शुभ—केलि के आनन्दके धनके मनोहर धाम हो, नरनाथसे सुरनाथसे पूजित चरण गतकाम हो।
सर्वज्ञ हो, सर्वोच्च हो, सबसे सदा संसार में, प्रज्ञा कलाके सिन्धु हो, आदर्श हो आचार में।।१।।
संसार—दुखके वैद्य हो त्रैलोक्यके आधार हो, जय श्रीश! रत्नाकरप्रभो! अनुपम कृपा—अवतार हो।
गतराग ! है विज्ञप्ति मेरी मुग्धकी सुन लीजिए क्योंकि प्रभो ! तुम विज्ञ हो, मुझको अभय वर दीजिए।।२।।
माता पिता के सामने बोली सुनाकर तोतली, करता नहीं क्या अज्ञ बालक बाल्य—वश लीलावली ? अ
पने हृदय के हालको त्यों ही यथोचित रीतिसे— में कह रहा हूँ, आपके आगे विनय से प्रीति से।।३।।
मैने नहीं जगमें कभी कुछ दान दीनोंको दिया, मैं सच्चरित भी हूँ नहीं मैने नहीं तप भी किया।
शुभ भावनाएं भी हुई, अब तक न इस संसार में— मैं घूमता हूँ, व्यर्थ ही भ्रम से भवोदधि—धारमें।।४।।
क्रोधाग्निसे मैं रात दिन हा! जल रहा हूँ हे प्रभो ! मैं लोभ नामक सांप से काटा गया हूँ हे विभो !
अभिमान के खल ग्राहसे अज्ञानवश मैं ग्रस्त हूँ, किस भाँनि हों स्मृत आप, माया—जालसे मैं व्यस्त हूँ।।५।।
लोकेश ! पर—हित भी किया मैंने न दोनों लोकमें, सुख—लेश भी फिर क्यों मुझे हो, झींकता हूँ शोकमें।
जग में हमारे से नरोंका जन्म ही बस व्यर्थ है, मानों जिनेश्वर ! वह भवोंको पूर्णता के अर्थ है।।६।।
प्रभु ! आपने निज मुख सुधाका दान यद्यपि दे दिया, यह ठीक है, पर चित्तने उसका न कुछ भी फल लिया।
आनन्द—रस में डूबकर सद्धत्त वह होता नहीं, है वङ्का सा मेरा हृदय, कारण बड़ा बस है यही।।७।।
रत्नत्रयी दुष्प्राप्य है प्रभुसे उसे मैंने लिया, बहु काल तक बहु बार जब जग का भ्रमण मैंने किया।
हा खो गया वह भी विवश मैं नींद आलसके रहा, बतलाइये उसके लिए रोऊँ प्रभो ! किसके यहाँ ?।।८।।
संसार ठगने के लिए वैराग्यको धारण किया, जग को रिझाने के लिए उपदेश धर्मों का दिया।
झगड़ा मचानेके लिए मम जीभ पर विद्या बसी, निर्लज्ज हो कितनी उड़ाऊँ हे प्रभो ! अपनी हँसी।।९।।
परदोषको कह कर सदा मेरा वदन दूषित हुआ, लख कर पराई नारियों को हा नयन दूषित हुआ।
मन भी मलिन है सोचकर पर की बुराई हे प्रभो, किस भाँति होगी लोकमें मेरी भलाई हे प्रभो।।१०।।
मैने बड़ाई निज विवशता हो अवस्था के वशी, भक्षक रतीश्वरसे हुई उत्पन्न जो दुख—राक्षसी। हाँ!
