‘‘प्रस्तर में इतना सौन्दर्य समा सकता है, प्राण प्राण पुलकित हों पत्थर भी ऐसा क्या गा सकता है ?
’’मिश्रीलाल जैन ‘‘गोम्मटेश्वर (राहुल प्रकाशन, गुना, म. प्र.) पृष्ठ।
बाहुबली के कामदेव जैसे सुन्दर रूप तथा सर्व—परिग्रह रहित कठोर तपस्या का बड़ा र्मािमक चित्रण कवि ने प्रस्तुत किया है।‘‘कामदेव सा रूप साधना वीतराग की दो विरुद्ध आयाम एक तट पर ठहरे हैं।’’
मिश्रीलाल जैन ‘‘गोम्मटेश्वर (राहुल प्रकाशन, गुना, म. प्र.) पृष्ठ।
प्रतिमा उत्तरमुखी है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि बाहुबली की ये मूर्ति आंतरिक चक्षुओं से अपने पिता और तीर्थंकर, आदि ब्रह्मा, महादेव शिवशंकर भगवान् ऋषभदेव की निर्वाण स्थली कैलाश पर्वत की ओर निहार रही हो। संसार के प्रतिष्ठित इतिहासविदों पुरातत्त्ववेत्ताओं, विद्वानों, कलाकारों व कलामर्मज्ञों सभी ने, जिन्हें भी मूर्ति के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ, एक ही स्वर से मूर्ति के अद्वितीय होने की अनुशंसा की है। कुछ विद्वानों के विचार नीचे दिये जा रहे हैं। It is the biggest monolithic statue in the world-larger than any of the statues of Rameses in Egypt—–.”M. H. Krishna, “Jain Antiquary”, v, 4, pg. 103 अर्थात् एक ही पाषाण खंड से बना यह संसार का सबसे विशाल बिम्ब है जो मिश्र की रेमेसिज की मूर्तियों से भी बड़ा है। एच. जिमर का मत है : “It is human in shape and feature, yet as inhuman as an icicle, and thus expresses perfecrly the idea of successful withdrawal from the round of life and death, personal, cares, individual destiny, desires, sufferings and events…..like a pillar of some superterrstirial unearthly substance…..stands superbly motionless..”H. Zimmer, “Philosophies of India.” अर्थात् यह मूर्ति आकृति और नाक—नक्श में मानवीय है और अधर में लटकती हिमशिला की भाँति मानवेत्तर है। जन्म मरण के चक्र, जीवन की नियति, चिन्ताओं, कामनाओं, पीड़ाओं, घटनाओं से पूर्णतया मुक्त—भावों को संपूर्णता के साथ अभिव्यक्त करती है। अर्पािथव और अलौकिक स्तम्भ की तरह अचल और अडिग खड़ी है।बाहु तस्य महाबाहोरधातां बलर्मिजतम्।
यतो बाहुबलीत्यासीत् नामास्य महसां निधे:।।
लम्बी भुजा वाले तेजस्वी उन बाहुबली की दोनों भुजाएँ उत्कृष्ट बल को धारण करती थीं। इसीलिए उनका ‘बाहुबली’ नाम सार्थक था। अत्यन्त पराक्रमी होने के कारण ‘भुजबली’, ‘दोरबली’, एवं सुनन्दा से उत्पन्न होने के कारण वे ‘सौनन्दी’, नाम से भी जाने जाते थे। वे वीर और उदार हृदय थे। अधिक की उन्हें लालसा नहीं थी। राज्यों पर विजय प्राप्त करने की उनकी महत्त्वाकांक्षा नहीं थी। वे विशिष्ट संयमी थे। शरणागत की रक्षा के लिए, अन्याय के प्रतिकार के लिए ही अग्रज भरत के प्रति असीम आदर रखते हुए भी उन्होंने उनके शत्रु बङ्काबाहू को अपने यहाँ शरण दी थी। अपने पिता द्वारा दिए राज्य से वे संतुष्ट थे। भरत ने िंसहासनरूढ़ होकर दिग्विजय की दुन्दुभि बजा दी और चक्रवर्ती सम्राट का विरद प्राप्त किया। सभी राजाओं ने उनकी आधीनता स्वीकार कर ली। उनके स्वतन्त्रता प्रेमी भाईयों ने संन्यास धारण कर लिया। किन्तु जब वे दिग्विजय से लौटे तो उनके चक्ररत्न ने आयुधशाला में प्रवेश नहीं किया। कारण खोजने पर पता लगा कि उनके अनुज बाहुबली ने उनका स्वामित्व स्वीकार नहीं किया था। दूत भेजा गया। बाहुबली ने स्पष्ट किया कि भाई के रूप में वे बड़े भाई भरत के समक्ष शीश झुकाने को सदैव तत्पर हैं किन्तु राजा के रूप में वे स्वतंत्र शासक हैं, उनका शीष किसी राजा के समक्ष नहीं झुक सकता। यह एक राजा को अपने सम्मान, अपनी स्वतन्त्रता, न्याय के पक्ष तथा विस्तारवादी नीति के विरुद्ध चुनौती थी। परिणाम स्वरूप युद्ध की घोषणा हुई। सेनायें आमने—सामने आ डटीं। ‘पउमचरिउ’‘पउमचरिय’’, ४. ४३ तथा ‘आवश्यक चूर्णी के अनुसार बाहुबली ने स्वयं ये प्रस्ताव रखा कि युद्ध में सेनाओं की व्यर्थ की बर्बादी को रोका जाए और दोनों भाई द्वन्द के द्वारा जय पराजय का निर्णय करें। यह एक अहिंसक निर्णय था। बाहुबली युद्ध की विभीषिका से परिचित थे। सेनाओं की उनके कारण व्यर्थ क्षति हो, ऐसा वे नहीं चाहते थे। ऋषभ की संतानों की परम्परा हिंसा की नहीं थी। भरत ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। तीन प्रकार की प्रतियोगिताएँ निश्चित की गर्इं—दृष्टि युद्ध, मल्ल युद्ध और जल युद्ध।‘आवश्यक चूर्णी, पृ. २१० ‘पउमचरिउ’ में केवल दो—दृष्टि युद्ध और मुष्टि युद्ध (मल्ल युद्ध) का ही उल्लेख है। अन्य एक ग्रंथ में ‘वाक—युद्ध’ और दन्ड युद्ध’ को मिलाकर पाँच प्रकार के युद्धों का समावेश वर्णन किया।‘महापुराण’, ३-३४, २०४ निष्कर्ष है कि जय पराजय का निर्णय दोनों भाईयों के बीच हुआ जिसमें सेनाओं ने भाग नहीं लिया। इन सभी युद्धों में बाहुबली विजयी रहे। अपमानित होकर क्रोध के वशीभूत भरत ने बाहुबली पर अमोध चक्र से प्रहार किया।‘आवश्यक भाष्य’, गाथा ३२ किवंदती है कि चक्र ने भाई को क्षति नहीं पहुँचाई। वह बाहुबली की तीन प्रदक्षिणा कर वापस लौट आया। घटना किसी भी प्रकार घटी हो, निष्कर्ष यही निकलता है कि बाहुबली चक्र के प्रहार से बच गए जिससे भरत को और भी अधिक अपमान महसूस हुआ।