दया धर्म का मूल है । दया—भाव से विनय गुण का विकास होता है और विनय से ही किसी के व्यक्तिव की शोभा होती या बढ़ती है । सामान्यतया किसी महापुरुष के सामने झुकने को विनय माना जाता है। किन्तु सच्ची विनय तो उनकी आज्ञा का पालन करना है। कोई बेटा अपने बाप के पैर तो रोज दाबे, किन्तु उन्हें वक्त पर न तो भोजन दे और न उनका कहना ही माने तो उसे सपूत नहीं कहा जा सकता । तीर्थंकरों द्वारा बताये मार्ग पर चलना ही वास्तविक विनय है। आज हमारे स्कूल और कालिजों के छात्र रेलों और बसों के शीशे तोड़ रहे हैं, ईट—पत्थर पेंâककर राष्ट्रीय सम्पत्ति को क्षति पहुचाँने तथा धौंस—धमकी से परीक्षा में नकल करने में संलग्न हैं। यह तो हद् दर्जे की अविनय है। विद्या विनयेन शोभते । विनय शून्य आज की हमारी शिक्षा —पद्धति भारतीय मूल्यों का उपहास बन कर रह गई है। इसे बदलना होगा। पैसा, पद, प्रभुता, ज्ञान आदि को पाकर घमण्ड नहीं करना चाहिये। आज उच्च पदों पर बैठे हुए लोग कल्पित बड़प्पन के नशे में चूर हैं। ये अपने सामने दूसरों को तुच्छ समझते हैं तथा दूसरों को पीछे धकेल कर स्वयं आगे बढ़ने में विशवास रखते हैं। इस प्रवृत्ति में बदलाव विनय—गुण या मार्दव धर्म को अपनाने से ही सम्भव है। मृदु परिणामी व्यक्ति कभी किसी का तिरस्कार नहीं करता और यह सृष्टि का नियम है कि यहाँ दूसरों का आदर देने वाला ही स्वयं आदर का पात्र बन सकता है।
महापुरुष जो कहते हैं, वही करते हैं, किन्तु कुटिल पुरुषों की कथनी और करनी में अन्तर होता है। यह मायाचार है। शास्त्रों में इसे त्याज्य बताया गया है। आज सर्वत्र मायाचार या छल—कपट का साम्राज्य है। किसी भी शहर की टूटी—फूटी सड़वें, ठेके पर बनी नई किन्तु जर्जर इमारतें, ऊपरी आमदनी (रिश्वत), खाने—पीने की वस्तुओं में मिलावट, करों की चोरी, दो तरह के बहीखाते आदि हमारे जीवन में घुले—मिले मायाचार के जीते—जागते नमूने हैं। हमारे इस छल—कपट से परिवार समाज और देश में अनाचार—भ्रष्टाचार पनप रहा है । धर्म का क्षेत्र भी मायाचार से अछूता नहीं है। हम मन्दिर में तो अहिंसा, सत्य औरा अपरिग्रह की चर्चा करते हैं किन्तु मन्दिर से बाहर उत्पीडन , असत्य और अन्यायपूर्वक दौलत कमाने के पेâर में पड़े रहते हैं। किसी ने ठीक ही कहा है—
हमारा मन्दिर का धर्म अलग है और बाजार का धर्म अलग, लेकिन ध्यान रहे कि ऐसी दुहरी जिन्दगी जीना धर्म नहीं हो सकता । धर्म तो वहाँ होता है, जहाँ ऋजुता (सरलता) होती है। आर्जव धर्म का अर्थ है— मन, वाणी और कर्म की पवित्रता और यह पवित्रता ही किसी व्यक्ति को महान बनाती है।
