लेखिका – गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी
दिगंबर गुरू श्री अकंपन आचार्य महाराज शहर और ग्रामों में विहार करते हुये उज्जयिनी नगरीके उद्यान में जाकर ठहर जाते है। उनके साथ सात सौ मुनियों का विषाल संघ है। इतने बडे़ संघ के अधिनायक आचार्य अपने निमित्तज्ञान से इस बातको जान लेते है कि यहाँ पर संघ के लिए कुछ अनिष्ट की सम्भावना है। तत्काल ही अपने सारे संघ को बुलाकर आदेश देते है। ’हे मुनियों! यहा पर राजा, मंत्री या कोई भी प्रतिष्ठित व्यक्ति अथवा सामान्य प्रजा के लोग कोई भी दर्शनार्थ क्यों न आवें, आप कोइ भी मुनि न तो उनके साथ कुछ वार्तालाप ही करना और न कुछ धर्म चर्चा ही । सभी मुनि मौन लेकर अपने आत्मतत्व का चिंतवन करों । यह मेरी आज्ञा है।’ सभी साधु बिना कुछ पूछे-ताछे ही गुरू की आज्ञा षिरोधार्य कर लेते हैं ओर प्रातः श्रावकों के दर्शन केसमय सब मौन लेकर ध्यान में जाते है। प्रातःकाल शहर में मुनिसंघ के आने का समाचार पहुचते ही सभी श्रावक हाथ में पूजा द्रव्य लेकर अपने-अपने घर चल पड़ते है और उद्यान में पहुचकर जय-जयकार करते हुए गुरूओं की वंदना करते है। कोई स्तोत्र पाठ करते है तो कोई अष्ट द्रव्य से गुरूओं के चरणकमलों की पूजा कर रहे है। प्रातःकाल की मधुर बेला में उज्जयिनी के शासक राजा श्रीवर्मा अपने महल की छत पर बैठे हुए हैं और उनके पास में ही उनके चारों मंत्री बैठे है। उनके नाम हैं-बलि, बृहस्पति, प्रहलाद और नमुचि । ये मंत्ररी राजनीति में निपुण होते हुए भी धर्म के कटटर शत्रु हैं और दिगम्बर मुनियों के प्रति बहुत ही द्वेष करने वाले है। राजा श्रीवर्मा जब महल से नीचे राजपथ पर दृष्टि डालते हैं तब देखते है कि बहुत से लोग हाथ में पूजन सामग्री लिए हुए उद्यान की ओर जा रहे है। वे कुतुहलवष मंत्रियों से पूछते है- ’हे मंत्रियों! आज ये सब लोग पूजन सामग्री हाथ में लिए हुए कहा जा रहे है ? मंत्री कहते है-’राजन् अभी यहा आते हुए हमने सुना हैं कि अपने शहर के बगीचे में नित्य ही नंगे रहने वाले साधु आए हुए है । ये सब लोग उन्हीं के दर्ष करने जा रहे है।” राजा प्रसन्न होकर कहते है।’’मंत्रियों ! हमें भी चलकर उनके दर्शन करना चाहिए । वे महापुरूष होंगें। मन्त्री कहते है-’राजन! ये नंगे साधु कुछ ज्ञान नहीं रखते हैं, मूर्ख होते है। इनके दर्शन से कुछ भी फल नही मिलता है।”राजा मुस्कराते हुए कहते है’’मन्त्रीगण ! जो भी हो, हमें उनके दर्शन की तीव्र उत्कण्ठा हो रही है। अतः हम तो दर्शन करने जायेंगे ही।’’ तब चारों मंत्री भी राजा के साथ-साथ चल पडते है। वहा पहुँचकर राजा मुनियों को देखकर दूर से ही अपने वाहन से उतरकर पैदल चलकर उनके निकट पहुँच कर बहुत ही प्रसन्न हो जाते है। पुनः क्रम-क्रम से एक एक मुनि को नमस्कार करते चले जाते है। परन्तु उस समय कोई भी मुनि न तो हाथ उठाकर राजा को आषीर्वाद ही देते हैं और न दृष्टि उठाकर उनकी ओर देखते ही है। गुरू की आज्ञानुसार सब ध्यान मुद्रा में स्थित है। आषीर्वाद के न मिलने से भी राजा उन वीतरागी निग्र्रंथ गुरूओं का दर्ष करके अपने जीवन को धन्य समझ रहे है, किन्तु बीच-बीच में वह मंत्री बोलते ही जा रहे है। ’’देखिए राजन् ् मैने आपको पहले ही कहा था कि ये नंगे साधु कुछ बोलना नही जानते है, अतः अपनी पोल न खुल जाय इसीलिए ये सब ध्यान ध्यान का ढोंग लेकर बैठ गये है।“ राजा मंत्रियों की बात को सुनी अनसुनी करके भक्तिपूर्वक पुनः सबको नमस्कार करते हैं और पुनः वापस अपने महल की ओर चले आ रहे है। मन्त्रीगण परस्पर में यही चर्चा करते आ रहे है कि- “देखो ! ये बेचारे बोलना तक भी नही जानते हैं सब निरे मूर्ख है।“ “यही तो कारण है कि सब मौनी बने बैठे हुए है।“ “इन्हे देखकर बेचारे साधारण लोग तो यही समझेगे कि ये सब आत्मध्यान में निमग्न है।“ “ओह ! कितना बड़ा कपटजाल रच रखा है इन ढोगी साधुओं ने ?“ “देखो तो सही, ये भोली समाज को धोखा देने में कितने कुषल है। “सचमुच में ये बडे दांभिक है।“
