमन तो नियति के अधीन है’ ऐसा ही माना जाता है, क्योंकि उक्त मान्यतानुसार ‘ ‘एक समयसम्बन्धी मात्र एक पर्याययोग्यता निश्चित है;’ ‘ तो जीवरूपी उपादान के अपने चुनाव का प्रश्न ही नहीं उठता । तब फिर, जैसा कि अनुच्छेद 3 में टिप्पणी कर आए हैं, उस जीव-पदार्थ का स्वभाव भी निश्चित ठहरा, निमित्त भी निश्चित ठहरा, पुरुषार्थ भी निश्चित ठहरा, कार्य 7 भवितव्य भी निश्चित ठहरा और काल भी निश्चित ठहरा । वस्तुस्थिति को यदि ऐसे ही समझा-समझाया जाता है; पंचसमवाय को कार्यव्यवस्था में यदि इसी प्रकार घटाया जाता है. तो इससे पृथक ‘एकान्त नियतिवाद’ फिर क्या है? इसमें पुरुषार्थ अथवा सम्यक् अनियति की सापेक्षता कहाँ घटित होती है? यदि यह कहा जाता है कि ‘ ‘पुराषार्थपूर्वक नियति को मानना सही है, जबकि पुरुषार्थ-रहित नियति को मानना एकान्तवाद है । ” तो इसका उत्तर इस प्रकार होगा : ‘ ‘जब आपने ‘एक-अकेली पर्याययोग्यता’ को ही परिणमनरूपी कार्य का नियामक मान लिया, तब आपकी मान्यता में तो पुरुषार्थ भी नियत हो गया; आपने तो ‘पुरुषार्थ’ और ‘नियति’ का अन्तर ही मिटा दिया । इन दो भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग अपनी कथनी में आप भले ही करें, परन्तु इन शब्दों से जुड़ी दो मित्र-भिन्न अवधारणाओं (p०ा1०टश8) को तो आपने अपने निरूपण द्वारा एक ही कर डाला; यही तो एकान्तवाद है!” आधुनिक नियतिवादियों द्वारा किये गए कुछ-एक प्रकाशनों का परीक्षण करने पर, हम पाते हैं कि स्व-कल्पित नियतिवाद को सही ठहराने के अपने निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध का अत्यन्त वैज्ञानिक एवं विस्तृत-विवेचनायुक्त कर्मसिद्धान्त मौजूद है, अत: हमें एक नूतन नियतितत्त्व को मानने की मजबूरी भला क्यों होने लगी? ही, अब अपने को सर्वज्ञ का अनुयायी कहने वाले आधुनिक नियतिवादी, सर्वज्ञ भगवान् द्वारा प्रतिपादित वस्तुतत्व को कैसे घुमा-फिरा कर पेश करके, उसी नियति का समर्थन करने के प्रयास में लगे हैं, यह देखकर दुःखद आश्चर्य ही हो सकता है!! यदि कोई कहता है कि हम तो अपनी पर्यायों के नियतपने को केवल इसलिये मानते हैं कि इससे हमारी मान्यता में से पर्याय का कर्तापना मिट . जाएगा; तो इसका उत्तर यह है कि निज विकारी पर्याय में कर्ताबुद्धि तो आत्मस्वभाव में सम्बक्रूप से लगने पर अपने आप मिट जाती है, क्योंकि वहाँ ‘दो’ के लिये अवकाश ही नहीं है । जब यह आत्मा सही अर्थो में निर्विकल्पक-ज्ञाता रहता है तो कर्ता रह ही नहीं सकता, क्योंकि ‘ ‘विकल्पक: परं कर्ता. ‘ ऐसा आचार्यो का वचन है समयसार आत्मख्याति ‘ टीका, कलश 95) । इसके विपरीत, आत्मस्वभाव में स्व-परभेदविइघनपूर्वक सम्बक्रूप से लगे बिना. यदि पर्याय का कर्तापना मिटाने की मिथ्या चेष्टा की ” जाती है तो उससे अकर्तापने का कृत्रिम मानसिक विकल्प ही बनेगा; जिसके परिणामस्वरूप स्वच्छन्द-प्रवृत्तिरूप आचरण होगा न् – जो कि स्पष्ट ही अहितकर होगा । १5. इच्छा-स्वातस्थ्य. अथवा पुरुषार्थ के अनियतत्व के सद्भाव -. में ही आगमोपदिष्ट संयम की सम्भावना है. अन्यथा नहीं अनादिकाल से ही इस जीव ने आहार, भय, मैथुन और परिग्रह – इन चार संज्ञाओं या अभिलाषाओं-वांछाओं के सरकार संचित किये हुए हैं । 74 रच-पर भेद-विइघनपूर्वक इन संस्कारों में स्वभावबुद्धि को छोड़ते हुए, जब यह जीव बहिरंग में इन वांछाओं के विषयभूत परपदार्थों का प्रतिज्ञापूर्वक त्याग करता है. और अन्तरंग में तत्सम्बन्धी विकल्पों का निरसन करता है, तभी संयम घटित होता है, अन्यथा नहीं । ‘संयम’ के इस आगमानुसारी निरूपण में जो एक अनिवार्य घटक १८४४ निहित है, वह है ‘इच्छा-स्पातफ्ल’ १८९०. ०’ १। । आहारादिक के विषय में जहाँ-जहाँ इच्छा-स्पातज्ब नहीं है, वहाँ-वहाँ संयम भी नहीं हो सकता – यह तथ्य सर्वमान्य है तथा आगम और युक्ति, दोनों से अबाधित है । यही कारण है कि सम्यग्दृष्टि, शुक्ललेश्यायुक्त,.? प्रवीचार-रहित, तत्त्वचर्चादिक में लीन सर्वार्थसिद्धि आदि अनुत्तर-अनुदिशवासी प्रयास में, वे अनेक स्थलों पर आर्ष आचार्यो के कथनों को बदलकर ऐसा रूप दे रहे हैं कि वे अपनी मान्यताओं को ठीक साबित कर सकें । उदाहरण के तौर पर, उन्हें : (क) प्रत्येक पदार्थ में, चाहे वह जड़ पदार्थ हो या चेतन, पर्यायों की ‘क्रमबद्धता’ की एक नवीन कल्पना करनी पड़ी है, जबकि जिनागम में ‘क्रमबद्धता’ का कोई प्रतिपादन ही नहीं है । (देखिये, इसी अंक में प्रकाशित : ‘आत्मख्याति टीका में प्रयुक्त क्रमनियमित विशेषण का अभिप्रेतार्थ’ शीर्षक से लेख) । ७ ‘ ‘विवक्षित कार्य में अनुकूल पदार्थ (या निमित्त) साधन होता है, ” इस आगम-सम्मत सत्य का, अर्थात् निमित्तपदार्थ के साधनत्व का, निषेध करना पड़ा है । ७ ‘ ‘जीव को अपने विवक्षित कार्य के लिये रनमुचित, अनुकूल निमित्तों को बुद्धिपूर्वक खोजना चाहिये (तथा तत्पतिकूल निमित्तों से बुद्धिपूर्वक बचना चाहिये),” आगम-सम्मत इस बातें का भी निषेध करना पड़ा है । ८ ‘ ‘निश्चय-चारित्र का साधनभूत, चरणानुयोग का विषयभूत जो व्यवहार-चारित्र है, उसे साधक को स्व-बुद्धि-विवेकपूर्वक धारण करना चाहिये,’ ‘ इस आगम-सम्मत कथन की जगह ‘ ‘क्रमबद्ध पर्यायों की धारा में जब वैसी पर्याय आती है, तब वह व्यवहार-चारित्र रचत: होता है’ ‘ – पुरुषार्थ का तिरस्कार करने वाले, ऐसे कथनों का प्रयोग करने से भी वे नहीं चूकते । (ड:) आर्ष आचार्यों द्वारा दी गई सीधी-स्पष्ट एवं प्रामाणिक पुरुषार्थ की परिभाषा के स्थान पर, वीर्यान्तराय के क्षयोपशम को ‘पुरुषार्थ’ कहना शुरा कर दिया गया है । इस तरह किये जा रहे निरूपण के क्या परिणाम होंगे? लोग चाहकर अशुभ प्रवृत्ति करेंगे और मानेंगे कि ”मेरी तो ऐसी ही पर्याययोग्यता थी; अथवा कमबद्ध पर्यायों की शृंखला में मेरी तो ऐसी ही पर्याय होनी थी; सो वैसा ही हो रहा है, मैं तो इसका कर्ता हूँ नहीं; क्योंकि मैं तो ज्ञान-दर्शन का कर्ता हूँ पर्याय को मात्र जानने वाला हूँ । ” इस प्रकार, द्रव्यार्थिकदृष्टि के साथ ही साथ, पर्यायार्थिक दृष्टि से भी रागादिक भावों के कर्तापने को मंजूर न करते हुए, द्रव्यार्थिक दृष्टि का एकान्त किया जाएगा । शरीर की क्रिया को चाहकर करते हुए भी उसे मात्र जड़ की क्रिया माना जाएगा । आत्मा के परिणामों और भोग-उपभोगादिक क्रियाओं के बीच निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध को ‘व्यवहार’ कहकर मिथ्या माना जाएगा । और, ऐसे लोग अपने को सम्यग्दृष्टि समझेंगे, स्वय को भावीस्डि मानेंगे । अनेकान्त 61,1-2-3-4 85 प्रयास में, वे अनेक स्थलों पर आर्ष आचार्यो के कथनों को बदलकर ऐसा रूप दे रहे हैं कि वे अपनी मान्यताओं को ठीक साबित कर सकें । उदाहरण के तौर पर, उन्हें : क) प्रत्येक पदार्थ में, चाहे वह जड़ पदार्थ हो या चेतन, पर्यायों की ‘क्रमबद्धता’ की एक नवीन कल्पना करनी पड़ी है, जबकि जिनागम में ‘क्रमबद्धता’ का कोई प्रतिपादन ही नहीं है । (देखिये, इसी अंक में प्रकाशित : आत्मख्याति टीका में प्रयुक्त क्रमनियमित विशेषण का अभिप्रेतार्थ’ शीर्षक से लेख) । ७ ‘ ‘विवक्षित कार्य में अनुकूल पदार्थ (या निमित्त) साधन होता है, ” इस आगम-सम्मत सत्य का, अर्थात् निमित्तपदार्थ के साधनत्व का, निषेध करना पड़ा है । ७ ‘ ‘जीव को अपने विवक्षित कार्य के लिये रनमुचित, अनुकूल निमित्तों को बुद्धिपूर्वक खोजना चाहिये (तथा तत्पतिकूल निमित्तों से बुद्धिपूर्वक बचना चाहिये) आगम-सम्मत इस बातें का भी निषेध करना पड़ा है । ८ ‘ ‘निश्चय-चारित्र का साधनभूत, चरणानुयोग का विषयभूत जो व्यवहार-चारित्र है, उसे साधक को स्व-बुद्धि-विवेकपूर्वक धारण करना चाहिये,’ ‘ इस आगम-सम्मत कथन की जगह ‘ ‘क्रमबद्ध पर्यायों की धारा में जब वैसी पर्याय आती है, तब वह व्यवहार-चारित्र रचत: होता है’ ‘ – पुरुषार्थ का तिरस्कार करने वाले, ऐसे कथनों का प्रयोग करने से भी वे नहीं चूकते । ड: आर्ष आचार्यों द्वारा दी गई सीधी-स्पष्ट एवं प्रामाणिक पुरुषार्थ की परिभाषा के स्थान पर, वीर्यान्तराय के क्षयोपशम को ‘पुरुषार्थ’ कहना शुरा कर दिया गया है । इस तरह किये जा रहे निरूपण के क्या परिणाम होंगे? लोग चाहकर अशुभ प्रवृत्ति करेंगे और मानेंगे कि ”मेरी तो ऐसी ही पर्याययोग्यता थी; अथवा कमबद्ध पर्यायों की शृंखला में मेरी तो ऐसी ही पर्याय होनी थी; सो वैसा ही हो रहा है, मैं तो इसका कर्ता हूँ नहीं; क्योंकि मैं तो ज्ञान-दर्शन का कर्ता हूँ पर्याय को मात्र जानने वाला हूँ । ” इस प्रकार, द्रव्यार्थिकदृष्टि के साथ ही साथ, पर्यायार्थिक दृष्टि से भी रागादिक भावों के कर्तापने को मंजूर न करते हुए, द्रव्यार्थिक दृष्टि का एकान्त किया जाएगा । शरीर की क्रिया को चाहकर करते हुए भी उसे मात्र जड़ की क्रिया माना जाएगा । आत्मा के परिणामों और भोग-उपभोगादिक क्रियाओं के बीच निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध को ‘व्यवहार’ कहकर मिथ्या माना जाएगा । और, ऐसे लोग अपने को सम्यग्दृष्टि समझेंगे, स्वय को भावीस्डि मानेंगे भविष्य में जिसके होने की आशंका है. ऐसी विडम्बनापूर्ण स्थिति को ध्यान में रखकर इस विषय पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है । दूरदर्शी. तत्त्वद्रष्टा आचार्य भविष्य की बात विचारकर ऐसा उपदेश देते थे जिससे कि आने वाले समय में भी कोई अनर्थकारी स्थिति न बनें । इसलिये सभी तत्त्वजिइघसुओं, निष्पक्ष विद्वानों, वीतरागी आचार्यों एवं समाज के हितेच्छुओं को भली-भाँति निर्णय करके उक्त मिथ्या मान्यता का निरसन करना चाहिये । अन्यथा सभी शास्त्रों का उपदेश निरर्थक हो जाएगा । सर्वविदित है कि आर्ष आचार्यो ने सर्वत्र पुरुषार्थप्रधान उपदेश दिया है. फिर आज नियतिप्रधान उपदेश की जरूरत क्यों पड गई? कभी सोचा है कि महान. वीतरागी. दूरदर्शी आचार्यो के सम्यक् उपदेशों की अवहेलना 7 अवज्ञा करने के क्या गम्भीर परिणाम होंगे? यदि नियतिवादियों का स्वघोषित (ऽ०1ाइ-5ा?1ट०?) निरूपण इसी प्रकार चलता रहा तो आने वाले समय में एकान्त नियतिवाद तो जिनागम होने का दावा करने लगेगा. जबकि आर्ष आचार्यो के जिनागमसम्मत कथन नजरअंदाज किये जाते-जाते अप्रासंगिक (1ंााट1टपमद्रा) करार दिये जाने लगेंगे! शायद अपने किसी प्रच्छन्न अजेण्डा (D1ंतहटए मडटण्तप्त) के तहत काम करने वाले; और आर्ष आचार्यो के सारगर्भित. कल्याणकारी ‘ सम्बोधनों को मात्र ‘उपदेश देने की शैली’ कहकर जिनवाणी की अवज्ञा करने वाले ये नियतिवादी क्या वास्तव में जिनशासन के ‘अनुयायी. हैं? सुधी पाठक स्वयं निर्णय करें । १7 ?ई ‘ होयपदार्थ की भूत एवं भविष्यत् पर्यायें निश्चय से उसके अस्तित्व में असद्भूत-र किन्तु वर्तमान प्रत्यक्षज्ञान में झलकीं. अत: उपचार से ‘इाएयपदार्थ में सद्भूत’ कहलाई अपने प्रतिपक्षी ज्ञानावरण कर्म के समूल क्षय से प्रकट होने वाले, निरावरण केवलज्ञान का माहाल्थ असीम-अपरिमित है; इसीलिये उस दिव्यज्ञान का विषय समरत द्रव्य और उनकी समरस पर्यायें हैं सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य तब सू०, 1729) । इतना ही नहीं, केवलज्ञान ‘असहाय’ अर्थात् सहायनिरपेक्ष है, वह किसी भी पदार्थ की सहायता की अपेक्षा नहीं रखता । जहाँ विनष्ट 7 अतीत और अनुत्पत्र 7 अनागत पर्यायों को जानने का सन्दर्भ है, केवलज्ञान वहाँ इ[ए अथवा अर्थ की भी अपेक्षा नहीं रखता; जैसा कि कसायपाहुड की जयधवला टीका में भी वीरसेनाचार्य ने स्पष्ट रूप से कहा है : अर्थसहायत्वात्र केवलमिति चेत्? न: विनष्टानुत्पन्नातीतानागतार्थेम्बपि तत्प्रवृत्युपलम्मात् । शंका : केवलज्ञान अर्थ की सहायता लेकर प्रवृत होता है, इसलिये उसे ‘केवल’ अथवा ‘असहाय’ नहीं कह सकते? समाधान नहीं, क्योंकि नष्ट हो चुके अतीत अर्थों 7 पर्यायों में, और उत्पन्न न हुए, अनागत अर्थों 7 पर्यायों में भी केवलज्ञान की प्रवृत्ति पाई जाती है, इसलिये यह अर्थ की सहायता से होता है ऐस नहीं कहा जा सकता ।” (केवलइाान द्वारा अतीत और अनागत पर्यायों का ग्रहण, वास्तव में, वर्तमान अर्थ 7 इाएय के ग्रहणपूर्वक ही होता है । तात्पर्य यह है कि वे अतीत-अनागत पर्यायें वर्तमान ज्ञेयपदार्थ में मात्र भूत शक्तियों एवं भविष्यत् शक्तियों के रूप में ही पाई जाती हैं ।” 1 ऐसा ही आशय कुन्दकुन्दाचार्य प्रवचनसार में व्यक्त करते हैं? जदि पच्चक्खमजाद पज्जायं पलयिद च णाणस्स । ण हवदि वा तै णाणं दिव्वै ति हि के परूवेंति । ।उस । । अर्थ यदि अजात 7 अनुत्पत्र तथा प्रलयित 7 विनष्ट पर्यायें केवलज्ञान के प्रत्यक्ष न हों तो उस ज्ञान को ‘दिव्यइण्न’ कहकर कौन प्ररूपित करेगा? इससे ठीक पहली गाथा में आचार्यश्री कहते हैं. जे णेव हि संजाया जे खलु पड़ा भवीय पज्जाया । ते होति असम्पूदा पज्जाया णाणपच्चक्खा । ३८ । । अर्थात् जो पर्यायें निश्चय से उत्पत्र नहीं हुई हैं, तथा जो पर्यायें उत्पत्र होकर निश्चय से नष्ट हो गई हैं, वे असन्भूत पर्यायें भी इघनप्रत्यक्ष होती हैं । इसी गाथा की तार्त्फ्यवृत्ति में जयसेनाचार्य कहते हैं : ये नैव संजाता नाद्यापि भवन्ति. भाविन इत्यर्थ: । हि स्फुट ये च खलु नष्टा विनष्टाः पर्याया: । कि’ कृत्वा? भूत्वा । ते पू वाँ क्त्ता मू ता भाविनश्च पर्या या अविद्यमानत्वादसद्भूता मण्यन्ते । ते चाविद्यमानत्वादलद्भूता अपि वर्तमानइाानविषयत्वाद् व्यवहारेण भूतार्था मण्यन्ते 1 अर्थ : जो पर्यायें अभी उत्पत्र नहीं हुई हैं, तथा जो पर्यायें उत्पत्र होकर निश्चय से विनष्ट हो गई हैं, वे पूर्वोक्त भूत और भावी पर्यायें विद्यमान न होने से अरनद्भूत कही जाती हैं । यद्यपि वे पर्यायें वर्तमानकाल में पदार्थ में अविद्यमान होने से निश्चय से असद्भूत हैं. तथापि वर्तमान ज्ञान का विषय होने से व्यवहार से अर्थात् उपचार से (होयपदार्थ में) भूतार्थ या सद्भूत कही जाती है ।” हम अनेकान्तवादियों के लिये यह विषय एकदम स्पष्ट है. किसी भी पदार्थ की अतीत एवं अनागत पर्यायें. (१) प्रत्यक्षज्ञान में वर्तमान में झलकने की अपेक्षा. जहाँ उस होयपदार्थ में उपचार से ‘सद्भूत’ कही जाती हैं. वहीं (2) उस होयपदार्थ के निज-अस्तित्व की अपेक्षा. वे निश्चय से अलद्भूत हैं । सुस्पष्ट है कि आचार्य जयसेन द्वारा प्रयुक्त ‘व्यवहार’ शब्द का अर्थ यही ‘उपचार’ ही किया जा सकता है, अन्य कुछ नहीं; क्योंकि जो पर्यायें निश्चय से किसी पदार्थ में अलद्भूत है, उन्हें मात्र उपचार से ही ‘ ‘उस पदार्थ में सद्भूत ‘ कहा जा सकता है, अन्यथा नहीं । ( ‘ ‘भूत-भविष्यत् पर्यायें ज्ञेयपदार्थ में विद्यमान कही जाती हैं.. यह कथन मान्य है क्योंकि यह केवलज्ञान का आश्रय लेकर किया गया है । तथापि जिनागम में निरूपित किये गए सिद्धान्त सार्वभौमिक और सार्वकालिक होने के साथ ही साथ; व्यक्तिपरक नहीं, प्रत्युत वस्तुपरक होने से, उन सिद्धान्तों के समस्त जीवों पर समान रूप से लागू होने के कारण; उक्त कथन की प्रकृति को, जो कि न्यायशास्त्र के बिल्कुल सरल नियम के अनुसार ‘उपचरित’ है – उसे तो उपचरित ही मानना पड़ेगा, अन्यथा मानेंगे तो मिथ्यात्व की पुष्टि का प्रसंग प्राप्त हो जाएगा । 