जहाँ हम महामना महापुरुषों का वन्दन कर, उनका गुणानुवाद कर अपने जन्म को सार्थक समझते हैं, वहीं एक बार हमारा मस्तक उन भव्यात्माओं के जन्मदाता माता-पिता के लिए भी झुकता है, क्योंकि जिस प्रकार वृक्ष के हरे-भरे एवं फलदार होने में उसकी जड़ की मुख्यता है, जिस प्रकार किसी भी सुन्दर, आकर्षक एवं सुसज्जित मकान में उसकी नींव की प्रमुखता है, ठीक उसी प्रकार उन सन्तों की महानता, उनके व्यक्तित्व आदि में उनके माता-पिता की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वस्तुत: बालक की प्रथम पाठशाला उसके माता-पिता होते हैं, जिनके द्वारा प्रदत्त संस्कार बालक को महान से महान और अधम से अधम भी बना देते हैं और यह तो सभी जानते हैं कि जीवन में संस्कारों का विशेष महत्व होता है। हमारे जीवन के प्रत्येक क्षण में संस्कार अपनी अहम् भूमिका निभाते हैं। उन महापुरुषों के जन्मदाता को नमन करते हुए आपको यहाँ परिचित कराया जा रहा है श्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी के जनक लाला श्री छोटेलाल जी से, जिन्हें हम ‘‘चैतन्य रत्नाकर’’ कहते हुए स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं।
टिकैतनगर में जन्म
शाश्वत तीर्थ अयोध्या के निकट बाराबंकी जिले के अन्तर्गत टिकैतनगर नामक नगर में लाला श्री नौबतराय जी के पुत्र श्री धन्यकुमार जी के तीन पुत्र एवं तीन पुत्रियाँ थीं। जिनके नाम इस प्रकार हैं-बब्बूमल, छोटेलाल, बालचंद, कुनका देवी, रानी देवी, प्यारी देवी। इन सभी के पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र आदि से समन्वित परिवार देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति में सतत अग्रणी रहते हैं। तीन पुत्र एवं तीन पुत्रियों में द्वितीय पुत्र के रूप में जन्मे छोटेलाल को धार्मिक संस्कार विरासत में ही प्राप्त हुए थे, ये प्रतिदिन देवदर्शन करके ही नाश्ता आदि लेते थे। इन्होंने बचपन में स्कूल में ३-४ कक्षा तक ही अध्ययन किया पुन: व्यापार में रुचि अधिक होने से यह कपड़े का व्यापार करने लगे। बचपन से ही प्रतिदिन मंदिर जाते, पानी छानकर पीते और रात्रि में भोजन नहीं करते थे। पिता धन्यकुमार ने परम्परा के अनुसार इन्हें आठ वर्ष की उम्र से ही अष्टमूलगुण दिलाकर जनेऊ पहना दिया था। १४-१५ वर्ष की छोटी सी उम्र में यह घोड़ा चलाना सीख गए और दो-चार साथियों के साथ घोड़े पर कपड़ा लादकर ये टिवैतनगर के बाहर गांवों में व्यापार करने लगे। देखते ही देखते यह कुशल व्यापारी बन गए और अपने भुजबल के श्रम से अच्छा धन कमाया और प्रतिष्ठित महानुभावों में गिने जाने लगे।
युवावस्था में विवाह
युवावस्था में इनका विवाह अवध प्रान्त के महमूदाबाद नगर के लाला श्री सुखपालदास जी की सुपुत्री मोहिनी देवी के साथ सम्पन्न हुआ। पति और पत्नी संसार में गाड़ी के उन दो पहियों के समान होते हैं, जिनके साथ-साथ चलने से गृहस्थीरूपी मंजिल शीघ्र पार हो जाती है। मोहिनी देवी को भी अपने पिता से विरासत में सुसंस्कार प्राप्त हुए थे, इन्होंने अपने पिता से दहेज में पद्मनंदि पंचविंशतिका नाम से एक ग्रंथ प्राप्त किया था, फिर तो सोने में सुहागा की कहावत चरितार्थ हो गई और गृहस्थावस्था में प्रवेश कर मोहिनी धर्मध्यानपूर्वक अपना काल यापन करने लगीं। इनके चार पुत्र एवं नौ पुत्रियाँ, ऐसी १३ सन्तानें हुर्इं, जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं-१. मैना २. शांति ३. कैलाश ४. श्रीमती ५. मनोवती ६. प्रकाश ७. सुभाष ८. कुमुदनी ९. रवीन्द्र १०. मालती ११. कामिनी १२. माधुरी और १३. त्रिशला। जिनमें से कु. मैना ने १८ वर्ष की लघुवय में उस समय त्यागमार्ग को अंगीकार कर कुमारिकाओं का मार्ग प्रशस्त किया, जब कोई भी कुमारी कन्या उस समय त्यागमार्ग पर निकली ही नहीं थी और उस षोडश वर्षीय बालिका ने त्यागमार्ग पर कदम बढ़ाने के साथ गणिनी ज्ञानमती माताजी के रूप में उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए विश्व में अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व से, जो अपूर्व कीर्तिमान स्थापित किया है, वह युगों-युगों तक चिरस्मरणीय एवं स्तुत्य रहेगा। कु. मनोवती ने उसी पथ का अनुसरण करते हुए हैदराबाद में पूज्य ज्ञानमती माताजी से क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण की और सन् १९६९ में आचार्य श्री धर्मसागर महाराज से आर्यिका दीक्षा लेकर ‘‘आर्यिका अभयमती’’ नाम प्राप्त किया। कु. माधुरी ने ११ वर्ष की लघुवय में ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर १८ वर्ष पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की छत्रछाया में रहकर गुरुसेवा, वैय्यावृत्ति, अध्ययन-अध्यापन द्वारा चहुँमुखी प्रतिभा को निखारते हुए १३ अगस्त १९८९ को जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में पूज्य माताजी से आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर चन्दनामती नाम प्राप्त किया है। शेष पुत्रियों में शांति देवी, श्रीमती देवी, कुमुदनी देवी, मालती देवी, कामिनी देवी व त्रिशला कुशलतापूर्वक गृहस्थी का संचालन कर देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति करते हुए धर्माराधना में तत्पर हैं व अपनी पीढ़ी में भी धार्मिक संस्कारों का समावेश किया है। लाला जी के चार पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र श्री कैलाशचंद जैन टिकैतनगर से लखनऊ में आकर सामाजिक व राजनीतिक गतिविधियों में सक्रियरूप से भाग लेते हुए धर्माराधना में सदैव तत्पर रहते हैं। द्वितीय पुत्र श्री प्रकाशचंद जी ने भी गृहस्थावस्था में रहकर गृहस्थी का कुशल संचालन करते हुए समय-समय पर सामाजिक व राजनीति गतिविधियों में भाग लिया था। २१ मार्च २००५ को सम्मेदशिखर व पूज्य माताजी का ध्यान करते-करते टिकैतनगर में आपका स्वर्गवास हुआ है। तृतीय पुत्र श्री सुभाषचंद जी गृहस्थ धर्म का कुशल संचालन कर देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति में तत्पर हैं तथा चतुर्थ पुत्र ‘कर्मयोगी’ की उपाधि से अलंकृत (रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी) लघुवय में ही ब्रह्मचर्य व्रत लेकर पूज्य माताजी के चरण सानिध्य में रहकर उनके द्वारा निर्देशित प्रत्येक कार्यकलापों को मूर्तरूप देते हैं और अनेक संस्थाओं के सक्रिय अध्यक्ष व प्रत्येक युवा के आदर्श प्रेरणास्रोत हैं।
नियम की परीक्षा
