अन्तरंग और बहिरंग कारणों के मिलने पर आप्त (देव), शास्त्र और पदार्थों का तीन मूढ़ता रहित, आठ अंग सहित जो श्रद्धान होता है, उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। यह सम्यग्दर्शन प्रशम, संवेग आदि गुण वाला होता है। सर्वप्रथम यहां पर आप्त, आगम और पदार्थों का स्वरूप समझ लेना आवश्यक है।
सच्चे आप्त – जो सर्वज्ञ है, समस्त लोकों का स्वामी है, सब दोषों से रहित है और सब जीवों का हितू है उसे आप्त कहते हैं। चूंकि यदि अल्पज्ञ मनुष्य उपदेश दे तो लोगों को उससे ठगाये जाने की शंका बनी रहती है इसलिए आत्मार्थी पुरुष उपदेश के लिए ज्ञानी मनुष्य की ही खोज करते हैं। श्रीसमंतभद्र स्वामी ने भी कहा है कि- ‘जो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी होते हैं वे ही आप्त कहलाते हैं।’ जो तत्त्वों का उपदेश देकर दु:खरूपी समुद्र से जगत के जीवों का उद्धार करते हैं, कृतज्ञतावश तीनों लोकों के जीव उन्हीं के चरणों मे नत हो जाते हैं अत: वे ही सर्वलोक के स्वामी, परमात्मा, सच्चे देव कहलाते हैं। भूख, प्यास, भय, द्वेष, चिन्ता, मोह, राग, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, क्रोध, खेद, मद, रति, आश्चर्य, जन्म, निद्रा और खेद ये अठारह दोष संसार के सभी प्राणियों में पाये जाते हैं। जो इन दोषों से सर्वथा रहित हो चुके हैं वे आप्त हैं। उनके नेत्र केवलज्ञानी हैं उस केवलज्ञानरूपी नेत्र के द्वारा वे सर्व चराचर विश्व को जानते हैं तथा वे ही सदुपदेश के दाता होते हैं। वे जो कुछ कहते हैं, सत्य कहते हैं क्योंकि राग से, द्वेष से या मोह से झूठ बोला जाता है किन्तु जिनमें ये तीनों दोष नहीं हैं उनके झूठ बोलने का कोई कारण भी नहीं है। जिनकी आत्मा में, श्रुति में, तत्त्व में और मुक्ति के कारणभूत चारित्र में एकवाक्यता पाई जाती है अर्थात् जो जैसा कहते हैं वैसा ही स्वयं आचरण करते हैं और वैसी ही तत्त्व व्यवस्था भी उपलब्ध होती है, उन्हें ही सज्जन पुरुष आप्त मानते हैं। यद्यपि ऐसे आप्त सच्चे देव आज आँखों से नहीं दिखते हैं फिर भी उन अतीन्द्रिय सर्वज्ञ की विशेषता उनके द्वारा उपदिष्ट आगम से जानी जाती है। जैसे-बगीचे में रहने वाले पक्षियों की आवाज से उनकी विशिष्टता का भान हो जाता है अर्थात् पक्षियों के बिना देखे भी जैसे उनकी आवाज से उनकी पहचान हो जाती है वैसे ही आप्त पुरुषों को बिना देखे भी उनके शास्त्रों से उनकी आप्तता का पता चल जाता है। ऊपर कहे हुए अठारह दोषों में से एक भी दोष जिनमें विद्यमान है और जो सर्वज्ञ नहीं बन पाये हैं उन्हें सच्चे आप्त नहीं कहना चाहिए।
सच्चा आगम – सबसे प्रथम देव की परीक्षा करनी चाहिए, पीछे उसके वचनों की परीक्षा करनी चाहिए उसके बाद उसमें मन को लगाना चाहिए। जो लोग देव की परीक्षा किए बिना उसके वचनों का आदर करते हैं वे अंधे के सदृश उस देव के कंधे पर हाथ रखकर सद्गति प्राप्त करना चाहते हैं। ‘जैसे माता-पिता के शुद्ध होने पर सन्तान में शुद्धि देखी जाती है वैसे ही आप्त के विशुद्ध होने पर ही आगम में शुद्धता हो सकती है।
’पित्रो: शुद्धौ यथापत्ये विशुद्धिरिह दृश्यते।
तथाप्तस्य विशुद्धत्वे भवेदागमशुद्धता।।९६।। (उपासकाध्ययन, पृ.२६।)
अर्थात् यदि आप्त निर्दोष होता है तो उसके द्वारा कहे गये आगम में भी कोई दोष नहीं पाया जाता किन्तु यदि आप्त राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोध आदि दोषों से सहित है तो उसके द्वारा प्ररूपित शास्त्र भी सदोष ही हैं, मुक्ति को प्राप्त कराने में समर्थ नहीं हो सकते अत: पहले देव की परीक्षा करनी चाहिए, उसके बाद उनके वचनों को प्रमाण मानना चाहिए। जैसे वर्षा का पानी समुद्र में जाकर खारा हो जाता है या सांप के मुंह में जाकर विषरूप बन जाता है वैसे ही पात्र के दोष से विशुद्ध वचन भी दुष्ट हो जाता है तथा जैसे तीर्थ का आश्रय लेने वाला जल पूज्य हो जाता है वैसे ही जो वचन तीर्थंकरों का आश्रय ले लेते हैं अर्थात् उनके द्वारा कहे जाते हैं वही पूज्य होते हैं। जो वचन ऐसे अर्थ को कहता है जिसे प्रत्यक्ष से देखा जा सकता है, उस वचन की प्रमाणता प्रत्यक्ष से साबित हो जाती है। जो वचन ऐसे अर्थ को कहता है जिसे अनुमान से ही जाना जा सकता है उस वचन की प्रमाणता अनुमान से सिद्ध होती है और जो वचन अत्यंत परोक्ष वस्तु को कहता है, जिसे न प्रत्यक्ष से ही जाना जा सकता है न अनुमान से, पूर्वापर में कोई विरोध न होने से उस वचन की प्रमाणता सिद्ध होती है अत: जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का अवलम्बन लेकर हेय-छोड़ने योग्य और उपादेय-ग्रहण करने योग्यरूप से त्रिकालवर्ती पदार्थों का ज्ञान कराता है उसे आगम या शास्त्र कहते हैं। तत्त्व के ज्ञाताओं का कहना है कि आगम में जीव-अजीव, उनके रहने के स्थान लोक तथा अपने-अपने कारणों के साथ बंध और मोक्ष का कथन होता है। जैसे समुद्र में लहरें उठती हैं वैसे ही सभी पदार्थ द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से स्वभाव से ही उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होते हैं अर्थात् वस्तु को देखने की दो दृष्टियां हैं-एक द्रव्यार्थिक दूसरी पर्यायार्थिक। द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से वस्तु ध्रुव है और पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से उत्पाद, व्यय शील है। यदि वस्तु को केवल प्रतिक्षण विनाशशील या केवल नित्य माना जायेगा तो बंध और मोक्ष की व्यवस्था नहीं बन सकेगी क्योंकि सर्वथा एकरूप मानने पर उसमें स्वभावांतर अर्थात् परिणमन नहीं बन सकेगा अत: प्रत्येक वस्तु कथंचित् नित्य है और कथंचित् अनित्य। ऐसा वस्तु का सही स्वरूप समझने के लिए दोनों नयों का अवलंबन लेना ही स्याद्वाद है।
सम्यग्दर्शन के आठ अंग होते हैं-नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, प्रभावना और वात्सल्य।
१. नि:शंकित अंग – ये सर्वज्ञदेव ही देव हैं, उनके कहे हुए जीवादि तत्त्व ही सही तत्त्व हैं और अहिंसा आदि व्रतों से ही मुक्ति होती है, ऐसा दृढ़ विश्वास करना नि:शंकित अंग है क्योंकि तत्त्व के जान लेने पर शत्रु के दृष्टिगोचर होने पर और पात्र (मुनि आदि) के उपस्थित होने पर जिसका चित्त दोलायमान हो जाता है, वह इस लोक में भी खाली हाथ रहता है और परलोक में भी खाली हाथ रहता है।
२. नि:कांक्षित अंग – यदि सम्यग्दर्शन का माहात्म्य है तो ‘मैं देव हो जाऊं, यक्ष हो जाऊं अथवा राजा हो जाऊं’, इस प्रकार की आकांक्षा को छोड़ देना चाहिए। जो सांसारिक सुखों के बदले में सम्यक्त्व को बेच देता है वह छाछ के बदले में माणिक्य रत्न को बेच देने वाले मनुष्य के समान केवल अपने को ठग लेता है क्योंकि जिस सम्यग्दृष्टि के चित्त में चिंतामणि है, हाथ में कल्पवृक्ष है, धन में कामधेनु है, उसको याचना से क्या मतलब ? जिसकी चित्तवृत्ति उचित स्थान को पाकर निराकुल हो जाती है उसे लक्ष्मी स्वयं वरण कर लेती है जैसे कि समुद्र में नदियां स्वयं प्रवेश कर लेती हैं अत: सम्यग्दर्शन की शुद्धि के लिए मिथ्या मतों के प्राप्त करने की इच्छा तथा इहलोक और परलोक सम्बन्धी सांसारिक सौख्य की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए।
३. निर्विचिकित्सा अंग – जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा गया यह उग्र तप प्रशंसनीय नहीं है, उसमें अनेकों दोष हैं, इस प्रकार चित्त में सोचना विचिकित्सा कहलाता है क्योंकि शास्त्र में कहे गए शील को पालने में अथवा उसका आशय समझने में जो जीव असमर्थ हैं सो यह उसी का दोष है। स्वत: शुद्ध आकाश भी जो मलिन दिखाई देता है सो यह आकाश का दोष नहीं है किन्तु देखने वालों की आंखों का ही यह दोष है। जो मनुष्य शरीर में दोष देखकर उसके अन्दर बसने वाली आत्मा से ग्लानि करता है वह लोहे की कालिमा को देखकर निश्चय ही सोने को छोड़ देता है अर्थात् जैसे लोहे की कालिमा का सोने के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है वैसे ही शरीर की गन्दगी का आत्मा के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है अत: शरीर के गन्देपन को देखकर मुनियों की आत्मा से घृणा नहीं करना चाहिए। यह शरीर अपना हो चाहे दूसरे का, यद्यपि यह बाहर से मनोहर भी दिखता है तो भी उसके अन्दर की हालत का विचार करने पर तो वह उदुंबर फल के समान ही है अत: इस शरीर के वास्तविक स्वरूप को समझने वालों को अपनी चित्तवृत्ति व्याकुल नहीं करनी चाहिए।
४. अमूढ़दृष्टि अंग – जिनके अन्दर बुराइयां भरी हुई हैं किन्तु जो बाहर से सुन्दर दिखते हैं, किम्पाकफल के समान ऐसे मिथ्या मतों पर श्रद्धा नहीं करनी चाहिए। किसी मत में मधु के प्रयोग का विधान है, किसी सम्प्रदाय में मांस भक्षण का विधान है तो किसी मत में मद्य पीने को भी अच्छा माना है और धर्म संज्ञा दी है तथा किन्हीं ने तो यज्ञ में पशुओं का हवन करना भी धर्म कह दिया है सो ये सब बातें मूढ़दृष्टिरूप हैं, इनसे बचना अमूढ़दृष्टि अंग है क्योंकि यदि देव, शास्त्र और धर्म निर्दोष न हों तो प्राणियों की शुद्ध क्रिया भी श्रेष्ठ फल को नहीं दे सकती जैसे कि विजातियों में कुलीन संतान की प्राप्ति नहीं होती१। अत: मिथ्यादृष्टियों की मन से प्रशंसा नहीं करनी चाहिए, न वचन से स्तुति करनी चाहिए और न उसके चमत्कार को देखकर भ्रम में ही पड़ना चाहिए।