1 ध्यान देने की बात है कि ऊपर के पैरा में पहला कथन तो ज्ञान की अपेक्षा से किया गया है, जबकि दूसरा कथन ज्ञान के विषय यानी ज्ञेयपदार्थ की स्व–अपेक्षा से किया गया है । पहला कथन इाानापेक्ष अथवा दर्शनशास्त्र की भाषा में) इमनमीमांसीय कथन (०T1ं8ाटाा1०1०ड1ं०kz1 धज्ञरट-टप्ता) है; और दूसरा इाएयपदार्थापेक्ष अथवा सत्तामीमांसीय कथन (०ा1ा०1० ह1ंप्प्त1 धक्ष्त्टघटण) है । इस प्रकार, हम देखते हैं कि अतीत-अनागत पर्यायों के विषयक्षेत्र में, ये दो प्रकार के नयावलम्बी कथन यद्यपि एक-दूसरे के प्रतिपक्षी हैं; तथापि जिनागम का मूल जो अनेकान्त सिद्धान्त है वह उनमें परस्पर सापेक्षता स्थापित करके दोनों का सम्यक् अन्वय या समन्वय कर देता है । यह विषय और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है जब हम पाते हैं कि जिनागम में अतीत पर्यायों का पदार्थ की सत्ता में प्रध्वंस-अभाव तथा अनागत पर्यायों का प्राग-अभाव बतलाया गया है ।’ उदाहरण के लिये, कपाल 7 ठीकरा पर्यायमय मृद्द्रव्य में घट पर्याय का, अथवा दही पर्यायमय गोरसद्रव्य में दूध पर्याय का प्रध्वंसाभाव है । तथा, दूसरी ओर, पृत्पिण्ड 7 रथास 7 कोश 7 कुशूल पर्यायमय मृद्द्रव्य में घटपर्याय का, अथवा दूध पर्यायमय गोरसद्रव्य में दही आदि पर्यायों का प्रागभाव है । यदि हम आगम-सम्मत इन उत्तग्नीमासीय कथनों को स्वीकार नहीं करते हैं तो सिद्धात्म-अक्स्थ) में पूर्व संसारी अवस्था सम्बन्धी किन्तु अब विनष्ट हो चुकी, विभावपर्यायों के अस्तित्व को मानने का प्रसगं आ खड़ा होगा 1 अथवा, जीवों के संसारी अवस्था में रहते हुए ही, वर्तमान में अनुत्पन्न अर्हत्, सिद्ध इत्यादि पर्यायों का अस्तित्व मानना पड़ जाएगा । स्वामी समलभद्रकृत आप्तमीमांसा की दसवीं कारिका और उस पर भट्ट अकलंकदेवकृत अष्टशती एव आचार्य विद्यानन्दिकृत अष्टसहस्री टीकाओं में उन परमतों में लगने वाले दूषणों की विस्तार से चर्चा की गई है जो प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव को नहीं मानते हैं । न्यायशास्त्र के विशेष जानकार तत्त्वजिहघसु इस विषय को उन अन्यों में देख सकते हैं । हमारे लिये तो इतना ही काफी है कि जिन केवलज्ञानी महापुरुषों ने ज्ञेयों की विनष्ट व अनुत्पन्न पर्यायों को अपने विशद, दिव्य ज्ञान द्वारा हस्तामलकवत् स्पष्ट एदै प्रत्यक्ष जाना है उन्हीं केवलज्ञानियों ने ज्ञेयों में उन पर्यायों के प्रध्यसामाव व प्रागभाव को भी स्पष्ट एवं प्रत्यक्ष देखा है और उसी का उपदेश भी दिया है और वही उपदेश वीतरागी सभ्य-ज्ञानी आचार्यो की परम्परा द्वारा हमें प्राप्त हुआ है । किसी भी पदार्थ में भूत-भविष्यत् पर्यायों की मौजूदगी ठीक उसी तरह होती है, जिस तरह कि सिनेमा की रील में हजारों पिक्चर-फ्रेम्स एक-साथ मौजूद होते हैं’ ‘ – जो ‘विद्वान’ इस स्वकल्पित कथन को सिद्ध करने की असफल कोशिश में पिछले बीस-तीस बरसों से लगे रहे हैं (और जिसके लिये उन्होंने शास्त्रों में दिये गए दृष्टान्तों को खींचकर – ”दृष्टान्त सदा आशिकरूप से ही दार्ष्टान्त पर घटित हुआ करता है.’ इस सर्वमान्य नियम की जानबूझकर अवहेलना करते हुए – उन दृष्टान्तों को अपनी व्याख्या के दौरान दृष्टान्तभास बनाकर, अपना मन्तव्य सिद्ध करने का प्रयास किया है). उन्हें महान, आर्ष आचार्यों के उपर्युक्त उद्धरणों के उज्जल आलोक में स्वयं अपने आप से एक ईमानदार प्रश्न करना चाहिये : क्या वे अपने वाक्चातुर्य का प्रयोग करके, वीतरागी, सभ्यरुघनी आचार्यो के माध्यम से हमें प्राप्त हुई जिनवाणी को झुठलाने का प्रयास नहीं कर रहें हैं? यद्यपि यह ठीक है कि आचार्यो ने हमें समझाने की विवक्षावश, प्रत्यक्षज्ञान के लिये चित्रपट की उपमा दी है : कि च चित्रपटीस्त्राानीयत्वात् सं विद :. 85 अथवा चित्रभित्तिस्थ्यानीयकेवलहमने भूतभाविनश्च पर्याया युगपअत्यक्षेण दृश्यन्ते;” तथापि उन्होंने प्रत्यक्ष, दिव्यज्ञान के लिये ही ऐसे उपमान (चित्रपट आदि) का प्रयोग किया है; केवलज्ञान को ही चित्रपटी-स्थानीय अथवा चित्रभित्ति-स्थानीय’ कहा. है; होयपदार्थ को आचार्यो ने कदापि चित्रपट- जैसा नहीं बतलाया. यह ध्यान से (और. ईमानदारी से भी) नोट करने वाली बात है । (हमें केवलज्ञान के विषय में समझाने के प्रयोजनवश, आचार्यो ने जहाँ चित्रपट अथवा भित्तिचित्र का सरल दृष्टान्त दिया है, वहाँ हमें यह समझना भी जरूरी है कि दृष्टान्त (चित्रपटादि) और दार्ष्टान्त केवलज्ञान में गंभीर अन्तर भी है । जहाँ, एक ओर, चित्रपट, भित्तिचित्र आदि ससीम (11ंाा11ंाटत) एवं संख्यात-आयामी ([1ंZ1ं(ट-त1ंाा1टा131ं०Z81) पदार्थ हैं; वहीं, दूसरी ओर, केवलज्ञान असीम ११०७१५६५५५ एवं अनन्त-आयमिए’ (ZंइZंZ11ंाट-त1ंाा1ट1181ं०ा1म1) भाव है, जिसमें आकाश-धर्म-अधर्मद्रव्यों, असंख्यात कालद्रव्यों, अनन्तानन्त जीवों, और उनसे भी अनजानन्तगुने पुद्गलों में से प्रत्येक अपनी सामान्य-विशेषात्मक सम्पूर्णता में – अपने द्रव्यसामान्य, सहभावी गुणों तथा क्रमभावी पर्यायों 7 विशेषों सहित – युगपत् झलकते हैं; और जीव व पुद्गल द्रव्यों की वे पर्यायें स्वाभाविक एवं वैभाविक, दोनों ही जातियों की हैं । केवलइघनरूपी चित्रपट वा दर्पण पर प्रतिबिम्बित जो वैभाविक पर्यायें हैं वे परस्पर सापेक्षता को लिये हुए – कारण-कार्य साधन-साध्य, निमित्त-नैमित्तिक, इत्यादि – अनेकानेक जातियों के सम्बन्धों के द्वारा एक-दूसरे से कथंचित् सम्बद्ध दिखलाई पड़ती हैं । वे सभी ‘ पर्यायें समस्त अन्तर्बाह्य कारण-सामग्री के द्वारा जिस-जिस प्रकार से घटित होती हैं, उन समरस कारण-कार्य 7 साधन-साध्यभावों की समग्रता सहित ही केवलज्ञान में झलकती हैं और इसीलिये, तत्तदनुसार ही केवली-प्रणीत आगम में प्रतिपादित की गई हैं । 1 १8. जो लोग पदार्थ में अनेक पर्याययोग्यताओं का सद्भाव स्वीकार नहीं करते. उनके यहाँ. ज्ञान की त्रिकालज्ञता का घटित होना अशक्य है अन्तिम तीर्थंकर, भगवान् महावीर स्वामी की दिव्यध्वनि में उनके पूर्ववर्ती, श्री?