रामगढ़ राजस्थान के बारा जिला मुख्यालय से ३५ किलोमीटर की दूरी पर २५ २० उत्तरी अक्षांश एवं ७६ ३७ पूर्वी देशांतर पर स्थित है। रामगढ़ की गोलाकार पहाड़ियाँ चम्बल की सहायक सती एवं उसकी सहायक नदियों से निर्मित सुविस्तीर्ण जलोह मैदान रिंग के रूप में उठी हुई हैं। इन पहाड़ियों का १६ किलोमीटर का आंतरिक भाग प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण है। इस गोलाकार पहाड़ी संरचना की उत्पत्ति उल्कापात टकराव के प्रभाव से उत्पन्न मानी गई है।
इस क्षेत्र का प्राचीन नाम श्रीनगर था। यहाँ पर ब्राह्मण संस्कृति एव श्रमण संस्कृति दोनों ही संस्कृतियाँ फली फूली जो कि तत्कालीन समाज में धार्मिक सहिष्णुता का परिचायक है। पहाड़ियों के मध्य स्थत तीन जलाशयों में से एक का नाम पुष्कर झील है जो लगभग ५० बीघा में विस्तृत है। यहाँ के चप्पे-चमे में हिन्दू एवं जैन मन्दिरों के अवशेष तथा मूर्तियाँ दृष्टिगोचर होते हैं एवं कुछ टीलों के रूप में वद्यमान हैं। यहाँ का भण्डदेवरा मन्दिर जो कि भगवान् शिव को है, उसको छोटा खजुराहो भी कहा जाता है।
जैन मान्यताओं में इसे छोटा गिरनार की संज्ञा दी गई है इसका विस्तृत उल्लेख डा. विमल चन्द्र जैन ने प्राचीन तीर्थ जीर्णोद्धार में “सतोवरी मन्दिर छोटा गिरनार पुनरुद्धार की दरकार नामक शीर्षक में अंक मई २०१० में किया है। मन्दिर पहाड़ियों के ऊपर रिम के प्रवेश दर्रे पर दोनों पावों में प्राचीन किला व चार वारी है तथा पुराने मन्दिरों, मकानों, बस्तियों की जीर्ण-शीर्ण संरचनाएं एवं भग्नावशेष है जिसमें से एक मन्दिर को सरावगी का मन्दिर कहते हैं। रामगढ़ क्षेत्र के बहुसंख्यक जन पुरावशेष एवं चीन प्रतिमाएँ बारा जैन नशियाँ, पाटनपोल मन्दिर (कोटा), पुरातत्व संग्रहालय कोटा तथा भोपाल संग्रहालय में संग्रहीत है तथा कुछ मूतियाँ अभी भी तालाब के अन्दर जलमग्न हैं। रामगढ़ के कुछ इत्वपूर्ण जैन पुरास्थल निम्नलिखित हैं।
१. सतोवरी मन्दिर यह मन्दिर २०० मीटर ऊँची पहाड़ी के की हो सकता है। में है। यहाँ पर जाने का मार्ग सुगम नहीं है। पेड़ो एवं टीली यों के बीच पथरीले पगडंडीनुमा मार्ग से ऊपर चढ़ना पड़ता है। ज्ञात इतिहास के पूर्ववर्ती काल में यहाँ २८०-३०० जैन घरों की तो वो तथा चार-पाँच जैन मन्दिर का समूह भी रहा है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण मन्दिर सतोवरी मन्दिर रहा है।
सतावरी अर्थात यो या मंजिलों या माले वाला मन्दिर आंचलिक भाषा अर्थात् बिना खिड़की वाला रोशनदान वाला छोटा भण्डार है इस मन्दिर से लगभग संवत् १६५८ में तीन विशाल प्रतिमाएँ मिनाथ जी की पद्मासनस्थ एवं शान्तिनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में एक सर्वतोभद्र प्रतिमा बारा जैन नशियों में तथा समकालीन शनि की कोटा के पाटनपोल मन्दिर में स्थापित की गई। इसका विस्तृत उल्लेख प्राचीन तीर्थ जीर्णोद्धार पत्रिका के प्रबंध सम्पादक श्री कुमार जैन ने बाराका रामगढ़” अंक मई २०१० में किया है।
वर्तमान में विद्यमान भग्नावशेषों एवं प्रतिमाओं के रूप में मन्दिरों के आमलक, कलश एवं प्रतिमाएँ तथा निपीथिका उल्लेखनीय है जिसमें लगभग फीट ऊँची शान्तिनाथ की प्रतिमा जिसका मस्तक खण्डित है तथा पार्श्व में चामरधारी देवों का अंकन है तथा सिंहासन के मध्य में धर्मचक्र का अंकन है जिसके दोनों ओर हिरणों का अंकन है। यह प्रतिमा अभिलिखित है जिसका संवत् १२११ है। (चित्र १) यहाँ की एक और प्रतिमा जो कि किसी आचार्य या किसी राजपुरुष (चित्र 3)
इसके मस्तक के ऊपरी भाग में तीर्थकर का अंकन है, ऊपरी किनारों पर मालाधारी देवों का अंकन है, प्रतिमा का आया भाग नष्ट हो गया है। यहाँ की आदिनाथ की प्रतिमा जो कि (चित्र २) संवत् १२१४ की है पद्मासन मुद्रा में है। पद्मासित हथेली के ऊपर & का भाग खण्डित हो गया है। यहाँ पर शीर्षरहित तीर्थंकर की प्रतिमा भी विद्यमान है जो कि अभिलिखित है जिसका लेखा काफी घिसा हुआ है। (चित्र २) यहाँ पर एक ६ फीट लम्बी निषीयिका जिसका संवत् १२३२ प्रमुख है।