उपगूहन अंग – क्षमा, सत्य, संयम आदि धर्म और दान के द्वारा धर्म की वृद्धि करनी चाहिए। जैसे-माता अपने पुत्रों के अपराध को छिपाती है वैसे ही यदि साधर्मियों में से किसी से दैववश या प्रमादवश कोई अपराध बन गया हो तो उसे गुणसंपदा से छिपाना चाहिए क्योंकि असमर्थ मनुष्य के द्वारा की गई गलती से धर्म मलिन नहीं हो सकता है। क्या मेंढक के मर जाने से कभी समुद्र भी दुर्गन्धित हुआ है ? जो न तो पर के दोष को ही ढांकता है और न धर्म की वृद्धि ही करता है वह जिनधर्म का पालक नहीं है और उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होना भी दुष्कर है।
स्थितिकरण अंग – परीषह और व्रत से घबराया हुआ तथा आगमज्ञान से शून्य कोई साधर्मी भाई यदि धर्म से भ्रष्ट होता हो तो सम्यग्दृष्टि को उसका स्थितिकरण करना चाहिए। जो तप से भ्रष्ट होते हुए मुनि की रक्षा नहीं करता है, आगम की मर्यादा का उल्लंघन कर देने से वह मनुष्य नियम से सम्यग्दर्शन से रहित है, जो धर्म के निर्वाह में संदिग्ध हैं ऐसे मनुष्यों को संघ में रखना चाहिए। एक दोष के हो जाने पर उन्हें छोड़ नहीं देना चाहिए, प्रत्युत स्थितिकरण करना चाहिए क्योंकि धर्म का कार्य अनेक मनुष्यों के आश्रय से ही चलता है अत: समझा बुझाकर जो जिसके योग्य हो उसको उसी में लगा देना चाहिए। उपेक्षा करने से मनुष्य धर्म से दूर होता जाता है और पुन: उसका संसार भी दीर्घ हो जाता है, इससे धर्म की हानि ही होती है अत: स्थितिकरण अंग का पालन करना चाहिए।
प्रभावना अंग – जिनबिंब और जिनालयों की स्थापना के द्वारा, ज्ञान के द्वारा, तप के द्वारा तथा अनेक प्रकार की महाध्वज आदि पूजाओं के द्वारा जैनधर्म की प्रभावना करना चाहिए। जो मुनियों के ज्ञान, तप और पूजा की निंदा करता है, उनमें झूठा दोष लगाता है, स्वर्ग और मोक्षलक्ष्मी भी नियम से उस मनुष्य से द्वेष करती है।
१. ज्ञाने तपसि पूजायां यतीनां यस्त्वसूयते।
स्वर्गापवर्गभूर्लक्ष्मीर्नूनं तस्याप्यसूयते।।२०४।। (उपासकाध्ययन, पृ.-८३)
अर्थात् न उसे स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है और न मोक्ष ही मिल सकता है। इस लोक में बुद्धि और धन के समर्थ होने पर भी जो जिनशासन की प्रभावना नहीं करता है वह बुद्धि और धन से समर्थ होने पर भी परलोक में अपना कल्याण नहीं कर सकता है अत: ऐहिक सुख की इच्छा न करके दान, ज्ञान, विज्ञान और महापूजा आदि महोत्सवों के द्वारा सम्यग्दर्शन का प्रकाश करना चाहिए।
वात्सल्य अंग – धर्मात्मा पुरुषों के प्रति उदार होना, उनकी भक्ति करना, मिष्ट वचन बोलना, उनका आदर सत्कार तथा अन्य उचित क्रियायें करना वात्सल्य है। स्वाध्याय, संयम, संघ, गुरु और अपने सह अध्यायी का यथायोग्य आदर-सत्कार करना विनय कहलाता है। जो मानसिक या शारीरिक पीड़ा से पीड़ित हैं, निर्दोष विधि से उनकी सेवा-सुश्रूषा करना वैयावृत्य कहलाता है। यह वैयावृत्य धर्म मुक्ति का कारण है। जिन भगवान में, जिन भगवान के द्वारा कहे हुए शास्त्र में, आचार्य में और तप, स्वाध्याय में लीन मुनि आदि में विशुद्ध भावपूर्वक जो अनुराग होता है उसे भक्ति कहते हैं। जो हर्षित होकर चतुर्विध संघ में यथायोग्य वात्सल्य नहीं करता है वह धर्मात्मा कैसे हो सकता है ? इसलिए व्रतों के द्वारा शारीरिक, मानसिक और आगंतुक रोगों से पीड़ित संयमीजनों का उपकार करना चाहिए। जैसे दृष्टि अर्थात् आंखों से हीन पुरुष अपने इच्छित स्थान तक नहीं पहुँच सकता वैसे ही दृष्टि अर्थात् सम्यग्दर्शन से हीन पुुरुष मुक्ति लाभ नहीं कर सकता। जैसे राज्य के अंग मन्त्री, सेनापति वगैरह के बिना राज्य समृद्धशाली नहीं हो सकता, वैसे ही नि:शंकित आदि अंगों के बिना सम्यग्दर्शन भी उत्कृष्ट आभ्यंतर और बाह्य विभूति को नहीं दे सकता इसलिए प्रत्येक प्राणी को चािहए कि सम्यग्दर्शन के अंगों को प्राप्त करके नि:संग-निग्र्रन्थ दिगम्बर मुनि होने की भावना करे। सम्यक्त्व से रहित प्राणी में सम्यग्ज्ञान आदि भी नहीं रह सकते हैं क्योंकि बीज के अभाव में धान्य की उत्पत्ति असंभव है। जिसका सम्यग्दर्शन निर्दोष है, चक्रवर्ती की विभूति भी उसका आलिंगन करने के लिए उत्कंठित रहती है और देवों की विभूति तो उसके दर्शन के लिए ही उत्सुक रहती है अधिक क्या कहें ? मोक्ष लक्ष्मी भी उससे दूर नहीं है। सरागी और वीतरागी आत्माओं की अपेक्षा इस सम्यग्दर्शन के दो भेद माने गये हैं-सराग सम्यक्त्व और वीतराग सम्यक्त्व। सराग सम्यग्दर्शन तो प्रशम आदि गुणरूप होता है और वीतराग सम्यग्दर्शन आत्मविशुद्धिरूप होता है। जैसे पुरुष की शक्ति यद्यपि अतीन्द्रिय है इंद्रियों से उसे नहीं देखा जा सकता फिर भी सन्तान उत्पादन से, विपत्ति में धैर्य धारण करने से और प्रारम्भ किये गये कार्य को समाप्त करना आदि बातों से उसकी शक्ति का निश्चय किया जाता है वैसे ही सम्यक्त्व रूपी रत्न भी आत्मा का स्वभाव होने के कारण यद्यपि बहुत ही सूक्ष्म है फिर भी प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि के द्वारा उसका निश्चय किया जा सकता है।
प्रशम – रागादि दोषों से चित्तवृत्ति के हटाने को पंडितजन प्रशम गुण कहते हैं। यह प्रशम गुण समस्त व्रतों का भूषण है।
संवेग – यह संसार शारीरिक, मानसिक और आगंतुक कष्टों से भरा है और स्वप्न या इन्द्रजाल की तरह चंचल है, इस संसार से डरना संवेग है।
अनुकंपा – सब प्राणियों के प्रति चित्त का दयालु होना अनुकंपा है। दयालु पुरुष इसे धर्म का परम मूल बतलाते हैं।
आस्तिक्य – मुक्ति के लिए प्रयत्नशील पुरुष का चित्त आप्त के विषय में, शास्त्र के विषय में और तत्त्व के विषय में ‘ये हैं’ इस प्रकार की भावना से युक्त होता है उसे आस्तिक पुरुष आस्तिक्य गुण कहते हैं। जो मनुष्य रागी और द्वेषी है, कभी व्रतों का आचरण नहीं करता और न कभी उसकी आत्मा में दया का भाव ही होता है उस नास्तिक बुद्धि वाले का संसार भ्रमण बढ़ता ही जाता है। सम्यग्दृष्टि श्रावक को माया, मिथ्या और निदान इन तीन शल्यों को दूर करना चाहिए। सरलतारूपी कील के द्वारा मायारूपी कांटे को निकालना चाहिए। इच्छा के अभावरूपी कील के द्वारा निदानरूपी कांटे को निकालना चाहिए और तत्त्वों की भावनारूपी कील के द्वारा मिथ्यात्वरूपी कांटे को निकालना चाहिए। सम्यग्दृष्टि जीव जैसे आठ अंग और प्रशम आदि चार गुणों को धारण करता है, वैसे ही वह सम्यक्त्व को मलिन करने वाले दोषों को भी छोड़ता है। वे दोष २५ माने गये हैं-
ढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथा नायतनानि षट्।
अष्टौ शंकादयश्चेति दृग्दोषा: पञ्चविंशति:।।२४१।।
अर्थात तीन मूढ़ता, आठ मद, छह अनायतन और आठ शंका आदि सम्यग्दर्शन के ये २५ दोष माने गये हैं। देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता और लोकमूढ़ता ये तीन मूढ़ता हैं। अदेव को देव मानना देवमूढ़ता है, कुगुरु को गुरु मानना गुरुमूढ़ता है और अग्नि में जलना, पर्वत से गिरना आदि कार्यों में धर्म मानना लोकमूढ़ता है। कुल, जाति, रूप, ऐश्वर्य, ज्ञान, तप, पूजा और बल इनका घमंड करना मद है। इन कुल आदि के भेद से मद के भी आठ भेद हो जाते हैं। कुदेव, कुदेव का मंदिर, कुशास्त्र, कुशास्त्र के पाठी और कुतप तथा कुतप के धारक ये छह अनायतन कहलाते हैं। शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़दृष्टि, अनुपगूहन, अस्थितिकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना ये आठ शंकादि दोष हैं, इस प्रकार से सब मिलकर २५ दोष माने गये हैं। इस तरह से संक्षेप में सम्यग्दर्शन का कथन किया गया है। अब सम्यग्ज्ञान का लक्षण कहते हैं।
जो वस्तुओं को जैसा का तैसा जानता है उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं। यह सम्यग्ज्ञान मनुष्यों का तीसरा नेत्र है। जैसे जन्म से अन्धे मनुष्य को लाठी ऊँची-नीची जगह को बतलाकर उसे चलने और रुकने में मदद देती है वैसे ही सम्यग्ज्ञान हित और अहित का विवेचन करके धर्मात्मा पुरुष को हितकारक कार्यों में लगाता है और अहित करने वाले कार्यों से रोकता है। मतिज्ञान तो इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों को ही जानता है किन्तु शास्त्रज्ञान इन्द्रियों के विषयभूत और अतीन्द्रिय दोनों प्रकार के पदार्थों का ज्ञान कराता है अत: यदि ज्ञाता का मन ईष्र्या, द्वेष आदि दुर्भावों से रहित है तो उसे तत्त्व का ज्ञान होना दुर्लभ नहीं है। यदि तत्त्वों के जान लेने पर भी मनुष्य की बुद्धि अन्धकार में रहती है तो जैसे उल्लू के लिए प्रकाश व्यर्थ होता है वैसे ही उस मनुष्य का ज्ञान भी व्यर्थ है। सामान्य से ज्ञान एक है, प्रत्यक्ष परोक्ष के भेद से वह दो प्रकार का है तथा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान के भेद से पांच प्रकार का है। केवलज्ञान के सिवाय अन्य चारों ज्ञानों में से प्रत्येक के अनेक भेद होते हैं।
अधर्मकर्मनिर्मुक्तिर्धर्मकर्मविनिर्मिति:।
चारित्रं तच्च सागारानगारयतिसंश्रयम्।।
