श्री पं. राजेन्द्र कुमार जी जैन, शाहपुर—मगरौन (सागर) म. प्र.)’
वीतराग वाणी नवम्बर, दिसम्बर २०१४ पेज नं० १९ से २० तक’
महावीर का जन्म अतिशयों से भरा रहा है। महावीर के गर्भावतरण के पूर्व छह माह से रत्नों की वर्षा प्रारम्भ हो गई थी। जो किसी कौतुहल से कम नहीं थी। जन्म से लेकर मोक्ष जाने तक अतिशय होते रहे। ऐसे चमत्कारिक महापुरुष करोड़ों वर्ष बाद ही जन्म लेते हैं। ऐसे महापुरुषों को कोई महत्वाकांक्षायें भी नहीं होती। उनकी आकाक्षा उनकी भावना यही रहती है। कि चराचर जीवों का कल्याण हों परस्पर वैमनस्यता समाप्त हो। संपूर्ण जीवों में परस्पर सौहाद्र्र भावना का विकास हो। इसलिए वे सबको ऊँचा उठाने में मददगार बने। दूसरों को उठाने में अपने महत्व को भुला दिया। उनके महत्व का आकलन इसी में होता है कि दूसरे उठते चले जायें। इसलिए महावीर स्वामी की जन्म जयंति मानव सभ्यता के लिए बड़े मायने रखती है। क्योंकि आज के दिन महावीर स्वामी का महत्व इसलिए होता है। कि वे समाज में, देश में फैली अराजकताओं का समूल नाशकर नये सुखद वातावरण को प्रसार करें। महावीर स्वामी के आने के पूर्व अराजकता, सांप्रदायिकता,हिंसा नर बलि जैसे कुकृत्यों का प्रचलन था। ऐसे भीषण समय में जब रत्नों की वर्षा हुई तब जन सामान्य को सोचने पर बाध्य होना पड़ा कि क्या होने वाला है। उस समय से होने वाली सुखद अनुभूतियों ने जन सामान्य में यह धारणा तो बना दी थी अब इन विकृतियों से निजात दिलाने वाला कोई महापुरुष आने वाला है।
जिस दिन महावीर स्वामी का जन्म हुआ उस दिन हुए उत्सवों को अतिशयों की कल्पना चित्रण इस लेखनी द्वारा नहीं की जा सकती। उस दिन जिन जिन ने वह दृश्य देखा होगा वह अपने आपका जीवन धन्य मान रहा होगा। आज के परिदृश्य में महावीर स्वामी की जरूरत है। उनके सिद्धान्तों के अनुकरण की जरूरत है। जिस दिन महावीर स्वामी के सिद्धान्त मानव जाति में पूर्णतया प्रवाहित होकर विकसित होने लगेंगे उस दिन मानव जाति अपना उत्कर्ष प्राप्त कर मानवता प्राप्त कर चुकी होगी। चारों ओर अभी काले बादल हैं।हिंसा विश्व धरोहर बन रही है। पूरे विश्व में एटमी हथियार, चारों ओर इकट्ठे हो रहे हैं। पूरा विश्व तबाही के कगार पर खड़ा है। जिसमें महावीर स्वामी द्वारा प्रतिपादित अस्त्र अहिंसा की जरूरत है। इसे सिद्ध करने की जरूरत है। परिर्विधत करने की जरूरत है। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि अहिंसा अहिंसा ही रहे कूटनीतिक अहिंसा में न बदले। अहिंसा स्वयं में सर्व शान्तिमान है। इसको अपनाने वाला स्वयं ही सर्वशक्तिमान हो जाता है। अहिंसक को कमजोर समझने की भूल न करें। दीवान अमरचंद राजा के आदेश पर हिंस के लिए मांस न देकर शाकाहारी भोजन लेकर स्वयं प्रस्तुत ही गये थे। तब सिंह ने मांस नहीं शाकाहार किया था। शिकार के समय दीवान अमरचंद भागते हुए मृगों को यह कहकर रोक लिया था। कि भागते हुए कहाँ जाओगे तुम्हारा रक्षक ही भक्षक हो गया है। यह देखकर राजा भी अहिंसक हो गया था। महात्मा गाँधी ने भी भारत को स्वतंत्र कराने में अहिंसा का उपयोग किया था।
