राष्ट्र की एकात्मकता एवं सामाजिक समरसता के संदर्भ में जैन चिन्तन दर्शन
उपाध्याय श्री गुप्तिसागर जी महाराज
प्रथम ‘राष्ट्र’ द्वितीय ‘समाज’ और तृतीय ‘मैं’ जीवन का अहं विषय जहां जिनका है, होगा। वे ही राष्ट्रीय एकता का संदेश प्रसारित कर सकते हैं। वे ही प्राणिमात्र की पीड़ा अपनी पीड़ा समझ दूर करने का पुरूषार्थ कर सकते हैं। वे ही ‘‘जन गण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता’’ का गीत जन—मन में मैत्री भाव से गुंजा सकते हैं वे कभी दूसरे के अस्तित्व को नकार नहीं सकते। हर जीव की अपनी स्वतंत्रता है उस पर अधिकार न जमाये अन्यथा जीवन की हर श्वांस परतन्त्रता अनुभव करायेगी। राष्ट्र की अखण्डता और एकता के लिए हमें यदि अपने स्वार्थ को त्यागना पड़े। अपनी सुख—सुविधाओं को कम करना पड़े अथवा अपना सर्वस्व ही अर्पण क्यों न करना पड़े, तो भी पीछे नहीं हटना चाहिए। राष्ट्रहित प्रथम है, समरसता सर्वोपरि है। जहां जातिवाद, वर्णवाद, ऊँच—नाच का संस्कार, काले—गोरे का भेद, महिला और पुरूष में अन्तर न रखते हुए समरसता पूर्ण जीवन रोजमर्रा की जिन्दगी बन जाती है, वहाँ कितना आनन्द और खुशियाँ होगी, उसका अन्दाज नहीं लगाया जा सकता है ।मात्र अनुभूत किया जा सकता है, जीया जा सकता है। यही ऐसे पुरूष ही भारत के देवता हैं। इनकी दृष्टि में परिपूर्ण समता है इसीलिए जैन अध्यात्म के शिरोमणि आचार्य कुन्दकुन्द देव ने कहा है।
सम्यगदर्शन और सम्यग्ज्ञान से युक्त जो चरित्र है, वही संयम है। वही धर्म है और उसी का नाम साम्यभाव भी है। मोह और क्षोभ से रहित जो आत्मा का परिणाम है वह साम्यभाव है। इससे एक कत्र्तव्य—निष्ठ, ईमानदार व्यक्ति का लक्षण साम्यवाद हुआ। शत्रु—मित्र, सुख—दु:ख, निन्दा—प्रशंसा, लौह—कंचन, जीवन और मृत्यु इत्यादिक में जिन्हें इष्टानिष्ट की कल्पना नहीं है वस्तुत: वही राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांधने वाला साम्ययोगी श्रमण है। वह कहता है—
हे आत्मन् ! सांसारिक सुख और दु:ख वास्तव में दोनों एक ही हैं क्योंकि जिस प्रकार सुख पराधीन, बाधा सहित, विनाशक, बन्धकारक तथा विषम है। उसी प्रकार दु:ख भी पराधीन, बाधा सहित, विनाशक, बन्धकारक तथा विषम है और इस सुख का कारण पुण्य भी पाप की भांति अवस्था विशेष में त्याज्य है। इसी कारण सुख—दु:ख की नार्इं पुण्य पाप में भी कोई भेद नहीं है। अस्तु मनुष्य को चाहिए सम्यक पुरूषार्थ करे, सही दिशा में चले, तो दशा अवश्य सुधरेगी, समरसता आयेगी और अखण्ड राष्ट्र का सुख एवं निष्कण्टकता प्रत्येक को महसूस होगी। तथापि प्रत्यक्ष— परोक्ष प्रमत्त दोष के वशीभूत हुए अपराधों से निजात पाने हेतु निम्न मन्त्र आचरण का अंग बनाए—
सभी जीवों को मैं क्षमा करता हूँ, सभी जीव मुझे क्षमा करें, सभी के साथ मेरा मैत्री भाव है, मेरा किसी के साथ वैर भाव नहीं है। पुनश्च —
‘‘सब जीवों से रहे मित्रता, गुणी जनों से प्रेम अपार।
प्राणिमात्र पीड़ित हों जो भी उनके प्रति मैं रहूँ उदार।
देव! मुझे सद्बुद्धि यही दो, समतामय देखूँ यह विश्व ।
दुर्जन दुष्ट विरोधीजनों पर , साम्यभाव रक्खूँ हो नि:स्व।।’’
भगवान महावीर गार्हस्थिक जीवन व्यतीत करने वाले मादर्वशील कहते हैं—
अवृत्ति व्याधि शोकार्ताननुवर्तेते शक्तित: ।
आत्मवत्सततं पश्येदपि कीटपिपीलिका:।।
जो आजीविका के अभाव से व्याधि और शोक पीड़ित हैं, शक्ति के अनुसार उनकी सहायता करनी चाहिए और कीट, चींटी आदि को भी अपने समान देखना चाहिए। क्योंकि ‘‘ धम्मो दयाविशुद्धो’’ । (बोध पाहुड २५) धर्मदया से विशुद्ध होता है। दयावान प्राणी सदा नम्र दृष्टि से चलता है। उसकी आँखों में अहंकार नहीं तैर सकता। उसे पता है अपने समान दूसरे को भी अपने प्राण प्रिय हैं। कोई मरना नहीं चाहता। इसीलिए श्रमण ईर्यापथ सीमित पूर्वक चलते हैं। ‘‘जीवाणं रक्खणं धम्मो’’ विश्वधर्म के प्रवर्तक आचार्य कार्तिकेय जीवों की रक्षा को धर्म कहकर एक बहुत बड़ा दायित्व हम सबके कंधों पर सौंपते हैं, जैसे भाई का दायित्व बहिन की रक्षा करना है। उसी तरह जीव मात्र की रक्षा हमारा कर्तव्य है, इसी से मिलता है समरसता को बल, बढ़ावा। किन्तु ध्यान रखिए! मनुष्य की विजय वहीं संभव है जहां वह परिस्थितियों के चक्रव्यूह में न पंâसकर कर्तव्याकत्र्तव्य का विचार कर उचित मार्ग पर चले। जीवन अनन्त है और मनुष्य की सामथ्र्य भी अनन्त है, उसे जाग्रत करने के लिए सत्संग संजीवनी है। सत्संग से परदु:ख कातरता, अपार, करूणा, कठोर आत्मदमन, सत्यनिष्ठा, परोपकार, गुरू—उपासना राष्ट्रसेवा एवं सयंम जैसे उदात्त गुण उत्पन्न हो जाते हैं।