अशुभ कार्यों से बचना और अच्छे कार्यों में लगना चारित्र है। वह चारित्र गृहस्थ और मुनि के भेद से दो प्रकार का है। गृहस्थों का चारित्र देशचारित्र कहा जाता है और मुनियों का चारित्र सकलचारित्र कहा जाता है। जिनके चित्त सद्विचारों से युक्त हैं वे ही चारित्र का पालन कर सकते हैं। जिस मनुष्य में स्वर्ग और मोक्ष किसी को भी प्राप्त करने की योग्यता नहीं है वह न तो देशचारित्र ही पाल सकता है और न सकलचारित्र ही पाल सकता है। जो मनुष्य सम्यग्दर्शन से रहित है उसका शास्त्रवाचन मुख की खाज मिटाने का एक साधन मात्र है और जो मनुष्य ज्ञान से रहित है उसका चारित्र धारण करना अभागे मनुष्य के आभूषण धारण करने के समान है। सम्यग्दर्शन से अच्छी गति मिलती है, सम्यग्ज्ञान से संसार में यश फैलता है और सम्यक्चारित्र से पूजा प्राप्त होती है तथा इन तीनों से मोक्ष की प्राप्ति होती
हैतुंड कण्डहरं शास्त्रं सम्यक्त्वविधुरे नरे। ज्ञानहीने तु चारित्रं दुर्भगाभरणोपमम्।।२६५।।
सम्यक्त्वात्सुगति: प्रोक्ता ज्ञानात्कीर्तिरुदाहृता। वृत्तात्पूजामवाप्नोति त्रयाच्च लभते शिवम्।।२६६।।
चारित्र अग्नि है, सम्यग्ज्ञान उपाय है और सम्यग्दर्शन रसौषधि है। इन सबके मिलने पर आत्मारूपी पारद धातु अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है। सम्यग्दर्शन का आश्रय चित्त है, सम्यग्ज्ञान का आश्रय अभ्यास है, सम्यक्चारित्र का आश्रय शरीर है और दान आदि क्रियाओं का आश्रय धन है। जैसे-चूने की पुताई से मकान, पौरुष करने से दैव, पराक्रम से नीति और विशेषज्ञता से सेव्यपना चमक उठता है वैसे ही व्रत भी सम्यक्त्वरूपी रत्न को चमका देता है। गृहस्थों के व्रत मूलगुण और उत्तरगुण के भेद से दो प्रकार के होते हैं। आगम में पांच उदुंबर (बड़, पीपर, पाकर, ऊमर और कठूमर) मद्य, मांस और मधु का त्याग ये आठ मूलगुण गृहस्थों के बतलाए हैं।
सम्यग्दृष्टि के आठ मूलगुण – आगम में पांच उदुम्बर और मद्य, मांस तथा मधु का त्याग ये आठ मूलगुण गृहस्थों के बतलाए हैं।
(१) मद्य अर्थात् शराब महामोह को करने वाला है, सभी पापों का मूल है और सभी दोषों को उत्पन्न करने वाला है। इसके पीने से मनुष्य को हित-अहित का ज्ञान नहीं रहता है और हित-अहित का ज्ञान न रहने से प्राणी संसाररूपी वन में भटकाने वाला ऐसा कौन सा पाप नहीं करता है ? लोक में यह कथा प्रसिद्ध है कि शराब पीने से यादव नष्ट हो गये और जुआ खेलने से पांडवों ने अनेकों कष्ट उठाये हैं। बहुत से प्राणी अनेक बार जन्म-मरण करके काल के द्वारा प्राणियों का मन मोहित करने के लिए मद्य का रूप धारण करते हैं। मद्य की एक बूंद में इतने जीव रहते हैं कि यदि वे फैलें तो समस्त जगत में भर जायें इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। ऐसे जीव के निवासस्थानस्वरूप और दुर्गति में ले जाने वाले इस मद्य के सुख के आकांक्षीजनों को सदैव के लिए इसका त्याग कर देना चाहिए।
(२) मांस स्वभाव से ही अपवित्र है, दुर्गंध से भरा है, दूसरों के प्राणों का घात करने पर ही तैयार होता है तथा कसाई के घर जैसे अपवित्र स्थानों से ही प्राप्त होता है। ऐसे मांस को भले आदमी वैâसे खा सकते हैं? यदि जिस पशु को मांस के लिए कोई मारते हैं, दूसरे जन्म में वह उन्हें न मारे या मांस के बिना वे जीवित ही न रह सवेंâ तब तो प्राणी पशु हत्या भले ही करे किन्तु ऐसी बात नहीं है बल्कि मांस के बिना भी मनुष्यों का जीवन चलता ही है। धर्म के फलस्वरूप प्राप्त हुए अनेक सुखों को भोगने वाले मनुष्य भी न जाने धर्म से द्वेष क्यों करते हैं? भला इच्छित वस्तु को देने वाले कल्पवृक्ष से कौन द्वेष करेगा ? यदि बुद्धिमान पुरुष थोड़े से कष्ट से अच्छा सुख प्राप्त करना चाहता है तो जो काम उसे स्वयं बुरे लगें उन कार्यों को दूसरों के प्रति भी उसे नहीं करना चाहिए। जो दूसरों का घात न करके सुख का सेवन करता है वह इस जन्म में सुख भोगता है और दूसरे जन्म में भी सुख प्राप्त करता है।
जो मनुष्य धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थों में से एक का भी पालन नहीं करता है वह पृथ्वी का भार है और जीते हुए भी मृत है तथा जो धर्म का फल भोगता हुआ भी धर्माचरण करने में आलस्य करता है वह मूर्ख है, जड़ है, अज्ञानी है और पशु से भी गया बीता है और जो न तो स्वयं अधर्म करता है, न दूसरों से कराता है वह विद्वान है, समझदार है, बुद्धिमान है और पंडित है। जो अपना हित चाहते हैं वे भला दूसरों के मांस से अपने मांस की वृद्धि वैâसे कर सकते हैं ? जैसे दूसरे को दिया हुआ धन कालान्तर में ब्याज के बढ़ जाने से अपने को अधिक होकर मिलता है वैसे ही मनुष्य दूसरे को जो सुख या दु:ख देता है वह सुख या दु:ख कालान्तर में उसे अधिक होकर मिलता है अर्थात् सुख देने से अधिक सुख मिलता है और दु:ख देने से अधिक दु:ख मिलता है। यदि मद्य, मांस और मधु का सेवन करना धर्म हो जावे तो फिर अधर्म क्या होगा ? और दुर्गति का कारण क्या होगा ? अत: धर्म वही है जिसमें अधर्म नहीं है, सुख वही है जिसमें दु:ख नहीं है, ज्ञान वही है जिसमें अज्ञान नहीं है और गति वही है जहां से लौटकर आना नहीं है। जिस प्रकार अपने को अपना जीवन प्रिय है उसी प्रकार से दूसरों को भी अपना जीवन प्रिय है इसलिए मांस और अंडों के भक्षण का सदैव के लिए त्याग कर देना चाहिए। जो मांस खाते हैं उनमें दया नहीं होती, जो शराब पीते हैं वे सच नहीं बोल सकते, जो मधु और उदुम्बर फलों का भक्षण करते हैं उनमें रहम नहीं होता है।
(३) मधु अर्थात् शहद मधुमक्खियों के छत्ते को निचोड़ने से पैदा होता है। वह रज और वीर्य के मिश्रण के समान है। भला सज्जन पुरुष ऐसे शहद का सेवन कैसे कर सकते हैं ? मधु का छत्ता व्याकुल शिशु के गर्भ की तरह है और अंडों से उत्पन्न होने वाले जंतुओं के छोटे-छोटे अंडों के टुकड़ों के सदृश है। करुणा से रहित मनुष्य ही उस मधु का भक्षण करते हैं।
(४) पीपल, उदुम्बर फल, पाकर, बड़फल और ऊमरफल ये पांचों फल त्रस जीवों के रहने के स्थानभूत हैं। इन फलों में बहुत से त्रस जीव प्रत्यक्ष ही दिखाई देते हैं। इनके सिवाय इन फलों में बहुत से सूक्ष्म जन्तु भी पाए जाते हैं जैसा कि शास्त्रों में वर्णन है। इस प्रकार के मद्य, मांस, मधु और पांच उदुम्बर फल इन आठों का त्याग करना ही मूलगुण है जो कि सम्यग्दृष्टि जीवों के लिए धारण करने योग्य है। जिस प्रकार से इन वस्तुओं के खाने में महान पाप है वैसे ही इन वस्तुओं के सेवन करने वालों की संगति करना भी सर्वथा हानिप्रद ही है। इसी बात को स्वयं उपासकाध्ययन ग्रन्थ के कर्ता कह रहे हैं। मद्य, मांस वगैरह सेवन करने वाले लोगों के घरों में भी खानपान नहीं करना चाहिए तथा उनके बर्तनों को भी काम में नहीं लेना चाहिए। जो मनुष्य मद्य, मांस सेवन करने वालों के साथ खानपान करते हैं उनकी यहां तो निन्दा होती ही है किन्तु परलोक में भी उन्हें अच्छी गति प्राप्त नहीं होती है। व्रती पुरुष को चमड़े की मशक का पानी, चमड़े के पात्र में रखा हुआ घी, तेल और मद्य, मांस आदि का सेवन करने वाली ऐसी स्त्रियों को भी सदा के लिए छोड़ देना चाहिए। इसी संदर्भ में उपासकाध्ययन ग्रन्थ के भावार्थ में कहते हैं कि- छोटी से छोटी बुराई से बचने के लिए बड़ी सावधानी रखनी होती है फिर आज तो मद्य, मांस का इतना प्रचार बढ़ता जाता है कि उच्च कुलीन पढ़े लिखे लोग भी उनसे परहेज नहीं रखते। अंगेजी सभ्यता के साथ अंग्रेजी खानपान भी भारत में बढ़ता जाता है और अंग्रेजी खानपान की जान मद्य और मांस ही हैं।
प्राय: जो लोग शाकाहारी होते हैं उनका भोजन भी रेलवे वगैरह में मांसाहारियों के भोजन के साथ ही पकाया जाता है। उसी में से मांस को बचाकर शाकाहारियों को खिला देते हैं। जो लोग पार्टी वगैरह में शामिल होते हैं उनमें से कोई-कोई सभ्यता के विरुद्ध समझकर जो कुछ मिल जाता है उसे ही खा आते हैं। इस तरह संगति के दोष से बचे-खुचे शाकाहारी भी मांसादिक के स्वाद से नहीं बच पाते और ऐसा करते-करते उनमें से कोई-कोई मांसाहार करने लग जाते हैं। अंग्रेजी दवाइयों का तो कहना ही क्या है, उनमें भी मद्य वगैरह का सम्मिश्रण रहता है। पौष्टिक औषधियों और तथोक्त विटामिनों को न जाने किन-किन पशु-पक्षियों और जलचर जीवों तक के अवयवों और तेलों से बनाया जाता है। फिर भी सब खुशी-खुशी उनका सेवन करते हैं। ओवल्टोन नाम के पौष्टिक खाद्य में अण्डे डाले जाते हैं फिर भी सभ्य घरानों तक में उनका सेवन छोटे और बड़े करते हैं। यह सब संगति दोष का ही कुफल है। उसी के कारण बुरी चीजों से घृणा का भाव घटता जाता है और धीरे-धीरे उनके प्रति लोगों की अरुचि टूटती जाती है। इन्हीं बुराइयों से बचने के लिए आचार्यों ने ऐसे स्त्री-पुरुषों के साथ रोटी-बेटी व्यवहार का निषेध किया है जो मद्यादिक का सेवन करते हैं। जैनाचार को बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि जैनधर्म का पालन करने वाले कम से कम अपने खानपान में दृढ़ बने रहें। यदि उन्होंने भी देखादेखी शुरु की और वे भी भोगविलास के गुलाम बन गये तो दुनिया को फिर अहिंसाधर्म का संदेश कौन देगा ? कौन दुनिया को बताएगा कि शराब का पीना और मांस का खाना मनुष्य को बर्बर बनाता है और बर्बरता के रहते हुए दुनिया में शान्ति नहीं हो सकती। आप दृढ़ रहेंगे तो दुनिया आपकी बात की कदर करने लगेगी किन्तु यदि आप ही अपना विश्वास खो बैठेंगे और क्षण भर की वाहवाही में बह जाएंगे तो न अपना हित कर सवेंâगे और न दूसरों का हित कर सवेंâगे। मधु भी मद्य और मांस का ही भाई है। कुछ लोग आधुनिक ढंग से निकाले जाने वाले मधु को खाद्य बतलाते हैं किन्तु ढंग के बदलने मात्र से मधु खाद्य नहीं हो सकता। आखिर को तो वह मधुमक्खियों का ही उगाल है। इस प्रकार से अष्टमूल को धारण करने वाला व्यक्ति अपनी आत्मा की दया करता है।
