आत्मा का स्वभाव ज्ञान दर्शन स्वरूप है। इस गुण को आठों कर्मों ने आच्छादित कर दिया है। आत्मा में ज्ञान आदि शक्ति विशेष लब्धि है। लब्धि शब्द का व्युत्पत्तिलक्ष्य अर्थ है— ‘‘लम्भनं लब्धि :—प्राप्त होना। ज्ञानावरण कर्म क्षयोपशमविशेष:’’ (स. सि. २//१८, २९६ पृष्ठ १२७) अर्थात् ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष को लब्धि कहते हैं। ‘‘इन्द्रियनिर्वृत्ति हेतु: क्षयोपशम विशेषा लब्धि:।’’ (रा.वा. २-१८,१,१३०, २०) जिस ज्ञानावरण क्षयोपशम के रहने पर आत्मा द्रव्येन्द्रिय की रचना के लिए व्यापार करता है उसे लब्धि कहते हैं। द्रव्येन्द्रिय—शरीरधारी जीव को जानने के लिए साधन—स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण बाह्य इन्द्रियाँ द्रव्येन्द्रिय हैं। भाव इन्द्रिय—द्रव्यइन्द्रिय के पीछे रहने वाले जीव के ज्ञान का क्षयोपशम व उपयोग भावेन्द्रिय है, जो साक्षात् जानने का साधन है। ‘‘लब्धुपयोगौ भावेन्द्रियम्।’’ लब्धि और उपयोग भावेन्द्रिय है। त. सू. २/१८ लब्धि के अनुसार होने वाला आत्मा का ज्ञानादि व्यापार उपयोग है। ‘‘तन्निमित्त: परिणाम विशेष उपयोग’’—रा. वा. २/१८, २०, २ पृष्ठ १३० ‘‘मतिज्ञानावरण क्षयोपशमोत्था विशुद्धि जीवस्यार्थ—ग्रहणशक्ति लक्षणलब्धि:’’ —गो. जी./प्र./१६५/३१९/४ जीव के मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न विशुद्धि और उससे उत्पन्न पदार्थों को ग्रहण करने की शक्ति लब्धि है। इन्द्रिय की निवृत्ति का कारणभूत जो क्षयोपशम विशेष लब्धि है। इसके सन्निधान से आत्मा द्रव्येन्द्रिय की रचना में व्यापार करना है, ऐसे ज्ञानावरण के क्षयोपशम विशेष लब्धि है। ‘‘तपोविशेषाद्दद्विप्राप्तिर्लब्धि:।’’ —स. सि. २/४७, ३५३/२ तप विशेष से प्राप्त होने वाली ऋद्धि लब्धि है।
पांचलब्धि—दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि, उपभोगलब्धि और वीर्यलब्धि। ये पाँच लब्धियाँ दानान्तराय आदि के क्षयोपशम से होती है। ‘‘लद्धी पंच वियप्पा दाण—लाह—भोगुपभोग—वीरिय—मिदि।’’ क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग और क्षायिक वीर्य।धवला ५/१, ७, १/१९१/३ दाणे लाभे भोगे परिभोगे वीरिए य सम्मत्ते। णव केवल—लद्धीओ दंसणं णाणं चरित्ते य।। अर्थात् दान, लाभ, भोग, परिभोग, वीर्य, सम्यक्त्व, दर्शन, ज्ञान और चरित्र ये नो केवल लब्ध्यिाँ है।धवला, १, १, १/५८-६५; वसु क्षा/५२७ गो. सा. जीव/ जी. प्र. /६३/१६४/३ लब्धि:काल करणोपदेशोपशमप्रायोग्यता भेदात् पंचधा। जीवों की सुखादि की प्राप्ति रूप लब्धि काल, करण, उपदेश, उपशम और प्रायोग्यता पांच प्रकार की होती हैं।नियमसार/ता. दृ. १५६ खयउवसमियविसोही देसणपाउग्गकरणलद्धि य।धवला ६/१-९-८/३, गाथा १/२०४ क्षयोपशम, विशुद्धि देशना, प्रायोग्यता और करण ये पाँच लब्धियाँ है। स्पर्धक—अनेक प्रकार की अनुभाग शक्ति से युक्त कार्मण वर्गणाओं के समूह को स्पर्धक कहते हैं। इन पांच लब्धियों के हुए बिना सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है। क्षयोपशम लब्धि—आठों कर्मों की समस्त अप्रशस्त प्रकृतियों की अनुभाग शक्ति प्रति समय अनन्तगुणी घटती हुई आगे क्रम से उदय में आने लगे उस काल में क्षयोपशम लब्धि है। स्पर्धक:—उदय प्राप्त कर्म के प्रदेश
जो सर्वघाती स्पर्धक के उदय का अभाव यम और सर्वघाती स्पद्र्धक उदय अवस्था को प्राप्त तो नहीं हुए परन्तु जिनकी सत्ता विद्यमान है वह उपशम ऐसे संयोग की प्राप्ति जिस समय होती है, वह क्षयोपशम लब्धि है। पूर्व संचित कर्मों के मल रूप पटल के अनुभाग स्पर्धक जिस समय विशुद्धि के द्वारा प्रतिसमय अनन्तगुण हीन होते हुए उदीरणा (नियत काल से पूर्व बद्धकर्मों का उदय में लाकर भोगना) को प्राप्त होते हैं उस समय क्षयोपशम लब्धि होती है।धवला ६/१.९.८३/२०४-३ विशुद्धि लब्धि—क्षयोपशम लब्धि के प्रभाव के बन्ध का कारण धर्मानुराग रूप शुभ भावों की प्राप्ति होना विशुद्धि लब्धि है।