श्रावक हो या साधु, दोनों को ही व्रतों की रक्षा के लिए अनस्तमित अर्थात् दिवा भोजन नामक व्रत का पालन करना आवश्यक है। त्याग पूर्वक व्रताचरण में जीवन व्यतीत करने वाला श्रावक ही बुद्धिमान है। रात्रि में भोजन करने वालों के अनिवार्य रूप से हिंसा होती है। अत्याग में रागभाव के उदय की उत्कृष्टता होती है। कृत्रिम् प्रकाश में सूक्ष्म जीवों की और अधिक उत्पत्ति हो जाती है, जो भोज्य पदार्थो में अनिवार्य रूप में मिल जाते हैं। अहनिर्श भोजी पुरुष राग की अधिकता के कारण अवश्य हिंसा करता है। छठी प्रतिमा रात्रि मक्ति त्यागी क होती है जिसमें ज्ञावक-अन्न, पान, स्वाघ और लेह इन चारों प्रकार के आहार को ग्रहण नहीं करता है। रात्रि भोजन के अनेक दोष हैं –
(१) जब रात्रि मे व्यापारादि और जीवन की अन्य क्रियायों वर्जनीय हैं फिर रात्रि भोजन क्यों ?
(२) रात्रि भोजन संयम का विनाश करने वाला होता है। जीवों के भक्षण की सम्भावना रात्रि में बनी होने से गृद्धता का दोष लगता है। जो अहर्निश खाया करते हैं वे पशु के समान ही होते है।
(३) महाभारत के शांति पर्व में नरक के ४ दरवाजे कहे हैं – उनमें पहला रात्रि भोजन कहा है।
(४) रात्रि में वातावरण का ताप सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति में अनुकूलनता पैदा करता है। ये जीव हवा के झोंके से तत्काल मर जाते हैं और उनका कलेवर भोजन में मिल जाता है। ऐसी स्थिति में रात्रि भोजन का त्याग न करने वालों को मांस का त्यागी कैसे कहा जा सकता है।
(५) रात्रि में भोजन पकाते समय उसकी गंध से अनेक जीव आकर भोजन में पड़ जाते हैं। दया धर्म के पालन करने वाले पुरुष को इसका त्याग कर देना चाहिए। श्रावक की पहचान तीन बातों से है – देवदर्शन, स्वच्छ वस्त से जल छानकर पीना और रात्रि भोजन त्याग। श्रावक द्वारा व्रतों के पालन करने का मूल उद्देश्य होता है, अहिंसा धर्म की रक्षा करना। सागार (श्रावक) हो अथवा अनगार (साधु) दोनों को ही व्रतों की रक्षा के लिए अनस्तमित अर्थात दिवा भोजन नामक व्रत का पालन करना आवश्यक है।
सागरेवाऽनगारेवाऽनस्तमितमणुव्रतम् ।
समस्तव्रत रक्षार्थ स्वय व्यंजन भाषितम्१ ।।
संसार में वही श्रावक है, वही कृति और बुद्धिमान है जो त्यागपूर्वक व्रताचरण में जीवन व्यतीत करता है। श्रावक के मूल गुणों में स्थूल रूप से रात्रि भोजन का त्याग करना, अनुभव और आगम से सिद्ध है। श्रावक के व्रतों का आरोहण उत्तरोत्तर ग्यारह प्रतिमाओं के अनुपालन करने में है। व्रतों में प्रवेश रात्रि भोजन निषेध से ही प्राप्त होता है। प्रथम दार्शनिक प्रतिमा में अन्नादिक स्थूल भोजनों का त्याग कहा है और इसमें रात्रि को औषधि रूप जल आदि ग्रहण किया जा सकता है।
निषिद्धमन्नमात्रादि स्थूल भेज्यं व्रते दृश: ।
न निषिद्धं जलाद्यन्न ताम्बूलाद्यपि वा निशि२ ।।