श्री कुंदकुंददेव ने ‘रयणसार’ के मंगलाचरण में ऐसा कहा है कि- मैं मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक परमात्मा श्री वर्धमान जिनेन्द्र को नमस्कार करके सागार और अनगार अर्थात् गृहस्थ और मुनि के धर्म को कहने वाले ऐसे ‘रयणसार’ नामक ग्रन्थ को कहूँगा। पूर्वकाल में जिनेन्द्रदेव ने जैसा कहा है, गणधर देव ने जैसे का तैसा उसी को विस्तार किया है। आज भी पूर्वाचार्यों की परम्परा से वह प्राप्त है ऐसे ग्रन्थ को जो कहते हैं वे ही निश्चय से सम्यग्दृष्टि हैं। किन्तु जो व्यक्ति अपने में विद्यमान ऐसे मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के बल से स्वच्छंद (मन:कल्पित) प्रतिपादन करते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं क्योंकि वे जिनेन्द्रदेव के शासन के अनुकूल नहीं बोलते हैं। सम्यग्दर्शन एक सर्वोत्कृष्ट रत्न है वही सारभूत है। वह मोक्षरूपी महान वृक्ष का मूल है, ऐसा आचार्यों का कथन है। वह सम्यग्दर्शन निश्चय और व्यवहार के भेद से दो रूप माना गया है। जो महापुरुष निर्दोष सम्यग्दर्शन के धारक हैं वे निश्चय से सात भय, सात व्यसन और पच्चीस मल दोषों से रहित होते हैं। संसार, शरीर और भोगों से भी विरक्त होते हैं तथा नि:शंकित आदि आठ अंगों से युक्त एवं पंच परमेष्ठी के परम भक्त होते हैं, वे सम्यग्दृष्टि पुरुष निज शुद्ध आत्मा के अनुरागी रहते हैं, बहिरात्म अवस्था से रहित होते हैं, आत्मा के ज्ञानी होते हैं और जिनेन्द्रदेव, दिगम्बर मुनि तथा जिनधर्म को ही मानने वाले होते हैं, ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव दु:खों से रहित होते हैं। जिस जीव के आठ मद, तीन मूढ़ता, छह अनायतन, श्ांकादि आठ दोष, सात व्यसन, सात भय और पाँच अतिचार ये चवालीस दोष नहीं होते हैं, वे ही सम्यग्दृष्टि कहलाते हैं। आठ मूलगुण, बारह उत्तर गुण (५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत, ४ शिक्षाव्रत), सात व्यसन त्याग, सम्यक्त्व के २५ दोषों का त्याग, १२ वैराग्य भावना का चिंतवन, सम्यग्दर्शन के ५ अतिचारों का त्याग और भक्ति भावना, सम्यग्दर्शन को धारण करने वाले श्रावक के ये ७० गुण होते हैं। जो भव्य जीव देव, गुरु और शास्त्र के भक्त होते हैं, संसार, शरीर और भोगों के त्यागी होते हैं और सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप रत्नत्रय से संयुक्त होते हैं वे ही मोक्ष सुख को प्राप्त करते हैं। सम्यग्दर्शन से युक्त दान, पूजा, शील और अनेक प्रकार के उपवास मोक्षसुख के लिए कारण हैं और यदि ये सम्यक्त्व से रहित हैं तो दीर्घ संसार के कारण हैं अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव के ये दान, पूजा आदि क्रियायें मोक्ष को प्राप्त कराने में समर्थ हैं और जब तक सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हुई है तब तक ये दान, पूजन आदि संसार के ही सुखों को देने वाले हैं। हां, कदाचित् ये ही क्रियायें सम्यक्त्व की उत्पत्ति के लिए भी कारण बन जाती हैं अत: ये दान, पूजा आदि क्रियायें कथमपि हेय नहीं हैं। आगे स्वयं श्रीकुन्दकुन्ददेव कहते हैं-
दाणं पूया मुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा।
झाणज्झययं मुक्खं जइधम्मे तं विणा तहा सो वि।।११।।
श्रावकधर्म में दान और पूजा मुख्य कत्र्तव्य हैं क्योंकि दान और पूजन के बिना कोई भी व्यक्ति श्रावक नहीं हो सकता है। वैसे ही मुनिधर्म में ध्यान और अध्ययन मुख्य कत्र्तव्य हैं उनके बिना वे मुनि नहीं कहला सकते हैं। अब श्री कुन्दकुन्द देव बहिरात्मा का लक्षण करते हुए कहते हैं- जो श्रावक दान नहीं देता है, धर्म का पालन नहीं करता है, त्याग नहीं करता है और न्यायपूर्वक भोग नहीं करता है वह बहिरात्मा है। वह ऐसा पतंगा है कि जो लोभरूपी अग्नि के मुख में पड़कर मर जाता है, इसमें संदेह नहीं है। पुन: आचार्य सम्यग्दृष्टि की पहचान बताते हुए कहते हैं- जो श्रावक जिनदेव की पूजा करता है और शक्ति के अनुसार मुनियों को दान देता है वह सम्यग्दृष्टि श्रावक धर्म का पालन करने वाला है, वह मोक्षमार्ग में संलग्न है ऐसा समझना चाहिए। अब आचार्य दान और पूजन के फल को बताते हैं- शुद्ध मन वाला श्रावक पूजा के फल से तीनों लोकों में देवों से पूज्य हो जाता है और दान के फल से तीनों लोकों में निश्चय से सारभूत ऐसे सुख को भोगता है। आगे श्री कुन्दकुन्ददेव रयणसार ग्रंथ में कहते हैं कि-
दाणं भोयणमेत्तं, दिण्णइ धण्णो हवेइ सायारो।
पत्तापत्तविसेसं संदंसणे किं वियारेण।।१४।।
यदि श्रावक मुनि को आहार मात्र दान देता है तो वह धन्य हो जाता है अत: एक जिनलिंग को देखकर पात्रविशेष या अपात्र विशेष का विकल्प करने से क्या लाभ है ? तात्पर्य यह है कि परिग्रह और आरंभ से रहित नग्न दिगम्बर मुनि को देखकर ये मुनीश्वर द्रव्यलिंगी हैं या भावलिंगी ? इन्हें आहार देना या नहीं ? इत्यादि विचार करने का श्रावक को कोई अधिकार नहीं। वह श्रावक तो नग्नवेषधारी निग्र्रन्थ मुनि को आहारदान देकर अपने जीवन को धन्य बना लेता है। इस कथन से यह निर्णय हो जाता है कि आहारमात्र देने के लिए श्रावक को मुनि की परीक्षा नहीं करनी चाहिए प्रत्युत जिनलिंग मात्र देखकर उत्कृष्ट भक्ति से आहारदान देकर अपने गृहस्थ जीवन को सफल कर लेना चाहिए। सुपात्र को दान देने से नियम से भोगभूमि की तथा स्वर्ग के सर्वोत्तम सुखों की प्राप्ति होती है और अनुक्रम से मोक्षसुख की भी प्राप्ति होती है ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने परमागम में कहा है। जिस प्रकार उत्तम क्षेत्र में उपयुक्त काल में बोये हुए उत्तम बीज का विपुल फल मिलता है उसी प्रकार से उत्तम पात्रों को दिये हुए उस दान से सर्वोत्कृष्ट फल मिलता है, ऐसा तुम जानो। इस लोक में जो पुरुष जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित सप्त क्षेत्रों में अपने श्रेष्ठ धनरूपी बीज को बोता है वह त्रिभुवन के राज्यरूपी फल को और पंचकल्याणकरूप उत्तम फल को प्राप्त करता है। माता, पिता, पुत्र, स्त्री, मित्र, धन, धान्य, मकान और वाहन, वैभव तथा संसार के उत्तम-उत्तम सुखों का मिलना ये सब सुपात्रदान के ही फल हैं, ऐसा समझो। सप्तांग राज्य, नवनिधि, चौदह रत्न, कोष, छह प्रकार की सेना और छियानवे हजार रानियां यह चक्रवर्ती का विपुल वैभव भी सुपात्रदान का ही फल है ऐसा समझना चाहिए। उत्तम कुल, सुन्दर रूप, शुभ लक्षण, श्रेष्ठ बुद्धि, उत्तम निर्दोष शिक्षा, उत्तम शील, उत्कृष्ट गुण, उत्तम चारित्र, शुभलेश्या, सकल सुखों का अनुभव और भी अनेक वैभव का मिलना यह सब सुपात्र दान का ही फल है ऐसा तुम जानो। आगे श्री कुन्दकुन्द देव कहते हैं कि- जो भव्य जीव मुनि के आहार के पश्चात् अवशिष्ट अन्न को प्रसाद मानकर खाता है, वह संसार के सारभूत सुखों को और क्रमश: मोक्ष के उत्तम सुखों को भोगता है ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है। मुनियों को आहारदान देते समय श्रावक का कत्र्तव्य है कि वह शीत या उष्ण काल का ध्यान रखे। मुनि की प्रकृति वात प्रधान है, पित्त प्रधान है या कफ प्रधान है, गमनागमन से परिश्रम हुआ है, रोग है या ये मुनि कायक्लेश, उपवास आदि तप करके आये हुए हैं, इत्यादि रूप से सारी बातों को जानकर ही उनके अनुवूâल उचित आहार देना चाहिए। मोक्षमार्ग में अनुरागी श्रावक का कत्र्तव्य है कि वह मुनि को हितकारी और परिमित आहार, निर्दोष औषधि, निराकुल स्थान, शयनोपकरण (पाटा, चटाई, तृण आदि) और आसनोपकरण आदि आवश्यकतानुसार प्रदान करे। आगे श्री कुन्दकुन्द देव कहते हैं कि-
श्रावक मुनि की वैय्यावृत्ति किस तरह करें ? जैसे इस लोक में माता और पिता अपने गर्भ से होने वाले बालक का सावधानी से पालन-पोषण करते हैं उसी प्रकार से श्रावक को भी मुनियों की प्रकृति आदि को जानकर सदा आलस्य रहित होकर उनकी वैयावृत्य करनी चाहिए। सम्यग्दृष्टि का दान कल्पवृक्ष के फलों की शोभा के समान है और लोभी पुरुषों का जो दान है वह अर्थी के शव की शोभा के समान है, ऐसा जानो क्योंकि लोभी पुरुष यश, कीर्ति और पुण्य लाभ के लिए यत्र-तत्र (कुपात्र आदि को) बहुत दान देता है। वह सम्यक्त्व आदि उत्तम गुणों के आधारभूत ऐसे सुपात्र को नहीं पहचानता है। इस पंचमकाल में भरतक्षेत्र में लोग प्राय: यंत्र-मंत्र-तंत्र की सिद्धि, प्रिय वचन तथा प्रतीति (मान, प्रतिष्ठा) आदि के लिए दान देते हैं। सो वह दान वास्तव में मोक्ष का कारण नहीं है। यदि कोई प्रश्न करे कि दानी पुरुषों के दरिद्रता और लोभी पुरुषों के महान ऐश्वर्य क्यों देखा जाता है ? तो उसका उत्तर यही है कि जब तक दोनों का पूर्वोपार्जित कर्म फल उदय में रहता है तभी तक ऐसा होता है अर्थात् यह विषमता पूर्व संचित कर्म के उदय के निमित्त से है न कि वर्तमान के कर्म संचय से। जैसे धन-धान्यादि की समृद्धि से समस्त जीवों को सुख होता है, उसी प्रकार मुनि के दान आदि की समृद्धि से सुख होता है और उसके बिना दु:ख होता है। अत: आचार्यदेव कहते हैं कि-सुपात्र के बिना दान निष्फल है, सुशील पुत्र के बिना बहुत सा धन और महाक्षेत्र (जमीन, जायदाद) आदि निष्फल हैं एवं भावों के बिना व्रत, गुण तथा चारित्र भी निष्फल हैं ऐसा समझो
