जाकी नाम महिसा सों कुधातु कनक वनै। पारस पखान नामी भयो है खलक में।
जिनकी जनमभूमि नाम के प्रभाव हम। आपन सरूप लख्यो भानु सी भलक में।
तेउ प्रभु पारस, महारस के दाता अब। दीजै मोहि साता दृगलीला की ललक में।
‘‘कविवर बनारसीदास’’
संस्कृत में एक सूक्ति है— ‘‘परिवर्तिनि संसारे मृत: को वा न जायते’’ अर्थात् इस परिवर्तनशील संसार में कौन जन्म नहीं लेता और कौन मरण को प्राप्त नहीं होता। जीवन और मरण इस नश्वर जगत के शाश्वत सत्य हैं। जिन्दगी और मौत कुछ नहीं केवल आँख खुलने और बंद होेने की कहानी है। ‘‘किसी की आँख खुल गयी, किसी की आँख मुँद गई’’ जो फल्यो सो कुम्हलाय’’। जो पुष्प विकसित होता है, उसका मुरझाना भी निश्चित है किन्तु कभी-कभी इस धरती पर ऐसी दिव्य आत्मायें जन्म लेती हैं, जिनके जन्म पर जिन्दगी मुस्कुराती है और देहावसान पर मौत शरमाती है। जो एक बार जन्म लेकर अपनी कठोर तपस्या एवं विशुद्ध भाव परिणति से अष्ट कर्मों के बंधन को काटकर निर्वाण प्राप्त करते हैं और हमेशा-हमेशा के लिए जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाते हैं, उनके देहावसान के पश्चात् ही उनकी जीवनशैली और उपदेश अंधकार में भटकती मानवता के लिए आलोक स्तम्भ का कार्य करते हैं। अपने महान कार्यों से वे समय की बालुका पर जो पदचिन्ह छोड़ जाते हैं, वे अमिट होते हैं। वास्तव में ऐसी ही विभूतियों का जन्म लेना सार्थक होता है।
लेना जन्म उन्हीं का सार्र्थक, इस दुनियाँ में आकर के।
चमक दिखाकर रविकिरण सी, जाते यश फैलाकर के।।
बहुत समय पश्चात् हस्तियाँ, ऐसी भू पर आती हैं।
जिनके तप संयम के आगे, जगती झुकती जाती है।।
जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ऐसी ही महान विभूति हैं। वे जहाँ क्षमा, समता, दया, सहिष्णुता, धैर्य जैसे महान गुणों के देदीप्यमान सूर्य के रूप में जिनशासन के विस्तृत व्योम पर आलोकित हैं, वहीं इस युग के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से चली आई पंच महाव्रत एवं पंच अणुव्रत रूप, निवृत्ति एवं प्रवृत्ति रूप जिनधर्म की परम्परा प्रवाह के आधार स्तम्भ भी हैं। उन्हीं से प्राप्त तीर्थंकर परम्परा को २४ वें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने ‘‘जियो और जीने दो’’ के रूप में समस्त जगत को प्रदान किया। कुछ समय पूर्व जैनेतर विद्वान् प्राच्यविद एवं इतिहासकारों ने भ्रान्तिवश भगवान पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता पर प्रश्नचिह्न लगाकर भगवान महावीर को जैनधर्म का संस्थापक और पार्श्वनाथ को चातुर्याम धर्म का प्रवर्तक स्वीकार किया। शनै:-शनै: जैन साहित्य और जैन इतिहास के तुलनात्मक अध्ययन तथा पुरातात्विक खोजों ने उनके मत की ऐतिहासिकता को मुक्तकण्ठ से मान्य कर लिया है। भगवान पार्श्वनाथ के जीवन की घटनायें एवं उनसे संबंधित स्थान भी इतिहास