वस्तुत: पहली प्रमिता को धारण करने वाला श्रावक अव्रती है। इसलिए वह पाक्षिक श्रावक कहलाता है। क्योंकि वह व्रतों को धारण करने के पक्ष में रहता है। रात्रि भोजन निषेध, जैन कुल परम्परा से चली आ रही कुल क्रिया है। बिना रात्रि भोजन त्याग के किसी भी व्रत को धारण करने का पक्ष स्वीकार नहीं। सचमुच रात्रि भोजन निषेध व्रतों के अनुशीलन का मंगलाचरण है।३ रात्रि में भोजन करने वालों के अनिवार्य रूप से हिंसा होती है। अत्याग में राग भाव के उदय की उत्कृष्टता होती है। जैसे अन्नग्रास की अपेक्षा मांस ग्रास खाने वाले को अधिक राग होता है। अत: रात्रि भोजी हिंसा का परिहार कैसे कर सकेगा। कृत्रिम प्रकाश में सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति हो जाती है, जो भोज्य पदार्थों में अनिवार्यत: मिल जाते हैं। अहर्निश भोजी पुरुष राग की अधिकता के कारण अवश्य हिंसा करता है।४ प्रतिमाओं के प्रसंग में छठी प्रतिमा रात्रि भुक्ति त्यागी की होती है। जिसमें श्रावक अन्न, पान, स्वाद्य, लेह इन चारों प्रकार के आहार को ग्रहण नहीं करता है।
अन्नं पानं, स्वाद्यं, लेहं, नाश्नाति यो विभावर्याम् ।
स च रात्रि भुक्ति विरत: सत्वेष्वनुकम्पमानमना: ।।
स्वमिकातिकेयानुप्रेक्षागत श्रावक धर्म में कहाँ गया है कि छठी प्रतिमाधारी श्रावक दाल, भात, आदि खाद्य, मिष्ठान आदि स्वाद, चटनी आदि लेह और पानी, दूध, शरबत आदि पेय पदार्थों का रात्रि सेवन न स्वयं करता है और न ही दूसरों को कराता है। क्योंकि वह सभी प्रकार के आरंभ का त्यागी होता है।
जो चउविंह भोज्जं रयणीए णेव भुंजदे णाणी ।
पायं भुंजावादि अण्णं, णिसिविरओं सो हवे भोज्जो५ ।।८१।।
१. रात्रि में निम्नांकित जीवन के व्यापारादि और अन्य क्रियाएं वर्जनीय हैं फिर रात्रि भोजन क्यों ?
अ. सूक्ष्म जंतुओं का समूह स्पष्ट और अस्पष्ट दिखाई नहीं देता है।
ब. कोई वस्तु अंधेरे में स्पष्ट न दिखने से त्यागी वस्तु के खा लेने का दोष लगता है।
स. साधु वर्ग विचरण नहीं करते तथा रात्रि में देव व गुरू पूजा नहीं की जाती।
द. संयमी पुरुष गमनागमन नहीं करते।
इ. श्राद्धकर्म स्नान, दान, आहुति, यज्ञ आदि शुभ एवं धार्मिक क्रियाएं रात्रि में वर्जनीय होती हैं। ऐसी रात्रि में कुशल पुरुष भोजन नहीं करते हैं।
२. रात्रि भोजन संयम का विनाश करने वाला होता है। क्योंकि रात्रि में जीते जीवों की भक्षण की संभावना रहती है और इससे खाने की गृद्धता का दोष लगता है।७ जो अहर्निश सदा खाया करते हैं वे सींग, पूछ और खुर रहित पशु ही हैं।
३.भाग्यहीन, आदररहित नीच, कुलहिं उपजाहिं ।
दुख अनेक लहै सही जो निशि भोजन खाहिं ।।२८।।
जो कदाचि मर मनुष है, विकल अंग बिनु रूप ।
अलप आयु दुर्भंग अकुल, विधि रोग दुख कूप ।।६६।।१०
४. रात्रि के समय यानि सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय के पूर्व भोजन करने वाले मनुष्य को मरकर उसे पाप के फल से उल्लू, कौंआ, बिलाव, गीध, संवर, सूअर, सांप, बिच्छू, गोध आदि निकृष्ट पशु योनि में जन्म लेना पड़ता है। महाभारत के शांतिपर्व में नरक में जाने के चार दरवाजे बताए गए हैं। उनमें पहला रात्रि के साथ भोजन करना कहा गया है। परस्त्रीगमन, पुराना अचार, मुरब्बा आदि खाना और जमीकंद खाना ये अन्य चार बातों में हैं।
