श्रमण संस्कृति के अमर गायक आचार्य कुन्दकुन्द का उपदेश है— क्रोधोत्पत्ति के साक्षात् बाह्य कारण मिलने पर भी जो थोड़ा भी क्रोध नहीं करता उसका वह आचरण क्षमायुक्त है। यही है वीर पुरूष का आभूषण । मानव कभी इतना सुंदर नहीं लगता जितना कि उस समय जब वह क्षमा के लिये प्रार्थना कर रहा हो अथवा किसी को क्षमा प्रदान कर रहा हो। आचार्य जिनसेन आदिपुराण में लिखते हैं—क्षमा परलोक विजय का सर्वोत्तम साधन है। तथ्य है मरूभूति का जीव दस—भव तक कमठ के जीव को क्षमा करता रहा। फलत: यह तीर्थंकर पार्श्वनाथ बन मोक्ष को प्राप्त हो गये और वह पापी कमठ उनकी क्षमा शीलता से पाठ सीख, उन्हीं के पूत चरणों में अपने दृष्कृत्यों की क्षमा मांग सम्यग्दर्शन को प्राप्त हो गया। क्षमा के बर्फीले हिमालय ने उसकी प्रज्वलित क्रोधाग्नि को अन्तर्मूहुर्त में बुझा डाला इसीलिए तो नीतिकारों को कहना पड़ा—क्षमा खङ्ग करे यस्य दुर्जन: किं करिष्यति । अतृणे पतितो वन्हि स्वयमेवा पाशाम्यति।।क्षमा रूपी खङ्ग जिसके हाथ में है उसका दुर्जन क्या कर सकता है, क्योंकि तृण रहित क्षिति पर अर्चिष स्वयं ही शांत हो जाती है। वृक्ष अपने काटने वालों को भी छाया देता है। चन्दन स्वयं को काटने वाली कुल्हाड़ी का मुख तो सुरभित करता ही है किन्तु वह जितना घिसा जाता है वह उतना ही घिसने वाले के हाथों और शिला पट्ट को भी सुगंधित करता है ।
उसी प्रकार सज्जन पुरूष अपने स्वभाव में रहते हुए अपकारी को भी आनन्द देते हैं। यह तो जग जाहिर है कि जो प्रतिकूल परिस्थितियों में अपनी क्षमा जीवन्त रखता है दुनिया उसके चरण चूम लेती है और उठा लेती है पलकों पर। इतिहास भी उसे यश रूपी देह देकर चिरकाल के लिये अमर कर जीवन्त रखता है। स्वस्थ विचारों के गर्भ से ही क्षमा का अंकुर फूटता है। चिंतन की विशालता रूपी आंगन में वह पनपता है। शास्त्रों की विनाशक स्पर्धा से अधिक भयंकर है क्रोध की कणिका। जब तक भीतरी शल्य चिकित्सा नहीं होगी तब तक बाहरी चीर—फाड़ आदि अन्य उपचारों से कार्य सिद्धि कदापि संभव नहीं है। सच्चे अर्थों में वस्तुत: क्षमावन्त वही है जिसके आचरण का प्रतिबिम्ब दूसरों पर पड़ता हो। क्रोध तूफान है और वह अपने साथ सम्यक् विचारों को उड़ा ले जाता है। क्रोध दावानल है जो गुणों से लदे धर्म पादप को दग्ध कर देता है किन्तु क्षमा ऐसा पयोधर है जो तूफानों को शान्त कर विदग्ध होते हुये धर्म तरु की सुरक्षा करता है। क्षमाशीलता, समता, सरलता हमारी मंजिल है। जहाँ इनका अस्तित्व होगा वहां त्वदीय —मदीय का अस्तित्व अस्त हो जायेगा। जैसे आदमी की पहचान नर विज्ञ को, हीरे की पहचान जौहरी को और स्वर्ण की पहचान स्वर्णकार को होती है वैसे ही ‘मैं क्रोधी हूँ या क्षमावान’ इसकी पहचान स्वयं को स्र्वप्रथम अन्तरात्मा से हो ही जाती है। जैसे अन्तरवर्ती सप्त धातुओं का सुरक्षा कवच त्वक् (त्वचा) है , वैसे ही आत्मा के सम्यग्दर्शन—ज्ञान, आचरण—आराधन, जप—तप, सुख—शान्ति का आधार एवं सुरक्षा कवच क्षमा धर्म ही है। क्रोध की तासीर तामसिक है और क्षमा की सात्विक। इतिहास साक्ष्य है कि तामसिक वृत्ति पर सात्विकत्ता ने सतत विजय पाई है। जो आपकी मंजिल है, आपका अभीष्ट है उसे ही अपना मत/ वोट देकर क्यों न विजयी बनाया जाये। जिसके हाथ में क्षमा का धनुष है निश्चित विजय उसी की है, क्षमा ही मनुष्य को क्षमा का पात्र बनाती है। क्षमाशील ही स्वर्ग का अधिकारी होता है।जिसने अपने जीवन में क्षमा धर्म को धारा है उसके लिये तो सहज खुल गया मोक्ष पुरी का द्वारा है।