इस प्रकार त्रैलोक्य पूज्य, परम शान्त उन वीतरागी मुनियों की निन्दा करते हुये ये धर्मद्रोही राजा के साथ वापस लौट रहे हैं कि मध्य में ही इन्हें सामने से आते हुए एक मुनि दृष्टिगोचर हो जाते है। तब वे चारों ही मन्त्री उनकी हँसी करते हुए कहते है- “महाराज ! देखिए, यह एक बैल पेट भरकर चला आ रहा “ इतना सुनते ही वे मुनिराज समझ जाते है कि ये मन्त्री वाद-विवाद करने के इच्छुक है। उसी समय मुनिराज वहाँ पर कुछ रूक जाते है और पूछ लेते है- “कहो ! बैल का लक्षण कया है?“ इतना प्रष्न आते ही वे चारों अभिमानी मुनि के साथ शास्त्रार्थ करना शुरू कर देते है। वे मुनिराज बहुत बडे ज्ञानी हैं, श्रुतसागर उनका नाम है, यथानाम तथागुण के अनुसार वे लीलामात्र में ही उन चारों मन्त्रियों को पराजित कर निरूत्तर कर देते हैं, तब वे बेचारे झेंप जाते हैं और राजा प्रसन्नचित हो मुनिराज को पुनःपुनः नमस्कार करके उनके वाकचातुर्य व समीचीन ज्ञान की प्रषंसा करते हुए अपने महल वापस आ जाते है। उधर मुनिराज श्रुतसागर आचार्यदेव के चरण सानिध्य में पहुॅचकर वन्दना करके गोचरी प्रतिक्रमण करते हैं पुनः प्रत्याख्यान ग्रहण कर गुरू के पादमूल में बैठकर विनयपूर्वक मार्ग में राजा के साथ मंन्त्रियों से हुई शास्त्रार्थ की सारी बातों को सुना देते है। सुनकर गुरूदेव कहते है-“ओह ! बहुत ही बुरा हुआ, तुमने अपने हाथों से सारे ही संघ का घात कर लिया, संघ की अब कुषल नही है।“ श्रुतसागर मुनि घबड़ाकर हाथ जोड़कर पूछते है -गुरूदेव ! सो कैसे ? आचार्यश्री कहते है -“मैने जब प्रातः सभी मुनियों को किसी से न बोलने का आदेष दिया था तब तुम उपस्थित नहीं थे सो तुम्हें मालूम नही था अतः तुमने इस धर्मद्रोही राजमन्त्रियो के साथ शास्त्रार्थ कर लिया है सो अच्छा नही हुआ है। श्रुतसागर जी पूछते है-“गुरूदेव ! मेरे से अनजाने में बहुत बड़ा अपराध हो गया है अब संघ पर कोई विपत्ति न आ जाय उसके पहले ही आप हमें उचित प्रायष्चित दे दीजिए“ आचार्यदेव कहते है-“हे मुने ! यदि तुम सर्वसंघ की कुषल चाहते हो तो वापस पीछे जाओं जहा पर मंत्रियो के साथ शास्त्रार्थ किया है तुम अकेले उसी स्थान पर कायोत्सर्ग मुद्रा से ध्यान में स्थित हो जावो।“आचार्यदेव की आज्ञा पाकर श्रुतसागर तत्क्षण ही गुरू के पादमूल की वंदना कर वहा से वापस आकर उसी स्थान पर ध्यान मग्न हो खडे़ हो जाते हैं। ग्रन्थकार कहते हं कि-“सचमुच में-
शिष्यास्तेऽत्र प्रषयन्ते ये कुर्वति गुरोर्वचः। प्रीतितो विनयोपेता भवन्त्यन्ते कुपुत्रवत् ।।
सिष्य वे ही प्रषंसा के पात्रं हैं जो विनयपूर्वक बडे़ प्रेम से गुरू की आज्ञा का पालन करते है । इसके विपरीत जो षिष्य होते हैं वे कुपुत्र के समान निंदा के पात्र है।
राजा के सामने एक नंग साधु से शास्त्रार्थ में पराजित होकर वे चारों मंत्री बहुत ही लज्जित हुए अपने घर आ जाते हैं और अपने मान भंग का बदला चुकाने के लिए एक साथ बैठकर मत्रणा करना शुरू कर देते है। मंत्रणा करके मुनि वध करने का निर्णय लेकर वे चारों ही रात्रि के समय हाथ में नंगी तलवार लेकर शहर से बाहर आ जाते है और मुनिसंघ के उद्यान की ओर चल पड़ते है। मार्ग में ही वे एक मुनि को ध्यान में खड़े देखकर निकट जाकर पहचानते है। पुनः कहते है-अहो ! यह वही दुष्ट है जिसने हमें शास्त्रार्थ मे हराया है। पहले इसी का काम तमाम करो फिर आगे बढों।’हाँ हाँ सच में दोषी तो यही है ओर सब बेचारे तो कुछ बोले भी नही थे।’’बस, क्या देखते हो ? एक साथ तलवार का वार करके इसकी गर्दन उड़ा दो ।’इतना कहते ही वे चारों क्रूरकर्मा क्रोध से भरकर हो एक साथ तलवार उठाकर गर्दन पर चलाना चाहते हैं कि मध्य में ही नगर के देवता का आसन कंपते ही उसी समय वह आकर उन चारों को वैसे ही तलवार उठाये मुद्रा में उसी जगह कील देते है । वे चारों उस क्रूरमुद्रा में जैसे के तैसे वहीं पर खडे़ रह जाते है। किंचित मात्र भी टस से मस नहीं हो पाते है। अब वे म नही मन सोचने लगते है- ’ओह ! यह क्या हुआ? अब प्रातः कया होगा ? प्रातःकाल होते ही बिजली की तरह यह खबर सारे शहर में फैल जाती है। तभी सारा शहर यह कुतूहलपूर्ण दृष्य देखने के लिए उमड पडता है। सभी लोग एक स्वर में मंत्रियों को धिक्कारते हुए कहते है-’अरे, रे! इन पापियों को धिक्कार हो, धिक्कार हो,! अरे जब साधारण क्षुद्र प्राणी की हिंसा करना भी महापाप है, तो भला इन जगत्पूज्य महासाधुओं की हिंसा करना महापाप क्यो नही होगा ? तभी देवो ने इन्हे कील दिया है । ’अच्छा ही हुआ, तभी तो लोग पाप करने से डरेंगे। पाप का फल परलोक में तो दुःख देता ही है इस लोक में भी दुःख, अपयक्ष और अपमान को कराने वाला है।’ ’ओह ! इन दुष्टो ने जैसा किया उसका फल इन्हें लगे हाथ ही मिल गया।’’