५. रात्रि में वातावरण का ताप, सूक्ष्म जीवों एवं अनेक त्रस जीवों की उत्पत्ति में अनुकूलनता पैदा करता है। ये सभी जीव समुदाय जरा सा हवा का झोंका लगने से देखते ही देखते मर जाते हैं और उनका कलेवर भोजन में मिल जाता हैं, ऐसी स्थिति में रात्रि भोजन का त्याग करने वाले का मांस का त्यागी कैसे कहा जा सकता है अर्थात् नहीं कहा जा सकता है।
६. भोजन पकते समय पाक भोज्य की गंध वायु में फैलती है, उस वायु के कारण उन पात्रों में अनेक जीव आकर पड़ते हैं। अत: दयाधर्म पालन करने वाले पुरुषों को रात्रि, भोजन को विष मिले अन्न के समान मानकर सदा के लिए त्याग कर देना चाहिए। रात्रि भोज के पाप से मनुष्य नीचे कुलों में दरिद्री के रूप में उत्पन्न होता है। उस पाप से अनेक दोषों से परिपूर्ण राग द्वेष से अंधी, शील रहित, कुरूपिणी और दुख देने वाली स्त्री मिलता है। बुरे व्यसनों में रंगे हुए पुत्र और क्लेश देने वाले भाई बंधु मिलते हैं। वह भव-भव में दरिद्री, कुरूप, लंगड़ा, कुशील, अपकीर्ति वाला, कुमार्ग गामी और निद्यं होता है। अत: रात्रि में आहार का त्याग कर देने से वह अपनी दंद्रियों को वशीभाूत करके संयमी बनता है।
७. जो पुरुष सूर्य के अस्त हो जाने पर भोजन करते हैं, उन पुरुषों को सूर्य द्रोही समझना चाहिए। जैसा कि धर्म संग्रह श्रावकाचार में कहा गया है।
यो मित्रेऽस्तंगते रत्ते विदध्याद्भोजनंजन ।
तद् द्रोही स भंत्पाप: शवस्यापरि चाशन् ।।२६।।११
सूर्य प्रकाश पाचन शक्ति का दाता है। जिनकी पाचन शक्ति कमजोर पड़ जाती है। उसके लिए डॉक्टर की यही सलाह है कि वह दिन में हल्का भोजन करें। उसके लिए रात्रि में भोजन करने का निषेध किया जाता है। रात्रि के समय हृदय और नाभिी कमल संकुचित हो जाने से मुक्त पदार्थ का पाचन गड़बड़ हो जाता है। भोजन करके सो जाने पर वह कमल और भी संकुचित हो जाता है और निद्रा में आ जाने से पाचन शक्ति घट जाती है। आरोग्य शास्त्र में भोजन करने के बाद तीन घंटे तक सोना स्वास्थ्य की दृष्टि से विरुद्ध हैं। सूर्य के प्रकाश में नीले आकाश के रंग में सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति उतनी ही अधिक होती है जो भोजन में गिर जाते हैं। गिर जाने से हिंसा का पाप तो लगता ही है साथ ही अनेक असाध्य रोग पेट में उत्पन्न हो जाते हैं। सूर्य के प्रकाश में अल्ट्रावायलेट किरणें एवं अवरक्त लाल किरणें होती हैं। जिस प्रकार एक्स रे मांस और चर्म को पार कर जाती हैं उसी प्रकार उक्त दोनों प्रकार की किरणें कीटाणुओं के भीतर प्रवेश कर उन्हें नष्ट करने की शक्ति रखती हैं। यही कारण है कि दिन में सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति नहीं होती है। उकत दोनों प्रकार की किरणें सूर्य के दृश्य प्रकाश के साथ रहती हैं। जैसा कि हम जानते है ऑक्सीजन प्राण वायु होती है श्वास लेने में लाभकारी और उपयोगी है तथा कार्बनिक गैसें हानिकारक होती हैं। वृक्ष दिन में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में कार्बोनिक गैसों का अवशोषण करके ऑक्सीजन गैस का उत्सर्जन करते रहते हैं। इस प्रकार दिन में पर्यावरण शुद्ध और स्वस्थ्यकर रहता है जबकि रात्रि में वृक्ष कार्बोनिक गैसों को मनुष्य की भांति छोड़ते हैं और पर्यावरण अशुद्ध हो जाता है। अत: दिन के शुद्ध वायुमण्डल में किया गया भोजन स्वास्थ्यकर और पोषण युक्त होता है। भारतीय प्राचीन ग्रंथों में एवं वेदों में सूर्य को भगवान की संज्ञा से उपहृत कर उसकी उपासना की जाती है। कई जैन एवं जैनेतर लोग रविव्रत (रविवार को व्रत) करते हैं। कुछ सूर्य को जलार्पण करते हैं। यह सब इसलिए किया जाता है कि सूर्य रोग हारक शक्ति रखता है।
अंग्रेजी में एक प्रसिद्ध कहावत है – Deads of Daekness are commited in the dark
अर्थात् काले, अन्याय और अत्याचार के कार्य अंधकार में ही किये जाते है। हमारी आत्मा और शरीर दोनों का संबंध भोजन से है। शुद्ध और सात्विक भोज शुद्ध विचार उत्पन्न करता है और शीर को निरोग रखता है। भोजन के लिए चार प्रकार की शुद्धि कही गयी है – द्रव्य शुद्धि, क्षेत्र शुद्धि, काल शुद्धि और भाव शुद्धि। जो भी खाया जाए या पिया जाए वह शुद्ध होना चाहिए। द्रव्य शुद्धि अहिंसा भाव से आती है। जो भोजन हिंसा कारणों से या हिंसा कार्य से उद्भूत होता होगा वह कभी भी शुद्ध नहीं हो सकता है। हिंसक साधनों जैसे चोरी आदि से कमाया गया धन और उससे बना भोजन कैसे शुद्ध होगा। उसी प्रकार अकाल या रात्रि में किया गया भोजन शुद्ध नहीं होता है। प्रकाश में किया शुद्ध भोजन सात्विक भावों का जनक होता है। स्वामी शिवानंद जी एक परोपकारी संत हुए है जिन्होंने हेल्थ एंड डाइट पुस्तक में लिख है।
The evening meal should be light and eating and eating very early. If possible take milk and fruits only before 7pm. No Solid or liquid should be taken affter Sunset.
रात्रि शब्द का पर्यायवाची तिमस्रा है। तम: पूर्ण होने से यह तमिस्रा कहलाती है। तम: समय में बना भोजन भी तामसी होता है। अस्तु सात्विक लोगों को तामस भोजन सर्वथा त्याज्य है। इसलिए रात्रि के समय बनाया गया भाजन दिन में खाना भी सर्वथा तामसिक होने से वर्जित है। सात्विक आहार केवल सूर्य के प्रकाश में ही बनाया हुआ और ग्रहण करने से सुख, सत्व और बल का प्रदाता होता है। आरोग्यदाता सूर्य के प्रकाश में धर्म, अर्थ और पुरुषार्थ किया जाता है जबकि काम पुरुषार्थ के लिए रात्रि होती है।
घड़ी दोय जब दिन चढै, पिछलो घटिका दोय ।
इतने मध्य भोजन करे, निश्चय श्रावक सोय ।।