जो व्यक्ति जीर्णोद्धार, प्रतिष्ठा, जिनपूजा और तीर्थयात्रा के अवशिष्ट धन को भोगता है वह नरकगति के दु:ख को भोगता है, ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है। तात्पर्य यह है कि पूजन में चढ़े हुए अष्टद्रव्य आदि को निर्माल्य कहते हैं उसके भक्षण से तो अंतराय कर्म का बंध होता है किन्तु जो मनुष्य किसी के द्वारा जीर्णोद्धार, प्रतिष्ठा, पूजा आदि के लिए निकाले गए धन को यदि हड़प लेता है तो वह नरकगति को प्राप्त करने जैसे महापाप का भागी हो जाता है। पूजा, दान, प्रतिष्ठा, जीर्णोद्धार आदि के द्रव्य को अपहरण करने वाले मनुष्य पुत्र, स्त्री से रहित दरिद्री लंगड़े, गूंगे, बहरे तथा अन्धे हो जाते हैं तथा जन्मांतर में चांडाल आदि की कुजाति में उत्पन्न होते हैं। पूजा, दानादि के द्रव्य को अपहरण करने वाले मनुष्य इच्छित फल को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। यदि प्राप्त कर भी लेवें तो उसे भोग नहीं पाते हैं यह निश्चित है, और तो क्या! वे अनेक व्याधियों के घर बन जाते हैं। जो पूजा, दानादि द्रव्य का अपहरण करते हैं, वे हाथ, पैर, नाक, कान, हृदय और अंगुली से हीन (विकलांग) दृष्टिहीन और तीव्र दु:ख के भागी होते हैं। जो मनुष्य पूजा, दान आदि कार्यों में अन्तराय डालते हैं वे उसके फलस्वरूप क्षय, कुष्ठ, मूल, शूल, भगंदर, जलोदर, नेत्र रोग, शिर के रोग और शीत-उष्ण आदि के प्रकोप से होने वाली सन्निपात आदि अनेक व्याधियों को प्राप्त करते हैं। नरकगति, तिर्यंचगति, दुर्गति, दरिद्रता, विकलांग, हानि और दु:ख ये सब देववंदना, शास्त्र वंदना, श्रुतभेद और स्वाध्याय में ाqवघ्न डालने के फल हैं। इस भरतक्षेत्र में दु:षम-पंचमकाल में मनुष्यों के निश्चय से सम्यग्दर्शन की विशुद्धि, तप, मूलगुण, सम्यक्चारित्र, सम्यग्ज्ञान और दान की प्रधानता होती है। जो मनुष्य न तो दान देते हैं, न ही पूजा करते हैं, न ही शील पालते हैं, न ही गुण धारण करते हैं और न चारित्र पालते हैं वे मरकर नारकी, कुमानुष और तिर्यंच होते हैं ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है।
जो मनुष्य कत्र्तव्य-अकत्र्तव्य, हित-अहित, पुण्य-पाप, तत्त्व-अतत्त्व और धर्म-अधर्म को निश्चय से नहीं जानता है वह सम्यक्त्व से रहित मिथ्यादृष्टी है। उसी प्रकार से जो योग्य-अयोग्य, नित्य-अनित्य, हेय-उपादेय, सत्य-असत्य और भव्य-अभव्य को नहीं जानता है, वह सम्यक्त्व से रहित है। जो मनुष्य लौकिक जनों (सामान्य जनों) की संगति से अत्यन्त वाचाल, कुटिल और दुर्भावनायुक्त हो जाता है इसलिए देखभाल कर (विचारपूर्वक) लौकिकजनों की संगति को मन, वचन, काय से छोड़ देना चाहिए। जो उग्र प्रकृति वाला है, तीव्र स्वभाव वाला है, दुष्ट प्रकृति का है, दुर्भावशील है, मिथ्याशास्त्रों का श्रवण करने वाला है, दुष्टभावी है, मिथ्यामद में अनुरक्त है और विरुद्ध (धर्म से विरुद्ध) आचरण करने वाला है वह जीव सम्यक्त्व रहित है। जो क्षुद्र-रौद्र स्वभाव वाले, रुष्ट, दूसरों का अनिष्ट चाहने या करने वाले, चुगलखोर, अभिमानी, असहिष्णु, गायक, याचक, कलह करने वाले और दूसरों को दोष लगाने वाले हैं वे सब सम्यक्त्व से रहित होते हैं। जो मनुष्य बंदर, गधा, कुत्ता, हाथी, व्याघ्र, सूकर, कछुआ, मक्खी और जोंक के स्वभाव वाले होते हैं वे जिनेन्द्रदेव के धर्म का विनाश करने वाले होते हैं। वास्तव में सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र नियम से नहीं होते हैं इसलिए रत्नत्रय में सम्यग्दर्शन गुण उत्कृष्ट है, यह जिनेन्द्रदेव ने कहा है। मिथ्यातप, कुलिंगी, मिथ्याज्ञानी, मिथ्याव्रत, मिथ्याशील, मिथ्यादर्शन, मिथ्याशास्त्र और झूठे निमित्त इनकी संस्तुति, स्तुति और प्रशंसा करने से नियम से सम्यक्त्व की हानि होती है। जैसे शरीर का कोढ़ी अपने रक्त सम्बन्ध से अपने कुल का विनाश कर देता है उसी प्रकार मिथ्यात्व भी अपनी आत्मा के दान आदि सद्गुणों का और सद्गति का विनाश करता है। अहो! संसार में मिथ्यात्व ही कष्टप्रद है। देव, गुरु, धर्म, गुण, चारित्र, तपाचार, मोक्षगति का रहस्य और जिनदेव के वचन सम्यग्दृष्टि के बिना क्या देखे या जाने जा सकते हैं ? सम्यग्दर्शन ही इन सबको देखता है। मिथ्यादृष्टि जीव मोक्षप्राप्ति के निमित्तभूत अपने आत्मस्वभाव का चिन्तन एक क्षण भी नहीं करता है। दिन-रात पाप का चिंतन करता है और मन में दूसरों के बारे में अनेक बातें सोचता रहता है। मिथ्यादृष्टि जीव मद और मोह की मदिरा से मतवाला होकर भुलक्कड़ के समान प्रलाप करता है इसलिए वह आत्मा को और आत्मा के समता भावों को नहीं जानता है। जिस प्रकार सूर्य अन्धकार को तत्काल नष्ट कर देता है, वायु मेघ का नाश कर देती है, दावानल वन को जला देता है, वज्र पर्वतों का भेदन कर देता है वैसे ही एक सम्यक्त्व ही समस्त कर्मों का नाश कर देता है। जो धर्मात्मा अपने हृदय मन्दिर में सम्यक्त्वरत्न रूपी दीपक को प्रज्ज्वलित करता है उसको तीन लोक के समस्त पदार्थ स्वयमेव प्रतिभासित होने लगते हैं।
जिस प्रकार भाग्यशाली मनुष्य कामधेनु, कल्पवृक्ष, चिन्तामणि रत्न और रसायन को प्राप्त कर मनवाञ्छित उत्तम सुख प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के निमित्त से भव्य जीवों को सर्व प्रकार के सर्वोत्कृष्ट सुख और समस्त प्रकार के भोगोपभोग स्वयमेव प्राप्त हो जाते हैं। जैसे-कतकफल (निर्मली) के संयोग से जल निर्मल हो जाता है, अग्नि के संयोग से सुवर्ण किट्ट कालिमा रहित शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन से यह भव्य जीव समस्त प्रकार के कर्ममल से रहित शुद्ध स्वभाव को प्राप्त हो जाता है और उसे सहज ही लीलामात्र में मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है। भव्य जीवों का उपशम भाव पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है, नये कर्मों का प्रवेश नहीं होने देता है तथा इस लोक और परलोक में माहात्म्य प्रगट करता है। सम्यग्दृष्टि जीव वैराग्य और ज्ञान भाव से समय व्यतीत करता है किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव आकांक्षा, दुर्भाव, आलस्य और कलहपूर्वक अपना समय व्यतीत करता है। इस अवसर्पिणी काल में आजकल भरतक्षेत्र में आर्त और रौद्र परिणाम वाले, नष्ट बुद्धि, दुष्ट, दु:खी, पापी, कृष्ण, नील और कापोतरूप अशुभ लेश्या वाले मनुष्य अधिकतर देखे जाते हैं। इस दु:षमकाल में मिथ्यादृष्टि जीव सुलभ हैं किन्तु सम्यग्दृष्टि गृहस्थ और मुनि दुर्लभ हैं। आज इस भरतक्षेत्र की अवसर्पिणी में प्रमादरहित (मुनि) को धर्मध्यान होता है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है किन्तु ऐसा जो नहीं मानते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं अर्थात् आजकल के सभी मुनि को जो द्रव्यलिंगी कहते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं, ऐसा श्री कुन्दकुन्द देव का कथन है।
अशुभ भावों से नरक आयु और शुभ भावों से स्वर्गसुख और स्वर्गायु मिलती है अत: दु:ख-सुख के भावों को जानो और इनमें से जो तुम्हें रुचे उसे करो। हिंसादि पाप, क्रोधादि कषाय, मिथ्याज्ञान, पक्षपात, मात्सर्य, मद, दुरभिनिवेश, अशुभ लेश्या, विकथा, आर्त-रौद्रध्यान, ईष्र्या, असंयम, शल्य और मान-बड़ाई, इनमें जो वर्तन होता है वह अशुभभाव है। छह द्रव्य, पांच अस्तिकाय, सात तत्त्व, नव पदार्थ, बंध और मोक्ष एवं मोक्ष के लिए कारण ऐसी बारह अनुपे्रक्षा, रत्नत्रय स्वरूप धर्म, आर्य कर्म, षट् क्रियायें और दया इत्यादि जो सद्धर्म हैं इनमें जो वर्तन होता है वह शुभ भाव है। सम्यक्त्व गुण से नियम से सुगति होती है और मिथ्यात्व से दुर्गति होती है यह समझो। यहां अधिक कहने से क्या ? जो तुम्हें अच्छा लगे सो ग्रहण करो। यह आत्मा मोह को नष्ट नहीं करता है और कठोर कर्म (व्रत, उपवासादि) अनेक बार करता है फिर भी यह संसार का किनारा नहीं पाता है। अत: आचार्य कहते हैं कि मोह को नष्ट किए बिना यह मूर्ख प्राणी अनेक दु:ख क्यों उठाता है ? बहिरात्मा जीव बाह्य वेश को धारण कर बाह्य इन्द्रियों के सुख को ही छोड़कर क्रियाकांड मात्र को ही धारण करता हुआ जन्म मरण के दु:ख उठाता रहता है।
तात्पर्य यही है कि एक सम्यग्दर्शन के बिना संसार के परिभ्रमण से छुटकारा नहीं मिल सकता है। परलोक में सुखों की अभिलाषा करने वाला, अनेक कायक्लेश सहन करने वाला मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा मोक्ष पाने के लिए अनेक कष्ट सहन करता है किन्तु वह मिथ्यात्व को नष्ट नहीं करता। तब वह क्या मोक्ष सुख को प्राप्त कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता। यदि बहिरात्मा क्रोधादि को दण्ड नहीं देता है अर्थात् कषायों का निग्रह नहीं करता है और देह को दण्ड देता है अर्थात् तप आदि के द्वारा कष्ट देता है तो क्या वह कर्मों को नष्ट कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता है। जैसे लोक में सांप की बामी को मारने पर क्या सांप मर सकता है ? अर्थात् नहीं मर सकता है। ज्ञानी जीव जब उपशम भाव और तप भाव से युक्त रहता है तभी वह संयमी है, किन्तु जब वह कषाय के वशीभूत रहता है तब वह असंयमी रहता है। ‘ज्ञानी ज्ञान की शक्ति से कर्मों का क्षय करता है इस प्रकार अज्ञानी कहता है, जैसे मैं औषधि जानता हूँ इतना कहने मात्र से क्या कोई वैद्य व्याधि को नष्ट कर सकता
हैणाणी खवेइ कम्मं णाणबलेणेदि बोल्लए अण्णाणी।
वेज्जो भेसज्जमहं, जाणे इदि णस्सदे वाही।।६१।। (रयणसार)?’