सम्मत है। जन्मस्थान वाराणसी नगरी, उपसर्ग एवं केवलज्ञान स्थल अहिच्छत्र नगरी और निर्वाण स्थल सम्मेदशिखर वास्तविक स्थान है ही और आज भी वे उन्हीं नामों से प्रसिद्ध हैं। चौबीस तीर्थंकरों में भगवान पार्श्वनाथ लोकजीवन में सर्वाधिक प्रतिष्ठित हैं। इस आर्यखंड के प्रत्येक राज्य में भगवान पार्श्वनाथ विभिन्न विशेषणों के साथ पूजे जाते हैं। कहीें वे ‘‘अंतरिक्ष पार्श्वनाथ’’ के रूप में प्रतिष्ठित हैं तो कहीं देवालय ‘‘चिन्तामणि पार्श्वनाथ’’ की जय से गुंजित होता है, कहीं वे ‘‘तिखाल वाले बाबा’’ के रूप में विराजमान हैं तो कहीं उनकी भक्ति के चमत्कार से ‘‘पटेरिया जी’’ गढ़ाकोटा जिला-सागर (म.प्र.) अतिशय क्षेत्र बन गया है। ‘‘मक्सी पार्श्वनाथ’’ भी वंदनीय स्थल है। एक-दो अपवाद के अतिरिक्त सम्भवत: ऐसा कोई स्थान नहीं हैै जहाँ पार्श्वनाथ की मूर्ति न हो। जिनालयों में कहीं मूलनायक प्रतिमा के रूप में, कहीं चौबीसी के मध्य, कहीं पद्मासन, खड्गासन तथा कायोत्सर्ग मुद्रा में पार्श्वनाथ की प्रतिमा स्थापित हैं। इस संदर्भ में यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि भगवान पार्श्वनाथ और चमत्कार एक-दूसरे के पर्याय बन गये हैं। भगवान पार्श्वनाथ लोक जीवन में कितने रचे-पचे हैं वह इस तथ्य से स्पष्ट है कि बंगाल, बिहार और उड़ीसा में पैâले हुए लाखों सराकबंधु, बंगाल के मेदिनीपुर जिले के सदगोवा, उड़ीसा के रंगिया जाति के लोग आज भी पार्श्वनाथ को अपना कुलदेवता मानते हैं। भगवान पार्श्वनाथ के उपदेश उनके जीवन में गहरी जड़ें जमा चुके हैं। ये लोग माँस भक्षण नहीं करते, जल छानकर पीते हैं, रात्रिभोजन का निषेध है, जैन तीर्थों की यात्रा करते हैं। जिन प्रान्तों में ये लोग निवास करते हैं वहाँ देवता पर बलि चढ़ाना, माँसाहार करना सामान्य बात है किन्तु ये जनजातियाँ भगवान पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित अहिंसा धर्म का पालन करतीं हैं। इनके अतिरिक्त सम्मेदशिखर के निकट रहने वाली भील जाति पार्श्वनाथ की अनन्य भक्त है। इस जाति के लोग मकरसंक्रान्ति के दिन एकत्रित होकर सम्मेदशिखर की सभी टोंकों पर उत्सव मनाते हैं। सम्पूर्ण पर्वत ‘‘साँवरिया पारसनाथ शिखर पर भले विराजे जी’’ के भक्तिगान से गुंजित हो उठता है। भगवान पार्श्वनाथ की इस लोकप्रियता एवं सर्वव्यापकता के संदर्भ में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इस चमत्कार का कारण क्या है? इस जिज्ञासा के समाधान के लिए हमें पार्श्वनाथ के दसों भवों के क्रियाकलापों पर दृष्टिपात करना होगा। दस जन्मों की यह कथा सत् और असत्, अँधकार और प्रकाश एवं उत्थान और पतन के पारस्परिक द्वन्द की लम्बी कहानी है। पार्श्व का जीव क्षमा, शांति, सहिष्णुता, दया के भावों से आपूरित, आत्म वैभव को प्राप्त करने के लिए तत्पर एवं समर्पित है जबकि उनके पूर्वभव