धवला ६/१, ९-८, ३/२०४,५ इस प्रकार क्षयोपशम लब्धि से साता वेदनीय आदि प्रकृतियों के बन्ध का कारण धर्म अनुराग रूप शुभ भावों की प्राप्ति होती है वह विशुद्धि लब्धि है। देशना लब्धि—६ द्रव्य, नवपदार्थो के उपदेश देने वाले आचार्य आदि का मिलना, उपदेश की प्राप्ति होना, उसके स्वरूप को धारणा में लेना देशना लब्धि हैं नरक आदि में जहाँ पर उपदेश देने वाले नहीं हैं, वहाँ पर पूर्व जन्म में जो तत्त्व स्वरूप जाना था उसके संस्कार के बल से सम्यग्दर्शन हो जाता है। जीव को द्रव्य पदार्थो को बताने वाले आचार्य आदि का समागम, उपदेश का ग्रहण और धारण करने का लाभ देशना लब्धि में होता है। प्रायोग्य लब्धि—सर्वकर्मो की उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभाग को तीन लब्धियों सहित जीव जब समय—समय विशुद्धता को बढ़ाते हुए आयु कर्म के अलावा सात कर्मों की स्थिति अंत:कोडाकोडि सागर शेष रह जाये। घातियाँ कर्मो का अनुभाग—रस, दाक और लता रूप बचता है और अघातियाँ कर्मो का अनुभाग—निबं—कांजीर रूप बचता है। ऐसा कार्य करने की योग्यता की प्राप्ति, वह प्रायोग्य लब्धि है। यह भव्य और अभव्य दोनों के हो सकती है। इस प्रकार तीन लब्धि—क्षयोपशम, विशुद्धि और देशना लब्धि सहित जीव प्रतिसमय विशुद्ध होता है और अप्रशस्त प्रकृतियों के अनुभाग को द्विस्थानीय (लता दारू, अस्थि—शेल में से लता—दारू रूप) करता है। करण लब्धि—करण कषायों की मन्दता से होने वाले विशुद्धिरूप आत्म परिणाम। (अ) अध:करण (ब) अपूर्वकरण और (स) अनिवृत्तिकरणधवला ६/१/ ? ९-८, ४/२१४/५, गो. क. जी. प्र. /९/८९७/१०७६/४ करण का अर्थ है परिणाम—करणा: परिणामा:।धवला १/१, १, १६/१८०/१ जीव के शुभ—अशुभ परिणाम करण है। अध:करण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण तीनों की विशिष्ट निर्जरा के साधन विशुद्ध परिणाम है।ल. सा./जी. प्र. ३३/६९
प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धि से वृद्धिगत होता है। इस करण में नीचे के समय के परिणामों की संख्या और विशुद्धता ऊपर के समयवर्ती किसी दूसरे जीव के परिणामों से समानता लिये होती है। इसलिए इसे अध:प्रवृत्त करण भी कहते है।। १. सातादिप्रशस्त प्रकृतियों का प्रतिसयम अनन्तगुणा चतु:स्थानीय अनुभाग बंध गुड, खाण्ड, शर्करा, अमृत के समान चार प्रकार का अनुभाग बन्ध। २. स्थिति बन्ध का अपसरण होता है। ३. असातावेदनीय अप्रशस्त प्रकृतियों का प्रतिसमय अनन्तगुण घटता हुआ द्विस्थानीय अनुभागबन्ध। प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि से वृद्धिगत होता है। इस करण में ऊपर के समय में वर्तमान जीव के परिणाम जैसी विशुद्धता वैसी ही विशुद्धता लिए हुए परिणाम नीचे के समय में वर्तमान जीव के भी होते हैं वह अध:प्रवृत्त करण है। (ब) अपूर्वकरण अ (नहीं) + पूर्व (पहले) जो पूर्व में नहीं थे। करण ृ परिणाम अर्थात् आज तक जो परिणाम नहीं थे ऐसे अत्यन्त नवीन परिणाम। (१) गुण श्रेणी निर्जरा (२) गुण संक्रमण (३) स्थिति खण्डन (४) अनुभाग खण्डन (१) गुणश्रेणी निर्जरा—गुणित रूप से उत्तरोत्तर समयों में कर्म परमाणुओं का झरना। (२) गुण संग्रहण—प्रतिसमय असंख्यात गुणश्रेणी क्रम से परमाणु प्रदेश अन्य प्रकृति रूप परिणमे। (३) स्थिति खण्डन—पहले बंधी हुई उन सत्ता में रहने वाली कर्म प्रकृतियों की स्थिति का घटाना। (४) अनुभाग खण्डन—पहले बंधी हुई उन सत्ता में रहने वाली अशुभ कर्म प्रकृतियों का अनुभाग घटाना। (स) अनिवृत्तिकरण अ (नहीं) + निवृत्ति (भेद) + करण (परिणाम)
यहाँ समान समयवर्ती अनेक जीवों के परिणाम समान होते हैं जितने अनिवृत्तिकरण के अंतर्मुहूर्त के समय हैं उतने ही अनिवृत्तिकरण के परिणाम हैं। करण लब्धि तो भव्य जीवों को ही होती है। ‘‘करणलब्धिस्तु भव्य एव स्यात्’गो. जी./जी. प्र. ६५१ / ११००/९ करण लब्धि भव्य जीव के सम्यक्त्व ग्रहण अथवा चारित्र ग्रहण के काल में ही होती है। इस प्रकार ज्ञान आदि शक्ति विशेष लब्धि है। सम्यक्त्व प्राप्ति में उक्त पांच लब्धियों (क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण) का होना आवश्यक है। इनमें पूर्व की चार लब्धियाँ तो भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के जीवों के हो सकती है लेकिन पांचवी लब्धि (करण लब्धि) भव्य जीवों के होती है।