षभादि-पार्श्वान्त तेईस तीर्थंकरों के जीवनचरित्र का निरूपण हुआ है । उस निरूपण में उन तीर्थंकरों के पिछले दस-दस भवों का भी सविस्तार वर्णन आया ? है । ध्यान देने योग्य है कि भगवान् महावीर के काल में ये तेईस तीर्थकर सिद्ध अवस्था में थे । एक महत्वपूर्ण प्रश्न है कि सर्वज्ञ महावीर स्वामी ने उन सिद्धों की संसारावस्था की पर्यायों को कैसे जाना? क्या वे वैभाविक पर्यायें अब भी उन परम-पूज्य सिद्ध परमात्माओं के अस्तित्व में ‘विद्यमान’ कही जा सकती हैं? कदापि नहीं, क्योंकि सिद्ध-परमेष्ठी की परमशुद्ध सत्ता में तो विभाव का असद्भाव है । तो फिर, भगवान् महावीर ने उन पर्यायों को कैसे जाना (क्योंकि, जैसा कि पिछले अनुच्छेद में देख आए हैं, षट्खण्डागम एवं कसायपाहुड के समर्थ टीकाकार, आचार्य वीरसेन स्वामी के अनुसार,” केवलज्ञान द्वारा अतीत और अनागत पर्यायों का ग्रहण वर्तमान अर्थ 7 ज्ञेय के ग्रहणपूर्वक ही होता है)? इस प्रश्न के सुविचारित उत्तर में ही प्रकृत विवाद का सम्यक् हल मौजूद है – जिस प्रकार उन बैभाविक पर्यायों के ‘व्यक्तिरूप’ अस्तित्व का सिद्ध-अवस्था में असद्भाव (८ प्रध्वंसाभाव) होते हुए भी, वे पर्यायें किसी अपेक्षा से, भूतशक्तियों या भूत-योग्यताओं के रूप में,” सिद्ध-अवस्था में मौजूद द्यैंइ० (अन्यथा, यदि वे पर्यायें सर्वथा असट्रूप होती तो सर्वज्ञ भगवान् महावीर स्वामी उन पर्यायों को कैसे जान सकते थे?!; ठीक उसी प्रकार अन्य सभी चेतन-अचेतन पदार्थों में भी भूत-भविष्यत् पर्यायों के अस्तित्व के बारे में जानना चाहिये, क्योंकि जिनागम के समस्त मूल सिद्धान्त सभी पदार्थो पर समान रूप से लागू (हT911ंp2D1ट) होते हैं । अत:, जिस प्रकार, सिद्ध-अवस्था में भूत-पर्यायें भूतनैगमनय की विषयभूत भूतशक्तियों? योग्यताओं के रूप में मौजूद डैम उसी प्रकार समस्त चेतन-अचेतन पदार्थो में भी भूत-भविष्यत् पर्याय, भूतमाविनैगमनयों की विषयमूत्म’ भूत-भविष्यत शक्तियों? योग्यताओं के तौर पर मौजूद होनी चाहिये’ परन्तु जो लोग वर्तमान ज्ञेय में अनेक योग्यताओं के अस्तित्व को ही मंजूर नहीं करते. उनके यहीं तो प्रत्यक्षइमनी द्वारा भूत और भविष्यत् पर्यायों का जाननपना ही नहीं बन सकेगा. क्योंकि शक्तियों या योग्यताओं के रूप में ही उन भूत-भविष्यत् पर्यायों का वर्तमान पदार्थ में अस्तित्व पाया जाता है. अन्यथा नहीं । जो लोग स्वामिकार्त्तिक्रेयानुप्रेक्षा के रचयिता ‘स्वामी कुमार’ के ‘ ‘णाणासत्तीहि संजुदा अल्था..’ (ऊपर, अनुच्छेद 9 में उद्धृत किये जा चुके इस वचन को स्वीकार नहीं करते – पदार्थो में नाना पर्यायशक्तियों या पर्याययोग्यताओं के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं करते. उनकी मान्यता में तो वे वर्तमान अर्थ 7 ज्ञेय में सर्वथा असत् ठहरेगी; और, सर्वथा असत् को केवलज्ञानी कैसे जानेंगे (क्योंकि. श्रीमद् वीरसेनाचार्य के अनुसार. तब तो खरविषाण आदि में भी केवलज्ञान की प्रवृत्ति हो जाने के दोष का अस्वीकार्य प्रसंग प्राप्त हो जाएगा 11० अनेकान्त 61,1 -५-३-४ से ग्रहण करेंगे तथा इस विषय पर, भविष्य में होने वाले अवांछनीय परिणामों की चिन्तापूर्वक. निष्पक्षता एवं गंभीरता से विचार करेंगे ।
सन्दर्भ एवं टिप्पणियाँ : c राजवार्तिक, अ० 6, क 1, वा० 7 (rसम्पा०-अनु० : प्रो० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, भारतीय इघनपीठ, पाँचवां सं०, 1999, मूल संस्कृत, पू० 5०4, हिन्दीसार, पू० 7०8) देखिये सन्दर्भ 2. ल्णण्दुा?1धZँँ1ष्ठ ८ ८१! ००?]ंटp१ँ ०1इ ?10ाा1महा २०१५०१, 811? ०२६८ ०1इ ११०. r०0ा ००?]ंटp’दु ०ह ८11113 ०रइ टप्र1ंv’टा1ण्ट?र ब्राा1०1??, १ दू?ब्राा1म, 01० हा8’1ं1r1ंण्म’1ं०ा1 र्प धट’हंट २०१८, छप्पण्धंटगटस’ ०? १०८०। १ घ?ा?1क्षादृ1प्त, Z?1ं5Z1?1ब्राडट ०1इ १००२; सता ० ??????? ७१८१ ट111मा1p1ंश्म’1ं०ा1 (उइब्रा1दुप्रं1ं1-8ण्ड11ं85 pए1ंppँ1ं०ा1ब्रा?, ंत्तँ०ा11ंटा-४rएrएr1ं1ं1ं1ंमाा1दु; ंझइr०ा1ं1ंप्त1ं ए’ा1ष्ठाऽ1ंपँगईडइ” rकईच्ंr1ंउइछइभै ९०५१., मई०इइइर्प; 9.637) ४ l0p081ं1खाऊंह ८ ‘ं1धाा1द्वा1 टीाई०प्र०ा टप्र०[ा1ं०ा1 (मट?. 5,9.637) (8) पुरुषार्थ ८ मानवप्रयत्न या चेष्टा, पुरुषकार (संदर्भ 8, पू० 624) पौरुषम् ८ चेष्टा, प्रयत्न (संदर्भ 6, पू० 637) ४ एrण्दृ03ां1D५ंब्रा.ष्ठ ८ ‘?10ाा1ब्रा1 ट1rाइ०हा (०हथ्प्पु1ंाट ः० ०?प्त1ंZ8, ७८६ (एटा. 5,9.6371 (6) देखिये संदर्भ ७४ आप्त-मीमांसा स्वामी समन्तभद्र (आ० वसुनन्दिकृत वृत्ति एवं अकलंकदेवविरचित अष्टशती सहित; भारतीय जैनसिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, काशी; १९१९ पू० 4०. अष्टसहसी (गांधी नाथारंग जैनयस्थमाला, बम्बई; १९१५, पू० . सन्दर्भ -1०, पू० 4०. तत्त्वप्रदीपिका टीका, परिशिष्ट के अन्तर्गत 47 नयों द्वारा आत्मद्रव्य का निरूपण; क्रम सं० 32 पर पुरुषकारनयविषयक कथन । ”शंका. मुक्त जीव के कोई प्रयत्न नहीं होता, क्योंकि मुक्त जीव कृतकृत्य है? समाधान वीर्यान्तरायकर्म के क्षय से उत्पन्न, वीर्यलथिरूप प्रयत्न मुक्त जीव के होता है । चूँकि मुक्त जीव कृतकृत्य रहते है अत: वे प्रयत्न का कभी उपयोग नहीं करते।” (स्याद्वादमजरी; रायचन्द शास्त्रमाला, बम्बई, १८९८, पू० ८९-९० (ध्यान देने योग्य है कि यहाँ वैशेषिकमत के शंकाकार को उत्तर देने के लिये श्वेताम्बर रचनाकार मल्लिषेणसूरि ने वीर्यलब्धिरूप ‘शक्ति’ या कामर्थ्य’ में प्रयत्न’ का उपचार किया है। जिस सन्दर्भ में यह कथन किया गया है उसे ठीक से समझने के लिये वैशेषिकों का पूर्वपक्ष समझना भी निहायत जरूरी है; देखें, पू० 65 से 92 तक, पूरा प्रकरण ।1 ? 6171-2-3-4 111 . सिद्धिविनिश्चय, 1-6, स्वोपइावृत्ति (सम्पा० डल! महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९५९, पू० 34. ०. वही, १-8, आचार्य अनन्तवीर्यकृत टीका; पू० . . प्रमेयकमलमार्तण्ड, 3-3 (निर्णयसागर मुद्रणालय, बम्बई, ). पू० 334. . वही, -6; पू० 49०. ०. क ही आशय आचार्य वीरसेन ने व्यक्त किया है, ”अवाय ज्ञान से जाने पदार्थ में कालान्तर में अविस्मरण के कारणभूत संस्कार को उत्पत्र करने वाला जो निर्णयरूप ज्ञान होता है उसे धारणा ज्ञान कहते है । (जयधवला-समन्वित कसायपाहुड, भाग 1, द्वि० सं०, पू० 3०7) ७ यह भी देखिये ”इदमेव हि संस्कारस्य लक्षणं यल्कालान्तरेपुष्पविस्मरणमिति ।” (लघीयस्वय, कारिका 5, अमयदेवसूरिकृत वृत्ति; जघीयञ्जयादिसंग्रह’, माणिकचन्द्र दि० जैन गपथमाला, 1915, पू० 15) समाधिशतक (प्रभाचन्द्राचार्यकृत टीका सहित); श्लोक 7,8,१०,12, ओर श्लोक 37 का पूर्वार्द्ध । प्रवचनसार, गा० 184 शुल्क सभावमादा.. .1 जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्ति । (यह भी देखिये ”प्रकृति, शील और स्वभाव, ये तीनों शब्द एकार्थक हैं । रागादिक रूप परिणमन आत्मा का स्वभाव है ।” (गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, गाथा 2, जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका! प्रवचनसार, गा;, 116, तत्त्वप्रदीपिका टीका । (आचार्य कुन्दकुन्द की मूल गाथा का भावार्थ भी द्रष्टव्य है ।) धदत्मा. 