जो सच्चा श्रावक होता है, वह दिन निकलने के दो घड़ी पश्चात तथा सूर्यास्त के दो घड़ी पहले ही भोजन ग्रहण कर लेता है। इसका भी वैज्ञानिक कारण है – प्रकाश की सम्पूर्ण आंतरिक परिवर्तन की घटना के कारण अपने वास्तविक उदयकाल से २ घड़ी अर्थात ४८ मिनट पूर्व ही पूर्व दिशा में दिखने लगता है। वह वास्तविक सूर्य नहीं होता है। बल्कि सम्पूर्ण आंतरिक परावर्तन की घटना के कारण उसका आभासी प्रतिविंब दिखाई देता है। इसी प्रकार वास्तविक सूर्य डूब जाने के बाद भी दो घड़ी या ४८ मिनट तक उसका आभासी प्रतिबिंब आकाश में दिखाई देता रहता है। सूर्य के इस आभासी प्रतिबिंब में दृश्य किरणों के साथ अवरक्त लाल किरणों एवं अल्ट्रा वायलेट किरणें नहीं होती है। वे केवल सूर्योदय के पश्चात भोजन करने का विधान सुनिश्चित किया गया है। इसी प्रकार वैष्णव धर्म में सूर्य ग्रहण के काल में भोजन करने का विरोध किया गया है। इसका भी वैज्ञानिक पहलू है। सूर्यग्रहण के समय में उक्त दोनों प्रकार की अदृश्य किरणों की अनुपस्थिति दृश्य प्रकाश में रहती है। इन दोनों प्रकार की किरणों (इन्प्ररेड एवं अल्ट्रावायलेट) के गर्म स्वभाव के कारण भोजन को पचाने की क्षमता होती है। कृत्रिम तेज प्रकाश जैसे सोडियम लैंप, मर्करी लैंप, आर्क लैंप से निकलने वाले प्रकाश का यदि वर्णक्रम देखें तो स्पष्ट होता है उनमें भी ये दोनों की किरणें नहीं पाई जाती हैं।
जैन धर्म में जमीकंद को अखाद्य य अभक्ष्य क्यों बताया गया है उसका भी बड़ा वैज्ञानिक कारण है। जहां सूर्य की किरणें नहीं पहुंच पाती वहां असंख्यात सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति हो जाती है। जमीन के अंदर अधंकार में होने वाले आलू, मूली, अरबी आदि कंदमूल में असंख्यात सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति हो जाने से उनका त्याग बताया गया है। रात्रि, अंधकार युक्त तामसी हुआ करती है। उस समय असंख्यात जीव स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होने के कारण रात्रि भोजन का निषेध किया गया है। एक बात और अनुभव में आती है कि रोगी का रोग रात्रि में ज्यादा तकलीफदेह हो जाता है। रोगी का दिन आसानी से व्यतीत हो जाता है लेकिन रात्रि तामस होने के कारण वह रोग को बढ़ा देती है। दिन सात्विक होता है जो रोग में फायदा पहुंचाता है। अत: रात्रि में भोजन करना हानिकारक है। हमारे शरीर में सात्विक, राजस एवं तामस ये तीन गुण पाए जाते हैं। इनमें सात्विक गुण प्रकृतिक होता है। जबकि राजस और तामस वैकृतिक या वैभाविक परिणति वाले माने गये हैं। दिन में भोजन करने से प्राकृतिक सात्विक गुण प्राकृतिक सात्विक गुण की वृद्धि होती है। जिससे पुरुष में ज्ञान, बुद्धि, मेधा, स्मृति आदि गुणों का विकास होता है तथा रात्रि में भोजन करने से तामस गुणों की वृद्धि होती है जिससे व्यक्ति के अंदर विषाद, अधर्म, अज्ञान, आलस्य और राक्षसी वृत्ति का जन्म होती है।रात्रि में खाया हुआ भोजन तामसी परिणामों का दाता होता है।
