यहाँ से मरकर सम्यग्दृष्टि मनुष्य विदेह में जन्म क्यों नहीं लेंगे ?
यहाँ के इस कर्मभूमि में मनुष्य यदि सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर लेते हैं तो देवगति में ही जाते हैं। यदि पहले नरकायु बांध ली है पीछे सम्यग्दर्शन प्राप्त किया है तो वे प्रथम नरक में जायेंगे। यदि पहले तिर्यंचायु बांध ली है और पुन: सम्यग्दृष्टि हुये हैं तो वे उत्तम भोगभूमि में तिर्यंच होगे और यदि कदाचित् देव आयु बांध ली है अनंतर सम्यक्त्व प्राप्त किया है तो उत्तम भोगभूमि के ही मनुष्य होंगे। जैसा कि उदाहरण स्पष्ट है- विदेह क्षेत्र में रहने वाले जीवों ने पहले मनुष्यायु का बंध कर लिया अनंतर क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर लिया तो पुन: वे इस अवसर्पिणी काल के अंतर्गत तृतीय काल के अवसान समय वहाँ से आकर इसी धरा पर भोगभूमि के कुलकर हुये हैं। यथा- ‘‘प्रतिश्रुति१ से लेकर नाभिराज ये चौदह मनु पूर्वभव में विदेह क्षेत्र के भीतर महाकुल में राजकुमार थे। ये सभी राजकुमार संयम, तप और ज्ञान से युक्त सत्पात्रों को हमेशा आहारदान देने में कुशल, अपने योग्य अनुष्ठान से संयुक्त और मार्दव आदि गुणों से सहित होते हुए पूर्व में मिथ्यात्व भावना से भोगभूमि की आयु बांधकर पश्चात् जिनेन्द्र भगवान के चरणों के समीप क्षायिक सम्यक्त्व को ग्रहण करते हैं। अपने योग्य श्रुत को पढ़ कर इनमें से कितने की आयु के क्षीण होने पर अवधिज्ञान के साथ यहाँ भोगभूमि में मनुष्य हुये हैं। कितने ही बिना अवधिज्ञान के यहाँ भोगभूमि में जन्में हैं। पुन: ये ही अवधिज्ञानी अपने अवधिज्ञान से और अन्य अपने जातिस्मरण से मनुष्यों के जीवन का उपाय बतलाते हैं। इसीलिये ये ‘कुलकर’, मनु’ आदि कहलाते हैं।’’
प्रश्न – पहले यदि कोई जीव मनुष्यायु बांध कर सम्यग्दृष्टि होवे पुन: विदेह में जन्म ले लेवे तो क्या बाधा है ?
उत्तर – विदेह में शाश्वत कर्मभूमि ही है वहाँ पर उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी का परिवर्तन न होने से भोग-भूमि नहीं होती है अतएव पहले आयु बांधकर पुन: सम्यक्त्व प्रकट करने वाले जीव भी यहाँ से विदेहक्षेत्र में जन्म नहीं ले सकते हैं। मिथ्यात्व, हुंडकसंस्थान, नपुंसकवेद, असंप्राप्तसृपाटिका संहनन, एकेन्द्रिय, स्थावर, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी और नरक आयु ये सोलह प्रकृतियाँ बंध से व्युच्छिन्न हो जाती हैं अर्थात् पहले गुणस्थान तक ही इनका बंध होता है, आगे के दूसरे, तीसरे आदि गुणस्थानों में इनका बंध नहीं होता है। आगे दूसरे गुणस्थान के अंत में ३१ प्रकृतियाँ बंध से व्युच्छिन्न हो जाती हैं- उनके नाम – अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, दुर्भग, दु:स्वर, अनादेय, न्यग्रोधसंस्थान, स्वातिसंस्थान, कुब्जकसंस्थान, वामनसंस्थान, वङ्कानाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलकसंहनन, अप्रशस्तविहायोगति, स्त्रीवेद, नीचगोत्र, तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, उद्योत, तिर्यंचायु, वङ्कावृषभनाराच संहनन, औदारिकशरीर, औदारिकअंगोपांग, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और मनुष्यायु ये इकतीस प्रवृतियाँ दूसरे गुणस्थान से आगे नहीं बंधती हैं। ये १६ + ३१= ४७ सैंतालीस प्रकृतियाँ चतुर्थगुणस्थान में मनुष्य के नहीं बंधती हैं अत: यहाँ के मनुष्य यदि सम्यग्दृष्टि हैं तो विदेहक्षेत्र में नहीं जा सकते हैं और यदि विदेहक्षेत्र के मनुष्य सम्यग्दृष्टि हैं तो वे मरकर यहाँ भरतक्षेत्र और ऐरावतक्षेत्र के मनुष्य नहीं हो सकते हैं। वे देवायु का बंध कर देवगति को ही प्राप्त करते हैं। हाँ, वहाँ से अर्थात् देवगति से अवधिज्ञान के द्वारा भगवान का समवसरण विदेह क्षेत्र में समझकर वहाँ पर विक्रिया के बल से जाकर सीमंधर भगवान आदि तीर्थंकरों का दर्शन करते हैं। तिर्यंच भी यदि सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेते हैं तो वे देवगति में ही जाते हैं। यदि उन्होंने पहले ही नरक, तिर्यंच या मनुष्य आयु का बंध कर लिया है पुन: सम्यक्त्व प्राप्त किया है तो वे पहले नरक में, भोगभूमि के तिर्यंच में और भोगभूमि के मनुष्य में ही जन्म लेते हैं, कर्मभूमि में नहीं। देव और नारकी यदि सम्यग्दृष्टि हैं तो वे कर्मभूमि के ही मनुष्य होते हैं, भोगभूमि के नहीं चूँकि देवगति या नरकगति के जीव मरकर देवगति, नरकगति और भोगभूमि में नहीं जा सकते हैं, ऐसा नियम है। तात्पर्य यह निकला कि यदि हमें विदेहक्षेत्र में जन्म लेने की उत्कण्ठा है तो पहले सम्यक्त्व को छोड़ना पड़ेगा, पुन: वहाँ जाना होगा और यदि कदाचित् विदेह क्षेत्र में सम्यक्त्व की प्राप्ति न हो सकी है तो न जाने कितने काल तक चतुर्गति में परिभ्रमण करना पड़ेगा और यदि यहाँ पर सम्यक्त्व को न छोड़कर सल्लेखनापूर्वक मरण किया जावेगा तो नियम से देवपर्याय पाकर वहाँ पर भोगों में आसक्त न होकर समवसरण में जिनेन्द्रदेव का दर्शन, उनकी दिव्यध्वनि का श्रवण आदि का लाभ मिलता रहेगा और अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना आदि करके महान पुण्यसामग्री संचित करके आगे मनुष्यगति में आकर जैनेश्वरी दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त करने का अवसर मिल जावेगा इसलिये कथमपि सम्यक्त्व को छोड़ना उचित नहीं है।