(संसार के अत्यंत दु :खमयी प्रसंगों में जब ऊपर आकाश और नीचे पाताल जैसी परिस्थिति हो, तब भी जीव को धर्म और धर्मात्मा कितने अचिंत्य शरणरूप होते हैं – उसकी महिमा बताने वाला सती अंजना के जीवन का एक प्रेरक प्रसंग) बाईस वर्ष तक पति पवनंजय से बिछुड़ी हुई होने पर भी गर्भवती जानकर सती अंजना को, जिस समय सासु केतुमती ने कलंकिनी समझकर कूरतापूर्वक राज्य से निकाल दिया और उसके वाद पिता के घर में भी उसे आश्रय नहीं मिला, उस समय किसी ने भी अंजना को शरण नहीं दी, तब पूरे संसार से उदास हुई वह सती अपनी एक सखी के साथ वन की ओर जाती हुई कहती हे – ‘ ‘चलो सखी अब वहाँ चलें…… .जहाँ मुनियों का वास हो । हे सखी! इस संसार में अपना कोई नहीं है । श्री देव-गुरु- धर्म ही अपने सच्चे माता-पिता हें । उनका ही सदा शरण है । ‘ ‘ वाघ से भयभीतहिरणीकेसमान अंजना अपनी सखी केसाथ वन में जा रही है……. .वनवासी मुनिराजों को वाद करती जा रही है और चलते-चलते जब थक जाती है, तब बैठ जाती है । उसका दुःख देखकर सखी विचार करती है – हाय! र्छू के किस पाप के कारण यह राजपुत्री निर्दोष और गर्भवती होने पर भी महान कष्ट पा रही है । संसार में कौन रक्षा करे? अरे रे! पति के वियोग से भी अधिक दुःख आज उसे पति के संयोग के कारण हो रहा है; क्योंकि अभी उसके प्रबल पापोदय चल रहा है । अत: सभी सहयोग करनेवाले भी उसे प्रताड़ित ही कर रहे हैं । इसीलिए तो पवनंजय और अंजना के मिलन का समाचार सास -ससुर एवं माता-पिता आदि किसी को भी नहीं मिला । अत: हमें खोटे कर्म करते समय यह नहीं भूलना चाहिए कि कर्मों का फल तो सभी को भोगना पड़ता है । चाहे वह तद्भव मोक्षगामी हनुमान की माता ही क्यों न हो । अरे, दुर्भाग्य की इस घड़ी में भी एकमात्र धर्म ही इस शीलवती को शरण है । जब पूर्व कर्म का उदय ही ऐसा हो, तब धैर्यपूर्वक धर्म सेवन ही शरणभूत है, दूसरा कोई शरण नहीं । ‘ ‘ उदास अंजना वन में अत्यंत विलाप कर रही है, साथ ही अंजना की सखी भी रो रही है । अरे । उस निर्जन वन में अंजना और उसकी सखी का विलाप इतना करुण था कि उन्हें देखकर आस -पास में रहनेवाली हिरणियाँ भी उदास हो गईं । बहुत देर तक उनका रुदन चलता रहा…. अन्त में विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न सखी ने धैर्यर्रुक अजना को हृदय से लगाकर कहा ‘ ‘हे सखी! शान्त हो…… .रुदन छोड़ो! अधिक रोने से क्या? तुम जानती हो कि इस संसार में जीव को कोई शरण नहीं, यहाँ तो सर्वज्ञ देव, निर्ग्रंथ वीतरागी गुरु और उनके द्वारा कहा गया धर्म – ये ही सच्चे माता -पिता और बाँधव हैं और ये ही शरणभूत हैँ, तुम्हारा आत्मा ही तुम्हें शरणभूत है, वह ही सच्चा रक्षक है और इस असार -संसार में अन्य कोर्ट शरणभूत नहीं है । इसलिए हे सखी! ऐसे धर्म -चिंतन के द्वारा तू_ चित्त को स्थिर कर……. और शान्त हो । हे सखी! इस संसार में र्छू कर्म के अनुसार संयोग -वियोग होता ही है, उसमें हर्ष -शोक क्या करना? जीव सोचता कुछ है और होता कुछ है । संयोग -वियोग इसके आधीन नहीं है….. .