के भाई कमठ का जीव बैर, क्रोध एवं प्रतिहिंसा की कुत्सित भावनाओं का प्रतीक बना पतन की ओर उन्मुख है। कमठ के द्वारा मरुभूति की हत्या का दौर कई भवों तक चलता है। कभी कमठ अपने चरणों में नत मरुभूति की पत्थर पटककर हत्या कर देता है तो कभी बङ्काघोष हाथी के रूप में साधु से श्रावकव्रत धारण कर आत्मशुद्धि के पथ पर चलने वाले मरुभूति के, क्रूर विषधर बनकर प्राण हरण करता है। कमठ का जीव कभी अजगर बनकर अग्निवेग साधु के रूप में मरुभूति को निगल जाता है तो किसी अन्य भव में कुरंग भील बन विष भरे बाणों से उसकी हत्या कर देता है। वैर की बेल सूखती नहीं। कमठ का जीव सिंहयोनि में उत्पन्न होकर आनंद कुमार साधु के रूप में जन्में मरुभूति के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर उदरस्थ कर लेता है। इस प्रकार तीर्थंकर पार्श्व के पूर्व ९ भवों के युग-प्रवाह में कमठ के जीव ने वैर और प्रतिशोध की भावना से पार्श्व के जीव की हत्या कर चार बार नरक एवं तिर्यंच योनि के दुख भोगे। इसी प्रकार आत्म विकास की यात्रा में क्षमा भावों के कारण पार्श्व के जीव ने चार बार ग्रैवेयक स्वर्ग के सुखों का भोग किया और अंत में तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर राजकुमार पार्श्व के रूप में उत्पन्न होकर तीर्थंकर पद प्राप्त किया। वर्तमान परिस्थितियों में जब समस्त विश्व में हिंसा, आतंकवाद, क्रोध और प्रतिशोध की दावाग्नि धधक रही है, विनाश के लिए परमाणु एवं नाभिकीय हथियारों के संग्रह की होड़ मची है, तब भगवान पार्श्व की अनन्त क्षमाशीलता ही विश्व को महाविनाश से बचा सकती है—
महाविनाश ढहते कगार पर आज खड़ी मानवता रोती,
अट्टहास करती दानवता, गगन सिसकता धरती कपती।
क्षमा, अहिंसा की सरगम पर, विश्वशांति का राग सुनाओ,
हिंसा की अँधी गलियों में, एक प्रेम का दीप जलाओ।।
भगवान पार्श्व के पूर्व भवों के ये वृतांत हमें यह संदेश देते हैं कि हम अपने क्रोध का रूपान्तरण वैर में न करें। हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध आलोचक रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है—‘‘वैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है।’’ क्रोध पुराना होकर वैर में परिवर्तित हो जाता है और तब उसका अंत महाविनाश में होता है। विपरीत परिस्थितियों में क्रोध उत्पन्न होना मानवीय दुर्बलता है लेकिन हमारा क्रोध अनंतानुबंधी न हो। हमारा क्रोध जल में खींची गई लकीर की तरह क्षणिक हो, पाषाण में खुदी रेखा की तरह अमिट न हो। भगवान पार्श्वनाथ के पूर्व भवों की कथा हमें यह भी शिक्षा देती है कि क्रोध को क्रोध से नहीं जीता जा सकता। जिस प्रकार रक्तरंजित वस्त्र को रक्त से स्वच्छ नहीं किया जा सकता, उसे स्वच्छ करने के लिए जल की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार क्रोध को क्षमा की वारिधारा से ही शांत किया जा सकता है।