1 ९-, 23; पु० 6, पू० 41. विणएण सुदमधीद किह वि पमादेण होदि विस्सरिदं । तमुवडादि परभवे… ।” (धवला, 4,1, ; पु० 9, पू० 82 पर उद्धृत) 25. लम्रिसार, गा० 6, संस्कृत वृत्ति (सम्पा० : सिद्धाचाचार्य पं० फूलचन्दजी शास्त्री; ‘ परमश्रुतप्रभावक मण्डल, अगास; तृतीयावृत्ति, १९९२, पू० 5. 2267 द्रव्यसंग्रह, गाथा ; २२२७२ संस्कृत टई८ाकहा ।०० पू० 566) . ‘साधनं द्विविध अभ्यन्तरं बाह्य च ।” सर्वार्थसिद्धि, 177) . देखिये : (क) सन्दर्भ 1०, पू० 4०; ७ संदर्भ १।, पू० . . आप्तमीमांसा, तत्त्वदीपिका व्याख्या; प्रो० उदयचन्द्र जैन (श्री गणेश वर्णी दि० संस्थान, १९१५, पू० . . देखिये : पं० टोडरमलजीकृत मोक्षमार्गप्रकाशक (सम्पादन : पं० परमानन्द शास्त्री-सर्च गपथमाला. वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली, १९५२, दूसरा अधिकार, पू० -57 ‘० अधिकार, पू० 8०. . ‘तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायश्च तादृश: । सहायास्सादृशा: सन्ति यादृशी भवितव्यता । । अर्थ : जैसा भाग्य होता है वैसी ही बुद्धि हो जाती है, प्रयत्न भी वैसा ही होता है; उसी के ० सहायक भी मिल जाते हैं । 112 -०- अनेकान्त 6171 – 2 – 3 -4 (यद्यपि अष्टशती में उक्त श्लोक से पहले, स्पष्ट-रूप-से ‘तदुक्तं’ लिखा मिलता है (देखिये सन्दर्भ ०, पू० 41) तो भी, कुछ लोग आज भी इसे अष्टसहसीकारकृत या अकलंकदेवकृत बतलाते हैं, और इसका सन्दर्भ-निरपेक्ष, मनमाना अर्थ करने में लगे हैं । (उदाहरणार्थ देखिये कमबद्धपर्याय-निर्देशिका, अभयकुमार जैन, पं० टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर, तृ० सं०, 2006, पू० 1 २२। देखिये सन्दर्भ पू० 257. ३४. संदर्भ 5, पू० 749. 35. संदर्भ 6 पू० 733. स्वयम्मुस्तोत्र, तत्त्वप्रदीपिका व्याख्या, प्रो;, उदेयचन्द्र जैन (श्री गणेश वर्णी दि० जैन संस्थान, 1993) पू० ६५-५८. धवलाटीका-समन्वित षट्खण्डागम. 1, 9-8, 3; पु० 6, पू० 2०3-205 । पंचास्तिकाय, गाथा 151 (कम्मस्साभावेण…) की तात्पर्यवृत्ति । ८ ”बुद्धिमान् भव्य जीव, आगमभाषा के अनुसार ‘क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण’ नामक पंचलथिये से, और अध्यात्मभाषा के अनुसार ‘निजशुद्धात्माभिमुख-परिणाम नामक विशेष निर्मलभावनारूप खड़ग से पौरुष करके (मिथ्यात्वरूपी) कर्मशत्रु को हनता एं है ।’ ‘ (द्रव्यसंग्रह, गाथा 37, श्री ब्रह्मदेवकृत वृत्ति) ७ ‘इन्द्रभूति गौतमे जब भेगवान् महापर?? के समवसरण में गए, तब मानस्तम्भ के देखने मात्र से ही, आगमभाषा के अनुसार दर्शनमोहनीय के उपशम 7 क्षय 7 क्षयोपशम से, और अध्यात्मभाषा के अनुसार निज शुद्धात्मा के सम्मुख परिणाम से एवइ कालादि लयि-विशेष से उनका मिथ्यात्व नेष्ठ हो गया । ” (वही, गाथा 41, संस्कृतवृत्ति) संदर्भ 6, पू० . 41. संदर्भ 5. पू० 552. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग 2, पू० 61 -२०, देखिये. ‘नियति’ शीर्षक के नीचे दिये गए विभिन्न उपशीर्षक, और उनके अन्तर्गत- संकलित शास्त्र-उद्धरण । आधुनिक नियतिवाद के प्रचारक ‘वस्तुविइघनसोर नामक पुस्तक में कहते हैं ”यदि ऐसा माना जाए कि जब मिट्टी से घडा नहीं बना था, तब उस समय भी मिट्टी में घड़ा बनने – की योग्यता थी; परन्तु निमित्त नहीं मिला, इसलिये घडा नहीं बना, तो यह मान्यता ठीक नहीं है; क्योंकि जब मिट्टी में घडारूप अवस्था नहीं हुई, तब उसमें पिण्डरूप अवस्था है, और उस समय वह अवस्था होने की ही उसकी योग्यता है । जिस समय मिट्टी की पर्याय में पिण्डरूप अवस्था की योग्यता होती है, उसी समय उसमें घडारूप अवस्था की योग्यता नहीं होती क्योंकि एक, ह?ई पर्याय में एक साथ दो प्रकार की योग्यता कदापि नहीं हो सकती 1 यह सिद्धान्त अत्यन्त महत्व का है यह प्रत्येक स्थान पर लागू करना चाहिये 1” (वस्तुविइघनसार; हिन्दी अनुवाद : पं० परमेष्ठीदास जैन न्यायतीर्थ; श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़, काठियावाडू, 1 948; पू० अ० – यहीं यह भूल की जा रही है कि जिस पर्याय-योग्यता का यही सन्दर्भ है, वह पर्याय-योग्यता किसी ”अमुक पर्याय में’ ‘ कदापि नहीं कही जाती, प्रत्युत विवक्षित स्थूल 7 व्यंजनपर्याययुक्त द्रव्य में कही जाती है । उक्त वक्ता द्वारा दिये गए उदाहरण में मृत्पिण्ड तथा घड़ा, दोनों ही मिट्टीरूप द्रव्य की स्थूल या व्यंजनपर्यायें हैं । जैसा कि लेख में आगे चलकर चर्चा करेंगे, मृत्पिण्ड अवस्था मैं जो मृद्द्रव्य (मिट्टीरूप द्रव्य) है, – 6171 -2 – 3-4 113 उसमें नाना योग्यताएं है । अत: ”एक ही पर्याय में एक साथ दो प्रकार की योग्यता कदापि नहीं हो सकती,’ ‘ इस वाक्य में मूलभूत गलती यह है कि प्रश्न ”अमुक पर्याय में पर्याय-योग्यता” का बिल्कुल नहीं है, बल्कि ”अमुक पर्याययुक्त द्रव्य में पर्याय-योग्यता” का है । और, जिनागम के अनुसार किसी भी पर्याययुक्त द्रव्य में असंदिग्ध रूप । से अनेकानेक पर्याय-योग्यताएं हुआ करती हैं ।। ”जब आत्मा की जो अवस्था होती है, तब उस अवस्था के लिये अनुकूल निमित्तरूप परन्तु स्वयं उपस्थित होती ही है ।” वही, पू० 6, पैरा 2) ‘ ‘जो क्रमबद्ध पर्याय उस समय प्रगट होनी थी, वही… पर्याय उस समय प्रगट हुई सो नियति है । ” (वही, पू० 3०, बिन्दु 3 के अन्तर्गत) सन्दर्भ -। ग् पू० ४५–५६, खडी-बोली रूपान्तर 1 द्रव्ययोग्यता और पर्याययोग्यता की विस्तृत चर्चा के लिये देखिये जैनदर्शन, डल, महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य (श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन य-थमाला, हि० सं०, 1966 ). अध्याय 4. असंख्यातासंख्यात लोकप्रमाण वैभाविक चेतन परिणामों में से, असंख्यातों लोकप्रमाण परिणाम तो ऐसे होंगे जो देव, नारक, या तिर्यंच व्यंजनपर्यायों में तो होने सम्भव हों, किन्तु मनुष्यपर्याय में नहीं । मनुष्यजीवों में भी, असंख्यातों लोकप्रमाण परिणाम ऐसे होंगे जो भोगभूमि, कुभोगभूमि, विद्याधरक्षेत्रों,- प्लेच्छखण्डों के निवासियों में तो होने सम्भव हो किन्तु आर्यखण्ड के निवासियों में नहीं । पुनश्च, वर्तमान पृथ्वी 7 आर्यखण्ड के निवासियों में; एक ओर, न तो ऐसे रौद्र परिणामों की योग्यता है जो सातवें-छठे आदि नरकों के योग्य आयु का बन्ध कर सकें; और, दूसरी ओर, न ही ऐसे परिणाम होने सम्भव है जो सातवें से ऊपर’ के गुणस्थानों की भूमिका में ही होने शक्य हों । ‘कालादिलीकसंयुकघः कालद्रव्यक्षेत्रभवभावादिसामग्रीप्राप्ता: ।’ ‘ (स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा 219, भट्टारक शुभचन्द्रकृत संस्कृत टीका) प्रमाण-परीक्षा, अनुच्छेद 84 (सम्पा० : डा० दरबारीलाल कोठिया, वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन, 1977, मूल संस्पृातपाठ, पू० 36) । ये उद्धरण भी द्रष्टव्य हैं : (क) ”आत्मविशुद्धिविशेषो इघनावरणवीर्यालरायक्षयोपशमभेद: स्वार्थप्रमिती शक्तिर्योग्यतेति च स्याद्वादन्यायवेदिभिरभिधीयते ।” (वही, पू० 3-4) (ख) ”स्वावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया…” अर्थात् अपने ज्ञान के रोकने वाले, आवरणों के क्षयोपशमरूप योग्यता के द्वारा… । (देखिये : माणिक्यनन्याचार्यकृत परीक्षामुख. अनेकान्त इघनमन्दिर शोध संस्थान, बीना, द्वि० सं०, 2005, पू० ३२–३३४, क्षुल्लक विवेकानन्दसागर की व्याख्या एवं तदन्तर्गत प्रश्नोत्तर पठनीय हैं ।) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (गांधी नाथारंग जैनग-थमाला. बम्बई, 8). पू० 1. ‘खान की अमुक पर्याय को प्रकट न होने देना विवक्षित ज्ञानावरणकर्म के सर्वघाती स्वर्धकों के उदय का काम है, किन्तु जिस जीव के विवक्षित ज्ञानावरण का क्षयोपशम होता है उसके उस ज्ञानावरण के सर्वघाती स्पर्धकों का उदय न होने से विवक्षित ज्ञान के प्रकाश में आने की योग्यता होती है, और इसी योग्यता का नाम लब्धि है । ऐसी योग्यता एक साथ सभी क्षायोपशमिक ज्ञानों की हो सकती है:. किन्तु उपयोग में एक काल में एक ही ज्ञान आता है ।” (देखिये : सर्वार्थसिद्धि, 2718, टीकार्थ के अनन्तर दिया गया विशेषार्थ; मै अनेकान्त 6171-2-3-4 सम्पा० सिद्धाचाचार्य पं० फूलचन्दजी शास्त्री; भारतीय इघनपीठ, चतुर्थ सं०, 1 989; पृई० -२५ . ”लम्मन लयि: । का पुनरसौ? इघनावरणकर्मक्षयोपशमविशेष: ।.. अर्थ : ‘लधि शब्द का अर्थ है, प्राप्त होना । लम्रि किसे कहते हैं? इघनावरणकर्म के क्षयोपशमविशेष को लम्रि कहते है । (सर्वार्थसिद्धि, 2718) पृथिवी के -ऊपर सभी पदार्थ रहते हैं वह पृथिवी भी दूसरों के द्वारा, अर्थात् घनोदधि, घन और तनु वातवलयों के द्वारा धारण की गई है । वह पृथिवी और वे तीनों ही वातवलय भी आकाश के मध्य में प्रविष्ट हैं । और, वह अनजानन्त आकाश भी केवलियों के ज्ञान के एक कोने में निलीन है, समाया हुआ है ।” (आत्मानुशासन, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, द्वि० सं०, 1973. पू० २०२-२३ त्रिलोकसार, गाथा -1 ३-१; श्री माधवचन्द्र त्रैविद्यदेवकृत टीका सहित समार पं० जैन मुख्तार एवं डॉ० चेतनप्रकाश पाटनी, श्री शान्तिवीर दि० जैन संस्थान, श्रीमहावीरजी, १९७४, पू० १४–१५. वही, गा० 48-51; पू० ४६-४८. 57. परमात्मप्रकाश, दोहा . देखिये : सन्दर्भ 55, पू० 48. 59. वस्तुविइघनसार, सन्दर्भ 43, पूल. 71 (क) धवला, 4,1, 3; पु० 9, पू० 42 व 48. (ख) सन्दर्भ 55, गा;, ८–८४, ००74-81. छरूँ– । सन्दर्भ त०(क), पू० ०-51 . सर्वार्थसिद्धि, अ० -1०, सू० 8. 63. पंचास्तिकाय, समयव्याख्या सहित; श्री शान्तिसागर जैनसिद्धान्तप्रकाशिनी संस्था श्रीमहावीरजी, १९५, पू० . ६४-. देखिये राजवार्तिक, ०78. 65. देखिये. श्लोकवार्तिक, 1०. . ”ततोदुथूदर्ध्वगतिस्तेषां कस्मान्नास्तीति चेन्मति । धर्मास्तिकायस्वाभावात्स हिट ५२२५ पर: । । । ।” (तत्त्वार्थसार, २२२९२ ?? सम्पा० : डॉ० -चैतन-प्रकाश पाटनी; भी 1008 चन्द्रप्रभु दि० जैन अतिशयक्षेत्र, देहरा-‘ द्वि० सं०, १९२ पू० . ७ त्रिलोकसार, गाथा ; सन्दर्भ 55, पू० 45-। -च. . तिलोयक्मणती, 8-94 सन्दर्भ ५७०, पू० ०. . देखिये : आदिपुराण, पर्व 1 -1, श्लोक 154-55 समा–अनु-. डॉ० पन्नालाल साहित्याचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, तृ० सं०, ) पू० 24०. . त्रिलोकसार, गाथा ५५४, सन्दर्भ 55, पू० 473. . देवमेव परं मन्ये धिकपौरुषमनर्थकम । (गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, गाथा ।, पूर्वार्द्ध, संस्कृत छाया) . (वा) अज्ञानी खलु अनीश: आत्मा तस्य सुख च दुःख च । डे स्वर्ग नरक गमनं सर्व ईश्वरकृत भवति । । (गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, गाथा 88०, संस्कृत छाया) ७ अइगे जन्तुरनीशोध्यमात्मन: सुखदुःखयोः । .२- ईश्वरप्रेरिता गच्छेत् स्वर्ग वा श्वसमेव वा । । (महाभारत. वनपर्व, 3०72) अनेकान्त 6171 -८-३-२४ 115 देखिये : सन्दर्भ 4?, पू ० ८२–८४. छ आहारादिविषयाभिलाव: संहोति । अर्थ : आहार आदि विषयों की अभिलाषा ?? इच्छा को ‘संइघ’ कहा जाता है । (सर्वार्थसिद्धि, 2 ?? 24) (ख) सण्णा चउक्तिहा आहार-भय-मेहुण-पा२इग्गहसण्णा चेदि । अर्थ : संज्ञा चार प्रकार की है, आहारसहघ, भयसंहघ, मैथुनसंहघ और परिग्रहसंइ?। । (धवला, , 1; पु० 2, द्वि० सं०, 1992, पू० 415) देखिये : ला) तिलोयफणत्ती, आठवां महाधिकार, सन्दर्भ 67 (व?) ७ आदिपुराण, पर्व , सन्दर्भ 69. तिलोयक्मणती, आठवां महाधिकार, गाथा ; सन्दर्भ 67 का, पू० 6०3. वही, गाथा 555, पू० . देखिये : सर्वार्थसिद्धि, 3737; सन्दर्भ 52, पू० 173. वस्तुविइघनसार, सन्दर्भ 43, पू० 1० व 11. ८ जयधवला; सन्दर्भ -1 9०, पू० 19. ७ ‘ ‘णडाणुप्पण्ण अत्याणं कधं तदो परिच्छेदो? ण, केवलत्तादो बल्सत्यावेक्खाए विणा तदुप्पजीए विरोहाभावा । ” शंका : जो पदार्थ नष्ट हो चुके हैं, और जो पदार्थ अभी उत्पन्न नहीं हुए हैं, उनका केवलज्ञान से कैसे ज्ञान हो सकता है? समाधान : नहीं, क्योंकि केवलज्ञान के सहाय-निरपेक्ष होने से, बाह्य पदार्थों की अपेक्षा के बिना, उनके (विनष्ट और अनुत्पन्न अर्थों के) ज्ञान की उत्पत्ति में कोई विरोध नहीं है । (धवला, -1. 9-1. 1 4; पु० 6, पू० 29) देखिये : जयधवला; सन्दर्भ 19 (व?), पू० 2०. प्रवचनसार, गाथा 38, ता० वृ० (सम्पा० : पं० अजितकुमार शास्त्री एवं पं० रतनचन्द जी जैन मुख्तार, भी शान्तिवीर दि० जैन संस्थान, श्रीमहावीरजी, 1969) पू० 92. ८ ‘ ‘कार्यस्यात्मलाभात प्रागभवनं प्रागभाव:’ ‘ अर्थात् कार्य के पैदा होने से पूर्व जो उसका अभाव रहता है उसे प्रागभाव कहते हैं । (अष्टसहसी, संदर्भ 11, पू० 97) (ख) ‘ ‘प्राक् पूर्वस्मिन्नभाव: अलत्त्वं प्रागभाव: । मढ़त्पइण्डे घटस्वासत्त्वमित्यर्थ: ।… प्रध्वंसस्य च विनाशस्य च घटस्थ कपालनाशादय इत्यर्थ: । ” (आप्तमीमांसा, कारिका -1 ०, आचार्य वसुनंदिकृत वृत्ति; संदर्भ 1०, पू० 8) (न) ‘ ‘कार्यस्यैव पूर्गो कालेन विशिष्टोर्थः प्रागभाव:, परेण विशिष्ट: प्रध्वंसाभाव:’ ‘ (अष्टसहसी; संदर्भ 11, पू० 99) ८ कार्य के स्वरूपलाभ करने के पश्चात् जो अभाव होता है, अथवा जो कार्य के विघट-पारूप है वह प्रध्वंसाभाव है । (जयधवला, सन्दर्भ 19 छ, पू० 2271 देखिये : क्रमबद्धपर्याय, डल, हुकमचन्द भारिल्ल (श्री दि० जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़, -1 980) पू० 38-40) (प्रवचनसार, गाथा 99 में द्रव्य के उत्पाद-व्यय-धौव्यात्मक स्वभाव का निरूपण किया गया है । इस गाथा की तत्त्वप्रदीपिका टीका में, विभित्र उत्पाद-व्ययात्मक परिणामों में जो अनुज्यूत है वह प्रवाहात्मक धौब्य है; यह समझाने के लिये, आचार्य अमृतचन्द्र ने मोतियों के हार का दृष्टान्त दिया है । यद्यपि हार में सारे मोती एक-साथ होते हैं, परन्तु द्रव्य में पूर्वोत्तर पर्यायें एक-साथ नहीं होती, ऐसा जिनागम में असंदिग्ध रूप से प्रतिपादित किया गया है । परन्तु, आचार्यश्री के अभिप्राय के विपरीत, ?? ?? – अनेकान्त 6171 -५-३-४ उपर्युक्त लेखक ने दृष्टान्त को खींचकर, उसे जानबूझकर दृष्टान्ताभास बना दिया है, और यह सिद्ध करने की असफल कोशिश की है कि द्रव्य में पर्यायें क्रमबद्ध रूप से पड़ी होती हैं । ज्ञातव्य है कि ‘ ‘पदार्थ में अनेकानेक कार्य (हम जैनों के लिये, पर्याय एक-साथ पड़े हैं और वे केवल प्रकट व अप्रकट होते रहते हैं, उसी तरह, जैसे कि कछुआ अपनी गर्दन अपने पृष्ठकवच से बाहर निकालता है और भीतर खींच लेता है;’ ‘ यह ऐकान्तिक सिद्धान्त जैनों का नहीं, प्रत्युत सांख्यमतियों का है । उनके इस सिद्धान्त का नाम सत्कार्यवाद’ है, जिसके अनुसार न पदार्थो की उत्पत्ति होती है और न विनाश; किन्तु उनका ‘आविर्भाव , प्रकटन और ‘तिरोभाव’ 7 अप्रकटन होता रहता है । (देखिये : 18०8 प्रप्तछ? प्र ५९८१९८ ०? १५..