यह तो सब कर्म की विचित्रता है । इसलिए हे सखी । तू व्यर्थ ही दु :खी न हो, दु ख छोड़कर धैर्य से अपने मन को भेदज्ञान पूर्वक वैराग्य में दृढ़ कर । ‘ ऐसा कहकर स्नेहर्रूक सखी ने अंजना के आलू पोंछे । सती अंजना का चित्त शान्त हुआ और वह वीतरागी ज्ञायकतत्व की भावना भाने लगी – कर्मोदय के विविध फल, जिनदेव ने जो वर्णये । वे मुझ स्वभाव से भिन्न हैं, मैं एक ज्ञायकभाव हूँ ।। सखी ने अंजना के हितार्थ आगे कहा – ‘ ‘हे देवी! चलो, इस वन में जहाँ हिंसक प्राणियों का भय न हो – ऐसा स्थान देखकर, किसी गुफा को साफ करके वहाँ रहेंगे; यहाँ सिंह र वाघ और सर्पों का डर है । ‘ ‘ सखी के साथ अंजना जैसे -तैसे चलती है, साधर्मी के स्नेह -बंधन से बँधी हुई सखी उसकी छाया की तरह उसके साथ ही रहती है । अंजना भयानक वन में भय से डर रही थी, उस समय उसका हाथ पकड़कर सखी कहती है – ” अरे मेरी बहिन! तू डर मत……. मेरे साथ चल……. । सखी का मजबूती से हाथ पकड़कर अंजना चलने लगी । थोड़ी दूर पर एक गुफा दिखाई दी । सखी ने कहा – ‘ ‘वहाँ चलते हैं । ‘ ‘ लेकिन अंजना ने कहा – ‘ ‘हे सखी । अब मेरे में तो एक कदम भी चलने की हिम्मत नहीं जे…. अब तो मैं थक गई हूँ । ‘ ‘ सखी ने अत्यन्त प्रेमपूर्वक शब्दों से उसे धैर्य बँधाया और स्नेह से उसका हाथ पकड़कर गुफा के द्वार तक ले गई । दोनों सखी अत्यंत थकी हुई थीं । बिना विचारे ही गुफा के अन्दर जाने में खतरा है – ऐसा विचार करके थोड़ी देर बाहर ही बैठ गयीं, लेकिन जब दोनों ने गुफा में देखा…… तो -जा का दृश्य देखते ही दोनों सखी आनन्दाविभूत होकर आश्चर्यचकित हो गईं । उन्होंने गुफा में ऐसा क्या देखा? अहो! उन्होंने देखा कि गुफा के अन्दर एक वीतरागी मुनिराज ध्यान में विराजमान हैं । चरणऋद्धि के धारक इन मुनिराज का शरीर निश्चल है, मुद्रा परमशान्त और समुद्र के समान गंभीर रे. माँखें अन्तर में झुकी हुई हैं, आत्मा का जैसा यथार्थ स्वरूप जिन -शासन में कहा है – वैसा रद उनके ध्यान में आ रहा है । पर्वत जैसे अडोल हैं । आकाश जैसे निर्मल हैं और पवन जैसे असंगी त्रेम्-. अप्रमसभाव में विराज रहे हैं और सिद्ध के समान आत्मिक – आनंद का अनुभव कर रहे हैं । गुफा में एकाएक ऐसे मुनिराज को देखते ही दोनों की खुशी का पार नहीं रहा । ” अहो! धन्य -नराज । ‘ ‘ – ऐसा कहती हुईं हर्षपूर्वक वे दोनों सखी मुनिराज के पास गईं । मुनिराज की वीतरागी उठा देखते ही वे जीवन के सर्व दु रख को भूल गयीं । भक्तिपूर्वक तीन प्रदक्षिणा देकर हाथ जोड़कर न्यष्कार किया । ऐसे वन में मुनि जैसे परम बाँधव मिलते ही खुशी के आलू निकलने लगे.?