क्रोध को अक्रोध से जीतो, असाधु को साधुता से जीतो, कृपण को दान से जीतो और मिथ्याभाषी को सत्य से जीतो। इस संदर्भ में हमें राष्ट्रकवि दिनकर की निम्न पंक्तियाँ बड़ी युक्ति-युक्त लगतीं हैं—
आदमी नहीं मरता, बरछों से, तीरों से।
लोहे की कड़ियों की, साजिश बेकार हुई।
बाँधो मनुष्य को शबनम की जंजीरों से।
भगवान पार्श्व ने कमठ के जीव को क्षमा की जंजीरों से ही बाँधा था। क्षमा, शांति एवं करूणा के प्रतीक पार्श्व मुनिराज ने जब कमठ के जीव द्वारा किये गये भयंकर उपसर्गों को शांत भाव से सहन किया तब कमठ के हृदय में प्रज्जवलित प्रतिहिंसा की अग्नि उनकी क्षमा की वारिधारा से शांत हो गई। जन्म-जन्मातर का वह बैरी तीर्थंकर पार्श्व का भक्त बनकर आत्मोद्धार के पथ का पथिक बना—
क्रोधित हो क्रूर कमठ ने जब। नभ से ज्वाला बरसाई थी।
उस आत्मध्यान की मुद्रा में आकुलता तनिक न आई थी।।
विघ्नों को वैर विरोधों को मैं शांत भाव से सह जाऊँ।
मन की व्याकुलता मिट जाये ऐसी शीतलता पा जाऊँ।।
पार्श्व भक्त की यह कामना अब भी प्रासंगिक है।
वर्तमान परिस्थितियोें में जब ्नाारी सशक्तीकरण की आवाज तीव्र स्वर में उठाई जा रही है, मुनिराज पार्श्व के ऊपर कमठ के जीव संवर देव के द्वारा किये गये भयानक उपसर्गों से धरणेन्द्र और पद्मावती के द्वारा उनकी रक्षा नारी सशक्तीकरण का प्रेरणास्पद उदाहरण है। पद्मावती की कथा नारी शक्ति और भक्ति का चरम निदर्शन है। श्रमण संस्कृति में नारी ‘‘आँचल में दूध और आँखों में पानी’’ लिये अबला नारी नहीं है, वह कठिन से कठिन कार्य में पुरूष के कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली वीरांगना है। संवर देव द्वारा ध्यानस्थ मुनिराज पार्श्व पर किया गया उपसर्ग साधारण उपसर्ग नहीं था। भैया भगवतीदास ने अपने ‘‘अहिच्छत्र पार्श्वनाथ’’ काव्य में उपसर्ग का शब्द चित्रण निम्न पंक्तियों में प्रस्तुत किया है—
कोउ रुण्डमाला परिकंठहि, अगनि ज्वाल भुकंतये।
महाकाल रूप त्रिकाल, सूरति भय दिखावत गन्तये।
महि वरस बरषा व्रूूâर थाक्यो, भवसमुद्रहि पन्तये।
पूजिए पारस जिनन्द भविजन, नगर श्री अहिच्छत्तये।।
उपसर्ग का दृश्य रोमांचकारी था। चारों ओर जल ही जल, ऊपर से पत्थरों की वर्षा, साथ में हवा के तीव्र थपेड़े प्रतीत होता था यह प्रलयवत् जल राशि का उद्दाम वेग प्रभु को बहा ले जायेगा। नारी की सुषुप्त शक्ति जागृत हुई, भक्ति बलवती हुई। मस्तिष्क में विचार कौंधा—भले ही मैं स्त्री योनि में हँॅू लेकिन मेरी आत्मा में उतना ही बल है, जितना मेरे पति धरणेन्द्र में। सच्ची श्रद्धा, निष्काम भक्ति, दृढ़ आस्था लिंगभेद नहीं करती। मैं अपने प्राण देकर भी अपने जीवनदायी प्रभु की रक्षा करूँगी। पद्मावती ने अपने मस्तक पर प्रभु को धारण किया, धरणेन्द्र ने अपने फण का छत्र प्रभु के मस्तक पर तान दिया। अद्भुत दृश्य था। नीचे नारी महाशक्ति बनकर प्रतिष्ठित थी और ऊपर पुरूष संरक्षक वितान बनकर खड़ा था। दोनों एक-दूसरे के सहयोगी, एक-दूसरे के पूरक, यही तो सृष्टि का रहस्य है। शक्ति और भक्ति के इस मणिकांचन सहयोग के समक्ष कमठ नतमस्तक था। उसने आज जीवन में प्रथम बार अबला नारी की आत्मिक शक्ति और दृढ़ भक्ति के प्रतिफल को निहारा था।