तात्पर्य यह है कि जैसे औषधि के जानने मात्र से बिना सेवन किये कोई रोग को नष्ट नहीं कर सकता है वैसे ही कोई भी ज्ञानी अपने ज्ञान मात्र से कर्मों का नाश नहीं कर सकता है उसे चारित्र का आश्रय लेना ही पड़ेगा। अत: आचार्य कहते हैं कि- पहले मिथ्यात्वरूपी मल के शोधन के लिए सम्यक्त्वरूपी औषधि का सेवन किया जाता है पश्चात् कर्मरूपी व्याधि को नष्ट करने के लिए चारित्ररूपी औषधि का सेवन किया जाता है। मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीव पंचेन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर भी जो फल प्राप्त करता है, सम्यग्दृष्टि जीव यदि कषायों से विरक्त है अर्थात् उपशमभाव को प्राप्त है तो वह विषयों का सेवन करते हुए भी उस मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा लाख गुणाफल प्राप्त कर लेता है ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है अर्थात् सम्यग्दर्शन और कषाय की मंदता अधिक फल देने वाले हैं। भक्ति से रहित विनय, स्नेह के बिना महिलाओं का रुदन और वैराग्य के बिना त्याग ये प्रतिषिद्ध कहे गये हैं अर्थात् ये विडंबनारूप हैं। शूरवीरता के बिना सुभट, सौभाग्य रहित स्त्रियों की शोभा तथा वैराग्य, ज्ञान और संयम के बिना मुनि कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं। जैसे समस्त पदार्थों के रहने पर भी मूर्ख लोभी मनुष्य बाद में फल पाता जाता है अर्थात् अपने इस जीवन में सुख नहीं भोग पाता, वैसे ही जो विषयासक्त अज्ञानी है वह पीछे फल पाता है अर्थात् जीवन में सुख नहीं भोग पाता। पुन: आचार्य कहते हैं कि- जैसा फल विषयों का त्यागी ज्ञानी प्राप्त करता है वैसा ही फल समस्त पदार्थों से युक्त किन्तु सुपात्रों को दान देने वाला ज्ञानी प्राप्त कर लेता है। भूमि, स्त्री, स्वर्ण आदि के लाभरूपी विषधर सर्प को यह कितना ही विषधर क्यों न हो, इसे सम्यक्त्व, ज्ञान और वैराग्यरूपी औषधि और मंत्र से वश में किया जा सकता है, ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है।
इसीलिए- जो मनुष्य पहले पांचों इंद्रिय, शरीर, मन, वचन, हाथ और पैर इनको मूंडता है अर्थात् वश में करता है और पश्चात् शिर मुंडाता है-केशलोंच करता है वही मोक्षमार्ग का नेता होता है।
अब आगे आचार्य कहते हैं कि- पति की भक्ति से रहित सती, स्वामी भक्ति से रहित भृत्य, जिनशासन की भक्ति से रहित यति२ और गुरु भक्ति से रहित शिष्य नियम से दुर्गति के मार्ग में संलग्न हैं। संपूर्ण परिग्रह से रहित शिष्य (मुनि) यदि गुरु की भक्ति से रहित है तो उनके सभी अनुष्ठान-व्रत, जप, तप आदि ऊसर खेत में बोए गए उत्तम बीज के समान व्यर्थ हैं, ऐसा समझो। जैसे राजा से रहित राज्य, स्वामी से रहित देश, ग्राम, राष्ट्र और सेना सभी नष्ट हो जाते हैं वैसे ही गुरुभक्ति से रहित शिष्यों के सभी अनुष्ठान नष्ट हो जाते हैं अर्थात् जैसे राजा के बगैर राज्य व्यर्थ है वैसे ही गुरुभक्ति के बिना शिष्यों के अनुष्ठान सभी उत्तम सुख के लिए कार्यकारी नहीं हैं। जैसे आदर भाव के बिना रुचि या प्रेम, भक्ति के बिना दान और दया के बिना धर्म निष्फल है वैसे ही गुरुभक्ति के बिना तप, गुण और चारित्र सभी निष्फल हैं ऐसा समझो। पुन: आचार्य कहते हैं कि- जिनको निंद्य और ग्राह्य का विचार नहीं है उन्हें बाह्य इन्द्रियों के विषय ही सुखकर लगते हैं। उन्हें क्या छोड़ने योग्य है ? क्या ग्रहण करने योग्य है और क्या मोक्ष है ? यह नहीं समझता है ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव का कथन है। कायक्लेश और उपवास दुर्धर तपश्चरण के कारण हैं और यदि ये निज शुद्ध आत्मा की रुचि से परिपूर्ण हैं तो समस्त कर्मों के नाश के लिए कारण हो जाते हैं ऐसा तुम समझो। जो परब्रह्म स्वरूप परमात्मा को नहीं जानता है और सम्यक्त्व से रहित है वह कर्मों का नाश नहीं कर सकता है। ऐसा जीव न यहां का है, न वहां का है, वह मात्र लिंग (बाह्य वेश) को धारण करके क्या कर सकता है ? जो साधु अपनी आत्मा को नहीं देखता है, न उसको जानता है, न श्रद्धान करता है और न उसकी भावना ही करता है वह बहुत दु:खभार के कारणभूत ऐसे वेष को धारण करके भी क्या कर सकता है, जब तक यह जीव अपनी आत्मा को नहीं जानता है तभी तक उसके दु:ख होता है इसीलिए साधु को अनंत सुखस्वरूप आत्मा की भावना करनी चाहिए। निज आत्मतत्त्व की उपलब्धि के बिना नियम से सम्यक्त्व उपलब्धि नहीं होती है और सम्यक्त्व की उपलब्धि के बिना नियम से निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती है ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव का कथन है। जिनेन्द्रदेव के प्रवचन के सार-अंश का जो अभ्यास है वह परमात्मा के ध्यान में कारण है और वह ध्यान ही कर्मों के क्षय में निमित्त है एवं कर्म के क्षय से मोक्ष सौख्य प्राप्त होता है ऐसा तुम जानो। जैसे परकोटे के बिना राज्य की और दान, दया, धर्म के बिना गृहस्थ की शोभा नहीं होती है, वैसे ही ज्ञान से रहित तपश्चरण की और जीव के बिना देह की शोभा नहीं होती है। जैसे श्लेष्मा में पड़ी हुई मक्खी उसी में फंसकर मर जाती है वैसे ही परिग्रह में आसक्त हुआ साधु लोभी है, मूढ़ है, वह अज्ञानी कायक्लेश में ही पड़ा रहता है अर्थात् ऐसे परिग्रही साधु का कायक्लेश मुक्ति का कारण नहीं है। जो ज्ञान के अभ्यास से हीन है वह स्व-पर तत्त्व को कुछ भी नहीं जानता है। उसके ध्यान भी नहीं होता है और जब तक ध्यान नहीं होता है तब तक वह कर्मों का क्षय नहीं कर सकता है पुन: तब तक उसको मोक्ष भी नहीं है। अब श्रीकुन्दकुन्द देव कहते हैं कि- जिनागम अध्ययन ही ध्यान है। उसी से पांचों इन्द्रियों और कषायों का निग्रह होता है इसलिए इस पंचमकाल में प्रवचनसार-जैनशास्त्रों का ही अभ्यास करना चाहिए। यह जीव मन, वचन, काय से धर्मध्यान का अभ्यास करता है पुन: परमात्मा के ध्यान से सहित चित्त हुआ वही जीव उसी ध्यान से कर्मों का क्षय कर देता है। पुन: आचार्य कहते हैं कि ज्ञान ही धर्मध्यान है-
हिंसादि कार्यों से निवृत्ति और पुण्य कार्यों में प्रवृत्ति कराने वाला ज्ञान ही है इसलिए सभी जीवों के लिए ज्ञान ही धर्मध्यान है ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है। जो जिनागम का अभ्यास नहीं करता है उसके सम्यक् तपश्चरण नहीं होता है पुन: अज्ञान तप करता हुआ वह मूढ़मती सांसारिक सुखों में ही अनुरक्त रहता है इसलिए जिनागम का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। जो मुनिराज तत्त्व का चिंतन करते रहते हैं, मोक्षमार्ग की आराधना का स्वभाव बना लेते हैं और निरंतर ही धर्मकथा में तत्पर रहते हैं, वे ही महामुनि हैं। इसी तरह वे योगी विकथा आदि से सर्वथा मुक्त रहते हैं, अध:कर्म आदि से रहित होते हैं, सम्यग्ज्ञान से युक्त ज्ञानी कहलाते हैं, धर्मोपदेश के देने में कुशल होते हैं और बारह भावनाओं को भाते रहते हैं। ऐसे मुनि निंदा और वंचना से दूर रहते हैं, परिषह, उपसर्ग और दु:खों को सहन करते हैं, शुभध्यान और अध्ययन में निरत रहते हैं और अन्त: बाह्य परिग्रह से रहित होते हैं। जो योगी विकल्प रहित, निद्र्वन्द, मोहरहित, निष्कलंक, नियत, निर्मल स्वभाव वाले हैं वे ही मुनियों के प्रधान मुनिराज कहलाते हैं। इसके बजाय जो व्यक्ति तीव्र कायक्लेश करते हुए मिथ्या भाव से संयुक्त है, सर्वज्ञदेव के उपदेश में वह निर्वाण सुख को प्राप्त नहीं कर सकता है। जैसे मलिन दर्पण में रूप नहीं दिखाई देता है उसी प्रकार रागादि मल से युक्त जीवों को अपना आत्मस्वरूप कुछ भी दिखाई नहीं देता है।