अहिंसा उपयोग ठीक ठीक हो तभी तक अच्छा है उसका कूटनीतिक उपयोग होते हैं जो सारे जीवन को प्रभावित करती है। और परिदृश्य को प्रभावित करती है। अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाना ही अहिंसा है। अहिंसा हमारे व्यवहार का परिवर्तन नहीं अपितु बुनियाद परिवर्तन का अस्तित्व है हमारे हृदय में दिमाग में जीने में आँखों मेंहिंसा के तत्व मौजूद रहेंगे तब तक बाहरी व्यवहार में अहिंसक व्यवहार की अपेक्षा नहीं की जा सकती। आज जरूरत है कि सारा विश्व वीतरागता के आत्मज्ञान के मार्ग का अनुशरण करे ताकि पूरे संसार के मनुष्यों के दिलों में अहिंसा उतर सके। महावीर स्वामी जब आत्मज्ञान को उपलब्ध के अवतरण के पश्चात् ही ऐसे परम शुद्ध भाव अंदर आ पाते हैं। हम अपनी दिनचर्या अपने व्यवहार पर गौर करें तो हम पायेंगे कि सभी छोटी—छोटी हिंसा में शामिल है। किसी हिंसक व्यक्ति को हिंसा के प्रति दो अच्छे शब्द कह दिए कि हमहिंसा में शामिल हो जाते हैं। क्योंकि हमारे अंदरहिंसा के अंश बिखरे पड़े हैं।हिंसा राग—द्वेष रूप भी हो सकती है। हम संयम के मार्ग पर आकर रागद्वेष रूप प्रवृत्ति को, हिंसक होने वाली प्रवृत्तियों पर अंकुश लगा सकते हैं। महावीर स्वामी भगवान होने के साथ गुरू भी हैं जो अंधेरी गुफा में एक अलौकिक लालटेन लेकर मार्गदर्शक बन आगे आगे चल रहे हैं। पर संसारी उनके मार्ग का अनुसरण नहीं कर पा रहे हैं। परन्तु इस पंचमकाल में भी महावीर के पथानुगामी साधकों की कमी नहीं है जो आज उनकी अिंहसा का विधिवत पालन कर रहे हैं।
महावीर ने स्वयं भी कल्पना नहीं की होगी कि वे इस पंचमकाल में भी साधना के केन्द्र बिन्दु होंगे। साधना तब तक सफल नहीं होती है जब तक साधक महावीर की तरह स्व केन्द्रित नहीं होता। स्व केन्द्रित होना ही साधना की अंतिम कड़ी है क्योंकि साधक साधना के माध्यम से ही निराकार होता है। धर्म कभी संघर्ष का कारण नहीं होना चाहिए। आज धर्म ही वर्ग संघर्ष का सामाजिक संघर्ष का कारण बना है। क्योंकि व्यवस्थाओं ने धार्मिक आस्थाओं का जामा पहना दिया है। इसलिए ढाई हजार वर्ष बाद भी महावीर के मार्ग में एक लौ, एक रोशनी नजर आती है। महावीर ने अपने जीवन काल में बेडियों से जकड़ी चंदना से आहार लेकर नारी के उत्थान की नींव रखी। महावीर ने पूर्व से चली आ रही धारणाओं का विकृत सिद्धान्तों का अनुशरण नहीं किया। उन्होंने स्वयं अपने सिद्धान्तों का अनेकांत स्याद्वाद सप्तभंगों, न्याय की कसौटी पर परखा, जांचा विश्लेषित कर लिया फिर समवसरण में वाणी के माध्यम से उपलबध करा दिया। महावीर ने अपने समय में आ रही आर्थिक विषमताओं पर दृष्टि रखकर अपरिग्रह का सिद्धान्त रखा जो आज की परिस्थितियों में प्रासंगिक हो उठा है क्योंकि सबल से सबलतर होते पूंजीपतियों नेताओं द्वारा फैलायें जा रहे विकृति करण तथा मध्यमार्गियों के बीच साम्य विठालने के लिए सबसे युक्तितत उपाय अपरिग्रह प्रस्तुत किया।
परिग्रह को मोक्षमार्ग का प्रबलबाधक तत्व बताकर अपने राज्य वैभव का त्याग किया तब उनका अपरिग्रह का सिद्धान्त आया। महावीर की साधना विशिष्ट शैली के कारण कभी समय सीमाओं में नहीं बधीं, कहीं अंधानुकरण नहीं हुआ। महावीर ने अपनी साधना के दौरान शरीर को प्रयोगशाला बनाकर अपने सिद्धान्तों को जांचा परखा फिर समाज के बीच में रखा। महावीर ने छद्मस्थ अवस्था में कोई वचन प्रवचन नहीं दिया। समवशरण में जो कहा सिद्धान्त बन गया। महावीर के सिद्धान्तों का महावीर का सम्मान इसी में है कि हम बालक के समान उनके सिद्धान्तों की उंगली पकड़कर सतत रूप से आगे बढ़ते चले। अपने भीतर बैठी अनादिकालीनहिंसा की प्रवृत्ति को, रागद्वेष की कालिमा को धोना शुरू कर दें। एक दिन ऐसा आयोगा कि हम अंतरतम की गहराइयों में खोकर शरीर को प्रयोगशाला बनाकर आत्मसाधना में जुटे होंगे।