इसी बीच महाराजा श्रीवर्मा भी अपनी रानी श्रीमती केसाथ वहाँ पर आ जाते हैं जहाँ पर इतनी भीड़ इकटठी हुई है । राजा ऐसा दृष्य देखकर बहुत खेद के साथ कहते है-’ अरे पापियों ! तुमने संसार के महाउपकारी और निर्दोष ऐसे महामुनियों के साथ यह क्या किया? अरे! पहले ही तुमने उनकी निंदा कर हमें उनके दर्षनों से रोकना चाहा, पुनः वहाँ पहुँच कर उउन परम तपस्वी साधुओं की हॅंसी की, निन्दा की । इतने पर भी संतोष नही हुआ तो मार्ग में आते हुए मुनि की अवहेलना कर उनके साथ शास्त्रार्थ किया । इसके प्ष्चात् तो तुम उनके विषाल ज्ञान को समझ चुके थे फिर भी तुम लोगों ने उनको कारने का यह षड़यंत्र क्यों बनाया ?’ तभी पुरदेवता उन्हें छोड देते है और गुरू श्रुतसागर के चरणों की बहुत ही भक्ति से पूजा करते है। तब राजा उन मस्तक नीचा किए हुए मंत्रियों से पुनः कहते है- ’अरे दुष्टों ! तुम्हारा मुख देखना भी महापाप है। तुम्हे इस मुनि हत्या के महापाप का दण्ड तो मुझ राजा को देना ही चाहिए। तुम्हारे लिए उपयुक्त दण्ड तो यही है कि जैसा तुम करना चाहते थे वही तुम्हारे लिए किया जावे । ’’’’ फिर भी पापियों ! तुम्हारी कितनी ही पीढि़या मेरे यहा मंत्रीपद पर प्रतिष्ठा पा चुकी हैं इसीलिए मैं तुम्हें प्राणों का अभय दे रहा हू । पुनः राजा अपने कर्मचारियों से कहते है-’कर्मचारियों ! तुम इन चारों को ले जाकर गधे पर बिठाकर इन्हें अपने देष की सीमा से बाहर निकाल दो। उसी समय राजाज्ञा का पालन किया जाता है । सारे शहर के लोग उधर उन मंत्रियों की निंदा कर रहे हैं । और इधर महामुनि श्रुतसागर के तपष्वरण के पुण्य-प्रभाव की प्रषंसा कर रहे हैं । मुनि के साथ-साथ आचार्यदेव श्री अकंपनाचार्य के चरण सानिध्य मं पहुचकर जयकारो की ध्वनि से आकाष को मुखरित कर रहे है। आचार्यदेव भी इस प्रकार से आने वाली संघ की आपत्ति टल जाने से संतुष्ट दिख रहे हैं और संघ के सभी साधु गुरू के अनुषासन का प्रत्यक्ष सुखद अनुभव प्राप्त कर चुके गुरू के अनुषास्य षिष्य होने से अपने आपको गौरवान्वित कर रहे है।
हस्तिनापुर के राजा महापदम अपने बडे पुत्र पद्य को राज्य देकर छोटे पुत्र विष्णुकुमार से युवराज पद के भार ग्रहर करने हेतु समझाा रहे हैं किन्तु विष्णुकुमार कहते है- “पूज्य पिताजी ! जिस राज्य ओर सांसारिक वैभव को छोडकर आप दीक्षा लेना चाहते हैं वह राज व वैभव हमारे लिए भी हितकर कैसे हो सकता है? अतः निर्वाण सुख की प्राप्ति के लिये मैं भी आपके साथ जैनेष्वरी दीक्षा ग्रहण करूगा। तब दोनों ही पिता-पुत्र वन में जाकर महामुनि श्रुतसागरसूरि के चरण सानिध्य में पहुचते हैं और उनके कर कमलों से जैनेष्वरी दीक्षा लेकर घोरातिघोर तपष्चरण करना शुरू कर देते है। इधर पह्म महाराज राज्य सिंहासन पर आरूढ़ हो प्रजा का पुत्रवत पालन कर रहे है। उज्जयिनी से निकाले जाने पर वे बलि आदि चारों मंत्री यहाँ आकर वाक्चतुराई से राजा के यहाँ मंत्रीपद को प्राप्त कर लेते हैं । किसी समय राजा को चिंतित देख उसका कारण ज्ञातकर राजा से निवेदन करते है। “राजन् ! यह सिंहबल राजा किस अभिमान में है? भला जो आपके राज्यषासन में आतंक मचा रहा है और आपके वष में न होकर आपको चिन्तित कर रखा है। आप हमें आज्ञा दीजिए, हम उसे जीवित ही पकड़कर आपके सामने उपस्थित कर देगें। “ राजा उनकी बातों से प्रसन्न हो उनके साथ बहुत सी सेना दे देते है । व चारां मंत्री कुम्भपुर नगर पर चढ़ाई कर अपने बुद्धिबल से सिंहबल को जीवित ही पकडकर बाधकर हस्तिनापुर लाकर राजा पह्म के सामने खडा कर देते है। राजा पह्म इन मंत्रियों की इस कार्य कुषलता से प्रसन्न हो उन्हें वर मागने को कहते हैं तब मंत्रीगण निवेदन करते है। “महाराज ! अभी हमारा वर आप धरोहर रूप में अपने पास ही रहने दीजिए, आवष्यकतानुसार हम ले लेंगें ।