…. और नजर मुनिराज के चरणों में रुक गयी । तब वे हाथ जोड़कर गद्गद् भाव से मुनिराज की स्तुति करने लगीं । हे मुनिवर । हे कल्याणरूप! आप संसार को छोड्कर आत्महित की साधना कर रहे हो.. जगत के जीवों के भी आप परम हितैषी हो ….. अहो, आपके दर्शन से हमारा जीवन सफल हुआ…… आप महा क्षमावंत हो, परमशान्ति के धारक हो, आपका विहार जीवों के कल्याण का कारण है । ‘ ‘ – ऐसी विनयपूर्वक स्तुति करके, उन मुनिराज के दर्शन से उनका सारा -भय एवं दु ख दूर हो गया….. और उनका चित्त अत्यन्त प्रसन्न हुआ । ध्यान टूटने पर मुनिराज ने परमशान्त अमृतमयी वचनों से धर्म की महिमा बताकर उनको धर्मसाधना में उत्साहित किया और अवधिज्ञान से मुनिराज ने ‘ अंजना के उदर में स्थित चरमशरीरी हनुमान के वृत्तान्त सहित पूर्वभव में अंजना द्वारा जिन -प्रतिमा का अनादर करने से इस समय अंजना के ऊपर यह कलक लगा है ‘ – यह ० हुए कहा पुत्री । तू ००बल भगवान जिनेन्द्र और जैनधर्म की आराधना कर. ….. .इस पृथ्वी पर जो सुख है, वह उसके ही प्रताप से तुझे मिलेगा । अत: हे भव्यात्मा! अपने चित्त में से खेद (दुःख) दूरकर औरप्रमाद रहित होकर धर्म में मन लगा।’ अहा! अंजना को मुनिराज के दर्शनसेजोप्रसन्नताहुई, उसकावर्णन नहींकियाजासकता, आनन्दसेउसके नेत्र-पलक झपकना भूल गये… । वे पुन : मुनिराज की स्तुति करती हुई कहने लगीं – अहो! इस घनघोर वन में हमें धर्मपिता मिले, आपके दर्शन से हमारा दु :ख दूर हो गया, आपके वचनों से हमें जो धर्मामृत मिला है, हमें वही परमशरणरूप हो – ऐसा कहकर वे मुनिराज के चरणों में बारम्बार नमस्कार करने लगीं । निस्पृही मुनिराज तो उन्हें धर्म का उपदेश देकर आकाशमार्ग से विहार कर गये । मुनिराज के ध्यान द्वारा पवित्र हुई इस गुफा को तीर्थ समान समझकर, दोनों सखीं धर्म में सावधान होकर वहाँ रहने लगीं । कभी वे जिनभक्ति करतीं और कभी मुनिराज को याद करके वैराग्य से शुद्धात्मतत्व की भावना भातीं?…. । इसप्रकार धर्म की साधनापूर्वक समय निकल गया और योग्य काल में चेत सुदी पूर्णिमा) के दिन अजना ने एक मोक्षगामी पुत्ररत्न को जन्म दिया…,.. जो आगे चलकर वीर हनुमान के नाम से विख्यात हुआ । चरमशरीरी – मोक्षगामी पुत्र के जन्म से वन के वृक्ष भी हर्ष से खिल उठे और हिरन -मोर आदि पशु-पक्षी भी आनन्द से नाच उठे । पाठको! आपने भी आनन्द मनाया होगा; क्योंकि जैसे महावीर हमारे भगवान हैं, वैसे ही हनुमान भी हमारे भगवान हैं । पश्चात् सती अंजना के मामा अचानक ही उस वन में आये और अंजना तथा हनुमान को अपनी नगरी में (नदी के बीच में ‘हनुरुह ‘ नामक द्वीप में) ले गये….. और वहीं सब आनन्द से रहने लगे । देखो, महान पुण्यवान और आत्मज्ञानी ऐसा वह धर्मात्मा बालक ‘हनुमान ‘ आनन्द से बड़ा हो रहा है । अंजना-माता अपने लाडले बालक को उत्तम संस्कार दे रही हैं और बालक की महान चेष्टाओं को देखकर आनन्दित हो रही हैं । ऐसे अद्भुत प्रतापी बालक को देखकर जीवन के सभी दुःखों को वे भूल गयी हैं और आनन्द से जिनगुणों में चित्त लगाकर जिनभक्ति करती रहती हैं तथा हमेशा वनवास के समय गुफा में देखे उन मुनिराज को बारम्बार याद करती हैं । बालक हनुमान भी रोज माता के साथ ही जिनमन्दिर जाता है, वह वहाँ देव -गुरु-शास्त्र की पूजा करना सीख रहा है और मुनियों के संघ को देखकर आनन्दित होता है । एक बार हनुमान से अंजना पूछती हैं – ‘ ‘बेटा हनुमान! तुम्हें क्या अच्छा लगता है?’ हनुमान कहते हैं – ” माँ, मुझे तो एक तुम अच्छी लगती हो और दूसरा आत्मा का, सुख अच्छा लगता है । ‘ ‘ माँ कहती है – ” अरे बेटा! मुनिराज ने कहा है कि तुम चरमशरीरी हो, इसलिए तुम तो इस भव में ही मोक्ष सुख प्राप्त करोगे और भगवान बनोगे । हनुमान कहते हैं – ” अहो, धन्य हैं वे मुनिराज! धन्य हैं!! हे माता! जब मुझे तुम्हारे जैसी माता मिली, तब फिर मैं दूसरी माता का क्या करूँगा? और तुम भी इस भव में आर्यिका व्रत धारण करना और स्त्रीपर्याय को छेद कर शीघ्र ही, अनन्तभवों का अन्त करके मोक्ष प्राप्त करना । अंजना कहती है – ‘ ‘वाह बेटा! तुम्हारी बात सत्य है । सम्यक्त्व के प्रताप से अब फिर कभी यह निंद्य स्त्री पर्याय नहीं मिलेगी, अब तो संसार दुःखों का अंत नजदीक आ गया है । बेटा, तुम्हारा जन्म होने से लौकिक दुःख टल गये और अब संसार-दुःख भी जरूर दूर हो जावेगा । ‘ ‘ हनुमान कहते हैं – ‘ ‘हे माता! संसार का संयोग-वियोग कितना विचित्र है और जीवों के प्रीति- अप्रीति के परिणाम भी कितने चंचल और अस्थिर हैं । एक क्षण में जो वस्तु प्राणों से भी प्रिय लगती है, दूसरे क्षण में वही वस्तु उतनी ही अप्रिय हो जाती है और बाद में वही वस्तु फिर संग्रह से प्रिय लगने लगती है । इसप्रकार दूसरे के प्रति प्रीति- अप्रीति के क्षणभंगुर परिणामों के द्वारा जीव आकुल -व्याकुल होते हैं । मात्र चैतन्य का सहज ज्ञानस्वभाव ही स्थिर और शान्त है । वह प्रीति- अप्रीति से रहित है अत : ज्ञानस्वभाव की आराधना के अलावा अन्यत्र कहीं सुख नहीं है । ‘ ‘ अंजना कहती है – ‘ ‘वाह बेटा । तुम्हारी मधुर वाणी सुनकर प्रसन्नता होती है । जिनधर्म के प्रताप से हम भी ऐसी ही आराधना कर रहे हैँ । जीवन में सबकुछ देखा, इसीप्रकार दु :खमय संसार को भी जान लिया । बेटा अब तो बस । आनन्द से मोक्ष की ही साधना करना है । ‘ ‘ इसप्रकार माँ -बेटा ( अजना और हनुमान) बहुत बार आनन्द से चर्चा करते और एक -दूसरे के धर्म संस्कारों को पुष्ट करते । इसप्रकार हगुरुह द्वीप में हनुमान, विद्याधरों के राजा प्रतिसूर्य के साथ देव की तरह क्रीड़ा करते हैं और आनन्दकारी चेष्टाओं के द्वारा सबको आनन्दित करतै हैं । धीरे- धीरे हनुमान युवा हो गये, कामदेव होने से उनका रूप सोलह कलाओं से खिल उठा; भेदज्ञान की वीतरागी विद्या तौ उनमें थी ही, पर आकाशगामिनी विद्या आदि अनेक पुण्य विद्यायें भी उनको सिद्ध हुईं । वे समस्त जिनशास्त्रों के अभ्यास में निपुण हो गये; उन्हें रत्नत्रय के प्रति परमप्रीति थी, देव -गुरु-शास्त्र की उपासना में वे सदा तत्पर रहते थे । अन्त में हनुमान ने संसार से उदास होकर दिगम्बर दीक्षा धारण की और स्वरूप मग्न हो केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष लक्ष्मी का वरण कर अनन्त सुखी हो गये। ऐसे वन गुफा मेँ जन्मे तद्भव मोक्षगामी वीर हनुमान का जीवन चरित्र एवं सती अंजना के जीवन का संसार से वैराग्य कराने वाले प्रेरक प्रसग पढ़कर हमें भी अपने आत्मकल्याण में संलग्न होना चाहिए ।