१. जो मद्य पीते हैं, मांस भक्षण करते हैं, रात्रि के समय भोजन करते हैं तथा कंद भोजन करते हैं उनके तीर्थयात्रा करना, जप-तप करना, एकादशी करना, जागरण कराना, पुष्कर स्नान या चन्द्रायण व्रत रखना आदि सब व्यर्थ हैं। वर्षाकाल के चार मास में तो रात्रि भोजन करना ही नहीं चाहिए। अन्यथा चन्द्रायण व्रत करने पर भी शुद्धि नहीं होती है। (ऋषीश्वर भारत वैदिक दर्शन)
२. वैदिक ग्रंथ यजुर्वेद आहिृक में लिखा है –
पूर्वान्हे भुज्यते देवैर्मध्यान्हे ऋभिमिस्तथा ।
अपरान्हे च पितृभि: सायाहृे दैत्य दानवै: ।।२४।।
स्वर्गवासी देवों का भोजन प्रात:काल, ऋषिगण मध्यान्ह में और पितृगण दिन के तीसरे पहर अपरान्ह में भोजन करते हैं जबकि राक्षस और दैत्य जन रात के समय भोजन किया करते हैं।
संध्याया यक्षरभोभि: सदा कुलोद्वह ।
सर्वबेलामतिक्रम्य रात्रौ भुक्त भोजनम् ।।४९।।
३. मार्कण्डेय पुराण में स्पष्ट रूप से सूर्य के अस्त हो जाने पर पानी पीना रुधिर पीने के समान और अन्न खाना मांस खाने के समान बताया है।
अस्त गते दिवानाथे आपो रूधिरमुच्यते ।
अन्नं मासं समं प्रोक्तं मार्कण्डेय महर्षिणा ।।१४
४. स्कंधपुराण के अध्याय सात में दिन में भोजन करने वाले पुरुष को विशेष पुण्य का भेग्य बताया गया है-
एक भक्ताशनान्नित्यमग्रिहोत्रफलं भवते् ।
अनस्तभेजिनो नित्यं तीर्थयात्रा फलं भजते् ।।
अर्थात् जो दिन में एक बार भोजन करता है, उसे अग्रिहोम के फल के समान फल प्राप्त होता है और सूर्यास्त के बाद भोजन करने वाला घर बैठे ही समस्त तीर्थ यात्राओं का फल प्राप्त करता है।
५. योग वाशिष्ठ के पूर्वाद्र्ध श्लोक में लिखा है कि जो रात्रि के समय भोजन नहीं करता विशेष रूप से चौमासे में नहीं करता उसी सभी इच्छाएं इस लोक और परलोक में पूर्ण हो जाती है।
नक्तं न भोज्येद्यस्तु चातुर्मास्ये विशेषत: ।
सर्वकामनानवाप्नोति ईहलोके परत्र च ।।१५
६. रात्रि भोजन निषेध के साथ-साथ मनुस्मृति में जल छानकर पीना बताकर इन चार बातों को करणीयं माना है –
दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिवते: ।
सत्य पूतं वदेद्वाक्यं, मन: पूतं समाचरेत् ।।
इसी कारण अरण्यपुराण वैदिक शास्त्र में रात्रि भोज को मांस भक्षण के तुल्य माना है।
बंदेलखण्ड में ‘अन्थउ’ शब्द का प्रयोग सूर्यास्त के पूर्व भोजन करने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। यह अणथम् शब्द का अपभ्रंश है। जिसका अर्थ है अनस्तमित या रात्रि भोजन का त्याग। अमितगति श्रावकाचार में लिखा है दिन के आदि और अंत दो-दो घड़ी समय को छोड़कर जो भोजन निर्मल सूर्य के प्रकाश में निराकुल होकर करते हैं वे मोहांधकार को नाश कर आर्हन्त्य पद पाते हैं। रात्रि में भोजन त्याग से आधा जनम उपवास में व्यतीत होता है। जो सज्जन रात्रि भोजन निवृत्ति रूप नियम न लेकर, दिन में ही भोजन करते है उन्हें यद्यपि कुड भी फल प्राप्त नहीं