क्रोध, मन, माया आदि कषायों या पापों की उत्पत्ति लोभ से होती है। जर, जमीन, और जोरू के लोभ से लड़ाईयाँ तथा जीभ के लोभ (चटोरेपन) से बीमारियाँ होती हैं। दहेज जैसी कुरीतियों अथवा रिश्वत जैसे भ्रष्टाचार के पनपने का कारण भी लोभ ही है। आचार्यों ने इसलिए लोभ को पाप का बाप कहा है। लोभ, तृष्णा, हवस, कामनायें आदि पर्यावाची शब्द हैं । लोगों की इच्छाओं का कभी अन्त नहीं होता । आदमी बूढ़ा हो जाता है, किन्तु तृष्णा कभी बूढ़ी नहीं होती । तृष्णा के पेर में पड़ा हुआ मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकता। गंगा—स्नान आदि से शरीर तो स्वच्छ हो सकता है, किन्तु आत्मा की पवित्रता के लिए तो लोभ का तयाग ही आवश्यक है। लोभ व्यक्तित्व को बौना बना देता है, क्योंकि लोभी व्यक्ति के दया, करुणा, सहानुभूति, संवेदना, आदि गुण मर जाते हैं। जब कहीं कोई दुर्घटना होती है तो कुछ लोग घायलों की सेवा करते हैं किन्तु कुछ लोभी प्रवृत्ति के दुष्ट व्यक्ति माल पार करने के चक्कर में रहते हैं । लोभ छोड़ने से ही आत्मा में उत्तम शौच धर्म प्रकट होता है। वाणी का सदुपयोग करें— धर्म के दस लक्षणों में एक उत्तम सत्य भी है। सत्य का अर्थ है कि जो अजन्मा और अमत्र्य है, उसकी खोज करना। व्यवहार में वाणी के सदुपयोग को सत्य कहते हैं। बोलने की शक्ति का मिलना किसी वरदान से कम नहीं है । यह शक्ति सम्पूर्ण जीव जगत में केवल मनुष्य को प्राप्त है । अपनी वाक् शक्ति के कारण मनुष्य समस्त जीवधारियों में सर्वश्रेष्ठ समझा जाता है। ऐसी दुर्लभ वाणी का सदुपयोग करने वाला ही धर्मात्मा कहला सकता है। हित—मित और प्रिय वचन बोलना ही वाणी का सदुपयोग है। कटु, कर्वश एंव निन्दापरक वचन बाण की तरह होते हैं, जो सुनने वाले के हृदय में घाव कर देते हैं । ‘‘अन्धों के पुत्र अन्धे होते हैं ।’’— द्रोपदी के इन मर्मभेदी वचनों का परिणाम महाभारत के युद्ध के रूप में सामने आया। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि पर—पीड़ाकारक एक शब्द के प्रयोग से भी सारे पुण्य नष्ट हो जाते हैं। सत्य की पहचान शब्दों से नहीं, अभिप्राय से करनी चाहिए। यदि अभिप्राय में खोट न हो तो बोला गया असत्य वचन भी शास्त्रों में सत्य माना गया है, किन्तु ईष्र्या, द्वेष, क्रोध या लोभवश कहे गये शब्द असत्य की कोटि में गिने जाते हैं। हमेशा नम्रतापूर्वक एवं अवसरानुकूल वाणी बोलनी चाहिए। मीठे और कोमल शब्द अमृत के समान तथा कडुए और कठोर शब्द विष तुल्य हैं। संयम जीवन का प्राण है— संयम जीवन का सार तत्व है। जिस तरह मूर्ति के बिना संयम जीवन का प्राण है— संयम जीवन का सार तत्व है। जिस तरह मूर्ति के बिना मन्दिर,सुगन्ध के बिना पुष्प औरपानी के बिना कुए का कोई महत्व नहीं हैं, उसी प्रकार संयम या सदाचार से शून्य जीवन निरर्थक है। संयम जीवन को भार स्वरूप होने से बचाता तथा व्यक्तित्व को परिष्कृत करता है। यह मानव शरीर एक ऐसे रथ की तरह है, जिसमें इन्द्रियों रूपी पांच घोड़े जुते हुए हैं। मन उसका सारथी है। यदि वह संयमित और विरक्त है तो रथ को सही मार्ग पर ले जाता है, अन्यथा विषयासक्त चित्त तो हमेशा कुमार्गगामी ही होता है। जिस प्रकार घोड़े को लगाम के वश में रखा जाता है, उसी प्रकार इन्द्रियों का वश में रखना संयम से ही सम्भव है। बीड़ी सिगरेट, चरस, तम्बाकू भांग,शराब, ड्रग्स आदि व्यसनों का त्याग संयम कहलाता है। जीवों को मारकर उनसे निर्मित होने वाली वस्तुओं जैसे चमड़े के जूते, बेल्ट, सूटकेस आदि अथवा रेशम के वस्त्र आदि का त्याग करना भी संयम है । संयम भोजन पान में भक्ष्य के विवेक पर भी जोर देता है। वह जीवन का अनुशासन है। उसका पालन करते हुए ही जीवन को सुखी, निरापद और शानदार बनाया जा सकता है।