इसी समय अकंपनाचार्य महामुनि अपने सात सौ मुनियों के साथ बिहार करते हुए यहा आकर हस्तिनापुर के बाहर उद्यान में ठहर जाते हैं और वर्षायोग का समय ज्ञातकर वर्षायोग नियम ग्रहण कर लेते हैं । श्रावक लोग संघ की उपासना के लिए प्रतिदिन उनकी वंदना, पूजा, भक्ति आदि करना शुरू कर देते है। “श्री अकंपनाचार्य महामुनि संघ सहित यहा आये है“ यह समाचार मंत्रियों को मिलत ही उन्हें अपने अपमान की बात याद आ जाती है। उन चारों का हृदय प्रतिहिंसा की भावना से उद्विग्न हो उठता है। वे चारों एकांत में परस्पर में विचार करते है- “अहो ! यही समय उपयुक्त हैं इनसे बदला चुकाने का, इन्हीं दुष्टों के क्षरा अपने को कितना दुःख उठाना पड़ा है।? सभी लोगों के बीच में हमें धिक्कारा गया है और उज्जयिनी से अपमानित होकर देष निकाले का दण्ड दिया है। देखो, राजा पद्म इनके परम भक्त हैं, वे अपने शासन में इनका अहित कैसे होने देंगे ? तभी बलि मंत्री कहता है।-“सुनो, हम लोगों ने सिंहबल को जीत लेने पर राजा से जो वर प्राप्त किया था, वह राजा के पास सुरक्षित है। इन मुनियों का काम तमाम करने के लिए हमें राजा से सात दिन का राज्य प्राप्त कर लेना चाहिए।“तीनों मंत्री प्रसन्न होकर बलि के बुद्धि चातुर्य की सराहना करते है और कहते है-“ठीक ठीक, बहुत ठीक फिर तो जैसा हम करेगे वैसा ही होगा । राजा के हाथ में कुछ भी अधिकर नही रह जायेगा ।
“ये मंत्री उसी समय राजा के पास पहुचकर निवेदन करते है-“हे राजन ! जो हमें वर देना चाहते थे, सो आज हमें आवष्यकता है।“राजा कहते है-“कहो, आप लोगों को क्या चाहिए? मैं वचनबद्ध हू आप जो मागोगे सो देने को तैयार हू।“ तब बलि कहता है-“महाराज ! हमं सात दिन के लिए अपना राज्य प्रदान कीजियें। “राजा पदम ऐसा सुनते ही अवाक रह जाते हैं उनके मन में कुछ अनर्थ की आषंका हो जाती हैं किन्तु अब वे कर ही क्या सकते थे ? वे वचनबद्ध थे अतः उन्हें राज्य देना ही पडा। राजा उन मंत्रियों को राज्य सौपकर स्वयं सातदिन के लिए अपने घर पर आकर निवास कर रहे है। इधर ये दुष्ट मंत्री राज्य पाकर अत्यधिक प्रसन्न होते है और एकांत में परामर्ष कर मुनियों के मारने के लिए महायज्ञ का बहाना बनाकर षड़यंत्र रचते हैं जिससे कि सर्व साधारण लोग कुछ न समझ सकें।
उस समय वे मंत्री मुनियों के बीच में रखकर उनके चारों तरफ एक बहुत बडा मंडप तैयार कराते है। उनके चारों तरफ लकडि़यों का ढेर इकटठा करवा देते हैं, वकरी, भेडे आदि हजारों पशु वहीं बाड़ा बनवाकर बंधवा देते है। और यह घोषणा करा देते हैं कि देष तथा राज्य की शांति के लिए ’पशुमेघ यज्ञ प्रारम्भ किया है। तमाम वेद-वेदांग पारंगत विद्वान यज्ञ कराने के लिए वहा आकर ठहर जाते है। और वेद ध्वनि से यज्ञ मण्डप को गुंजायमान कर देते है। बेचारे निपराध पशुओं को निर्दयतापूर्वक मारा जा रहा है । मंत्रोचारपूर्वक पशुओं की आहुतियां दी जा रही है। देखते -देखते दुर्गधित धुएं से सारा आकाष परिपूर्ण हो जाता है। श्री अकंपनाचार्य महाराज और सभी सात सौ मुनिगण इस दुर्घटना को देखकर अपने ऊपर उपसर्ग समझ लेते है। तब वे सब महामुनि अपने संयम की रक्षा हेतु आगम विधि के अनुसार सल्लेखना ग्रहण कर लेते है। अर्थात -“यदि मैं इस उपसर्ग में जीवित बचूगा तो पुनः अन्न जल ग्रहण करूगा । अन्यथा इस उपसर्ग के न हटने तक मेरे चारों प्रकार के आहार का त्याग है। “इस प्रकार की प्रतिज्ञा कर लेना नियम सल्लेखना है तथा बचने की संभावना न होने पर जीवन भर के लिए चतुराहार त्याग करना यमसल्लेखना है। उपरर्युक्त प्रकार से नियम सल्लेखना लेकर सभी साधु शरीर से निर्मम होते हुए बारह भावनाओं के चिंतन में तल्लीन हो जाते है । चारों तरफ से अग्नि की लपट ओर पशुओं की आहुति से उत्पन्न होने वाले दुर्गधिंत धुयें से सभी मुनियों के शरीर में तथा कण्ठ में घोर वेदना हो रही है। दिगंबर मुनियों की चर्या ऐसी ही है कि ऐसे उपसर्ग के समय न वे उठकर कहीं अन्यत्र गमन कर सकते हैं, न कुछ प्रतीकार ही कर सकते हैं वे तो मात्र आगम की आज्ञा के अनुसार ऐसे कष्टों को उपसर्ग समझकर सहन करते हुए सल्लेखना की ही शरण ले लेते है। और शत्रुओं पर क्रोध, कषाय न करते हुए पूर्ण क्षमा धारण करते है। आज भी दिगंबर जैन मुनि किसी भी प्रकार के पर के क्षरा किये गए असि प्रहार आदि उपसर्गो के आ जाने पर क्षमा भाव से सहन करते हुए देखे जाते है।
वे सभी मुनि विचार कर रहे हैं-“अहा ! जब पांच सौ मुनियों को घानी में पेल दिया गया था तब उन्हें कैसी वेदना हुई होगी ? यह अग्निकाण्ड के द्वारा होने वाले उपसर्ग शरीर को ही तो नष्ट करेंगा मेरी आत्मा को नही, क्योकि आत्मा तो अमर अजर है, अविनाषी है।
न मे मृत्युः कुतो भीतिः न मे व्याधिः कुतो व्यथा ।
नाहं बालो न वृद्धोऽहं न युवैतानि पुद्गले ।।
