किदियम्मंपि करंतो ण होदि किदयम्मणिज्जराभागी।
बत्तीसाणण्णदरं साहू ठाणं विराहंतो।।६१०।।
गाथार्थ – इन बत्तीस स्थानों में से एक भी स्थान की विराधना करता हुआ साधु कृतिकर्म को करते हुए भी कृतिकर्म से होने वाली निर्जरा को प्राप्त नहीं होता है।।६१०।।
वन्दना के ३२ दोष हैं। इन दोषों से रहित वन्दना ही शुद्ध वन्दना है जो कि विपुल निर्जरा का कारण है। इन ३२ दोषों में से किसी एक दोष को करता हुआ भी साधु कृतिकर्म करते हुए भी कृतिकर्म से निर्जरा को करने वाला नहीं होता है। एक हाथ के अन्तराल से अपने शरीरादि के स्पर्श से देव का स्पर्श या गुरु को बाधा न करते हुए अपने अंगादि का पिच्छिका के प्रमार्जन करके साधु वंदना की प्रार्थना करके वन्दना करता है अर्थात् मैं वन्दना करता हॅूं ऐसी विज्ञापना करके यदि गुरु की वन्दना करना है तो उनकी स्वीकृति लेकर वन्दना करता हैं। इन ३२ दोषों को छोड़कर देववन्दना करना चाहिए।
१.अनादृत – वन्दना में आदर भाव नहीं रखना ।
२.स्तब्ध – आठ प्रकार के मद में से किसी के वश हो जाना ।
३.प्रविष्ट – अर्हंतादि के अत्यंत निकट होकर वन्दना करना ।
४. परिपीडित – अपने दोनों हाथों से दोनों जंघाओं या घुटनों का स्पर्श करना ।
५. दोलायित – झूला पर बैठे हुए के समान अर्थात् हिलते हुए वंदना करना ।
६. अंकुशित – अपने ललाट पर अपने हाथ के अंगुष्ठ को अंकुश की तरह रखना।
७. कच्छपरिंगित – बैठकर वन्दना करते हुए कछुये के समान रेंगने की क्रिया करना ।
८. मत्स्योद्वर्त – जिस प्रकार मछली एक भाग को ऊपर करके उछला करती है उसी प्रकार कटिभाग को ऊपर निकाल कर वन्दना करना ।
९. मनोदुष्ट – मन में गुरु आदि के प्रति द्वेष धारण कर वन्दना करना अथवा संक्लेशयुक्त मन सहित वन्दना करना ।
१०. वेदिकाबद्ध – अपने स्तन भागों का मर्दन करते हुए वन्दना करना या दोनों भुजाओं द्वारा अपने दोनों घुटनों को बाँध लेना ।
११.भयदोष – सात प्रकार के भय से डरकर वन्दना करना।
१२. विभ्यद्दोष – गुरु आदि से डरते हुए वन्दना करना ।
१३. ऋद्धिगौरव – चातुर्वण्र्य संघ में भक्त हो जावेगा इस अभिप्राय से वन्दना करना ।
१४. गौरव – अपना माहात्म्य आसन आदि द्वारा प्रगट करके अथवा सरस भोजन आदि की स्पृहा रखकर वन्दना करना ।
१५. स्तेनित – आचार्य आदि से छिपाकर वन्दना करना। या कोठरी आदि के भीतर छिपकर वन्दना करना।
१६. प्रतिनीत – देव, गुरु आदि के प्रतिकूल होकर वन्दना करना ।
१७. प्रदुष्ट – अन्य के साथ द्वेष, वैर, कलह आदि करके पुन: क्षमा न कराकर वन्दनादि क्रिया करना ।
१८. तर्जित – अन्यों को र्तिजत कर, डर दिखाकर वन्दना करना अथवा आचार्यादि के द्वारा अंगुली आदि से र्तिजत-अनुशासित किये जाने पर ‘‘यदि वन्दनादि नहीं करोगे तो संघ से निकाल दॅूंगा ’’ ऐसी फटकार सुन कर वंदना करना।
१९. शब्ददोष – शब्द बोलते हुए वन्दना करना। अथवा ‘‘वन्दना करते समय बीच में बातचीत करते जाना।’’
२०. हीलित – वचनों द्वारा आचार्यादि का पराभव करके वन्दना करना।
२१. त्रिवलित – वन्दना करते समय कमर, गरदन और हृदय इन अंगों में भंग-बलि पड़ जाना या ललाट में तीन सल डाल कर वन्दना करना ।
२२. कुंचित – संकुचित हाथों से सिर का स्पर्श करना या घुटनों के बीच शिर रख कर संकुचित होकर वन्दना करना ।
२३. दृष्ट – आचार्यादि यदि देख रहे हों तो ठीक से वन्दनादि करना अन्यथा स्वेच्छा से दिशावलोकन करते हुए वन्दना करना ।
२४. अदृष्ट – आचार्यादि न देख सके । ऐसे स्थान पर जाकर अथवा भूमि, शरीरादि का पिच्छी से परिमार्जन न कर वन्दना में एकाग्रता न रखते हुए वन्दना करना या आचार्यादि के पीछे जाकर वन्दना करना।
२५. संघकरमोचन – यदि मैं संघ को वन्दनारूपी कर भाग नहीं दूँगा तो संघ मेरे ऊपर रुष्ट होगा ऐसे भाव से वन्दना करना ।
२६. आलब्ध – उपकरण आदि प्राप्त करके वन्दना करना।
२७. अनालब्ध – उपकरण आदि की आशा से वन्दना करना।
२८. हीन – ग्रन्थ, अर्थ और काल के प्रमाण से रहित वन्दना करना ।
२९. उत्तर चूलिका – वन्दना को थोड़े काल में पूर्ण कर उसकी चूलिकारूप आलोचनादि पाठ को अधिक समय तक करना ।
३०. मूकदोष – गूंगे के समान वन्दना के पाठ को मुख के भीतर ही बोलना अथवा वन्दना करते समय हुँकार अंगुली आदि से इशारा करना
३१. दर्दुर – वन्दना के पाठ को इतनी जोर से बोलते हुए महाकल-कल ध्वनि करना कि जिससे दूसरों की ध्वनि दब जाय ।
३२. चुरुलित – एक ही स्थान में खड़े होकर हस्तांजलि को घुमाकर सबकी वन्दना करना अथवा पंचम आदि स्वर से गा-गा कर वन्दना करना ।