८ भें1ंदु1?Z1प्त, इग् ण्क्ष1ब्धप्र?’ा1ज्ञ इग्प्त8अँ1ं, १८६१८५ ??? 111′, 1933) प्रवचनसार, गाथा 37, अमृतचन्द्राचार्यकृत तत्त्वप्रदीपिका टीका । वही, जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्ति । चित्रपट अथवा भित्तिचित्र आदि के माध्यम से प्रदर्शित घटनाओं में कुछ-एक, संख्यात परिवर्ती (पण1ंमz1ध) हो सकते है जबकि दिव्य, प्रत्यक्ष ज्ञान में द्रव्य-क्षे?काल-भव-भावरूप आयामों समेत, अनन्तानन्त ज्ञेयों के रूप से अनन्तानन्त ही परिवर्ती (पछा1ंमूह1टदु) होते हैं । इसी अभिप्राय से केवलज्ञान को अनन्त-आयामी कहा गया है । देखिये, जयधवला, सन्दर्भ 19 का, पू० 2०. -एइ–गे -का— ग्,? ०१., श । रा – ह । क प्रध्वस-अभाव और भूतपर्यायशक्ति में कोई अन्तर नहीं है; जब हम किसी पदार्थ की किसी विवक्षित पर्याय को दृष्टि में लेते है तो उस पर्याय की ‘व्यक्ति’ का अभाव यानी पर्याय का व्यय) ही उसका प्रध्वंसाभाव कहा जाता है । परन्तु यह प्रध्वंसामाक्7,व्यक् किसी भी प्रकार से उस पर्याय का अत्क्न्ताभाव नहीं है. वह व्ययगत पर्याय मात्र भूतशक्ति-रूप-से उस पदार्थ में अब भी मौजूद है । इसी प्रकार, प्राग-अभाव और भविष्यत्पर्यायशकि। में भी कोई अन्तर नहीं है; जब हम किसी पदार्थ की किसी सम्भावित पर्याय को दृष्टि में लेते हैं तो उस पर्याय की ‘व्यक्ति’ का अभाव (यानी पर्याय का वर्तमान में अनुत्पाद) ही उसका प्रागभाव कहा जाता है । परन्तु यह प्रागभक्?अनुत्याद किसी भी प्रकार से उसका अत्क्न्ताभाव नहीं है. वह अनुत्पन्न पर्याय मात्र भविष्यकक्ति-रूप-से उस पदार्थ में अब भी मौजूद है । (देखिये : जयधवला, सन्दर्भ 19 का, पू० 1 ९-२०; तथा धवला, 1 ग् -। 14, पु० 6, पू० 291 ‘ ‘नयोपनयैकान्ताना त्रिकालानां समुच्चय: । अविभ्राडभावसम्बन्धो द्रव्यमेकमनेकधा । । ” तीनों कालों को विषय करने वाले जो नैगम-संग्रहादिनय हैं (और उनकी शाखा- प्रशाखारूप जो भेद-प्रभेदात्मक उपनय हैं) – उन नयों7उपनयों के विषयभूत (सम्यक्) एकान्त हैं (कैसे ‘एकान्त’ है? जो कि विपक्ष की उपेक्षा को करके होते हैं, कि विपक्ष का सर्वथा त्याग करके ।) ऐसे उन त्रिकालसम्बन्धी एकालों7,पर्यायों कथंचित् अपृथक् सम्बन्धरूप समुच्चय?समुदाय ही द्रव्य है; वही वस्तु है । (आप्तमीमांसा, कारिका ०7; अष्टसहसी टीका सहित अनुरू. आर्यिका ज्ञानमती, दि० जैन त्रिलोक ० संस्थान, हस्तिनापुर, तृ० भाग, १८८० पू० ५७६-? देखिये जयधवला, सन्दर्भ (क), पू० १९-२०२. अनेकान्त 6171 -2-3-4 117 छ मनुष्य, नारक, तिर्यच और देवरूप पर्यायें ‘विभावपर्यायें’ हैं । वे विभावपर्यायें अथवा अशुद्धपर्यायें स्व-पर-सापेक्ष होती हैं; अर्थात् ‘स्व यानी उपादान, और ‘पर’ यानी निमित्त दोनों की अपेक्षा रखती है । (नियमसार, गाथा 1 -। 5; पद्मप्रभमलधारिदेवकृत टीका सहित) ७ ”बाह्येतरोपाधिसमग्रतेयै कार्येषु ते द्रव्यगत: स्वभाव:” अर्थात् कार्योत्पत्ति के लिये बाह्य और आभ्यन्तर, निमित्त और उपादान, दोनों कारणों की समग्रता ही द्रव्यगत निज स्वभाव है । (स्वयशूस्सोत्र, 1 2-5; देखिये : सन्दर्भ 36, पू० 1०1 -02) ‘ ‘जिसने पूर्व अवस्था प्राप्त की है ऐसा द्रव्य, समुचित बहिरंग साधनों के सान्निध्य के सदभाव में… अन्तरंग साधनभूत स्वरूपकर्ता और स्वरूपकरण के सामर्थ्यरूप स्वभाव से सहित हुआ, उत्तर अवस्था से उत्पन्न होता हुआ उत्पादरूप देखा जाता है ।’ ‘ (प्रवचनसार, गाथा 95, अमृतचन्द्राचार्यकृत तत्त्वप्रदीपिका टीका) देखिये : जैनदर्शन, सन्दर्भ 47, पू० -93 ‘ ‘सर्वे भावा: स्वभावेन स्वस्वभाव-व्यवस्थिता: । न शक्यन्तेदुन्यथाकर्तुं ते परेण कदाचन । । 9746 । ।’ ‘ ”सब द्रव्य 7 पदार्थ स्वभाव से अपने-अपने स्वरूप में स्थित हैं, वे पर के द्वारा कभी अन्यथारूप नहीं किये जा सकते ।” भाष्य यही एक बहुत बडे अटल सिद्धान्त की घोषणा की गई है यह कि स्वभाव से ही अपने-अपने स्वरूप में व्यवस्थित रहने वाले, समस्त पदार्थों को कोई दूसरा द्रव्य 7 पदार्थ अन्यथा करने में, यानी स्वभाव से ल्युत करने में अथवा पर-रूप परिणत करने में, कदापि समर्थ नहीं होता । (आचार्य अमितगतिकृत योगरनार-प्राभूत, चूलिकाधिकार; सम्पा०-भाष्य श्री जुगलकिशोरजी मुख्तार भारतीय ज्ञानपीठ, द्वि० सं०, 1999, पू० 211) ”णाणं णेयप्पमाणमुहिट्ठं’ ‘ (प्रवचनसार, गाथा 23) वस्तुविइघनसार; सन्दर्भ 43, पू० 12. स्वामी सजना-एमए रलकरण्डश्रावकाचार, श्लोक 42. . ”परमागमस्य… ल छत०२०७ ५३१ 1०1. जा अष्टसहसी, कारिका 87; सन्दर्भ 11, पृइं० 252. ७ अष्टसहसी, तृतीय भाग, कारिका ; सन्दर्भ 9०, पू० ४२३–२४. (ग) यह भी देखिये : आप्तमीमांसा, सन्दर्भ 3०, पू० 279. 1०2. धवला टीका; 5,5,5०, मुइं० 13, मृइ० ‘. ई? 1०3. देखिये. पंचाध्यायी, अ० 1, श्लोक 743. १०४. देखिये : प्रवचनसार, तत्त्वप्रदीपिका टीका, परिशिष्ट, क्रम सं० 14 पर ‘द्रव्यनय-विषयक कथन । ०5. क्रमबद्धपर्याय; सन्दर्भ 84, पू० 43. १०६, (क) ”उपादान उत्तरस्य कार्यस्थ सजातीयं कारणम्” अर्थात् उत्तर पर्याय?कार्य का सजातीय कारण, उपादान कहलाता है । (न्यायविनिश्चय विवरण, 1 ?? 132) ७ पूर्वपरिणामयुक्त कारणभावेन वर्तते द्रव्यम् । उत्तरपरिणामयुक्त तदेत कार्यम्भवेत् नियमात् । २२२ । । कारणकार्यविशेषा: त्रिश्वपि कालेषु भवन्ति वसूलना! । ??? 118 अनेकान्त 6171-2-3-4 ‘ एकैकस्मिन् च समये पूर्वोत्तरभावमासाथ । २२३ । । (स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, संस्कृत छाया) अर्थ : पूर्व परिणाम सहित द्रव्य कारणरूप है और उत्तर परिणाम सहित द्रव्य नियम से कार्यरूप है । वस्तु के पूर्व और उत्तर परिणामों को लेकर तीनों ही कालों में प्रत्येक समय में कारण-कार्यभाव होता है । 1०7. (क) ‘ ‘द्विविधो हेतुर्बाह्य आभ्यन्तरश्च ।’ ‘ (राजवार्तिक, 2 ?? 8 ?इ 1) ७ ”प्रत्यय: कारणं निमित्तमित्यनर्थान्तरम् ।’ ‘ सर्वार्थसिद्धि, 1721) (न) ”निमेदति सह करोतीति निमित्तम” अर्थात् दो पदार्थों की परिणतियां समकालवर्तिनी होते हुए, जिसकी परिणति उपादानभूत अन्य पदार्थ की परिणतिक्रिया में सहायक होती है वह पदार्थ ‘निमित्त’ कहलाता है । समयसार, स्वोपज्ञतत्त्वप्रबोधिनी टीका, पं० मोतीचन्द्र कोठारी, अनेकान्त इघनमन्दिर शोध संस्थान; खण्ड-।. द्वि० सं०, 2004, पू० 36-37) 1०8. जा ‘एक द्रव्य की दो अनन्तरकालवर्ती पर्यायों में एकद्रव्यप्रत्यासतिकप उपादान-उपादेय सम्बन्ध होता है । प्रश्न : सहकारी कारणों के साथ पूर्वोक्त कार्य-कारणभाव कैसे ठहरेगा, क्योंकि वहाँ एकद्रव्यप्रत्यासति नाम के सम्बन्ध का तो अभाव है? उत्तर काल-प्रत्यासत्ति नामक सम्बन्ध से वहाँ कार्य-कारणभाव सिद्ध हो जाता है । जिससे अव्यवहित उत्तरकाल में नियम से जो अवश्य उत्पन्न हो जाता है वह उसका सहकारी कारण है और शेष दूसरा कार्य है ।’ ‘ (श्लोकवार्तिक. अ० १, क 7, वार्तिक 1 3; सन्दर्भ 51, पू० 151) ७ देखिये सन्दर्भ 94 का उद्धरण । 1०9. देखिये, सन्दर्भ २२…………………………………………. 11०. गाथा 320 का चौथा चरण है ”एवं चिंतेइ सहिट्ठी” अर्थात् ‘सम्यग्दृष्टि इस प्रकार चिंतवन करता है ।” न्यायशास्त्र के सन्दर्भानुसारी प्रयोग के अनुसार, प्रकृत में मध्यदीपकन्याय पड़ता है जिसका तात्पर्य है कि ”एवं चिंतेइ सहिट्ठी” पूरे गाथाचतुथ्या, यानी 319 से 32 तक चारों गाथाओं पर लागू (भूश्ग्र11ंप्क्ष्स1ट) होगा । जाहिर है कि गाथा 321-22 में च्०ई कुमार अपने पूर्ववर्ती श्री कुन्दकुन्ददेव, स्वामीसमलभद्र आदि महान आचार्यों से भिन्न किसी नूतन या अपूर्व सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं कर रहे है प्रत्युत परिणामों को ०ए के सन्दर्भविशेष के अन्तर्गत, इघनापेक्ष नय की विषयभूत कथंचित् नियति को प्रसार-मलत मुख्य करके उसका अवलम्बन लेते हुए सम्यग्दृष्टि द्वारा की जाने ‘ विचारणा?भावना7अनुप्रेक्षा का निरूपण कर रहे हैं । आधुनिक नियतिवाद के प्रचारक भी उपर्युक्त आशय से सहमत दीखते हैं, जैसा हूं-:. ‘वस्तुविड़घनसार’ नामक पुस्तक (देखिये सन्दर्भ 43, पू० 2; पंक्ति 2 एवं पंक्ति 18-19 में स्वीकार किया गया है कि ”इस प्रकार सम्यग्दृष्टि विचार करता है ।” विडम्बना ८ है कि अपनी इसी पुस्तक में आगे चलकर वे खुद एवं उनके आइघनुसारी (न १::.. परीक्षाप्रधानी) समर्थक भी इस एकनयावलम्बी विचारणा7भावना7अनुप्रेक्षा को ब्रह्मा. २१५३ सस्मझने की गंभीर भूल कर बैठते तैछै । 112. स्वामिकार्तिवोयानुप्रेक्षा, गाथा ३८८-८९. 113. आचार्य रविषेणकृत पद्मपुराण, पर्व 41, श्लोक ०2-05 । -मना– ? अनेकान्त 61,1 -५-५-४ 119 114. जो जाणदि अरहंत, दकतगुणत्तपज्जवरोहिं । सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्त लय । । (प्रवचनसार, गाथा 80) 115. अनित्यादिक एकांगी भावनाओं को भाना भी तभी कार्यकारी होता है जब साधक को अनेकान्तात्मक वस्तुस्वरूप का सम्यकरीत्या ज्ञान हो; क्योंकि अनित्य भावना का प्रयोजन असारभूत संयोगी पदार्थों से जीव को हटाकर उसे सदा-नित्य अपने आत्मस्वरूप में लगाना है; अशरणानुप्रेक्षा का उद्देश्य भी जीव को मिथ्याशरणरूप बाह्य आलम्बनों से विमुख करके पहले पंचपरमेष्ठीरूप व्यवहार-शरण में और अन्तत:, आत्मस्वभावरूप निश्चय-शरण में लाना है; इत्यादि । ज्ञातव्य है कि आचार्य कु-दकुन्द ने ‘बारस अणुबेक्खा’ में अनित्य, अशरण, अन्यत्व आदि अनुप्रेक्षाओं के निरूपण के अन्तर्गत, नित्य, शरण, एकत्व आदि के प्रतिपादन हेतु भी कम-से-कम एक दोहा अवश्य रचा है । इसी प्रकार, उपचरित नियति का आश्रय लेकर, निचली भूमिका वाले सम्यग्दृष्टि साधक का उद्देश्य पहले तो संयोगी स्थितियों में जुड़ रहे अपने परिणामों से स्वयं को उबारना है । तदनन्तर, नियतस्वरूप अपने इघयकस्वभाव के साथ पुन: पुन: एकानुभवन के द्वारा, समुचित आत्मबल बढ़ा लेने पर प्रतिइघपूर्वक महाव्रतादि को धारण करके, तपश्चरण-ध्यानादिरूप जो अनियतस्वरूप पुरुषार्थ है उसकी परम प्रकर्षता द्वारा, कर्मों की उनके उदयकाल से पहले बलात् उदीरणा करते हुए अविपाकनिर्जरा करके, मुक्ति को प्राप्त होकर, परमनियतस्वरूप अपनी शुद्धस्वभावपर्याय में सुस्थित होना है । अनेकान्तात्मक वस्तुतत्त्व के निरन्तर अभ्यास से ही इस तर्कसंगत परिणति तक पहुँचा जा सकता है, अन्यथा नहीं । 11. सन्दर्भ 47, पू० -96 117. न तत्त्वाभ्यासरूपी पुरुषार्थ की प्रगाढ़ता के द्वारा पैदा किये गए अबुद्धधात्मक चेतनपंरिणामरूप इघनसंस्कार औपशमिक सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के समय भी कार्य कर रहे होते हैं । दूसरे शब्दों में, उस काल में बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ तो कार्यकारी नहीं है, किन्तु तत्त्वाभ्यासरूपी बुद्धद्यात्मक पुरुषार्थ की सजानस्वरूप जो अबुद्धधात्मक इघनतंस्वगर हैं (देखिये ”इघनजो इघनहेतुश्च संस्कार:, ” सन्दर्भ 27 )’ वे उस समय भी कार्यरत हैं । इस दृष्टि से देखने पर, स्पष्ट है मोक्षमार्ग के बीजरूप जो सम्यग्दर्शन है, उसका वपन करने में भी पुरुषार्थ की ही प्रधानता है । ७ देखिये, सन्दर्भ 114 में उद्धृत प्रवचनसार की गाथा पर श्रीजयलेनीय वृत्ति का यह वाक्य : ”तदनजरम-अविकल्पस्वरूपे प्राप्ते… अभेदनयेन-आत्मा-एव-इति भावयतो दर्शनमोहान्धकार: प्रलीयते । ” 118. पूर्वकालवर्ती परिणामसहित द्रव्य कारणरूप होता है और उत्तरकालवर्ती परिणामसहित द्रव्य कार्यरूप होता है, यह ऊपर सन्दर्भ 1 ०6(ख) में देख आए हैं । इस दृष्टि में ‘ ‘कार्य और कारण में कोई भेद नहीं है; वे दोनों एकाकार ही हैं; जैसे, पर्व व अंगुली; यही द्रव्यार्थिक नय हे” राजवार्तिक, 173371) । इसके विपरीत, ऋजुअनय का विषय मात्र वर्तमानकालवर्ती होने से, कारणकार्यभाव इस नय के विषयक्षेत्र से बाहर है । अत: उत्पाद और व्यय, दोनों ही इस नय की अपेक्षा निर्हेतुक होते है । (जयधवला, सन्दर्भ 19 (क), पू० २०६-२९ 119. देखिये, सन्दर्भ 39. 12०. सर्वार्थसिद्धि, अ० 8, क 23. 121. इगनार्णव, सर्ग 35, छन्द 27 ?ं-? ? – 120 अनेकान्त 6171-2-3-4 . तत्त्वप्रदीपिका टीका, परिशिष्ट, क्रम सं० -। पर अकालनयविषयक निरूपण । ‘ .२’ – . (क) अष्टसहसी, कारिका 86, सन्दर्भ 9, पू० 257. (ख) अष्टसहसी, तृतीय भाग, कारिका 88, सन्दर्भ 9०, पू० १०………. 124. आप्तमीमांसा, कारिका ०8. . (क) श्रम (धातु) ८१० लूमत्ट टाइ1इ०ह’; 1०८२८१ ०ा1ट’8 ध्ट11ई, टदुहटp1ं811श्एं, टहाइ०ााा11ंा1ष्ट ८८५२ ०1rब्रण्ध०ा1ंा? (षेटी. 5, श्. १०५६ -८५: चेष्टा करना, तपश्चर्या करना, तपस्या के द्वारा इन्द्रियनिग्रह करना (सन्दर्भ 6, पू० 1०35) (ख) श्रम संज्ञा ८ टप्रटाा1ं०ा1; १८११ -रक्षा. ०1इ सा! दू?1ंा1०?, 88१७१ हटा1इ०1ंा1ष्ट ८६१५ ०ाइ Zं०Z?1ं1? रा1०ा’1ंहइ1ंप्प्त’1ं०ा१, १४१४१८०६५ टप्र०gp1ंD०दु द्वा1०? ब्र0धट[1ंा? (एटा. 5,9.१०५६ ८ चेष्टा, प्रयत्न, तपस्या, साधना, इन्द्रियनिग्रह (सन्दर्भ 6, पू० 1०35) (ग) ”श्राम्यति तपस्वतीति श्रमण:, तस्य भावं श्रामण्यं श्रमणशब्दस्य मुंसि प्रवृतिनिमित तपःक्रिया श्रमण. ।” (भगवती आराधना, गाथा -।, विजयोदया टीका) ८ ”पंचसमिदो तितो पंचेदियसबुडो जिदकसाओ । दसणणाणसमग्गो समणो सो संजदो भणिदो । । 24० । । समसलुबंधुवग्गो सेमसुहदुक्सो पसंसणिंदसमो । समलोडकंचणो पुण जीविदमरणे समां समणो । । 241 । ।” (प्रवचनसार) अर्थ जो पांच समितियों से सम्पन्न, तीन गुप्तियों से संरक्षित, पांच इन्द्रियों का संवर करने वाला, कषायों को जीतने वाला, दर्शन-ज्ञान से परिपूर्ण है, जिसे शत्रु और मित्रवर्ग समान हैं, सुख और दुःख समान हैं, प्रशंसा और निन्दा के प्रति जिसको समता है, जिसे लोष्ट यानी मिट्टी का ढेला और स्वर्ण समान हैं, तथा जीवन और मरण के प्रति जिसको समता है, ऐसे संयत को श्रमण कहा गया है ।
दी-13ा, विवेक विहार, दिल्ली 11००95 दूरभाष : (०11)6535 हैं3ा; 22156629
प्रस्तुति : अनिल अग्रवाल)