मेरी आत्मा को मृत्यु नही है तो भय किसको? मेरी आत्मा को व्याधि नही तो पीडा किसको ? न मैं बालक हू, न युवा हू, न वृद्ध हू, ये तो पुद्गल की पर्यायें है।“ इस प्रकार से आध्यात्मिक भावना को भाते हुए वे सभी मुनि पर्वत के समान अकंप होकर निष्चल शरीर करके तिष्ठे हुए है। जब अधिक वेदना का अनुभव होने लगता है तब वे मुनि अपनी आत्मा को संबोधन करते है- “हे आत्मन ! जब कभी तू नरक में गया है तो कैसी वेदनाऐं भोगी हैं ? उनका स्मरण कर । अरे ! वहा करांत से चीरा जाना, कुम्भीपाक में पकाया जाना, तिल-तिल बराबर टुकडे किए जाना, मुदगरों से पीटे जाना आदि भयंकर कष्ट भोगे है। पशुयोनि में भी बलि और अग्नि आहुति कितने कष्ट भोगे है? छेदन, भेदन मारने, पीटने हिंसकों, व्याघों क्षरा मारे जाने काटे जाने, शस्त्रों से छिन्न भिन्न किए जाने आदि के कितने कष्ट भोगे हैं ? मनुष्ययोनि में भी गर्भवास में नव महीने रहने के कितने कष्ट भोगे है ? यदि अब संसार के दुःखों से छुटकारा पाना है तो इस उपसर्ग को शांतिपूर्वक सहन करों । कि जिससे पुनःपुनः संसार संसार में जन्म न लेना पडे ।“ इत्यादि प्रकार से ये मुनि उपसर्ग सहन कर रहे है। इधर जब हस्तिनापुर नगर के श्रावक-श्राविकाए मुनियों के ऊपर ऐसा उपसर्ग देखते है तो दहल उठते हैं । हा-हा कार करने लगते है। परन्तु अब वे लोग कर ही क्या सकते हैं ? दुःखी प्रजा राजा की शरण में जाती है किन्तु जब राजगददी पर आसीन होकर राजा ही ऐसा अनर्थ कर रहा है तब बेचारी प्रजा किंकत्र्तव्य विमूढ़ हो गई है। बहुत से श्रावक मुनियों केइस भयंकर उपसर्ग के दूर होने तक के लिए कुछ न कुछ वस्तु का त्याग कर बैठ गये है। कुछ श्रावक उपसर्ग निवारण हेतु उपायों को सोच-सोच पुनः कुछ मार्ग न देखकर आखों से अश्रु गिरा रहे है। इधर बलि, वृहस्पति, प्रहलाद और नमूचि ये चारों दुष्टात्मा राज्य को प्राप्तकर फूले नही समा रहे है और मुनियों को मारने के लिए यज्ञ विधि का आयोजन करके किमिच्छक दान बाट रहे है। राजा पदम का कोष खोल दिया है और सारे शहर मं घोषणा कर दी है कि – ’महायज्ञ के अवसर पर सभीको मुह मागे सुवर्ण, धन और रत्न आदि दिए जा रहे है। जिसको जो चाहिए सो माग लो और कई पीढियों तक के लिए दरिद्रता को समाप्त कर दों ।’ धन के लोभी, दरिद्री और अनाथ लोग ऐसी दान की घोषणा सुनकर चारों तरफ से चले आ रहे हैं और मनचाहे धन सुवर्ण, रत्न आदि प्राप्त कर खुषियाॅं मना रहे है। भला उन बेचारों को मुनियों के इस अग्नि उपसर्ग के कष्ट की क्या कल्पना ?मानो इस मुनि उपसर्ग को न देख सकने के ही कारण सूर्यदेव अस्ताचल को प्राप्त हो गये है। हस्तिनापुर निवासी सज्जन लेाग चिंतातुर हो सोच रहे है-’अहो ! मनुष्यों के हाथ से राज्य क्रूर राक्षसों के हाथ में चला गया ह अब क्या होगा ? त्रिभुवन पूज्य इन गुरूओं की रक्षा कैसे होगी ? हे नाथ ! हे जिनेन्द्रदेव ! हे भगवन ! इस भंयकर स्थिति मे अब इन महामुनियों के लिए आप ही शरण है। हे भगवन्! रक्षा करो, रक्षा करो !“ चारों तरफ से ऐसी आवाज उठ रही है।-
मिथिला नगरी के बाहर उद्यान में श्री श्रुतसागरमुनि रात्रि के समय ध्यान में स्थित है। अर्धरात्रि के अनंतर वे ध्यान को विसर्जित कर आकाष की ओर दृष्टिगत करते है। तो देखते है ’श्रवण नक्षत्र कंपायमान हो रहा है’ नक्षत्र कंपते हुए देखकर अपने निमित्तज्ञान से विचारते है और सहसा मुख से बोल पड़ते है- “हाय ! हाय !“पास में ही पुष्पदंत नाम के क्षुल्लक जी बैठे हुए थे, वे गुरू के मुख से सहसा “हाय, हाय,’षब्द सुनकर घबराकर पूछते है- भगवन! क्या हुआ, क्या हुआ !।श्रुतसागरसूरि कहते है-’मुनियों पर बहुत बड़ा उपसर्ग हो रहा है।’ क्षुल्लकजी पूछते है-’प्रभो ! यह उपसर्ग कहा हो रहा है?’ सूरि कहते है-’हस्तिनापुर में सात सो मुनियों का संघ ठहरा हुआ है। उस संघ के नायक श्री अकंपनाचार्य महामुनि हैं । उस सारे संघ पर पापी बलि के द्वारा यह उपसर्ग किया जा रहा है।क्षुल्लकजी पूछते है-“प्रभो ! ऐसा क्या उपाय है कि जिससे यह उपसर्ग दूर हो ?’’’’सूरि कहते है- “हा एक उपाय है । श्री विष्णुकुमार मुनि को विक्रियाऋद्धि प्राप्त हो गई है। ये अपनी ऋद्धि के बल से इस उपसर्ग का निवारण कर सकते है।“क्षुल्लक पुनः पूछते है-भगवन वे मुनि इस समय कहां पर विराजमान है।?“सूरि कहते है-वे उज्जयिनी नगरी के बाहर एक गुफा में स्थित है।“तब पुनः क्षुल्लक विनय से प्रार्थना करते है-प्रभो मुझे जाने की आज्ञा दीजिए ।