जो साधु तीन दण्ड (मन, वचन, काय को वश में न करना), तीन शल्य (माया, मिथ्या, निदान) से युक्त है, अभिमानी, ईष्र्यालु, कलह करने वाला और याचना करने वाला है, वह दीर्घ संसार में भ्रमण करता है। देह आदि में अनुरक्त, विषयों में आसक्त, कषाय से युक्त और आत्मस्वभाव से प्रमादी ऐसे साधु सम्यक्त्व से रहित हैं। जो साधु आरम्भ धन-धान्य उपकरणों में आकांक्षा रखते हैं, असूया, अन्य जनों के गुणों में भी दोषों का आरोप करते हैं, व्रत गुण और शील से रहित हैं, कषायप्रिय और कलहप्रिय हैं, वाचाल हैं, संघ का विरोध करते हैं, कुशील हैं, स्वच्छन्द हैं, गुरु के समीप नहीं रहते हैं, अज्ञानी हैं और राजा आदि की सेवा करते हैं वे साधु जैनधर्म की विराधना करने वाले हैं। ज्योतिष, वैद्यक, मंत्र विद्या द्वारा उपजीविका चलाना, वातविकार या भूत, प्रेत की बाधा में झाड़-पूâंक का व्यापार करना, धन-धान्य आदि परिग्रह को ग्रहण करना ये सब क्रियायें श्रमणों के लिए दूषणरूप हैं। जो साधु पाप और आरंभ में रत हैं, कषाय से युक्त हैं, परिग्रह में आसक्त हैं और लोक व्यवहार में सदा लगे रहते हैं वे साधु सम्यक्त्व से रहित हैं, जैसे चर्म, हड्डी और मांस के टुकड़ों में लोभ करने वाला कुत्ता मुनि को देखकर भौंकता है उसी प्रकार जो पापी हैं वे धर्मात्मा को देखकर भौंकते रहते हैं। जो साधु दूसरों के बड़प्पन को सहन नहीं कर सकते हैं, जो अपनी और अपने माहात्म्य की प्रशंसा करते हैं और वह भी केवल जिह्वा के स्वाद के लिए, वे साधु सम्यक्त्व से रहित हैं। जो मुनि केवल संयम और ज्ञान की वृद्धि के लिए तथा ध्यान और अध्ययन के लिए आगम के अनुवूâल जो आहार मिल गया उसे ग्रहण कर लेते हैं, वे साधु मोक्षमार्ग में लीन हैं। मुनियों की आहारचर्या विधि पांच प्रकार की है-उदराग्नि प्रशमन, अक्षम्रक्षण, गोचरी, श्वभ्रपूरण और भ्रामरी। वे साधु इन भेदों के अनुसार ही आहार ग्रहण करते हैं। इन पांचों का लक्षण- उदराग्नि प्रशमन-जठराग्नि को शांत करने के लिए ही आगम विहित शुद्ध आहार लेना, चाहे वो ठंडा हो या गरम इत्यादि, उसमें रागद्वेष नहीं करना।
अक्षम्रक्षण – जिस प्रकार गाड़ी को चलाने के लिए उसकी धुरी पर तेल डाला जाता है वैसे ही मात्र शरीर को मोक्षमार्ग में चलाने के लिए आहार लेना।
गोचरी – जैसे गाय की दृष्टि चारे पर रहती है उसके डालने के रूप, रंग या आभूषण पर नहीं, वैसे ही आहार लेते समय दाता के रूप, रंग या धन वैभव, गरीबी आदि पर लक्ष्य नहीं देना।
श्वभ्रपूरण – जैसे गड्ढे को चाहे जैसी वस्तुओं से भर दिया जाता है वैसे ही सरस या नीरस वैâसे भी आहार से उदररूपी गड्ढे को भरना।
भ्रामरी – जैसे भ्रमर पूâलों को कष्ट न देकर मात्र रस ग्रहण कर लेता है वैसे गृहस्थ को कष्ट न देते हुए आहार ग्रहण करना। इन पांच प्रकार की चर्या विधि से महामुनि आहार ग्रहण करते हैं। यह शरीर रस, रुधिर, मांस, मेदा, अस्थि, शुक्र, मल, मूत्र, पीव और कीड़ों से भरा हुआ, दुर्गन्धियुक्त, अपवित्र, चर्ममय, अनित्य, अचेतन, नाशवान, अनेक प्रकार के दु:खों का पात्र एवं कर्मों के आने रूप आस्रव का कारण है और आत्मा से भिन्न है। ऐसा होकर भी यह शरीर धर्मानुष्ठान का कारण है, ऐसा मानकर ही साधु इस शरीर का पालन पोषण करते हैं। जो साधु क्रोध दिखलाकर, कलह करके, याचना करके, संक्लिष्ट परिणाम करके, रौद्र परिणाम करके या रुष्ट होकर आहार ग्रहण करता है वह क्या साधु है ? वह तो व्यंतर है। आचार्य पुन: साधुओं से कहते हैं कि- हे साधो! यदि तेरे हाथ पर रखा हुआ आहार तपे हुए लोहे के गोले के समान शुद्ध है तो तू उसे दिव्य नौका के समान संसार समुद्र से पार करने वाला समझकर ग्रहण कर। वास्तव मेें साधु संयम, तप, ध्यान, अध्ययन और विज्ञान की सिद्धि के लिए ही आहार ग्रहण करता है किन्तु जो इन कारणों को छोड़कर मात्र शरीर पुष्टि के लिए आहार लेता है वह संसार के दु:खों से छूट नहीं सकता है। आहार के लिए पात्र कौन है ? अविरत सम्यग्दृष्टि, देशव्रती श्रावक और महाव्रती के भेद से, आगम में रुचि रखने वाले और तत्त्वों का विचार करने वाले इनके भेद से जिनेन्द्रदेव ने पात्रों के हजारों भेद बतलाए हैं। जिन मुनियों में उपशम भाव, निरीहता, ध्यान, अध्ययन आदि महान गुण पाये जाते हैं वे मुनिराज उत्तम पात्र होते हैं। इनमें मुनिराजों के जैसे-जैसे गुण अधिक होते जाते हैं, वैसे-वैसे उनमें पात्रता विशेष होती जाती है।
इसी प्रकार से देशव्रती मध्यम पात्र हैं एवं अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र हैं। जो मुनि दर्शन से शुद्ध हैं, धर्मध्यान में रत हैं, परिग्रह से रहित हैं और शल्य से रहित हैं, वे ही पात्र विशेष-उत्तम पात्र माने जाते हैं किन्तु जो इन गुणों से हीन हैं वे पात्र नहीं हैं-अपात्र हैं। जिसमें सम्यग्दर्शन आदि गुणों की विशेषता है उसी में पात्रता की विशेषता है, ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव का कथन है अत: जो व्यक्ति इन पात्र विशेषों को जानकर आहार देता है वह निश्चय ही मोक्षमार्ग में रत है। जो अरहंत और सिद्ध के स्वरूप को नहीं जानता है, बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा इन तीन भेद रूप से अपनी आत्मा के स्वरूप को भी नहीं जानता है वह दीर्घ संसार में भ्रमण करता है। जो निश्चय और व्यवहार स्वरूप रत्नत्रय को नहीं जानता है वह जो भी करता है वह सब मिथ्यारूप है, ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है। सम्यक्त्व से रहित ज्ञान और तप संसार के ही कारण हैं अत: सकल तत्त्व को जानकर भी अर्थात् सम्यक्त्व रहित बहुत ज्ञान प्राप्त करके भी क्या लाभ है ? तथा सम्यक्त्व शून्य बहुत से तपश्चरण से भी क्या लाभ है ? सम्यक्त्व से शून्य व्रत, गुण, शील, परीषहजय, चारित्र, तप, छह आवश्यक क्रियायें, ध्यान और अध्ययन ये सब संसार के ही कारण हैं अर्थात् सम्यक्त्व के बिना ये सब संसार के ही सुख दे सकते हैं मोक्ष सुख नहीं दे सकते। पुन: आचार्य साधु को संबोधन करते हैं कि- हे मुने! यदि तुम परलोक चाहते हो तो ख्याति, पूजा, लाभ, सत्कार आदि की इच्छा क्यों करते हो ? क्या तुम्हें इनसे परलोक (पर-अच्छा लोक) मिलेगा ? अर्थात् इन ख्याति आदि की इच्छा से परलोक में उत्तम गति नहीं मिलती है। जो मुनि कर्मजनित विभाव भावों (रागादि भावों) का तथा आत्मा के स्वभावरूप क्षमादि भावों का भावपूर्वक मनन करता है उसे ही अपनी शुद्धात्मा की रुचि होती है और वह नियम से निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। जो महापुरुष मूल प्रकृति-ज्ञानावरणादि, उत्तर प्रकृति-मतिज्ञानावरणादि, उत्तर उत्तर प्रकृति-अवग्रहावरण, ईहावरण आदि रूप द्रव्य कर्मों से तथा राग द्वेषादि भाव कर्मों से मुक्त है वह आस्रव, बंध, संवर और निर्जरा इन तत्त्वों को जानता है। बहुत कहने से क्या लाभ है ? कौन जीव मुक्त हो सकता है ? विषयों से विरक्त हुआ योगी कर्मों से छूट जाता है और विषयों में आसक्त हुआ जीव नहीं छूट सकता है। अत: हे मुने! तुम बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के स्वरूप को समझो। अधिक कहने से क्या लाभ है ?