इस घटना ने एक नया इतिहास रचा। जहाँ धरणेन्द्र और पद्मावती ने पार्श्व प्रभु की उपसर्ग से रक्षा की, वह स्थान अहिच्छत्र कहलाता है। अहि सर्प का पर्यायवाची है। यह क्षेत्र समर्पित है सर्पयुगल को, नागवंशी धरणेन्द्र और पद्मावती को।
पद्मावती ने फन फैलाया उस पर स्वामी को बैठाया, धरणेन्द्र ने फन फैलाया, प्रभु के सर पर फौरन छाया। यही जगह अहिच्छत्र कहाये………..पद्मावती के व्यक्तित्व के इन उदात्त जीवन मूल्यों ने जैन समाज में उन्हें कष्टहारिणी माता के रूप में प्रतिष्ठित किया। काश! पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित स्वातंत्र्य के स्थान पर स्वच्छन्दता का वरण करने वाली आधुनिक नारियाँ पद्मावती की कत्र्तव्यपरायणता, कृतज्ञता और स्त्री-पुरूष सहयोग की भावना से कुछ शिक्षा ग्रहण कर पातीं। नारी कल्याण के लिए गहरी चिंता की रेखाओं का मुखौटा लगाये वर्तमान राजनैतिक नेता संसद में लम्बे-चौड़े भाषण देकर या स्त्रीशोषण के विरोधी कतिपय कानून बनाकर अपने कत्र्तव्य की इतिश्री तो समझ लेते हैं, पर उन कानूनों का कार्यान्वयन कैसे हो, इससे उनका सरोकार नहीं होता। पारिवारिक हिंसा के विरोध में ‘‘घरेलू हिंसा’’ अधिनियम के चर्चे जुबान-जुबान पर हैं पर आज भी भारतीय नारी अपने निकट संबंधियों की अवैध भोगलिप्सा का शिकार बनती है। पारिवारिक पावन रिश्ते आज पुरूषों की अनियंत्रित कामवासना से कलंकित हो चुके हैं। पहले तो भारतीय नारी लज्जा के कारण अपने यौनशोषण के खिलाफ मुँह नहीं खोलती और यदि स्त्री ऐसा साहस करती भी है तो न्याय की जटिल एवं धीमी प्रक्रिया उसके तन-मन को तोड़ देती है और वह इसे भाग्य की विडम्बना समझकर स्वीकार कर लेती है। भगवान पार्श्वनाथ के प्रथम भव में पोदनपुर के राजा अरविन्द और मंत्री पुत्र मरुभूति की अनुपस्थिति में मरुभूति का भाई कमठ छल से उसकी पत्नी वसुंधरी के साथ अवैध संबंध स्थापित करता है। वसुंधरी लोकलज्जा के भय से इस रहस्य को गोपनीय रखती है किन्तु गुप्तचरों के द्वारा भेद खुल जाने पर राजा उसे मृत्युदण्ड देने की घोषणा करता है। क्षमाशील मरुभूति की प्रार्थना पर राजा कमठ के मृत्युदण्ड को तो निरस्त कर देते है पर उसका मुँह काला कर गधे पर बिठाकर नगर में घुमाकर देश निकाला देते हैं। सार्वजनिक अपमान की यह प्रक्रिया मृत्यु से कम कष्टकर नहीं है। वर्तमान परिस्थितियों में ऐसी ही त्वरित, शिक्षाप्रद, न्यायिक प्रक्रिया की आवश्यकता है। पर्यावरण प्रदूषण की समस्या आधुनिक