“ गुरू की आज्ञा पाकर पुष्पदन्त क्षुल्लक तत्क्षण ही अपनी आकाषगामी विद्या के बल से मुनि विष्णुकुमार के चरण सानिध्य में पहुॅंचकर नमोऽस्तु करते है और श्री श्रुतसागर सूरि द्वारा कथित सारा समाचार सुना देते है। तब विष्णुकुमार मुनि आष्चर्य से सोचते है- ’अहो ! क्या मुझे विक्रियाऋद्धि प्राप्त हो चुकी है ?’ इतना सोचकर तत्क्षण ही परीक्षा के लिए अपना हाथ पसारते है तो वह हाथ गुफा से बाहर निकलकर अनुक पर्वत आदि को भेदन करता हुआ बहुत दूर तक चला जाता है। विष्णुकुमार मुनि उसी क्षण विक्रियाऋद्धि के बल से आकाष मार्ग से वहा से चलकर शीघ्र ही हस्तिनापुर आ जाते हैं और अपने बडे भाई राजा पदम के राजमहल में पहुच जाते है। मुनि विष्णुकुमार को आते हुए देखकर सहसा राजा पदम उठकर सामने बढ़कर साष्टांग नमस्कार करते है पुनः उच्च आसन पर विराजमान करते है। विष्णुकुमार मुनि कहते है- ’हे भाई ! तुम किस नींद में सा रहे हो ? क्या तुम्हे पता है कि शहर में कितना भारी अनर्थ हो रहा है? अरे अपने राज्य मंे तुमने ऐसा अनर्थ क्यो होने दिया ? क्या पहले अपने कुल में किसी ने आज तक ऐसा मुनि घातक घोर पाप किया है ? हाय ! हाय !! धर्म के अवतार परमषांत ऐसे इन मुनियों पर ऐसा अत्याचार ? और वह भी तुम सरीखे धर्मात्माओं के राज्य में ? बडे़े खेद की बात है, भाई ! राजाओ का धर्म तो यही हैे कि सज्जनो की, धर्मात्मओं की रक्षा करना और दुष्टों को दण्ड देना, पर तुमने तो इससे बिल्कुल उल्टा कर रखा है । समझते हो, साधुओं को सताना ठीक नहीं । देखो ! जल का स्वभाव ठंडा है फिर भी वह जब अति गरम हो जाता हैं तब शरीर को जला देता है। इसलिए जब तक कोई आपत्ति तुम पर न आ जावे, उसके पहले ही इस उपसर्ग की शान्ति करवा दीजियें । अपने पूज्य भरता श्री विष्णुकुमार मुनि का उपदेष सुनकर राजा पदम हाथ जोडकर कहते है-
भगवान ! मै क्या करू ? मुझे क्या मालूम था कि ये पापी लोग मिलकर मुझे ऐसा धोखा देगें ? अब तो मैं बिल्कुल विवष हू । मैं कुछ भी नही कर सकता । क्योंकि मैं वचनबद्ध हो चुका हू, सात दिन तक के लिए अपना राज्य दे चुका हू । हेे महामुने ! अब तो आप ही इस कार्य में समर्थ है। आप ही किसी उपाय द्वारा मुनियों का उपसर्ग दूर कीजिए । इसमें आपके लिए मेरा कुछ कहता तो सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। अब आप शीघ्र ही कुछ उपाय कीजिए । इतना सुनकर विष्णुकुमार मुनि विक्रियाऋद्धि के प्रभाव से बामन का अवतार ब्राह्मण का वेष बनाते है। कंधे पर जनेऊ लटका कर बगल मकें वेदषास्त्रों को दबाकर बड़ी मधुरता से वेद की ऋचाओं का उच्चारण करते हुए वहा यज्ञ मंडप में पहुच जाते है। यज्ञ के सभा मंडप में वामन ब्राह्मण को आते हुए देख बलि आदि मंत्री आगे बढ़कर उनका सम्मान करते हुए बहुत ही प्रसन्न हो जाते है। बलि राजा (मंत्री) तो उन पर इतना प्रसन्न हो जाता है कि वह आनंद विभोर हो जाता है। पुनः गद्गद् वाणी में कहता है-
’महाराज ! आपने यहा पधार कर मेरे यज्ञ की अपूर्व शोभा कर दी है, मैं बहुत ही प्रसन्न हू। अतः अरनकी जरे इच्छा हो, सो मागिए । इस समय मैं सब कुछ देने में समर्थ हू । वामन विष्णु कहते है-’मैं एक गरीब ब्राह्मण हॅंू। मुझे अपनी स्थिति में ही संतोष है। मुझे धन-दौलत की कुछ आवष्यकता नही है। पर आपका जब इतना आग्रह है , तो मैं आपको असंतुष्ट करना भी नही चाहता । मुझे केवल तीन पैंड पृथ्वी की आवष्यकता है।यदि आप उतनी भूमि मुझे दे देंगे तो मैं उसी में अपनी झोंपडी बनाकर रह जाऊॅंगा और निराकुलता से वेदाध्ययन आदि करता रहूगा । बस, इसके सिवाय मुझे और कुछ नही चाहिए । ’ उस बामन की यह तुच्छ याचना सुनकर पास में खडे़ हुए अन्य लोग आष्चर्य करने लगते है। कुछ लोग हॅंस पड़ते हैं और कुछ लोग खेद व्यक्त करते है। पुनः कुछ ब्राह्मण कहते है- “कूपानाथ ! आपको थोडे़ में सन्तोष था सो ठीक, फिर भी आपका तो यह कत्र्तव्य था कि आप बहुत कुछ मांगकर अपने जातीय भाइयों का उपकार कर देते ? भला उसमें आपका क्या बिगड़ जाता ?“बलि महाराज भी उन्हे खूब समझाते हैं और पुनःपुनः कहते है-“हे वामनावतार ! हे भूदेव ! आप और अधिक मागिये। अहो ! मेरे कोष में इस समय अतुल धनराषि भरी हुई है । कम से कम हमारे वैभव के अनुरूप तो आपको मागना ही चाहिये।“ किन्तु वामन महाराज पूर्णरूप से अन्य कुछ मागने की अपनी अनिच्छा ही रखते हैं और कहते है- “राजन ! यदि देना है तो दे दो अन्यथा मैं अन्यत्र चला जाऊॅंगा, क्योंकि मुझे तो मात्र तीन पैंड धरती ही चाहिये ।