बहिरात्मा – जो मनुष्य आत्मा के ज्ञान, ध्यान, अध्ययन और सुखरूपी रसायन का पान छोड़कर इन्द्रियों के सुख में रमता है वह निश्चय से बहिरात्मा है। जिस प्रकार पका हुआ किंपाक फल विषमिश्रित लड्डू और इन्द्रायण फल ये देखने में सुन्दर होते हैं, जिह्वा को भी सुख देते हैं अर्थात् मधुर लगते हैं और नेत्रों को भी प्रिय लगते हैं किन्तु परिणाम में दु:खदायी होते हैं उसी प्रकार इन्द्रिय सुखों को भी जानो। जो मनुष्य शरीर, स्त्री, पुत्र, मित्र आदि को और विभाव परिणामों को आत्मस्वरूप मानता है वही बहिरात्मा है। जो अज्ञानी जीव इन्द्रिय विषयों के सुख में रमता रहता है, ये इन्द्रिय विषय बहुत ही दुखदायी हैं ऐसा नहीं सोचता है, वह आत्मतत्त्व को नहीं पा सकता है। वही जीव बहिरात्मा है। इन्द्रियों के जो-जो सुख हैं, सब आत्मा को अनेक प्रकार के तीव्र दु:खों को देने वाले हैं इस बात को जो विचार नहीं करता है वही बहिरात्मा होता है। जिस प्रकार विष्ठा में उत्पन्न हुए कीड़े की रुचि विष्ठा में ही होती है उसी प्रकार बहिरात्मा की बुद्धि बाह्य इन्द्रिय विषयों में होती है। जैसे मनुष्य (हीन मनुष्य) अपवित्र खाद्य रसों में, क्षार और अमृत में, भक्ष्य और अभक्ष्य में विवेक नहीं करता है, उसी प्रकार से बहिरात्मा को जानना चाहिए अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीव भी आत्मा और अनात्मा के मध्य में कोई विवेक नहीं रखता है।
जो आत्मा को देहादि से भिन्न मानता है, जो स्वप्न में भी विषय सुखों को नहीं भोगता है, जो आत्मा के निजस्वरूप का अनुभव करता है और शिवसुख में लीन रहता है वह मध्यम आत्मा-अन्तर- आत्मा होता है। जैसे बहुत सा दुर्गन्धित मल-मूत्र जिसमें भरा हुआ है ऐसे घड़े की दुर्गन्धि जल्दी दूर नहीं होती है उसी प्रकार से सम्यक्त्वरूपी जल से धोने पर और ज्ञानामृत से पूर्ण होने पर भी इस जीव की अनादिकालीन दुर्वासना नहीं छूटती है अर्थात् कोई मल-मूत्र के घड़े को जल से धो डाले तो भी उसमें कुछ दुर्गन्धि अवश्य रहती है वैसे ही अनादिकाल से विषयों का अनुभव करने वाले इस जीव को यद्यपि काललब्धि से केवल सम्यक्त्व प्रगट हो जाता है और ज्ञान का अभ्यास भी करता है तो भी उसे विषयों की दुर्वासना लगी रहती है अत: विषयों की वासना से बचने के लिए गुरु का आश्रय लेकर चारित्र ग्रहण करना चाहिए। जैसे किसी रोगी को रोग दूर करने के लिए बिना इच्छा के भी औषधि का सेवन करना पड़ता है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि ज्ञानी बिना इच्छा के इन्द्रियों के सुखों का अनुभव करता है। अधिक कहने से क्या लाभ है? संक्षेप में हे भव्य! बहिरात्मस्वरूप समस्त भावों को छोड़ और अंतरात्मा तथा परमात्मा के वस्तुस्वरूप सम्बन्धी भावों को भज क्योंकि बहिरात्मा के वस्तुस्वरूप संबंधी जो भाव हैं वे सब चर्तुगतिरूप संसार परिभ्रमण और दु:ख के कारण हैं। इससे विपरीत अंतरात्मा और परमात्मा के वस्तुस्वरूप संबंधी जो भाव होते हैं वे सब मोक्षगति में ले जाने वाले हैं और प्रशस्त पुण्य के भी कारण हैं। आगे आचार्य कहते हैं कि- जो भव्य द्रव्यगुण पर्यायों से स्वसमय और परसमय आदि को जानता है वह अपनी आत्मा को जानता है, वही मोक्ष का नेता होता है। जिनेन्द्र भगवान ने बहिरात्मा और अंतरात्मा को परसमय कहा है और परमात्मा को स्वसमय कहा है। इनके भेदों को गुणस्थानों की अपेक्षा समझो।
बहिरंतरप्पभेयं परसमयं भण्णए जिणिंदेहिं।
परमप्पा सगसमयं तब्भेयं जाण गुणट्ठाणे।।१२८।। (रयणसार)
पुन: श्री कुन्दकुन्ददेव स्वयं गुणस्थानों में स्वसमय-परसमय को बताते हैं- प्रथम, द्वितीय और तृतीय गुणस्थानों वाले जीव तरतमता से बहिरात्मा हैं। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जघन्य अंतरात्मा हैं। पांचवें गुणस्थान से लेकर उपशांतमोह तक तरतमता से मध्यम अंतरात्मा हैं। क्षीणमोह बारहवें गुणस्थानवर्ती उत्तर अन्तरात्मा हैं। जिन अर्थात् तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानवर्ती और सिद्धपरमेष्ठी परमात्मा
हैंमिस्सोत्ति बाहिरप्पा तरतमया तुरिय अंतरप्पजहण्णा।
सत्तोत्तिमज्झिमंतर खीणुत्तर परमजिणसिद्धा।।१२९।।।
जो योग तीन मूढ़ताओं-देव मूढ़ता, गुरु मूढ़ता और लोक मूढ़ता, तीन शल्य-माया, मिथ्या, निदान, तीन दोष-मोह, राग, द्वेष, तीन दण्ड-मन, वचन, काय की निरंकुश प्रवृत्ति और तीन गारव-रस गारव, ऋद्धि गारव और सात गारव इन सभी से रहित होता है, वह मोक्षमार्ग का नेता होता है। जो योगी रत्नत्रय, तीन कारण, तीन योग और तीन गुप्तियों की विशुद्धि से युक्त है वही मोक्षमार्ग का नेता है। जो जिनमुद्रा का धारक है, वैराग्य और सम्यक्त्व से संयुक्त है, ज्ञानी है और परमोपेक्षा-वीतराग चारित्र का पालने वाला है ऐसा योगी ही मोक्षमार्ग का नेता होता है। जो योगी बाह्य-अभ्यंतर परिग्रह से रहित है, शुद्धोपयोग से संयुक्त है, मूलगुण एवं उत्तरगुणों से युक्त है वही मोक्षमार्ग का नेता है। मोक्ष की सिद्धि करने वाले हे साधो! सुनो और इसकी ही भावना करो। यह सम्यग्दर्शन जन्म, जरा, मरण के दु:खरूप दुष्ट विषधर सर्प के विष का नाश करने वाला है और मोक्ष सुख का लाभ कराने वाला है। अहो भव्य! बहुत कहने से क्या लाभ है ? जो परमात्मा देवेन्द्र, नागेन्द्र, नरेन्द्र और गणधरेन्द्रों से पूजित हैं वे सब सम्यक्त्व गुण की प्रधानता से ही हुए हैं। इस समय अवसर्पिणी काल के दोष से और मिथ्यात्व के प्रबल उदय से जीवों का उपशम सम्यक्त्व नष्ट हो जाता है और फिर कषायों की उत्पत्ति हो जाती है। श्रावकों की ५३ क्रियायें-८ मूलगुण, १२ व्रत, १२ तप, १ समता, ११ प्रतिमा, ४ दान, १ जलगालन, १ रात्रि भोजन त्याग और ३ सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र ये ८±१२±१२±१±११±४±१±१±३·५३ क्रियायें श्रावकों के लिए कही गई हैं।
मिस्सोत्ति बाहिरप्पा तरतमया तुरिय अंतरप्पजहण्णा।
सत्तोत्तिमज्झिमंतर खीणुत्तर परमजिणसिद्धा।।१२९।।
जिस प्रकार जलती हुई अग्नि में जो डालो सो भस्म हो जाता है, उसी प्रकार जो भक्ष्य-अभक्ष्य सभी का भक्षण कर जाते हैं तथा जो शील रहित हैं, रात्रि में भी भोजन करते हैं उन्हें असंयमी समझना चाहिए।
ज्ञान से ध्यान की सिद्धि होती है, ध्यान से समस्त कर्मों की निर्जरा होती है, निर्जरा का फल मोक्ष है अत: सभी कर्मों का नित्य ही ज्ञानाभ्यास करना चाहिए। कुशल व्यक्ति के तप होता है, निपुण व्यक्ति के संयम होता है, समताभावी के वैराग्य होता है किन्तु श्रुत की भावना से अर्थात् श्रुताभ्यास से ये तीनों ही हो जाते हैं। हे भव्य जीवों! इसलिए श्रुत का अभ्यास करो। यह जीव अनादिकाल से लेकर अनंतकाल तक मिथ्यात्व के निमित्त से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव से पंचपरिवर्तनरूप संसार में भ्रमण कर रहा है किन्तु उसे सम्यक्त्व प्राप्त नहीं हुआ है अतएव संसार परिभ्रमण बना हुआ है। जब यह जीव शुद्ध-निर्दोष सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है तभी सुखी होता है किन्तु जब तक शुद्ध सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं कर पाता है तब तक दु:खी रहता है। बहुत कहने से क्या लाभ है ? सम्यक्त्व के बिना सब कुछ दु:खरूप ही है और सम्यक्त्व से सहित सब कुछ सुखरूप ही है। यह निश्चय से जानो। निक्षेप, नय, प्रमाण, व्याकरण, अलंकार, छंद शास्त्र, नाट्य शास्त्र और पुराण शास्त्र इन सबका ज्ञान प्राप्त किया, बाह्य क्रियाएं भी कीं किन्तु सम्यक्त्व के बिना दीर्घ संसार ही है अर्थात् सम्यक्त्व के बिना संसार का अंत नहीं हो सकता है। जो साधु वसतिका, प्रतिमा-प्रतिमायोग, उपकरण, गुण, गच्छ, शास्त्र, संघ, जाति, कुल, शिष्य, प्रतिशिष्य, पुत्र, पौत्र, वस्त्र (श्रुत के वेष्टन), पुस्तक, पिच्छी, संस्तर और इच्छाओं में लोभ से ममकार करता है और जब तक उसके आर्त-रौद्रध्यान रहता है तब तक वह मुक्त नहीं हो सकता है और न उसे पूर्ण सुख ही मिल सकता है।
वास्तव में मोक्षमार्ग में गमन करने वाले साधु का रत्नत्रय ही गण है, रत्नत्रय ही गच्छ है, गुणों का समूह ही संघ है और निर्मल आत्मा ही समय है। जैसे सूर्य गहन अन्धकार को, वायु मेघ को, अग्नि विशाल वन को और वज्र पर्वत को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार सम्यक्त्व कर्मों को नष्ट कर देता है। जो अपने हृदय में मिथ्यात्वरूपी अन्धकार से रहित सम्यक्त्वरूपी रत्नदीप के समूह को प्रज्ज्वलित करता है वह तीनों लोकों को सम्यक् प्रकार से देखता है ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप का अभ्यास परमात्मा के ध्यान का कारण है, परमात्मा का ध्यान कर्मक्षय का कारण है और कर्मक्षय होने पर निश्चय से मोक्ष सुख मिलता है ऐसा तुम समझो। जो मन, वचन, काय से भाव विशुद्धिपूर्वक धर्मध्यान का अभ्यास करता है, वह परमात्मा के ध्यान में स्थित हो जाता है और उसी ध्यान से वह कर्मों को नष्ट कर देता है। जिस प्रकार अतिशोधन क्रिया से स्वर्ण शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार से काललब्धि आदि के द्वारा आत्मा परमात्मा हो जाता है। जैसे कामधेनु, कल्पवृक्ष, चिन्तामणि- रत्न, रसायन और पारसमणि सभी को इच्छित वस्तु देते हैं या इनमें से किसी को भी प्राप्त करने वाला मनुष्य यथेच्छ सुख भोगता है, उसी प्रकार सम्यक्त्व से यथेच्छ सुख मिलता है ऐसा तुम समझो। यह रयणसार (रत्नसार) नाम का ग्रन्थ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, वैराग्य, तपोभाव, निरीहवृत्ति, चारित्र, गुण, शील और आत्मस्वभाव को उत्पन्न करता है। जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित इस ग्रन्थ को जो न तो मानता है, न सुनता है, न पढ़ता है, न चिन्तन करता है और न भावना करता है, वह मिथ्यादृष्टि है। जो व्यक्ति सज्जनों के द्वारा पूज्य इस रयणसार ग्रन्थ को आलस्य से रहित होकर सदा ही पढ़ता है, सुनता है, भावना करता है अर्थात् इसके अनुवूâल अपनी प्रवृत्ति करता है, वह शाश्वत स्थान-मोक्ष को प्राप्त कर लेता है, ऐसा श्री कुन्दकुन्दाचार्य का कथन है। वस्तुत: यह ‘रयणसार’ ग्रंथ श्री कुन्दकुन्द देव द्वारा रचित है। इसमें मुख्यरूप से श्रावकों की क्रियाओं का बहुत ही सुन्दर विवेचन है। प्रत्येक श्रावक का कत्र्तव्य है कि वे भगवान कुन्दकुन्ददेव के कहे अनुसार अपने सम्यक्त्व को निर्मल करके ५३ क्रियाओं का पालन करते हुए अपने गृहस्थाश्रम के जीवन को सफल कर लेवें।