होता पर वे भावी जन्म दिवा भोजी कुल में पा सकते हैं। जो अज्ञानी पुरुष रात्रि भोजन जीवों के लिए सुखदायी कहते हैं, माना वे ग्रिशिखाओं के मध्य जलते हुए वन में फलों की आशा रखते हैं। जो लोग पुण्यकारी दिन के भोजन और पापपूर्ण रात्रि भोजन को समान कहते हैं वे प्रकाश और अंधकार को समान कोटि में परिगणित कहते हैं। जो पुण्य की आकांक्षा से दिन में उपवास रखकर रात्रि में भोजन करते हैं वे फल देने वाली लता को मानों भस्म कर रहे हैं।
अहिंसाव्रत रक्षार्थ मूलव्रत विशुद्धये ।
निशायां वर्जयेद्भक्तिमिहामुत्र च दु:खदाम् ।।
यशस्तिलकचम्पू – गत उपासकाध्ययन के उक्त कथानुसार अहिंसा व्रत की रक्षा के लए इस लोक और परलोक में दुख देने वाले रात्रि भोजन का त्याग कर देना चाहिए। मौन पूर्वक भोजन करने से तप एवं संयम की वृद्धि होती है और भोजन के प्रति लोलुपता कम होती है। अत: व्रती श्रावक को नियम से मौनपूर्वक मौनपूर्वक भोजन करना चाहिए। इससे उसके स्वाभिमान की रक्षा होती है और उसे याचनाजनित दोष नहीं लगता। मौन पूर्वक भोजन करने से भोजन के प्रति आसक्ति भाव उत्पन्न नहीं होता है। इस प्रकार न केवल अध्यात्म एवं धार्मिक दृष्टि से अपितु स्वास्थ्य और आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार सायंकाल के भोजन के एक पहर पश्चात शयन करना चाहिए अन्यता अजीर्ण आदि रोग उत्पन्न होते हैं। विवेकी पुरुषों को रात्रि भोजन का अवश्य परित्याग कर देना चाहिए।
१.भव्योपदेश उपासकाध्ययन – श्रावकाचार, भाग ३, पृ. ३७६
२. लाटी संहिता, पृ. ५ वही
३. वही, श्लोक ४७ एवं ४८ पृ. ९ वही
४. रात्रौ भुंजानानां यस्मादनिवारिता भवति हिंसा।
हिंसा विरतैस्तस्माव्यक्ति व्यारात्रि भुक्ति रवि।
रागाद्युस्य परत्वाद निवृत्तिर्नातिवर्तते हिंसा।
रात्रि दिवमाहरत: कथं हि हिंसा न सम्भवति ।।
पुरुषार्थसिद्धपुयाय ।।
श्लोक १२९ एवं १३० श्रावकाचार भा एक ।।
५. स्वामिार्तिकेयानुपेक्षागत श्रावकाचार – श्लोक ८१
६. न श्राद्धं दैवतं कर्म स्नान दानं न चाहुति: ।
जायते यत्र कि तत्र नराणां भोत्तु मर्हति ।।२५।।
धर्मसंग्रह श्रावकाचार, पृ. १२३
७. भुंजते निशि दुराशा यके गृद्धि दोष वश वर्तिनोजना: ।।४३।।
अमितगति श्रावकाचार
८. वल्लभते दिननिशिथयो: सदा यो निरस्त यम संयम क्रिया: ।
श्रंग, पुच्छ शफ संग वर्जितो मण्यते पशुवयं मनीषिभि: ।।४४।।
अमितगति श्रावकाचार
९. किसनसिं कृत क्रिया कोष (श्रावकाचार संग्रह भाग-५)सम्पादक – स्व पं. हीरालाल शास्त्री – श्लोक (पद) २८ पेज १६५ १०. वही, पेज १६७, पद ६६
११. धर्मसंग्रह श्रावकाचार, श्लोक २६ पृ. १२३ (श्रावकाचार संग्रह भाग-२, सम्पादक वही)
१२. हेल्थ एण्ड डाइट (ले. स्वामी शिवानंद जी) पृ. २६०
१३. किंसनसिंहकृत क्रियाकोश, दोहा १६ पृ. १६४
१४. मार्कण्डेय पुराण अध्याय ३३ श्लोक ५३
१५. योग वाशिष्ठ, श्लोक १०८
१६. श्रावकाचार संग्रह भाग १, अमितगति श्रावकाचार, श्लोक ४७ से ४९ तक, पृ. ३०८