“ तब बलि कहता है-’हे पूज्य ! आज मुझे बहुत शर्मिन्दा कर रहे हैं । आपकी इस तुच्छ याचना से मुझे बहुत ही असंतोष है फिर भी यदि आप आगे कुछ नही माॅंगना चाहते है तो ठीक, जैसी आपकी इच्छा। अच्छा! ते आप स्वयं अपने ही पैरों से पृथ्वी माप लीजिए ।’ इतना कहकर बलि महाराज जल की भरी सुवर्ण झारी उठा कर दान का संकल्प करते हुए वामन विष्णुकुमार के हाथ पर जल-धारा डाल देते हैं । और संकल्प होते ही वामन वेषधारी विष्णुकुमार पृथ्वी को मापने के लिए अपना पहला पाव उठाकर सुमेरू पर्वत पर रखते हैं, दूसरा पैर उठाकर मानुषोत्तर पर्वत पर रखते हैं पुनः तीसरा पैरा उठाते हैं औैर उन्हें आगे बढ़ने की कही जगह ही नहीं दिखती है तो वे कहा रखें ? तब वह तीसरा पाव आकाष में ही उठा रह जाता है।
उनके इस प्रभाव से सारी पृथ्वी काप उठती है, सभी पर्वत चलायमान हो जाते है, सभी समुद्र मर्यादा तोड़ देते है और उनका जल बाहर उद्वेलित होकर बहने लगता है। देवों के विमान एक से एक टकराने लगते हैं और देवगण सहसा आष्चर्य से चकित हो जाते है। पुनः तत्क्षण ही देवगण अपने अवधिज्ञान से सारा समाचार ज्ञातकर वहाॅं आकर दैत्यकर्मा बलि को बाधकर मुनि विष्णुकुमार से कहते है-’प्रभो ! क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए !!’’ इस प्रकार चारों तरफ से आकाष में उपस्थित देवगण एक साथ शब्दो का उच्चारण करते हुए आकाष को मुखरित कर रहे है- ’जय हो, जय हो, जय हो !! महामुनि अकंपनाचार्य की जय हो, सर्व दिगंबर मुनियों की जय हो, जैनधर्म की जय हो । महासाधु विष्णुकुमार की जय हो, जय हो, जय हो !! ’’’’हे धर्मवत्सल ! हे दयासिन्धो ! हे धर्म के अवतार ! क्षमा करो, क्षमा करो, क्षमा करो !! दया करो, दया करो, दया करो !! हे नाथ ! हम सभी की रक्षा करो, जब आप अपनी विक्रिया समेटो, हे देव ! अब आप अपना पैर समेटो, हे देव ! अब आप अपना पैर संकुचित करो ।’ यह सब दृष्य देखकर अतीव भयभीत हुआ और कापता हुआ बलि मुनिराज के चरणो में गिर पडता है और गिड़गिडाता हुआ कहता है-हे कृपानाथ ! मुझे क्षमा कीजिए, मै महापापी हू फिर भी जब आपकी शरणागत हू अब आप मेरी रक्षा कीजिए, मेरे ऊपर दया कीजिए, क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए।’ इसी मध्य बलि के साथ बृहस्पति, बृहस्पति, प्रहलाद और नमुचि ये तीनो मंत्री भी आकर मुनि के चरणो में साष्टांग पड़कर क्षमा याचना करते हैं और पश्चाताप करते हए अश्रु गिराने लगते है। वामन वेषधारी विष्णुकुमार तत्क्षण ही अपनी विक्रिया समेट लेते है और मुनि अवस्था में वहा खडे़ हो जाते है। उसी समय देवगण आकर सभी मुनियों पर हो रहे सारे उपसर्ग को दूर कर देते है। यज्ञ मंडप और अग्नि को हटा देते है। जो बेचारे निरपराध पशु हवन की आहुति के लिए वहा बाधे गये थे उन्हे छोड़ देते है और सभी को अभयदान की घोषणा कर देते है। उसी क्षण राजा पदम अपने महल से निकलकर वहा आ जाते है और विष्णुकुमार मुनि के रणों से लिपट जाते है। सात सौ मुनियों के ऊपर हो रहे इस भयंकर अग्निकाण्ड उपद्रव को दूर हुआ देख हर्षाश्रु से मुनि विष्णुकुमार के चरणों का मानों प्रक्षालनही कर रहे हों । सर्वत्र प्रजा में शांति की लहर दौड जाती है। एक साथसारी प्रजा वहा दौड़ आती है और गुरूओं की वंदना एवं वैयावृति में लग जाती है।
उसी क्षण राजा और चारों मंत्री बडी भक्ति से संघ के नायक अकंपनाचार्य की वंदना करने को वहा पहुच जाते हैं । और उनके चरणों में साष्टांग पड़कर नमस्कार करते हुए कहते है- ’हे भगवन् ! हे कृपासिंधों ! नमोस्तु, नमोस्तु, नमोस्तु !’ पुनः बलि आदि मंत्री नेत्रों से अश्रु झराते हुए लडखड़ाती वाणी में कहते हैं- ’हे भक्तवत्सल ! हे करूणा के सागर ! हे परम क्षमा शील। गुरूदेव ! हम पापियों के इस महान् अपराध को क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए ।’ पुनः वे चारों मंत्री गुरूदेव से निवेदन करते है-’हे नाथ ! अब हमे आप विष्व हितकारी, परमोपकारी, अहिंसामयी इस जैनधर्म को ग्रहण कराइए । इतनी प्रार्थना को सुनकर करूणासागर श्री अकंपनाचार्य गुरूवर उन पर दया करके उन्हे सान्त्वना देते है पुनः मिथ्यात्व का त्याग कराकर उन चारों को सम्यक्त्व तथा अणुव्रत देकर उन्हें दुर्जन से सज्जन बना देते है। सभी देवगण प्रसन्न होकर बहुत ही भक्ति भाव से अष्ट द्रव्य आदि उत्तम-उत्तम सामग्री लेकर श्री विष्णुकुमार मुनि के चरणों की पूजा करते है, पुनः अकंपनाचार्य आदि सात सौन मुनियों की पूजा करते है। वे देवगणदेवमयी तीन वीणाए लाकर उन्हे बजा-बजा कर खूब भक्ति-पूजा करते हैं पुनः उन तीनों वीणाओं को यहीं मध्यलोक में दे जाते हैं जिनके क्षरा भक्त लोग सदा ही उन गुरूओं का गुणानुवाद गा-गाकर पुण्य संपादन करते रहे । देवों के द्वारा पूजा-विधि संपन्न हो जाने के बाद राजा पदम और हस्तिनापुर शहर के समस्त भक्तगण भक्ति में विभोर हो नाना प्रकार से मुनि श्री विष्णुकुमार के चरणों की, आचार्य अकंपन गुरू और सात सौ मुनियों की पूजा भक्ति करके जय-जयकार के नारों से आकाष को गुंजायमान कर देते है। पुनः सभी श्रावक-श्राविकाए विचार करते है।
“अहो ! इन उपसर्ग विजय महामुनियों को अग्नि की आच और धुएं से बहुत क्लेष हुआ है। इनके कंठ रूध गए हैं और शरीर में भी वेदना हो रही हैं। अब इन्हें ऐसा आहार देना चाहिए कि जिससे ये जले हुए, पीडा युक्त कंठ से सहज में ग्रहण कर सकें।“ तभी सब श्रावक सेमई की खीर ही उपयुक्त आहार समझकर धर-धर मे वैसा मृदु आहार तैयार करके आहार की बेला में अपने अपने धर के दरवाजे पर मुनियो के पड़गाहन की प्रतीक्षा में खड़े हो जाते है। सभी मुनि अपनी-अपनी नियम सल्लेखना को विसर्जित कर आचार्य श्री के साथ शरीर कोसंयम का साधन मानकर उसकी रक्षा हेतू चर्या के लिए निकलते है। श्रावक आनन्दविभोर हो पड़गाहन करना शुरु कर देते है- “हे भगवन् ! नमोऽस्तु नमोऽस्तु , अत्र तिष्ठ तिष्ठ,- हे ळे गुरुदेव ! आपको नमस्कार हो, नमस्कार हो, यहाॅ ठहरो, ठहरो, अन्न जल शुद्व है।” जिन जिन श्रावको को एक-दो आदि मुनियो का लाभ मिल जाता है वे अपने जीवन को धन्य मान लेते है और विधिवत् नवधा भाक्ति करके उन्हें मृदु और सरस सेमई की खीर का आहार देकर अतिशय पुण्य सम्पादन कर लेते है। जिन श्रावको की उत्कट भावना से अन्य व्रती श्रावको को भोजन कराकर आहार दान की भावना भाते हुए अपने जीवन को सफल करते है।
जिस दिन इन सात सौ मुनियो की रक्षा हुई थी वह दिन श्रावण शुक्ला पूर्णिमा का था। तभी से आज तक सभी श्रावकगण इस दिन को रक्षाबंधन पर्व के नाम से मनाते चले आ रहे है। इतना ही नही, समस्त भारतवर्ष मे सभी सम्प्रदाय के जैनेतर लोग भी किसी न किसी रुप मे इस पर्व को मनाते है। यह पर्व सामाजिक पर्व के रुप मे मनाया जाता है। आज के दिन सर्वत्र श्रावकगण तो मुनि-आर्यिका, क्षुल्लिकाओ के चरण सानिन्ध मे पहुॅच कर उनके श्रीमुख से मुनि विष्णुकुमार की कथा सुनकर पुनः मुनि आदि पात्रों की खीर का आहारदान देते है। जहा कहीं मुनि आर्यिका आदि के चातुर्मास नही है वहा के श्रावक अन्यत्र कहीं गुरुओ के निकट पहुच कर आहादान का लाभ लेते है। और मुनियो को आहार देते समय पूर्व मुनियों की स्मृति कर वर्तमान मुनियो मे उनका स्थापना निक्षेप कर आहार देकर अपने को पुण्यशाली समझ लेते है तथा तदनुरुप विशेष पुण्य का भी संचय कर लेते है। यह पर्व वात्सल्य की पवित्रता का द्योतक होने से प्रायः सर्वत्र समाज मे बहन-भाई के पवित्र स्नेह के रुप मे भी मनाया जाता है। बहन भाई को मिष्ठान आदि का भोजन कराकर उनके हाथ मे रक्षाबंधन का सूत्र बाॅधती है। उसी रक्षासूत्र को “राखी” भी कहते है। इस प्रकार धर्मात्माओ के प्रति परम धर्म के अवतार मुनि श्री विष्णुकुमार ने वात्सल्य भाव को करके जो धर्मात्माओ की रक्षा की है उसी की स्मृति मे इस पर्व को मनाते हुए धर्म और धर्मात्माओ की रक्षा का नियम लेना चाहिए। तभी इस पर्व को मनाने की पूर्ण सार्थकता है क्योकि “न धर्मों धार्मिकैर्विना” धर्मात्माओं के बिना धर्म नही रहता है। अनन्तर विष्णुकुमार मुनि अपने गुरु के पास जाकर विक्रिया से जो वामनवेष बनाया था उसका प्रायश्चित ग्रहण कर धोरा-धोरा तपश्चरण कर उसी भव से मोक्ष प्राप्त कर लेते है। वे म्हामुनि विष्णुकुमार तथा अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनि हम सभ की रक्षा करे। विशेष- सुमेरु पर्वत जम्बूद्वीप के बीचांबीच मे है। मानुषोतर पर्वत पुष्कर द्वीप के मध्य में है, यह चूड़ी के आकार वाला है। इस मानुषोतर पर्वत तक ही मनुष्य लोक की सीमा है। इसके आगे चारणऋद्विधारी या विक्रियाधारी मुनि तथा विद्याधर मनुष्य नही जा सकते है। इसीलिये श्री विष्णुकुमार मुनि ने विक्रिया से दूसरा पैर मानुषोतर पर्वत पर रख कर सारा मनुष्य लोक माप लिया था।