कहा जाता है कि कोई भी व्रत अथवा नियम जब लिया जाता है, तब उसकी परीक्षा अवश्य होती है। लाला जी का मंदिर जाने का नियम था, कैसी ही व्यापारिक व्यस्तता क्यों न हो, भले ही दिन में १२-१ बज जाये किन्तु लाला जी घर में आकर मंदिर जाकर दर्शन करके ही भोजन करते थे। घर में स्वाध्याय भी करते थे, जिसकी प्रेरणा इन्हें अपनी बड़ी पुत्री मैना से प्राप्त हुई थी। बाद में कभी-कभी तो शास्त्र पढ़ते-पढ़ते गद्गद् हो जाते, उसमें मगन हो जाते और उस आनन्द की अनुभूति वह घर में पत्नी व बच्चों को शास्त्र की बातें सुनाते हुए करते थे। उनका प्राय: यही कहना था कि भइया! तुम चाहे धर्म-कर्म थोड़ा करो, व्रत उपवास मत करो, किन्तु झूठ मत बोलो, दूसरों का गला मत काटो अर्थात् बेईमानी करके दूसरों का धन मत हड़पो, किसी को कटु वचन मत बोलो, यही सबसे बड़ा धर्म है। यह धर्म ही मनुष्य को मनुष्यता का पाठ सिखाता है अन्यथा मनुष्य मनुष्य न रहकर पशु अथवा हैवान बन जाता है। उन्हें यह दृढ़ विश्वास था कि तीर्थयात्रा करने से, दान देने से, मंदिर में धन लगाने से, धार्मिक उत्सवों में बोलियाँ आदि लेने से, सच्चे साधुओं की सेवा-वैय्यावृत्ति करने से व्यापार बढ़ता है, इसीलिए वे सदा इन कार्यों में भाग लिया करते थे। अवध प्रान्त में शाश्वत तीर्थ अयोध्या से कुछ दूरी पर भगवान धर्मनाथ की जन्मभूमि रतनपुरी है, उसकी वेदी प्रतिष्ठा के समय की बात है, लाला श्री छोटेलाल जी ने उसमें वेदी का पर्दा खोलने की बोली ली थी, जब श्री जी को विराजमान करने का समय आया तब लाला जी ने अपनी बड़ी पुत्री कु. मैना से पर्दा खुलवाया। चूँकि मैना में धार्मिक संस्कार कुछ विशेष ही थे, अत: उन्होंने ज्यों ही महामंत्र का स्मरण कर पर्दा खोला कि अकस्मात् वहाँ पर एक दिव्य प्रकाश चमक उठा। वहाँ पर खड़े हुए सभी की आँखों में चकाचौंध सा हुआ और सबने प्रतिमा जी का चमत्कार एवं लाला जी की सुपुत्री का विशेष पुण्य जान उच्च स्वर में जय-जयकार के नारे लगाना शुरू कर दिया। लालाजी को जिनमंदिर में होने वाली धार्मिक मीटिंगों में भी विशेष रुचि थी। वे प्राय: सभी मीटिंगों में जाते और वहाँ से आकर समाज की सारी गतिविधियों की जानकारी घर के सभी सदस्यों को दिया करते थे तथा दुकान पर होने वाली विशेष बातों को घर जाकर पुत्री मैना को सुनाया करते थे। वस्तुत: लालाजी को अपनी पुत्री मैना पर बड़ा गर्व था, जब से कु. मैना ९-१० वर्ष की हुई थी, तभी से लालाजी अपनी पुत्री मैना को अपने पुत्र के समान समझकर घर एवं दुकान की तिजोरी की चाबियाँ, रुपये-पैसे आदि सब उन्हीं को संभलवाते थे। इन्होंने जब अपना नया घर बनवाना प्रारंभ किया, तो स्वयं खड़े रहकर बनवाया, ये प्रारंभ से ही बहुत परिश्रमी थे, पिता धन्यकुमार जी इनके श्रम से बहुत ही प्रसन्न रहते थे, अत: वृद्धावस्था में ये अपने इन्हीं पुत्र छोटेलाल के पास रहा करते थे और लाला जी भी अपने पिता की सेवा-सुश्रूषा अपने हाथों करके बहुत प्रसन्न होते थे। सन् १९३९ में आपके पिताजी स्वर्गस्थ हुए हैं।
माँ के वचनों का सम्मान
इन्होंने अपनी माँ के वचनों का भी सदैव सम्मान किया। कभी भी उन्हें अपमानजनक वचन स्वयं कहना तो बहुत दूर था, किसी अन्य को कहने भी नहीं दिया था। माँ के मन को किसी बात से दु:ख हो, ऐसा कार्य भी कभी नहीं करते थे। माँ की इच्छा के अनुसार अपनी बहनों को बुलाकर सदा उन्हें यथायोग्य मान-सम्मान एवं वस्तुएं दिया करते थे। साथ ही घर तथा व्यापार के प्रत्येक कार्यों में अपने बड़े भाई बब्बूमल और छोटे भाई बालचंद की सलाह से ही कार्य किया करते थे, इन्होंने यह आदर्श अपने घर में भाइयों के जीवित रहने तक बराबर जीवित रखा था, आज के युग में प्रत्येक भाई के लिए यह उदाहरण अनुकरणीय है। लाला जी में एक गुण