युग की ज्वलन्त समस्या है। जिव्हालोलुपी मनुष्य अपनी स्वाद, सन्तुष्टि एवं श्रृंगार-प्रसाधन के लिए मूक तिर्यंच प्राणियों का वध कर प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ रहा है। भौतिकवादी मनुष्य के इस घृणित आचरण के मूल में है-उसके हृदय में प्राणिमात्र के प्रति दया, करूणा की भावना का अभाव। कुमार पार्श्व का लक्कड़ के भीतर जलते नागयुगल की प्राण रक्षा कर उनकी परिणाम विशुद्धि के लिए उन्हें णमोकार मंत्र सुनाना-उनके मानस में प्रवाहित दया की सरिता के उद्दाम वेग की सुखद परिणति है। यदि हमारे मन, वचन और कर्म में दया की, अहिंसा की त्रिपथगा प्रवाहित होने लगे तो पर्यावरण प्रदूषण की समस्या स्वत: समाप्त हो जायेगी। कहा गया है- ‘‘दयानदी महातीरे सर्वे धर्मास्तृणांकुरा:’’ दया रूपी नदी के विशाल तट पर सभी धर्मों के तृणांकुर उत्पन्न हो जाते हैं। यहि अहिंसा की नदी सूख गई तो सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य सभी धर्म सूख जायेंगे। यदि इन सभी धर्मों को हरा-भरा और जीवन को सुन्दर एवं सौरभमय देखना है तो अहिंसा की त्रिपथगामिनी दिव्यगंगा को मन-वचन-कर्म के पथ पर अबाध गति से बहने दिया जाये। आइये—अहिंसा, जीवदया, क्षमा, सहिष्णुता आदि उदात्त जीवन मूल्यों के प्रतीक भगवान पार्श्वनाथ के जन्म कल्याणक तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव के अवसर पर आत्मरूपी नदी में डुबकी लगायें—
आत्मानदी संयमतोयपूर्णा, सत्यावहा शीलतटादयोर्मि।
तत्राभिषेकं कुरु पाण्डुपुत्र, न वारिणा शुद्धयति चान्तरात्मा।।
आत्मा नदी है, इसमें संयम का जल भरा है, नदी की तरंगें उठ रही हैं। इसके शील रूपी तट बड़े मजबूत हैं। इसी में स्नान करना चाहिए। अहिंसा और दया की गंगा में स्नान करने से ही आत्मा की शुद्धि होती है। शरीर पर पानी डालने से केवल शरीर की सफाई हो सकती है, आत्मा कदापि स्वच्छ नहीं हो सकती। भगवान पार्श्वनाथ की जीवन पद्धति और उपदेश इसी शाश्वत सत्य का चरम निदर्शन है। वर्तमान वैज्ञानिक युग में भी उनके द्वारा प्रतिपादित जीने की कला और संदेश नितान्त प्रासंगिक है। आवश्यकता है—तदनुकूल आचरण की, क्योंकि सच्चा धर्म शब्दों में नहीं आचरण में ढलता है। हमारी त्रासदी यह है कि हमने धर्म और कर्म के मध्य विभाजन रेखा खींच दी है। हमारा धर्म अँधा है, हमारा कर्म लँगड़ा है। आइये-हम धर्म को कर्ममय और कर्म को धर्ममय बनायें। पार्श्व रूपी पारस के स्पर्श से हमारी कलुषित आत्मा भले ही स्वर्ण न बन सके किन्तु कम से कम हमारी आत्मा पर जमी काम, क्रोध, मान, माया, लोभ कषायों की काई छूट जाये, तभी परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के द्वारा प्रेरणा पाकर मनाये जा रहे भगवान पार्श्वनाथ के जन्मकल्याणक तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव की सार्थकता सिद्ध होगी।