धर्म के दस लक्षणों में एक उत्तम तप भी है। तप का अर्थ है तपाना या तपना। लोहे की टेढ़ी छड़ तपाकर सीधी की जाती है। सोना तपने के बाद ही आभुषण बनता है। ऐसे ही तप के द्वारा आत्मा की वक्रता को विदा किया जाता है। कुरल काव्य में शांतिपूर्वक कष्ट सहने के अभ्यास को तप कहा गया है।आचार्य उमा स्वामी ने इच्छाओं के निरोध को तप बताया है। तपसा निर्जरा च — तप से संवर और निर्जरा दोनों होती हैं। अर्थात् कर्म—भार हल्का होता है। ज्ञान प्राप्ति में कष्ट सहना पड़ता है। कष्ट उठाकर प्राप्त किया हुआ ज्ञान ही प्रमाणिक और स्थायी होता है । सुविधाओं के साथ प्राप्त ज्ञान मुसीबत में काम नहीं आता । साधु उपवास (अन्न के साथ —साथ विषय कषायों का त्याग) करता है, खाना हुआ तो भूख से कम खाना है नीरस आहार लेता है एक आसन से बैठकर प्रायश्चित, स्वाध्याय, ध्यान आदि करता है। यही उसका तप है। तप से आत्मा पवित्र होती है। गृहस्थों को भी एक देश उनका अनुकरण करना चाहिए। तप का प्रयोजन है मन की शुद्धि! मन की शुद्धि के बिना काया को तपाना या क्षीण करना व्यर्थ है। सन्तान, धन, यश, आदि की प्राप्ति के लिए साधु तप नहीं करते । वे तप करते हैं— जन्म—मरण रूप संसार—चक्र से छूटने के लिए। तप से ही आध्यात्म की यात्रा का ओंकार होता है।
दान मनुष्य का आभूषण है। दान देने वालों का स्थान लेने वाले से ऊँचा होता है। बादल यदि जल—दान करना बन्द कर दें तो वह काले पड़ जाते हैं। किन्तु बरसाने पर उनका रंग उज्ज्वल हो जाता है । जल—दान करते रहने से बादलों को ऊपर आकाश में स्थान मिला है, जबकि समुद्र, जो केवल जल का संचय करता है को नीचे रसातल में जगह मिली है। उसका पानी भी खरा हो जाता है। उससे किसी की प्यास नहीं बुझ सकती । स्पष्ट है कि देने का आनन्द से बड़ा है। आचार्यों ने साधुओं के लिये उत्तम त्याग और गृहस्थों के लिए दान को उत्तम कर्म बताया है। त्याग साध्य है और दान साधन । त्याग में अन्तरंग के राग—द्वेष को छोडढ़ने की बात है। तो दान में अप्राप्त भोगों की इच्छा न करने तथा प्राप्त भोगों में शनै:—शनै: विमुख होने का भाव है। दान का महत्व उसकी उपयोगिता में है। एक गरीब आदमी तेल से भरा दीपक रोज अंधेरी गली में रखता था। उसमें अनेक राहगीर ठोकर खाने से बच जाते थे। उसी गांव का एक सेठ घी का दीपक मन्दिर में चढ़ाता था। दोनों मरकर जब स्वर्ग में पहुँचे तो गरीब को बैठने के लिए सेठ से ऊँचा सिंहासन दिया गया । सेठ के अहं को ठेस पहुँची । तब धर्मराज ने उसे समझाया कि यह महत्व की बात नहीं है कि किसने कितना दिया, बल्कि कैसे और किसलिए दिया, महत्व इसका है। धन की तीन गतियाँ हैं— दान, भोग और नाश। बुद्धिमत्ता इसी में है कि नष्ट होने से पहले उसे परोपकार में लगा दिया जाये। उत्तम कार्यों में दिया या लगाया हुआ धन ही सार्थक है, अन्यथा तो उसे अनर्थों की जड़ कहा गया है।