इसके चारों तरफ में तीर्थंकर, स्वाध्याय करते उपाध्याय, चक्रेश्वरी एवं अम्बिका की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण है जिसमें संवत् १२३२ विशाख दि लेख लिखा हुआ है। इस निषिधिका में और भी लेख लिखे हैं जो कि पठनीय हैं। इस निविधिका में चरण चिह्न का अंकन है। (चित्र ३)
पहाड़ी पर स्थित जैन मन्दिरों एवं उनके अवशेषों के सर्वेक्षण के पश्चात जो तथ्य सामने आये हैं उनसे ऐसा आभास होता है कि यहाँ भोयरे बनाकर मूतियों स्थापित करने की परम्परा रही है जो लगभग ११वी से १३वी शताब्दी की शैली रही है। इस प्रकार की शैली मध्य प्रदेश के कई जैन पुरास्थलों में भी प्रचलित रही है। वर्तमान में इस स्थल पर मन्दिरों के पत्थर एवं अन्य अवशेष प्राकृतिक आपदाओं के कारण गिर गये हैं जिसकी विधिवत् उत्खनन कराकर मन्दिर का पुनरुद्धार किया जा सकता है।
२. भण्डदेवरा परिक्षेत्र भण्डदेवरा मन्दिर जो कि भगवान शिव को समर्पित है इस मन्दिर के तीन स्तनों में भी जैन साधुओं का अंकन है इस प्रकार के अंकन मध्य प्रदेश के खजुराहो के विश्वनाथ मन्दिर एवं गुजरात के मोढ़ेरा के सूर्य मन्दिर में भी हैं। इस मन्दिर के सामने के क्षेत्र में ६-७ मन्दिरों का समूह था जो खण्डित होकर टीले के रूप में है। इनके ऊपरी भाग में जैन प्रतिमाएँ, जिनमें पार्श्वनाथ का खण्डित मस्तक ( चित्र ४) चतुष्टिका सहस्रकूट (चित्र ५),
अवशेष बिखरे पड़े हैं। कई अवशेष टीले के अन्दर दबे पड़े हैं जिन्हें उत्खनन कराकर प्रकाश में लाया जा सकता है।
३. तालाब में जलमग्न मूर्तियों यहाँ के तालाबों में जिसमें पुष्कर नामक तालाब प्रसिद्ध है उनके अन्दर भी कई जैन प्रतिमाएँ जलमग्न है जो कि तालाब का पानी कम होने पर दिखलाई पड़ती है उन्हें सुरक्षित निकालकर संग्रहालय बनवाकर संगृहीत की जा सकती है।
४. पुरानी कचहरी- यहां पर बने एक चबूतरे पर तीर्थंकर का मस्तक रखा हुआ मस्तक के विशाल आकार से प्रतीत होता है कि मूर्ति काफी बड़ी रही होगी।
५. शीतलामाता मन्दिर सतोवरी मन्दिर के पहले एक शीतलामाता का मन्दिर बना है इसके अन्दर भी कई जैन प्रतिमाएँ एवं तीर्थंकर का मस्तक रखा है।
६. छतरियाँ एवं चरण चिह्न यहाँ की दायीं तरफ की पहाड़ी पर छतरियाँ बनी हुई हैं। (चित्र ६) जिनमें चरण चिह्न भी बने हुये है संभावना है कि कुछ छतरियों भंहारकों की है एवं निपिधिकाओं के (चित्र ७) चरण चिह्नों को वहाँ पर स्थापित किया गया है। (चित्र ७)
७. यहाँ पर स्थित तालाब के किनारे एक हिन्दू मंदिर के बायें मण्डप के स्तंभ पर तीर्थकर प्रतिमा लगी हुई है जो कि पद्मासन मुद्रा में है। संभावना है कि इस मूर्ति को बाद में स्थापित किया गया है। (चित्र ८)
केवलपुरी- यह रामगढ़ से लगभग ८ किलोमीटर की दूरी पर है। यहाँ पर दो मन्दिर शिखरयुक्त विद्यमान हैं जिन्हें देवरानी जेठानी के नाम से जाना जाता है। जिसमें देवरानी मन्दिर जैन मन्दिर है जिसमें ललाट बिम्ब पर तीर्थंकर का अंकन है। संभावना है कि इस मन्दिर के द्वार को रामगढ़ से पुनर्स्थापित किया गया है एवं एक चबूतरे पर तीर्थंकर की प्रतिमा विराजमान है।
रामगढ़ के सर्वेक्षणों के पश्चात् किये गये अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि यह प्राचीन समय में जैन संस्कृति का एक बड़ा केन्द्र रहा है जिसके अवशेष विशाल मात्रा में इस क्षेत्र से प्राप्त होते हैं। यदि इस क्षेत्र का विधिवत् उत्खनन कराया जाये तो यहाँ के इतिहास की टूटी हुई कड़ियों को जोड़ा जा सकता है। यहीं पर एक संग्रहालय का निर्माण कराना अत्यन्त आवश्यक है जिससे असुरक्षित पड़ी पुरा-सम्पदा को सुरक्षित किया जा सकता है। सतोवरी के जैन मन्दिर का जीर्णोद्धार कराकर इसे तीर्थ क्षेत्र के रूप में विकसित किया जा सकता है।