आपके सम्मुख उसे अति लाजसे प्रकाटित किया, सर्वज्ञ! हो सब जानते स्वयमेव संसृतिकी क्रिया।।११।।
अन्यान्य मन्त्रोंसे परमेष्ठि मंत्र हटा दिया, सच्छास्त्र—वाक्योंको कुशास्रों से दबा मैंने दिया।
विधि—उदय को करने वृथा, मैंने कुदेवाश्रय लिया, हे नाथ, यों भ्रमवश अहित मैंने नहीं क्या क्या किया।।१२।।
हा, तज दिया मैंने प्रभो! प्रत्यक्ष पाकर आपको, अज्ञान वश मैंने किया फिर देखिये किस पाप को।
वामाक्षियों के राग में रत हो सदा मरता रहा, उनके विलासों के हृदयमें ध्यान को धरता रहा।।१३।।
लख कर चपल—दृग—युवतियों के मुख मनोहर रसमई, जो मन पटल पर राग भावों की मलिनता बस गई।
वह शास्त्र निधि के शुद्ध जल से भी न क्यों धोई गई ? बतलाइए यह आप ही मम बुद्धि तो खोई गई।।१४।।
मुझमें न अपने अंग के सौन्दर्य का आभास है, मुझमें न गुणगुण है विमल, न कला—कलाप—विलाप है।
प्रभुता न मुझमें स्वप्नको भी चमकती है, देखिये, तो भी भरा हूँ गर्वसे मैं मूढ़ हो किसके लिए।।१५।।
हा नित्य घटती आयु है पर पापा—मति घटती नहीं, आई बुढ़ोती पर विषयसे कामना हटती नहीं।
मैं यत्न करता हूँ, दवा मैं, धर्म मैं करता नहीं, दुर्मोह—महिमासे ग्रसित हूं नाथ! बच सकता नहीं।।१६।।
अध—पुण्यको, भव—आत्मको मैंने कभी माना नहीं, हा आप आगे हैं खड़े दिननाथसे यद्यपि यहीं।
तो भी खलोंके वाक्यको मैने सुना कानों वृथा, धिक्कार मुझको है, गया मम जन्म ही मानों वृथा।।१७।।
सप्तात्र—पूजन देव—पूजन कुछ नहीं मैंने किया, मुनिधर्म श्रावकधर्म का भी नहीं सविधि पालन किया।
नर जन्म पाकर भी वृथा ही मैं उसे खोता रहा, मानो अकेला घोर वनमें व्यर्थ ही रोता रहा।।१८।।
प्रत्यक्ष सुखकर जिन—धरम में प्रीति मेरी थी नहीं, जिननाथ ! मेरी देखिए है मूढ़ता भारी यही।
हां ! कामधुक कल्पद्रुमादिक के यहाँ रहते हुए, हमने गँवाया जन्मको धिक्कर दुख सहते हुए।।१९।।
मैंनेन रोका रोग—दुख संभोग—सुख देखा किया। मनमें न माना मृत्यु—भय—धन लाभ ही लेखा किया।
हा! मैं अधम युवती—जनोंका ध्यान नित करता रहा, पर नरक—कारागार से मनमैं न डरता रहा।।२०।।
सद्वृत्ति से मनमें न मैंने साधुता हा साधिता, उपकार करके कीर्ति भी मैंने नहीं कुछ अर्जिता।
शुभ तीर्थ के उद्धार आदिक कार्य कर पाये नहीं, नर—जन्म पारस—तुल्य निज मैंने गँवाया व्यर्थ ही।।२१।।
शास्त्रोक्त विधि वैराग्य भी करना मुझे आता नहीं, खल—वाक्य भी गतक्रोध हो सहना मुझे आता नहीं।
अध्यात्म—विद्या है न मुझमें है न कोई सत्कला, फिर देव ! कैसे यह भवोदधि पार होवेगा भला!।।२२।।
सत्कर्म पहले जन्ममें मैंने किया कोई नहीं, आशा नहीं जन्मान्यमें उसको करूंगा मैं कहीं।
इस भांति यदि हूँ जिनेश्वर ! क्यों न मुझको कष्ट हों ? संसार में फिर जन्म तीनों क्यों न मेरे नष्ट हों ?।।२३।।
\हे पूज्य! अपने चरित को बहुभाँति गाऊं क्या वृथा, कुछ भी नहीं तुमसे छिपी है पापमय मेरी कथा।
क्योंकि त्रिजग के रूप हो तुम, ईश हो, सर्वज्ञ हो, प्रथके प्रदर्शक हो, तुम्हीं मम चित्तके मर्मज्ञ हो।।२४।।
दीनोद्धारक धीरे आप सा अन्य नहीं है, कृपा—पात्र भी नाथ ! न मुझसा अपर कहीं है।
तो भी माँगू नहीं धान्य धन कभी भूल कर, अर्हन् ! केवल बोधिरत्न होवे मंगलकार।।
श्रीरत्नाकर गुणगान यह दुरित दु:ख सबके हरे। बस एक यही है प्रार्थना मंगलमय जग को करे।।२५।।