शरीर से भिन्न ज्ञानमयी आत्मा का ध्यान करने से आकुलता कम होती है । यह आत्मा सर्व परिग्रहों से मुक्त है। मिथ्यात्व (खोटी धारणा) और कषाय को अन्तरंग परिग्रह तथा धन—धान्य, सोना—चाँदी, बर्तन—वस्त्रादि को वाह्य परिग्रह कहते हैं। जो इनका आंशिक रूप से भी त्याग करता है, वह प्रतिकूल संयोगों के मिलने पर भी शान्त और संयत रह सकता है। परिग्रह ही दु:ख का मूल कारण है। स्वाधीनता में सुख तथा पराधीनता में दु:ख है। हमने आज तक बाहरी वस्तुओं की प्राप्ति में सुख माना है तथा छल—बल से हम उन्हें जुटाते रहे हैं। इनको पाने में भी मुसीबतें सहनी पड़ती हैं तथा इनके बिछुडनें पर भी घोर मानसिक सन्ताप होता है । जो लोग आनन्द का जीवन जीना चाहते हैं, उन्हें वाह्य पदार्थों के प्रति आसक्ति का त्याग करना चाहिये। समत्व की साधना तभी सम्भव है । तिलतुषमात्र परिग्रह के त्यागी मुनिवृन्द हानि—लाभ, जीवन—मरण, लाभ—अलाभ, यश—अपयश आदि में सदा समभाव रखते हैं । इनके इसी आदर्श का यथाशक्ति अनुकरण करना गृहस्थ का कत्र्तव्य है। ब्रह्यभाव अन्तर लिखो— संसार में सदा से दो धारायें चल रही हैं — एक योग की और दूसरी भोग की। भोग का अर्थ विषय— सेवन है, जो इन्द्रियों के द्वारा पदार्थों के प्रति आसक्ति रूप होता है। योग में आत्मा के निर्विकार स्वरूप की प्राप्ति के लिए चिन्तन किया जाता है। एक योगी ही सच्चा ब्रह्मचारी होता है। ब्रह्मचर्य का वास्तविक अर्थ है अन्तर्यात्रा अर्थात् अपनी ज्ञानरूप आत्मा में लीन होना। व्यवहार में मन की वासना या विकारों को जीतने का नाम ब्रह्मचर्य है। हमारे आचार्यों ने स्त्री—पुरुष के शरीर में राग—रूप परिणाम देखने को अब्रह्म कहा है। अपनी धर्मपत्नी या पति को छोड़कर अन्य सभी स्त्रियों या पुरुषों को माता—बहन या भाई के समान समझना विशेष रूप से नारी जाति का सम्मान करना गृहस्त का ब्रह्मचर्य है। हमारे पुराणों में सीता, द्रोपदी, मनोरमा, अंजना, रयणमंजूषा आदि महासतियों तथा भगवान नेमि, पाश्र्व, महावीर, सुकौशल मुनि, भीष्म पितामह, कुणाल आदि सत्पुरुषों के प्रेरक जीवन प्रसंग मिलते हैं, जिनमें ब्रह्मचर्य पर दृढ़ रहने का उत्साह वृद्धिगत होता है। सादगी, हल्का—सुपाच्य भोजन, वृद्ध—सेवा, सत्संगति और स्वाध्याय से भी ब्रह्मचर्य के पालन में दृढ़ता आती है।
संक्षेप में सार यही है धर्म के दस लक्षण । धर्म तो एक और अखण्ड है, ये दस तो उस तक पहुँचने के रास्ते हैं। कहीं से भी शुरू कीजिए, आप अपनी मंजिल पा जायेगें । इस दशांग धर्म के आचरण से ही आत्मा निर्मल—निर्विकार होता है । व्यवहारिक जीवन की सफलता भी इन्हींके अनुपालन पर निर्भर है। जिसके आचरण में ये उतर जाते हैं वह सुख और आनन्द के वातावरण में विचरण करने लगता है। जो भी इन्हें अपनायोगा, वह अनुपम सुख पायेगा । आईये! हम भी इस धर्म मार्ग पर चलने का संकल्प लें।