विशेष था, वह यह कि यह अपनी पुत्रियों को रत्न के समान मानते थे। यदि कोई भी इनसे कह देता कि लाला छोटेलाल जी! आपकी तो कई पुत्रियाँ हैं….., तो इन शब्दों से इन्हें ऐसी नाराजगी होती कि शान्त स्वभावी लालाजी उसी समय चिढ़कर कहते कि भइया! तुम कौन होते हो मेरी पुत्रियों की गिनती करने वाले। मेरी सभी बेटियाँ अपना-अपना भाग्य लेकर आई हैं……इत्यादि। उन्होंने जीवन में कभी भी अपनी पुत्रियों को डाँटा नहीं अपितु कभी भाइयों ने कुछ कह दिया, तो उन्हें डांटा और दण्डित भी किया है, साथ ही जो लोग कन्या के जन्म से दु:खी होते या चिन्ता व्यक्त करते, तो उन्हें समझाया ही है। उनका कहना था-भइया! कन्या एक रत्न है, अपनी सन्तान है, उसे भार क्यों समझते हो। उसके जन्म के समय दुखी क्यों होते हो। देखो! पुरुष तो एक ही कुल की शोभा है, जबकि कन्या दो कुलों की शोभा होती है और फिर जन्म लेते ही सब अपना-अपना भाग्य साथ लाई हैं वे किसी के भाग्य का रत्ती भर भी नहीं ले जाएंगी। यह उदाहरण भी वर्तमान युग के माता-पिता के लिए अनुकरणीय ही नहीं सर्वथा ग्रहण करने योग्य है। इससे कन्या का मन तो जीवन भर प्रसन्न रहता ही है, साथ ही भाई-बहनों का भी आपस में जीवन भर सच्चा प्रेम बना रहता है। यही कारण है कि आज भी उस हरे-भरे परिवार में बहुत सी कन्याएं हैं। आज भी सबको अपने माता-पिता का उतना ही प्रेम मिल रहा है जितना उनके भाइयों को मिलता है।
लाला छोटेलाल जी का मोह
लाला छोटेलाल जी अत्यन्त मोही प्रकृति के थे, इन्हें अपनी प्रत्येक सन्तान से बहुत मोह था। जब इनकी बड़ी पुत्री मैना को छोटी सी उम्र में वैराग्य हुआ और अनेक प्रयत्नों के बावजूद भी उन्होंने दीक्षा ले ली तब पिता छोटेलाल जी को बहुत ही दु:ख हुआ था। उसके बाद में वे साधुओं के संघ में आते जाते रहते थे किन्तु कुछ जन्मान्तर के संस्कार ही समझना चाहिए कि इनके सभी पुत्र-पुत्रियों ने जीवन में त्याग के लिए कदम उठाया है। उनमें जिनका पुरुषार्थ फल गया, वे त्यागमार्ग में निकल गए और जो त्याग की ओर नहीं बढ़ सके, वे आज भी अपने परिवार सहित दान, पूजा, स्वाध्याय आदि में निरत हैं। सन् १९६९ की बात है, शायद उनके जीवन का अन्त समय नजदीक आ रहा था, इन्हें पीलिया हो गया, जिससे ये काफी अस्वस्थ रहने लग गये थे। चूँकि समय-समय पर पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी (कु. मैना) ने घर के सभी लोगों को यही शिक्षा दी थी, जीवन का किया हुआ धर्मकार्य अन्त समाधि से ही सार्थक होता है अत: पिता की अच्छी तरह से सल्लेखना करवा देना और उनके अन्त समय में कोई भी उनके पास रोना नहीं। इस प्रकार माताजी की प्रेरणा से उनके पुत्रों के साथ-साथ सभी पुत्रवधूएं और पुत्रियाँ भी उनके पास धार्मिक पाठ भक्तामर स्तोत्र, समाधिमरण आदि सुनाया करते थे। उनकी पत्नी मोहिनी देवी जी ने पतिसेवा करते हुए उनकी बीमारी में अन्त समय जानकर बहुत ही सावधानीपूर्वक उन्हें सम्बोधा था। जिस समय लालाजी अस्वस्थ थे, उस समय टिवैâतनगर में आचार्य सुमतिसागर जी महाराज संघ सहित आ गए थे, तब मोहिनी जी ने आचार्यश्री से प्रार्थना की थी कि ‘‘महाराज जी! आप कृपया इन्हें सम्बोधन प्रदान करें। उस समय महाराज जी ने उन्हें बहुत ही सुन्दर शब्दों में सम्बोधित करते हुए कहा कि लालाजी! तुमने आर्यिका ज्ञानमती जैसी पुत्री को जन्म देकर अपना जीवन धन्य कर लिया है, सभी यात्राएं कर ली हैं और सभी साधुओं के दर्शन करके उनका उपदेश भी सुना है, उन्हें आहार देना, वैयावृत्ति आदि भी आपने किया है। इस नश्वर शरीर से आपने अपने जीवन के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग किया है अत: अपने कुटुम्ब से मोह छोड़कर शरीर से भी मोह छोड़कर अपना अगला भव सुधार लो।’’ इत्यादि प्रकार से महाराज जी ने बहुत कुछ कहा था। जहाँ लालाजी लेटते थे, वहीं उनके सामने ऊपर में ज्ञानमती माताजी की पुरानी पिच्छी टंगी रहती थी, जिसे देखकर वे हाथ जोड़कर उसे नमस्कार करते थे। उनका अन्त समय जानकर औषधि अन्न आदि का त्याग कराकर उन्हें धर्मरूपी अमृत ही पिलाया जा रहा था, उन्होंने पत्नी मोहिनी देवी एवं अपने सभी पुत्र-पुत्रवधुओं आदि परिवारजनों से क्षमायाचना करके स्वयं क्षमाभाव धारण कर लिया था।
मरण से पूर्व की घटना
मरण से लगभग एक घण्टे पूर्व की बात है, पूज्य मातजाी को याद करते हुए उन्होंने कहा कि था मुझे मेरी ज्ञानमती माताजी के दर्शन करवा दो। जब उन्होंने यह इच्छा कई बार व्यक्त की तब मोहिनी देवी तथा बड़े पुत्र कैलाशचंद ने कहा कि इस समय माताजी यहाँ से बहुत दूर जयपुर में विराजमान हैं, उन्होंने आपके लिए आशीर्वाद भिजवाया है। पुनरपि जब वह बोले-मुझे मेरी ज्ञानमती माताजी के दर्शन करा दो। तब घर के लोगों ने उनके सामने एक महिला को जो कि ब्रह्मचारिणी थी, श्वेत साड़ी पहने थी, उन्हें लाकर खड़ा कर दिया। तब उन्होंने आंख खोलकर देखा और सिर हिलाकर धीरे से कहा-‘‘ये ज्ञानमती माताजी नहीं है’’। इतना कहकर पिताजी (छोटेलाल जी) ने आँख बंद कर ली पुन: वापस नहीं खोली। उस समय उनका अन्त जानकर भी कोई रोया नहीं, अपितु उनके पास मौजूद सभी कुटुम्बीजनों ने लगातार जोर-जोर से णमोकार मंत्र का पाठ लगभग एक घंटे तक किया और उनकी सुन्दर समाधि बनवाई, जिसकी आकांक्षा प्रत्येक गृहस्थ को रहती है और विरले ही लोगों को अन्त समाधि का सौभाग्य मिल पाता है। इस प्रकार णमोकार मंत्र सुनते-सुनते लाला छोटेलाल जी ने २५ दिसम्बर १९६९ के दिन इस नश्वर शरीर को छोड़कर स्वर्गधाम को प्राप्त किया और यह उनकी पत्नी और पुत्र-पुत्रियों की गंभीरता और महानता ही रही कि प्राण निकल जाने के बाद भी सब थोड़ी देर तक णमोकार मंत्र बोलते रहे, कोई भी वहाँ रोया-धोया नहीं। अनन्तर जब शरीर ठण्डा हो गया तब रोना-धोना प्रारंभ हुआ। सभी ने पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की आज्ञा को ध्यान में रखकर पिता के जीवित क्षणों तक धैर्य धारण कर णमोकार मंत्र सुनाया। उनकी सच्ची सेवा की तथा अच्छी सल्लेखना कराकर एक आदर्श उपस्थित किया। कहा जाता है कि जो अपने जीवन को सत्कर्मों में लगाता है उसे सुगति की प्राप्ति होती है। श्रीमान् लाला छोटेलाल जी ने अपने जीवन में साधु संघ के दर्शन, आहारदान, तीर्थयात्रा, गुरुओं के उपदेश तथा आशीर्वाद ग्रहण आदि से जो पुण्य संचित किया था, इसी के फलस्वरूप अन्त समय घर के अन्दर इतने बड़े परिवार के बीच में रहते हुए भी उनको अच्छी समाधि का लाभ मिला। आज लालाजी हमारे बीच में इस नश्वर तन से भले ही न हों परन्तु उनकी सन्तानों को देखकर उनकी महानता का परिज्ञान होता है। उनके द्वारा उन सन्तानों को प्रदत्त संस्कार आज भी पुष्पित और पल्लवित होकर अपनी सुरभि से समस्त संसार को महका रहे हैं। धन्य हैं ऐसे पिता जिनके व्यक्तित्व के सम्मुख सम्पूर्ण विश्व नतमस्तक है।