उत्तम क्षमा की अमिथ धार से, क्रोध ताप मिट जाता है, तब क्रोध विभाव विलीन हुआ, शुद्धात्म कमल खिल जाता है। इस कोप कषाय की अग्नि से, द्वीपायन मुनि तप तेज गया, द्वारिका संग जन—धन नाशे, इहलोक और परलोक गया। संयम—तप क्षमा की ज्योति है, ज्योतिर्मय वृषभव तारा है, मानव विभाव वस दीन—हीन, सुख—शान्ति नशे, भवकारा है। संजीवनी यह अमरत्व की है, क्षमा शील मनुज ही सजता है, मरुभूति से पारसनाथ बना, अरिहन्त जिनेश्वर पुजता है। जग वीर—धीर शुद्धात्म वही, जो क्रोध कालिमा धोता है, वरना वैरी भाई—भाई, पितु—मात—तात सब खोता है। स्व घात क्रोध आवेश में हो, हत्या उत्पीड़न होता है, हर पाप देखलो दुनियां के, क्रोधान्ध हुये पे होता है। क्रोधी की काया काँपती है, नेत्रों में खून उतरता है, बदला लेने की इच्छा में, जीते जी स्वयं ही मरता है। है क्रोध हलाहल विष जैसा, स्व—पर जीवन ले लेता है, एक जन्म नहीं यह जन्म—जन्म को, वैर बीज बो लेता है। पत्थर की लीक मिटे न मिटे, पर वैर विषाद न मिटता है, यह क्रोध अनन्त अनुबन्ध लिये, अगणित भवपाप में पलता है। उद्यागत क्रोध द्रव्य पुद्गल, इसे स्व से दूर भगाना है, निज आतम में स्थिर होकर, क्षमशील सु समता लाना है। यदि उभय लोक सुख—शान्ति चहो, ‘क्षमा’ चिन्तामणि उर रखना है, जग जीव न कोई वैरी है, मैत्री सुख समता रखना है। नर जीवन का पुरुषार्थ यही, आभूषित क्षमा से रहना है, है पहली सीढ़ी शिव गृह की, बिन क्षमा कदम नहि रखना है। मन ‘विमल’ बना हो क्षमा शील, स्व सौख्य ‘क्षमा’ से लेना है, शिव रूप स्वयं की आत्म बने, अतएव ‘क्षमा’ वृक्ष सेना है। वीरस्याभूषण क्षमा श्रेष्ठ, सम्यक विधि स्वयं उतरना है, जिन वृष संस्कृति का मूलमंत्र, वस ‘उत्तम क्षमा’ में रहना है।